+ राजा चेटक, चेलना, जीवन्धर चरित -
पर्व - 75

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर-किसी दूसरे दिन समस्‍त भव्‍य जीवों को प्रसन्‍न करनेवाले और प्रकट तेजके धारक गौतम गणधर विपुलाचंलपर विराजमान थे । उनके समीप जाकर राजा श्रेणिकने समस्‍त आर्यिकाओंकी स्‍वामिनी चन्‍दना नाम की आर्यिकाकी इस अजन्‍मसम्‍बन्‍धी कथा पूछी सो अनेक बड़ी बड़ी ऋद्धियोंको धारण करने वाले गणधर देव इस प्रकार कहने लगे ॥1–2॥

सिन्‍धु नामक देश की वैशाली नगरी में चेटक नाम का अतिशय प्रसिद्ध, विनीत और जिनेन्‍द्र देवका अतिशय भक्‍त राजा था । उसकी रानीका नाम सुभद्रा था । उन दोनोंके दश पुत्र हुए जो कि धनदत्‍त, धनभद्र, उपेन्‍द्र, सुदत्‍त, सिंहभद्र, सुकुम्‍भोज, अकम्‍पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास नाम से प्रसिद्ध थे तथा उत्‍तम क्षमा आदि दश धर्मोंके समान जान पड़ते थे ॥3–5॥

इन पुत्रों के सिवाय सात ऋद्धियोंके समान सात पुत्रियां भी थीं । जिनमें सबसे बड़ी प्रियकारिणी थी, उससे छोटी मृगावती, उससे छोटी, सुप्रभा, उससे छोटी प्रभावती, उससे छोटी चेलिनी, उससे छोटी ज्‍येष्‍ठा और सबसे छोटी चन्‍दना थी । विदेह देशके कुण्‍डनगर में नाथ वंशके शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्‍पन्‍न राजा सिद्धार्थ राज्‍य करते थे । पुण्‍य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्‍हींकी स्‍त्री हुई थी ॥6– 8॥

वत्‍सदेश की कौशाम्‍बीनगरी में चन्‍द्रवंशी राजा शतानीक रहते थे । मृगावती नाम की दूसरी पुत्री उनकी स्‍त्री हुई थी ॥9॥

दशार्ण देशके हेमकच्‍छ नामक नगर के स्‍वामी राजा दशरथ थे जो कि सूर्यवंश रूपी आकाशके चन्‍द्रमा के समान जान पड़ते थे । सूर्यकी निर्मलप्रभाके समान सुप्रभा नाम की तीसरी पुत्री उनकी रानी हुई थी, कच्‍छदेश की रोरूका नामक नगरी में उदयन नाम का एक बड़ा राजा था । प्रभावती नाम की चौथी पुत्री उसीकी ह्णदयवल्‍लभा हुई थी । अच्‍छी तरह शीलव्रत धारण करनेसे इसका दूसरा नाम शीलवती भी प्रसिद्ध हो गया था ॥10–12॥

गान्‍धार देशके महीपुर नगर में राजा सत्‍यक रहता था । उसने राजा चेटकसे उसकी ज्‍येष्‍ठा नाम की पुत्रीकी याचना की परन्‍तु राजा ने नहीं दी इससे उस दुर्बुद्धि मूर्खने कुपित होकर रणांगणमें युद्ध किया परन्‍तु युद्धमें वह हार गया जिससे मानभंग होनेसे लज्जित होने के कारण उसने शीघ्रही दमवर नामक मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥13–14॥

तदन्‍नतर महाराज चेटकने स्‍नेहके कारण सदा देखनेके लिए पट्टकपर अपनी सातों पुत्रियोंके उत्‍तर चित्र बनवाये । चेलिनीके चित्रमें जाँघपर एक छोटा-सा बिन्‍दु पड़ा हुआ था उसे देखकर राजा चेटक बनानेवालेपर बहुत कुपित हुए । चित्रकारने नम्रतासे उत्‍तर दिया कि हे पूज्‍य ! चित्र बनाते समय यहाँ बिन्‍दु पड़ गया था मैंने उसे यद्यपि दो तीन बार साफ किया परन्‍तु वह फिर-फिरकर पड़ता जाता था इसलिए मैंने अनुमानसे विचार किया कि यहाँ ऐसा चिह्न होगा ही । यह मानकर ही मैंने फिर उसे साफ नहीं किया है । चित्रकारकी बात सुनकर महाराज प्रसन्‍न हुए ॥15–18॥

राजा चेटक देव-पूजा के समय जिन-प्रतिमाके समीप ही अपनी पुत्रियोंका चित्रपट फैलाकर सदा पूजा किया करते थे ॥19॥

किसी एक समय राजा चेटक अपनी सेना के साथ मगध देशके राजगृह नगर में गये वहाँ उन्‍होंने नगर के बाह्य उपवन में डेरा दिया । स्‍नान करने के बाद उन्‍होंने पहले जिन-प्रतिमाओंकी पूजा की और उसके बाद समीपमें रखे हुए चित्रपटकी पूजा की । यह देखकर तूने समीपवर्ती लोगोंसे पूछा कि यह क्‍या है ? तब उन लोगोंने कहा कि हे राजन् ! ये राजाकी सातों पुत्रियोंके चित्रपट हैं इनमेंसे चार पुत्रियाँ तो विवाहित हो चुकी हैं परन्‍तु तीन अविवाहित हैं उन्‍हें यह अभी दे नहीं रहा है । इन तीनमें दो तो यौवनवती हैं और छोटी अभी बालिका हैं ! लोगों के उक्‍त वचन सुनकर तूने अपने मन्त्रियोंको बतलाया कि मेरा चित्‍त इन दोनों पुत्रियोंमें अनुरक्‍त हो रहा है । मन्‍त्री लोग भी इस कार्यको ले कर अभयकुमार के पास जाकर बोले कि तुम्‍हारे पिता चेटक राजाकी दो पुत्रियोंमें अनुरक्‍त हैं उन्‍होंने वे पुत्रियाँ माँगी भी हैं परन्‍तु अवस्‍था ढल जानेके कारण वह देता नहीं है ॥20–25॥

यह कार्य अवश्‍य करना है इसलिए कोई उपाय बतलाइये । मन्त्रियोंके वचन सुनकर उस कार्यके उपाय जानने में चतुर अभयकुमार ने कहा कि आप लोग चुप बैठिये, मैं इस कार्यको सिद्ध करता हूँ । इस प्रकार संतुष्‍ट कर अभयकुमार ने मन्त्रियोंको बिदा किया और स्‍वयं एक पटियेपर राजा श्रेणिकका विलास पूर्ण चित्र बनाया । उसे वस्‍त्रसे ढककर बड़े यत्र से ले गया । राजा के समीपवर्ती लोगों को घूस दे कर उसने अपने वश कर लिया और स्‍वयं वोद्रक नाम का व्‍यापारी बनकर राजा चेटकके घर में प्रवेश किया । वहाँ वे दोनों कन्‍याएं वोद्रकके हाथमें स्थित पटियेपर लिखा हुआ आपका रूप देखकर आपमें प्रेम करने लगीं । कुमार ने एक सुरंगका मार्ग पहलेसे ही तैयार करवा लिया था अत: वे कन्‍याएं बड़े साहसके साथ उस मार्गसे चल पड़ी । चेलिनी कुटिल थी इसलिए कुछ दूर जानेके बाद ज्‍येष्‍ठासे बोली कि मैं आभूषण भूल आई हूँ तू जाकर उन्‍हें ले आ । यह कहकर उसने ज्‍येष्‍ठाको तो वापिस भेज दिया और स्‍वयं अभयकुमार के साथ आ गई ॥26-31॥

जब ज्‍येष्‍ठा आभूषण ले कर लौटी तो वहाँ चेलनी तथा अभयकुमार को न पाकर बहुत दु:खी हुई और कहने लगी कि चेलिनीने मुझे इस तरह ठगा है । अन्‍त में उसने अपनी मामी यशस्‍वती नाम की आर्यिकाके पास जाकर जैन धर्म का उपदेश सुना और संसार से विरक्‍त हो कर पापोंका नाश करने वाली दीक्षा धारण कर ली ॥32-33॥

आपने भी बड़ी प्रीतिसे विधिपूर्वक चेलनाके साथ विवाह कर उसे महादेवीका पट्ट बाँधा जिससे वह बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुई ॥34॥

इधर उत्‍तम व्रत धारण करने वाली चन्‍दनाने स्‍वयं यशस्‍वती आर्यिकाके समीप जाकर सम्‍यग्‍दर्शन और श्रावकोंके व्रत ग्रहण कर लिये ॥35॥

किसी एक समय वह चन्‍दना अपने परिवारके लोगों के साथ अशोक नामक वन में क्रीड़ा कर रही थी । उसी समय दैवयोगसे विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीके सुवर्णाभ नगरका राजा मनोवेग विद्याधर अपनी मनोवेगा रानी के साथ स्‍वच्‍छन्‍द क्रीडा करता हुआ वहाँ से निकला और क्रीड़ा करती हुई चन्‍दना को देखकर कामके द्वारा छोड़ हुए बाणोंसे जर्जरशरीर हो गया । वह शीघ्र ही अपनी स्‍त्रीको घर भेजकर रूपिणी विद्यासे अपना दूसरा रूप बनाकर सिंहासनपर बैठा आया और अशोक वन में आकर तथा चन्‍दना को लेकर शीघ्र ही वापिस चला गया । उधर मनोवेगा उसकी मायाको जान गई जिससे क्रोधके कारण उसके नेत्र लाल हो कर भयंकर दिखने लगे । उसने उस विद्या देवताको बायें पैरकी ठोकर देकर मार दिया जिससे वह अट्टहास करती हुई सिंहासनसे उसी समय चली गई ॥36-41॥

तदनन्‍तर वह मनोवेगा रानी आलोकिनी नाम की विद्यासे अपने पतिकी सब चेष्‍टा जानकर उसके पीछे दौड़ी और आधे मार्ग में चन्‍दना सहित लौटते हुए पतिको देखकर बोली कि यदि अपना जीवन चाहते हो तो इसे छोड़ दो । इस प्रकार क्रोधसे उसने उसे बहुत ही डाँटा । मनोवेग अपनी स्‍त्रीसे बहुत ही डर गया । इसलिए उसने ह्णदय में बहुत ही शोककर सिद्ध की हुई पर्णलध्‍वी नाम की विद्यासे उस चन्‍दनाको भूतरमण नामक वन में ऐरावती नदी के दाहिने किनारेपर छोड़ दिया ॥42-44॥

पंच नमस्‍कार मन्‍त्रका जप करने में तत्‍पर रहने वाली चन्‍दनाने वह रात्रि बड़े कष्‍टसे बिताई । प्रात:काल जब सूर्य का उदय हुआ तब भाग्‍यवश एक कालक नाम का भील वहाँ स्‍वयं आ पहुँचा । चन्‍दना ने उसे अपने बहुमूल्‍य देदीप्‍यमान आभूषण दिये और धर्म का उपदेश भी दिया जिससे वह भील बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ । वहीं कहीं भीमकूट नामक पर्वत के पास रहनेवाला एक सिंह नाम का भीलों का राजा था, जो कि भयंकर नामक पल्‍लीका स्‍वामी था । उस कालक नामक भीलने वह चन्‍दना उसी सिंह राजा को सौंप दी । सिंह पापी था अत: चन्‍दनाको देखकर उसका ह्णदय काम से मोहित हो गया ॥45-48॥

वह क्रूर ग्रहके समान निग्रह कर उसे अपने आधीन करने के लिए उद्यत हुआ । यह देख उसकी माताने उसे समझाया कि हे पुत्र ! तू ऐसा मत कर, यह प्रत्‍यक्ष देवता है, यदि कुपित हो गई तो कितने ही संताप, शाप और दु:ख देने वाली होगी । इस प्रकार माताके कहनेसे डरकर उसने स्‍वयं दुष्‍ट होने पर भी वह चन्‍दना छोड़ दी ॥49-50॥

तदनन्‍तर चन्‍दनाने उस भीलकी माताके साथ निश्चिन्‍त होकर कुछ काल वहीं पर व्‍यतीत किया । वहाँ भीलकी माता उसका अच्‍छी तरह भरण - पोषण करती थी ॥51॥

अथानन्‍तर - वत्‍स देशके कौशाम्‍बी नामक श्रेष्‍ठ नगर में एक वृषभसेन नाम का सेठ रहता था । उसके मित्रवीर नाम का एक कर्मचारी था जो कि उस भीलराज का मित्र था । भीलोंके राजा ने वह चन्‍दना उस मित्रवीरके लिए दे दी और मित्रवीरने भी बहुत भारी धनके साथ भक्तिपूर्वक वह चन्‍दना अपने सेठ के लिए सौंप दी । किसी एक दिन वह चन्‍दना उस सेठके लिए जल पिला रही थी उस समय उसके केशोंका कलाप छूट गया था और जलसे भीगा हुआ पृथिवीपर लटक रहा था उसे वह बड़े यत्‍नसे एक हाथसे संभाल रही थी ॥52-55॥

सेठकी स्‍त्री भद्रा नामक सेठानीने जब चन्‍दनाका वह रूप देखा तो वह शंकासे भर गई । उसने मन में समझा कि हमारे पतिका इसके साथ सम्‍पर्क है । ऐसा मानकर वह बहुत ही कुपित हुई । क्रोध के कारण उसके ओंठ काँपने लगे । उस दुष्‍टाने चन्‍दनाको साँकलसे बाँध दिया तथा खराब भोजन और ताड़न मारण आदिके द्वारा वह उसे निरन्‍तर कष्‍ट पहुँचाने लगी । परन्‍तु चन्‍दना यही विचार करती थी कि यह सब मेरे द्वारा किये हुए पाप - कर्म का फल है यह वेचारी सेठानी क्‍या कर सकती है ? ऐसा विचारकर वह निरन्‍तर आत्‍मनिन्‍दा करती रहती थी । उसने यह सब समाचार अपनी बड़ी बहिन मृगावतीके लिए भी कहलाकर नहीं भेजे थे ॥56-59॥

तदनन्‍तर किसी दूसरे दिन भगवान् महावीर स्‍वामीने आहारके लिए उसी नगरी में प्रवेश किया । उन्‍हें देख चन्‍दना बड़ी भक्ति से आगे बढ़ी । आते बढ़ते ही उसकी साँकल टूट गई और आभरणोंसे उसका सब शरीर सुन्‍दर दिखने लगा । उन्‍हींके भार से मानो उसने झुककर शिरसे पृथिवी तलका स्‍पर्श किया, उन्‍हें नमस्‍कार किया और विधिपूर्वक पूछगाह कर उन्‍हें भोजन कराया । इस आहार दानके प्रभाव से वह मानिनी बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुई, देवों ने उसका सम्‍मान किया, रत्‍नधारा की वृष्टि की, सुगन्धित फूल बरसाये, देव-दुन्‍दुभियोंका शब्‍द हुआ और दानकी स्‍तुतिकी घोषणा होने लगी सो ठीक ही है क्‍योंकि उत्‍कृष्‍ट पुण्‍य अपने बड़े भारी फल तत्‍काल ही फलते हैं ॥60-63॥

तदनन्‍तर चन्‍दनाकी बड़ी बहिन मृगावती यह समाचार जानकर उसी समय अपने पुत्र उदयनके साथ उसके समीप आई और स्‍नेहसे उसका आलिंगन कर पिछला समाचार पूछने लगी तथा सब पिछला समाचार सुनकर बहुत ही व्‍याकुल हुई । तदनन्‍तर रानी मृगावती उसे अपने घर ले जाकर सुखी हुई । यह देख भद्रा सेठानी और वृषभसेन सेठ दोनों ही भय से घबड़ाये और मृगावतीके चरणों की शरणमें आये । दयालु रानीने उन दोनोंसे चन्‍दनाके चरण - कमलोंमें प्रणाम कराया ॥64-66॥

चन्‍दनाके क्षमाकर देनेपर वे दोनों बहुत ही प्रसन्‍न हुए और कहने लगे कि यह मानो मूर्तिमती क्षमा ही है । इस समाचारके सुनने से उत्‍पन्‍न हुए स्‍नेहके कारण चन्‍दनाके भाई - बन्‍धु भी उसके पास आ गये । उसी नगर में सबलोग महावीर स्‍वामी की वन्‍दनाके लिए गये थे, चन्‍दना भी गई थी, वहाँ वैराग्‍य उत्‍पन्‍न होनेसे उसने अपने सब भाई - बन्‍धुओं को छोड़कर दीक्षा धारण कर ली और तपश्‍चरण तथा सम्‍यग्‍ज्ञानके माहात्‍म्‍यसे उसने उसी समय गणिनीका पद प्राप्‍त कर लिया । इस प्रकार चन्‍दना वर्तमानके भवकी बात सुनकर राजा चेटकने फिर प्रश्‍न किया कि चन्‍दना पूर्व जन्‍ममें ऐसा कौन - सा कार्य करके यहाँ आई है । इसके उत्‍तरमें गणधर भगवान् कहने लगे । इसी मगध देशमें एक वत्‍सा नाम की विशाल नगरी है । राजा प्रसेनि‍क उसमें राज्‍य करता था । उसी नगरी में एक अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी दो स्त्रियाँ थीं एक ब्राह्मणी और दूसरी वैश्‍यकी पुत्री । ब्राह्मणीके शिवभूति नाम का पुत्र हुआ और वैश्‍य पुत्रीके चित्रसेना नाम की लड़की उत्‍पन्‍न हुई ॥67-72॥

शिवभूतिकी स्‍त्री का नाम सोमिला था जो कि सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री थी और उसी नगर में एक देवशर्मा नाम का ब्राह्मण - पुत्र था उसे चित्रसेना व्‍याही गई थी ॥73॥

कितने ही दिन बाद जब अग्निभूति ब्राह्मण मर गया तब उसके स्‍थानपर उसका पुत्र शिवभूति ब्राह्मण अधिरूढ हुआ । इधर चित्रसेना विधवा हो गई इसलिए अपने पुत्रों के साथ शिवभूतिके घर आकर रहने लगी सो ठीक ही है क्‍योंकि कर्मोंकी गति बड़ी टेढ़ी है । शिवभूति, अपनी बहिन चित्रसेना और उसके पुत्रोंका जो भरण - पोषण करता था वह पापिनी सोमिलाको सह्य नहीं हुआ इसलिए शिवभूतिने उसे ताड़ना दी तब उसने क्रोधित होकर मिथ्‍या दोष लगाया कि यह मेरा भर्ता चित्रसेना के साथ जीवित रहता है अर्था‍त् इसका उसके साथ अनुराग है । यहाँ आचार्य कहते हैं कि स्त्रियोंको कोई भी कार्य अकार्य नहीं है अर्थात् वे बुरासे बुरा कार्य कर सकती हैं इसलिए इन स्त्रियों को बार - बार धिक्‍कार हो । चित्रसेनाने भी क्रोधमें आकर निदान किया कि इसने मुझे मिथ्‍या दोष लगाया है । इसलिए मैं मरनेके बाद इसका निग्रह करूंगी - बदला लूँगी । तदनन्‍तर किसी एक दिन सोमिलाने शिवगुप्‍त नामक मुनिराज को पड़गाहकर आहार दिया जिससे शिवभूतिने सोमिलाके प्रति बहुत ही क्रोध प्रकट किया परन्‍तु उन मुनिराजका माहात्‍म्‍य कह कर सोमिलाने शिवभूतिको प्रसन्‍न कर लिया और उसनेभी उस दानकी अच्‍छी तरह अनुमोदना की । समय पाकर वह शिवभूति मरा और अत्‍यन्‍त रमणीय वंग देशके कान्‍तपुर नगर में वहाँके राजा सुवर्णवर्मा तथा रानी विद्युल्‍लेखाके महाबल नाम का पुत्र हुआ ॥74-81॥

इसी भरतक्षेत्रके अंग देश की चम्‍पा नगरी में राजा श्रीषेण राज्‍य करते थे । इनकी रानीका नाम धनश्री था, यह धनश्री कान्‍तपुर नगर के राजा सुवर्णवर्माकी बहिन थी । सोमिला उन दोनोंके कनकलता नाम की पुत्री हुई । जब यह उत्‍पन्‍न हुई थी तभी इसके माता - पिताने बड़े हर्ष से अपने आप यह निश्‍चय कर लिया था कि यह पुत्री महाबल कुमार के लिए देनी चाहिये और उसके माता - पिताने भी यह स्‍वीकृत कर लिया था । महाबलका लालन - पालन भी इसी चम्‍पा नगरी में मामाके घर बालिका कनकलताके साथ होता था । जब वह क्रम से वृद्धि को प्राप्‍त हुआ और यौवनका समय निकट आ गया तब मामाने कहा कि जबतक तुम्‍हारे विवाहका समय आता है तबतक तुम यहाँ से पृथक् रहो । मामाके यह कहनेसे महाबल यद्यपि बाहर रहने लगा तो भी वह कन्‍यामें सदा आसक्‍त रहता था । वे दोनों ही काम की अवस्‍था को सह नहीं सके इसलिए उन दोनोंका समागम हो गया ॥82-86॥

इस कार्यसे वे दोनों स्‍वयं ही लज्जित हुए और कान्‍तपुर नगरको चले गये । उन्‍हें देख, महाबल के माता - पिताने बड़े शोक से कहा कि चूंकि तुम दोनों विरूद्ध आचरण करने वाले हो अत: हम लोगों को अच्‍छे नहीं लगते । अब तुम किसी दूसरे देशमें चले जाओ यहाँ मत रहो । माता - पिता के ऐसा कहने पर वे उसी समय वहाँ से चले गये और प्रत्‍यन्‍तनगर में जाकर रहने लगे । किसी एक दिन वे दोनों उद्यानमें विहार कर रहे थे कि उनकी दृष्टि मुनिगुप्‍त नामक मुनिराजपर पड़ी । वे मुनिराज‍ भिक्षाकी तलाशमें थे । महाबल और कनकलताने भक्तिपूर्वक उनके दर्शन किये, उठकर प्रदक्षिणा दी, नमस्‍कार किया और विधिपूर्वक पूजा की । तदनन्‍तर उन दोनोंने अपने उपयोगके लिए तैयार किये हुए लड्डू आदि मिष्‍ट खाद्य पदार्थ, हर्ष पूर्वक उन मुनिराज के लिए दिये जिससे उन्‍होंने जिनेन्‍द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ इच्छित नव प्रकार का पुण्‍य संचित किया । किसी एक दिन महाबल कुमार मधुमास चैत्रमासमें वन में घूम रहा था वहाँ एक विषैले साँपने उसे काट खाया जिससे वह शीघ्र ही मर गया । पतिको शरीर मात्र (मृत) देखकर उसकी स्‍त्री कनकलताने उसीकी तलवारसे आत्‍मघात कर लिया मानो उसे खोजने के लिए उसीकी पीछे ही चल पड़ी हो । आचार्य कहते हैं कि जो स्‍नेह अन्तिम सीमाको प्राप्‍त हो जाता है उसकी ऐसी ही दशा होती है ॥87-94॥

इसी भरत क्षेत्रके अवन्ति देशमें एक उज्‍जयिनी नाम का नगर है । प्रजापति महाराज उसका अनायास ही पालन करते थे ॥95॥

उसी नगर में धनदेव नाम का एक सेठ रहता था । उसकी धनमित्रा नाम की पतिव्रता सेठानी थी । महाबलका जीव उन दोनोंके नागदत्‍त नाम का पुत्र हुआ ॥96॥

इन्‍हीं दोनोंके अर्थस्‍वामिनी नाम की एक पुत्री थी जो कि नागदत्‍तकी छोटी बहिन थी । पलाश द्वीप के मध्‍य में स्थित पलाश नगर में राजा महाबल राज्‍य करता था । कनकलता, इसी महाबल राजाकी कान्‍चनलता नाम की रानीसे पद्मलता नाम की प्रसिद्ध पुत्री हुई ॥97-98॥

किसी एक समय उज्‍जयिनी नगरी के सेठ धनदेवने दूसरी स्‍त्रीके साथ विवाहकर पहिली स्‍त्री धनमित्राको छोड़ दिया इसलिए वह अपने पुत्रसहित देशान्‍तर चली गई । एक समय ज्ञान उत्‍पन्‍न होने पर उसने शीलदत्‍त गुरूके पास श्रावक के व्रत ग्रहण किये और शास्‍त्रोंका अभ्‍यास करने के लिए अपना पुत्र उन्‍हीं मुनिराजको सौंप दिया ॥99-100॥

समय पाकर वह पुत्र भी अपनी बुद्धिरूपी नौकाके द्वारा शास्‍त्र रूपी समुद्रको पार कर गया । वह उत्‍तम कवि हुआ और शास्‍त्रोंकी व्‍याख्‍यासे सुयश प्राप्‍त करने लगा ॥101॥

वह नाना अलंकारोंसे मनोहर वचनों तथा प्रसादगुण पूर्ण सुभाषितोंसे विशिष्‍ट मनुष्‍यों के ह्णदयोंमें आह्लाद उत्‍पन्‍न कर देता था ॥102॥

वहाँ के कोटपालके पुत्र दृढरक्षके साथ मित्रताकर उसने उस नगर के शिष्‍ट मनुष्‍यों को शास्‍त्रोंकी व्‍याख्‍या सुनाई जिससे उपाध्‍याय पद प्राप्‍तकर बहुत - सा धन कमाया तथा अपनी माता, बहिन और अपने आपको पोषण किया ॥103-104॥

नन्‍दी नामक गाँवमें रहने वाले कुलवाणिज नाम के अपनी मामीके पुत्र के साथ उसने बड़े आदरसे अपनी छोटी बहिनका विवाह कर दिया ॥105॥

किसी एक दिन उसने बहुतसे श्‍लोक सुनाकर राजा के दर्शन किये और राजाकी प्रसन्‍नतासे बहुत भारी सम्‍मान, धन तथा हर्ष प्राप्‍त किया ॥106॥

किसी एक दिन मातासे पूछकर वह अपने पिता के पास आया और उनके चरण - कमलों को प्रणामकर खड़ा हो गया । सेठ धनदेवने उसे देखकर 'हे पुत्र चिरंजीव रहो, यहाँ बैठो' इत्‍यादि प्रिय वचन कहकर उसे सन्‍तुष्‍ट किया । तदनन्‍तर नागदत्‍तने अपने भागकी रत्‍नादि वस्‍तुएं माँगी ॥107-108॥

इसके उत्‍तरमें पिताने कहा कि 'हे पुत्र मेरी सब वस्‍तुएं पलाशद्वीप के मध्‍य में स्थित पलाश नामक नगर में रखी हैं सो तू लाकर ले ले' । पिता के ऐसा कहनेपर वह अपने हिस्‍सेदार नकुल और सहदेव नामक भाइयोंके साथ नावपर बैठकर समुद्र के भीतर चला । चलते समय उसने यह आकांक्षा प्रकट की कि यदि मेरी इष्‍टसिद्धि हो गई तो मैं लौटकर जिनेन्‍द्रदेवकी पूजा करूँगा । ऐसी इच्‍छाकर उसने बार - बार जिनेन्‍द्र भगवान् की स्‍तुति की और पिताको नमस्‍कारकर चला । वह चलकर शीघ्र ही पलाशपुर नगर में जा पहुँचा । वहाँ उसने अपना जहाज खड़ाकर देखा कि यह नगर मनुष्‍यों के संचारसे रहित है । यह देख वह आश्‍चर्य करने लगा कि यह नगर ऐसा क्‍यों है ? तदनन्‍तर लम्‍बी रस्‍सी फेंककर उनके आशयसे वह उस नगर के भीतर पहुँचा ॥109-113॥

नगर के भीतर प्रवेशकर उसने एक जगह अकेली बैठी हुई एक कन्‍याको देखा और उससे पूछा कि यह नगर ऐसा क्‍यों हो गया है ? तथा तू स्‍वयं कौन है ? सो कह । इसके उत्‍तरमें वह कन्‍या आदरके साथ कहने लगी कि 'पहले इस नगर के स्‍वामी का कोई भागीदार था जो अत्‍यन्‍त क्रोधी था और राक्षस विद्या सिद्ध होने के कारण 'राक्षस' इस नाम को ही प्राप्‍त हो गया था । उसीने क्रोधवश नगरको और नगर के राजा को समूल नष्‍ट कर दिया था । तदनन्‍तर उसके वंश में होने वाले किसी पुरूषने मन्‍त्रपूर्वक तल‍वार सिद्ध की थी और उसी तलवारके प्रभाव से उसने इस नगरको सुरक्षित कर फिरसे बसाया है ॥114-117॥

इस समय इस नगरका राजा महाबल है और उसकी रानीका नाम कान्‍चनलता है । मैं इन्‍हीं दोनों की पद्मलता नाम की पुत्री हुई थी ॥118॥

मेरा पिता उस मंत्रसाधित तलवारको कभी भी अपने हाथसे अलग नहीं करता था परन्‍तु प्रमादसे एक बार उसे अलग रख दिया और छिद्र देखकर राक्षसने उसे मार डाला जिससे यह नगर फिरसे सूना हो गया है । उसने मुझे अपनी पुत्रीके समान माना अत: वह मुझे बिना मारे ही चला गया । अब वह मुझे लेने के लिए फिर आवेगा' । कन्‍याकी बात सुनकर वह वैश्‍य उस तलवारको लेकर नगर के गोपुर (मुख्‍य द्वार) में जा छिपा और जब वह विद्याधर आया तब उसे मार दिया । वह विद्याधर भी उसी समय पन्‍चनमस्‍कार मन्‍त्रका पाठ करता हुआ चित्‍त स्थिरकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥119-122॥

पंचनमस्‍कार पदको सुनकर नागदत्‍त विचार करने लगा कि हाय, मैंने यह सब पाप व्‍यर्थ ही किया है । उसने झट अपनी तलवार फेंक दी और उस घाव लगे विद्याधरसे पूछा कि तेरा धर्म क्‍या है ? इसके उत्‍तरमें विद्याधरने कहा कि, मैं भी श्रावकका पुत्र हूँ, मैंने यह कार्य क्रोधसे ही किया है ॥123-124॥

देखो क्रोधसे मित्र शत्रु हो जाता है, क्रोधसे धर्म नष्‍ट हो जाता है, क्रोधसे राज्‍य भ्रष्‍ट हो जाता है और क्रोधसे प्राण तक छूट जाते हैं । क्रोधसे माता भी क्रोध करने लगती है और क्रोधसे अधोगति होती है इसलिए कल्‍याणकी इच्‍छा करनेवाले पुरूषोंको सदाके लिए क्रोध करना छोड़ देना चाहिये ऐसा जिनेन्‍द्र भगवान् ने कहा है । मैं जानता हुआ भी क्रोधके वशीभूत हो गया था सो उसका फल मैंने अभी प्राप्‍त कर लिया अब परलोक की बात क्‍या कहना है ? इस प्रकार अपनी निन्‍दा करता हुआ वह विद्याधर नागदत्‍तसे बोला कि आप यहाँ कहाँसे आये हैं ? इसके उत्‍तरमें वैश्‍यने कहा कि मैं एक पाहुना हूँ और इस कन्‍याको शोक से विह्णल देखकर तेरे भय से इसकी रक्षा करने के लिए यह पराक्रम कर बैठा हूँ ॥125-129॥

तू 'धर्म भक्‍त है' यह जाने बिना ही मैं यह ऐसा कार्य कर बैठा हूँ और मैंने जिनेन्‍द्रदेव के शासन में कहे हुए सारभूत धर्म - वात्‍सल्‍यको छोड़ दिया है ॥130॥

हे भव्‍य ! जैन शासन की मर्यादा का उल्‍लंघन करने वाले मेरे इस अपराधको तू क्षमा कर । नागदत्‍तकी कही हुई यह सब समझकर वह विद्याधर कह‍ने लगा कि इसमें आपने क्‍या किया है यह मेरे ही पूर्वोपाजित कर्म का विशिष्‍ट उदय है । इस प्रकार नागदत्‍तके द्वारा कहे हुए पन्‍च-नमस्‍कार मन्‍त्र की भावना करता हुआ विद्याधर स्‍वर्गको प्राप्‍त हुआ । तदनन्‍तर पद्मलता कन्‍या और पिता के कमाये हुए धनको खींचनेकी रस्‍सीसे उतारकर जहाजपर पहुँचाया तथा सहदेव और नकुल भाईको भी जहाजपर पहुँचाया । नकुल और सहदेवने जहाज पर पहुँचकर पाप बुद्धिसे खींचनेकी वह रस्‍सी नागदत्‍तको नहीं दी और दोनों भाई अकेले ही उस नगरसे चलकर शीघ्र ही अपने नगर जा पहुँचे सो ठीक ही है क्‍योंकि छिद्र पाकर ऐसा कौन - सा कार्य है जिसे दायाद - भागीदार न कर सकें ॥131–135॥

उन दोनों भाइयों को देखकर वहाँ के राजा तथा अन्‍य लोगों को कुछ शंका हुई और इसीलिए उन सबने पूछा कि तुम दोनोंके साथ नागदत्‍त भी तो गया था वह क्‍यों नहीं आया ? इसके उत्‍तरमें उन्‍होंने कहा कि यद्यपि नागदत्‍त हम लोगों के साथ ही गया था परन्‍तु वह वहाँ जाकर कहीं अन्‍यत्र चला गया इसलिए हम उसका हाल नहीं जानते हैं । इस प्रकार उन दोनोंने भाई होकर भी नागदत्‍तके छोड़नेकी बात छिपा ली ॥136-137॥

पुत्र के न आनेकी बात सुनकर नागदत्‍तकी माता बहुत व्‍याकुल हुई और उसने श्री शीलदत्‍त गुरू के पास जाकर अपने पुत्रकी कथा पूछी ॥138॥

उसकी व्‍याकुलता देख मुनिराजका ह्णदय दया से भर आया अत: उन्‍होंने सम्‍यग्‍ज्ञान रूपी नेत्रसे देखकर उसे आश्‍वासन दिया कि तू डर मत, तेरा पुत्र किसी विघ्‍नके विना शीघ्र ही आवेगा । इधर नागदत्‍तने एक जिन - मन्दिर देखकर उसकी कुछ प्रदक्षिणा दी और मैं यहाँ बैठूँगा इस विचारसे उसके भीतर प्रवेश किया । भीतर जाकर उसने भगवान् की स्‍तुति पढ़ी और फिर चिन्‍तातुर हो कर वह वहीं बैठ गया ॥139-141॥

दैवयोगसे वहीं पर एक जैनी विद्याधर आ निकला । नागदत्‍तको देखकर उसने सब समाचार मालूम किये और फिर उसे धन सहित इस द्वीप के मध्‍यसे निकालकर मनोहर नाम के वन में जा उतारा । तदनन्‍तर उसे वहाँ अच्‍छी तरह ठहराकर और बड़े आदरसे पूछकर वह विद्याधर अपने इच्छित स्‍थान पर चला गया सो ठीक ही है क्‍योंकि सत्‍पुरूषोंकी धर्म - वत्‍सलता यही कहलाती है ॥142-143॥

उस मनोहर वनके समीप ही नन्‍दीग्राममें नागदत्‍तकी छोटी बहिन रहती थी इसलिए वह वहाँ पहुँचा और अपना सब धन उसके पास रखकर अच्‍छी तरह रहने लगा ॥144॥

कुछ समय वाद उसकी बहिनके ससुर आदि बड़े स्‍नेहसे नागदत्‍तके पास आकर कहने लगे कि हे कुमार ! नई आई हुई कन्‍याको सेठ अपने नकुल पुत्र के लिए ग्रहण करना चाहता है इसलिए उसके हम सबको बुलाया है परन्‍तु निर्धन होनेसे हम सब खाली हाथ वहाँ कैसे जावेंगे ? यह विचारकर हम सभी लोग आज अत्‍यन्‍त व्‍याकुलचित्‍त हो रहे हैं । उनकी बात सुनकर नागदत्‍तने अपने रत्‍नोंके समूहमें से निकालकर अच्‍छे - अच्‍छे अनेक रत्‍न प्रसन्‍नतासे उन्‍हें दिये और साथ ही यह कहकर एक रत्‍नमयी अंगूठी भी दी कि तुम मेरे आनेकी खबर देकर उस कन्‍याके लिए यह अंगूठी दे देना ! यही नहीं, नागदत्‍त, स्‍वयं भी उनके साथ गया । वहाँ जाकर उसने पहले शीलदत्‍त मुनिराजकी वन्‍दना की । तदनन्‍तर अपने मित्र कोतवालके पुत्र दृढरक्षके पास पहुँचा । वहाँ उसने प्रारम्‍भसे लेकर सब कथा दृढरक्ष को कह सुनाई । फिर उसीके साथ जाकर अच्‍छे - अच्‍छे रत्‍नों की भेंट देकर बड़ी प्रसन्‍नतासे राजा के दर्शन किये ॥145-150॥

उसे देखकर महाराजने पूछा कि अहो नागदत्‍त ! तुम कहाँसे आ रहे हो और कहाँ चले गये थे ? राजाकी बात सुनकर नागदत्‍त बड़ा संतुष्‍ट हुआ । उसने अपना हिस्‍सा मांगने और उसके लिए यात्रा करने आदिके सब समाचार आदिसे लेकर अन्‍ततक कह सुनाये । उन्‍हें सुनकर राजा बहुत ही कुपित हुआ और सेठका निग्रह करने के लिए तैयार हो गया परन्‍तु ऐसा करना उचित नहीं है यह कह कर आग्रहपूर्वक नागदत्‍तने राजा को मना कर दिया । राजा ने बहुत - सा अच्‍छा धन देकर नागदत्‍तको सेठका पद दिया और विधिपूर्वक विवाहकर वह पद्मलता कन्‍या भी उसे सौंप दी । तदनन्‍तर राजा ने अपनी सभा में स्‍पष्‍ट रूप से कहा कि देखो, पुण्‍यका कैसा माहात्‍म्‍य है ? यह नागदत्‍त राक्षस आदि अनेक विघ्‍नोंसे बचकर और श्रेष्‍ठ रत्‍नोंको अपने आधीन कर सुखपूर्वक यहाँ आ गया है ॥151-155॥

इसलिए कहना पड़ता है कि पुण्‍य से अग्नि जल हो जाती है, पुण्‍य से विष भी अमृत हो जाता है, पुण्‍य से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, पुण्‍य से सब प्रकार के भय शान्‍त हो जाते हैं, पुण्‍य से निर्धन मनुष्‍य भी धनवान् हो जाते हैं और पुण्‍य से स्‍वर्ग भी प्राप्‍त होता है इसलिए आपत्तिरहित सम्‍पदाकी इच्‍छा करने वाले पुरूषोंको श्रीजिनेन्‍द्रदेव के क‍हे हुए धर्मशास्‍त्रके अनुसार सब क्रियाएं कर पुण्‍यका बंध करना चाहिये ! राजाका यह उपदेश सभाके सब लोगोंने अपने ह्णदय में धारण किया ॥156-158॥

तदनन्‍तर सेठको भी बहुत पश्‍चात्‍ताप हुआ वह उसी समय 'हे कुमार ! क्षमा करो' यह कहकर अपने अन्‍य पुत्रों तथा स्‍त्री सहित प्रणाम करने लगा परन्‍तु नागदत्‍तने उसे ऐसा नहीं करने दिया और उठाकर प्रिय वचनों से उसे सन्‍तुष्‍ट कर दिया । तदनन्‍तर उस बुद्धिमान् ने यात्राके पहले कही हुई जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा की ॥159-160॥

इस प्रकार सबने श्रावकका उत्‍तम धर्म स्‍वीकृत किया, सबके ह्णदयोंमें परस्‍पर मित्रता हो गई और दान पूजा आदि उत्‍तम कार्योंसे सबका समय व्‍यतीत होने लगा । आयु के अन्‍त में नागदत्‍तने संन्यास पूर्वक प्राण छोड़े जिससे वह सौधर्म स्‍वर्ग में बड़ा देव हुआ ॥161-162॥

स्‍वर्गके श्रेष्‍ठ भोगों का उपभोगकर वह वहाँसे च्‍युत हुआ और इसी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत पर शिवंकर नगर में विद्याधरोंके स्‍वामी राजा पवनवेगकी रानी सुवेगासे यह अत्‍यन्‍त सुखी मनोवेग नाम का पुत्र हुआ है । दूसरे जन्‍म के बढ़ते हुए स्‍नेहसे विवश होकर ही इसने चन्‍दनाका हरण किया था सो ठीक ही है क्‍योंकि भारी स्‍नेह कुमार्ग में ले ही जाता है ॥163-165॥

यह निकट-भव्‍य है और इसी जन्‍ममें दिगम्‍बर मुद्रा धारणकर मोक्ष पद प्राप्‍त करेगा ॥166॥

नागदत्‍त की छोटी बहिन अर्थस्‍वामिनी स्‍वर्गलोकसे आकर यहाँ महाकान्ति को धारण करने वाली मनोवेगा हुई है ॥167॥

जो विद्याधर पलाशनगर में नागदत्‍त के हाथ से मारा गया था वह स्‍वर्ग से आकर तू सोमवंश में राजा चेटक हुआ है ॥168॥

धनमित्रा नाम की जो नागदत्‍तकी माता थी वह स्‍वर्ग गई थी और वहाँ से च्‍युत होकर मनको प्रिय लगनेवाली वह तेरी सुभद्रा रानी हुई है ॥169॥

जो नागदत्‍तकी स्‍त्री पद्मलता थी वह अनेक उपवासकर स्‍वर्ग गई थी और वहाँ से आकर यह चन्‍दना नाम की तेरी पुत्री हुई है ॥170॥

नकुल संसार में भ्रमणकर सिंह नाम का भील हुआ है उसने पूर्व जन्‍म के स्‍नेह और वैरके कारण ही चन्‍दनाको तंग किया था ॥171॥

सहदेव भी संसार में चिरकाल तक भ्रमणकर कौशाम्‍बी नगरी में मित्रवीर नाम का बुद्धिमान् वैश्‍यपुत्र हुआ है जो कि वृषभसेनका सेवक है और उसीने यह चन्‍दना वृषभसेन सेठके लिए समर्पित की थी । नागदत्‍तका पिता सेठ धनदेव शान्‍तचित्‍तसे मरकर स्‍वर्ग गया था और वहाँ से आकर कौशाम्‍बी नगरी में अनेक गुणों से युक्‍त श्रीमान् वृषभसेन नाम का सेठ हुआ है ॥172-174॥

चित्रसेनाने सोमिलासे द्वेष किया था इसलिए वह चिरकालतक संसार में भ्रमण करती रही । तदनन्‍तर कुछ शान्‍त हुई तो कौशाम्‍बी नगरी में वैश्‍यपुत्री हुई और भद्रा नाम से प्रसिद्ध होकर वृषभसेनकी पत्‍नी हुई है । निदानके समय जो उसने वैर किया था उसी से उसने चन्‍दनाका निग्रह किया था - उसे कष्‍ट दिया था ॥175-176॥

यह चन्‍दना अच्‍युत स्‍वर्ग जायगी और वहाँ से वापिस आकर शुभ कर्म के उदय से पुंवेदको पाकर अवश्‍य ही परमात्‍मपद - मोक्षपद प्राप्‍त करेगी ॥177॥

इस प्रकार बन्‍धके साधनोंमें जो मिथ्‍यादर्शन आदि पाँच प्रकार के भाव कहे गये हैं उनके निमित्‍त से संचित हुए कर्मोंके द्वारा ये जीव द्रव्‍य क्षेत्र आदि परिवर्तनोंको प्राप्‍त होते रहते हैं । ये पाँच प्रकारसे परिवर्तन ही संसार में सबसे भयंकर दु:ख हैं । खेदकी बात है कि ये प्राणी निरन्‍तर इन्‍हीं पन्‍च प्रकार के दु:खोंको पाते हुए यमराज के मुंहमें जा पड़ते हैं ॥178-179॥

फिर ये ही जीव, काललब्धि आदिका निमित्‍त पाकर सम्‍यग्‍दर्शन सम्‍यग्‍ज्ञान सम्‍यक्‍चारित्र और सम्‍यक्तप रूप मोक्ष के उत्‍कृष्‍ट साधन पाकर पुण्‍य कर्म करते हुए सात परमस्‍थानोंमें परम ऐश्‍वर्यको प्राप्‍त होते हैं और यथा क्रम से अनन्‍त सुख के भाजन होते हैं ॥180-181॥

इस प्रकार वह सब सभा गौतम स्‍वामी की पुण्‍य रूपी लक्ष्‍मी से युक्‍त ध्‍वनि रूपी रसायनसे उसी समय अजर - अमरके समान हो गई ॥182॥

अथानन्‍तर-किसी दूसरे दिन महाराज श्रेणिक गन्‍धकुटी के बाहर देदीप्‍यमान चारों वनोंमें बड़े प्रेम से घूम रहे थे । वहीं पर एक अशोक वृक्ष के नीचे जीवन्‍धर मुनिराज ध्‍यानारूढ हो कर विराजमान थे । महाराज श्रेणिक उन्‍हें देखकर उनके रूप आदिमें आसक्‍तचित्‍त हो गये और कौतुकके साथ भीतर जाकर उन्‍होंने सुधर्म गणधरदेवकी बड़ी भक्ति से पूजा वन्‍दना की तथा यथायोग्‍य स्‍थानपर बैठ हाथ भीतर जाकर उन्‍होंने सुधर्म गणधरदेवकी बड़ी भक्ति से पूजा वन्‍दना की तथा यथायोग्‍य स्‍थानपर बैठ हाथ जोड़कर बड़ी विनय से उनसे पूछा कि हे भगवन् ! जो मानो आज ही समस्‍त कर्मोंसे मुक्‍त हो जावेंगे ऐसे ये मुनिराज कौन हैं ? ॥183-186॥

इसके उत्‍तरमें चार ज्ञान के धारक सुधर्माचार्य निम्‍न प्रकार कहने लगे सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंके चरित्रको कहने वाले और सुनने वाले - दोनोंके ही चित्‍तमें खेद नहीं होता है ॥187॥

वे कहने लगे कि हे श्रेणिक ! सुन, इसी जम्‍बू वृक्ष से सुशोभित होने वाली पृथिवीपर एक हेमांगद नाम का देश है और उसमें राजपुर नाम का एक शोभायमान नगर है । उसमें चन्‍द्रमा के समान सबको आनन्दित्‍त करने वाला सत्‍यन्‍धर नाम का राजा था और दूसरी विजयलक्ष्‍मी के समान विजया नाम की उसकी रानी थी ॥188-189॥

उसी राजा के सब कामोंमें निपुण काष्‍ठांगारिक नाम का मन्‍त्री था और दैवजन्‍य उपद्रवोंको नष्‍ट करने वाला रूद्रदत्‍त नाम का पुरोहित था ॥190॥

किसी एक दिन विजया रानी घर के भीतर सुख से सो रही थी वहाँ उसने बड़ी प्रसन्‍नतासे रात्रिके पिछले पहरमें दो स्‍वप्‍न देखे । पहला स्‍वप्‍न देखा कि राजा ने सुवर्ण के आठ घंटोंसे सुशोभित अपना मुकुट मेरे लिए दे दिया है और दूसरा स्‍वप्‍न देखा कि मैं अशोक वृक्ष के नीचे बैठी हूँ परन्‍तु उस अशोक वृक्ष की जड़ किसी ने कुल्‍हाड़ीसे काट डाली है और उसके स्‍थानपर एक छोटा अशोकका वृक्ष उत्‍पन्‍न हो गया है । स्‍वप्‍न देखकर उनका फल जानने के लिए वह राजा के पास गई ॥191-193॥

और बड़ी विनयके साथ राजा के दर्शन कर स्‍वप्‍नों का फल पूछने लगी । इसके उत्‍तरमें राजा ने कहा कि तू मेरे मरनेके बाद शीघ्र ही ऐसा पुत्र प्राप्‍त केरेगी जो आठ लाभोंको पाकर अन्‍त में पृथिवी का भोक्‍ता होगा । स्‍वप्‍नों का प्रिय और अप्रिय फल सुनकर रानीका चित्र शोक तथा दु:खसे भर गया । उसकी व्‍यग्रता देख राजा ने उसे अच्‍छे शब्‍दोंसे संतुष्‍ट कर दिया । तदनन्‍तर दोनोंका काल सुख से व्‍यतीत होने लगा । इसके बाद किसी पुण्‍यात्‍मा देवका जीव स्‍वर्गसे च्‍युत होकर रानी के गर्भरूपी गृहमें आया और इस प्रकार सुख से रहने लगा जिस प्रकार कि शरदऋतुके कमलोंके सरोवरमें राजहंस रहता है ॥194-197 ।

अथानन्‍तर किसी दूसरे दिन उसी नगर में रहनेवाले गन्‍धोत्‍कट नाम के धनी सेठने मनोहर नामक उद्यानमें तीन ज्ञान के धारी शीलगुप्‍त नामक मुनिराज के दर्शनकर विनय से उन्‍हें नमस्‍कार किया और पूछा कि हे भगवन् ! पाप कर्म के उदय से मेरे बहुतसे अल्‍पायु पुत्र हुए हैं क्‍या कभी दीर्घायु पुत्र भी होंगे ? ॥198-200॥

इस प्रकार पूछनेपर दयालुतावश मुनिराजने कहा कि हाँ तुम भी चिरजीवी पुत्र प्राप्‍त करोगे ॥201॥

हे वैश्‍य वर ! चिरजीव पुत्र प्राप्‍त होनेका चिह्न यह है, इसे तू अच्‍छी तरह सुन तथा जो पुत्र तुझे प्राप्‍त होगा वह भी सुन । तेरे एक मृत पुत्र होगा उसे छोड़ने के लिए तू वन में जायगा । वहाँ तू किसी पुण्‍यात्‍मा पुत्रको पावेगा । वह पुत्र समस्‍त पृथिवी का उपभोगकर विषय सम्‍बन्‍धी सुखोंसे संतुष्‍ट होगा और अन्‍त में समस्‍त कर्मों को नष्‍टकर मोक्ष लक्ष्‍मी प्राप्‍त करेगा । जिस समय उक्‍त मुनिराज गन्‍धोत्‍कट सेठसे ऊपर लिखे वचन कह रहे थे उस समय वहाँ एक पक्षी भी बैठी थी । मुनिराज के वचन सुनकर पक्षीके मन में होन हार राजपुत्रकी माताका उपकार करने की इच्‍छा हुई । निदान, जब राजपुत्रकी उत्‍पत्तिका समय आया तब वह यक्षी उसके पुण्‍य से प्रेरित होकर राजकुलमें गई और एक गरूड यन्‍त्रका रूप बनाकर पहुँची । सो ठीक ही है क्‍योंकि पूर्वकृत पुण्‍य के प्रभाव से प्राय: देवता भी समीप आ जाते हैं ॥201-206॥

तदनन्‍तर सब जीवों को सुख देने वाला वसन्‍तका महीना आ गया । किसी एक दिन अहित करने वाला रूद्रदत्‍त नाम का पुरोहित प्रात:काल के समय राजा के घर गया । वहाँ रानीको आभूषणरहित बैठी देखकर उसने आदरके साथ पूछा कि राजा कहाँ हैं ? ॥207–208॥

रानीने भी उत्‍तर दिया कि राजा सोये हुए हैं इस समय उनके दर्शन नहीं हो सकते । रानी के इन वचनों को ही अपशकुन समझता हुआ वह वहाँसे लौट आया और सूर्योदयके समय काष्‍टांगारिक मन्‍त्रीके घर जाकर उससे मिला । उस पापबुद्धि पुरोहितने एकान्‍तमें काष्‍ठांगारिकसे कहा कि यह राज्‍य तेरा हो जावेगा तू राजा को मार डाल । पुरोहितकी बात सुनकर काष्‍ठागारिकने कहा कि मैं तो राजाका नौकर हूं, राजा ने ही मुझे मन्‍त्रीके पदपर नियुक्‍त किया है । यद्यपि यह राजा अकृतज्ञ है – मेरा किया हुआ उपकार नहीं मानता है तो भी मैं यह अपकार वैसे कर सकता हूँ ? ॥209-212॥

हे रूद्रदत्‍त ! तू ने बुद्धिमान् हो कर भी यह अन्‍यायकी बात क्‍यों कही । यह कहकर उसने भयभीत हो अपने कान ढक लिये ॥213॥

काष्‍ठांगारिकके ऐसे वचन सुनकर पुरोहितने कहा कि इस राजा के जो पुत्र होने वाला है वह तेरा प्राणघातक होगा इसलिए इसका प्रतिकार कर ॥214॥

इतना कह कर रूद्रदत्‍त शीघ्र ही अपने घर चला गया और इस पाप के उदय से रोगपीडित हो तीसरे दिन मर गया तथा चिरकाल तक दु:ख देने वाली नरकगतिमें जा पहुँचा । इधर दुष्‍ट आशयवाले काष्‍ठागारिक मन्‍त्री ने सद्रदत्‍तके कहनेसे अपनी मृत्‍युकी आशंका कर राजा को मारनेकी इच्‍छा की । उसने धन देकर दो हजार शूरवीर राजाओं को अपने आधीन कर लिया था । वह उन्‍हें साथ लेकर युद्धके लिए तैयार किये हुए हाथियों और घोड़ोंके साथ राज - मन्दिरकी ओर चला । जब राजा को इस बात का पता चला तो उसने शीघ्र ही रानीको गरूडयन्‍त्र पर बैठाकर प्रयत्‍न पूर्वक वहाँ से दूर कर दिया । काष्‍ठांगारिक मन्‍त्री ने पहले जिन राजाओं को अपने वश कर लिया था उन राजाओंने जब राजा सत्‍यन्‍धरको देखा तब वे मन्‍त्रीको छोड़कर राजा के आधीन हो गये । राजा ने उन सब राजाओं के साथ कुपित होकर मन्‍त्रीपर आक्रमण किया और उसे शीघ्र ही युद्धमें जीतकर भयके मार्गपर पहुँचा दिया – भयभीत बना दिया ॥215-220॥

इधर काष्‍ठांगारिकके पुत्र कालांगारिकने जब युद्धमें अपने पिताकी हारका समाचार सुना तब वह बहुत ही कुपित हुआ और युद्धके लिए तैयार खड़ी बहुत सी सेना लेकर अकस्‍मात् आ पहुँचा । पापी काष्‍ठांगाकि भी उसीके साथ जा मिला । अन्‍त में वह युद्धमें राजा को मारकर उसके राज्‍य पर आरूढ हो गया ॥221-222॥

उस नीच मन्‍त्री ने विष मिले हुए भोजनके समान, कृतघ्‍न मित्र के समान अथवा हिंसक धर्मके समान दु:ख देने वाला वह राज्‍य प्राप्‍त किया था ॥223॥

इधर विजया महादेवी गरूड़ यन्‍त्रपर बैठकर चली । शोक रूपी अग्निसे उसका सारा शरीर जल रहा था और वह रो रही थी परन्‍तु यक्षी उसकी रक्षा कर रही थी ॥224॥

इस प्रकार चलकर वह विजया रानी उस श्‍मशानभूमिमें जा पहुँची जहाँ घावोंके अग्रभागसे निकलती हुई खूनकी धाराओंसे शूल भींग रहे थे, शूल छिद जाने से उत्‍पन्‍न हुई वेदनासे जिनके प्राण निकल गये हैं तथा जिनके मुख नीचेकी ओर लटक गये हैं ऐसे चोर जहाँ नाना प्रकार के शब्‍द कर रहे थे । कहींपर डाकिनियाँ अधजले मुरदेको अग्निमें खींचकर और तीक्ष्‍ण छुरियों से खण्‍ड खण्‍ड कर खा रही थीं । ऐसी डाकिनियों से वह श्‍मशान सब ओर से व्‍याप्‍त था ॥225-227॥

उस श्‍मशाममें यक्षी रातभर उसकी रक्षा करती रही जिससे उसे रन्‍चमात्र भी कोई बाधा नहीं हुई । जिस प्रकार आकाश चन्‍द्रमा को प्राप्‍त करता है उसी प्रकार उस रानीने उसी रात्रिमें एक सुन्‍दर पुत्र प्राप्‍त किया ॥228॥

उस समय विजया महारानीको पुत्र उत्‍पन्‍न होनेका थोड़ा भी उत्‍सव नहीं हुआ था किन्‍तु भाग्‍य की प्रतिकूलता से बढ़ा हुआ शोक ही उत्‍पन्‍न हुआ था । यक्षीने सब ओर शीघ्र ही मणिमय दीपक रख दिये और दावानलसे झुलसी हुई लताके समान महारानीको शोकाकुल देखकर निम्‍न प्रकार उपदेश दिया । वह कहने लगी कि इस संसार में सभी स्‍थान दु:खसे भरे हैं, यौवनकी लक्ष्‍मी नश्‍वर है, भाई-बन्‍धुओं का समागम नष्‍ट हो जाने वाला है, जीवन दीपकके समान चन्‍चल है, यह शरीर समस्‍त अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है अत: बुद्धिमान् पुरूषोंके द्वारा हेय है – छोड़ने योग्‍य है । जिसकी समस्‍त संसार पूजा करता है ऐसा यह राज्‍य बिजलीकी चमक के समान है । सब जीवोंकी समस्‍त वस्‍तुओंकी पर्यायोंमें ही प्रीति होती है परन्‍तु वे पर्याय अवश्‍य ही नष्‍ट हो जाती हैं इसलिए उनमें की हुई प्रीति अन्‍त में सन्‍ताप करने वाली होती है । अनिष्‍ट पदार्थ के रहते हुए भी उसमें प्रीति नहीं होती और इष्‍ट पदार्थ के रहते हुए उस पर अपना अधिकार नहीं होता तथा अपने आपमें प्रीति होने पर पदार्थ, इष्‍टपना एवं अधिकार इन तीनोंकी ही स्थितिका क्षय हो जाता है । जिनका ज्ञान बिना किसी क्रमके एक साथ समस्‍त पदार्थों को देखता है उन्‍होंने भी नहीं देखा कि कहीं कोई पदार्थ स्‍थायी रहता है । यदि विद्यमान और होनहार वस्‍तुओंमें प्रेम होता है तो भले ही हो परन्‍तु जो नष्‍ट हुई वस्‍तुओंमें भी प्रेम करता है उसे बुद्धिमान् कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए हे विजये ! संसार के स्‍वरूपका विचारकर शोक मत कर, और अतीत पदार्थोंमें व्‍यर्थ ही प्रीति मत कर । तेरा यह पुत्र बहुत ही श्रीमान् है और मोक्ष प्राप्ति पर्यन्‍त इसका अभ्‍युदय निरन्‍तर बढ़ता ही रहेगा । यह दुराचारी शत्रु को नष्‍टकर अवश्‍य ही तुझे आनन्‍द उत्‍पन्‍न करेगा । तू स्‍नान कर, चित्‍तको स्थिर कर और योग्‍य आहार ग्रहण कर । शरीरका क्षय करने वाला यह शोक करना वृथा है, इस शोकको धिक्‍कार है, शोक करनेसे इस पर्यायकी बात तो दूर रही, दूसरी पर्यायमें भी तेरा पति तुझे नहीं मिलेगा क्‍योंकि अपने-अपने कर्मोंमें भेद होनेसे जीवोंकी गतियाँ भिन्‍न-भिन्‍न हुआ करती हैं । इत्‍यादि युक्ति भरे वचनों से यक्षीने विजया रानीको शोक रहित कर दिया । इतना ही नहीं वह स्‍वयं रात्रि भर उसके पास ही रही सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंकी मित्रता ऐसी ही होती है ॥229-241॥

इतनेमें ही गन्‍धोत्‍कट सेठ, अपने मृत पुत्रका शव रखनेके लिए वहाँ स्‍वयं पहुँचा । वह शवको रख कर जब जाने लगा तब उसने किसी बालकका गम्‍भीर शब्‍द सुना । शब्‍द सुनते ही उसने ''जीव जीव'' ऐसे आशीर्वादात्‍मक शब्‍द कहे मानो उसने आगे प्रचलित होने वाले उस पुत्र के 'जीवन्‍धर' इस नाम का उच्‍चारण किया हो । मुनिराजने जो कहा था वह सच निकला यह जान कर गन्‍धोत्‍कट बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ । उसने दोनों हाथ फैला कर बड़े स्‍नेहसे उस बालक को उठा लिया । विजया देवीने गन्‍धोत्‍कटकी आवाज सुनकर ही उसे पहिचान लिया था । इसलिए उसने अपने आपका परिचय देकर उससे कहा कि हे भद्र, तू मेरे इस पुत्रका इस तरह पालन करना जिस तरह कि किसीको इसका पता न चल सके । यह कह कर उसने वह पुत्र गन्‍धोत्‍कटके लिए सौंप दिया ॥242-245॥

सेठ गन्‍धोत्‍कटने भी 'मैं ऐसा ही करूंगा' यह कह कर वह पुत्र ले लिया और शीघ्रताके साथ घर आकर अपनी नन्‍दा नाम की स्‍त्रीके लिए दे दिया । देते समय उसने स्‍त्रीके लिए उक्‍त समाचार तो कुछ भी नहीं बतलाया परन्‍तु कुछ कुपित - सा होकर कहा कि हे मूर्खे ! वह बालक जीवित था, तू ने बिना परीक्षा किये ही श्‍मशानमें छोड़ आनेके लिए मेरे हाथमें विचार किये बिना ही रख दिया था । ले, यह बालक चिरजीवी है और पुण्‍यवान् है, यह कह कर उसने वह पुत्र अपनी स्‍त्रीके दिया था ॥246-248॥

सुनन्‍दा सेठानीने संतुष्‍ट हो कर वह बालक दोनों हाथोंसे ले लिया । वह बालक प्रात: काल के सूर्य को पराजित कर सुशोभित हो रहा था और सेठानी की आँखें उसे देख-देख कर सतृष्‍ण हो रही थीं ॥249॥

किसी एक दिन उस सेठने अनेक मांगलिक क्रियाएं कर अन्‍नप्राशन संस्‍कारके बाद उस पुत्रका 'जीवन्‍धर' नाम रक्‍खा ॥250॥

अथानन्‍तर-विजया रानी उसी गरूड़मन्‍त्र पर बैठकर दण्‍डकके मध्‍य में स्थित तपस्वियोंके किसी बड़े आश्रममें पहुंची और वहाँ गुप्‍त रूप से – अपना परिचय दिये बिना ही रहने लगी । जब वह विजया रानी शोक से व्‍याकुल होती थी तब वह यक्षी आकर उसका शोक दूर करने की इच्छा से उसकी अवस्‍थाके योग्‍य श्रवणीय कथाओंसे उसे संभारकी स्थिति बतलाती थी, धर्म का मार्ग बतलाती थी और इस तरह प्रति दिन उसका चित्‍त बहलाती रहती थी ॥251-253॥

इधर महाराज सत्‍यन्‍धरकी भांमारति और अनंगपताका नाम की दो छोटी स्त्रियाँ और थीं । उन दोनोंने मधुर और वकुल नाम के दो पुत्र प्राप्‍त किये । इन दोनों ही रानियोंने धर्म का स्‍वरूप जानकर श्रावक के व्रत धारण कर लिये थे । इसलिए ये दोनों ही भाई गन्‍धोत्‍कटके यहाँ ही पालन-पोषण प्राप्‍तकर बढ़े हुए थे । उसी नगर में विजयमति, सागर, धनपाल और मतिसागर नाम के चार श्रावक और थे जो कि अनुक्रम से राजा के सेनापति, पुरोहित, श्रेष्‍ठी और मन्‍त्री थे ॥254-257॥

इन चारोंकी स्त्रियों के नाम अनुक्रम से जयावती, श्रीमती, श्रीदत्‍ता और अनुपमा थे । इनसे क्रम से देवसेन, बुद्धिषेण, वरदत्‍त और मधुमुख नाम के पुत्र उत्‍पन्‍न हुए थे । मधुरको आदि लेकर वे छहों पुत्र, जीवन्‍धर कुमार के साथ ही वृद्धि को प्राप्‍त हुए थे, निरन्‍तर कुमार के साथ ही बालक्रीड़ा करने में तत्‍पर रहते थे और जिस प्रकार जीवाजीवादि छह पदार्थ कभी भी लोकाकाशको छोड़कर अन्‍यत्र नहीं जाते हैं उसी प्रकार वे छहों पुत्र उत्‍कृष्‍ट अभिप्रायके धारक जीवन्‍धर कुमार को छोड़कर कहीं अन्‍यत्र नहीं जाते थे । रात-दिन उनके साथ ही रहते थे और उनके प्राणोंके समान थे । तदनन्‍तर गन्‍धोत्‍कटकी स्‍त्री सुनन्‍दाने भी अनुक्रम से नन्‍दाढय नाम का पुत्र प्राप्‍त किया ॥258-261॥

किसी एक दिन जीवन्‍धर कुमार नगर के बाह्य बगीचेमें अनेक बालकोंके साथ गोली बंटा आदि बालकोंके खेल खेलनेमें व्‍यस्‍त थे कि इतनेमें एक तपस्‍वी आकर उनसे पूछता है कि यहाँसे नगर कितनी दूर है ? तपस्‍वीका प्रश्‍न सुनकर जीवन्‍धर कुमार ने उत्‍तर दिया कि 'आप वृद्ध तो हो गये परन्‍तु इतना भी नहीं जानते । अरे, इसमें तो बालक भी नहीं भूलते । नगर के बाह्य बगीचेमें बालकोंको खेलता देख भला कौन नहीं अनुमान लगा लेगा कि नगर पास ही है ? जिस प्रकार कि धूम देखने से अग्निका अनुमान हो जाता है उसी प्रकार नगर के बाह्य बगीचेमें बालकोंकी क्रीड़ा देख नगरकी समीपताका अनुमान हो जाता है' इस प्रकार मुस्‍कुराते हुए जीवन्‍धर कुमार ने कहा । कुमारकी चेष्‍टा कान्ति तथा स्‍वर आदिको देखकर तपस्‍वीने सोचा कि यह बालक सामान्‍य बालक नहीं है, इसके चिह्नोंसे पता चलता है कि इसकी उत्‍पत्ति राजवंश में हुई है । ऐसा विचार कर उस तपस्‍वीने किसी उपायसे उसके वंशकी परीक्षा करनी चाही । अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए उसने जीवन्‍धर कुमारसे याचना की कि तुम मुझे भोजन दो ॥262-267॥

जीवन्‍धरकुमार उसे भोजन देना स्‍वीकृत कर अपने साथ ले पिता के पास पहुँचे और कहने लगे कि मैंने इसे भोजन देना स्‍वीकृत किया है फिर, जैसी आप आज्ञा दें । कुमारकी बात सुनकर पिता बहुत ही प्रसन्‍न हुए और कहने लगे कि मेरा यह पुत्र बड़ा ही विनम्र और प्रशंसनीय है । यह कहकर उन्‍होंने उसका बार-बार आलिंगन किया और कहा कि हे पुत्र ! यह तपस्‍वी स्‍नान करने के बाद मेरे साथ अच्‍छी तरह भोजन कर लेगा । तू नि:शंक होकर भोजन कर ॥268-270॥

तदनन्‍तर जीवन्‍धरकुमार अपने मित्रों के साथ बैठकर भोजन करने के लिए तैयार हुए । भोजन गरम था इसलिए जीवन्‍धर कुमार रोकर कहने लगे कि यह सब भोजन गरम रखा है मैं कैसे खाऊँ ? इस प्रकार रोकर उन्‍होंने माताको तंग किया । उन्‍हें रोता देख तपस्‍वी कहने लगा कि भद्र ! तुझे रोना अच्‍छा नहीं लगता । यद्यपि तू अवस्‍थासे छोटा है तो भी बड़ा बुद्धिमान् है, तूने अपने वीर्य आदि गुणों से सबको नीचा कर दिया है फिर तू क्‍यों रोता है ? ॥271-273॥

तपस्‍वीके ऐसा कह चुकने पर जीवन्‍धरकुमार ने कहा कि हे पूज्‍य ! आप जानते नहीं हैं । सुनिये, रोनेमें ये गुण हैं – पहला गुण तो यह है कि बहुत समयका संचित हुआ कफ निकल जाता है, दूसरा गुण यह है कि नेत्रों में निर्मलता आ जाती है और तीसरा गुण यह है कि भोजन ठण्‍डा हो जाता है । इतने गुण होने पर भी आप मुझे रोनेसे क्‍यों रोकते हैं ? ॥274-275॥

पुत्रकी बात सुनकर माता बहुत ही प्रसन्‍न हुई और उसने मित्रों के साथ उसे विधिपूर्वक अच्‍छी तरह भोजन कराया ॥276॥

तदनन्‍तर जब गन्‍धोत्‍कट भोजन कर सुख से बैठा और तपस्‍वी भी उसीके साथ भोजन कर चुका तब तपस्‍वीने गन्‍धोत्‍कटसे कहा कि इस बालककी योग्‍यता देखकर इसपर मुझे स्‍नेह हो गया है अत: मैं इसकी बुद्धि को शास्‍त्र रूपी समुद्रमें अवगाहन कर निर्मल बनाऊँगा ॥277-278॥

तपस्‍वीकी बात सुनकर गन्‍धोत्‍कटने कहा कि मैं श्रावकोंमें श्रेष्‍ठ हूँ - श्रावक के श्रेष्‍ठ व्रत पालन करता हूँ इसलिए अन्‍य लिंगियोंको किसी भी कारणसे नमस्‍कार नहीं करता हूँ और नमस्‍कारके अभावमें अतिशय अभिमानी आपके लिए अवश्‍य ही बुरा लगेगा । सेठकी बात सुनकर वह तापस इस प्रकार अपना परिचय देने लगा ॥279-280॥

मैं सिंहपुरका राजा था, आर्यवर्मा मेरा नाम था, वीरनन्‍दी मुनि से धर्म का स्‍वरूप सुनकर मैंने निर्मल सम्‍यग्‍दर्शन धारण किया था । तदनन्‍तर घृतिषेण नामक पुत्र के लिए राज्‍य देकर मैंने संयम धारण कर लिया था – मुनिव्रत अंगीकृत कर लिया था परन्‍तु जठराग्निकी तीव्र बाधासे उत्‍पन्‍न हुई महादाहको सहन नहीं कर सका इसलिए मैंने यह ऐसा वेष धारण कर लिया है, मैं सम्‍यग्‍दृष्टि हूं, तुम्‍हारा धर्मबन्‍धु हूं । इस प्रकार तपस्‍वीके वचन सुनकर और अच्‍छी तरह परीक्षा कर सेठने उसके लिए मित्रों सहित जीवन्‍धरकुमार को सौंप दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि उत्‍तम खेतमें बीजकी तरह योग्‍य स्‍थान में बुद्धिमान् मनुष्‍य क्‍या नहीं अर्पित कर देता है ? अर्थात् सभी कुछ अर्पित कर देता है ॥281-284॥

उस सम्‍यग्‍दृष्टि तपस्‍वीने, स्‍वभावसे ही जिसकी बुद्धिका बहुत बड़ा विस्‍तार था ऐसे जीवन्‍धर कुमार को लेकर थोड़े ही समयमें समस्‍त विद्याओं का पारगामी बना दिया ॥285॥

जिस प्रकार शरद् ऋतुमें सूर्य देदीप्‍यमान होता है और ऐश्‍वर्य पाकर हाथी सुशोभित होता है उसी प्रकार नव यौवनको पाकर जीवन्‍धरकुमार भी विद्याओंसे देदीप्‍यमान होने लगे ॥286॥

वह उपाध्‍याय भी समयानुसार संयम धारण कर मोक्षको प्राप्‍त हुआ । अथानन्‍तर-उस समय कालकूट नाम का एक भीलों का राजा था जो ऐसा काला था मानो सूर्यकी किरणों से डरकर स्‍वयं अन्‍धकार ने ही मनुष्‍यका आकार धारण कर लिया था, वह पशुहिंसक था और साधुओं के विघ्‍नके समान जान पड़ता था । जो धनुष-बाण हाथमें लिया है, जिसे कोई देख नहीं सकता, युद्धमें जिसे कोई सहन नहीं कर सकता, जो महौषधिके समान कटुक है, दयार‍हित है और सींगोके शब्‍दोंसे भयंकर है ऐसी सेना लेकर वह कालकूट गोमण्‍डलके हरण करने की इच्छा से तमाखुओं के वन से सुशोभित नगर के बाह्य मैदानमें आ डटा ॥287-290॥

इस समाचारको सुनकर काष्‍ठांगारिक राजा ने घोषणा कराई कि मैं गायों छुड़ानेवालेके लिए गोपेन्‍द्र की स्‍त्री गोपश्रीसे उत्‍पन्‍न गोदावरी नाम की उत्‍तम कन्‍या दूंगा । इस घोषणाको सुनकर जीवन्‍धर कुमार काष्‍ठांगारिकके पुत्र कालांगारिक तथा अपने अन्‍य मित्रोंसे युक्‍त होकर उस कालकूट भीलके पास पहुंचे । वहाँ जाकर उन्‍होंने अपना धनुष चढ़ाया, उसपर तीक्ष्‍ण बाण रक्‍खे, वे अपनी विशिष्‍ट शिक्षाके कारण जल्‍दी-जल्‍दी बाण रखते और छोड़ते थे, धनुर्वेदमें बतलाये हुए सभी पैंतरा बदलते थे, दूसरोंकी बाण-वर्षा को बचाते हुए जल्‍दी-जल्‍दी घूमते थे, शत्रुओं के बाणोंके समूहको काटते थे और कायर लोगोंपर अस्‍त्र छोड़नेसे रोकते थे, अर्थात् कायर लोगोंपर अस्‍त्रोंका प्रहार नहीं करते थे । इस तरह जिस प्रकार नय मिथ्‍या नयोंको जीत लेता है उसी प्रकार उन्‍होंने बहुत देर तक युद्ध कर भीलोंको जीत लिय । जयलक्ष्‍मी ने उनका आलिंगन किया और वे चन्‍द्रमा, हंस, तूल तथा कुन्‍दके फूलके समान सुशोभित यश के द्वारा समस्‍त दिशाओं को व्‍याप्‍त करते हुए फहराती हुई पताकाओंसे सुशोभित नगर में प्रविष्‍ट हुए ॥291-297॥

उस समय शूरवीरता आदि गुण रूपी फूलोंसे सुशोभित कुमार के शरीर-रूपी आमके वृक्षपर कीर्ति रूपी गन्‍धसे खिंचे हुए मनुष्‍यों के नेत्ररूपी भौंरे पड़ रहे थे ॥298॥

तदनन्‍तर जीवन्‍धर कुमार ने सब वैश्‍यपुत्रोंसे कहा कि तुम लोग एक स्‍वरसे अर्थात् किसी मतभेद के बिना ही राजा से कहो कि इस नन्‍दाढयने ही युद्ध कर गायोंको छुड़ाया है । इस प्रकार राजा के पास संदेश भेजकर पहले कही हुई गोदावरी नाम की कन्‍या विवाहपूर्वक नन्‍दाढयके लिए दिलवाई । सो ठीक ही है क्‍योंकि कार्योंकी प्रवृत्ति अनेक प्रकारकी होती है । अर्थात् कोई कार्यको बिना किये ही यश लेना चाहते हैं और कोई कार्य करके भी यश नहीं लेना चाहते ॥299-300॥

अथानन्‍तर-इसी भरतक्षेत्र सम्‍बन्‍धी विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें एक गगनवल्‍लभ नाम का नगर है जो आकाश से पड़ती हुई श्रीके समान जान पड़ता है । उसमें विद्याधरोंका स्‍वामी गरूड़वेग राज्‍य करता था । दैवयोगसे उसके भागीदारोंने उसका अभिमान नष्‍ट कर दिया इसलिए वह भागकर रत्‍नद्वीप में चला गया और वहाँ मनुजोदय नामक पर्वत पर रमणीय नाम का सुन्‍दर नगर बसा कर रहने लगा । उसकी रानीका नाम धारिणी था ॥301-303॥

किसी दिन उसकी गन्‍धर्वदत्‍ता पुत्रीने उपवास किया जिससे उसका शरीर मुरझा गया । वह जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा कर शेष बची हुई माला लेकर पिताको देनेके लिए गई । गन्‍धर्वदत्‍ता पूर्ण यौवनवती हो गई थी । उसे देख पिताने अपने मतिसागर नामक मन्‍त्रीसे पूछा कि यह कन्‍या किसके लिए देनी चाहिये । इसके उत्‍तरमें अपार बुद्धि के धारक मन्‍त्री ने भविष्‍यके ज्ञाता मुनिराजसे पहले जो बात सुन रखी थी वह कह सुनाई ॥304-306॥

उसने कहा कि हे राजन् ! किसी एक दिन मैं जिनेन्‍द्र भगवान् की वन्‍दना करने के लिए सुमेरू पर्वतपर गया था । वहाँ नन्‍दन वनकी पूर्वा दिशाके वन में जो जिन-‍मन्दिर है उसकी भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा देकर तथा विधिपूर्वक जिनेन्‍द्र भगवान् की स्‍तुति कर मैं बैठा ही था कि मेरा दृष्टि वहाँ पर विराजमान विपुलमति नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजपर पड़ी । मैंने उन्‍हें नमस्‍कार कर उनसे धर्म का उपदेश सुना । तदनन्‍तर मैंने पूछा कि हे जगत्‍पूज्‍य । हमारे स्‍वामी के एक गन्‍धर्वदत्‍ता नाम की पुत्री है वह किसके भोगने योग्‍य होगी ? मुनिराज अवधिज्ञानी थे अत: कहने लगे कि इसी भरतक्षेत्रके हेमांगद देशमें एक अत्‍यन्‍त सुन्‍दर राजपुर नाम का नगर है । उसमें सत्‍यरूपी आभूषणसे सुशोभित सत्‍यन्‍धर नाम का राजा राज्‍य करता है । उसकी महारानीका नाम विजया है उन दोनोंके एक बुद्धिमान् पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ है । वीणाके स्‍वयंवरमें वह गन्‍धर्वदत्‍ताको जीतेगा और इस तरह गन्‍धर्वदत्‍ता उसीकी भार्या होगी । मन्‍त्री के इस प्रकार के वचन सुनकर राजा कुछ व्‍याकुल हुआ और उसी मतिसागर मन्‍त्रीसे पूछने लगा कि हम लोगोंका भूमिगोचरियोंके साथ सम्‍बन्‍ध किस प्रकार हो सकता है ? ॥307-313॥

इसके उत्‍तरमें मं‍त्रीने मुनिराजसे जो कुछ अन्‍य बातें मालूम की थीं वे सब स्‍पष्‍ट कह सुनाईं । उसने कहा कि उसी राजपुर नगर में एक वृषभदत्‍त नाम का सेठ रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम पद्मावती था । उन दोनोंके एक जिनदत्‍त नाम का पुत्र हुआ था । किसी एक समय उसी राजपुर नगर के प्रीतिवर्धन नामक उद्यानमें सागरसेन नामक जिनराज पधारे थे उनके केवलज्ञान की भक्ति से पूजा-वन्‍दना करने के लिए वह अपने पिता के साथ आया था । आप भी वहाँ पर गये थे इसलिए उसे देखकर आपका उसके साथ प्रेम हो गया था । इतना अधिक प्रेम हो गया था कि शरीरभेदको छोड़ कर और किसी बातकी अपेक्षा आप दोनों में भेद नहीं रह गया था ॥314-317॥

इस प्रकार कितने ही दिन व्‍यतीत हो जाने पर एक दिन वृषभदत्‍त सेठ अपने स्‍थान पर जिनदत्‍तको बैठाकर आत्‍मज्ञान प्राप्‍त होनेसे गुणपाल नामक मुनिराज के निकट दीक्षित हो गया और उसकी स्‍त्री पद्मावतीने भी सुव्रता नाम की आर्यिकाके पास जाकर संयम धारण कर लिया तथा उत्‍तम व्रत धारण कर वह अपनी कुलीनता की रक्षा करने लगी । इधर जिनदत्‍त भी धनका मालिक होकर अपने पिता के पद पर आरूढ़ हुआ और मनोहरा आदि स्त्रियों के साथ इच्‍छानुसार भोग भोगने लगा । वह जिनदत्‍त धन कमानेके लिए स्‍वयं ही इस रत्‍नद्वीप में आवेगा ॥318-321॥

उसी से हमारे इष्‍ट कार्यकी सिद्धि होगी । इस तरह कितने ही दिन बीत जानेपर वह जिनदत्‍त गरूड़वेगके पास आया । इससे गरूड़वेग बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ । उसने जिनदत्‍तका अच्‍छा सत्‍कार किया । तदनन्‍तर विद्याधरोंके राजा गरूड़वेगने बड़े आदरके साथ जिनदत्‍तसे कहा कि हे मित्र ! आप अपनी नगरी में मेरी पुत्री गन्‍धर्वदत्‍ताका स्‍वयंवर करा दो । उसकी आज्ञानुसार जिनदत्‍त भी अनेक विद्याधरोंके साथ गन्‍धर्वदत्‍तको राजपुर नगर ले गया ॥322-324॥

वहाँ जाकर उसने मनोहर नाम के वन में स्‍वयंवर होनेकी घोषणा कराई और एक बहुत सुन्‍दर बड़ा भारी स्‍वयंवर - गृह बनवाया ॥325॥

जब अनेक कलाओंमें चतुर विद्याधर तथा भूमिगोचरी राजकुमार आ गये तब उसने जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा कराई ॥326॥

उसी समय गन्‍धर्वदत्‍ताने भी सुघोषा नाम की उत्‍तम लक्षणों वाली वीणा लेकर स्‍वयंवरके सभागृह में प्रवेश किया ॥327॥

वहाँ आकर उसने गीतोंसे मिले हुए शुद्ध तथा देशज स्‍वरोंके समूह से वीणा बजाई और स‍ब राजाओं को नीचा दिखा दिया । तदनन्‍तर उसका वीणासम्‍बन्‍धी मद दूर करने की इच्छा से जीवन्‍धर कुमार स्‍वयंवर-सभाभवन में आये । आते ही उन्‍होंने उन लोगों को गुण और दोषकी परीक्षा करने में नियुक्‍त किया कि जो किसी के पक्षपाती नहीं थे, बुद्धिमान् थे, वीणाकी विद्यामें निपुण थे और दोनों पक्षके लोगों को इष्‍ट थे ॥328-330॥

इसके बाद उन्‍होंने कार्य करने के लिए नियुक्‍त पुरूषोंसे 'निर्दोष वीणा दी जाय' यह कहा । नियोगी पुरूषोंने तीन-चार वीणाएं लाकर उन्‍हें सौंप दीं परन्‍तु जीवन्‍धर कुमार ने उन सबमें केश रोम लव आदि दोष दिखाकर उन्‍हें वापिस कर दिया और कन्‍या गन्‍धर्वदत्‍तासे कहा कि 'यदि तू ईर्ष्‍या रहित है तो अपनी वीणा दे'। गन्‍धर्वदत्‍ताने अपने हाथकी वीणा बड़े आदरसे उन्‍हें दे दी । कुमार ने उसकी वीणा ले कर गाया, उनका वह गाना शास्‍त्रके मार्गका अनुसरण करने वाला था, गीत और बाजेकी आवाजसे मिला हुआ था, गंभीर ध्‍वनिसे सहित था, मनोहर था, मधुर था, हरिणोंके मन में विभ्रम उत्‍पन्‍न करनेवाला था और उस विद्याके जानकार लोगों के धन्‍यवाद रूपी श्रेष्‍ठ फूलों की पूजासे सुशोभित था ॥331-335॥

उनका ऐसा गाना सुनकर गन्‍धर्वदत्‍ता ह्णदय में कामदेव के बाणोंसे प्रेरित हो उठी । इसलिए इसने उन्‍हें माला से अलंकृत कर दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि पुण्‍य के सम्‍मुख रहते हुए क्‍या नहीं होता है ? अर्थात् सब कुछ होता है ॥336॥

उस समय कितने ही लोग दिन में जलाये हुए दीपकके समान कान्तिहीन हो गये और कितने ही लोग रात्रिमें जलाये हुए दीपकोंके समान देदीप्‍यमान मुखके धारक हो गये । भावार्थ – जो ईर्ष्‍यालु थे वे जीवन्‍धर कुमारकी कुशलता देख कर मलिनमुख हो गये और जो गुणग्राही थे उनके मुख सुशोभित होने लगे ॥337॥

गन्‍धर्वदत्‍ता सुघोषा नामक वीणाके द्वारा ही जीवन्‍धर कुमार को प्राप्‍त कर सकी थी इसलिए वह सन्‍तुष्‍ट हो कर अपने मन में इस प्रकार कह रही थी कि हे सुघोषा ! तू मेरे कुलके योग्‍य है, मधुर है, और मनको हरण करने वाली है, कुमारका संग प्राप्‍त करानेमें तू ही चतुर दूतीके समान कारण हुई है ॥338–339॥

उस समय दुर्जनोंके द्वारा प्रेरित हुए काष्‍ठांगारिकके पुत्र कालांगारिकने गन्‍धर्वदत्‍ताको हरण करने का उद्यम किया । जब जीवन्‍धर कुमार को इस बात का पता चला तब वे अधिक बलवान् विद्याधरोंके साथ जयगिरि नामक गन्‍धगज पर सवार होकर बड़े क्रोधसे शत्रु-सेना के सम्‍मुख गये । उसी समय उपाय करने में निपुण गन्‍धर्वदत्‍ताके पिता गरूड़वेग नामक विद्याधरोंके राजा ने उन दोनोंकी मध्‍यस्‍थता प्राप्‍त कर शत्रुकी सेना को शान्‍त कर दिया ॥340-343॥

तदनन्‍तर विवाहके द्वारा जीवन्‍धर कुमार और गन्‍धर्वदत्‍ताका समागम कराकर गरूड़वेग कृतकृत्‍य हो गया सो ठीक ही है क्‍योंकि पिताको कन्‍या समर्पण करने के सिवाय और कुछ काम नहीं है ॥344॥

परस्‍परके प्रेमसे जिनका सुख बढ़ रहा है ऐसे उन दोनोंकी सम संयोगसे उत्‍पन्‍न होने वाली तृप्ति परम सीमाको प्राप्‍त हो रही थी ॥345॥

अथानन्‍तर-कामदेव को उत्‍तेजित करने वाला वसन्‍त ऋतु आया । उसमें सब नगर-निवासी लोग सुख पानेकी इच्छा से अपनी सब सम्‍पत्ति प्रकट कर बड़े उत्‍सव से राजा के साथ सुरमलय उद्यानमें वन-क्रीड़ाके निमित्‍त गये ॥346-347॥

उसी नगर में वैश्रवणदत्‍त नामक एक सेठ रहता था । उसकी आम्रमन्‍जरी नाम की स्‍त्रीसे सुरमन्‍जरी नाम की कन्‍या हुई थी । उस सुरमन्‍जरीकी एक श्‍यामलता नाम की दासी थी । वह भी सुरमन्‍जरीके साथ उसी उद्यानमें आई थी । उसके पास एक चन्‍द्रोदय नाम का चूर्ण था उसे लेकर वह यह घोषणा करती फिरती थी कि सुगन्धिकी अपेक्षा इस चूर्णसे बढ़कर दूसरा चूर्ण है ही नहीं । इस प्रकार वह अपनी स्‍वामिनीकी चतुराईको प्रकट करती हुई लोगों के बीच घूम रही थी ॥348-350॥

उसी नगर में एक कुमारदत्‍त नाम का सेठ रहता था । उसकी विमला स्‍त्रीसे अत्‍यन्‍त निर्मल गुणमाला नाम की पुत्री हुई थी । गुणमालाकी विद्युल्‍लता नाम की दासी थी जो बात-चीत करने में बहुत ही चतुर थी । अच्‍छी भौंहोंको धारण करने वाली तथा अभिमान रूपी पिशाचसे ग्रसी वह विद्युल्‍लता विद्वानों की सभा में बार-बार अपनी स्‍वामिनीके गुणोंको प्रकाशित करती और यह कहती हुई घूम रही थी कि यह सूर्योदय नाम का श्रेष्‍ठ चूर्ण है और इतना सुगन्धित है कि इस पर भौंरे आकर पड़ रहे हैं ऐसा चूर्ण स्‍वर्ग में भी नहीं मिल सकता है ॥351-353॥

इस दोनों दासियोंमें जब परस्‍पर विवाद होने लगा और इस विद्याके जानकार लोग जब इसकी परीक्षा करने में समर्थ नहीं हो सके तब वहीं पर खड़े हुए जीवन्‍धर कुमार ने स्‍वयं अच्‍छी तरह परीक्षा कर कह दिया कि इन दोनों चूर्णोंमें चन्‍द्रोदय नाम का चूर्ण श्रेष्‍ठ है । 'इसका क्‍या कारण है ? यदि आप यह जानना चाहते हैं तो मैं यह अभी स्‍पष्‍ट रूप से दिखाता हूँ' ऐसा कह कर जीवन्‍धर कुमार ने उन दोनों चूर्णोंको दोनों हाथोंसे लेकर ऊपरकी फेंक दिया । फेंकते देर नहीं लगी कि सुगन्धिकी अधिकताके कारण भौरोंके समूहने चन्‍द्रोदय चूर्णको घेर लिया । यह देख, वहाँ जो भी विद्वान् उपस्थित थे वे सब जीवन्‍धर कुमारकी स्‍तुति करने लगे ॥354-357॥

उस समय से उन दोनों कन्‍याओंने विद्यासे उत्‍पन्‍न होनेवाली परस्‍परकी ईर्ष्‍या छोड़ दी और दोनों ही मात्‍सर्यरहित हो गई ॥358॥

तदनन्‍तर-उधर नगरवासी लोग वन में अपनी इच्‍छानुसार क्रीड़ा करने लगे इधर कुछ दुष्‍ट बालकों ने एक कुत्‍ताको देखकर चपलता वश मारना शुरू किया । भय से व्‍याकुल हो कर वह कुत्‍ता भागा और एक कुण्‍डमें गिरकर मरणोन्‍सुख हो गया । जब जीवन्‍धर कुमार ने यह हाल देखा तो उन्‍होंने अपने नौकरों से उस कुत्‍तेको वहाँ से निकलवाया और उसके दोनों कान पन्‍चनमस्‍कार मन्‍त्रसे भर दिये । नमस्‍कार मन्‍त्रको ग्रहण कर वह कुत्‍ता चद्रोदय पर्वत पर सुदर्शन नाम का यक्ष हुआ । पूर्व भवका स्‍मरण होते ही वह जीवन्‍धर कुमार के पास वापिस आया और कहने लगा कि मैंने यह उत्‍कृष्‍ट विभूति आपके ही प्रसादसे पाई है । इस प्रकार दिव्‍य आभूषणोंके द्वारा उस कृतज्ञ यक्षने सबको आश्‍चर्यमें डालकर जीवन्‍धर कुमारकी पूजा की और कहा कि हे कुमार ! आज से लेकर दु:ख और सुख के समय आप मेरा स्‍मरण करना । इस प्रकार कुमारसे प्रार्थना कर वह अपने स्‍थान पर चला गया । आचार्य कहते हैं कि बिना कारण ही जो उपकार किये जाते हैं उनका फल अवश्‍य होता है ॥359-365॥

इस प्रकार वन में चिरकाल तक क्रीड़ा कर जब सब लोग लौट रहे थे तब राजाका अशनिघोष नाम का मदोन्‍मत्‍त हाथी लोगोंका हल्‍ला सुन कर बिगड़ उठा । वह अहंकार से भरा हुआ था और साधारण मनुष्‍य उसे वश नहीं कर सकते थे । वह हाथी सुरमन्‍जरीके रथकी ओर दौड़ा चला आ रहा था । उसे देख कर जीवन्‍धर कुमार ने हाथीकी विनय और उन्‍नय क्रियाका शीघ्र ही निर्णय कर लिया, वे लीला पूर्वक उसके पास पहुँचे, बत्‍तीस तरहकी क्रीड़ाओं के द्वारा उसे खेद खिन्‍न कर दिया परन्‍तु स्‍वयंको कुछ भी खेद नहीं होने दिया । अन्‍त में वह हाथी निश्‍चेष्‍ट खड़ा हो गया और उन्‍होंने उसे आलानसे बाँध दिया । यह सब देख नगरवासी लोग जीवन्‍धर कुमार के हस्ति-विज्ञान की प्रशंसा करते हुए नगर में प्रविष्‍ट हुए ॥366-369॥

जीवन्‍धर कुमार के देखने से जिसका ह्णदय व्‍याकुलित हो रहा है ऐसी सुरमन्‍जरी उसी समय से काम से मोहित हो गई ॥370॥

सुरमन्‍जरीके माता-पिताने, उसकी इंगितोंसे, चेष्‍टाओंसे तथा बात-चीतसे युक्ति पूर्वक यह जान लिया कि इसकी जीवन्‍धर कुमारमें लग रही है । तदनन्‍तर उन्‍होंने जीवन्‍धर कुमार के माता-पितासे निवेदन किया और उनकी आज्ञानुसार शुभ योग में ऐश्‍वर्यको धारण करने वाले जीवन्‍धर कुमार के लिए वह कन्‍या समर्पण कर दी ॥371-372॥

इसके बाद जीवन्‍धर कुमार उचित प्रेम करते हुए सुरमन्‍जरीके साथ इच्‍छानुसार सुख का उपभोग करने लगे । तदनन्‍तर नगर के लोग निरन्‍तर जीवन्‍धर कुमारकी शूर-वीरता और सौभाग्‍य–शीलताकी कथा करने लगे परन्‍तु उसे दुष्‍ट काष्‍ठांगारिक राजा सहन नहीं कर सका इसलिए उसने क्रोधमें आकर लोगोंसे कहा कि इस मुर्ख जीवन्‍धरने मेरे गन्‍धवारण हाथी को बाधा पहुँचा कर उसका तिरस्‍कार किया है । यह वैश्‍यका पुत्र है इसलिए हरड, आँवला, शोंठ आदि चीजोंका क्रय-विक्रय करना इसका काम है परन्‍तु यह अपनी जातिके कार्योंसे तो विमुख रहता है और अहंकार से चूर हो कर राजपुत्रों के करने योग्‍य कार्य में आसक्‍त होता है । इसलिए खोटी चेष्‍टा करने वाले इस दुष्‍टको शीघ्र ही यमराज के मुख में भेज दो । इस प्रकार उसने चण्‍ड दण्‍ड नामक, नगर के मुख्‍य रक्षकको आज्ञा दी ॥373-377॥

चण्‍डदण्‍ड भी सेना तैयार कर क्रोधसे जीवन्‍धर कुमार के सम्‍मुख दौड़ा । इधर जीवन्‍धर कुमार को भी इसका पता लग गया इसलिए वे भी मित्रोंको साथ ले युद्ध करने की इच्छा से उसके सम्‍मुख गये और स्‍वयं सुरक्षित रह कर उसे उसी समय पराजित कर दिया । इससे काष्‍ठांगारिक और भी कुपित हुआ और उसने बहुत-सी सेना भेजी । उस सेना को देख कर जीवन्‍धर कुमार दयार्द्धचित्‍त होकर विचार करने लगे कि इन क्षुद्र प्राणियोंको व्‍यर्थ मारनेसे क्‍या लाभ है ? मैं किन्‍हीं उपायों से इस दुष्‍ट काष्‍ठांगारिकको ही शान्‍त करता हूँ । ऐसा विचार कर उन्‍होंने अपने मित्र सुदर्शन यक्षका उपकार किया और उसने भी आकर तथा जीवन्‍धर कुमारका अभिप्राय जान कर सब उपद्रव शान्‍त कर दिया । तदनन्‍तर वह यक्ष, जीवन्‍धर कुमारकी सम्‍मतिसे उन्‍हें विजयगिरि नामक हाथी पर बैठा कर अपने घर ले गया सो ठीक ही है क्‍योंकि मित्र के लिए अपना घर दिखलाना मित्रोंका सद्भाव रहना ही है ॥378-383॥

जीवन्‍धर कुमारकी प्रवृत्तिको नहीं जानने वाले उनके साथी और भाई-बन्‍धुलोग हवासे हिलते हुए चन्‍चल छोटे पत्‍तोंके समान कँपने लगे और वे सब अपने आपको संभालनेमें समर्थ नहीं हो सके । परन्‍तु गन्‍धर्वदत्‍ता जीवन्‍धरके जानेका कारण जानती थी इसलिए वह निराकुल रही । 'कुमार को कुछ भी भय नहीं है, इसलिए आप लोग डरिये नहीं, वे शीघ्र ही आजावेंगे, ऐसा कह कर उस बुद्धिमतीने सबको शान्‍त कर दिया ॥384–386॥

उधर जीवन्‍धर कुमार भी यक्षके घर में बहुत दिन त‍क सुख से रहे । तदनन्‍तर चेष्‍टाओंसे उन्‍होंने यक्षसे अपने जानेकी इच्‍छा प्रकट की ॥387॥

उनका अभिप्राय जानकर यक्षने उन्‍हें जिसकी कान्ति देदीप्‍यमान है, जो इच्छित कार्योंको सिद्ध करने वाली है, और इच्‍छानुसार रूप बना देने वाली है ऐसी एक अंगूठी देकर उस पर्वत से नीचे उतार दिया और उन्‍हें किसीसे भी भयकी आशंका नहीं है यह विचार कर वह यक्ष कुछ दूर तो उनके पीछे आया और बादमें पूजा कर चला गया ॥388-389॥

कुमार भी वहाँ से कुछ दूर चल कर चन्‍द्राभ नामक नगर में पहुँचे । वह नगर चूनासे पुते हुए महलोंसे ऐसा जान पड़ता था मानों चाँदनीसे सहित ही हो ॥390॥

वहाँ के राजाका नाम धनपति था जो कि लोकपालके समान नगरकी रक्षा करता था । उसकी रानीका नाम तिलोत्‍तमा था और उन दोनोंके पद्मोत्‍तमा नाम की पुत्री थी ॥391॥

वह कन्‍या विहार करने के लिए वन में गई थी, वहाँ दुष्‍ट साँपने उसे काट खाया, यह देख राजा ने अपने नगर में घोषणा कराई कि जो कोई मणि मन्‍त्र औषधि आदिके द्वारा इस कन्‍याको निर्विष कर देगा मैं उसे यह कन्‍या और आधा राज्‍य दूंगा ॥392-393॥

आदित्‍य नाम के मुनिराजने यह बात पहले ही कह रक्‍खी थी इसलिए राजाकी यह घोषणा सुनकर साँपके काटनेका दवा करने वाले बहुत से वैद्य, कन्‍याके लोभसे चिकित्‍सा करने के लिए आये परन्‍तु उस विषको दूर करने में समर्थ नहीं हो सके । तदनन्‍तर राजाकी आज्ञा से सेवक लोग फिर भी किसी वैद्यको ढूँढ़नेके लिए निकले और इधर-उधर दौड़-धूप करनेवाले उन सेवकोंने भाग्‍यवश जीवन्‍धर कुमार को देखा । देखते ही उन्‍होंने बड़ी व्‍यग्रतासे पूछा कि क्‍या आप विष उतारना जानते हैं ? ॥394-396॥

जीवन्‍धर कुमार ने भी उत्‍तर दिया कि हाँ, कुछ जानता हूं । उनके वचन सुनकर सेवक लोग बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुए और उन्‍हें बड़े हर्ष से साथ ले गये ॥397॥

साँप काटनेका मन्‍त्र जानने में निपुण जीवन्‍धरने भी उस यक्षका स्‍मरण किया और मन्‍त्रसे अभिमन्त्रित कर राजपुत्रीको विष-वेगसे रहित कर दिया ॥398॥

इससे राजा को बहुत सन्‍तोष हुआ उसने तेज तथा कान्ति आदि लक्षणों से निश्‍चय कर लिया कि यह अवश्‍य ही राजवंश में उत्‍पन्‍न हुआ है इसलिए उसने अपनी पुत्री और पहले कहा हुआ आधा राज्‍य उन्‍हें समर्पण कर दिया । उस कन्‍याके लोकपाल आदि बत्‍तीस भाई थे उनके गुणों से अनुरन्जित होकर जीवन्‍धर कुमार उन्‍हींके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे । तदनन्‍तर वहाँ कुछ दिन रहकर भाग्‍य की प्रेरणासे वे किसीसे कुछ कहे बिना ही रात्रिके समय चुपचाप वहाँसे चल पड़े और कितने ही कोश चलकर क्षेम देशके क्षेम नामक नगर में जा पहुँचे । वहाँ उन्‍होंने नगर के बाहर मनोहर वन में हजार शिखरोंसे सुशोभित एक जिन-मन्दिर देखा ॥399-403॥

जिन मन्दिरको देखते ही उन्‍होंने नमस्‍कार किया, हाथ जोड़े, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और उसी समय विधिपूर्वक स्‍तुति करना शुरू कर दिया ॥404॥

उसी समय अकस्‍मात् एक चम्‍पाका वृक्ष मानो अपना अनुराग बाहिर प्रकट करता हुआ अपने फूलोंसे युक्‍त हो गया ॥405॥

जो कोकिलाएँ पहले गूँगीके समान हो रही थीं वे उन कुमार के शुभागमन रूप औषधिसे चिकित्‍सा की हुईके समान ठीक होकर सुननेके योग्‍य मधुर शब्‍द करने लगीं ॥406॥

उस जैन-मन्दिरके समीप ही एक सरोवर था जो स्‍वच्‍छ जलसे भरा हुआ था और ऐसा जान पड़ता था मानो स्‍फटिक मणिके द्रवसे ही भरा हो । उस सरोवरमें जो कमल थे वे सबके सब एक साथ फूल गये और उनपर भ्रमर मँडराते हुए गुंजार करने लगे । इसके सिवाय उस मन्दिरके द्वारके किवाड़ भी अपने आप खुल गये ॥407-408॥

यह अतिशय देख, जीवन्‍धर कुमारकी भक्ति और भी बढ़ गई उन्‍होंने उसी सरोवरमें स्‍नान कर विशुद्धता प्राप्‍त की और फिर उसी सरोवरमें उत्‍पन्‍न हुए बहुतसे फूल लेकर जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा की तथा अर्थोंसे भरे हुए अनेक इष्‍ट स्‍तोत्रोंसे निराकुल होकर उनकी स्‍तुति की । उस नगर में सुभद्र सेठकी निर्वृति नाम की स्‍त्रीसे उत्‍पन्‍न हुई एक क्षेमसुन्‍दरी नाम की कन्‍या थी जो कि साक्षात् लक्ष्‍मी के समान सुशोभित थी । पहले किसी समय विनयन्‍धर नाम के मुनिराजने कहा था कि क्षेमसुन्‍दरीके पतिके समीप आनेपर चंपाका वृक्ष फूल जायगा, आदि चिह्न बतलाये थे । उसी समय सेठने उसकी परीक्षा करने के लिए वहाँ कुछ पुरूष नियुक्‍त कर दिये थे ॥409-412॥

जीवन्‍धर कुमार के देखने से वे पुरूष बहुत ही हर्षित हुए और कहने लगे कि आज हमारा नियोग पूरा हुआ । उन लोगोंने उसी समय जाकर यह स‍ब समाचार अपने स्‍वामीसे निवेदन किया । उसे सुनकर सेठ भी सन्‍तुष्‍ट होकर कहने लगा कि मुनियोंका वचन कभी असत्‍य नहीं होता ॥413-414॥

इस प्रकार प्रसन्‍न होकर उसने श्रीमान् जीवन्‍धर कुमार के लिए विधि-पूर्वक अपनी योग्‍य कन्‍या समर्पित कर दी । तदनन्‍तर वही सेठ जीवन्‍धर कुमारसे कहने लगा कि जब मैं पहले राजपुर नगर में रहता था तब राजा सत्‍यन्‍धरने मुझे यह धनुष और ये बाण दिये थे, ये आपके ही योग्‍य हैं इसलिए इन्‍हें आपही ग्रहण करें – इस प्रकार कहकर वह धनुष और बाण भी दे दिये ॥415-416॥

जीवन्‍धर कुमार धनुष और बाण लेकर बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुए और उसी नगर में सुख से रहने लगे । इस तरह कुछ समय व्‍यतीत होने पर किसी समय गन्‍धर्वदत्‍ता अपनी विद्याके द्वारा जीवन्‍धर कुमार के पास गई और उन्‍हें सुख से बैठा देख, किसी के जाने बिना ही फिरसे राजपुर वापिस आ गई सो ठीक ही है क्‍योंकि प्रियजनोंका उत्‍सव ही प्रेमी जनोंका प्रेम कहलाता है । तदनन्‍तर कितने ही दिन बाद पहलेके समान उस नगरसे भी वे पुण्‍यवान् जीवन्‍धर कुमार धनुष बाण लेकर चल पड़े और सुजन देशके हेमाभ नगर में जा पहुँचे ॥417-420॥

वहाँ के राजाका नाम दृढ़मित्र और रानीका नाम नलिना था । उन दोनोंके ए‍क हेमाभा नाम की पुत्री थी । हेमाभाके जन्‍म-समय ही किसी निमित्‍त-ज्ञानीने कहा था कि मनोहर नाम के वन में जो आयुध शाला है वहाँ धनुषधारियोंके व्‍यायामके समय जिसके द्वारा चलाया हुआ बाण लक्ष्‍य स्‍थानसे लौटकर पीछे वापिस आ जावेगा यह उत्‍तम लक्षणोंवाली कन्‍या उसीकी वल्‍लभा होगी ॥421-423॥

उस आदेशको सुनकर उस समय जो धनुष-विद्याके जाननेवाले थे वे सभी उक्‍त कन्‍याकी आशा से उसी प्रकार का अभ्‍यास करने में लग रहे थे ॥424॥

भाग्‍यवश जीवन्‍धर कुमार भी उस स्‍थान पर जा पहुँचे । धनुषधारी लोग उन्‍हें देखकर कहने लगे कि हे भाई ! राजा के आदेशानुसार क्‍या आपने भी धनुष चलानेमें कुछ परिश्रम किया है ॥425॥

इसके उत्‍तरमें जीवन्‍धर कुमार ने कहा कि हाँ, कुछ है तो । तब उन धनुषधारियोंने कहा कि अच्‍छा तो यह लक्ष्‍य बेधो यहाँ निशाना मारो । इसके उत्‍तरमें जीवन्‍धर कुमार ने तैयार किया हुआ धनुष-बाण लेकर उस लक्ष्‍यको बेध दिया और उनका वह बाण लक्ष्‍य प्राप्‍त करने के पहले ही लौट आया । यह सब देख, वहाँ जो खड़े हुए थे उन्‍होंने राजा को खबर दी ॥426-427॥

राजा सुनकर बहुत ही प्रसन्‍न हुआ और कहने लगा कि मैं जिस विशिष्‍ट लताको ढूँढ़ रहा था वह स्‍वयं आकर पैरोंमें लग गई । तदनन्‍तर उसने विवाहकी विधिके अनुसार बड़े वैभव से वह कन्‍या जीवन्‍धर कुमार के लिए दे दी । आचार्य कहते हैं कि देखो, पुण्‍य यह कहलाता है । गुणमित्र, बहुमित्र, सुमित्र, धनमित्र तथा और भी कितने ही जीवन्‍धर कुमार के साले थे उन सबको वे समस्‍त विद्याओं में निपुण बनाते तथा पूर्वकृत पुण्‍यका उपभोग करते हुए वहाँ चिरकाल तक रहे आये । इधर गन्‍धर्वदत्‍ता बार-बार छिपकर जीवन्‍धर कुमार के पास आती जाती थी उसे देख एक समय नन्‍दाढयने पूछा कि बता तू छिपकर कहाँ जाती है ? मैं भी वहाँ जाना चाहता हूं । इसके उत्‍तरमें गन्‍धर्वदत्‍ताने हँसकर कहा कि जहाँ मैं जाया करती हूँ उस स्‍थानपर यदि तू जाना चाहता है तो देवतासे अधिष्ठित स्‍मरतर‍ंगिणी नामक शय्यापर अपने बड़े भाईका स्‍मरण कर विधि-पूर्वक सो जाना । इस प्रकार संतोषपूर्वक तू उनके पास पहुँच जायेगा । गन्‍धर्वदत्‍ताकी बात का निश्‍चय कर नन्‍दाढय रात्रिके समय स्‍मरतरंगिणी शय्यापर सो गया और भोगिनी नाम की विद्याने उसे शय्या सहित बड़े भाईके पास भेज दिया । तदनन्‍तर जीवन्‍धर कुमार और नन्‍दाढय दोनों एक दूसरेको देखकर बड़ी प्रसन्‍नतासे मिले और सुख-समाचार पूछकर वहीं रहने लगे सो ठीक ही है क्‍योंकि इस संसार में प्रसन्‍नतासे भरे हुए दो भाइयोंके समागमसे बढ़कर और कोई दूसरी वस्‍तु प्रीति उत्‍पन्‍न करनेवाली नहीं है ॥428-437॥

अथानन्‍तर इसी प्रसिद्ध सुजन देशमें एक नगरशोभ नाम का नगर था उसमें दृढमित्र राजा राज्‍य करता था । उसके भाईका नाम सुमित्र था । सुमित्रकी स्‍त्री का नाम वसुन्‍धरा था और उन दोनोंके रूप तथा विज्ञान से सम्‍पन्‍न श्रीचन्‍द्रा नाम की पुत्री थी ॥438-439॥

जिसके यौवनका आरम्‍भ पूर्ण हो रहा है ऐसी उस श्रीचन्‍द्राने किसी समय अपने भवनके आँगन में इच्‍छानुसार क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरीका जोड़ा देखा ॥440॥

देखते ही उसे जातिस्‍मरण हुआ और वह अकस्‍मात् ही मूर्च्छित हो गई । उसकी दशा देख, समीप रहनेवाली सखियाँ घबड़ा गई, उनमें जो कुशल थीं उन्‍होंने चन्‍दन तथा खसके ठण्‍डे जलसे उसे सींचा, पंखासे उत्‍पन्‍न हुई आनन्‍ददायी हवासे उसके ह्णदयको सन्‍तोष पहुंचाया और मीठे वचनों से सम्‍बोधकर उसे सचेत किया सो ठीक ही हैं क्‍योंकि हितकारी मित्रगण कष्‍टके समय क्‍या नहीं करते हैं ? अर्थात् सब कुछ करते हैं ॥441-443॥

यह समाचार सुनकर उसके माता-पिताने तिलकचन्‍द्राकी पुत्री और श्रीचन्‍द्राकी सखी अलकसुन्‍दरी से शोकवश कहा कि तू जाकर कन्‍याकी मूर्च्‍छाका कारण तलाश कर । माता-पिताकी बात सुनकर बात-चीत करने में निपुण अलकसुन्‍दरी भी श्रीचन्‍द्राके पास गई और एकान्‍तमें पूछने लगी कि हे भट्टारिके ! मुझे बतला कि तेरी मूर्च्‍छाका कारण क्‍या है ? इसके उत्‍तरमें श्रीचन्‍द्राने कहा कि हे प्राणोंसे अधिक प्‍यारी सखि ! यदि तू मेरी मूर्च्‍छाका कारण सुनना चाहती है तो चित्‍त लगाकर सुन, मेरी ऐसी कोई बात नहीं है जो तुझसे कहने योग्‍य न हो । इस प्रकार अच्‍छी तरह स्‍मरणकर उसने अपने पूर्वभवका समस्‍त सम्‍बन्‍ध अलकसुन्‍दरीको कह सुनाया । अलकसुन्‍दरी बड़ी बुद्धिमती थी वह शीघ्र ही सब बातको अच्‍छी तरह समझकर उसी समय श्रीचन्‍द्राके माता-पिता के पास गई और स्‍पष्‍ट तथा मधुर शब्‍दोंमें उसकी मूर्च्‍छाका कारण जैसा कि उसने पहले सुना था इस प्रकार कहने लगी ॥444-449॥

इस जन्‍मसे पहले तीसरे जन्‍मकी बात है तब इसी हेमांगद देशके राजपुर नगर में वैश्‍यकुल शिरोमणि रत्‍नतेज नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम रत्‍नमाला था । यह कन्‍या उन दोनों की अनुपमा नाम की अतिशय रूपवती पुत्री थी । अनुपमा केवल नाम से ही अनुपमा नहीं थी किन्‍तु गुणों से भी अनुपमा (उपमा रहित) थी । उसी नगर में वैश्‍यवंश में उत्‍पन्‍न हुए कनकतेजकी स्‍त्री चन्‍द्रमाला से उत्‍पन्‍न हुआ सुवर्णतेज नाम का एक पुत्र था जो कि बहुत ही बुद्धिहीन और भाग्‍यहीन था । अनुपमाके माता-पिताने पहले इसी सुवर्णतेज को देनी कही थी परन्‍तु पीछे उसे दरिद्र और मूर्खताके कारण अपमानितकर जवाहरातका काम जाननेवाले गुणमित्र नामक किसी दूसरे वैश्‍य-पुत्र के लिए दे दी । अनुपमा उसके पास कुछ समय तक सुख से रही ॥450-454॥

किसी एक समय गुणमित्र जलयात्राके लिए गया था अर्थात् जहाजमें बैठकर कहीं गया था परन्‍तु समुद्रमें नदी के मुँहानेसे जब निकल रहा था तब किसी बड़ी भँवरमें पड़कर मर गया । उसकी स्‍त्री अनुपमाने जब यह खबर सुनी तब यह भी स्‍वयं उस स्‍थानपर जाकर डूब मरी । तदनन्‍तर उसी राजपुर नगर के गन्‍धोत्‍कट सेठके घर गुणमित्रका जीव पवनवेग नाम का कबूतर हुआ और अनुपमा रतिवेगा नाम की कबूतरी हुई । गन्‍धोत्‍कटके घर उसके बालक अक्षराभ्‍यास करते थे उन्‍हें देखकर उन दोनों कबूतर – कबूतरीने भी अक्षर लिखना सीख लिया था । गन्‍धोत्‍कट और उसकी स्‍त्री, दोनों ही श्रावक के व्रत पालन करते थे इसलिए उन्‍हें देखकर कबूतर-कबूतरीका भी उपयोग अत्‍यन्‍त शान्‍त हो गया था । इस प्रकार जन्‍मान्‍तरसे आये हुए स्‍नेहसे वे दोनों परस्‍पर मिलकर वहाँ बहुत समय तक सुख से रहे आये । सुवर्णतेज को अनुपमा नहीं मिली थी इसलिए वह गुणमित्र और अनुपमासे बैर बाँधकर मरा तथा मरकर बिलाव हुआ । एक दिन वह क‍बूतरोंका जोड़ा कहीं इच्‍छानुसार क्रीड़ा कर रहा था उसे देखकर उस बिलावने रतिवेगा नाम की कबूतरीको इस प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार कि राहु चन्‍द्रमा के विम्‍बको ग्रस लेता है ॥455-460॥

यह देख कबूतरको बड़ा क्रोध आया, उसने नख और पंखों की ताड़नासे तथा चोंचके आघातसे बिलावको मारकर अपनी स्‍त्री छुड़ा ली ॥461॥

किसी एक समय उसी नगर के समीपवर्ती पहाड़की गुफाके समीप पापी लोगोंने एक जाल बनाया था, पवनवेग कबूतर उसमें फँसकर मर गया तब रतिवेगा कबूतरीने स्‍वयं घर आकर और चोंचसे लिखकर सब लोगों को अपने पतिके मरनेकी खबर समझा दी ॥462-463॥

तदनन्‍तर उसके वियोगरूपी भारी दु:खसे पीडित होकर वह कबूतरी भी मर गई और यह आप दोनोंकी प्‍यारी श्रीचन्‍द्रा नाम की पुत्री हुई ॥464॥

आज कबूतरोंका युगल देखकर पूर्वभवका स्‍मरण हो आनेसे ही यह मूर्च्छित हुई थी, यह सब बात इसने मुझे साफ-साफ बतलाई है ॥465॥

इस प्रकार अलकसुन्‍दरीके वचन सुनकर माता-पिता अपनी पुत्रीके पतिकी तलाश करने की इच्‍छा से बहुत ही व्‍याकुल हुए ॥466॥

उन्‍होंने अपनी पुत्रीके पूर्वभवका वृत्‍तान्‍त एक पटियेपर साफ-साफ लिखवाया और नटोंमें अत्‍यन्‍त चतुर रंगतेज नाम का नट तथा उसकी स्‍त्री मदनलताको बुलाया, दान देकर उनका योग्‍य सम्‍मान किया, करने योग्‍य कार्य समझाया और 'यत्‍नसे यह कार्य करना' ऐसा कहकर वह चित्रपट उनके हाथमें दे दिया ॥467-468॥

वे नट और नटी भी चित्रपट लेकर पुष्‍पक वन में गये और उसे वहीं फैलाकर सब लोगों के सामने नृत्‍य करने लगे ॥469॥

इधर श्रीचन्‍द्राका पिता भी उसी वन में क्रीड़ा करने के लिए गया था वहाँ उसने समाधिगुप्‍त मुनिराजको देखकर प्रदक्षिणाएँ दीं, नमस्‍कार किया, धर्म का स्‍वरूप सुना और तदनन्‍तर पूछा कि हे पूज्‍य ! मेरी पुत्रीका पूर्वभवका पति कहाँ है ? सो कहिये । मुनिराज अवधिज्ञानरूपी दिव्‍य नेत्रके धारक थे इसलिए कहने लगे कि वह आज हेमाभनगर में है तथा पूर्ण यौवनको प्राप्‍त है ॥470-472॥

इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर वह राजा नट, मित्र तथा समस्‍त परिवारके लोगों के साथ हेमाभनगर पहुँचा और वहाँ पहुँचकर उसने मनको हरण करनेवाले एक आश्‍चर्यकारी नृत्‍यका आयोजन किया । उस नृत्‍यको देखनेके लिए नगर के अन्‍य लोगों के साथ नन्‍दाढय भी गया था ॥473-474॥

परन्‍तु वह जन्‍मान्‍तरका स्‍मरण हो आनेसे सहसा मूर्च्छित होगया । तदनन्‍तर विशेष-विशेष शीतलोपचार करनेसे जब उसकी मूर्च्‍छा दूर हुई तब बड़े भाई जीवन्‍धर कुमार ने उससे कहा कि मूर्च्‍छा आनेका कारण बतला । इसके उत्‍तरमें नन्‍दाढयने चित्रका सब हाल कहकर जीवन्‍धरसे कहा कि वही गुणमित्रका जीव आज मैं तेरा छोटा भाई हुआ हूँ । यह सुनकर जीवन्‍धर कुमार बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुए और विवाहके लिए पहलेसे ही महामह पूजा प्रारम्‍भ करने लगे ॥475-477॥

इसीसे सम्‍बन्‍ध रखनेवाली एक कथा और कहता हूँ उसे भी सुनो । हरिविक्रम नाम से प्रसिद्ध एक भीलों का राजा था । उसने भाई, बन्‍धुओंसे डरकर कपित्‍थ नामक वन में दिशागिरि नामक पर्वतपर वनगिरि नामक नगर बसाया था । उस वनके स्‍वामी भीलके सुन्‍दरी नाम की स्‍त्री थी और वनराज नाम का पुत्र था । वटवृक्ष, मृत्‍यु, चित्रसेन, सैन्‍धव, अरिन्‍जय, शत्रुमर्दन और अतिबल ये उस भीलके सेवक थे । लोहजंघ और श्रीषेण ये दोनों उसके पुत्र वनराज के मित्र थे । किसी एक दिन लोहजंघ और श्रीषेण दोनों ही हेमाभनगर में गये । वहाँ के वन में चाँदनीके समान श्रीचन्‍द्रा खेल रही थी । उसे देखकर उन दोनोंने उसकी प्रशंसा की । वहींपर पानी पीनेके लिए एक घोड़ा आया था उसे देख इन दोनोंने उस घोड़े के रक्षकका तिरस्‍कार कर वह घोड़ा छीन लिया और ले जाकर हरिविक्रम भीलको देकर उसे सन्‍तुष्‍ट किया । तदनन्‍तर हितकी इच्‍छा रखनेवाले वे दोनों मित्र हरिविक्रमके पाससे चलकर अन्‍याय मार्गका अनुसरण करने वाले उसके पुत्र वनराज के समीप गये और श्रीचन्‍द्राके रूप कान्ति आदि सम्‍पदाका अच्‍छी तरह वर्णन करने लगे । यह सुनकर वनराजकी उसमें अभिलाषा जागृत हो गई । वनराज पूर्वभवमें सुवर्णतेज था और श्रीचन्‍द्रा अनुपमा नाम की कन्‍या थी । उस समय सुवर्णतेज अनुपमाको चाहता था परन्‍तु उसे प्राप्‍त नहीं हो सकी थी । उसी अनुराग से उसने अपने दोनों मित्रोंसे कहा कि किसी भी उपाय से उसे मेरे पास लाओ ॥478-486॥

कहा ही नहीं, उसने बड़े-बड़े योद्धाओं के साथ उन दोनों मित्रोंको भेज भी दिया । दोनों मित्रोंने हेमाभ नगर में जाकर सबसे पहले कन्‍याके सोनेके घरका पता लगाया और फिर सुरंग लगाकर कन्‍याके पास पहुँचे । वहाँ जाकर उन दोनोंने इस आशयका एक पत्र लिखकर सुरंगमें रख दिया कि पुरूषार्थी श्रीषेण तथा लोहजंघ कन्‍याको लेकर गये हैं और जिस प्रकार रात्रिके समय चन्‍द्रमाकी रेखाके साथ शनि और मंगल जाते हैं उसी प्रकार हम दोनों कन्‍याको लेकर वनराज के समीप जाते हैं । यह पत्र तो उन्‍होंने सुरंगमें रक्‍खा और श्रीचन्‍द्राको लेकर चल दिये । दूसरे दिन सूर्योदयके समय उक्‍त पत्र बाँचनेसे कन्‍या के हरे जानेका समाचार जानकर राजा ने कन्‍याके दोनों भाइयोंको उसे वापिस लानेके लिए प्रेरित किया । दोनों भाई शीघ्र ही गये और उनके साथ युद्ध करने लगे । अपने भाई किन्‍नरमित्र और यक्षमित्रको युद्ध करते देख श्रीचन्‍द्रा को बहुत दु:ख हुआ इसलिए उसने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक मैं अपने नगर के भीतर स्थित अपने जिनालयके दर्शन नहीं कर लूँगी तब तक कुछ भी नहीं खाऊँगी । ऐसी प्रतिज्ञा लेकर उसने मौन धारण कर लिया ॥487-492॥

इधर वनराज के मित्र श्रीषेण और लोहजंघने युद्धमें राजा के पुत्रोंको हरा दिया और बहुत ही प्रसन्‍न होकर वह कन्‍या वनराज के लिए सौंप दी ॥493॥

जब वनराजने देखा कि श्रीचन्‍द्रा मुझसे विरक्‍त है तब उसने उसके साथ मिलानेवाले उपाय करने में चतुर अपनी दूतियाँ बुलाकर उनसे कहा कि तुम लोग किसी भी उपायसे इसे मुझपर प्रसन्‍न करो । वनराजकी प्रेरणा पाकर वे दूतियाँ श्रीचन्‍द्राके पास गईं और साम-भेद आदि अनेक विधानोंको जाननेवाली वे दूतियाँ धीरे-धीरे उसके ह्णदय में प्रवेश करने के लिए कहने लगीं कि 'हे श्री चन्‍द्रे ! तू इस तरह क्‍यों बैठी है ? स्‍नान कर, कपड़े पहिन, आभूषणोंसे अलंकार कर, माला धारण कर, मनोहर भोजन कर और हम लोगों के साथ विश्‍वास पूर्वक सुख की कथाएँ कह ॥494-497॥

अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करते-करते यह दुर्लभ मनुष्‍य-जन्‍म पाया है इसलिए इसे भोगोपभोग की विमुखतासे व्‍यर्थ ही नष्‍ट मत कर ॥498॥

इस संसार में रूप आदि गुणों की अपेक्षा वनराजसे बढ़कर दूसरा वर नहीं है यह तू अपने नेत्र अच्‍छी तरह खोलकर क्‍यों नहीं देखती है ? ॥499॥

जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती के साथ लक्ष्‍मी रहती थी, आभूषण जातिके वृक्षोंके समीप शोभा र‍हती है और पूर्ण चन्‍द्रमा के साथ चाँदनी रहती है उसी प्रकार तू वनराज के समीप रह । चूड़ामणि रत्‍नको पाकर ऐसा कौन मूर्ख होगा जो उसका तिरस्‍कार करता हो, इस प्रकार के तथा भय देनेवाले और भी वचनों से उन दूतियोंने श्रीचन्‍द्राको बहुत तंग किया ॥500-501॥

वनराज के पिता हरिविक्रमने गुप्‍त रीतिसे कन्‍याका यह उपद्रव सुनकर विचार किया कि ये दूतियाँ इसे तंग करती हैं इसलिए संभव है कि कदाचित् यह कन्‍या आत्‍मघात कर ले इसलिए उसने वनराजको डाँटकर वह कन्‍या अपनी पुत्रियोंके साथ रख ली ॥502-503॥

इधर दृढ़मित्र आदि सब भाई-बन्‍धुओंने मिलकर सेना तैयार कर ली और उस सेना के द्वारा वनराजका नगर घेरकर सब आ डटे ॥504॥

उधरसे विरोधी दलके लोग भी युद्ध करने की इच्छा से बाहर निकले । यह देख दयालु जीवन्‍धर कुमार ने विचार किया कि युद्ध अनेक जीवोंका विघात करनेवाला है इसलिए इससे क्‍या लाभ होगा ? ऐसा विचार कर उन्‍होंने उसी समय अपने सुदर्शन यक्षका स्‍मरण किया । स्‍मरण करते ही यक्षने किसीको कुछ पीड़ा पहुँचाये बिना ही वह कन्‍या जीवन्‍धर कुमार के लिए सौंप दी सो ठीक ही है क्‍योंकि पापसे डरनेवाले पुरूष योग्‍य उपायसे ही कार्य सिद्ध करते हैं ॥505-507॥

दृढ़मित्र आदि सभी लोग कार्य सिद्ध हो जानेसे युद्ध बन्‍द कर नगरकी ओर चले गये परन्‍तु वनराज युद्धकी इच्छा से वापिस नहीं गया । यह देख, यक्षने उसे दुष्‍ट अभिप्रायवाला समझकर जबर्दस्‍ती पकड़ लिया और जीवन्‍धर कुमार को सौंप दिया । श्रीमान् जीवन्‍धर कुमार भी वनराजको कैदकर सेना के साथ सेनारम्‍य नाम के सरोवरके किनारे ठहर गये ॥508-510॥

वहीं उन्‍होंने तेजके निधि स्‍वरूप एक चारण मुनिराज के अकस्‍मात् दर्शन किये । वे मुनिराज भिक्षाके लिए आ रहे थे इसलिए जीवन्‍धर कुमार ने उठकर उन्‍हें योग्‍य रीतिसे नमस्‍कार किया और बड़ी भक्ति से यथायोग्‍य उत्‍तम आहार दिया । इस दानके फलसे उन्‍हें भारी पुण्‍यबन्‍ध हुआ और उसी से उन्‍होंने पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥511-512॥

उस दानका फल देखकर वनराजको अपने पूर्व जन्‍मका सब वृत्‍तान्‍त ज्‍योंका त्‍यों याद आ गया ॥513॥

उधर हरिविक्रम अपने पुत्र वनराजको कैद हुआ सुनकर बड़ी भारी सेना के साथ युद्ध करने के लिए आ रहा था सो यक्षने उसे भी पकड़कर जीवन्‍धर कुमार के हाथमें दे दिया ॥514॥

तदनन्‍तर वनराजने सबके सामने अपना समस्‍त वृत्‍तान्‍त इस प्रकार निवेदन किया कि 'मैं इस जन्‍मसे तीसरे जन्‍ममें सुवर्णतेज नाम का वैश्‍य पुत्र था । वहाँसे मरकर बिलाव हुआ । उस समय इस श्रीचन्‍द्राका जीव कबूतरी था इसलिए इसे मारनेका मैंने उद्यम किया था । किसी समय एक मुनिराज चारों गतियोंके भ्रमणका पाठ कर रहे थे उसे सुनकर मैंने सब वैर छोड़ दिया और मरकर यह वनराज हुआ हूं । पूर्व भवके स्‍नेहसे ही मैंने इस श्रीचन्‍द्राका हरण किया था' ॥515-517॥

वनराजका कहा सुनकर सब लोगोंने निश्‍चय किया कि इसने अहंकार से कन्‍याका अपहरण नहीं किया है किन्‍तु पूर्वभवके स्‍नेहसे किया है ऐसा सोचकर सब शान्‍त रह गये ॥518॥

और वनराज तथा उसके पिताको बन्‍धनरहित कर छोड़ दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंका धार्मिकपना यही है ॥519॥

इसके बाद वे सब लोग राजा के नगर (हेमाभनगर) में गये वहाँ दो तीन दिन ठहरकर फिर नगरशोभा, नामक नगर में गये । वहाँ कल्‍याणरूप भाग्‍यको धारण करनेवाली श्रीचन्‍द्रा बड़ी विभूतिके साथ धनके स्‍वामी युवक नन्‍दाढयको प्रदान की । इस प्रकार विवाहकी विधि समाप्‍त होने पर भाई-बन्‍धुओके साथ फिर सब लोग हेमाभनगरको लौटे । मार्ग में किसी सरोवरके किनारे ठहरे । वहाँ जाते ही मधु-मक्खियोंने उन लोगों को काट खाया तब उन लोगोंने उनके भय से लौटकर इसकी खबर जीवन्‍धर कुमार को दी । यह सुनकर तथा विचारकर जीवन्‍धर कुमार आश्‍चर्यमें पड़ गये और कहने लगे कि इसमें कुछ कारण अवश्‍य है ? कारणका पता चलानेके लिए उन्‍होंने उसी समय यक्षका स्‍मरण किया ॥520-524॥

यक्ष शीघ्र ही आ गया और उसने उसकी सब खेचरी विद्या नष्‍ट कर शीघ्र ही उस विद्याधरको जीवन्‍धर कुमार के आगे लाकर खड़ा कर दिया ॥525॥

तब जीवन्‍धर कुमार ने उससे पूछा कि तू इस सरोवरकी रक्षा किस लिए करता है ? इस प्रकार कुमार के पूछने पर वह विद्याधर अच्‍छी तरह कहने लगा कि हे भद्र ! मेरी कथाको चित्‍त लगाकर सुनिये, मैं कहता हूँ । पहले जन्‍ममें मैं राजपुर नगर में अत्‍यन्‍त धनी पुष्‍पदन्‍त मालाकारकी स्‍त्री कुसुमश्री का जातिभट नाम का पुत्र था । उसी नगर में धनदत्‍तकी स्‍त्री नन्दिनीसे उत्‍पन्‍न हुआ चन्‍द्राभ नाम का पुत्र था । वह मेरा मित्र था, किसी एक समय आपने उस चन्‍द्राभके लिए धर्म का स्‍वरूप कहा था उसे सुनकर मेरे ह्णदय में भी धर्मप्रेम उत्‍पन्‍न हो गया ॥526-529॥

और मैंने उसी समय मद्य-मांस आदिका त्‍याग कर दिया उसके फलसे मरकर मैं यह विद्याधर हुआ । किसी समय मैंने सिद्धकूट जिनालयमें दो चारण मुनियों के दर्शन किये । मैं बड़ी विनय से उनके पास पहुँचा और उनके समीप अपने तथा आपके पूर्वभवका सम्‍बन्‍ध सुनकर आपके दर्शन करने के लिए ही अन्‍य लोगों के प्रवेशसे इस सरोवरकी रक्षा करता हुआ यहाँ रहता हूँ । उन मुनिराजने अपने दिव्‍य अवधिज्ञान से देखकर जो आपके पूर्वभवका सम्‍बन्‍ध बतलाया था उसे अब मैं कहता हूँ ॥530-532॥

धातकीखण्‍ड द्वीप के पूर्व मेरू सम्‍बन्‍धी पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्‍कलावती नाम का देश है । उसकी पुण्‍डरीकिणी नगरी में राजा जयंधर राज्‍य करता था । उसकी जयवती रानीसे तू जयद्रथ नाम का पुत्र हुआ था । किसी एक समय वह जयद्रथ क्रीड़ा करने के लिए मनोहर नाम के वन में गया था वहाँ उसने सरोवर के किनारे एक हंसका बच्‍चा देखकर कौतुक वश चतुर सेवकोंके द्वारा उसे बुला लिया और उसके पालन करनेका उद्योग करने लगा । यह देख, उस बच्‍चेके माता-पिता शोक सहित होकर आकाश में बार-बार करूण क्रन्‍दन करने लगे । उसका शब्‍द सुनकर तेरे एक सेवकने कान तक धनुष खींचा और एक बाण से उस बच्‍चेके पिताको नीचे गिरा दिया सो ठीक ही है क्‍यों‍कि पापी मनुष्‍यों को नहीं करने योग्‍य कार्य क्‍या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥533-537॥

यह देख जयद्रथकी माताका ह्णदय दया से आर्द्र हो गया और उसने पूछा कि यह क्‍या है ? सेवक से सब हाल जानकर वह सती व्‍यर्थ ही पक्षीके पिताको मारनेवाले सेवक पर बहुत कुपित हुई तथा तुझे भी डाँटकर कहने लगी कि हे पुत्र ! तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इसे इसकी मातासे मिला दे । इसके उत्‍तरमें तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञान वश किया है । इस प्रकार आर्द्र परिणाम होकर अपने आपकी बहुत ही निन्‍दा की और जिस दिन उस बालक को पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन, जिस प्रकार वर्षाकाल चातकको सजल मेघमाला से मिला देता है, वसन्‍त ऋतु फूलको आमकी लताके साथ मिला देता है और सूर्योदय भ्रमरको कमलिनीके साथ मिला देता है उसी प्रकार उसकी माताके साथ मिला दिया ॥538-542॥

इस प्रकार के अन्‍य कितने ही विनोदोंसे जयद्रथका काल निरन्‍तर सुख से बीत रहा था कि एक दिन उसे किसी कारणवश भोगों से वैराग्‍य हो गया फल-स्‍वरूप राज्‍य का भार छोड़कर उसने तपश्‍चरणका भार धारण कर लिया और जीवनके अन्‍त में शरीर छोड़कर सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में देव पर्याय प्राप्‍त कर ली ॥543-544॥

वहाँ वह अठारह सागर की आयु तक दिव्‍य भोगों से सन्‍तुष्‍ट रहा । तदनन्‍तर वहाँसे च्‍युत होकर पुण्‍य पाप के उदय से यहाँ उत्‍पन्‍न हुआ है ॥545॥

जिस सेवकने हंसको मारा था वह काष्‍ठांगारिक हुआ है और उसीने तुम्‍हारा जन्‍म होने के पहले ही युद्धमें तुम्‍हारे पिताको मारा है । तुमने हंसके बच्‍चेको सोलह दिन तक उसके माता-पितासे जुदा रक्‍खा था उसी पाप के फलसे तुम्‍हारा सोलह वर्ष तक भाई-बन्‍धुओं के साथ वियोग हुआ है । इस प्रकार विद्याधरकी कही कथा सुनकर जीवन्‍धरकुमार कहने लगे कि तू मेरा कल्‍याणकारी बन्‍धु है ऐसा कह कर उन्‍होंने उसका खूब सत्‍कार किया ॥546-548॥

तदनन्‍तर वे बड़ी प्रसन्‍नतासे सबके साथ हेमाभ नगर आये और इष्‍ट जनों के साथ इच्‍छानुसार कामभोगका सुख भोगते हुए रहने लगे ॥549॥

सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! यह तुझे प्रकृत बात बतलाई । अब इसीसे सम्‍बन्‍ध रखनेवाली कथा कही जाती है । जिस दिन नन्‍दाढय राजपुर नगरसे निकल गया उसके दूसरे ही दिन मधुर आदि मित्रोंने गन्‍धर्वदत्‍तासे पूछा कि दोनों कुमार कहाँ गये हैं ? तू सब जानती है, बतला । इसके उत्‍तरमें गन्‍धर्वदत्‍ताने बड़े आदरसे कहा कि आप लोग उनकी चिन्‍ता क्‍यों करते हैं वे दोनों भाई सुजन देशके हेमाभ नगर में सुख से रहते हैं ॥550-552॥

इस प्रकार गन्‍धर्वदत्‍ता से उनके रहनेका स्‍थान जानकर मधुर आदि सब मित्रोंको उनके देखनेकी इच्‍छा हुई और वे सब अपने आत्‍मीय जनोंसे पूछकर तथा उनसे बिदा लेकर सन्‍तोषके साथ चल पड़े ॥553॥

चलते-चलते उन्‍होंने दण्‍डक वन में पहुँचकर तपस्वियोंके आश्रममें विश्राम किया । कौतुकवश वहाँ की तापसी स्त्रियाँ आकर उन्‍हें देखने लगीं । उन स्त्रियोंमें महादेवी विजया भी थी, वह उन सबको देखकर कहने लगी कि आप लोग कौन हैं ? कहाँसे आये हैं ? और कहाँ जावेंगे ? विजयाने यह सब बड़े स्‍नेहके साथ पूछा ॥554-555॥

जब मधुर आदिने अपना सब वृत्‍तान्‍त कहा तब वह, यह स्‍पष्‍ट जानकर बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुई कि यह युवाओं का संघ मेरे ही पुत्रका परिवार है । उसने फिर कहा कि आज आप लोग यहाँ विश्राम कर जाइये और आते समय उसे यहाँ ही लाइये ॥556-557॥

इस प्रकार उसने उन लोगोंसे अच्‍छी तरह प्रार्थना की । वह देवी रूपकी अपेक्षा जीवन्‍धरके समान ही थी इसलिए सबको संशय हो गया कि शायद यह जीवन्‍धरकी माता ही हो । तदनन्‍तर उन लोगोंने प्रिय और अनुकूल वचनोंके द्वारा उस देवीको सन्‍तुष्‍ट किया और कहा कि हमलोग ऐसा ही करेंगे । इसके बाद वे आगे चले, कुछ ही दूर जाने पर उन्‍हें भीलोंने दु:खी किया परन्‍तु वे अपने पुरूषार्थसे युद्ध में भीलोंको हराकर इच्‍छानुसार आगे बढ़े । आगे चलकर मार्ग में ये सब लोग दूसरे भीलोंके साथ मिल गये और सबने हेमाभ नगर में जाकर वहाँके सेठोंको लूटना शुरू किया । इससे क्षुभित हुए नगरवासी लोगोंने हाथ ऊपर कर तथा जोर-जोरसे चिल्‍लाकर जीवन्‍धर कुमार को इस कार्यकी सूचना दी । निदान, अचिन्‍त्‍य पराक्रमके धारक दयालु जीवन्‍धर कुमार ने जाकर युद्धमें वह भीलोंकी सेना रोकी और उनके द्वारा हरण किया हुआ सब धन छीनकर वैश्‍योंके लिए वापिस दिया । इधर मधुर आदिने चिरकाल त‍क युद्ध कर अपने नाम से चिन्हित बाण चलाये थे उन्‍हें देखकर जीवन्‍धर कुमार ने उन सबको पहिचान लिया । तदनन्‍तर उन सबका जीवन्‍धर कुमारसे मिलाप हो गया और सब लोग कुमार के लिए राजपुर नगरकी सब कथा सुनाकर वहाँ कुछ काल तक सुख से रहे । इसके बाद वे कुमार को लेकर अपने नगरकी ओर चले । विश्राम करने के लिए वे उसी दण्‍डक वन में आये । वहाँ उन्‍हें महादेवी विजया मिली, स्‍नेहके कारण उसके स्‍तन दूधसे भरकर ऊँचे उठ रहे थे, नेत्र आँसूओंसे व्याप्‍त होकर मलिन हो रहे थे, शरीर-यष्टि अत्‍यन्‍त कृश थी, वह हजारों चिन्‍ताओंसे सन्‍तप्‍त थी, उसके शिरके बाल जटा रूप हो गये थे, निरन्‍तर गरम श्‍वास निकलनेसे उसके ओठोंका रंग बदल गया था और पान आदिके न खानेसे उसके दाँतों पर बहुत भारी मैल जमा हो गया था । जिस प्रकार रूक्मिणी प्रद्युम्‍नको देखकर दुखी हुई थी उसी प्रकार विजया महादेवी भी पुत्रको देखकर शोक करने लगी सो ठीक ही है क्‍योंकि इष्‍ट पदार्थका बहुत समय बाद देखना तत्‍कालमें दु:खका कारण होता ही है ॥558-569॥

पुत्र के स्‍पर्शसे उत्‍पन्‍न हुए सुख रूपी अमृत का जिसने स्‍पर्श नहीं किया है ऐसी माताको उस सुख का अनुभव कराते हुए जीवन्‍धर कुमार हाथ जोड़कर उसके चरण-कमलोंमें गिर पड़े ॥570॥

'हे कुमार ! उठ, सैकड़ों कल्‍याणोंको प्राप्‍त हो' इस प्रकार सैकड़ों आशीर्वादोंसे उन्‍हें प्रसन्‍न कर विजया महादेवी बड़े स्‍नेहसे इस प्रकार कहने लगी ॥571॥

कि 'हे कुमार ! तुझे देखने से जो मुझे सुख उत्‍पन्‍न हुआ है उसके समागम रूपी शत्रुसे ही मानो डरकर मेरा दु:ख अकस्‍मात् भाग गया है' ॥572॥

इस प्रकार वह महादेवी पुत्र के साथ बातचीत कर रही थी कि इसी बीच में कुमार के स्‍नेहसे वह चतुर यक्ष भी बड़ी शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचा ॥573॥

उसने आकर उत्‍तम जैनधर्मके वात्‍सल्‍यसे स्‍नान् माला, लेपन, समस्‍त आभूषण, वस्‍त्र तथा भोजन आदिके द्वारा सबका अलग-अलग सत्‍कार किया । तदनन्‍तर उसने युक्तियों से पूर्ण और तत्‍त्‍वसे भरे हुए मधुर वचनों से तथा प्रद्युम्‍न आदिकी कथाओंसे माता और पुत्र दोनोंका शोक दूर कर दिया । इस प्रकार आद‍र-सत्‍कार कर वह यक्ष अपने स्‍थान की ओर चला गया सो ठीक ही है क्‍योंकि मित्रता वही है जिसका कि मित्र लोग आपत्तिके समय अनुभव करते हैं ॥574-576॥

इसके बाद विजयादेवीने 'यह महा पुण्‍यात्‍मा है' ऐसा विचार कर बुद्धि और बलसे सुशोभित कुमार को अलग ले जाकर इस प्रकार कहा कि 'राजपुर नगर के सत्‍यन्‍धर महाराज तेरे पिता थे उन्‍हें मार कर ही काष्‍ठांगारिक राज्‍य पर बैठा था अत: वह तेरा शत्रु है । तू तेजस्‍वी है अत: तुझे पिताका स्‍थान छोड़ देना योग्‍य नहीं है' इस प्रकार माताके कहे हुए वचन सुनकर और अच्‍छी तरह समझकर जीवन्‍धर कुमार ने विचार किया कि 'समय और साधनके बिना प्रकट हुई शूर-वीरता फल देनेके लिए समर्थ नहीं है अत: धान्‍यकी तरह उस काल की प्रतीक्षा करनी चाहिये जो कि कार्यका साधक है' । जीवन्‍धर कुमार को यद्यपि क्रोध तो उत्‍पन्‍न हुआ था परन्‍तु उक्‍त विचार कर उन्‍होंने उसे ह्णदय में ही छिपा लिया और मातासे कहा कि हे अम्‍ब ! यह कार्य पूरा होने पर मैं तुझे लेने के लिए नन्‍दाढयको सेनापति बनाकर सेना भेजूँगा तब तक कुछ दिन तू शोक रहित हो यहीं पर रह । ऐसा कहकर तथा उसके योग्‍य समस्‍त पदार्थ और कुछ परिवारको उसके समीप रखकर महाबुद्धिमान् जीवन्‍धर कुमार स्‍वयं राजपुर चले गये ॥577-583॥

राजपुर नगर के समीप जाकर उन्‍होंने अपने सेवक आदि सब लोगों को अलग-अलग यह कहकर कि 'किसीसे मेरे आनेकी खबर नहीं कहना' पहले ही नगर में भेज दिया और स्‍वयं विद्यामयी अँगूठीके प्रभाव से वैश्‍यका वेष रखकर नगर में प्रविष्‍ट हो किसी की दूकान पर जा बैठे ॥584-585॥

वहाँ उनके समीप बैठ जानेसे सागरदत्‍त सेठको अनेक रत्‍न आदिके पिटारे तथा और भी अपूर्व वस्‍तुओं का लाभ हुआ । यह देख उसने विचार किया कि 'निमित्‍तज्ञानीने जिसके लिए कहा था यह वही पुरूष है, ऐसा विचार कर उसने अपनी स्‍त्री कमलासे उत्‍पन्‍न हुई विमला नाम की पुत्री उन्‍हें समर्पित कर दी ॥586-587॥

विवाहके बाद जीवन्‍धर कुमार कुछ दिन तक सागरदत्‍त सेठके यहाँ सुख से रहे । तदनुसार किसी अन्‍य समय परिव्राजकका वेष रखकर काष्‍ठांगारिककी सभा में गये । वहाँ प्रवेश कर तथा काष्‍ठांगारको देखकर उन्‍होंने आशीर्वाद देते हुए कहा कि 'हे राजन्‍ ! सुनो, मैं एक गुणवान् अतिथि हूँ, तुझसे भोजन चाहता हूँ, मुझे खिला दे' । यह सुकर काष्‍ठांगारिकने उसे भोजन कराना स्‍वीकृत कर लिया । 'यह निमित्‍त, मेरे उद्योग रूपी फल को उत्‍पन्‍न करने के लिए मानो फूल ही है' ऐसा विचार कर उन्‍होंने अगली आसन पर आरूढ़ होकर भोजन किया और भोजनोपरान्‍त वहाँसे चल दिया । तदनन्‍तर उन्‍होंने राजाओं के समूहमें जाकर अलग-अलग यह घोषणा कर दी कि 'मेरे हाथमें प्रत्‍यक्ष फल देनेवाला वशीकरण चूर्ण आदि उत्‍तम ओषधि है जिसकी इच्‍छा हो वह ले ले' उनकी यह घोषणा सुनकर सब लोग हँसी करते हुए कहने लगे कि देखो इसकी निर्लज्‍जता । इसका ऐसा तो बुढ़ापा है फिर भी वशीकरण चूर्ण, अन्‍जन तथा बन्‍धक आदिकी ओ‍षधियाँ रखे हुए है । इस प्रकार कहते हुए उन लोगोंने हँसी कर कहा कि 'हे ब्राह्मण ! इस नगर में एक गुणमाला नाम की प्रसिद्ध कन्‍या है । 'जीवन्‍धरने मेरे चूर्णकी सुगन्धिकी प्रशंसा नहीं की है' इसलिए वह पुरूष मात्रसे द्वेष रखने लगी है । तू अपने चूर्ण तथा अन्‍जन आदिसे पहले उसे वशमें कर ले, बादमें यह देख हम सब लोग तेरे मन्‍त्र तथा औषधि आदिको बहुत भारी मूल्‍य देकर खरीद लेंगे' ॥588-596॥

इस प्रकार लोगों के कहने पर वह ब्राह्मण कोधित-सा होकर कहने लगा कि तुम्‍हारा जीवन्‍धर मूर्ख होगा, वह चूर्णोंकी सु‍गन्धि आदिके भेदकी परीक्षा करना क्‍या जाने ॥597॥

इसके उत्‍तरमें सब लोग क्रोधित होकर उस ब्राह्मणसे कहने लगे कि 'जीवन्‍धर मनुष्‍योंमें श्रेष्‍ठ हैं' इसका विचार किये बिना ही तू उनके प्रति इच्‍छानुसार यह क्‍या बक रहा है ॥598॥

हे मिथ्‍याशास्‍त्रसे उद्दण्‍ड ! क्‍या तूने यह लोक-प्रसिद्ध कहावत नहीं सुनी है कि अपनी प्रशंसा और दूसरेकी निन्‍दामें मरणसे कुछ विशेषता (अंतर) नहीं हैं अर्थात् मरणके ही समान है ॥599॥

इस प्रकार उन लोगों के द्वारा निन्दित हुआ ब्राह्मण कहने लगा कि तो क्‍या आप जैसे लोग मेरी भी प्रशंसा करनेवाले नहीं हैं ? 'मैं भी कोई पुरूष हूँ' इस तरह अपनी प्रशंसा कर उस उद्धत ब्राह्मण ने प्रतिज्ञा की कि 'मैं क्षणभरमें गुणमालाको अपनी घटदासी बना लूँगा' । ऐसी प्रतिज्ञा कर वह गुणमाला के घरकी ओर चल पड़ा । वहाँ जाकर तथा एक दासीको बुलाकर उसने कहा कि तुम अपनी मालकिनसे कहो कि द्वार पर कोई ब्राह्मण खड़ा है ॥600-602॥

दासीने भी अपनी मालकिनको ब्राह्मणकी कही हुई बात समझा दी । गुणमाला ने अपनी अनुमति से आये हुए उस वृद्ध ब्राह्मण का यथायोग्‍य सत्‍कार कर पूछा कि 'आप कहाँसे आये हैं और यहाँसे कहाँ जावेंगे ?' गुणमाला के इस प्रश्‍नके उत्‍तरमें उसने कहा कि 'यहाँ पीछेसे आया हूँ और आगे जाऊँगा' । ब्राह्मणकी बात सुनकर कन्‍या गुणमाला के समीपवर्ती लोग हँसने लगे । यह देख, ब्राह्मण ने भी उनसे कहा कि इस तरह आप लोग हँसी न करें बुढ़ापा विपरीतता उत्‍पन्‍न कर देता है, क्‍या आप लोगोंका भी बुढ़ापा नहीं आवेगा ? ॥603-606॥

तदनन्‍तर उन लोगोंने फिर पूछा कि आप आगे कहाँ जावेंगे ? ब्राह्मण ने कहा कि जबतक कन्‍या तीर्थकी प्राप्ति नहीं हो जावेगी तबतक मेरा गमन होता रहेगा ॥607॥

इस प्रकार ब्राह्मण का कहा उत्‍तर सुनकर सबने हँसते हुए कहा कि यह शरीर और अवस्‍थासे बूढ़ा है, मनसे बूढ़ा नहीं है । तदनन्‍तर गुणमाला ने उसे अग्र आसन पर बैठाकर स्‍वयं भोजन कराया और फिर कहा कि अब आपकी जहाँ इच्‍छा हो वहाँ शीघ्र ही जाइये ॥608-609॥

इसके उत्‍तरमें ब्राह्मण ने कहा कि 'हे भद्र ! तूने ठीक कहा' इस तरह उसकी प्रशंसा करता और डगमगाता हुआ वह ब्राह्मण लाठी टेक कर बड़ी कठिनाई से उठा और उसकी शय्यापर इस प्रकार चढ़ गया मानो उसने इसे चढ़नेकी आज्ञा ही दे दी हो । यह देख, दासियाँ कहने लगीं कि इसकी निर्लज्‍जता देखो । वे हाथ पकड़ कर उसे शय्यासे दूर करने के लिए उद्यत हो गई । तब ब्राह्मण ने कहा कि आप लोगोंने ठीक ही तो कहा है, यथार्थमें लज्‍जा स्त्रियोंमें ही होती है पुरूषोंमें नहीं, यदि उनमें भी स्त्रियों के समान ही लज्‍जा होने लगे तो फिर स्त्रियों के साथ काम से संस्‍कृत किया हुआ उनका समागम कैसे हो सकता है ? ॥610-613॥

इस प्रकार वृद्ध ब्राह्मणकी बात सुनकर गुणमाला ने विचार किया कि यह केवल ब्राह्मण ही नहीं है किन्‍तु रूपपरावर्तनी विद्याके द्वारा रूप बदल कर कोई अन्‍य पुरूष यहाँ आया है । ऐसा विचार कर उसने दासियोंको रोक दिया और उस ब्राह्मणसे कहा कि क्‍या दोष है ? आप मेरे पाहुने हैं अत: इस शय्यापर बैठिये ॥614-615॥

रात्रि समाप्‍त होने पर शुद्ध तथा देशज स्‍वरके भेदोंको जाननेवाले उस वृद्ध ब्राह्मण ने चिरकाल तक श्रोत्र तथा मनको हरण करनेवाले मधुर गीत गाये । गन्‍धर्वदत्‍ताके विवाहके समय जीवन्‍धर कुमार ने जो अलंकार सहित मनोहर गीत गाये थे उन्‍हें सुनकर गुणमालाको जैसा सुख हुआ था वैसा ही सुख इस वृद्ध के गीत सुनकर हुआ । सबेरा होने पर गुणमाला ने बड़ी विनयके साथ उसके पास जाकर पूछा कि आपको किन-किन शास्‍त्रोंका अच्‍छा ज्ञान है ? ॥616-618॥

इसके उत्‍तरमें ब्राह्मण ने कहा कि मैंने बड़े यत्‍नसे धर्मशास्‍त्र, अर्थशास्‍त्र और कामशास्‍त्रका बार-बार अभ्‍यास किया है । उनमें धर्म और अर्थके फलका निश्‍चय कामशास्‍त्रसे ही होता है । वह किस प्रकार होता है ? यदि यह जानना चाहती हो तो मैं इसका कुछ निरूपण करता हूँ । इन्द्रियाँ पाँच हैं और उनके स्‍पर्श आदि विषय भी पाँच ही हैं । उनमेंसे स्‍पर्शके कर्कश आदि आठ भेद शास्‍त्रोंमें कहे गये हैं । विद्वानोंने मधुर आदिके भेदसे रस भी छह प्रकार का कहा है । सुगन्‍ध और दुर्गन्‍ध रूप चेतन अचेतन वस्‍तुओंमें पाया जानेवाला सब तरहका गन्‍ध भी कृतक और सहजके भेदसे दो प्रकार का माना गया है । श्‍वेत, कृष्‍ण आदिके भेदसे रूप पाँच तरहका कहा गया है और जीव तथा अजीवसे उत्‍पन्‍न हुए षड्ज आदि स्‍वर सात तरह के होते हैं । इस प्रकार सब मिलाकर पाँचों इन्द्रियों के अट्टाईस विषय होते हैं । इनमेंसे प्रत्‍येकके इष्‍ट, अनिष्‍टकी अपेक्षा दो-दो भेद हैं अत: सब मिलकर छप्‍पन हो जाते हैं ॥619-624॥

इनमें जो इष्‍ट विषय हैं वे पुण्‍य करनेवालोंको प्राप्‍त होते हैं, धर्म से पुण्‍य होता है और निषिद्ध विषयोंका त्‍याग करना ही सज्‍जनोंने धर्म कहा है ॥625॥

इसलिए जो बुद्धिमान् मनुष्‍य निषिद्ध विषयोंको छोड़कर शेष विषयोंका अनुभव करते हैं वे ही इस लोक में कामशास्‍त्रके जाननेवाले कहे जाते हैं ॥626॥

यह कहने के बाद उस ब्राह्मण ने गुणमाला से कहा कि तू जिन विषयोंका अनुभव करती है उनमेंसे कितनेमें ही अनेक दोष हैं । इस तरह ब्राह्मण का कहा सुनकर गुणमाला ने उससे कहा कि आप उन दोषों को दूर करने के लिए उपदेश कीजिये मैं आपकी शिष्‍या हो जाऊँगी । ऐसा कहनेपर उस ब्राह्मण ने गुणमालाको कला आदिकी शिक्षा देकर निपुण बना दिया ॥627-628॥

एक दिन वे सब लोग विहार करने के लिए वन में गये थे । वहाँ जब वह एकान्‍त स्‍थान में गुणमाला के साथ बैठा था तब उसने अपना स्‍वाभाविक रूप दिखा दिया । उसे देखकर कन्‍याको संशय उत्‍पन्‍न हो गया और वह सती लज्‍जासहित चुप बैठ गई । यह देखकर ब्राह्मण ने सुगन्धित चूर्णसे सम्‍बन्‍ध रखनेवाली प्राचीन कथाएँ कह कर बहुत ही शीघ्र उसे विश्‍वास दिला दिया ॥629-631॥

तदनन्‍तर वह उसी ब्राह्मण का रूप धारण कर पुष्‍पशय्यापर बैठ गया और गुणमाला भी स्‍नेह वश उसके पैर दाबने लगी । यह देख, वे सब राजकुमार आश्‍चर्यमें पड़ कर ब्राह्मणके मन्‍त्र आदिकी स्‍तुति करने लगे ॥632-633॥

इसके बाद ब्राह्मण-वेषधारी जीवन्‍धर कुमार वन से अपने घर आ गये और गुणमाला ने भी अपने माता-पितासे जीवन्‍धर कुमार के आनेका समाचार कह दिया ॥634॥

निदान, उसके माता-पिताने विधि-पूर्वक विवाह कर उसे जीवन्‍धर कुमारकी प्रिया बना दी । इसके बाद वह जीवन्‍धर कुछ दिन तक वहीं पर गुणमाला के साथ रहा और सब भाई-बन्‍धुओं के साथ सुख का उपभोग करता रहा । तदनन्‍तर सब लोग जिनके बड़े भारी भाग्‍य की प्रशंसा कर रहे थे ऐसे, उत्‍कृष्‍ट वैभवको धारण करनेवाले जीवन्‍धर कुमार ने विजयगिरि नामक गन्‍धगज पर सवार होकर चतुरंग सेना के साथ गन्‍धोत्‍कटके घर में प्रवेश किया ॥635-636॥

इस उत्‍सवकी बात सुनकर काष्‍ठांगारिक बहुत कुपित हुआ । वह कहने लगा कि देखों उन्‍मत्‍त हुआ यह वैश्‍यका लड़का मुझसे कुछ भी नहीं डरता है । इस प्रकार कहकर वह प्रकट रीतिसे क्रोध करने लगा । यह देख, श्रेष्‍ठ मंत्रियोंने उसे समझाया कि ये जीवन्‍धर कुमार हैं, पुण्‍य के उदय से इन्‍हें अभ्‍युदय की प्राप्ति हुई है, साक्षात् लक्ष्‍मी के समान गन्‍धर्वदत्‍तासे सहित हैं, यक्ष रूपी अखण्‍ड मित्रने इनकी वृद्धि की है, मधुर आदि अनेक मित्रोंसे सहित हैं अत: महान् हैं और अजेय पराक्रमके धारक हैं इसलिए इनके साथ द्वेष करना योग्‍य नहीं है । फिर बलवान् के साथ युद्ध करनेका कोई कारण भी नहीं है । इत्‍यादि युक्ति ‍पूर्ण वचनोंके द्वारा मन्त्रियोंने काष्‍ठांगारिकको शीघ्र ही शान्‍त कर दिया ॥637-643॥

सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहते हैं कि अब इससे भिन्‍न एक दूसरी प्रकृत कथा और कहता हूं । विदेह देशमें एक विदेह नाम का प्रसिद्ध नगर है । राजा गोपेन्‍द्र उसकी रक्षा करते हैं, शत्रुओं को नष्‍ट करने वाले राजा गो‍पेन्‍द्रकी रानीका नाम पृथिवी सुन्‍दरी है और उन दोनोके एक रत्‍नवती नाम की कन्‍या है । रत्‍नवतीने प्रतिज्ञा की थी कि जो चन्‍द्रक वेधमें चतुर होगा मैं उसे ही माला से अलंकृत करूँगी-अन्‍य किसी पुरूषको अपना पति नहीं बनाऊँगी । कन्‍याकी ऐसी प्रतिज्ञा जानकर उसके पिताने विचार किया कि इस समय धनुर्वेदको जाननेवाले और अतिशय ऐश्‍वर्यशाली जीवन्‍धर कुमार ही हैं अत: उनके पास ही यह कन्‍या लिये जाता हूँ । ऐसा विचार कर वह राजा कन्‍याको साथ लेकर अपनी सब सेना के साथ-साथ राजपुर नगर पहुँचा और वहाँ जाकर उसने स्‍वयंवर विधिकी घोषणा करा दी ॥644-647॥

उस घोषणाको सुनकर सभी भूमिगोचरी और विद्याधर राजा उस कन्‍याके साथ विवाह करने के लिए राजपुर नगर में जा पहुँचे ॥648॥

स्‍वयंवरके समय उस चन्‍द्रक यन्‍त्रके वेधनेमें अनेक राजा स्‍खलित हो गये-चूक गये । उन्‍हें देख, जीवन्‍धर कुमार उठे । सबसे पहले उन्‍होंने सिद्ध परमेष्‍ठीको नमस्‍कार किया, फिर अपने गुरू आर्यवर्मा की विनय की और फिर जिस प्रकार बालसूर्य उदयाचलकी शिखरपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार उस चक्र पर आरूढ़ हो गये । उस समय वे अतिशय देदीप्‍यमान हो रहे थे, उन्‍होंने बिना किसी भूलके चन्‍द्रकयन्‍त्र का वेध कर दिया । और दिशाओं के तट तक गूँजनेवाला सिंहनाद किया ॥649-651॥

उसी समय धनुष विद्याके जाननेवाले लोग उनकी प्रशंसा करने लगे कि इन्‍होंने अच्‍छा निशाना मारा और कन्‍या रत्‍नवतीने भी प्रसन्‍न होकर उनके गलेमें माला पहिनाई ॥652॥

उस सभा में जो सज्‍जन पुरूष विद्यमान थे वे यह कहते हुए बहुत ही प्रसन्‍न हो रहे थे कि जिस प्रकार शरद् ऋतु और हंसावली का समागम योग्‍य होता है उसी प्रकार इन दोनों का समागम भी योग्‍य हुआ है ॥653॥

जो बुद्धिमान् मध्‍यम पुरूष थे वे यह सोचकर उदासीन हो रहे थे कि सब जगह पुण्‍यात्‍माओंकी विजय होती ही है इसमें आश्‍चर्य की क्‍या बात है ॥654॥

और जो काष्‍ठांगारिक आदि नीच मनुष्‍य थे वे जीवन्‍धरसे पहले भी पराभव प्राप्‍त कर चुके थे अत: उस सब पराभवका स्‍मरण कर दुष्‍ट क्रोधसे प्रेरित हो रहे थे । वे पापी भयंकर युद्धके द्वारा कन्‍या को हरण करनेका उद्यम करने लगे । नीति-निपुण जीवन्‍धर कुमार ने उनकी यह विषमता जान ली जिससे उन्‍होंने उसी समय भेंट लेकर तथा निम्‍नलिखित सन्‍देश देकर बहुतसे दूत सत्‍यन्‍धर महाराज के सामन्‍तोंके पास भेजे ॥655-657॥

'मैं सत्‍यन्‍धर महाराजकी विजया रानीसे उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र हूँ । अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से मैं उत्‍पन्‍न होने के बाद ही अपने माता-पितासे वियुक्‍त होकर गन्‍धोत्‍कट सेठके घर में वृद्धि को प्राप्‍त हुआ हूँ । यह पापी काष्‍ठांगारिक काष्‍ठांगार (कोयला) बेचकर अपनी आजीविका करता था परन्‍तु आपके महाराज ने इसे मन्‍त्री बना लिया था । यह राजसी प्रकृति अत्‍यन्‍त नीच पुरूष है । छिद्र पाकर इस दुराशयने साँपकी तरह उन्‍हें मार दिया और स्‍वयं उनके राज्‍य पर आरूढ़ हो गया । यह न केवल मेरे ही द्वारा नष्‍ट करने के योग्‍य है परन्‍तु शत्रु होनेसे आप लोगों के द्वारा भी नष्‍ट करने के योग्‍य है । यदि आज यह रसातलमें भी चला जाय तो भी मेरे द्वारा अवश्‍य ही मारा जायगा । आप लोग सत्‍यन्‍धर महाराज के सामन्‍त हैं, उनके भक्‍त हैं, योद्धा हैं, उनके द्वारा पुष्‍ट हुए हैं, अतिशय उदार हैं और कृतज्ञ हैं इसलिए आप तथा अन्‍य अनुजीवी लोग इस कृतघ्‍नको अवश्‍य ही नष्‍ट करें' ॥658-663॥

सामन्‍त लोग जीवन्‍धर कुमारका सन्‍देश सुनकर कहने लगे कि यह सचमुच ही राजपुत्र है । इस तरह सम्‍मान कर बहुतसे सामन्‍त उनके साथ आ मिले ॥664॥

तदनन्‍तर-अपनी सेना तैयार कर जीवन्‍धर कुमार ने स्‍वयं ही उस पर चढ़ाई की और चिरकाल तक नाना प्रकार का युद्ध कर उसकी सेना को हरा दिया ॥665॥

जीवन्‍धर कुमार, मदोन्‍मत्‍त तथा अतिशय बलवान् विजयगिरि नामक हाथी पर सवार थे और जिसकी आज्ञा बहुत समय से जमी हुई थी ऐसा उद्धत काष्‍ठांगारिक अशनिवेग नामक प्रसिद्ध हाथी पर आरूढ़ था । जीवन्‍धर कुमार ने क्रोधमें आकर चक्र से शत्रु काष्‍ठांगारिकको मार गिराया, यह देख उसकी सेना भय से भागने लगी तब जीवन्‍धर कुमार ने अभय घोषणा कर सबको आश्‍वासन दिया ॥666-668॥

तदनन्‍तर कुमार ने अपने सब भाई-बन्‍धुओं को बुलाया और सबको नम्र देखकर उस काल के योग्‍य सम्‍भाषण आदिके द्वारा सबको हर्ष प्राप्‍त कराया ॥669॥

इसके बाद जिनेन्‍द्र भगवान् की पूजा कर उत्‍तम मांगलिक क्रियाएँ की गई और फिर यक्ष तथा सब राजाओंने मिलकर जीवन्‍धर कुमारका राज्‍याभिषेक किया । तदनन्‍तर रत्‍नवतीके साथ विवाहका महोत्‍सव प्राप्‍त कर गन्‍धर्वदत्‍ताको महारानीका पट्टबन्‍ध बाँधा ॥670-671॥

नन्‍दाढय आदि जाकर माता विजयाको तथा हेमाभा आदि अन्‍य स्त्रियोंको ले आये । उन सबके साथ जीवन्‍धर कुमार परम ऐश्‍वर्याको प्राप्‍त हुए । उस समय वे अतिशय बलवान् थे और जिसके समस्‍त शत्रु नष्‍ट कर दिये गये हैं ऐसी समस्‍त प्रजा का नीतिपूर्वक पालन करते थे । और पुण्‍य के फलस्‍वरूप अनायास ही प्राप्‍त हुए इष्‍ट भोगों का लीलापूर्वक उपभोग करते हुए सुख से रहते थे ॥672-673॥

किसी एक समय महाराज जीवन्‍धर सुरमलय नामक उद्यानमें विहार कर रहे थे वहाँ पर उन्‍होंने वरधर्म नामक मुनिराज के दर्शन किये, उनके समीप जाकर नमस्‍कार किया, उनसे तत्‍त्‍वोंका स्‍वरूप जाना और व्रत लेकर सम्‍यग्‍दर्शन को निर्मल किया । नन्‍दाढय आदि भाइयोंने भी सम्‍यग्‍दर्शन व्रत और शील धारण किये । इस प्रकार जीवन्‍धर महाराज अपने इन आप्‍त जनों के साथ सुख से समय बिताने लगे । तदनन्‍तर वे किसी एक दिन अशोक वन में गये वहाँ पर जिनकी क्रोधाग्नि प्रज्‍वलित हो रही थी ऐसे दो बन्‍दराके झुण्‍डोंको परस्‍पर लड़ते हुए देख संसार से विरक्‍त हो गये । उसी वनके मध्‍य में एक प्रशस्‍तवंक नाम के चारण मुनि विराजमान थे इसलिए जीवन्‍धर महाराजने बड़े आदरसे उनके दर्शन किये और पहले सुने अनुसार अपने पूर्वभवोंकी परम्‍परा सुनी ॥674-678॥

तदनन्‍तर उन्‍होंने जिन-पूजाकर अपनी विशुद्धता बढ़ाई फिर उसी सुरमलय उद्यानमें श्री वीरनाथ जिनेन्‍द्रका आगमन सुना, सुनते ही बड़े वैभवके साथ वहाँ जाकर उन्‍होंने परमेश्‍वरकी पूजा की और गन्‍धर्वदत्‍ता महादेवीके पुत्र वसुन्‍धर कुमार के लिये विधिपूर्वक राज्‍य दिया । जिनका मोह शान्‍त हो गया है और जिनका मन अतिशय विशाल है ऐसे उन जीवन्‍धर महाराजने अपने मामा आदि राजाओं और नन्‍दाढय मधुर आदि भाइयोंके साथ सर्व परिग्रहका त्‍याग कर संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि जो राजा लोग भोग भोग चुकते हैं वे अन्‍त में आकांक्षा रहित हो ही जाते हैं ॥679-682॥

सम्‍यग्‍दर्शन को धारण करनेवाली गन्‍धर्वदत्‍ता आदि आठों रानियोंने तथा उन रानियोंकी माताओंने सत्‍यन्‍धर महाराजकी महादेवी विजयाके साथ चन्‍दना आर्याके समीप उत्‍कृष्‍ट संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि एक ही बड़ा पुरूष अनेक लोगोंकी अर्थ-सिद्धिका कारण हो जाता है ॥683-684॥

सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्‍ ! तूने जिनके विषय में पूछा था वे यही जीवन्‍धर मुनिराज हैं, ये बड़े तपस्‍वी हैं और इस समय श्रुतकेवली हैं । घातिया कर्मों को नष्‍ट कर ये अनगारकेवली होंगे और श्री महावीर भगवान् के साथ विहार कर उनके मोक्ष चले जानेके बाद विपुलाचल पर्वत पर समस्‍त कर्मों को नष्‍ट कर मोक्षका उत्‍कृष्‍ट सुख प्राप्‍त करेंगे – वहाँ ये अष्‍टगुणों से सम्‍पूर्ण, कृतकृत्‍य और निरन्‍जन – कर्म – कालिमासे रहित हो जावेंगे ॥685-687॥

इस प्रकार सुधर्माचार्य गणधरके वचनामृतका पानकर राजा श्रेणिक बहुत ही सन्‍तुष्‍ट हुआ सो ठीक ही है क्‍योंकि धर्म किसकी प्रीतिके लिए नहीं होता ? ॥688॥

जिन्‍होंने पूर्व पुण्‍य कर्म के उदय से अन्‍य लोगों को दुर्लभ आठ कन्‍याएँ प्राप्‍त कीं, जिन्‍होंने पिताका घात करने वाले शत्रु को युद्धमें परलोक पहुँचाया, जिन्‍होंने दीक्षा लेकर कर्म रूपी अन्‍धकार को नष्‍ट किया और जो मुक्ति रूपी लक्ष्‍मी से सुशोभित हुए ऐसे लक्ष्‍मीपति श्री जीवन्‍धर स्‍वामीको मैं हाथ जोड़कर नमस्‍कार करता हूँ ॥689॥

जीवन्‍धर कुमार ने पूर्वभवमें मूर्खतासे दयाको दूर कर हंसके बच्‍चेको सोलह दिन तक उसके माता-पितासे अलग रक्‍खा था इसीलिए उन्‍हें अपने कुटुम्‍बसे अलग रहना पड़ा था अत: हे भव्‍य जनो ! पाप को दूरसे ही छोड़ो ॥690॥

देखो, कहाँ तो पिता राजा सत्‍यन्‍धरकी मृत्‍यु, कहाँ श्‍मशानमें जन्‍म लेना, कहाँ वैश्‍यके घर जाकर पलना, कहाँ अपने द्वारा यक्षका उपकार होना, कहाँ वह अभ्‍युदयकी प्राप्ति, और कहाँ शत्रुका घात करना । इन जीवन्‍धर महाराजमें ही यह विचित्र कर्मों का विपाक है ॥691॥