+ ऋषभदेव का महात्म्य -
चतुर्थ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर सुवर्ण के समान प्रभा के धारक ध्यानी भगवान् ऋषभदेव प्रभु जगत् के कल्याण के निमित्त दान धर्म की प्रवृत्ति करने के लिए उद्यत हुए ॥१॥ धीरवीर भगवान ने छह माह के बाद प्रतिमा योग समाप्त कर पृथिवी तल पर भ्रमण करना प्रारम्भ किया । भगवान् समस्त दोषों से रहित थे और मौन धारण कर ही विहार करते थे ॥२॥

जिनका शरीर बहुत ही ऊँचा था तथा जो अपने शरीर की प्रभा से आस-पास के भूमण्डल को आलोकित कर रहे थे ऐसे भ्रमण करने वाले भगवान के दर्शन कर प्रजा यह समझती थी मानो दूसरा सूर्य ही भ्रमण कर रहा है ॥३॥

वे जिनराज पृथिवी तल पर जहां-जहाँ चरण रखते थे वहाँ ऐसा जान पड़ता था मानो कमल ही खिल उठे हों ॥४॥

उनके कन्धे मेरुपर्वत के शिखर के समान ऊँचे तथा देदीप्यमान थे, उनपर बड़ी-बड़ी जटाएँ किरणों की भाँति सुशोभित हो रही थीं और भगवान् स्वयं बड़ी सावधानी से-ईर्यासमिति से नीचे देखते हुए विहार करते थे ॥५॥

जो शोभा से मेरु पर्वत के समान जान पड़ते थे ऐसे भगवान् ऋषभदेव किसी दिन विहार करते-करते मध्याह्न के समय हस्तिनापुर नगर में प्रविष्ट हुए ॥६॥ मध्याह्न के सूर्य के समान देदीप्यमान उन पुरुषोत्तम के दर्शन कर हस्तिनापुर के समस्त स्त्री-पुरुष बड़े आश्चर्य से मोह को प्राप्त हो गये अर्थात् किसी को यह ध्यान नहीं रहा कि यह आहार की वेला है इसलिए भगवान को आहार देना चाहिए ॥७॥

वहाँ के लोग नाना वर्णों के वस्त्र, अनेक प्रकार के रत्न और हाथी, घोड़े, रथ तथा अन्य प्रकार के वाहन ला-लाकर उन्हें समर्पित करने लगे ॥८॥

विनीत वेष को धारण करने वाले कितने ही लोग पूर्णचन्द्रमा के समान मुख वाली तथा कमलों के समान नेत्रों से सुशोभित सुन्दर-सुन्दर कन्याएँ उनके पास ले आये ॥९॥

जब वे पतिव्रता कन्याएँ भगवान के लिए रुचिकर नहीं हुई तब वे निराश होकर स्वयं अपने आप से ही द्वेष करने लगीं और आभूषण दूर फेंक भगवान का ध्यान करती हुई खड़ी रह गयी ॥१०॥

अथानन्तर -- महल के शिखर पर खड़े राजा श्रेयांस ने उन्हें स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखा और देखते ही उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया ॥११॥

राजा श्रेयांस महल से नीचे उतरकर अन्तःपुर तथा अन्य मित्रजनों के साथ उनके पास आया और हाथ जोड़कर स्तुति-पाठ करता हुआ प्रदक्षिणा देने लगा । भगवान की प्रदक्षिणा देता हुआ राजा श्रेयांस ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो मेरु के मध्य भाग की प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य ही हो ॥१२-१३॥

सर्वप्रथम: राजा ने अपने केशों से भगवान के चरणों का मार्जन कर आनन्द के आँसुओं से उनका प्रक्षालन किया ॥१४॥

रत्नमयी पात्र से अर्घ देकर उनके चरण धोये, पवित्र स्थान में उन्हें विराजमान किया और तदनन्तर उनके गुणों से आकृष्ट चित्त हो, कलश में रखा हुआ इक्षु का शीतल जल, लेकर विधिपूर्वक श्रेष्ठ पारणा करायी-आहार दिया ॥१५-१६॥ उसी समय आकाश में चलने वाले देवों ने प्रसन्न होकर साधु-साधु, धन्य-धन्य शब्दों के समूह से मिश्रित एवं दिग्मण्डल को मुखरित करनेवाला दुन्दुभि बाजों का भारी शब्द किया ॥१७॥

प्रथम जाति के देवों के अधिपतियों ने अहो दानं अहो दानं कहकर हर्ष के साथ पांच रंग के फूल बरसाये ॥१८॥

अत्यन्त सुखकर स्पर्श से सहित, दिशाओं को सुगन्धित करने वाले वायु बहने लगी और आकाश को व्याप्त करती हुई रत्‍नों की धारा बरसने लगी ॥१९॥

इस प्रकार उधर राजा श्रेयांस तीनों जगत् को आश्चर्य में डालने वाले देवकृत सम्मान को प्राप्त हुआ और इधर सम्राट भरत ने भी बहुत भारी प्रीति के साथ उसकी पूजा की॥२०॥

अथानन्तर इन्द्रियों को जीतने वाले भगवान् ऋषभदेव, दिगम्बर मुनियों का वत कैसा है? उन्हें किस प्रकार आहार दिया जाता है? इसकी प्रवृत्ति चलाकर फिर से शुभ ध्यान में लीन हो गये ॥२१॥

तदनन्तर शुक्लध्यान के प्रभाव से मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर उन्हें लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥२२॥

केवलज्ञान के साथ ही बहुत भारी भामण्डल उत्पन्न हुआ । उनका वह भामण्डल रात्रि और दिन के कारण होनेवाले काल के भेद को दूर कर रहा था अर्थात् उसके प्रकाश के कारण वहां रात-दिन का विभाग नहीं रह पाता था ॥२३॥

जहाँ भगवान को केवलज्ञान हुआ था वहीं एक अशोक वृक्ष प्रकट हो गया । उस अशोक वृक्ष का स्कन्ध बहुत मोटा था, वह रत्‍नमयी फूलों से अलंकृत था तथा उसके लाल-लाल पल्लव बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥२४॥

आकाश में स्थित देवों ने सुगन्धि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाली एवं नाना आकार में पड़ने वाली फूलों की वर्षा की ॥२५॥

जिनके शब्द, क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के शब्द के समान भारी थे ऐसे बड़े-बड़े दुन्दुभि बाजे, अदृश्य शरीर के धारक देवों के द्वारा करपल्लवों से ताड़ित होकर विशाल शब्द करने लगे ॥२६॥ जिनके नेत्र कमल की कलिकाओं के समान थे तथा जो सर्वप्रकार के आभूषणों से सुशोभित थे ऐसे दोनों ओर खड़े हुए दो यक्ष, चन्द्रमा की हँसी उड़ाने वाले-सफेद चमर इच्छानुसार चलाने लगे ॥२७॥

जो मेरु के शिखर के समान ऊँचा था, पृथिवी रूपी स्त्री का मानो मुकुट ही था, और अपनी किरणों से सूर्य को तिरस्कृत कर रहा था ऐसा सिंहासन उत्पन्न हुआ ॥२८॥

जो तीन लोक की प्रभुता का चिह्न स्वरूप था, मोतियों की लड़ियों से विभूषित था और भगवान के निर्मल यश के समान जान पड़ता था ऐसा छत्र-त्रय उत्पन्न हुआ ॥२९॥

आचार्य रविषेण कहते हैं कि समवसरण के बीच सिंहासन पर विराजमान हुए भगवान की शोभा का वर्णन करने के लिए मात्र केवलज्ञानी ही समर्थ हैं, हमारे जैसे तुच्छ पुरुष उस शोभा का वर्णन कैसे कर सकते हैं ॥३०॥

तदनन्तर अवधिज्ञान के द्वारा, भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होने का समाचार जानकर सब इन्द्र अपने-अपने परिवारों के साथ वन्दना करने के लिए शीघ्र ही वहाँ आये ॥३१॥

सर्व प्रथम वृषभसेन नामक मुनिराज इनके प्रसिद्ध गणधर हुए थे । उनके बाद महा-वैराग्य को धारण करनेवाले अन्य-अन्य मुनिराज भी गणधर होते रहे थे ॥३२॥

उस समवसरण में जब मुनि, श्रावक तथा देव आदि सब लोग यथास्थान अपने-अपने कोठों में बैठ गये तब गणधर ने भगवान से उपदेश देने की प्रेरणा की ॥३३॥

भगवान अपने शब्द से देव-दुन्दुभियों के शब्द को तिरोहित करते एवं तत्वार्थ को सूचित करने वाली निम्नांकित वाणी कहने लगे ॥३४॥

उन्होंने कहा कि इस त्रिलोकात्मक समस्त संसार में हित चाहने वाले लोगों को एक धर्म ही परम शरण है, उसी से उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है ॥३५॥

प्राणियों की समस्त चेष्टाएँ सुख के लिए हैं और सुख धर्म के निमित्त से होता है, ऐसा जानकर है भव्य जन! तुम सब धर्म का संग्रह करो ॥३६॥ बिना मेघों के वृष्टि कैसे हो सकती है और बिना बीज के अनाज कैसे उत्पन्‍न हो सकता है । इसी तरह बिना धर्म के जीवों को सुख कैसे उत्‍पन्‍न हो सकता है? ॥३७॥

जिस प्रकार पंगु मनुष्‍य चलने को इच्छा करे, गूँगा मनुष्‍य बोलने की इच्‍छा करे, और अन्धा मनुष्य देखने की इच्छा करे उसी प्रकार धर्म के बिना सुख प्राप्त करना है ॥३८॥

जिस प्रकार इस संसार में परमाणु से छोटी कोई चीज नहीं है और आकाश से बड़ी कोई वस्तु नहीं है उसी प्रकार प्राणियों का धर्म से बड़ा कोई मित्र नहीं है ॥३९॥

जब धर्म से ही मनुष्य सम्बन्धी भोग, स्वर्ग और मुक्त जीवों को सुख प्राप्त हो जाता है तब दूसरा कार्य करने से क्या लाभ है? ॥४०॥

जो विद्वज्जन अहिंसा से निर्मल धर्म की सेवा करते हैं उन्हीं का ऊर्ध्वगमन होता है अन्य जीव तो तिर्यग्लोक अथवा अधोलोक में ही जाते हैं ॥४१॥

यद्यपि अन्यलिंगी-हंस-परमहंस-परिव्राजक आदि भी तपश्चरण की शक्ति से ऊपर जा सकते हैं - स्वर्गों में उत्पन्न हो सकते हैं तथापि वे वहां किंकर होकर अन्य देवों की उपासना करते हैं ॥४२॥

वे वहाँ देव होकर भी कर्म के वश दुर्गति के दुःख पाकर स्वर्ग से च्युत होते हैं और दुःखी होते हुए तिर्यंच-योनि प्राप्त करते हैं ॥४३॥

जो सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है तथा जिन्होंने जिनशासन का अच्छी तरह अभ्यास किया है वे स्वर्ग जाते हैं और वहाँ से च्युत होने पर रत्नत्रय को पाकर उत्कष्ट मोक्ष को प्राप्त करते हैं ॥४४॥

वह धर्म गृहस्थों और मुनियों के भेद से दो प्रकार का है। इन दो के सिवाय जो तीसरे प्रकार का धर्म मानते हैं वे मोहरूपी अग्नि से जले हुए हैं ॥४५॥

पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, यह गृहस्थों का धर्म है ॥४६॥ जो गृहस्थ उस समय सब प्रकार के आरम्भ का त्याग कर शरीर में भी नि:स्पृह हो जाते हैं तथा समता भाप से मरण करते हैं वे उत्तम-गति को प्राप्त होते हैं ॥४७॥

पांच महाव्रत, पाँच समितियां और तीन गुप्तियां यह मुनियों का धर्म है ॥४८॥

जो मनुष्य मुनि धर्म से युक्त होकर शुभ-ध्यान में तत्पर रहते हैं वे इस दुर्गन्धिपूर्ण वीभत्स शरीर को छोड़कर स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥४९॥

जो मनुष्य उत्कृष्ट ब्रह्मचारी दिगम्बर मुनियों की भावपूर्वक स्तुति करते हैं वे भी धर्म को प्राप्त हो सकते हैं ॥५०॥

वे उस धर्म के प्रभाव से कुगतियों में नहीं जाते किन्तु उस रत्नत्रयरूपी धर्म को प्राप्त कर लेते हैं जिसके कि प्रभाव से पापबन्धन से मुक्त हो जाते हैं ॥५१॥

इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् वृषभदेव के द्वारा कहे उत्तम धर्म को सुनकर देव और मनुष्‍य सभी परम हर्ष को प्राप्त हुए ॥५२॥

कितने ही लोगों ने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को धारण किया । कितने ही लोगों ने गृहस्थ धर्म अंगीकार किया और अपनी शक्ति का अनुसरण करने वाले कितने ही लोगों ने मुनिव्रत स्वीकार किया ॥५३॥

तदनन्तर जाने के लिए उद्यत हुए सुर और असुरों ने जिनेन्द्र देव को नमस्कार किया, उनकी स्तुति की और फिर धर्म से विभूषित होकर सब लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये ॥५४॥

भगवान का गमन इच्छा वश नहीं होता था फिर भी वे जिस-जिस देश में पहुंचते थे वहाँ सौ योजन तक का क्षेत्र स्वर्ग के समान हो जाता था ॥५५॥

इस प्रकार अनेक देशों में भ्रमण करते हुए जिनेन्द्र भगवान ने शरणागत भव्य जीवों को रत्नत्रय का दान देकर संसार-सागर से पार किया था ॥५६॥ भगवान के चौरासी गणधर थे और चौरासी हजार उत्तम तपस्वी साधु थे ॥५७॥

वे सब साधु अत्यन्त निर्मल हृदय के धारक थे तथा सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रभा से संयुक्त थे । इन सबसे परिवृत्त होकर भगवान ने समस्त पृथिवी पर विहार किया था ॥५८॥

भगवान् ऋषभदेव का पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती की लक्ष्मी को प्राप्त हुआ था और उसी के नाम से यह क्षेत्र संसार में भरत क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ था ॥५९॥

भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्र थे जो एक से एक बढ़कर तेज और कान्ति से सहित थे तथा जो अन्त में श्रमणपद-मुनिपद धारण कर परमपद--निर्वाणधाम को प्राप्त हुए थे ॥६०॥

उन सौ पुत्रों के बीच भरत चक्रवर्ती प्रथम पुत्र था जो कि सज्जनों के समूह से सेवित अयोध्या नाम की सुन्दर नगरी में रहता था ॥६१॥

उसके पास नव रत्नों से भरी हुई अक्षय नौ निधियां थीं, निन्यानवे हजार खानें थीं, तीन करोड़ गायें थीं, एक करोड़ हल थे, चौरासी लाख उत्तम हाथी थे, वायु के समान वेग वाले अठारह करोड़ घोड़े थे, बत्तीस हजार महा प्रतापी राजा थे, नगरों से सुशोभित बत्तीस हजार ही देश थे, देव लोग सदा जिनकी रक्षा किया करते थे ऐसे चौदह रत्न थे, और छियानवे हजार स्त्रियां थीं । इस प्रकार उसके समस्त ऐश्‍वर्य का वर्णन करना अशक्य है-कठिन कार्य है ॥६२-६६॥ पोदनपुर नगर में भरत का सौतेला भाई राजा बाहुबली रहता था । वह अत्यन्त शक्तिशाली था तथा 'मैं और भरत एक ही पिता के दो पुत्र है' इस अहंकार से सदा भरत के विरुद्ध रहता था ॥६७॥

चक्ररत्न के अहंकार से चकनाचूर भरत अपनी चतुरंग सेना के द्वारा पृथिवी तल को आच्छादित करता हुआ उसके साथ युद्ध करने के लिए पोदनपुर गया ॥६८॥

वहाँ उन दोनों में हाथियों के समूह की टक्कर से उत्पन्न हुए शब्द से व्याप्त प्रथम युद्ध हुआ । उस युद्ध में अनेक प्राणी मारे गये ॥६९॥

यह देख भुजाओं के बल से सुशोभित बाहुबली ने हँसकर भरत से कहा कि इस तरह निरपराध दीन प्राणियों के वध से हमारा और आपका क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ॥७०॥

यदि आपने मुझे निश्चल दृष्टि से पराजित कर दिया तो मैं अपने आपको पराजित समझ लूँगा अत: दृष्टियुद्ध में ही प्रवृत्त होना चाहिए ॥७१॥

बाहुबली के कहे अनुसार दोनों का दृष्टियुद्ध हुआ और उसमें भरत हार गया । तदनन्तर जल-युद्ध और बाहु-युद्ध भी हुए उनमें भी भरत हार गया । अन्त में भरत ने भाई का वध करने के लिए चक्ररत्न चलाया ॥७२॥

परन्तु बाहुबली चरमशरीरी थे अत: वह चक्ररत्‍न उनका वध करने में असमर्थ रहा और निष्फल हो लौटकर भरत के समीप वापस आ गया ॥७३॥

तदनन्तर भाई के साथ बैर का मूल कारण जानकर उदारचेता बाहुबली भोगों से अत्यन्त विरक्त हो गये ॥७४॥

उन्होंने उसी समय समस्त भोगों का त्यागकर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये और एक वर्ष तक मेरु पर्वत के समान निष्प्रकम्प खड़े रहकर प्रतिमा-योग धारण किया ॥७५॥

उनके पास अनेक वामियाँ लग गयीं जिनके बिलों से निकले हुए बड़े-बड़े साँपों और श्यामा आदि की लताओं ने उन्हें वेष्टित कर लिया । इस दशा में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया ॥७६॥ तदनन्तर आयुकर्म का क्षय होने पर उन्होंने मोक्ष पद प्राप्त किया और इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम उन्होंने मोक्षमार्ग विशुद्ध किया-निष्कण्टक बनाया ॥७७॥

भरत चक्रवर्ती ने छह भागों से विभक्त भरत क्षेत्र की समस्त भूमि पर अपना निष्कण्टक राज्य किया ॥७८॥

उनके राज्य में भरत क्षेत्र के समस्त गांव विद्याधरों के नगरों के समान सर्व सुखों से सम्पन्न थे, समस्त नगर देवलोक के समान उत्कष्ट संपदाओं से युक्त थे ॥७९॥

और उनमें रहनेवाले मनुष्य, उस कृत युग में देवों के समान सदा सुशोभित होते थे । उस समय के मनुष्यों को मन में इच्छा होते ही तरह-तरह के वस्त्राभूषण प्राप्त होते रहते थे ॥८०॥

वहाँ के देश भोगभूमियों के समान थे, राजा लोकपालों के तुल्य थे और स्त्रियाँ अप्सराओं के समान काम की निवास भूमि थीं ॥८१॥

इस तरह जिस प्रकार इन्द्र स्वर्ग में अपने शुभकर्म का फल भोगता है उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती भी एकछत्र पृथिवी पर अपने शुभकर्म का फल भोगता था ॥८२॥

एक हजार यक्ष प्रयत्न पूर्वक जिसकी रक्षा करते थे ऐसा समस्त इन्द्रियों को सुख देनेवाला उसका सुभद्रा नामक स्त्री-रत्न अतिशय शोभायमान था ॥८३॥

भरत चक्रवर्ती के पाँच सौ पुत्र थे जो पिता के द्वारा विभाग कर दिये हुए निष्कण्टक भरत क्षेत्र का उपभोग करते थे ॥८४॥

इस प्रकार महात्मा गौतम गणधर ने भगवान् ऋषभदेव तथा उनके पुत्र और पौत्रों का वर्णन किया जिसे सुनकर कुतूहल से भरे हुए राजा श्रेणिक ने फिर से यह कहा ॥८५॥

हे भगवन्! आपने मेरे लिए क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की उत्पत्ति तो कही अब मैं इस समय ब्राह्मणों की उत्पत्ति और जानना चाहता हूँ ॥८६॥ ये लोग धर्म प्राप्ति के निमित्त, सज्जनों के द्वारा निन्दित प्राणि हिंसा आदि कार्य कर बहुत भारी गर्व को धारण करते हैं ॥८७॥

इसलिए आप इन विपरीत प्रवृत्ति करने वालों की उत्पत्ति कहने के योग्य हैं । साथ ही यह भी बतलाइए कि इन गृहस्थ ब्राह्मणों के लोग भक्त कैसे हो जाते हैं? ॥८८॥

इस प्रकार दयारूपी स्त्री जिनके हृदय का आलिंगन कर रही थी तथा मत्सर भाव को जिन्होंने नष्ट कर दिया था ऐसे गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक के पूछने पर निम्नांकित वचन कहे ॥८९॥

हे श्रेणिक! जिनका हृदय मोह से आक्रान्त है और इसीलिए जो विपरीत प्रवृत्ति कर रहे हैं ऐसे इन ब्राह्मणों की उत्पत्ति जिस प्रकार हुई वह मैं कहता हूँ तू सुन ॥९०॥

एक बार अयोध्या नगरी के समीपवर्ती प्रदेश में देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों से वेष्टित भगवान् ऋषभदेव आकर विराजमान हुए । उन्हें आया जानकर राजा भरत बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और मुनियों के उद्देश्य से बनवाया हुआ नाना प्रकार का उत्तमोत्तम भोजन नौकरों से लिवाकर भगवान के पास पहुँचा । वहाँ जाकर उसने भक्तिपूर्वक भगवान् ऋषभदेव को तथा अन्य समस्त मुनियों को नमस्कार किया और पृथ्वी पर दोनों हाथ टेककर यह वचन कहे ॥९१-९३॥

हे भगवन्! मैं याचना करता हूँ कि आप लोग मुझ पर प्रसन्न होइए और मेरे द्वारा तैयार करायी हुई यह उत्तमोत्तम भिक्षा ग्रहण कीजिए ॥९४॥

भरत के ऐसा कहने पर भगवान ने कहा कि हे भरत! जो भिक्षा मुनियों के उद्देश्य से तैयार की जाती है वह उनके योग्य नहीं है-मुनिजन उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं करते ॥९५॥

ये मुनि तृष्णा से रहित हैं, इन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लिया है, तथा गुणों के धारक हैं । ये एक दो नहीं अनेक महीनों के उपवास करने के बाद भी श्रावकों के घर भोजन के लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षा को मौन-से खड़े रहकर ग्रहण करते हैं । उनकी यह प्रवृत्ति रसास्वाद के लिए न होकर केवल प्राणों की रक्षा के लिए ही होती है क्योंकि प्राण धर्म के कारण हैं ॥९६-९७॥

ये मुनि मोक्ष-प्राप्ति के लिए उस धर्म का आचरण कर रहे जिसमें कि सुख की इच्छा रखनेवाले समस्त प्राणियों को किसी भी प्रकार को पीड़ा नहीं दी है ॥९८॥

भगवान के उक्त वचन सुनकर सम्राट भरत चिरकाल तक यह विचार करता और कहता रहा कि अहो! जिनेन्द्र भगवान का यह व्रत महान् कष्टों से भरा है । इस व्रत पालन करने वाले मुनि अपने शरीर में निस्पृह रहते हैं, दिगम्बर होते हैं, धीरवीर तथा समस्त प्राणियों पर दया करने में तत्पर रहते हैं ॥९९-१००॥

इस समय जो यह महान् भोजन-सामग्री तैयार की गयी है इससे गृहस्थ का व्रत धारण करने वाले पुरुषों को भोजन कराता हूँ तथा गृहस्थों को सुवर्ण सूत्र से चिह्नित करता हूँ ॥१०१॥

भोजन के सिवाय अन्य आवश्यक वस्तुएँ भी इनके लिए भक्तिपूर्वक अच्छी मात्रा में देता हूँ क्योंकि इन लोगों ने जो धर्म धारण किया है वह मुनि धर्म का छोटा भाई ही तो है ॥१०२॥

तदनन्तर-सम्राट भरत ने महावेग शाली अपने इष्ट पुरुषों को भेजकर पृथिवी तल पर विद्यमान समस्त सम्यग्दृष्टिजनों को निमन्त्रित किया ॥१०३॥

इस कार्य से समस्त पृथिवी पर कोलाहल मच गया । लोग कहने लगे कि अहो! मनुष्यजन हो! सम्राट भरत बहुत भारी दान करने के लिए उद्यत हुआ है ॥१०४॥

इसलिए उठो, शीघ्र चलें, वस्त्र-रत्न आदिक धन लावें, देखो ये आदर से भरे सेवकजन उसने भेजे हैं ॥१०५॥

यह सुनकर उन्हीं लोगो में से कोई कहने लगे कि यह भरत अपने इष्ट सम्यग्दृष्टिजनों का ही सत्कार करता है इसलिए हम लोगों का वहाँ जाना वृथा है ॥१०६॥ यह सुनकर जो सम्यग्दृष्टि पुरुष थे वे परम हर्ष को प्राप्त हो स्त्री-पुत्रादिकों के साथ भरत के पास गये और विनय से खड़े हो गये ॥१०७॥

जो मिथ्यादृष्टि थे वे भी धन की तृष्णा से मायामयी सम्यग्दृष्टि बनकर इन्द्रभवन की तुलना करने वाले सम्राट भरत के भवन में पहुँचे ॥१०८॥

सम्राट भरत ने भवन के आँगन में बोये हुए जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुरों से समस्त सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट अलग कर ली तथा उन्हें जिसमें रत्न पिरोया गया था ऐसे सुवर्णमय सुन्दर सूत्र के चिह्न से चिह्नित कर भवन के भीतर प्रविष्ट करा लिया ॥१०९-११०॥

तृष्णा से पीड़ित मिथ्यादृष्टि लोग भी चिन्ता से व्याकुल हो दीन वचन कहते हुए दुःख रूपी सागर में प्रविष्ट हुए ॥१११॥

तदनन्तर-राजा भरत ने उन श्रावकों के लिए इच्छानुसार दान दिया । भरत के द्वारा सम्मान पाकर उनके हृदय में दुर्भावना उत्पन्न हुई और वे इस प्रकार विचार करने लगे ॥११२॥

कि हम लोग वास्तव में महा पवित्र तथा जगत् का हित करने वाले कोई अनुपम पुरुष हैं इसीलिए तो राजाधिराज भरत ने बड़ी श्रद्धा के साथ हम लोगों की पूजा की है ॥११३॥

तदनन्तर वे इसी गर्व से समस्त पृथिवी तल पर फैल गये और किसी धन-सम्पन्न व्यक्ति को देखकर याचना करने लगे ॥११४॥

तत्पश्चात् किसी दिन मति समुद्र नामक मन्त्री ने राजाधिराज भरत से कहा कि आज मैंने भगवान के समवसरण में निम्नांकित वचन सुना है ॥११५॥

वहाँ कहा गया है कि भरत ने जो इन ब्राह्मणों की रचना की है सो वे वर्द्धमान तीर्थकर के बाद कलियुग नामक पंचम काल आने पर पाखण्डी एवं अत्यन्त उद्धत हो जायेंगे ॥११६॥ धर्मबुद्धि से मोहित होकर अर्थात् धर्म समझकर प्राणियों को मारेंगे, बहुत भारी कषाय से युक्त होंगे और पाप कार्य के करने में तत्पर होंगे ॥११७॥

जो हिंसा का उपदेश देने में तत्पर रहेगा ऐसे वेद नामक खोटे शाख को कर्ता से रहित अर्थात् ईश्वर प्रणीत बतलावेंगे और समस्त प्रजा को मोहित करते फिरेंगे ॥११८॥

बड़े-बड़े आरम्भो में लीन रहेंगे, दक्षिणा ग्रहण करेंगे और जिनशासन की सदा निन्दा करेंगे ॥११९॥

निर्ग्रन्थ मुनि को आगे देखकर क्रोध को प्राप्त होंगे और जिस प्रकार विषवृक्ष के अंकुर जगत् के उपद्रव अर्थात् अपकार के लिए हैं उसी प्रकार ये पापी भी जगत् के उपद्रव के लिए होंगे-जगत् में सदा अनर्थ उत्पन्न करते रहेंगे ॥१२०॥

मति समुद्र मन्त्री के वचन सुनकर भरत कुपित हो उन सब विप्रों को मारने के लिए उद्यत हुआ । तदनन्तर वे भयभीत होकर भगवान् ऋषभदेव की शरण में गये ॥१२१॥

भगवान् ऋषभदेव ने हे पुत्र! इनका (मा हनन कार्षी:) हनन मत करो यह शब्द कहकर इनकी रक्षा की थी इसलिए ये आगे चलकर 'माहन' इस प्रसिद्धि को प्राप्त हो गये अर्थात् 'माहन' कहलाने लगे ॥१२२॥

चूँकि इन शरणागत ब्राह्मणों की ऋषभ जिनेन्द्र ने रक्षा की थी इसलिए देवों अथवा विद्वानों ने भगवान को त्राता अर्थात् रक्षक कहकर उनकी बहुत भारी स्तुति की थी ॥१२३॥

दीक्षा के समय भगवान् ऋषभदेव का अनुकरण करने वाले जो राजा पहले ही च्युत हो गये थे उन्होंने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार दूसरे-दूसरे व्रत चलाये थे ॥१२४॥

उन्हीं के शिष्य-प्रशिष्यों ने अहंकार से चूर होकर खोटी-खोटी युक्तियों से जगत् को मोहित करते हुए अनेक खोटे शास्त्रों की रचना की ॥१२५॥

भृगु, अगिशिरस, वहि, कपिल, अत्रि तथा विद आदि अनेक साधु अज्ञानवश वल्कलों को धारण करनेवाले तापसी हुए ॥१२६॥ स्त्री को देखकर उनका चित्त दूषित हो जाता था और जननेन्द्रिय में विकार दिखने लगता था इसलिए उन अधम मोही जीवों ने जननेन्द्रिय को लंगोट से आच्छादित कर लिया ॥१२७॥

कण्ठ में सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत को धारण करने वाले जिन ब्राह्मणों की चक्रवर्ती भरत ने पहले बीज के समान थोड़ी ही रचना की थी वे अब सन्ततिरूप से बढ़ते हुए समस्त पृथ्वी तल पर फैल गये ॥१२८॥

गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! यह ब्राह्मणों की रचना प्रकरणवश मैंने तुझ से कही है । अब सावधान होकर प्रकृत बात कहता हूँ सो सुन ॥१२९॥

भगवान् ऋषभदेव संसार-सागर से अनेक प्राणियों का उद्धार कर कैलास पर्वत की शिखर से मोक्ष को प्राप्त हुए ॥१३०॥

तदनन्तर चक्रवर्ती भरत भी लोगों को आश्चर्य में डालने वाले साम्राज्य को तृण के समान छोड़कर दीक्षा को प्राप्त हुए ॥१३१॥

हे श्रेणिक! यह स्थिति नाम का अधिकार मैंने संक्षेप से तुझे कहा है, हे श्रेष्ठ पुरुष! अब वंशाधिकार को कहता हूँ सो आदर से श्रवण कर ॥१३२॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में ऋषभदेव का महात्म्य वर्णन करनेवाला चतुर्थ पर्व पूर्ण हुआ ॥४॥