+ राक्षसवंश -
पंचम पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर, गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस संसार में चार महावंश प्रसि‍द्ध हैं और इन महावंशो के अनेक अवान्तर भेद कहे गये हैं । ये सभी भेद अनेक प्रकार के रहस्यों से युक्त हैं ॥१॥

उन चार महावंशों में पहला इक्ष्वाकुवंश है जो अत्यन्त उत्कृष्ट तथा लोक का आभूषण स्वरूप है । दूसरा ऋषिवंश अथवा चन्द्रवंश है जो चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल है ॥२॥

तीसरा विद्याधरों का वंश है जो अत्यन्त मनोहर है और चौथा हरिवंश है जो संसार में प्रसिद्ध कहा गया है ॥३॥

इक्ष्वाकुवंश में भगवान् ऋषभदेव उत्पन्न हुए, उनके भरत हुए और उनके अर्ककीर्ति महा प्रतापी पुत्र हुए । अर्क नाम सूर्य का है इसलिए इनका वंश सूर्यवंश कहलाने लगा। अर्ककीर्ति के सितयशा नामा पुत्र हुए, उनके बलांक, बलांक के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृत, अमृत के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के प्रतापी तपन, तपन के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेन्द्रविक्रम, महेन्द्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इंद्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्न के महेन्द्रजित्, महेन्द्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक पुत्र हुए । इस प्रकार इस वंश में अन्य अनेक राजा हुए । ये सभी संसार से भयभीत थे अत: पुत्रों के लिए राज्य सौंपकर शरीर से भी निस्पृह हो निर्ग्रन्थ व्रत को प्राप्त हुए ॥४-९॥

हे राजन् ! मैंने क्रम से तुझे सूर्यवंश का निरूपण किया है अब सोमवंश अथवा चन्द्रवंश की उत्पत्ति कही जाती ॥१०॥

भगवान् ऋषभदेव की दूसरी रानी से बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था, उसके सोमयश नाम का सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ था । सोम नाम चन्द्रमा का है सो उसी सोमयश से सोमवंश अथवा चन्द्रवंश की परम्परा चली है । सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और सुबल के भुजबलि इस प्रकार इन्‍हें आदि लेकर अनेक राजा इस वंश में क्रम से उत्‍पन्‍न हुए हैं। ये सभी राजा निर्मल चेष्टाओं के धारक थे तथा मुनिपद को धारण कर ही परमपद (मोक्ष) को प्राप्त हुए ॥११-१३॥

कितने ही अल्पकर्म अवशिष्ट रह जाने के कारण तप का फल भोगते हुए स्वर्ग में देव हुए तथा वहाँ से आकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेंगे ॥१४॥

हे राजन्! यह मैंने तुझे सोमवंश कहा अब आगे संक्षेप से विद्याधरों के वंश का वर्णन करता हूँ ॥१५॥

विद्याधरों का राजा जो नमि था उसके रत्नमाली नाम का पुत्र हुआ । रत्‍नमाली के रत्‍नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्‍नरथ के रत्नचित्र, रत्नचित्र के चन्द्ररथ, चन्द्ररथ के वज्रजंघ, वज्रजंघ के वज्रसेन, वज्रसेन के वज्रद्रंष्ट, वज्रद्रंष्ट के वज्रध्वज, वज्रध्वज के वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्र के सुवज्र, सुवज्र के वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वज्राभ के वज्रबाहु, वज्रबाहु के वज्रसंज्ञ, वज्रसंज्ञ के वज्रास्य, वज्रास्य के वज्रपाणि, वज्रपाणि के वज्रजातु, वज्रजातु के वज्रवान्, वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुख के सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युद्‌दंष्ट्र, विद्युद्‌दंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ के विद्युद्वेग और विद्युद्वेग के वैद्युत नामक पुत्र हुए । ये ही नहीं, इन्हें आदि लेकर अनेक शूरवीर विद्याधरों के राजा हुए । ये सभी दीर्घ काल तक राज्य कर अपनी-अपनी चेष्टाओं के अनुसार स्थानों को प्राप्त हुए ॥१६-२१॥

इनमें से कितने ही राजाओं ने पुत्रों के लिए राज्य सौंपकर जिन दीक्षा धारण की और राग-द्वेष छोड़कर सिद्धि पद प्राप्त किया ॥२२॥

कितने ही राजा समस्त कर्मबन्धन को नष्ट नहीं कर सके इसलिए संकल्प मात्र से उपस्थित होनेवाले देवों के सुख का उपभोग करने लगे ॥२३॥

कितने ही लोग स्नेह के कारण गुरुतर कर्मरूपी पाश से बँधे रहे और जाल में बँधे हरिणों के समान उसी कर्मरूपी पाश में बँधे हुए मृत्यु को प्राप्त हुए ॥२४॥

अथानन्तर इसी विद्याधरों के वंश में एक विद्युद्‌दृढ़ नाम का राजा हुआ जो दोनों श्रेणियों का स्वामी था, विद्याबल में अत्यन्त उद्धत और विपुल पराक्रम का धारी था ॥२५॥

किसी एक समय वह विमान में बैठकर विदेह क्षेत्र गया था वहां उसने आकाश से ही निर्ग्रन्थ मुद्रा के धारी संजयन्त मुनि को देखा, उस समय वे ध्‍यान में आरूढ़ थे और उनका शरीर पर्वत के समान निश्चल था ॥२६॥

विद्युद्दृढ विद्याधर ने उन मुनिराज को लाकर पंचगिरि नामक पर्वत पर रख दिया और इनका वध करो इस प्रकार विद्याधरों को प्रेरित किया ॥२७॥

राजा की प्रेरणा पाकर विद्याधरों ने उन्हें पत्थर तथा अन्य साधनों से मारना शुरू किया परन्तु वे तो सम चित्त के धारी थे अत: उन्हें थोड़ा भी संक्लेश उत्पन्न नहीं हुआ ॥२८॥

तदनन्तर दु:सह उपसर्ग को सहन करते हुए उन संजयन्त मुनिराज को समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥२९॥

उसी समय मुनिराज का पूर्व भव का भाई धरणेन्द्र आया । उसने विद्युद्दृढ की सब विद्याएँ हर लीं जिससे वह विद्यारहित होकर अत्यन्त शान्त भाव को प्राप्त हुआ ॥३०॥

विद्याओं के अभाव में बहुत दुखी होकर उसने हाथ जोड़कर नम्र भाव से धरणेन्द्र से पूछा कि अब हमें किसी तरह विद्याएँ सिद्ध हो सकती हैं या नहीं? तब धरणेन्द्र ने कहा कि तुम्हें इन्हीं संजयन्त मुनिराज के चरणों में तपश्चरण सम्बन्धी क्लेश उठाने से फिर भी विद्याएँ सिद्ध हो सकती हैं परन्तु खोटा कार्य करने से वे विद्याएँ सिद्ध होने पर भी पुन: नष्ट हो जायेंगी । जिन-प्रतिमा से युक्त मन्दिर और मुनियों का उल्लंघन कर प्रमादवश यदि ऊपर गमन करोगे तो तुम्हारी विद्याएँ तत्काल नष्ट हो जायेंगी । धरणेन्द्र के द्वारा बतायी हुई व्यवस्था के अनुसार विद्युद्‌दृढ़ ने संजयन्त मुनिराज के पादमूल में तपश्चरण कर फिर भी विद्या प्राप्त कर ली ॥३१-३३॥

यह सब होने के बाद धरणेन्द्र ने कुतूहल वश संजयन्त मुनिराज से पूछा कि हे भगवत्! विद्युद्‌दृढ़ ने आपके प्रति ऐसी चेष्टा क्यों की है? वह किस कारण आपको हर कर लाया और किस कारण विद्याधरों से उसने उपसर्ग कराया ॥३४॥

धरणेन्द्र का प्रश्न सुनकर भगवान् संजयन्त केवली इस प्रकार कहने लगे-इस चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता हुआ मैं एक बार शकट नामक गाँव में हितकर नामक वैश्य हुआ था । मैं अत्यन्त मधुरभाषी, दयालु, स्वभाव सम्बन्धी सरलता से युक्त तथा साधुओं की सेवा में तत्पर रहता था ॥३५-३६॥

तदनन्तर मैं कुमुदावती नाम की नगरी में मर्यादा के पालन करने में उद्यत श्रीवर्द्धन नाम का राजा हुआ ॥३७॥

उसी ग्राम में एक ब्राह्मण रहता था जो खोटा तप कर कुदेव हुआ था और वहाँ से च्युत होकर मुझ श्रीवर्द्धन राजा का वह्निशिख नाम का पुरोहित हुआ था । वह पुरोहित यद्यपि सत्यवादी रूप से प्रसिद्ध था परन्तु अत्यन्त दुष्ट परिणामी था और छिपकर खोटे कार्य करता था ॥३८-३९॥

उस पुरोहित ने एक बार नियमदत्त नामक वणिक्‌ का धन छिपा लिया तब रानी ने उसके साथ जुआ खेलकर उसकी अँगूठी जीत ली ॥४०॥

रानी की दासी अँगूठी लेकर पुरोहित के घर गयी और वहाँ उसकी स्त्री को दिखाकर उससे रत्न ले आयी । रानी ने वे रत्न नियमदत्त वणिक् को जो कि अत्यन्त दुःखी था वापस दे दिये । तदनन्तर मैंने उस दुष्ट ब्राह्मण का सब धन छीन लिया तथा उसे तिरस्कृत कर नगर से बाहर निकाल दिया । उस दीन-हीन ब्राह्मण को सुबुद्धि उत्पन्न हुई जिससे उसने उत्कृष्ट तपश्चरण किया ॥४१-४२॥

अन्त में मरकर वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर यह विद्युद्‌दृढ़ नामक विद्याधरों का राजा हुआ है ॥४३॥

मेरा जीव श्रीवर्द्धन भी तपश्चरण कर मरा और स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर मैं विदेह क्षेत्र में संजयन्त हुआ हूँ ॥४४॥

उस पूर्वोक्त दोष के संस्कार से ही यह विद्याधर मुझे देखकर क्रोध से एकदम मूर्च्छित हो गया और कर्मो के वशीभूत होकर उसी संस्कार से इसने यह उपसर्ग किया है ॥४५॥

और जो वह नियमदत्त नामक वणिक् था वह तपश्चरण कर उसके फलस्वरूप उज्ज्वल हृदय का धारी तू नागकुमारों का राजा धरणेन्द्र हुआ है ॥४६॥

अथानन्तर-विद्युद्‌दृढ़ के दृढ़रथ नामक पुत्र हुआ सो विद्युद्‌दृढ़ उसके लिए राज्य सौंपकर तथा तपश्चरण कर स्वर्ग गया ॥४७॥

इधर दृढ़रथ के अश्वधर्मा, अश्वधर्मा के अश्वायु, अश्वायु के अश्वध्वज, अश्वध्वज के पद्मनिभ, पद्यनिभ के पद्यमाली, पद्यमाली के पद्मरथ, पद्मरथ के सिंहयान, सिंहयान के मृगोद्धर्मा, मृगोद्धर्मा के सिंहसप्रमु, सिंहसप्रमु के सिंहकेतु, सिंहकेतु के शशांकमुख, शशांकमुख के चन्द्र, चन्द्र के चन्द्रशेखर, चन्द्रशेखर के इन्द्र, इन्द्र के चन्द्ररथ, चन्द्ररथ के चक्रधर्मा, चक्रधर्मा के चक्रायुध, चक्रायुध के चक्रध्वज, चक्रध्वज के मणिग्रीव, मणिग्रीव के मण्‍यंक, मण्यंक के मणिभासुर, मणिभासुर के मणिस्यन्दन, मणिस्यन्दन के मण्यास्य, मण्यास्य के बिम्बोष्ठ के लम्बिताधर, लम्बिताधर के रक्तोष्ठ, रक्तोष्ठ के हरिचन्द्र, हरिचन्द्र के पूश्चन्द्र, पूश्चन्द्र के पूर्णचन्द्र, पूर्णचन्द्र के बालेन्दु, बालेन्दु के चन्द्रचूड, चन्द्रचूड के व्योमेन्दु, व्योमेन्दु के उडुपालन, उडुपालन के एकचूड, एकचूड के द्विचूड, द्विचूड के त्रिचूड, त्रिचूड के वज्रचूड, वज्रचूड के भूरिचूड, भूरिचूड के अर्कचूड, अर्कचूड के वह्निजटी के वह्नितेज के वह्नितेज नाम का पुत्र हुआ । इसी प्रकार और भी बहुत-से पुत्र हुए जो कालक्रम से मृत्यु को प्राप्त होते गये ॥४८-५४॥

इनमें से कितने ही विद्याधर राजा लक्ष्मी का पालन कर तथा अन्त में पुत्रों को राज्य सौंपकर कर्मों का क्षय करते हुए सिद्ध-भूमि को प्राप्त हुए ॥५५॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! इस प्रकार यह विद्याधरों का वंश कहा । अब द्वितीय युग का अवतार कहा जाता है सो सुन ॥५६॥

भगवान् ऋषभदेव का युग समाप्त होने पर इस पृथिवी पर जो प्राचीन उत्तम भाव थे वे हीन हो गये, लोगों की परलोक सम्बन्धी क्रियाओं में प्रीति शिथिल होने लगी तथा काम और अर्थ पुरुषार्थ में ही उनकी प्रवर बुद्धि प्रवृत्त होने लगी ॥५७-५८॥

अथानन्तर इक्ष्‍वाकु वंश में उत्पन्न हुए राजा जब कालक्रम से अतीत हो गये तब अयोध्या नगरी में एक धरणीधर नामक राजा उत्पन्न हुए । उनकी श्रीदेवी नामक रानी से प्रसिद्ध लक्ष्मी का धारक त्रिदशंजय नाम का पुत्र हुआ । इसकी स्त्री का नाम इन्दुरेखा था, उन दोनों के जितशत्रु नाम का पुत्र हुआ ॥५९-६०॥

पोदनपुर नगर में व्यानन्द नामक राजा रहते थे, उनकी अम्भोजमाला नामक रानी से विजया नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । राजा त्रिदशंजय ने जितशत्रु का विवाह विजया के साथ कराकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण कर कैलास पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया ॥६१-६२॥

अथानन्तर राजा जितशत्रु और रानी विजया के अजितनाथ भगवान का जन्म हुआ । इन्द्रादिक देवों ने भगवान् ऋषभदेव का जैसा अभिषेक आदि किया था वैसा ही भगवान् ऋषभदेव का किया ॥६३॥

चूँकि उनका जन्म होते ही पिता ने समस्त शत्रु जीत लिये थे इसलिए पृथिवी तल पर उनका अजित नाम प्रसिद्ध हुआ ॥६४॥

भगवान् अजितनाथ की सुनयना, नन्दा आदि अनेक रानियाँ थीं । वे सब रानियाँ इतनी सुन्दर थीं कि इन्द्राणी भी अपने रूप से उनकी समानता नहीं कर सकती थी ॥६५॥

अथानन्तर-भगवान् अजितनाथ एक दिन अपने अन्तःपुर के साथ सुन्दर उपवन में गये । वहाँ उन्होंने प्रातःकाल के समय फूला हुआ कमलों का एक विशाल वन देखा ॥ ६६ ॥ उसी वन को उन्होंने जब सूर्य अस्त होने को हुआ तब संकुचित होता देखा । इस घटना से वे लक्ष्मी को अनित्य मानकर परम वैराग्य को प्राप्त हो गये ॥६७॥

तदनन्तर-पिता, माता और भाइयों से पूछकर उन्होंने पूर्व विधि के अनुसार दीक्षा धारण कर ली ॥६८॥

इनके साथ अन्य दस हजार क्षत्रियों ने भी राज्य, भाई-बन्धु तथा सब परिग्रह का त्याग कर दीक्षा धारण की थी ॥६९॥

भगवान ने तेला का उपवास धारण किया था सो तीन दिन बाद अयोध्या निवासी ब्रह्मदत्त राजा ने उन्हें भक्ति—पूर्वक पारणा करायी थी-आहार दिया था ॥७०॥

चौदह वर्ष होने पर उन्हें केवलज्ञान तथा समस्त संसार के द्वारा पूजनीय अर्हन्तपद प्राप्त हुआ ॥७१॥

जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे उसी प्रकार इनके भी प्रकट हुए ॥७२॥

इनके पाद—मूल में रहनेवाले नब्बे गणधर थे तथा सूर्य के समान कान्ति को धारण करने वाले एक लाख साधु थे ॥७३॥

जितशत्रु के छोटे भाई विजय सागर थे, उनकी स्त्री का नाम सुमंगला था, सो उन दोनों के सगर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥७४॥

यह सगर शुभ आकार का धारक दूसरा चक्रवर्ती हुआ और पृथ्वीतल पर नौ निधियों के कारण परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था ॥७१॥

हे श्रेणिक! इसके समय जो वृत्तान्त हुआ उसे तू सुन । भरतक्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है ॥७६॥

उसमें पूर्णघन नाम का विद्याधरों का राजा राज्य करता था । वह महाप्रभाव से युक्त तथा विद्याओं के बल से उन्नत था । उसने विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचन से उसकी कन्या की याचना की पर सुलोचन ने अपनी कन्या पूर्णघन को न देकर निमित्तज्ञानी की आज्ञानुसार सगर चक्रवर्ती के लिए दी ॥७७-७८॥

इधर राजा सुलोचन और पूर्णघन के बीच जबतक भयंकर युद्ध होता है तब तक सुलोचन का पुत्र सहस्रनयन अपनी बहन को लेकर अन्यत्र चला गया ॥७९॥

पूर्णघन ने सुलोचन को मारकर नगर में प्रवेश किया परन्तु जब कन्या नहीं देखी तो अपने नगर को वापस लौट आया ॥८०॥

तदनन्तर पिता का वध सुनकर सहस्रनयन पूर्णमेघ पर बहुत ही कुपित हुआ परन्तु निर्बल होने से कुछ कर नहीं सका । वह अष्टापद आदि हिंसक जन्तुओं से भरे वन में रहता था और सदा पूर्णमेघ के छिद्र देखता रहता था ॥८१॥

तदनन्तर एक मायामयी अश्वसगर चक्रवर्ती को हर ले गया सो वह उसी वन में आया जिसमें कि सहस्रनयन रहता था । सौभाग्य से सहस्रनयन की बहन उत्‍पलमती ने चक्रवर्ती को देखकर भाई से यह समाचार कहा ॥८२॥

सहस्रनयन यह समाचार सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और उसने उत्पलमती, सगर चक्रवर्ती के लिए प्रदान कर दी । चक्रवर्ती ने भी पूर्णघन को विद्याधरों का राजा बना दिया ॥८३॥

जो छह खण्ड का अधिपति था तथा समस्त राजा जिसका शासन मानते थे ऐसा चक्रवर्ती सगर उस स्‍त्री को पाकर बहुत भारी सन्तोष को प्राप्त हुआ ॥८४॥

विद्याधरों का आधिपत्य पाकर सहस्रनयन ने पूर्णघन के नगर को चारों ओर से कोट के समान घेर लिया ॥८५॥

तदनन्तर दोनों के बीच मनुष्यों का संहार करनेवाला बहुत भारी युद्ध हुआ जिसमें सहस्रनयन ने पूर्णमेघ को मार डाला ॥८६॥

तदनन्तर पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन को शत्रुओं ने चक्रवाल नगर से निर्वासित कर दिया सो वह आकाशरूपी आंगन में भ्रमण करने लगा ॥८७॥

उसे देखकर बहुत-से कुपित विद्याधरों ने उसका पीछा किया सो वह अत्यन्त दुःखी होकर तीन लोक के जीवों को सुख उत्पन्न करने वाले भगवान् अजितनाथ की शरण में पहुँचा ॥८८॥

वहाँ इन्द्र ने उससे भय का कारण पूछा । तब मेघवाहन ने कहा कि हमारे पिता पूर्णघन और सहस्रनयन के पिता सुलोचन में अनेक जीवों का विनाश करने वाला वैर-भाव चला आ रहा था सो उसी संस्कार के दोष से अत्यन्त क्रूर चित्त के धारक सहस्रनयन ने सगर चक्रवर्ती का बल पाकर मेरे बन्धुजनों का क्षय किया है । इस शत्रु ने मुझे भी बहुत भारी त्रास पहुँचाया है सो मैं महल से हंसों के साथ उड़कर शीघ्र ही यहाँ आया हूँ ॥८९-९१॥

तदनन्तर जो राजा मेघवाहन का पीछा कर रहे थे उन्होंने सहस्रनयन से कहा कि वह इस समय भगवान् अजितनाथ के समीप है अत: हम उसे पकड़ नहीं सकते । यह सुनकर सहस्रनयन रोष वश स्वयं ही चला और मन ही मन सोचने लगा कि देखें मुझसे अधिक बलवान् दूसरा कौन है जो इसकी रक्षा कर सके । ऐसा सोचता हुआ वह भगवान के समवसरण में आया ॥९२-९३॥

सहस्रनयन ने ज्यों ही दूर से भगवान का प्रभा-मण्डल देखा त्यों ही उसका समस्त अहंकार चूर-चूर हो गया । उसने भगवान अजितनाथ को प्रणाम किया । सहस्रनयन और मेघवाहन दोनों ही परस्पर का बैर-भाव छोड़कर भगवान के चरणों के समीप जा बैठे । तदनन्तर गणधर ने भगवान से उन दोनों के पिता का चरित्र पूछा सो भगवान निम्न प्रकार कहने लगे ॥९४-९५॥

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सदृतु नाम का नगर था । उसमें भावन नाम का एक वणिक् रहता था । उसकी आतकी नामक स्त्री और हरिदास नामक पुत्र था । भावन यद्यपि चार करोड द्रव्य का स्वामी था तो भी धन कमाने की इच्छा से देशान्तर की यात्रा के लिए उद्यत हुआ ॥९६-९७॥

उसने अपना सब धन धरोहर के रूप में पुत्र के लिए सौंपते हुए, जुआ आदि व्यसनों के छोड़ने की उत्कष्ट शिक्षा दी । उसने कहा कि हे पुत्र! ये जुआ आदि व्यसन समस्त दोषों के कारण हैं इसलिए इनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है ऐसा उपदेश देकर वह भावन नाम का वणिक धन की तृष्णा से जहाज में बैठकर देशान्तर को चला गया ॥९८-९९॥

पिता के चले जाने पर हरिदास ने वेश्या-सेवन, जुआ की आसक्ति तथा मदिरा के अहंकारवश चारों करोड़ द्रव्य नष्ट कर दिया ॥१००॥

इस प्रकार जब वह जुआ में सब कुछ हार गया और अन्य जुवाड़ियो का देनदार हो गया तब वह दुराचारी धन के लिए सुरंग लगाकर राजा के घर में घुसा तथा वहाँ से धन लाकर अपने सब व्यसनों की पूर्ति करने लगा । अथानन्तर कुछ समय बाद जब उसका पिता भावन देशान्तर से घर लौटा तब उसने पुत्र को नहीं देखकर अपनी स्त्री से पूछा कि हरिदास कहां गया है? स्त्री ने उत्तर दिया कि वह इस सुरंग से चोरी करने के लिए गया है ॥१०१-१०३॥

तदनन्तर भावन को शंका हुई कि कहीं इस कार्य में इसका भरण न हो जावे इस शंका से वह चोरी छुड़ाने के लिए घर के भीतर दी हुई सुरंग से चला ॥१०४॥

उधर से उसका पुत्र हरिदास वापस लौट रहा था, सो उसने समझा कि यह कोई मेरा वैरी आ रहा है ऐसा समझकर उस पापी ने बेचारे भावन को तलवार से मार डाला ॥१०५॥

पीछे जब नख, दाढ़ी, मूँछ तथा जटा आदि के स्पर्श से उसे विदित हुआ कि अरे ! यह तो मेरा पिता है, तब वह दु:सह दुःख को प्राप्त हुआ ॥१०६॥

पिता की हत्या कर वह भय से भागा और अनेक देशों में दु:खपूर्वक भ्रमण करता हुआ मरा ॥१०७॥

पिता पुत्र दोनों श्वान हुए, फिर शृगाल हुए, फिर मार्जार हुए, फिर बैल हुए, फिर नेवला हुए, फिर भैंसा हुए और फिर बैल हुए । ये दोनों ही परस्पर में एक दूसरे का घात कर मरे और संसाररूपी वन में भटकते रहे । अन्त में विदेह क्षेत्र की पुष्कलावती नगरी में मनुष्य हुए ॥१०८-१०९॥

फिर उग्र तपश्चरण कर शतार नामक ग्यारहवें स्वर्ग में उत्तर और अनुत्तर नामक देव हुए । वहाँ से आकर जो भावन नाम का पिता था वह पूर्णमेघ विद्याधर हुआ और जो उसका पुत्र था वह सुलोचन नाम का विद्याधर हुआ । इसी वैर के कारण पूर्णमेघ ने सुलोचन को मारा है ॥११०-१११॥

गणधर देव ने सहस्रनयन और मेघवाहन को समझाया कि तुम दोनों इस तरह अपने पिताओं के सांसारिक दु:खमय परिभ्रमण को जानकर संसार का कारणभूत वैरभाव छोड़कर साम्यभाव का सेवन करो ॥११२॥

तदनन्तर सगर चक्रवर्ती ने पूछा कि हे भगवन! मेघवाहन और सहस्रनयन का पूर्व जन्म में वैर क्यों हुआ? तब धर्मचक्र के अधिपति भगवान ने उन के वैर का कारण निम्न प्रकार समझाया ॥११३॥

उन्होंने कहा कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी पद्मक नामक नगर में गणित शाख का पाठी महाधनवान् रम्भ नाम का एक प्रसिद्ध पुरुष रहता था ॥११४॥

उसके दो शिष्य थे - एक चन्द्र और दूसरा आवलि । ये दोनों ही परस्पर मैत्री भाव से सहित थे । अत्यन्त प्रसिद्ध धनवान और गुणों से युक्त थे ॥११५॥

नीतिशास्त्र में निपुण रम्भ ने यह विचारकर कि यदि ये दोनों परस्पर में मिले रहेंगे तो हमारा पद भंग कर देंगे, दोनों में फूट डाल दी ॥११६॥

एक दिन चन्द्र गाय खरीदना चाहता था सो गोपाल के साथ सलाह कर मूल्य लेने के लिए वह सहज ही अपने घर आया था कि भाग्यवश आवलि उसी गाय को खरीदकर अपने गांव की ओर आ रहा था । बीच में चन्द्र ने क्रोधवश उसे मार डाला । आवलि मरकर म्लेच्छ हुआ ॥११७-११८॥

और चन्द्र मरकर बैल हुआ सो म्‍लेच्‍छ ने पूर्व वैर के कारण उसे मारकर खा लिया ॥११९॥

म्लेच्छ तिर्यंच तथा नरक योनि में भ्रमण कर चूहा हुआ और चन्द्र का जीव बैल मरकर बिलाव हुआ सो बिलाव ने चूहे को मारकर भक्षण किया ॥१२०॥

पाप कर्म के कारण दोनों ही मरकर नरक में उत्पन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि प्राणी संसाररूपी सागर में बहुत भारी दुख पाते ही हैं ॥१२१॥

नरक से निकलकर दोनों ही बनारस में संभ्रमदेव की दासी के कूट और कापंटिक नाम के पुत्र हुए । ये दोनों ही भाई दास थे - दास वृत्ति का काम करते थे सो संभ्रमदेव ने उन्हें जिनमन्दिर मे नियुक्त कर दिया । अन्त में मरकर दोनों ही पुण्य के प्रभाव से रूपानन्द और सुरूप नामक व्यन्तर देव हुए ॥१२२-१२३॥

रूपानन्द चन्द्र का जीव था और सुरूप आवलिका जीव था सो रूपानन्द चय कर रजोवली नगरी में कुलन्धर नाम का कुल पुत्रक हुआ और सुरूप, पुरोहित का पुत्र पुष्पभूति हुआ ॥१२४॥

यद्यपि कुलन्धर और पुष्पभूति दोनों ही मित्र थे तथापि एक हलवाहक के निमित्त से उन दोनों में शत्रुता हो गयी । फलस्वरूप कुलन्धर पुष्पभूति को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ ॥१२५॥

मार्ग में उसे एक वृक्ष के नीचे विराजमान मुनिराज मिले सो उनसे धर्म श्रवण कर वह शान्त हो गया । राजा ने उसकी परीक्षा ली और पुण्य के प्रभाव से उसे मण्डलेश्वर बना दिया ॥१२६॥

पुष्पभूति ने देखा कि धर्म के प्रभाव से ही कुलन्धर वैभव को प्राप्त हुआ है इसलिए वह भी जैनी हो गया और मरकर तीसरे स्वर्ग में देव हुआ ॥१२७॥

कुलन्धर भी उसी तीसरे स्वर्ग में देव हुआ । दोनों ही च्युत होकर धातकी-खण्ड द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में अरिंजय पिता और जयवंती माता के पुत्र हुए । एक का नाम क्रूरामर, का नाम धनश्रुति था । ये दोनों भाई अत्यन्त शूरवीर एवं सहस्र शीर्ष राजा के विश्वासपात्र प्रसिद्ध सेवक हुए॥१२८-१२९॥

किसी एक दिन राजा सहस्र शीर्ष इन दोनों सेवकों के साथ हाथी पकड़ने के लिए वन में गया । वहाँ उसने जन्म से ही विरोध रखनेवाले सिंह-मृगादि जीवों को परस्पर प्रेम करते हुए देखा ॥१३०॥

ये हिंसक प्राणी शान्त क्यों हैं ? इस प्रकार आश्‍चर्य को प्राप्त हुए राजा सहस्र शीर्ष ने ज्यों ही महावन में प्रवेश किया त्यों ही उसकी दृष्टि महामुनि केवली भगवान के ऊपर पड़ी ॥१३१॥

तदनन्तर राजा सहस्र शीर्ष ने दोनों सेवकों के साथ केवली भगवान के पास दीक्षा धारण कर ली । फलस्वरूप राजा तो मोक्ष को प्राप्त हुआ और क्रूरामर तथा धनश्रुति शतार स्वर्ग गये ॥१३२॥

इनमें चन्द्र का जीव क्रूरामर तो स्वर्ग से चयकर मेघवाहन हुआ है और आवलि का जीव धनश्रुति सहस्रनयन हुआ है । इस प्रकार पूर्वभव के कारण इन दोनों में वैरभाव है ॥१३३॥

तदनन्तर सगर चक्रवर्ती ने भगवान से पूछा कि हे प्रभो! सहस्रनयन में मेरी अधिक प्रीति है सो इसका क्या कारण है? उत्तर में भगवान ने कहा कि जो रम्भ नामा गणित शास्त्र का पाठी था वह मुनियों को आहारदान देने के कारण देव-कुल में आर्य हुआ, फिर सौधर्म-स्वर्ग गया, वहाँ से च्युत होकर चन्द्रपुर नगर में राजा हरि और धरा नाम की रानी के व्रतकीर्तन नाम का प्यारा पुत्र हुआ । वह मुनिपद धारण कर स्वर्ग गया, वहाँ से च्युत होकर पश्चिम विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नगर में राजा महाघोष और चन्द्रिणी नाम की रानी के पयोबल नाम का पुत्र हुआ । वह मुनि होकर प्राणत नामक चौदहवें स्वर्ग में देव हुआ ॥१३४-१३७॥

वहाँ से च्युत होकर भरत क्षेत्र के पृथिवीपुर नगर में राजा यशोधर और जया नाम की रानी के जयकीर्तन नाम का पुत्र हुआ ॥१३८॥

वह पिता के निकट जिन-दीक्षा ले, विजय विमान में उत्पन्न हुआ और वहाँ से चय कर तू सगर चक्रवर्ती हुआ है ॥१३९॥

जब तू रम्भ था तब आवलि के साथ तेरा बहुत स्नेह था । अब आवलि ही सहस्रनयन हुआ है । इसलिए पूर्व संस्कार के कारण अब भी तेरा उसके साथ गाढ़ स्‍नेह है ॥१४०॥

इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के मुख से अपने तथा पिता के भवान्तर जानकर मेघवाहन और सहस्त्राक्ष दोनों को धर्म में बहुत भारी रुचि उत्पन्न हुई ॥१४१॥

उस धार्मिक रुचि के कारण दोनों को जाति-स्मरण भी हो गया । तदनन्तर श्रद्धा से भरे मेघवाहन और सहस्रनयन अजितनाथ भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥१४२॥

हे भगवन्! जो बुद्धि से रहित हैं तथा जिनका कोई नाथ-रक्षक नहीं है ऐसे संसारी प्राणियों का आप बिना कारण ही उपकार करते हैं इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है ॥१४३॥

आपका रूप उपमा से रहित है तथा आप अतुल्य वीर्य के धारक हैं । हे नाथ! इन तीनों लोकों में ऐसा कौन पुरुष है जो आपके दर्शन से सन्तृप्त हुआ हो ॥१४४॥

हे भगवन्! यद्यपि आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, कृतकृत्य हैं, सर्वदर्शी हैं, सुखस्वरूप हैं, अचिन्त्य हैं, और जानने योग्य समस्त पदार्थों को जान चुके हैं तथापि जगत् का हित करने के लिए उद्यत हैं ॥१४५॥

हे जिनराज! संसाररूपी अन्धकूप में पड़ते हुए जीवों को आप श्रेष्ठ धर्मोपदेशरूपी हस्तावलम्बन प्रदान करते हैं ॥१४६॥

इस प्रकार जिनकी वाणी गद्गद हो रही थी और नेत्र आँसुओं से भर रहे थे ऐसे परम हर्ष को प्राप्त हुए मेघवाहन और सहस्रनयन विधिपूर्वक स्तुति और नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये ॥१४७॥

सिंहवीर्य आदि मुनि, इन्द्र आदि देव और सगर आदि राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥१४८॥

अथानन्तर-जिनेन्द्र भगवान के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहने लगे कि हे विद्याधर के बालक! तू धन्य है जो सर्वज्ञ अजित जिनेन्द्र की शरण में आया है, हम दोनों तुझ पर सन्तुष्ट हुए हैं अत: जिससे तेरी सर्वप्रकार से स्वस्थता हो सकेगी वह बात हम तुझसे इस समय कहते हैं सो तू ध्यान से सुन, तू हम दोनों की रक्षा का पात्र है ॥१४९-१५१॥

बहुत भारी मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अत्यन्त दुर्गम्य तथा अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं ॥१५२॥

उन महा द्वीपों में कहीं गन्धर्व, कहीं किन्नरों के समूह, कहीं यक्षों के झुण्ड और कहीं पुरुष देव क्रीड़ा करते हैं ॥१५३॥

उन द्वीपों के बीच एक ऐसा द्वीप है जो राक्षसों की शुभ क्रीड़ा का स्थान होने से राक्षस द्वीप कहलाता है और सात सौ योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा है ॥११४॥

उस राक्षस द्वीप के मध्य में मेरु पर्वत के समान त्रिकूटाचल नामक विशाल पर्वत है । वह पर्वत अत्यन्त दु:प्रवेश है और उत्तमोत्तम गुहारूपी गृहों से सबको शरण देने वाला है ॥१५५॥

उसकी शिखर सुमेरु पर्वत की चूलिका के समान महामनोहर है, वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है ॥१५६॥

उसके सुवर्णमय किनारे नाना प्रकार के रत्नों की कान्ति के समूह से सदा आच्छादित रहते हैं तथा नाना प्रकार की लताओं से आलिंगित कल्पवृक्ष वहाँ संकीर्णता करते रहते हैं ॥१५७॥

उस त्रिकूटाचल के नीचे तीस योजन विस्तार वाली लंका नगरी है, उसमें राक्षस वंशियों का निवास है, और उसके महल नाना प्रकार के रत्‍नों एवं सुवर्ण से निर्मित हैं ॥१५८॥

मन को हरण करने वाले बागबगीचों, कमलों से सुशोभित सरोवरों और बड़े-बड़े जिन-मन्दिरों से वह नगरी इन्द्रपुरी के समान जान पड़ती है ॥१५९॥

वह लंका नगरी दक्षिण दिशा की मानो आभूषण ही है । हे विद्याधर! तू अपने बन्धुवर्ग के साथ उस नगरी में जा और सुखी हो ॥१६०॥

ऐसा कहकर राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे देवाधिष्टित एक हार दिया । वह हार अपनी करोड़ों किरणों से चांदनी उत्पन्न कर रहा था ॥१६१॥

जन्मान्तर सम्बन्धी पुत्र की प्रीति के कारण उसने वह हार दिया था और कहा था कि हे विद्याधर! तू चरमशरीरी तथा युग का श्रेष्ठ पुरुष है इसलिए तुझे यह हार दिया है ॥१६२॥

उस हार के सिवाय उसने पृथ्वी के भीतर छिपा हुआ एक ऐसा प्राकृतिक नगर भी दिया जो छह योजन गहरा तथा एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कला प्रमाण चौड़ा था ॥१६३॥

उस नगर में शत्रुओं का शरीर द्वारा प्रवेश करना तो दूर रहा मन से भी प्रवेश करना अशक्य था । उसमें बड़े-बड़े महल थे, अलंकारोदय उसका नाम था और शोभा से वह स्वर्ग के समान जान पड़ता था ॥१६४॥

यदि तुझ पर कदाचित् परचक्र का आक्रमण हो तो इस नगर में खड्ग का आश्रय ले सुख से रहना । यह तेरी वंश परम्परा के लिए रहस्य-सुरक्षित स्थान है ॥१६५॥

इस प्रकार राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीमने पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन से कहा जिसे सुनकर वह परम हर्ष को प्राप्त हुआ । वह अजितनाथ भगवान को नमस्कार कर उठा ॥१६६॥

राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे राक्षसी विद्या दी । उसे लेकर इच्छानुसार चलने वाले कामग नामक विमान पर आरूढ़ हो वह लंकापुरी की और चला ॥१६७॥

राक्षसों के इन्द्र ने इसे वरदान स्वरूप लंका नगरी दी है यह जानकर मेघवाहन के समस्त भाई बान्धव इस प्रकार हर्ष को प्राप्त हुए जिस प्रकार कि प्रातःकाल के समय कमलों के समूह विकास भाव को प्राप्त होते हैं ॥१६८॥

विमल, अमल, कान्त आदि अनेक विद्याधर परम प्रसन्न वैभव के साथ शीघ्र ही उसके समीप आये और अनेक प्रकार के मीठे-मीठे शब्दों से उसका अभिनन्दन करने लगे ॥१६९॥

सन्तोष से भरे भाई-बन्धुओं से वेष्टित होकर मेघवाहन ने लंका की ओर प्रस्थान किया । उस समय कितने ही विद्याधर उसकी बगल में चल रहे थे, कितने ही पीछे चल रहे थे, कितने ही आगे जा रहे थे, कितने ही हाथियों की पीठ पर सवार होकर चल रहे थे, कितने ही घोड़ों पर आरूढ़ होकर चल रहे थे, कितने ही जय-जय शब्द कर रहे थे, कितने ही दुन्दुभियों का मधुर शब्द कर रहे थे, कितने ही लोगों पर सफेद छत्रों से छाया हो रही थी तथा कितने ही ध्वजाओं और मालाओं से सुशोभित थे। पूर्वोक्त विद्याधरों में कोई तो मेघवाहन को आशीर्वाद दे रहे थे और कोई नमस्कार कर रहे थे । उन सबके साथ आकाश में चलते हुए मेघवाहन ने लवणसमुद्र देखा ॥१७०-१७२॥

वह लवणसमुद्र आकाश के समान विस्तृत था, पाताल के समान गहरा था, तमालवन के समान श्याम था और लहरों के समूह से व्याप्त था ॥ १७३॥

मेघवाहन के समीप चलने वाले लोग कह रहे थे कि देखो यह जल के बीच पर्वत दीख रहा है, यह बड़ा भारी मकर छलांग भर रहा है और इधर यह बृहदाकार मच्छ चल रहा है ॥१७४॥

इस प्रकार समुद्र की शोभा देखते हुए मेघवाहन ने त्रिकूटाचल के शिखर के नीचे स्थित लंकापुरी में प्रवेश किया । वह लंका बहुत भारी प्राकार और गोपुरों से सुशोभित थी, अपनी लाल-कान्ति के द्वारा सन्ध्या के समान आकाश को लिप्त कर रही थी, कुन्द के समान सफेद, ऊँचे पताकाओं से सुशोभित, कोट और तोरणों से युक्त जिनमन्दिरों से मण्डित थी । लंकानगरी में प्रविष्ट हो सर्वप्रथम उसने जिनमदिंर में जाकर जिनेन्द्रदेव की वन्दना की और तदनन्तर मंगलोपकरणों से युक्त अपने योग्य महल में निवास किया ॥१७५-१७७॥

रत्‍नों की शोभा से जिनके नेत्र और नेत्रों की पंक्तियाँ आकर्षित हो रही थीं ऐसे अन्य भाई-बन्धु भी यथायोग्य महलों में ठहर गये ॥१७८॥

अथानन्‍तर -- किन्नरगीत नामा नगर में राजा रतिमयूख और अनुमति नामक रानी के सुप्रभा नामक कन्‍या थी। वह कन्‍या नेत्र और मन को चुराने वाली थी, काम की वसतिका थी, लक्ष्‍मीरूपी कुमुदिनी को विकसित करने के लिए चाँदनी के समान थी, लावण्‍यरूपी जल की वापिका थी , और समस्‍त इन्द्रियों को हर्ष उत्‍पन्‍न करने वाली थी । राजा मेघवाहन ने बड़े वैभव से उसके साथ विवाह किया ॥१७९-१८१॥

तदनन्‍तर समस्‍त विद्याधर लोग जिसकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे ऐसा मेघवाहन लंकापुरी में चिरकाल तक इस प्रकार रहता रहा जिस प्रकार कि इन्‍द्र स्‍वर्ग में रहता है ॥१८२॥

कुछ समय बाद पुत्रजन्‍म की इच्‍छा करने वाले राजा मेघवाहन के पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ। कुल-परम्‍परा के अनुसार महारक्ष इस नाम को प्राप्‍त हुआ ॥१८३॥

किसी एक दिन राजा मेघवाहन वन्‍दना के लिए अजितनाथ भगवान् के समवसरण में गया। वहाँ वन्‍दना कर बड़ी विनय से अपने योग्य स्‍थान पर बैठ गया ॥१८४॥

वहाँ जब चलती हुई अन्‍य कथा पूर्ण हो चुकी तब सगर चक्रवर्ती ने हाथ मस्‍तक से लगा नमस्‍कार कर अजितनाथ जिनेन्‍द्र से पूछा ॥१८५॥

कि हे भगवन् ! इस अवसर्पिणी काल में आगे चलकर आपके समान धर्मचक्र के स्‍वामी अन्‍य कितने तीर्थंकर होंगे॥१८६॥

और तीनों जगत के जीवों को सुख देने वाले कितने तीर्थंकर पहले हो चुके हैं? यथार्थ में आप जैसे मनुष्‍यों की उत्‍पत्ति तीनों लोकों में आश्‍चर्य उत्‍पन्‍न करने वाली है ॥१८७॥

चौदह रत्‍न और सुदर्शन चक्र से चिह्नित लक्ष्मी के धारक चक्रवर्ती कितने होंगे? इसी तरह बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण भी कितने होंगे ॥१८८॥

इस प्रकार सगर चक्रवर्ती के पूछने पर भगवान् अजितनाथ निम्‍नांकित वचन बोले। उसके वे वचन देव-दुन्दुभि के गम्‍भीर शब्‍द का तिरस्‍कार कर रहे थे तथा कानों के लिए परम आनन्‍द उत्‍पन्‍न करने वाले थे ॥१८९॥

भगवान् की भाषा अर्धमागधी भाषा थी और बोलते समय उनके ओठों को चंचल नहीं कर रही थी। यह बड़े आश्‍चर्य की बात थी ॥१९०॥

उन्‍होंने कहा कि हे सगर। प्रत्‍येक उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं॥१९१॥

जिस समय यह समस्‍त संसार मोहरूपी गाढ़ अन्‍धकार से व्‍याप्‍त था, धर्म की चेतना से शून्‍य था, समस्‍त पाखण्‍डों का घर और राजा से रहित था उस समय राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव नामक प्रथम तीर्थंकर हुए थे, हे राजन् ! सर्वप्रथम उन्‍हीं के द्वारा इस कृत युग की स्‍थापना हुई थी ॥१९२-१९३॥

उन्‍होंने क्रियाओं में भेद होने से क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र इन तीन वर्णों की कल्‍पना की थी। उनके समय में मेघों के जल से धान्‍यों की उत्‍पत्ति हुई थी ॥१९४॥

उन्‍हीं के समय उनके समान तेज के धारक भरतपुत्र ने यज्ञोपवीत को धारण करने वाले ब्राह्मणों की भी रचना की थी ॥१९५॥

सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार के आश्रम भी उन्‍हीं के समय उत्‍पन्‍न हुए थे। समस्‍त विज्ञान और कलाओं के उपदेश भी उन्‍हीं भगवान् ऋषभदेव के द्वारा दिये गये थे ॥१९६॥

दीक्षा लेकर भगवान् ऋषभदेव ने अपना कार्य किया और जन्‍म सम्‍बन्‍धी दु:खाग्‍नि से पीड़ि‍त अन्‍य भव्‍य-जीवों को शान्तिरूप जल के द्वारा सुख प्राप्‍त कराया ॥१९७॥

तीन-लोक के जीव मिलकर इकट्ठे हो जावें तो भी आत्‍मतेज के सुशोभित भगवान् ऋषभदेव के अनुपम गुणों का अन्‍त प्राप्‍त करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते ॥१९८॥

शरीर त्‍याग करने के लिए जब भगवान् ऋषभदेव जब कैलास पर्वत पर आरूढ़ हुए थे तब आश्‍चर्य से भरे सुर और असुरों ने उन्‍हें सुवर्णमय शिखर के समान देखा था ॥१९९॥

उनकी शरण में जाकर महाव्रत धारण करने वाले कितने ही भरत आदि मुनि निर्वाण धाम को प्राप्‍त हुए हैं ॥२००॥

कितने ही पुण्‍य उपार्जन कर स्‍वर्ग सुख को प्राप्‍त हैं, और स्‍वभाव से ही सरलता को धारण करने वाले कितने ही लोग उत्‍कृष्‍ट मनुष्‍य पद को प्राप्‍त हुए हैं ॥२०१॥

यद्यपि उनका मत अत्‍यन्‍त उज्‍ज्‍वल था तो भी मिथ्‍यादर्शनरूपी राग से युक्‍त मनुष्‍य उसे उस तरह नहीं देख सके थे जिस तरह कि उल्‍लू सूर्य को नहीं देख सकते हैं ॥२०२॥

ऐसे मिथ्‍यादृष्टि लोग कुधर्म की श्रद्धा कर नीचे देवों में उत्‍पन्‍न होते हैं। फिर तिर्यंचों में दुष्‍ट चेष्‍टाएँ कर नरकों में भ्रमण करते हैं ॥२०३॥

तदनन्‍तर बहुत काल व्‍यतीत हो जाने पर समुद्र के समान गम्‍भीर ऋषभदेव का युग (तीर्थ) विच्छिन्न हो गया और धार्मिक उत्‍सव नष्‍ट हो गया तब सर्वाथसिद्धि से चयकर फिर से कृतयुग की व्‍यवस्‍था करने के लिए जगत् का हित करने वाला मैं दूसरा अजितनाथ तीर्थंकर उत्‍पन्‍न हुआ हूँ ॥२०४-२०५॥

जब आचार के विघात और मिथ्‍यादृष्टियों के वैभव से समीचीन धर्म ग्‍लानि को प्राप्‍त हो जाता है -- प्रभावहीन होने लगता है तब तीर्थंकर उत्‍पन्‍न होकर उसका उद्योत करते हैं ॥२०६॥

संसार के प्राणी उत्‍कृष्‍ट बन्‍धुस्‍वरूप समीचीन धर्म को पुन: प्राप्‍त कर मोक्षमार्ग को प्राप्‍त होते हैं और मोक्ष स्‍थान की ओर गमन करने लगते हैं (विच्छिन्‍न मोक्षमार्ग फिर से चालू हो जाता है) ॥२०७॥

तदनन्‍तर जब मैं मोक्ष चला जाऊँगा तब क्रम से तीनों लोकों का उद्योत करने वाले बाईस तीर्थंकर और उत्‍पन्‍न होंगे ॥२०८॥

वे सभी तीर्थंकर मेरे ही समान कान्ति, वीर्य आदि से विभूषित होंगे, मेरे ही समान तीन-लोक के जीवों से पूजा को प्राप्‍त होंगे और मेरे ही समान ज्ञानदर्शन के धारक होंगे ॥२०९॥

उन तीर्थंकरों में तीन तीर्थंकर (शान्ति, कुन्‍थु, अर) चक्रवर्ती की लक्ष्‍मी का उपभोग कर अनन्‍त सुख का कारण ज्ञान का साम्राज्‍य प्राप्‍त करेंगे ॥२१०॥

अब मैं उन सभी महापुरुषों के नाम कहता हूँ। उनके ये नाम तीनों जगत् में मंगलस्‍वरूप हैं तथा हे राजन् सगर ! तेरे मन की शुद्धता करने वाले हैं ॥२११॥

पुरुषों में श्रेष्‍ठ ऋषभनाथ प्रथम तीर्थंकर थे जो हो चुके हैं, मैं अजितनाथ वर्तमान तीर्थंकर हूँ और बाकी बाईस तीर्थंकर भविष्‍यवत् तीर्थंकर हैं ॥२१२॥

मुक्‍ति‍ के कारण सम्‍भवनाथ, भव्‍य जीवों को आनन्दित करने वाले अभिनन्‍दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्‍वनाथ, चन्‍द्रप्रभ, अष्‍टकर्मों को नष्‍ट करने वाले पुष्‍पदन्‍त, शील के सागरस्‍वरूप शीतलनाथ, उत्तम चेष्‍टाओं के द्वारा कल्‍याण करने वाले श्रेयोनाथ, सत्‍पुरुषों के द्वारा पूजित वासुपूज्‍य, विमलनाथ, अनन्‍तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्‍थुनाथ, अरनाथ, मल्‍लि‍नाथ, सुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्‍वनाथ और जिनमार्ग के धुरन्‍दर वीरनाथ। ये इस अवसर्पिणी युग के चौबीस तीर्थंकर हैं। ये सभी देवाधिदेव और जीवों का कल्‍याण करने वाले होंगे ॥२१३-२१६॥

इन सभी का जन्‍मावतरण रत्‍नों की वर्षा से अभिनन्दित होगा तथा देव लोग क्षीरसागर के जल से सुमेरु-पर्वत पर सबका जन्‍माभिषेक करेंगे ॥२१७॥

इन सभी का तेज, रूप, सुख और बल उपमा से रहित होगा और सभी इस संसार में जन्‍मरूपी शत्रु का विध्वंस करने वाले होंगे (मोक्षमार्गी होंगे) ॥२१८॥

जब महावीररूपी सूर्य अस्‍त हो जायेगा तब इस संसार में बहुत से पाखण्‍डीरूपी जुगनू तेज को प्राप्‍त करेंगे ॥२१९॥

वे पाखण्‍ड पुरुष इस चतुर्गतिरूप संसार कूप में स्‍वयं गिरेंगे तथा मोह से अन्‍धे अन्‍य प्राणियों को भी गिरावेंगे ॥२२०॥

तुम्‍हारे समान चंक्राकित लक्ष्‍मी का अधिपति एक चक्रवर्ती तो हो चुका है, अत्‍यन्‍त शक्तिशाली द्वितीय चक्रवर्ती तुम हो और तुम दो के सिवाय दस चक्रवर्ती और होंगे ॥२२१॥

चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हो चुके हैं, द्वितीय चक्रवर्ती सगर तुम विद्यमान ही हो और तुम दो के सिवाय चक्रचिह्नित भोगों के स्‍वामी निम्‍नांकित दस चक्रवर्ती राजा और भी होंगे ॥२२२॥

३ सनन्‍तकुमार, ४ मधवा, ५ शान्ति, ६ कुन्‍थु, ७ अर, ८ सुभूम, ९ महापद्म, १० हरिषेण, ११ जयसेन और १२ ब्रह्मदत्त ॥२२३॥

नौ प्रतिनारायणों के साथ नौ नारायण होंगे और धर्म में जिनका चित्त लग रहा है ऐसे बलभद्र भी नौ होंगे ॥२२४-२२५॥

हे राजन् ! जिस प्रकार हमने अवसर्पिणी काल में होने वाले तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि का वर्णन किया है उसी प्रकार के तीर्थंकर आदि उत्‍सर्पिणी काल में भी भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में होंगे ॥२२६॥

इस प्रकार कर्मों के वश होनेवाला जीवों का संसारभ्रमण, महापुरुषों की उत्‍पत्ति, कालचक्र का परिवर्तन और आठ कर्मों से रहित जीवों को होने वाला अनुपम सुख इन सबका विचारकर बुद्धिमान् मेघवाहन ने अपने मन में निम्‍न विचार किया ॥२२७-२२८॥

हाय-हाय, बड़े दु:ख की बात है कि जिन कर्मों के द्वारा यह जीव आताप को प्राप्‍त होता है, कर्मरूपी मदिरा से उन्‍मत्त हुआ यह उन्‍हीं कर्मों को करने के लिए उत्‍साहित होता है ॥२२९॥

जो प्रारम्‍भ में ही मनोहर दिखते हैं और अन्‍त में विष के समान दु:ख देते हैं अथवा दु:ख उत्‍पन्‍न करना ही जिनका स्‍वभाव है। ऐसे विषयों में क्‍या प्रेम करना है? ॥२३०॥

यह जीव धन, स्त्रियों तथा भाई-बन्धुओं का चिरकाल तक संग करता है तो भी संसार में इसे अकेले ही भ्रमण करना पड़ता है ॥२३१॥

जिस प्रकार कुत्ते के पिल्‍ले को जब तक रोटी का टुकड़ा देते रहते हैं तभी तक वह प्रेम करता हुआ पीछे लगा रहता है इसी प्रकार इन संसार के सभी प्राणियों को जब तक कुछ मिलता रहता है तभी तक ये प्रेमी बनकर अपने पीछे लगे रहते हैं ॥२३२॥

इतना भारी काल बीत गया पर इसमें कौन मनुष्‍य ऐसा है जो भाई-बन्‍धुओं, स्त्रियों, मित्रों तथा अन्‍य इष्‍ट-जनों के साथ परलोक को गया हो ॥२३३॥

ये पंचेन्द्रियों के भोग साँप के शरीर के समान भयंकर एवं नरक में गिराने वाले हैं। ऐसा कौन सचेतन (विचारक) पुरुष है जो कि इन विषयों में आसक्ति करता हो? ॥२‌३४॥

अहो, सबसे बड़ा आश्‍चर्य तो इस बात का है कि जो मनुष्‍य लक्ष्‍मी का सद्भावना से आश्रय लेते हैं यह लक्ष्‍मी उन्‍हें ही धोखा देती है (ठगती है), इससे बढ़कर दुष्‍टता और क्‍या होगी? ॥२३५॥

जिस प्रकार स्‍वप्‍न में होने वाला इष्‍ट जनों का समागम अस्‍थायी है उसी प्रकार बन्‍धुजनों का समागम भी अस्‍थायी है। तथा बन्‍धुजनों के समागम से जो सुख होता है वह इन्‍द्रधनुष के समान क्षणमात्र के लिए ही होता है ॥२३६॥

शरीर पानी के बबूले के समान सार से रहित है तथा यह जीवन बिजली की चमक के समान चंचल है ॥२३७॥

इसलिए संसार-निवास के कारणभूत इस समस्‍त परिकर को छोड़कर मैं तो कभी धोखा नहीं देने वाले एक धर्मरूप सहायक को ही ग्रहण करता हूँ ॥२३८॥

तदनन्‍तर ऐसा विचारकर वैराग्‍यरूपी कवच को धारण करने वाले बुद्धिमान् मेघवाहन विद्याधर ने महाराक्षस नामक पुत्र के लिए राज्‍यभार सौंपकर अजितनाथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥२३९॥

राजा मेघवाहन के साथ अन्‍य एक सौ दस विद्याधर भी वैराग्‍य प्राप्‍त कर घररूपी बन्‍दीगृह से बाहर निकले ॥२४०॥

इस महाराक्षसरूपी चन्‍द्रमा भी दानरूपी किरणों के समूह से बन्‍धुजनरूपी समुद्र को हुलसाता हुआ लंकारूपी आकाशांगण के बीच सुशोभित होने लगा ॥२४१॥

उसका ऐसा प्रभाव था कि बड़े-बड़े विद्याधरों के अधिपति स्‍वप्‍न में भी उसकी आज्ञा प्राप्‍त कर हड़बड़ाकर जाग उठते थे और हाथ जोड़कर मस्‍तक से लगा लेते थे ॥२४२॥

उसकी विमलाभा नाम की प्राणप्रिया वल्‍लभा थी जो छाया के समान सदा उसके साथ रहती थी ॥२४३॥

उसके अमररक्ष, उदधिरक्ष और भानुरक्ष नामक तीन पुत्र हुए। ये तीनों ही पुत्र सब प्रकार के अर्थों से परिपूर्ण थे ॥२४४॥

विचित्र-विचित्र कार्यों से युक्त थे, उत्तुंग अर्थात् उदार थे और जन-धन से विस्‍तार को प्राप्‍त थे इसलिए ऐसे जान पड़ते मानो तीन लोक ही हों ॥२४५॥

भगवान् अजितनाथ भी मुक्तिगामी भव्‍य-जीवों को मोक्ष का मार्ग प्रवर्ताकर सम्‍मेद-शिखर पर पहुँचे और वहाँ से आत्‍मस्‍वभाव को प्राप्‍त हुए (सिद्ध पद को प्राप्‍त हुए) ॥२४६॥

सगर चक्रवर्ती के इन्‍द्राणी के समान तेज को धारण करने वाली छयानवे हजार रानियाँ थीं और उत्तम शक्ति को धारण करने वाले एवं रत्‍नमयी खम्‍भों के समान देदीप्‍यमान साठ हजार पुत्र थे। उन पुत्रों के भी अनेक पुत्र थे॥२४७-२४८॥

किसी समय वे सभी पुत्र वन्‍दना के लिए कैलास पर्वत पर गये । उस समय वे चरणों के विक्षेप से पृथिवी को कंपा रहे थे और पर्वतों के समान जान पड़ते थे ॥२४९॥

कैलास पर्वत पर स्थित सिद्ध प्रतिमाओं की उन्होंने बड़ी विनय से वन्दना की और तदनन्तर वे दण्ड रत्न से उस पर्वत के चारों ओर खाई खोदने लगे ॥२५०॥

उन्होंने दण्ड रत्न से पाताल तक गहरी पृथिवी खोद डाली यह देख नागेन्द्र ने क्रोध से प्रज्वलित हो उनकी ओर देखा ॥२५१॥

नागेन्द्र की क्रोधाग्नि की ज्वालाओं से जिनका शरीर व्याप्त हो गया था ऐसे वे चक्रवर्ती के पुत्र भस्मी भूत हो गये ॥२५२॥

जिस प्रकार विष की मारक शक्ति के बीच एक जीवक शक्ति भी होती है और उसके प्रभाव से वह कभी-कभी औषधि के समान जीवन का भी कारण बन जाती है इसी प्रकार उस नागेन्द्र की क्रोधाग्नि में भी जहाँ जलाने की शक्ति थी वहाँ एक अनुकम्पारूप परिणति भी थी । उसी अनुकम्पारूप परिणति के कारण उन पुत्रों के बीच में भीम, भगीरथ नामक दो पुत्र किसी तरह भस्म नहीं हुए ॥२५३॥

सगर चक्रवर्ती के पुत्रों की इस आकस्मिक मृत्यु को देखकर वे दोनों ही दुःखी होकर सगर के पास आये ॥२५४॥

सहसा इस समाचार के कहने पर चक्रवर्ती कहीं प्राण न छोड़ दें ऐसा विचारकर पण्डितजनों ने भीम और भगीरथ को यह समाचार चक्रवर्ती से कहने के लिए मना कर दिया ॥२५५॥

तदनन्तर राजा, कुल क्रमागत मन्त्री, नाना शास्त्रों के पारगामी और विनोद के जानकार विद्वज्जन एकत्रित होकर चक्रवर्ती के पास गये । उस समय उन सबके मुख की कान्ति में किसी प्रकार का अन्तर नहीं था तथा वेशभूषा भी सबकी पहले के ही समान थी । सब लोग विनय से जाकर पहले ही के समान चक्रवर्ती सगर के समीप पहुँचे ॥२५६-२५७॥

नमस्कार कर सब लोग जब यथास्थान बैठ गये तब उनके संकेत से प्रेरित हो एक वृद्धजन ने निम्नांकित वचन कहना शुरू किया ॥२५८॥

हे राजन् सगर ! आप संसार की इस अनित्यता को तो देखो जिसे देखकर फिर संसार की ओर मन प्रवृत्त नहीं होता ॥२५९॥

पहले तुम्हारे ही समान पराक्रम का धारी राजा भरत हो गया है जिसने इस छह खण्ड की पृथ्वी को दासी के समान वश कर लिया था ॥२६०॥

उसके महापराक्रमी अर्ककीर्ति नामक ऐसा पुत्र हुआ था कि जिसके नाम से यह सूर्यवंश अब तक चल रहा है ॥२६१॥

अर्ककीर्ति के भी पुत्र हुआ और उसके पुत्र को भी पुत्र हुआ परन्तु इस समय वे सब दृष्टिगोचर नहीं हैं ॥२६२॥

अथवा इन सबको रहने दो, स्वर्गलोक के अधिपति भी जो कि वैभव से देदीप्यमान रहते हैं क्षणभर में दुःख से भस्म हो जाते हैं ॥२६३॥

अथवा इन्हें भी जाने दो, तीनलोक को आनन्दित रहनेवाले जो तीर्थकर हैं वे भी आयु समाप्त होने पर शरीर को छोड़कर चले जाते हैं ॥२६४॥

जिस प्रकार पक्षी, रात्रि के समय किसी बड़े-वृक्ष पर बसकर प्रातःकाल दसों दिशाओं में चले जाते हैं उसी प्रकार अनेक प्राणी एक कुटुम्ब में एकत्रित होकर कर्मों के अनुसार फिर अपनी गति को चले जाते हैं ॥२६५-२६६॥

किन्हीं ने उन पूर्व पुरुषों की चेष्टाएँ तथा उनका अत्यन्त सुन्दर शरीर अपनी आंखों से देखा है परन्तु हम कथामात्र से उन्हें जानते हैं ॥२६७॥

मृत्यु सभी बलवानों से अधिक बलवान् है क्योंकि इसने अन्य सभी बलवानों को परास्त कर दिया है ॥२६८॥

अहो! यह बड़ा आश्चर्य है कि भरत आदि महापुरुषों के विनाश का स्मरण कर हमारी छाती नहीं फट रही है ॥२६९॥

जीवों की धनसम्पदाएँ, इष्ट समागम और शरीर, फेन, तरंग, इन्द्रधनुष, स्वप्न, बिजली और बबूला के समान हैं ॥२७०॥

संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो इस विषय में उपमान हो सके कि जिस तरह यह अमर है उसी तरह हम भी अमर रहेंगे ॥२७१॥

जो मगरमच्छों से भरे समुद्र को सुखाने के लिए समर्थ हैं अथवा अपने दोनों हाथों से सुमेरु पर्वत को चूर्ण करने में समर्थ हैं अथवा पृथ्वी को ऊपर उठाने में और चन्द्रमा तथा सूर्य को ग्रसने में समर्थ हैं वे मनुष्य भी काल पाकर यमराज के मुख में प्रविष्ट हुए हैं ॥२७२-२७३॥

तीनों लोकों के प्राणी इस दुर्लघनीय मृत्यु के वश हो रहे हैं । यदि कोई बाकी छूटे हैं तो जिनधर्म से उत्पन्न हुए सिद्ध भगवान् ही छूटे हैं ॥२७४॥

जिस प्रकार बहुत से राजा काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुए हैं उसी प्रकार हम लोग भी विनाश को प्राप्त होंगे । संसार का यह सामान्य नियम है ॥२७१॥

जो मृत्यु तीन लोक के जीवों को समान रूप से आती है उसके प्राप्त होने पर ऐसा कौन विवेकी पुरुष होगा जो संसार के कारणभूत शोक को करेगा ॥२७६॥

इस प्रकार वृद्ध मनुष्य के द्वारा यह चर्चा चल रही थी इधर चेष्टाओं के जानने में निपुण चक्रवर्ती ने सामने सिर्फ दो पुत्र देखे । उन्हें देखकर वह मन में विचार करने लगा ॥२७७॥

हमेशा सब पुत्र मे एक साथ नमस्कार करते थे पर आज दो ही पुत्र दिख रहे हैं और उतने पर भी इनके मुख अत्यन्त दीन दिखाई देते हैं । जान पड़ता है कि शेष पुत्र क्षय को प्राप्त हो चुके हैं ॥२७८॥

ये आगत राजा लोग इस भारी दुःख को साक्षात् कहने में समर्थ नहीं है इसलिए अन्योक्ति-दूसरे के बहाने कह रहे हैं ॥२७९॥

तदनन्तर सगर चक्रवर्ती यद्यपि शोक रूपी सर्प से डसा गया था तो भी सभासद जनों के वचनरूपी मन्त्रों से प्रतिकार-सान्तवना पाकर उसने प्राण नहीं छोड़े थे ॥२८०॥

उसने संसार के सुख को केले के गर्भ के समान निसार जानकर भगीरथ को राज्य लक्ष्मी सौंपी और स्वयं दीक्षा धारण कर ली ॥२८१॥

उत्कृष्ट लीला को धारण करनेवाला राजा सगर जब इस पृथ्वी का त्याग कर रहा था तब नाना नगर और सुवर्णादि की खानों से सुशोभित यह पृथ्वी उसके मन में जीर्णतृण के समान तुच्छ जान पड़ती थी ॥२८२॥

तदनन्तर सगर चक्रवर्ती भीमरथ नामक पुत्र के साथ अजितनाथ भगवान की शरण में गया । वहाँ दीक्षा धारण कर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया और तदनन्तर सिद्धपद का आश्रय लिया (मुक्त हुआ) ॥२८३॥

सगर चक्रवर्ती का पुत्र जह्नु का लड़का भगीरथ राज्य करने लगा । किसी एक दिन उसने श्रुतसागर मुनिराज से पूछा ॥२८४॥

कि हमारे बाबा सगर के पुत्र एक साथ किस कर्म के उदय से मरण को प्राप्त हुए हैं और उनके बीच में रहता हुआ भी मैं किस कर्म से बच गया हूँ ॥२८५॥

भगवान् अजितनाथ ने कहा कि एक बार चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वन्दना के लिए जा रहा था सो मार्ग में वह अन्तिक नामक ग्राम में पहुँचा ॥२८६॥

संघ को देखकर उस अन्तिक ग्राम के सब लोग कुवचन कहते हुए संघ की हँसी करने लगे परन्तु उस ग्राम में एक कुम्भकार था उसने गाँव के सब लोगों को मना कर संघ की स्तुति की ॥२८७॥

उस गाँव में रहने वाले एक मनुष्य ने चोरी की थी सो अविवेकी राजा ने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है इसलिए घेरा डालकर सारा का सारा गाँव जला दिया ॥२८८॥

जिस दिन वह गाँव जलाया गया था उस दिन मध्यस्थ परिणामों का धारक कुम्भकार निमन्त्रित होकर कहीं बाहर गया था ॥२८९॥

जब कुम्भकार मरा तो वह बहुत भारी धन का अधिपति वैश्य हुआ और गाँव के सब लोग मरकर कौड़ी हुए । वैश्य ने उन सब कौड़ियों को खरीद लिया ॥२९०॥

तदनन्तर कुम्भकार का जीव मरकर राजा हुआ और गाँव के जीव मरकर गिंजाई हुए सो राजा के हाथी से चूर्ण होकर वे सब गिंजाइयो के जीव संसार में भ्रमण करते रहे ॥२९१॥

कुम्भकार के जीव राजा ने मुनि होकर देवपद प्राप्त किया और वहाँ से च्युत होकर तू भगीरथ हुआ है तथा गाँव के सब लोग मरकर सगर चक्रवर्ती के पुत्र हुए हैं ॥२९२॥

मुनि संघ की निन्दा कर यह मनुष्य भव-भव में मृत्यु को प्राप्त होता है । इसी पाप से गाँव के सब लोग भी एक साथ मृत्यु को प्राप्त हुए थे और संघ की स्तुति करने से तू इस तरह सम्पन्न तथा दीर्घायु हुआ है ॥२९३॥

इस प्रकार भगीरथ भगवत् कि मुख से पूर्वभव सुनकर अत्यन्त शान्त हो गया और मुनियों में मुख्य बनकर तप के योग्य पद को प्राप्त हुआ ॥२९४॥

गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि -- हे राजन्! प्रकरण पाकर यह सगर का चरित्र मैंने तुझ से कहा । अब इस समय प्रकृत कथा कहूंगा सो सुन ॥२५५॥

अथानन्तर-जो महारक्ष नामा विद्याधरों का राजा लंका में निष्कण्टक राज्य करता था विद्याबल से समुन्नत वह राजा एक समय अन्तःपुर के साथ क्रीड़ा करने के लिए बड़े वैभव से उस प्रमदवन में गया जो कि कमलों से आच्छादित वापिकाओं से सुशोभित था, जिसके बीच में नाना रत्नों की प्रभा से ऊँचा दिखने वाला क्रीड़ा पर्वत बना हुआ था, खिले हुए फूलों से सुशोभित वृक्षों के समूह जिसकी शोभा बढ़ा रहे थे, अव्यक्त मधुर शब्दों के साथ इधर-उधर मँडराते हुए पक्षियों के समूह से व्याप्त था, जो रत्नमयी भूमि से वेष्टित था, जिसमें नाना प्रकार को कान्ति विकसित हो रही थी, और जो सघन पल्लवों की समीचीन छाया से युक्त लतामण्डपों से सुशोभित था ॥२६६-३००॥

राजा महारक्ष उस प्रमदवन में अपनी स्त्रियों के साथ कीड़ा करने लगा । कभी स्त्रियाँ उसे फूलों से ताड़ना करती थीं और कभी वह फूलों से स्त्रियों को ताड़ना करता था ॥३०१॥

कोई स्त्री अन्य स्त्री के पास जाने के कारण यदि ईर्ष्या से कुपित हो जाती थी तो उसे वह चरणों में झुककर शान्त कर लेता था । इसी प्रकार कभी आप स्वयं कुपित हो जाता था तो लीला से भरी स्त्री इसे प्रसन्न कर लेती थी ॥३०२॥

कभी यह त्रिकूटाचल के तट के समान सुशोभित अपने वक्ष:स्थल से किसी स्त्री को प्रेरणा देता था तो अन्य स्त्री उसे भी अपने स्कूल स्तनों के आलिंगन से प्रेरणा देती थी ॥३०३॥

इस तरह क्रीड़ा में निमग्न स्त्रियों के प्रच्छन्न शरीरों को देखता हुआ यह राजा रतिरूप सागर के मध्य में स्थित होता हुआ प्रमदवन में इस प्रकार क्रीड़ा करता रहा जिस प्रकार कि नन्दन वन में इन्द्र क्रीड़ा करता है ॥३०४॥

अथानन्तर सूर्य अस्त हुआ और रात्रि का प्रारम्भ होते ही कमलों के सम्‍पुट संकोच को प्राप्त होने लगे । राजा महारक्ष ने एक कमल सम्पुट के भीतर भरा हुआ भौंरा देखा ॥३०५॥

उसी समय मोहनीय कर्म का उदय शिथिल होने से उसके, हृदय में संसार-भ्रमण को नष्ट करने वाली निम्नांकित चिन्ता उत्पन्न हुई ॥३०६॥

वह विचार करने लगा कि देखो मकरन्द के रस में आसक्त हुआ यह मूढ़ भौंरा तृप्त नहीं हुआ इसलिए मरण को प्राप्‍त हुआ । आचार्य कहते हैं कि इस अन्तरहित अनन्त इच्छा को धिक्कार हो ॥३०७॥

जिस प्रकार इस कमल में आसक्त हुआ यह भौंरा मृत्यु को प्राप्त हुआ है उसी प्रकार स्त्रियों के मुखरूपी कमलों में आसक्त हुए हम लोग भी मृत्यु को प्राप्त होंगे ॥३०८॥

जब कि यह भौंरा घ्राण और रसना इन्द्रिय के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हुआ है तब हम तो पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हो रहे हैं अत: हमारी बात ही क्या है? ॥३०९॥

अथवा यह भौंरा तिर्यंच जाति का है - अज्ञानी है अत: इसका ऐसा करना ठीक भी है परन्तु हम तो ज्ञान से सम्पन्न हैं फिर भी इन विषयों में क्यों आसक्त हो रहे हैं? ॥३१०॥

शहद लपेटी तलवार की उस धार के चाटने में क्या सुख होता है? जिस पर पड़ते ही जीभ के सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ॥३११॥

विषयों में कैसा सुख होता है सो जान पड़ता है उन विषयों में जिनमें कि सुख की बात दूर रही किन्तु दुःख की सन्तति ही उत्तरोत्तर प्राप्त होती है ॥३१२॥

किंपाक फल के समान विषयों से जो मनुष्य विमुख हो गये हैं मैं उन सब महापुरुषों को मन वचन-काय से नमस्कार करता हूँ ॥३१३॥

हाय-हाय,बडे खेद की बात है कि मैं बहुत सभय तक इन दुष्ट विषयों से वंचित होता रहा - धोखा खाता रहा। इन विषयों की आसक्ति अत्यन्त विषम है तथा विष के समान मारने वाली है ॥३१४॥

अथानन्तर उसी समय उस वन में श्रुतसागर इस सार्थक नाम को धारण करने वाले एक महा मुनिराज वहाँ आये॥३१५॥

श्रुतसागर मुनिराज अत्यन्त सुन्दर रूप से युक्त थे, वे कान्ति से चन्द्रमा को लज्जित करते थे, दीप्ति से सूर्य का तिरस्कार करते थे और धैर्य से सुमेरु को पराजित करते थे ॥३१६॥

उनकी आत्मा सदा धर्मध्यान में लीन रहती थी, वे रागद्वेष से रहित थे, उन्होंने मन-वचन-काय को निरर्थक प्रवृत्तिरूपी तीन दण्डों को भग्न कर दिया था, कषायों के शान्त करने में वे सदा तत्पर रहते थे ॥३१७॥

वे इन्द्रियों को वश करने वाले थे छह-काय के जीवों से स्नेह रखते थे, सात भयों और आठ मदों से रहित थे ॥३१८॥

उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् धर्म ही शरीर के साथ सम्बन्ध को प्राप्त हुआ है । वे मुनिराज उत्तम चेष्टा के धारक बहुत बड़े मुनिसंघ से सहित थे ॥३१९॥

जिन्होंने अपने शरीर की कान्ति से समस्त दिशाओं के अग्रभाग को आच्छादित कर दिया था ऐसे वे मुनिराज उस उद्यान के विस्तृत, शुद्ध एवं निर्जन्तुक पृथिवी तल पर विराजमान हो गये ॥३२०॥

जब राजा महारक्ष को वनपालों के मुख से वहाँ विराजमान इन मुनिराज का पता चला तो वह उत्कृष्ट हृदय को धारण करता हुआ उनके सम्मुख गया ॥३२१॥

अथानन्तर-अत्यन्त प्रसन्न मुख की कान्तिरूपी जल के द्वारा प्रक्षालन करता हुआ राजा महारक्ष मुनिराज के कल्याणदायी चरणों में जा पड़ा ॥३२२॥

उसने शेष संघ को भी नमस्कार किया, सबसे धर्म सम्बन्धी कुशल-क्षेम पूछी और फिर क्षणभर ठहरकर भक्तिभाव से धर्म का स्वरूप पूछा ॥३२३॥

तदनन्तर मुनिराज के हृदय में जो उपशम भावरूपी चन्द्रमा विद्यमान था उसकी किरणों के समान निर्मल दाँतों की किरणों के समूह से चांदनी को प्रकट हुए मुनिराज कहने लगे ॥३२४॥

उन्होंने कहा कि हे राजन् ! जिनेन्द्र भगवान् ने एक अहिंसा के सद्भाव को ही धर्म कहा है, बाकी सत्यभाषण आदि सभी इसके परिवार ॥३२५॥

संसारी प्राणी कर्मों के उदय से जिस-जिस गति में जाते हैं जीवन के प्रति मोहित होते हुए वे उसी-उसी में प्रेम करने लगते हैं ॥३२६॥

एक ओर तीन-लोक की प्राप्ति हो रही हो और दूसरी ओर मरण की सम्भावना हो तो मरण से डरने वाले ये प्राणी तीन-लोक का लोभ छोड़कर जीवित रहने की इच्छा करते हैं इससे जान पड़ता है कि प्राणियों को जीवन से बढ़कर और कोई वस्तु प्रिय नहीं है ॥३२७॥

इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ? यह बात तो अपने अनुभव से ही जानी जा सकती है कि जिस प्रकार हमें अपना जीवन प्यारा है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना जीवन प्यारा होता है ॥३२८॥

इसलिए जो क्रूरकर्म करने वाले मूर्ख प्राणी, जीवों के ऐसे प्रिय जीवन को नष्ट करते हैं उन्होंने कौन-सा पाप नहीं किया? ॥३२९॥

जीवों के जीवन को नष्ट कर प्राणी कर्मों के भार से इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे पानी में लोहपिण्ड के समान सीधे नरक में ही पड़ते हैं ॥३३०॥

जो वचन से तो मानो मधु झरते हैं पर हृदय में विष के समान दारुण हैं । जो इन्द्रियों के वश में स्थित हैं और बाहर से जिनका मन त्रैकालिक सन्ध्याओं में निमग्न रहता है ॥३३१॥

जो योग्य आचार से रहित हैं और इच्छानुसार मनचाही प्रवृत्ति करते हैं ऐसे दुष्ट जीव तिर्यंचयोनि में परिभ्रमण करते हैं ॥३३२॥

सर्वप्रथम तो जीवों को मनुष्यपद प्राप्त होना दुर्लभ है, उससे अधिक दुर्लभ सुन्दर रूप का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ धन समृद्धि का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ आर्यकुल में उत्पन्न होना है, उससे अधिक दुर्लभ विद्या का समागम होना है, उससे अधिक दुर्लभ हेयोपादेय पदार्थ को जानना है और उससे अधिक दुर्लभ धर्म का समागम होना है ॥३३३-३३४॥

कितने ही लोग धर्म करके उसके प्रभाव से स्वर्ग में देवियों आदि के परिवार से मानसिक सुख प्राप्त करते हैं ॥३३५॥

वहाँ से चयकर, विष्ठा तथा मूत्र से लिप्त बिलबिलाते कीड़ाओं से युक्त, दुर्गन्धित एवं अत्यन्त दु:सह गर्भगृह को प्राप्त होते हैं ॥३३६॥

गर्भ में यह प्राणी चर्म के जाल से आच्छादित रहते हैं, पित्त, श्लेष्मा आदि के बीच में स्थित रहते हैं और नाल द्वार से च्युत माता द्वारा उपभुक्त आहार के द्रव का आस्वादन करते रहते हैं ॥३३७॥

वहाँ उनके समस्त अंगोपांग संकुचित रहते हैं, और दुःख के भार से वे सदा पीड़ित रहते हैं । वहाँ रहने के बाद निकलकर उत्तम मनुष्य पर्याय प्राप्त करते हैं ॥३३८॥

सो कितने ही ऐसे पापी मनुष्य जो कि जन्म से ही क्रूर होते हैं, नियम, आचार-विचार से विमुख रहे हैं और सम्यग्दर्शन से शून्य होते हैं, विषयों का सेवन करते हैं ॥३३९॥

जो मनुष्य काम के वशीभूत होकर सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाते हैं वे महादु:ख प्राप्त करते हुए संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण करते हैं ॥३४०॥

दूसरे प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करनेवाला वचन प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए क्योंकि ऐसा वचन हिंसा का कारण है और हिंसा संसार का कारण है ॥३४१॥

इसी प्रकार चोरी, परस्त्री का समागम तथा महापरिग्रह की आकांक्षा, यह सब भी छोड़ने के योग्य है क्योंकि यह सभी पीड़ा के कारण हैं ॥३४२॥

विद्याधरों का राजा महारक्ष, मुनिराज के मुख से धर्म का उपदेश सुनकर वैराग्य को प्राप्त हो गया । तदनन्तर उसने नमस्कार कर मुनिराज से अपना पूर्व भव पूछा ॥३४३॥

चार ज्ञान के धारी श्रुतसागर मुनि विनय से समीप में बैठे हुए महारक्ष विद्याधर से संक्षेप पूर्वक कहने लगे ॥३४४॥

हे राजन्! भरत क्षेत्र के पोदनपुर नगर में एक हित नाम का मनुष्य रहता था । माधवी उसकी स्त्री का नाम था और तू उन दोनों के प्रीति नाम का पुत्र था ॥३४५॥

उसी पोदनपुर नगर में उदयाचल राजा और अर्हच्छी नाम की रानी से उत्पन्न हुआ हेमरथ नाम का राज राज्य करता था ॥३४६॥

एक दिन उसने जिनमन्दिर में, बड़ी श्रद्धा के साथ, लोगों को आश्चर्य में डालने वाली बड़ी पूजा की ॥३४७॥

उस पूजा के समय लोगों ने बड़े जोर से जय-जय शब्द किया, उसे सुनकर तूने भी आनन्द-विभोर हो जय-जय शब्द उच्चारण किया ॥३३४॥

तू इस आनन्द के कारण घर के भीतर ठहर नहीं सका इसलिए बाहर निकलकर आंगन में इस तरह नृत्य करने लगा जिस प्रकार कि मयूर मेघ का शब्द सुनकर नृत्य करने लगता है ॥३४५॥

इस कार्य से तूने जो पुण्य बन्ध किया था उसके फलस्वरूप तू मरकर यक्षों के नेत्रों को आनन्द देने वाला यक्ष हुआ ॥३५०॥

तदनन्तर किसी दिन पश्चिम विदेह क्षेत्र के कांचनपुर नगर में शत्रुओं ने मुनियों के ऊपर उपसर्ग करना शुरू किया ॥३११॥

सो तूने उन शत्रुओं को अलग कर धर्मसाधन में सहाय भूत मुनियों के शरीर की रक्षा की । इस कार्य से तूने बहुत भारी पुण्य का संचय किया ॥३५२॥

तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर तू विजयार्ध पर्वत पर तडिदंगद विद्याधर और श्रीप्रभा विद्याधरी के उदित नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥३५३॥

एक बार अमरविक्रम नामक विद्याधरों का राजा मुनियों की वन्दना के लिए आया था सो उसे देखकर तूने निदान किया कि मेरे भी ऐसा वैभव हो ॥३५४॥

तदनन्तर महातपश्चरण कर तू दूसरे ऐशान स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर मेघवाहन का पत्र महारक्ष हुआ है ॥३५५॥

जिस प्रकार सूर्य के रथ का चक्र निरन्तर भ्रमण करता रहता है इसी प्रकार तूने भी स्त्री तथा जिह्वा इन्द्रिय के वशीभूत होकर संसार में परिभ्रमण किया है ॥३५६॥

तूने दूसरे भवों में जितने शरीर प्राप्त कर छोड़े है यदि वे एकत्रित किये जावें तो तीनों लोकों में कभी न समावें ॥३५७॥

जो करोड़ों कल्प तक प्राप्त होनेवाले देवो के भोगों से तथा विद्याधरों के मनचाहे भोग-विलास से नहीं हो सका वह तू केवल आठ दिन तक प्राप्त होने वाले स्वप्न अथवा इन्द्रजाल सदृश भोगों से कैसे तृप्त होगा? इसलिए अब भोगों की अभिलाषा छोड़ और शान्ति भाव धारण कर ॥३५८-३५९॥

तदनन्तर मुनिराज के मुख से अपनी आयु का क्षय निकटस्थ जानकर उसे विषाद नहीं हुआ किन्तु इस संसार-चक्र में अब भी मुझे अनेक भव धारण करना है यह जानकर कुछ खेद अवश्य हुआ ॥३६०॥

तदनन्तर उसने अमररक्ष नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्यपद पर स्थापित कर भानुरक्ष नामक लघु पुत्र को युवराज बना दिया ॥३६१॥

और स्वयं समस्त परिग्रह का त्याग कर परमार्थ में तत्पर हो स्तम्भ के समान निश्चल होता हुआ लोभ से रहित हो गया ॥३६२॥

शरीर का पोषण करने वाले आहार—पानी आदि समस्त पदार्थो का त्याग कर वह शत्रु तथा मित्र में सम-मध्यस्थ बन गया और मन को निश्चल कर मौन व्रत ले जिन-मन्दिर के मध्य में बैठ गया । इन सब कार्यों के पहले उसने अर्हन्त भगवान की अभिषेक पूर्वक विशाल पूजा की ॥३६३-३६४॥

अर्हन्त भगवान के चरणों के ध्यान से जिसकी चेतना पवित्र हो गयी थी ऐसा वह विद्याधर समाधिमरण कर उत्तम देव हुआ ॥३६५॥

अथानन्तर अमररक्ष ने, किन्नरगीत नामक नगर में श्रीधर राजा और विद्या रानी से समुत्पन्न रति नामक स्त्री को प्राप्त किया अर्थात् उसके साथ विवाह किया ॥३६६॥

और भानुरक्ष ने गन्धर्व-गीत नगर में राजा सुरसन्निभ और गान्धारी रानी के गर्भ से उत्पन्न, गन्धर्वा नाम की कन्या के साथ विवाह किया ॥३६७॥

अमररक्ष के अत्यन्त सुन्दर दस पुत्र और देवांगनाओं के समान सुन्दररूप—वाली, गुणरूप आभूषणों से सहित छह पुत्रियां उत्पन्न हुई ॥३६८॥

इस प्रकार भानुरक्ष के भी अपनी कीर्ति के द्वारा दिग्‌दिगन्त को व्याप्त करने वाले दस पुत्र और छह पुत्रियां उत्पन्न हुई ॥३६९॥

हे श्रेणिक ! उन विजयी राजपुत्रों ने अपने नाम के समान नाम वाले बड़े-बड़े सुन्दर नगर बसाये ॥३७०॥

उन नगरों के नाम सुनो - १ सन्ध्याकार, २ सुवेल, ३ मनोलाद, ४ मनोहर, १ हंसद्वीप, ६हरि, ७ योध, ८ समुद्र, १ कांचन और १० अर्धस्‍वर्गोत्कृष्ट । स्वर्ग की समानता रखनेवाले ये दस नगर, महाबुद्धि और पराक्रम को धारण करने वाले अमररक्ष के पुत्रों ने बसाये थे ॥३७१-३७२॥

इसी प्रकार १ आवर्त, २ विघट, ३ अम्भोद, ४ उत्कट, १ स्फुट, ६ दुर्ग्रह, ७ तट, ८ तोय, १ आवली और रत्नद्वीप ये दस नगर भानुरक्ष के पुत्रों ने बसाये थे ॥३७३॥

जिन में नाना रत्नों का उद्योत फैल रहा था तथा जो सुवर्णमयी दीवालों के प्रकाश से जगमगा रहे थे ऐसे वे सभी नगर क्रीड़ा के अभिलाषी राक्षसों के निवास हुए थे ॥३७४॥

वहीं पर दूसरे द्वीपों में रहनेवाले विद्याधरों ने बड़े उत्‍साह से अनेक नगरों की रचना की थी ॥३७५॥

अथानन्तर - अमररक्ष और भानुरक्ष दोनों भाई, पुत्रों को राज्य देकर दीक्षा को प्राप्त हुए और महातमरूपी धन के धारक हो सनातन सिद्ध पद को प्राप्त हुए ॥३७६॥

इस प्रकार जिसमें बड़े-बड़े पुरुषों द्वारा पहले तो राज्य पालन किया गया और तदनन्तर दीक्षा धारण की गयी ऐसी राजा मेघवाहन की बहुत बड़ी सन्तान की परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही ॥३७७॥

उसी सन्तान परम्परा में एक मनोवेग नामक राक्षस के, राक्षस नाम का ऐसा प्रभावशाली पुत्र हुआ कि उसके नाम से यह वंश ही राक्षस वंश कहलाने लगा ॥३७८॥

राजा राक्षस के सुप्रभा नाम की रानी थी, उससे उसके आदित्यगति और बृहत्कीर्ति नाम के दो पुत्र हुए । ये दोनों ही पुत्र सूर्य और चन्द्रमा के समान कान्ति—से युक्त थे ॥३७९॥

राजा राक्षस, राज्य रूपी रथ का भार उठाने में वृषभ के समान उन दोनों पुत्री को संलग्न कर तप धर स्वर्ग को प्राप्त हुए ॥३८०॥

उन दोनों भाइयों में बड़ा भाई आदित्यगति राजा था और छोटा भाई बृहत्कीर्ति युवराज था । आदित्यगति की स्‍त्री का नाम सदनपद्मा था और बृहत्कीर्ति की स्त्री पुष्पनखा नाम से प्रसिद्ध थी ॥३८१॥

आदित्यगति के भीमप्रभ नाम का पुत्र हुआ जिसकी देवांगनाओं के समान कान्ति वाली एक हजार स्त्रियां थीं ॥३८२॥

उन स्त्रियो से उसके एक सौ आठ बलवान् पुत्र हुए थे । ये पुत्र स्तम्भों के समान चारों ओर से अपने राज्य को धारण किये थे ॥३८३॥

तदनन्तर राजा भीमप्रभ ने अपने बड़े पुत्र के लिए राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और क्रम से तपश्चरण कर परमपद प्राप्त कर लिया ॥३८४॥

इस प्रकार राक्षस देवों के इन्द्र भीम-सुभीमने जिन पर अनुकम्पा की थी ऐसे मेघवाहन की वंश परम्परा के अनेक विद्याधर राक्षस द्वीप में निवास करते रहे ॥३८५॥

पुण्य जिनकी रक्षा कर रहा था ऐसे राक्षसवंशी विद्याधर चूँकि उस राक्षस जातीय देवों के द्वीप की रक्षा करते थे इसलिए वह द्वीप राक्षस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और उस द्वीप के रक्षक विद्याधर राक्षस कहलाने लगे ॥३८६॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजद! यह राक्षसवंश की उत्पत्ति मैंने तुझसे की । अब आगे इस दंश के प्रधान पुरुषों का उल्लेख करूंगा । सो सुन ॥३८७॥

भीमप्रभ का प्रथम पुत्र पूजार्ह नाम से प्रसिद्ध था सो वह अपने जितभास्‍कर नामक पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षित हुआ ॥३८८॥

जितभास्कर सम्परिकीर्ति नामक पुत्र को राज्य दे मुनि हुआ और सम्परिकीर्ति सुग्रीव के लिए राज्य सौंप दीक्षा को प्राप्त हुआ ॥३८९॥

सुग्रीव, हरिग्रीव को अपने पद पर बैठाकर उग्र तपश्चरण की आराधना करता हुआ उत्तम देव हुआ ॥३९०॥

हरिग्रीव भी श्रीग्रीव के लिए राज्य-सम्पत्ति देकर मुनिव्रत धार वन में चला गया ॥३९१॥

श्रीग्रीव सुमुख के लिए राज्य देकर पिता के द्वारा अंगीकृत मार्ग को प्राप्त हुआ और बलवान् सुमुख ने सुव्यक्त नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली ॥३९२॥

सुव्यक्त ने अमृतवेग नामक पुत्र के लिए राक्षसवंश की सम्पदा सौंपकर तप धारण किया । अमृतवेग ने भानुगति को और भानुगति ने चिन्तागति को वैभव समर्पित कर साधुपद स्वीकृत किया ॥३९३॥

इस प्रकार इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवि, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म, द्विपवाह, अरिमर्दंन, निर्वाण—भक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड, लंकाशोक, मयूरवान्, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ और नक्षत्रदमन आदि करोड़ों विद्याधर उस वंश में हुए । ये सभी विद्याधर माया और पराक्रम से सहित थे तथा विद्या, बल और महाकान्ति के धारक थे ॥३९४-३९९॥

ये सभी लंका के स्वामी, विद्यानुयोग में कुशल थे, सबके वक्षःस्थल लक्ष्मी से सुशोभित थे, सभी सुन्दर थे और प्राय: स्वर्ग से स्तुत होकर लंका में उत्पन्न हुए थे ॥४००॥

ये राक्षसवंशी राजा, संसार से भयभीत हो वंश-परम्परा से आगत लक्ष्मी अपने पुत्रों के लिए सौंपकर दीक्षा को प्राप्त हुए थे ॥४०१॥

कितने ही राजा कर्मों को नष्ट कर त्रिलोक के शिखर को प्राप्त हुए, और कितने ही पुण्योदय के प्रभाव से स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे ॥४०२॥

इस प्रकार बहुत से राजा व्यतीत हुए । उनमें लंका का अधिपति एक घनप्रभ नामक राजा हुआ । उसकी पपा नामक स्त्री के गर्भ में उत्पन्न हुआ कीर्तिधवल नाम का प्रसिद्ध पुत्र हुआ । समस्त विद्याधर उसी का शासन मानते थे और जिस प्रकार स्वर्ग में इन्द्र परमैश्‍वर्य का अनुभव करता है उसी प्रकार वह कीर्तिधवल भी लंका में परमैश्वर्य का अनुभव करता था ॥४०३ -४०४॥

इस तरह पूर्वभव में किये तपश्चरण के बल से पुरुष, मनुष्यगति तथा देवगति में भोग भोगते हैं, वहाँ उत्तम गुणों से युक्त तथा नाना गुणों से भूषित शरीर के धारक होते हैं, कितने ही मनुष्य कर्मों के पलट को भस्म कर सिद्ध हो जाते हैं, तथा जिनकी बुद्धि दुष्कर्म में आसक्त है, ऐसे मनुष्य इस लोक में भारी निन्दा को प्राप्त होते हैं और मरने के बाद कुयोनि में पड़कर अनेक प्रकार के दु: ख भोगते हैं । ऐसा जानकर है भव्य जीवों ! पापरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य की सदृशता प्राप्त करो ॥४०५-४०६॥

इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में राक्षसवंश का निरूपण करनेवाला पंचम पर्व समाप्त हुआ ॥5॥