कथा :
अथानन्तर-गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक! मैंने तेरे लिए राक्षस-विद्याधरों का वृत्तान्त तो कहा, अब तू वानरवंशियों का वृत्तान्त सुन ॥१॥ स्वर्ग के समान पर्वत की जो दक्षिण श्रेणी है उसमें एक मेघपुर नभ का नगर है । यह नगर ऊँचे-ऊँचे महलों से सुशोभित है ॥२॥ वहाँ विद्याधरों का राजा अतीन्द्र निवास करता था । राजा अतीन्द्र अत्यन्त प्रसिद्ध था और भोग-सम्पदा के द्वारा मानो इन्द्र का उल्लंघन करता था ॥३॥ उसकी लक्ष्मी समान हाव-भाव-विलास से सहित श्रीमती नाम की स्त्री थी । उसका मुख इतना सुन्दर था कि उसके रहते हुए सदा चाँदनी से युक्त पक्ष ही रहा करता था ॥४॥ उन दोनों के श्रीकण्ठ नाम का पुत्र था वह पुत्र शास्त्रों में निपुण था और जिसका नाम कर्णगत होते ही विद्वान् लोग हर्ष को प्राप्त कर ले थे ॥५॥ उसके महामनोहरदेवी नाम की छोटी बहन थी । उस देवी के नेत्र क्या थे मानो कामदेव के बाण ही थे ॥६॥ अथानन्तर-रत्नपुरनाम का एक सुन्दर नगर था जिसमें अत्यन्त बलवान् पुष्पोत्तर नाम का विद्याधर राजा निवास करता था ॥७॥ अपने सौन्दर्यरूपी सम्पत्ति के द्वारा देवकन्या के समान सबके मन को आनन्दित करने वाली पद्माभा नाम की पुत्री और पद्मोत्तर नाम का पुत्र था । यह पद्मोत्तर इतना सुन्दर था कि उसने अन्य मनुष्यों के नेत्र दूसरे पदार्थो के सम्बन्ध से दूर दिये थे अर्थात् सब लोग उसे ही देखते रहना चाहते थे ॥८॥ राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र पद्मोत्तर के लिए राजा अतीन्द्र की पुत्री देवी की बहुत बार याचना की परन्तु श्रीकण्ठ भाई ने अपनी बहन पद्मोत्तर के लिए नहीं दी, लंका के राजा कीर्तिधवल के लिए दी और बड़े वैभव के साथ विधिपूर्वक उसका विवाह कर दिया ॥१०॥ यह बात सुन राजा पुष्पोत्तर ने बहुत कोप किया । उसने विचार किया कि देखो, न तो हमारे वंश में कोई दोष है, न मुझमें दरिद्रता रूपी दोष है, न मेरे पुत्र में कुरूपपना है और न मेरा उनसे कुछ वैर भी है फिर भी श्रीकण्ठ ने मेरे पुत्र के लिए बहन नहीं दी ॥११-१२॥ किसी एक दिन श्रीकण्ठ अकृत्रिम प्रतिमाओं की वन्दना करने के लिए वायु के समान वेग वाले सुन्दर विमान के द्वारा सुमेरुपर्वत पर गया था ॥१३॥ वहाँ से जब वह लौट रहा था तब उसने मन और कानों को हरण करनेवाला, भ्रमरों की झंकार के समान सुन्दर संगीत का शब्द सुना ॥१४॥ वीणा के स्वर से मिले हुए संगीत के शब्द से उसका शरीर ऐसा निश्चल हो गया मानो सीधी रस्सी से ही बाँधकर उसे रोक लिया हो ॥१५॥ तदनन्तर उसने सब ओर देखा तो उसे संगीत गृह के आँगन में गुरु के साथ बैठी हुई पुष्पोत्तर की पुत्री पद्माभा दिखी ॥१६॥ उसे देखकर श्रीकण्ठ का मन पद्माभा के सौन्दर्य रूपी सागर में शीघ्र ही ऐसा निमग्न हो गया कि वह उसे निकालने में असमर्थ हो गया । जिस प्रकार कोई हाथियों को पकड़ने में समर्थ नहीं होता उसी प्रकार वह मन को स्थिर करने में समर्थ नहीं हो सका ॥१७॥ श्रीकण्ठ उस कन्या के समीप ही आकाश में खड़ा रह गया । श्रीकण्ठ सुन्दर शरीर का धारक तथा स्थूल कन्धों से युक्त था । पद्माभा ने भी चित्त को चुराने वाली अपनी नीली-नीली दृष्टि से उसे आकर्षित कर लिया था ॥१८॥ तदनन्तर दोनों का परस्पर में जो मधुर अवलोकन हुआ उसी ने दोनों का वरण कर दिया अर्थात् मधुर अवलोकन से ही श्रीकण्ठ ने पद्माभा को और पद्माभा ने श्रीकण्ठ को वर लिया । उनका यह वरना पारस्परिक प्रेम भाव को सूचित करनेवाला था ॥१९॥ तदनन्तर अभिप्राय को जाननेवाला श्रीकण्ठ पद्माभा को अपने भुजपंजर के मध्य में स्थित कर आकाश में ले चला । उस समय पद्माभा के स्पर्श से उसके नेत्र कुछ-कुछ बन्द हो रहे थे ॥२०॥ प्रलाप से चिल्लाते हुए परिजन के लोगों ने राजा पुष्पोत्तर को खबर दी कि श्रीकण्ठ ने आपकी कन्या का अपहरण किया है ॥२१॥ यह सुन पुष्पोत्तर भी बहुत क्रुद्ध हुआ । वह क्रोधवश दाँतों से ओठ चाबने लगा और सब प्रकार से तैयार हो श्रीकण्ठ के पीछे गया ॥२२॥ श्रीकण्ठ आगे-आगे जा रहा था और पुष्पोत्तर उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था जिससे आकाश के बीच श्रीकण्ठ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मेघसमूह जिसके पीछे उड़ रहा है ऐसा चन्द्रमा ही हो ॥२३॥ नीतिशास्त्र में निपुण श्रीकण्ठ ने जब अपने पीछे महाबलवान् पुष्पोत्तर को आता देखा तो वह शीघ्र ही लंका की ओर चल पड़ा ॥२४॥ वहाँ वह अपने बहनोई कीर्तिधवल की शरण में पहुँचा सो ठीक ही है । क्योंकि जो समयानुकूल नीति योग करते हैं वे उन्नति को प्राप्त होते ही हैं ॥२५॥ यह मेरी स्त्री का भाई है यह जानकर कीर्तिधवल ने बड़े स्नेह से उसका आलिंगन कर अतिथिसत्कार किया ॥२६॥ जब तक उन दोनों के बीच कुशल-समाचार का प्रश्न चलता है कि तब तक बड़ी भारी सेना के साथ पुष्पोत्तर वहाँ जा पहुँचा ॥२७॥ तदनन्तर कीर्तिधवल ने आकाश को ओर देखा तो वह आकाश सब ओर से विद्याधरों के समूह से व्याप्त था, विशाल तेज से देदीप्यमान हो रहा था ॥२८॥ तलवार, भाले आदि शस्त्रों से महा-भयंकर था, बड़ा भारी शब्द उसमें हो रहा था, विद्याधरों के समागम से वह सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने स्थान से भ्रष्ट होने के कारण ही उसमें वह महा-शब्द हो रहा था ॥२९॥ वायु के समान वेग वाले घोड़ों, मेघों की उपमा रखनेवाले हाथियों, बड़े-बड़े विमानों और जिनकी गरदन के बाल हिल रहे थे ऐसे सिंहों से उत्तर दिशा को व्याप्त देख कीर्तिधवल ने क्रोध मिश्रित हँसी हँसकर मन्त्रियों के लिए युद्ध का आदेश दिया ॥३०-३१॥ तदनन्तर अपने अकार्य-खोटे कार्य के कारण लज्जा से अवनत श्रीकण्ठ ने शीघ्रता करने वाले कीर्तिधवल से निम्नांकित वचन कहे ॥३२॥ कि जब तक मैं आपके आश्रय से शत्रु को परास्त करता हूँ तब तक आप यहाँ मेरे इष्टजन (स्त्री) की रक्षा करो ॥३३॥ श्रीकण्ठ के ऐसा कहने पर कीर्तिधवल ने उससे नीति युक्त वचन कहे कि भय का भेदन करने वाले मुझको पाकर तुम्हारा यह कहना युक्त नहीं है ॥३४॥ यदि यह दुर्जन साम्यभाव से शान्ति को प्राप्त नहीं होता है तो तुम निश्चित देखना कि यह मेरे द्वारा प्रेरित होकर यमराज के ही मुख में प्रवेश करेगा ॥३५॥ ऐसा कह अपनी स्त्री के भाई को तो उसने निश्चिन्त कर महल में रखा और शीघ्र ही उत्कृष्ट अवस्था वाले धीर-वीर दूतों को पुष्पोत्तर के पास भेजा ॥३६॥ अतिशय बुद्धिमान् और मधुर भाषण करने में निपुण दूतों ने लगे हाथ जाकर पुष्पोत्तर से यथाक्रम निम्नांकित वचन कहे ॥३७॥ हे पुष्पोत्तर! हम लोगों के मुख में स्थापित एवं आदरपूर्ण वचनों से कीर्तिधवल राजा आपसे यह कहता है॥३८॥ कि आप उच्चकुल में उत्पन्न हैं, निर्मल चेष्टाओं के धारक हैं, समस्त संसार में प्रसिद्ध हैं और शास्त्रार्थ में चतुर हैं ॥३९॥ हे महाबुद्धिमान्! कौन-सी मर्यादा आपके कानों में नहीं पड़ी है जिसे इस समय हम लोग आपके कानों के समीप रखें ॥४०॥ श्रीकण्ठ भी चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ है, धनवान्, विनय से युक्त है, सुंदर है, और सब कलाओं से सहित है ॥४१॥ तुम्हारी कन्या गुण, रूप तथा कुल सभी बातों में उसके योग्य है । इस प्रकार अनुकूल भाग्य, दो समान व्यक्तियों का संयोग करा दे तो उत्तम है ॥४२॥ जब कि दूसरे के घर की सेवा करना यह कन्याओं का स्वभाव ही है तब दोनों पक्ष की सेनाओं का क्षय करने में कोई कारण दिखाई नहीं देता ॥४३॥ दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि इतने में पुत्री, पद्माभा के द्वारा भेजी हुई दूती आकर पुष्पोत्तर से कहने लगी ॥४४॥ कि हे देव! पद्माभा आपके चरणों में नमस्कार कर कहती है कि मैं लज्जा के कारण आप से स्वयं निवेदन करने के लिए नहीं आ सकी हूँ ॥४५॥ हे तात! इस कार्य में श्रीकण्ठ का थोड़ा भी अपराध नहीं है । कर्मों के प्रभाव से मैंने इसे स्वयं प्रेरित किया था ॥४६॥ चूँकि सत्कुल में उत्पन्न हुई स्त्रियों की यही मर्यादा है अत: इसे छोड़कर अन्य पुरुष का मेरे नियम है - त्याग है ॥४७॥ इस प्रकार दूती के कहने पर अब क्या करना चाहिए इस चिन्ता को प्राप्त हुआ । उस समय वह अपने किंकर्तव्यविमूढ़ चित्त से बहुत दुःखी हो रहा था ॥४८॥ उसने विचार किया कि वर में जितने गुण होना चाहिए उनमें शुद्ध वंश में जन्म लेना सबसे प्रमुख है । यह गुण श्रीकण्ठ में है ही उसके सिवाय यह बलवान् पक्ष की शरण में आ पहुँचा है ॥४९॥ यद्यपि इसका अभिमान दूर करने की मुझमें शक्ति है, पर जब कन्या के लिए यह स्वयं रुचता है तब इस विषय में क्या किया जा सकता है? ॥५०॥ तदनन्तर पुष्पोत्तर का अभिप्राय जानकर हर्ष से भरे दूत, दूती के साथ वापस चले गये और सबने जो बात जैसी थी वैसी ही राजा कीर्तिधवल से कह दी ॥५१॥ पुत्री के कहने से जिसने क्रोध का भार छोड़ दिया था ऐसा अभिमानी तथा परमार्थ को जाननेवाला राजा पुष्पोत्तर अपने स्थान पर वापस चला गया ॥५२॥ अथानन्तर मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन शुभ मुहूर्त में दोनों का विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार हुआ ॥५३॥ एक दिन उदार प्रेम से प्रेरित कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ से निश्चयपूर्ण निम्नांकित वचन कहे ॥५४॥ चूँकि विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत-से वैरी हैं अत: तुम सावधानी-से कितना काल बिता सकोगे ॥५५॥ लाभ इसी में है कि तुम्हें जो स्थान रुचिकर हो वहीं स्वेच्छा से क्रिया करते हुए यहीं अत्यन्त सुन्दर रत्नमयी महलों में निवास करो ॥५६॥ मेरा मन तुम्हें छोड़ने को समर्थ नहीं है और तुम भी मेरे प्रेमपाश को छोड़कर कैसे जाओगे ॥५७॥ श्रीकण्ठ से ऐसा कहकर कीर्तिधवल ने अपने पितामह के क्रम से आगत महाबुद्धिमान् आनन्द नामक मन्त्री को बुलाकर कहा ॥५८॥ कि तुम चिरकाल से मेरे नगरों की सारता और असारता को अच्छी तरह जानते हो अत: श्रीकण्ठ के लिए जो नगर सारभूत हो सो कहो ॥५९॥ इस प्रकार कहने पर वृद्ध मन्त्री कहने लगा । जब वह वृद्ध मन्त्री कह रहा था तब उसकी सफेद दाढ़ी वक्षःस्थल पर हिल रही थई और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदय में विराजमान स्वामी को चमर ही ढोर रहा हो ॥६०॥ उसने कहा कि हे राजन्! यद्यपि आपके नगरों में ऐसा एक भी नगर नहीं है जो सुन्दर न हो तथापि श्रीकण्ठ स्वयं ही खोजकर इच्छानुसार-जो इन्हें रुचिकर हो, ग्रहण कर लें ॥६१॥ इस समुद्र के बीच में ऐसे बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं ॥६२॥ इन द्वीपों में ऐसे अनेक पर्वत हैं जो नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त हैं, ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैं, महा देदीप्यमान हैं और देवों की क्रीड़ा के कारण हैं ॥६३॥ राक्षसों के इन्द्र -- भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य सभी देवों ने आपके वंशजों के लिए वे सब द्वीप तथा पर्वत दे रखे हैं ऐसा पूर्व परम्परा से सुनते आते हैं ॥६४॥ उन द्वीपों में सुवर्णमय महलों से मनोहर और किरणों से सूर्य को आच्छादित करने वाले महारत्नों से परिपूर्ण अनेक नगर हैं ॥६५॥ उन नगरों के नाम इस प्रकार हैं - सन्ध्याकार, मनोह्लाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कान्त, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि अनेक सुन्दर-सुन्दर स्थान हैं । इन स्थानों में देव भी उपद्रव नहीं कर सकते हैं ॥६६-६८॥ जो बहुत भारी पुण्य से प्राप्त हो सकते हैं और जहाँ की वसुधा नाना प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान है ऐसे वे समस्त नगर इस समय आपके अधीन हैं ॥६९॥ यहाँ पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानर द्वीप है । यह वानर द्वीप तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप हैं ॥७०-७१॥ यह द्वीप कहीं तो मणियों की लाल-लाल प्रभा से ऐसा जान पडता मानो जल ही रहा हो, कहीं हरे मणियों की किरणों से आच्छादित होकर ऐसा सुशोभित होता है मानो धान के हरे-भरे पौधों से ही आच्छादित हो ॥७२॥ कहीं इन्द्र-नील मणियों के कान्ति से ऐसा लगता है मानो अन्धकार के समूह से व्याप्त ही हो, कहीं पद्मराग मणियों की कान्ति से ऐसा जान पड़ता है मानो कमलाकर की शोभा धारण कर रहा हो ॥७३॥ जहाँ आकाश में भ्रमती हुई सुगन्धित वायु से हरे गये पक्षी यह नहीं समझ पाते हैं कि हम गिर रहे हैं॥ ७४॥ स्फटिक के बीच-बीच में लगे हुए पद्मराग मणियों के समान जिनकी कान्ति है ऐसे तालाबों के बीच प्रफुल्लित कमलों के समूह जहाँ हलन-चलन रूप क्रिया के द्वारा ही पहचाने जाते हैं ॥७५॥ जो द्वीप मकरन्दरूपी मदिरा के आस्वादन से मनोहर शब्द करने वाले मदोन्मत्त पक्षियों से ऐसा जान पड़ता है मानो समीप में स्थित अन्य द्वीपों से वार्तालाप ही कर रहा हो ॥७६॥ जहाँ रात्रि में चमकने वाली औषधियों की कान्ति के समूह से अन्धकार इतनी दूर खदेड़ दिया गया था कि वह कृष्ण पक्ष की रात्रियों में भी स्थान नहीं पा सका था ॥७७॥ जहाँ के वृक्ष छत्रों के समान आकार वाले हैं, फल और फूलों से सहित हैं, उनके स्कन्ध बहुत मोटे हैं और उनपर बैठे हुए पक्षी मनोहर शब्द करते रहते हैं ॥७८॥ स्वभाव-सम्पन्न (अपने आप) उत्पन्न, वीर्य और कान्ति को देने वाले, एवं मन्द-मन्द वायु से हिलते धान के पौधों से जहाँ की पृथिवी ऐसी जान पड़ती है मानो उसने हरे रंग की चोली ही पहन रखी हो ॥७९॥ जहाँ की वापिकाओं में भ्रमरों के समूह से सुशोभित नील कमल फूल रहे हैं और उनसे वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो भौंहों के सञ्चार से सुशोभित नेत्रों से ही देख रही हों ॥८०॥ हवा के चलने से समुत्पन्न अव्यक्त ध्वनि से कानों को हरने वाले पौंडों और ईखों के बड़े-बड़े बगीचों से जहाँ के प्रदेश वायु के संचार से रहित हैं अर्थात् जहाँ पौंडे और ईख के सघन वनों से वायु का आवागमन रुकता रहता है ॥८१॥ उस वानरद्वीप के मध्य में रत्न और सुवर्ण की लम्बी-चौड़ी शिलाओं से सुशोभित किष्कु नाम का बड़ा भारी पर्वत है ॥८२॥ जैसा यह त्रिकूटाचल है वैसा ही वह किष्कु पर्वत है सो उसकी शिखररूपी लम्बी-लम्बी भुजाओं से आलिंगित दिशारूपी स्त्रियाँ परम शोभा को प्राप्त हो रही हैं ॥८३॥ आनन्द मन्त्री के ऐसे वचन सुनकर परम आनन्द को प्राप्त हुआ श्रीकण्ठ अपने बहनोई कीर्तिधवल से कहने लगा कि जैसा आप कहते हैं वैसा मुझे स्वीकार है ॥८४॥ तदनन्तर चैत्र मास के मंगलमय प्रथम दिन में श्रीकण्ठ अपने परिवार के साथ वानरद्वीप गया ॥८५॥ प्रथम ही वह समुद्र को देखकर आश्चर्य से चकित हो गया । वह समुद्र नीलमणि के समान कान्ति वाला था इससे ऐसा जान पड़ता था मानो नीला आकाश ही पृथिवी पर आ गया हो तथा बड़े-बड़े मगरमच्छ उसमें कम्पन पैदा कर रहे थे ॥८६॥ तदनन्तर उसने वानरद्वीप में प्रवेश किया । वह द्वीप क्या था मानो दूसरा स्वर्ग ही था, और झरनों के उच्च स्वर से ऐसा जान पड़ता था मानो स्वागत शब्द का उच्चारण ही कर रहा था ॥८७॥ झरनों के बड़े-बड़े छींटे उछलकर आकाश में पहुँच रहे थे उनसे वह द्वीप ऐसा लगता था मानो श्रीकण्ठ के आगमन से उत्पन्न सन्तोष से हँस ही रहा हो ॥८८॥ नाना मणियों की सुन्दर कान्ति के समूह से ऐसा जान पड़ता था मानो ऊँचे-ऊँचे तोरणों के समूह ही वहाँ खड़े किये गये हों ॥८९॥ तदनन्तर समस्त दिशाओं में अपनी नीली दृष्टि चलाता हुआ श्रीकण्ठ आश्चर्य से भरे हुए उस वानरद्वीप में उतरा ॥९०॥ वह द्वीप खजूर, आँवला, नीप, कैंथा, अगरु चन्दन, बड़, कौहा, कदम्ब, आम, अचार, केला, अनार, सुपारी, कंकोल, लौंग तथा अन्य अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों से सुशोभित था ॥९१-९२॥ वहाँ वे सब वृक्ष इतने सुन्दर जान पड़ते थे मानो पृथिवी को विदीर्ण कर मणिमय वृक्ष ही बाहर निकले हों और इसीलिए वे अपने ऊपर पड़ी हुई दृष्टि को अन्यत्र नहीं ले जाने देते थे ॥९३॥ उन सब वृक्षों के तने सीधे थे, जहाँ से डालियां फूटती हैं ऐसे स्कन्ध अत्यन्त मोटे थे, ऊपर सघन पत्तों की राशियाँ छत्रों के समान सुशोभित थीं, देदीप्यमान तथा कुछ नीचे की ओर झुकी हुई शाखाओं से, फूलों के समूह से और मधुर फलों से वे सब उत्तम सन्तान को प्राप्त हुए से जनपति थे ॥९४-९५॥ वे सब वृक्ष न तो अत्यन्त ऊँचे थे, न अत्यंत नीचे थे । हाँ, इतने अवश्य थे कि स्त्रियाँ उनके फूल, फल और पल्लवों को अनायास ही पा लेती थीं ॥९६॥ जो गुच्छे रूपी स्तनों से मनोहर थीं, भ्रमर ही जिनके नेत्र थे,और चंचल पल्लव ही जिनके हाथ थे ऐसी लतारूपी स्त्रियाँ बड़े आदर से उन वृक्षों का आलिंगन कर रही थीं ॥९७॥ पक्षियों के मनोहर शब्द से वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे मानो परस्पर में वार्तालाप ही कर रहे हों और भ्रमरों की मधुर झंकार से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो गा ही रहे हों ॥९८॥ कितने ही वृक्ष शंख के टुकड़ों के समान सफेद कान्ति वाले थे, कितने ही स्वर्ण के समान पीले रंग के थे, कितने ही कमल के समान गुलाबी रंग के थे और कितने ही वैदूर्यमणि के समान नीले वर्ण के थे ॥९९॥ इस तरह नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वहाँ के प्रदेश नाना रंग के दिखाई देते थे । वे प्रदेश इतने सुन्दर थे कि उन्हें देखकर फिर स्वर्ग के देखने को इच्छा नहीं रहती थी ॥१००॥ तोताओं के समान स्पष्ट बोलने वाले चकोर और चकोरी का जो मैनाओं के साथ वार्तालाप होता था वह उस वानरद्वीप में सबसे बड़ा आश्चर्य का कारण था ॥१०१॥ तदनन्तर वह श्रीकण्ठ, नाना प्रकार के वृक्षों की छाया में स्थित, फूलों की सुगन्ध से अनुलिप्त, रत्नमय तथा सुवर्णमय शिला तलों पर सेना के साथ बैठा और वहीं उसने शरीर को सुख पहुँचाने वाले समस्त कार्य किये ॥१०२-१०३॥ तदनन्तर - जिन में नाना प्रकार के पुष्प फूल रहे थे, हंस और सारस पक्षी शब्द कर रहे थे, स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो मछलियों के संचार से कुछ कम्पित हो रहे थे ऐसे मालाओं की, तथा फूलों के समूह की वर्षा करने वाले, महाकान्तिमान् और पक्षियों की बोली के बहाने मानो जोर-जोर से जय शब्द का उच्चार करने वाले वृक्षों की, एवं नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त भूभागों (प्रदेशों) की सुषमा से युक्त उस वानर द्वीप में श्रीकण्ठ जहाँ-तहाँ भ्रमण करता हुआ बहुत सुखी हुआ ॥१०४-१०६॥ तदनन्तर नन्दन वन के समान उस वन में विहार करते हुए श्रीकण्ठ ने इच्छानुसार क्रीड़ा करने वाले अनेक प्रकार के वानर देखे ॥१०७॥ सृष्टि की इस विचित्रता को देखकर श्रीकण्ठ विचार करने लगा कि देखो ये वानर तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुए है फिर भी मनुष्य के समान क्यों हैं? ॥१०८॥ ये वानर मुख, पैर, हाथ तथा अन्य अवयव भी मनुष्य के अवयवों के समान ही धारण करते हैं । न केवल अवयव ही, इनकी चेष्टा भी मनुष्यों के समान है ॥१०९॥ तदनन्तर उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने की श्रीकण्ठ के बहुत भारी इच्छा उत्पन्न हुई । यद्यपि वह स्थिर प्रकृति का राजा था तो भी अत्यन्त उत्सुक हो उठा ॥११०॥ उसने विस्मित चित्त होकर मुख की ओर देखने वाले निकटवर्ती पुरुषों को आज्ञा दी कि इन वानरों को शीघ्र ही यहाँ लाओ ॥१११॥ कहने की देर थी कि विद्याधरों ने सैकड़ों वानर लाकर उनके समीप खड़े कर दिये । वे सब वानर हर्ष से कल-कल शब्द कर रहे थे ॥११२॥ राजा श्रीकण्ठ उत्तम स्वभाव के धारक उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने लगा । कभी वह ताली बजाकर उन्हें नचाता था, कभी अपनी भुजाओं से उनका स्पर्श करता था और कभी अनार के फूल के समान लाल, चपटी नाक से बुक एवं चमकीली सुनहली कनीनिकाओं से युक्त उनके मुख में उनके सफेद दांत देखता था ॥११३-११४॥ वे वानर परस्पर में विनयपूर्वक एक दूसरे के जुएँ अलग कर रहे थे, और प्रेम से खो-खो शब्द करते हुए मनोहर कलह करते थे । राजा श्रीकण्ठ ने यह सब देखा ॥११५॥ उन वानरों के बाल धान के छिलके के समान पीले थे, अत्यन्त कोमल थे, मन्द-मन्द वायु से हिल रहे थे और माँग से सुशोभित थे । इसी प्रकार उनके कान विदूषक के कानों के समान कुछ अटपटा आकार वाले, अत्यन्त कोमल और चिकने थे । राजा श्रीकण्ठ उनका बड़े प्रेम से स्पर्श कर रहा था और इस मोहनी सुरसुरी के कारण उनके शरीर निष्कम्प हो रहे थे ॥११६-११७॥ उन वानरों के कृश पेट पर जो-जो रोम अस्त-व्यस्त थे उन्हें यह अपने स्पर्श से ठीक कर रहा था, साथ ही भौंहों को तथा रेखा से युक्त कटाक्ष-प्रदेशों को कुछ ऊपर की ओर उठा रहा था ॥११८॥ तदनन्तर श्रीकण्ठ ने प्रीति के कारणभूत बहुत-से वानर मधुर अन्न-पान आदि के द्वारा पोषण करने के लिए सेवकों को सौंप दिये ॥११९॥ इसके बाद पहाड़ के शिखरों, लताओं, निर्झरनों और वृक्षों से जिसका मन हरा गया था ऐसा श्रीकण्ठ उन वानरों को लिवाकर किष्कु पर्वत पर चढ़ा ॥१२०॥ वहाँ उसने लम्बी-चौड़ी, विषमता रहित तथा अन्त में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से सुशोभित उत्तुंग पहाड़ों से सुरक्षित भूमि देखी ॥१२१॥ उसी भूमि पर उसने किष्कुपुर नाम का एक नगर बसाया । यह नगर शत्रुओं के शरीर की बात तो दूर रहे मन के लिए भी दुर्गम था ॥१२२॥ यह नगर चौदह योजन लम्बा-चौड़ा था और इसकी परिधि (गोलाई) बयालीस योजन से कुछ अधिक थी ॥१२३॥ इस नगर में विद्याधरों ने महलों की ऐसी-ऐसी ऊंची श्रेणियाँ बनाकर तैयार की थी कि जिनके सामने उत्तुंग दरवाजे थे, जिनकी दीवालें मणि और सुवर्ण से निर्मित थीं, जो अच्छे-अच्छे बरण्डो से सहित थीं, रत्नों के खम्भों पर खड़ी थीं । जिन कट्टे कपोत पाली के समीप का भाग महा-नील मणियों से बना था और ऐसा जान पड़ता था कि रत्नों की कान्ति ने जिस अन्धकार को सब जगह से खदेड़कर दूर कर किया था मानो उसे यहाँ अनुकम्पावश स्थान ही दिया गया था । जिन महलों की देहरी पद्मरागमणियों निर्मित होने के कारण लाल-लाल दिख रही थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो ताम्बूल के द्वारा जिसकी लाली बढ़ गयी थी ऐसा ओठ ही धारण कर रही हों । जिनके दरवाजों के ऊपर अनेक मोतियों की मालाएँ लटकायी गयी थीं और जिनकी किरणों से वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अन्य भवनों की सुन्दरता की हंसी ही उड़ा रही हों । शिखरों के ऊपर चन्द्रमा के समान आकार वाले मणि लगे हुए थे उनसे जो रात्रि के समय असली चन्द्रमा के विषय में संशय उत्पन्न कर रहे थे । अर्थात् लोग संशय में पड़ जाते थे कि असली चन्द्रमा कौन है? चन्द्रकान्त मणियों की कान्ति से जो भवन उत्तम चांदनी की शोभा प्रकट कर रहे थे तथा जिन में लगे नाना रत्नों की प्रभा से ऊँचे-ऊँचे तोरण द्वारों का सन्देह हो रहा था जिनके मणिनिर्मित फर्शों पर रत्नमयी कमलों के चित्राम किये गये थे ॥१२४-१३०॥ उस नगर में कुटिलता से रहित (सीधे ऐसे) राजमार्ग बनाये गये थे जिन में कि मणियों और सुवर्ण की धूलि बिखर रही थी तथा जो सूखे सागर के समान लम्बे-चौड़े थे ॥१३१॥ उस नगर में ऊंचे-ऊंचे गोपुर बनाये गये थे जो मणियों की किरणों से सदा आच्छादित से रहा करते थे ॥१३२॥ इन्द्रपुर के समान सुन्दर उस नगर में राजा श्रीकण्ठ अपनी पद्याभा प्रिया के साथ, इन्द्र-इन्द्राणी के समान चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥१३३॥ भद्रशालवन, सौमनसवन तथा नन्दनवन में ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जो उसे दुर्लभ रही हो ॥१३४॥ अथानन्तर किसी एक दिन राजा श्रीकण्ठ महल की छत पर बैठा था उसी समय नन्दीश्वर दीप की वन्दना करने के लिए चतुर्विध देवों के साथ इन्द्र जा रहा था। वह इन्द्र मुकुटों की कान्ति से आकाश को पीतवर्ण कर रहा था, तुरही बाजों के शब्द से समस्त लोक को बधिर बना रहा था, अपने-अपने स्वामियों से अधिष्ठित हाथी, घोड़े, हंस, मेढ़ा, ऊंट, भेड़िया तथा हरिण आदि अन्य अनेक वाहन उसके पीछे-पीछे चल रहे थे, और उसकी दिव्य गन्ध से समस्त लोक व्याप्त हो रहा था ॥१३५-१३९॥ श्रीकण्ठ ने पहले मुनियों के मुख से नन्दीश्वर द्वीप का वर्णन सुना था, सो देवों को आनन्दित करनेवाला वह नन्दीश्वर द्वीप उसकी स्मृति में आ गया ॥१४०॥ स्मृति में आते ही उसने देवों के साथ नन्दीश्वर द्वीप जाने का विचार किया । विचारकर वह समस्त विद्याधरों के साथ आकाश में आरूढ़ हुआ ॥११॥ जिसमें विद्या निर्मित क्रौंचपक्षी जुते थे ऐसे विमान पर अपनी प्रिया पद्याभा के साथ बैठकर राजा श्रीकण्ठ आकाशमार्ग से जा रहा था परन्तु जब मानुषोत्तर पर्वत पर पहुँचा तो उसका आगे जाना रुक गया ॥१४३॥ इसकी गति तो रुक गयी परन्तु देवों के समूह मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघ कर आगे निकल गये । यह देख श्रीकण्ठ परम शोक को प्राप्त हुआ ॥१४४॥ उसका उत्साह भग्न हो गया और कान्ति नष्ट हो गयी । तदनन्तर वह विलाप करने लगा कि हाय-हाय, क्षुद्र-शक्ति के धारी मनुष्यों की उन्नति को धिक्कार हो ॥१४५॥ नन्दीश्वर द्वीप में जो जिनेन्द्र भगवान की महाकान्तिशाली प्रतिमाएँ हैं, मैं निश्छलभाव से उसके दर्शन करूंगा, नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गन्ध से उनकी पूजा करूंगा तथा पृथ्वी पर मुकुट झुकाकर शिर से उन्हें नमस्कार करूंगा मुझ मन्दभाग्य ने ऐसे जो सुन्दर मनोरथ किये थे वे पूर्व संचित अशुभ कर्मो के द्वारा किस प्रकार भग्न कर दिये गये? ॥१४६-१४७॥ अथवा यद्यपि यह बात मैंने अनेक बार सुनी थी कि मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत का उल्लंघन कर नहीं जा सकते हैं तथापि अतिशय वृद्धि को प्राप्त हुई श्रद्धा के कारण मैं इस बात को भूल गया और आत्मशक्ति का धारी होकर भी जाने के लिए तत्पर हो गया ॥१४८-१४९॥ इसलिए अब मैं ऐसे कार्य करता हुँ कि जिससे अन्य जन्म में नन्दीश्वर द्वीप जाने के लिए मेरी गति रोकी न जा सके ॥१५०॥ ऐसा हृदय से निश्चय कर श्रीकण्ठ, पुत्र के लिए राज्य सौंपकर, समस्त परिग्रह का त्यागी महामुनि हो गया ॥१५१॥ तदनन्तर श्रीकण्ठ का पुत्र वज्रकण्ठ अपनी चारुणी नामक वल्लभा के साथ महामनोहर किछपुर में उत्कृष्ट राज्यलक्ष्मी का उपभोग कर रहा था कि उसने एक दिन वृद्धजनों से अपने पिता के पूर्वभव सुने । सुनते ही उसका वैराग्य बढ़ गया और पुत्र के लिए ऐश्वर्य सौंपकर उसने जिन दीक्षा धारण कर ली । यह सुनकर राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि श्रीकण्ठ के पूर्वभव का वर्णन कैसा था जिसे सुनकर वज्रकण्ठ तत्काल विरक्त हो गया । उत्तर में गणधर भगवान् कहने लगे ॥१५२-१५३॥ कि पूर्वभव में दो भाई वणिक् थे, दोनों में परम प्रीति थी परन्तु स्त्रियों ने उन्हें पृथक्-पृथक् कर दिया । उनमें छोटा भाई दरिद्र था और बड़ा भाई धनसम्पन्न था । बड़ा भाई किसी सेठ का आज्ञाकारी था सो उसके समागम से वह श्रावक अवस्था को प्राप्त हुआ परन्तु छोटा भाई शिकार आदि कुव्यसनो में फंसा था । छोटे भाई की इस दशा से बड़ा भाई सदा दुखी रहता था॥१५४-१५५॥ एक दिन उसने अपने स्वामी का एक सेवक छोटे भाई के पास भेजकर झूठ-मूठ ही अपने आहत होने का समाचार भेजा । उसे सुनकर प्रेम से भरा छोटा भाई दौड़ा आया । इस घटना से बड़े भाई ने परीक्षा कर ली कि यह हम से स्नेह रखता है । यह जानकर उसने छोटे भाई के लिए बहुत धन दिया । धन देने का समाचार जब बड़े भाई की स्त्री को मिला तो वह बहुत ही कुपित हुई । इस अनबन के कारण बड़े भाई ने अपनी दुष्ट स्त्री का त्याग कर दिया और छोटे भाई को उपदेश देकर दीक्षा ले ली । समाधि से मरकर बड़ा भाई इन्द्र हुआ और छोटा भाई शान्त परिणामों से मरकर देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर छोटे भाई का जीव श्रीकण्ठ हुआ । श्रीकण्ठ को सम्बोधने के लिए बड़े भाई का जीव जो वैभवशाली इन्द्र हुआ था अपने आपको दिखाता हुआ नन्दीश्वरद्वीप गया था । इन्द्र को देखकर तुम्हारे पिता श्रीकण्ठ को जातिस्मरण हो गया । यह कथा मुनियों ने हम से कही थी ऐसा वृद्धजनों ने वज्रकण्ठ से कहा ॥१५६-१५९॥ यह कथा सुनकर वज्रकण्ठ अपने वज्रप्रभ पुत्र के लिए राज्य देकर मुनि हो गया । वचप्रभ भी अपने पुत्र इन्द्रमत के लिए राज्य देकर मुनि हुआ । तदनन्तर इन्द्रमत से मेरु, मेरु से मन्दर, मन्दर से समीरणगति, समीरणगति से रविप्रभ और रविप्रभ से अमरप्रभ नामक पुत्र हुआ। अमरप्रभ लंका के धनी की पुत्री गुणवती को विवाहने के लिए अपने नगर ले गया ॥१६०-१६२॥ जहाँ विवाह की वेदी बनी थी वहाँ की भूमि दर्पण के समान निर्मल थी तथा वहाँ विद्याधरों की स्त्रियों ने मणियों से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले अनेक चित्र बना रखे थे । कहीं तो भ्रमरों से आलिंगित कमलों का वन बना हुआ था, कहीं नील कमलों का वन था, कहीं आधे लाल और नीले कमलों का वन था, कहीं चोंच से मृणाल दबाये हुए हंसों के जोड़े बने थे और कहीं क्रौंच, सारस तथा अन्य पक्षियों के युगल बने थे। उन्हीं विद्याधरों ने कहीं अत्यन्त चिकने पांच वर्ण के रत्नमयी चूर्ण से वानरों के चित्र बनाये थे सो इन्हें देखकर विद्याधरों का स्वामी राजा अमरप्रभ परम सन्तोष को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सुन्दररूप प्राप्त कर धीर-वीर मनुष्य के भी मन को हर लेता है ॥१६३-१६७॥ इधर राजा अमरप्रभ तो परम सन्तुष्ट हुआ, उधर वधू गुणवती विकृत मुख वाले उन वानरों को देखकर भयभीत हो गयी । उसका प्रत्येक अंग कांपने लगा, सब आभूषण चंचल हो उठे, सबके देखते-देखते ही उसकी आँखों: की पुतलियां भय से घूमने लगीं, उसके सारे शरीर से रोमांच निकल आये और उनसे वह ऐसे जान पड़ने लगी मानो शरीरधारी भय को ही दिखा रही हो । उसके ललाट पर जो तिलक लगा था वह स्वेदजल की बूँदों से मिलकर फैल गया । यद्यपि वह भयभीत हो रही थी तो भी उसकी चेष्टाएँ उत्तम थीं । अन्त में वह इतनी भयभीत हुई कि राजा अमरप्रभ से लिपट गयी ॥१६८-१७॥ राजा अमरप्रभ पहले जिन वानरों को देखकर प्रसन्न हुआ था अब उन्हीं वानरों के प्रति अत्यन्त क्रोध करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि खी का अभिप्राय देखकर सुन्दर वस्तु भी रुचिकर नहीं होती ॥१७१॥ तदनन्तर उसने कहा कि हमारे विवाह में अनेक आकारों के धारक तथा भय उत्पन्न करने वाले ये वानर किसने चित्रित किये हैं? ॥१७२॥ निश्चित ही इस कार्य में कोई मनुष्य मुझ से ईर्ष्या करनेवाला है सो शीघ्र ही उसकी खोज की जाये, मैं स्वयं ही उसका वध करूँगा ॥१७३॥ तदनन्तर राजा अमरप्रभ को क्रोधरूपी गहरी गुहा के मध्य वर्तमान देखकर महा बुद्धिमान् वृद्ध मन्त्री मधुर शब्दों में कहने लगे ॥१७४॥ कि हे स्वामिन्! इस कार्य में आप से द्वेष करनेवाला कोई भी नहीं है । भला, आपके साथ जिसका द्वेष होगा उसका जीवन ही कैसे रह सकता है? ॥१७५॥ आप प्रसन्न होइए और विवाह-मंगल में जिस कारण से वानरों की पंक्तियां चित्रित की गयी हैं वह कारण सुनिए ॥१७६॥ आपके वंश में श्रीकण्ठ नाम का प्रसिद्ध राजा हो गया है जिसने स्वर्ग के समान सुन्दर इस किष्कुपुर नामक उत्तम नगर की रचना की थी ॥१७७॥ जिस प्रकार कर्मों का मूल कारण रागादि प्रपंच हैं उसी प्रकार अनेक आकार—को धारण करने वाले इस देश का मूल कारण वही श्रीकण्ठ राजा है ॥१७८॥ वनों के बीच निकुंजों में सुख से बैठे हुए किन्नर उत्तमोत्तम स्थान पाकर आज भी उस राजा के गुण गाया करते हैं ॥१७९॥ जिसकी प्रकृति स्थिर थी तथा जो इन्द्रतुल्य पराक्रम का धारक था ऐसे उस राजा ने चंचलता के कारण उत्पन्न हुआ लक्ष्मी का अपयश दूर कर दिया था ॥१८०॥ सुनते हैं कि वह राजा सर्वप्रथम इस नगर में सुन्दर रूप के धारक तथा मनुष्य के समान आकार से संयुक्त इन वानरों को देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुआ था ॥१८१॥ वह राजा नाना प्रकार की चेष्टाओं को धारण करने वाले इन वानरों के साथ बड़ी प्रसन्नता से क्रीड़ा करता था तथा उसी ने इन वानरों को मधुर आहार पानी आदि के द्वारा सुखी किया था ॥१८२॥ तदनन्तर महाकान्ति के धारक राजा श्रीकण्ठ के वंश में जो उत्तमोत्तम राजा हुए वे भी उसकी भक्ति के कारण इन वानरों से प्रेम करते रहे ॥१८३॥ चूँकि आपके पूर्वजों ने इन्हें मांगलिक पदार्थो में निश्चित किया था अर्थात् इन्हें मंगलस्वरूप माना था इसलिए ये सब चित्रामरूप से इस मंगलमय कार्य में उपस्थित किये गये हैं ॥१८४॥ जिस कुल में जिस पदार्थ को पहले से पुरुषों के द्वारा मंगलरूप में उपासना होती आ रही है यदि उसका तिरस्कार किया जाता है तो नियम से विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं ॥१८५॥ यदि वही कार्य भक्तिपूर्वक किया जाता है तो वह शुभ सम्पदाओं को देता है । हे राजद । आप उत्तम ह्रदय के धारक हैं-विचारशील हैं अत: आप भी इन वानरों के चित्राम की उपासना कीजिए ॥१८६॥ मन्त्रियों के ऐसा कहने पर राजा अमरप्रभ ने बड़ी सान्तवना से उत्तर दिया । क्रोध के कारण उसके मुख पर जो विकार आ गया था उत्तर देते समय उसने उस विकार का त्याग कर दिया था ॥१८७॥ उसने कहा कि यदि हमारे पूर्वजों ने इनकी मंगलरूप से उपासना की है तो इन्हें इस तरह पृथिवी पर क्यों चित्रित किया गया है जहाँ कि पैर आदि का संगम होता है ॥१८८॥ गुरुजनों के गौरव से मैं इन्हें नमस्कार कर क्षीर पर धारण करूँगा । रत्न आदि के द्वारा वानरों के चिह्न बनवाकर मुकुटों के अग्रभाग में, ध्वजाओं में, महलों के शिखरों में, तोरणों के अग्रभाग में तथा छत्रों के ऊपर इन्हें शीघ्र ही धारण करो । इस प्रकार मन्त्रियों को आज्ञा दी सो उन्होंने तथास्तु कहकर राजा की आज्ञानुसार सब कुछ किया । जिस दिशा में देखो उसी दिशा में वानर ही वानर दिखाई देते थे ॥१८९-१९१॥ अथानन्तर रानी के साथ परम सुख का उपभोग करते हुए राजा अमरप्रभ के मन में विजयार्ध पर्वत को जीतने की इच्छा हुई सो चतुरंग सेना के साथ उसने प्रस्थान किया । उस समय उसकी ध्वजा में वानरों का चिह्न था और सब वानरवंशी उसकी स्तुति कर रहे थे ॥१९२-१९३॥ प्राणियों का मान मर्दन करने वाले युद्ध में दोनों श्रेणियों को जीतकर उसने अपने वश किया पर उनका धन नहीं ग्रहण किया ॥१९४॥ सो ठीक ही है क्योंकि अभिमानी मनुष्यों का यह व्रत है कि वे शत्रु को नम्रीभूत ही करते हैं उसके धन की आकांक्षा नहीं करते ॥१९५॥ तदनन्तर विजयार्ध पर्वत के प्रधान पुरुष जिसके पीछे-पीछे आ रहे थे ऐसा राजा अमरप्रभ दिग्विजय कर किष्कु नगर वापस आया ॥१९६॥ इस प्रकार समस्त विद्याधरों का आधिपत्य पाकर उसने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग किया । लक्ष्मी चंचल थी सो उसने बेड़ी डालकर ही मानो उसे निश्चल बना दिया था ॥१९७॥ तदनन्तर राजा अमरप्रभ के कपिकेतु नाम का पुत्र हुआ । उसके अनेक गुणों को धरने वाली श्रीप्रभा नाम की रानी थी ॥१९८॥ पुत्र को पराक्रमी देख राजा अमरप्रभ उसे राज्यलक्ष्मी सौंपकर गृहरूपी बन्धन से बाहर निकला ॥१९९॥ तदनन्तर कपिकेतु भी प्रतिबल नामक पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी देकर घर से चला गया सो ठीक ही है क्योंकि पूर्व पुरुष राज्यलक्ष्मी को प्राय: विष की वेल के समान देखते थे ॥२००॥ जिन्होंने पूर्व पर्याय में पुण्य उपार्जित किया है ऐसे पुरुषों का प्रयत्नोंपार्जित लक्ष्मी में बड़ा अनुराग नहीं होता ॥२०१॥ पुण्यात्मा मनुष्यों को चूँकि लक्ष्मी थोड़े ही प्रयत्न से अनायास ही प्राप्त हो जाती है इसलिए उसका त्याग करते हुए उन्हें पीड़ा नहीं होती ॥२०२॥ सत्पुरुष, विषय सम्बन्धी सुख को किसी तरह प्राप्त करते भी हैं तो उससे शीघ्र ही विरक्त हो परम पद (मोक्ष) की इच्छा करने लगते हैं ॥२०३॥ जो सुख उपकरणों के द्वारा साध्य न होकर आत्मा के अधीन है, अन्तर-रहित है, महान् है तथा अन्त से रहित है उस सुख की भला कौन नहीं इच्छा करेगा ॥२०४॥ प्रतिबल के गगनानन्द नाम का पुत्र हुआ, गगनानन्द के खेचरानन्द और खेचरानन्द के गिरिनन्दन पुत्र हुआ ॥२०५॥ इस प्रकार ध्वजा में वानरों का चिह्न धारण रहनेवाले वानरवंशियों के वंश में संख्यातीत राजा हुए सो उनमें अपने-अपने कर्मानुसार कितने ही स्वर्ग को प्राप्त हुए और कितने ही मोक्ष गये ॥२०६॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि राजन्! यह तो वश में उत्पन्न हुए पुरुषों का छाया मात्र का निरूपण है । इन सब पुरुषों का नामोल्लेख करने के लिए कौन समर्थ है? ॥२०७॥ लोक में जिसका जो लक्षण होता है उसका उसी लक्षण से उल्लेख होता है । जैसे सेवा करनेवाला सेवक, खेती करनेवाला किसान, धनुष धारण करनेवाला धानुष्क, धर्म सेवन करनेवाला धार्मिक, दुःखी जीवों की रक्षा करनेवाला क्षत्रिय और ब्रह्मचर्य धारण करनेवाला ब्राह्मण कहा जाता है । जिस प्रकार इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए पुरुष इक्ष्वाकु कहलाते हैं और नमि-विनमि के वंश में उत्पन्न हुए पुरुष विद्या धारण करने के कारण विद्याधर कहे गये हैं । जो राजा राज्य छोड़कर तप के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते है वे श्रमण कहलाते हैं क्योंकि श्रम करे सो श्रमण और तपश्चरण ही श्रम कहा जाता है ॥२०८-२११॥ इसके सिवाय यह बात तो स्पष्ट ही है कि शब्द कुछ है और उसका प्रयोग कुछ अन्य अर्थ में होता है जैसे जिसके हाथ में यष्टि है वह यष्टि, जिसके हाथ में कुन्त है वह कुन्त और जो मंच पर बैठा है वह मंच कहलाता है । इस तरह साहचर्य आदि धर्मो के कारण शब्दों के प्रयोग में भेद होता है इसके उदाहरण दिये गये हैं ॥२१२-२१३॥ इसी प्रकार जिन विद्याधरों के छत्र आदि में वानर के चिह्न थे वे लोक में वानर इस प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ॥२१४॥ देवाधिदेव श्रेयान्सनाथ और वासुपूज्य भगवान के अन्तराल में राजा अमरप्रभ ने अपने मुकुट आदि में वानर का चिह्न धारण किया था सो उसकी परम्परा में जो अन्य राजा हुए वे भी ऐसा ही करते रहे । यथार्थ में पूर्वजों की परिपाटी का आचरण करना परम प्रीति उत्पन्न करता है॥२१५-२१६॥ गौतम स्वामी रजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह संक्षेप से वानर-वंश की उत्पत्ति कही हैं अब एक दूसरी बात कहता हूँ सो सुन ॥२१७॥ अथानन्तर किष्कु नामक उत्तम नगर में इसी वानर-वंश में महोदधि नामक विद्याधर राजा हुआ । इसकी विद्युत्प्रकाश नाम को रानी थी जो स्त्रियों के गुणरूपी सम्पदाओं की मानो खजाना थी । उसने अपनी चेष्टाओं से पति का हृदय वश कर लिया था, वह सौभाग्य, रूप, विज्ञान तथा अन्य चेष्टाओं के कारण सैकड़ों सुन्दरी स्त्रियों की शिरोमणि थी ॥२१८-२२०॥ राजा महोदधि के एक सौ आठ पराक्रमी पुत्र थे सो उनपर राज्यभार सौंपकर वह सुख से भोगों का उपभोग करता था ॥२२१॥ मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थ में राजा महोदधि प्रसिद्ध विद्याधर था । वह अपने आश्चर्यजनक कार्यों से सदा विद्याधरों को अनुरक्त रखता था ॥२२२॥ उसी समय लंका में विद्यत्केश नामक प्रसिद्ध राजा था । जो राक्षसवंशरूप आकाश का मानो चन्द्रमा था और लोगों का अत्यन्त प्रिय था ॥२२३॥ महोदधि और विद्युत्केश में परम स्नेह था जो कि एक दूसरे के यहाँ आने-जाने के कारण परम वृद्धि को प्राप्त हुआ था । उन दोनों का चित्त तो एक था केवल शरीर मात्र से ही दोनों में पृथक्पना था ॥२२४॥ विद्युत्केश ने यह समाचार जानकर परमार्थ के जानने वाले महोदधि ने मुनिदीक्षा धारण कर ली ॥२२५॥ यह कथा सुनकर श्रेणिक राजा ने गौतम गणधर से पूछा कि हे स्वामिन्! विद्युत्केश ने किस कारण कठिन दीक्षा धारण की । इसके उत्तर में गणधर भगवान् इस प्रकार कहने लगे ॥२२६॥ कि किसी समय विद्युत्केश जिसमें क्रीड़ा के अनेक स्थान बने हुए थे ऐसे अत्यन्त सुन्दर प्रमद नामक वन में क्रीड़ा करने के लिए गया था सो वहाँ कभी तो वह उन सरोवरों में क्रीड़ा करता था जो कमल तथा नील कमलों से मनोहर थे, जिनमें स्वच्छ जल भरा था, जिनमें बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं तथा नावों के संचार से महामनोहर दिखाई देते थे ॥२२७-२२८॥ कभी उन बेशकीमती झूलों पर झूलता था जिनमें बैठने का अच्छा आसन बनाया गया था, जो ऊँचे वृक्ष से बँधे थे तथा जिनकी उछाल बहुत लम्बी होती थी ॥२२९॥ कभी उन सुवर्णमय पर्वतों पर चढ़ता था जिनके ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के मार्ग बने हुए थे, जिनके शिखर रत्नों से रंजित थे, और जो वृक्षों के समूह से वेष्टित थे ॥२३०॥ कभी उन वृक्षों की झुरमुट में क्रीड़ा करता था जो फल और फूलों से मनोहर थे, जो हिलते हुए पल्लवों से सुशोभित थे और जिनके शरीर अनेक लताओं से आलिंगित थे ॥२३१॥ कभी उन स्त्रियों के बीच बैठकर क्रीड़ा करता था कि जिनके हाव-भाव-विलासरूप सम्पदाएँ मुनियों को भी क्षोभित करने की सामर्थ्य रखती थीं, जो फूल आदि तोड़ने की क्रिया में लगे हुए हस्तरूपी पल्लवों से शोभायमान थीं, स्थूल नितम्ब धारण करने के कारण जिनके शरीर पर स्वेद जल की बूँदें प्रकट हो रही थीं, स्तनों के कम्पन से ऊपर की ओर उछलने वाले बड़े-बड़े मोतियों के हार से जिनकी कान्ति बढ़ रही थी, जिसकी सूक्ष्म रेखाएँ कभी अन्तर्हित हो जाती थीं और कभी प्रकट दिखाई देती थीं ऐसी कमर से जो सुशोभित थीं, श्वासोच्छ्वास से आकर्षित मत्त भौंरों के निराकरण करने में जिनका चित्त व्याकुल था, जो नीचे खिसके हुए वस्त्र को अपने हाथ से थामे हुई थीं तथा जिनके नेत्र इधर-उधर चल रहे थे । इस प्रकार राक्षसों का राजा विद्युत्केश अनेक स्त्रियों के बीच बैठकर क्रीड़ा कर रहा था ॥२३२-२३५॥ अथानन्तर राजा विद्युत्केश की रानी श्रीचन्द्रा इधर क्रीड़ा में लीन थी उधर किसी वानर ने आकर अपने नाखूनों के अग्रभाग से उसके दोनों स्तन विदीर्ण कर दिये ॥२३६॥ जिस वानर ने उसके स्तन विदीर्ण किये थे वह स्वभाव से ही अविनयी था, क्रोध से अत्यन्त खेद को प्राप्त हो रहा था, उसके नेत्र विकृत दिखाई देते थे ॥२३७॥ तदनन्तर जिसके स्तन से खून झड़ रहा था ऐसी वल्लभा को सान्तवना देकर उसने बाण द्वारा वानर को मार डाला ॥२३८॥ घायल वानर वेग से भागकर वहाँ पृथ्वी पर पड़ा जहाँ कि आकाशगामी मुनिराज विराजमान थे ॥॥२३९॥ जिसके शरीर में कँपकँपी छूट रही थी तथा बाण छिदा हुआ था ऐसे वानर को देखकर संसार की स्थिति के जानकार मुनियों के हृदय में दया उत्पन्न हुई ॥२४०॥ उसी समय धर्मदान करने में तसर एवं तपरूपी धन के धारक मुनियों ने उस वानर के लिए सब पदार्थों का त्याग कराकर पंच-नमस्कार मन्त्र का उपदेश दिया ॥२४१॥ उसके फलस्वरूप वह वानर योनि में उत्पन्न हुए अपने पूर्व विकृत शरीर को छोड़कर क्षणभर में उत्तम शरीर का धारी महोदधिकुमार नामक भवनवासी देव हुआ ॥२४२॥ तदनन्तर इधर राजा विद्युत्केश जबतक अन्य वानरों को मारने के लिए उद्यत हुआ तब तक अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव जानकर महोदधिकुमार देव वहाँ आ पहुँचा । आकर उसने अपने पूर्व शरीर का पूजन किया ॥२४३॥ दुष्ट मनुष्यों के द्वारा वानरों के समूह मारे जा रहे हैं यह देख उसने विक्रिया की सामर्थ्य से वानरों की एक बड़ी भारी सेना बनायी ॥२४४॥ उन वानरों के मुख दाढ़ों से विकराल थे, उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं, सिन्दूर के समान लाल-लाल उनका रंग था और वे भयंकर शब्द कर रहे थे ॥२४५॥ कोई वानर पर्वत उखाड़कर हाथ में लिये थे, कोई वृक्ष उखाड़कर हाथ में धारण कर रहे थे, कोई हाथों से जमीन कूट रहे थे और कोई पृथ्वी झूला रहे थे ॥२४६॥ क्रोध के भार से जिनके अंग महारुद्र (महा भयंकर) दिख रहे थे और जो दूर-दूर तक लम्बी छलाँगें भर रहे थे ऐसे मायामयी वानरों ने अतिशय कुपित वानरवंशी राजा विद्युत्केश विद्याधर से कहा ॥२४७॥ कि अरे दुराचारी! ठहर-ठहर, अब तू मृत्यु के वश आ पड़ा है, अरे पापी! वानर को मारकर अब तू किसकी शरण में जायेगा? ॥२४८॥ ऐसा कहकर हाथों में पर्वत धारण करने वाले उन मायामयी वानरों ने समस्त आकाश को इस प्रकार व्याप्त कर लिया कि सुई रखने को भी स्थान नहीं दिखाई देता था ॥२४९॥ तदनन्तर आश्चर्य को प्राप्त हुआ विद्युत् के विचार करने लगा कि यह वानरों का बल नहीं है, यह तो कुछ और ही होना चाहिए ॥२५०॥ तब शरीर की आशा छोड़ नीतिशास्त्र का पण्डित विद्युत्केश मधुरवाणी द्वारा विनयपूर्वक वानरों से बोला ॥२५१॥ कि हे सत्पुरुषों! कहो आप लोग कौन हो? तुम्हारे शरीर अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे हैं, तुम्हारी यह शक्ति वानरों की स्वाभाविक शक्ति तो नहीं दिखाई पड़ती ॥२५२॥ तदनन्तर विद्याधरों के राजा विद्यत्केश को विनयावनत देखकर महोदधिकुमार ने यह वचन कहे ॥२५३॥ कि पशु जाति के स्वभाव से जो अत्यन्त चपल था तथा इसी चपलता के कारण जिसने तुम्हारी स्त्री का अपराध किया था ऐसे जिस वानर को तूने मारा था वह मैं ही हूँ । साधुओं के प्रसाद से इस देवत्व पर्याय को प्राप्त हुआ हूँ । यह पर्याय महाशक्ति से युक्त है तथा इच्छानुसार इसमें संपदाएँ प्राप्त होती हैं ॥२५४-२५५॥ तुम मेरी विभूति को देखो यह कह कर उसने मनोदधि कुमारदेव के योग्य अपनी उत्कृष्ट लक्ष्मी उसके सामने प्रकट कर दी ॥२५६॥ यह देख भय से विद्युत्केश का सर्व शरीर काँपने लगा, उसका हृदय विदीर्ण हो गया, रोमांच निकल आये और आँखे घूमने लगीं ॥२५७॥ तब महोदधि कुमार ने कहा कि डरो मत । देव की वाणी सुन, दुःखी होते हुए विद्युत्केश ने गद्गद वाणी में कहा कि मैं क्या करूँ? जो आप आज्ञा करो सो करूँ ॥२५८॥ तदनन्तर वह देव राजा विद्युत्केश को जिन्होंने पंच नमस्कार मन्त्र दिया था उन गुरु के पास ले गया । वहाँ जाकर देव तथा राजा विद्युत्केश दोनों ने प्रदक्षिणा देकर गुरु के चरणों में नमस्कार दिया ॥२५९॥ महोदधिकुमार देव ने मुनिराज की यह कहकर बार-बार स्तुति की कि मैं यद्यपि वानर था तो भी समस्त प्राणियों से स्नेह रखनेवाले आप ऐसे गुरु को पाकर मैंने यह देव पर्याय प्राप्त की है । यह कहकर उसने महामालाओं से मुनिराज को पूजा की तथा चरणों में नमस्कार किया॥२६०-२६१॥ यह आश्चर्य देखकर विद्याधर विद्युत्केश ने मुनिराज से पूछा कि हे देव! मैं क्या करूँ? मेरा क्या कर्तव्य है? इसके उत्तर में मुनिराज ने निम्नांकित हितकारी वचन कहे कि चार ज्ञान के धारी हमारे गुरु पास ही विद्यमान हैं सो हम लोग उन्हीं के समीप चलें, यही सनातन धर्म है ॥२६२-२६३॥ आचार्य के समीप रहने पर भी जो उनके पास नहीं जाता है और स्वयं उपदेशादि देकर आचार्य का काम करता है वह मूर्ख शिष्य, शिष्यपना को दूर से ही छोड़ देता है । वह न तो शिष्य रहता है और न आचार्य ही कहलाता है, वह धर्मरहित है, कुमार्गगामी है, अपने समस्त आचार से भ्रष्ट है और साधुजनों के द्वारा निन्दनीय है ॥२६४-२६५॥ मुनिराज के ऐसा कहने पर देव और विद्याधर दोनों ही परम आश्चर्य को प्राप्त हुए । अपने-अपने परिवार के साथ उन्होंने मन में विचार किया कि अहो तप का कैसा लोकोत्तर माहात्म्य है कि ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न मुनिराज के भी अन्य गुरु विद्यमान हैं ॥२६६-२६७॥ तदनन्तर धर्म के लिए जिनका चित्त उत्कण्ठित हो रहा था ऐसे देव और विद्याधर उक्त मुनिराज के साथ उनके गुरु के समीप गये ॥२६८॥ वहाँ जाकर उन्होंने बड़े आदर के साथ प्रदक्षिणा देकर गुरु को नमस्कार किया और नमस्कार के अनन्तर न तो अत्यन्त दूर और न अत्यन्त पास किन्तु कुछ दूर हट कर बैठ गये ॥२६९॥ तदनन्तर तप की राशि से उत्पन्न दीप्ति से देदीप्यमान मुनिराज की उस उत्कृष्ट मुद्रा को देखकर देवघर विद्याधर धर्माचार से समुद्भत किसी अद्भूत चिन्ता को प्राप्त हुए । उस समय हर्ष और आश्चर्य से सबके नेत्र-कमल प्रफुल्लित हो रहे थे तथा सभी महाविनय से युक्त थे ॥२७०-२७१॥ तत्पश्चात् देव और विद्याधर दोनों ने हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर मुनिराज से धर्म तथा उसके यथायोग्य फल को पूछा ॥२७२॥ तदनन्तर जिनका मन सदा प्राणियों के हित में लगा रहता था तथा जिनकी समस्त चेष्टाएँ संसार के कारणों के सम्पर्क से सदा दूर रहती थीं ऐसे मुनिराज सजल मेघ की गर्जना के समान गम्भीर वाणी से जगत् का कल्याण करने वाले उत्कृष्ट धर्म का निरूपण करने लगे ॥२७३-२७४॥ जब मुनिराज बोल रहे थे तब लतामण्डप में स्थित मयूरों के समूह मेघ गर्जना की शंका कर हर्ष से नृत्य करने लगे थे ॥२७५॥ मुनिराज ने कहा कि हे देव और विद्याधरी ! संसार का कल्याण करने वाले जिनेन्द्र भगवान ने धर्म का जैसा स्वरूप कहा है वैसा ही मैं कहता हूँ आप—लोग मन स्थिर कर सुनो ॥२७६॥ जिनका चित्त विचार करने में जड़ है ऐसे बहुत से अधम प्राणी धर्म के नाम पर अधर्म का ही सेवन करते हैं ॥२७७॥ जो मोही प्राणी गन्तव्य दिशा को जाने बिना यही मार्ग है ऐसा समझ विरुद्ध दिशा में जाता है वह दीर्घकाल बीत जाने पर भी इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता है ॥२७८॥ विचार करने की क्षमता से रहित विषय लम्पटी मनुष्य,कथा-कहानियों द्वारा जिसे धर्म संज्ञा दी गई है ऐसे जीवघात आदि से उत्पन्न अधर्म का ही सेवन करते हैं ॥२७९॥ मिथ्यादर्शन से दूषित मनुष्य ऐसे अधर्म का अभिप्राय पूर्वक सेवन कर तिर्यंच तथा नरकगति के दुःखों के पात्र होते हैं ॥२८०॥ कुयुक्तियों के जाल से परिपूर्ण ग्रन्थों के अर्थ से मोहित प्राणी धर्म प्राप्त करने की इच्छा से बड़े-बड़े दण्डों के द्वारा आकाश को ताडित करते हैं अर्थात् जिन कार्यों में धर्म की गन्ध भी नहीं उन्हें धर्म समझकर करते हैं ॥२८१॥ जिसमें प्रतिपादित आचार, हिंसादि पापों से रहित है तथा जिसमें शरीर-श्रम-कायक्लेश का उपदेश दिया गया है ऐसे किसी मिथ्या शासन में भी यद्यपि थोड़ा धर्म का अंश होता है तो भी सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण वह निर्मूल ही है । ऐसे जीवों का ज्ञानरहित क्षुद्र चारित्र मुक्ति का कारण नहीं है ॥२८२-२८३॥ मिट्टी का ढेला भी पार्थिव है और वैदूर्य मणि भी पार्थिव है सो पार्थिवत्व सामान्य की अपेक्षा दोनों के गुण आदिक एक समान नहीं हो जाते ॥२८४॥ मिथ्यादृष्टियों के द्वारा निरूपित धर्म मिट्टी के ढेले के समान है और जिनेन्द्र भगवान के द्वारा निरूपित धर्म वैदूर्य मणि के समान है जब कि धर्म संज्ञा दोनों में ही समान है ॥२८५॥ धर्म का मूल दया है और दया का मूल अहिंसा रूप परिणाम है । परिग्रही मनुष्यों के हिंसा निरन्तर होती रहती है ॥२८६॥ दया के सिवाय सत्य वचन भी धर्म है परन्तु सत्य वचन वह कहलाता है कि जिससे दूसरे को दुःख न हो । अदत्तादान का त्याग करना, परस्त्री का छोड़ना, धनादिक में सन्तोष रखना, इन्द्रियों का निवारण करना, कषायों को कुश करना और ज्ञानी मनुष्यों की विनय करना, यह सम्यग्दृष्टि गृहस्थों का व्रत अर्थात् धर्म का विधिपूर्वक निरूपण करता हूँ सो सुनो ॥२८७-२८९॥ जो पंच महाव्रत रूपी उन्नत हाथी के स्कन्ध पर सवार हैं, तीन गुप्ति रूपी मजबूत तथा निश्छिद्र कवच से जिनका शरीर आच्छादित है, जो पंच समितिरूपी पैदल सिपाहियों से युक्त है, और जो नाना तपरूपी महातीक्ष्ण शस्त्रों के समूह से सहित हैं ऐसे दिगम्बर यति रूपी महाराजा, कषाय रूपी सामन्तों से परिवृत तथा मोह रूपी हाथी पर सवार संसार रूपी शत्रु को नष्ट करते हैं ॥२६०-२६२॥ जब सब प्रकार के आरम्भ का त्याग किया जाता है और सम्यग्दर्शन धारण किया जाता है तभी मुनियों का धर्म प्राप्त होता है । यह संक्षेप में धर्म का स्वरूप समझो ॥२६३॥ यह धर्म ही त्रिलोक सम्बन्धी लक्ष्मी को प्राप्ति का कारण है । उत्तम पुरुषों ने इस धर्म को ही उत्कृष्ट मंगलस्वरूप कहा है ॥२६४॥ जिस धर्म के द्वारा महा सुखदायी त्रिलोक का शिखर अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है उस धर्म का और दूसरा कौन उत्कृष्ट गुण कहा जावे? अर्थात् धर्म का सर्वोपरि गुण यही है कि उससे मोक्ष प्राप्त हो जाता है ॥२९५॥ गृहस्थ धर्म के द्वारा यह मनुष्य स्वर्ग में देवी समूह के मध्य में स्थित हो संकल्प मात्र से प्राप्त उत्तमोतम भोगों को भोगता है और मुनि धर्म के द्वारा उस मोक्ष को प्राप्त होता है जहाँ कि इसे अनुपम, निर्बाध तथा अनन्त सुख मिलता है ॥२६६-२९७॥ स्वर्गगामी उत्कृष्ट मनुष्य स्वर्ग से च्युत होकर पुन: मुनिदीक्षा धारण करते हैं और दो तीन भवों में ही परम पद (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं ॥२९८॥ परन्तु जो पापी मिथ्यादृष्टि जीव हैं वे काकतालीयन्याय से यद्यपि स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं तो भी वहाँ से स्तुत हो कुयोनियों में ही भ्रमण करते रहते हैं ॥२९९॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित वाक्य अर्थात् शास्त्र ही उत्तम वाक्य हैं, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा निरूपित तप ही उत्तम तप है, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रोक्त धर्म ही परम धर्म है और जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट मत ही परम मत है ॥३००॥ जिस प्रकार नगर की ओर जानेवाले पुरुष को खेद निवारण करनेवाला जो वृक्षमूल आदि का संगम प्राप्त होता है वह अनायास ही प्राप्त होता है उसी प्रकार जिन शासन रूपी मार्ग से मोक्ष की ओर प्रस्थान रहनेवाले पुरुष को जो देव तथा विद्याधर आदि की लक्ष्मी प्राप्त होती है वह अनुषंग से ही प्राप्त होती है -- उसके लिए मनुष्य को प्रयत्न नहीं करना पड़ता है ॥३०१-३०२॥ जिनधर्म, इन्द्र आदि के भोगों का कारण होता है इसमें आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि इन्द्र आदि के भोग तो साधारण पुण्य मात्र से भी प्राप्त हो जाते हैं ॥३०३॥ इस गृहस्थ और मुनिधर्म के विपरीत जो भी आचरण अथवा ज्ञान है वह अधर्म कहलाता है ॥३०४॥ इस अधर्म के कारण यह जीव वाहन, ताड़न, छेदन, भेदन तथा शीत उष्ण की प्राप्ति आदि कारणों से नाना दुःख देने वाले तिर्यंचों में भ्रमण करता है ॥३०५॥ इसी अधर्म के कारण यह जीव निरन्तर अन्धकार से युक्त रहनेवाले अनेक नरकों में भ्रमण करता है । इन नरकों में कितने ही नरक तो ऐसे हैं जिनमें ठण्डी! हवा के कारण निरन्तर शरीर काँपता रहता है । कितने ही ऐसे हैं जो निकलते हुए तिलगों से भयंकर दिखने वाली अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त है । कितने ही ऐसे हैं जो नाना प्रकार के महा शब्द करने वाले यन्त्रों से व्याप्त हैं । कितने ही ऐसे हैं जो विक्रियानिर्मित सिंह, व्याघ्र, वृक, बाज तथा गीध आदि जीवों से भरे हुए हैं । कितने ही ऐसे हैं जो चक्र, करैत, भाला, तलवार आदि की वर्षा करने वाले वृक्षों से युक्त हैं । कितने ही ऐसे हैं जिनमें पिघलाया हुआ रांगा, सीसा आदि पिलाया जाता है । कितने ही ऐसे हैं जिनमें तीक्ष्ण मुख वाली दुष्ट मक्खियाँ आदि विद्यमान हैं । कितने ही ऐसे हैं जिन में रक्त की कीच में कृमि के समान अनेक छोटे-छोटे जीव बिलबिलाते रहते हैं और कितने ही ऐसे हैं जिन में परस्पर-एक दूसरे के द्वारा दुःख के कारण उत्पन्न होते रहते हैं ॥३०६-३१०॥ इस प्रकार के सदा दु:खदायी नरकों में जीवों को जो दुःख प्राप्त होता है उसे कहने के लिए कौन समर्थ है? ॥३११॥ जिसप्रकार तुम दोनों ने पहले दुःख देने वाली अनेक कुयोनियों में भ्रमण किया था यदि अब भी तुम धर्म से वंचित रहते हो तो पुन: अनेक कुयोनियों में भ्रमण करना पड़ेगा ॥३१२॥ मुनिराज के यह कहने पर देव तथा विद्याधर ने उनसे पूछा कि हे भगवन्! हम दोनों ने किस कारण कुयोनियों में भ्रमण किया है? सो कहिए ॥३१३॥ तदनन्तर - हे वत्सों! मन स्थिर करो इस प्रकार के मधुर वचन कहकर संयमरूपी आभूषण से विभूषित मुनिराज उन दोनों के भवान्तर कहने लगे ॥३१४॥ इस दु:खदायी संसार में मोह से उन्मत्त हो तुम दोनों एक दूसरे का वध करते हुए चिरकाल तक भ्रमण करते रहे ॥३१५॥ तदनन्तर किसी प्रकार कर्मयोग से मनुष्य भव को प्राप्त हुए । निश्चय से संसार में धर्म प्राप्ति का कारणभूत मनुष्यभव का मिलना अत्यन्त कठिन है ॥३१६॥ उनमें से एक तो काशी देश में श्रावस्ती नगरी में राजा का सुयशोदत्त नामा मन्त्री हुआ । सुयशोदत्त अत्यन्त रूपवान् था, कारण पाकर उसने दीक्षा ले ली और महातपश्चरण से युक्त हो पृथ्वी पर विहार करने लगा ॥३१७॥ विहार करते हुए सुयशोदत्तमुनि काशी देश में आकर किसी निर्जन्तु स्थान में विराजमान हो गये । उनकी पूजा के लिए अनेक सम्यग्दृष्टि स्त्रियाँ आयी थीं सो पापी व्याध, स्त्रियों से घिरे उन मुनि को देख तीक्ष्ण वचनरूपी शस्त्रों से भय उत्पन्न करता हुआ बेधने लगा ॥३१८-३२०॥ यह निर्लज्ज नग्न, तथा स्नान रहित मलिन शरीर का धारक, शिकार के लिए प्रवृत्त हुए मुझ को महा अमंगलरूप हुआ है ॥३२१॥ धनुष से भय उत्पन्न करनेवाला व्याध जब उक्त प्रकार के वचन कह रहा था तब दुःख के कारण मुनि का ध्यान कुछ कलुषता को प्राप्त हो गया ॥३२२॥ क्रोधवश वे विचारने लगे कि रुक्ष वचन कहने वाले इस पापी व्याध को मैं एक मुट्ठी के प्रहार से कण-कण कर चूर्ण कर डालता हूँ ॥३२३॥ मुनि ने तपश्चरण के प्रभाव से कापिष्ठ स्वर्ग में जाने योग्य जो पुण्य उपार्जन किया था वह क्रोध के कारण क्षणभर में नष्ट हो गया ॥३२४॥ तदनन्तर कुछ समताभाव से मरकर वह ज्योतिषीदेव हुआ । वहाँ से आकर तू विद्युत्केश नामक विद्याधर हुआ है ॥३२५॥ और व्याध का जीव चिरकाल तक संसाररूपी अटवी में भ्रमण कर लंका के प्रमदवन में वानर हुआ ॥३२६॥ सो चपलता करने के कारण स्त्री के निमित्त तूने इसे बाण से मारा । वही अन्त में पंचनमस्कार मन्त्र प्राप्त कर महोदधि नाम का देव हुआ है ॥३२७॥ ऐसा विचारकर है देव विद्याधरों! तुम दोनों अब अपना वैर-भाव छोड़ दो जिससे फिर भी संसार में भ्रमण नहीं करना पड़े ॥३२८॥ हे भद्र-पुरुषों ! तुम भद्र आचरण करने में तत्पर हो इसलिए सिद्धों के उस सुख की अभिलाषा करो जिसकी मनुष्य-मात्र प्रशंसा नहीं कर सकता ॥३२९॥ इन्द्र आदि देव जिन्हें नमस्कार करते हैं ऐसे मुनिसुव्रत भगवान को परमभक्ति से युक्त हो नमस्कार करो ॥३३०॥ वे भगवान् आत्महित का कार्य पूर्ण कर चुके हैं । अब पर हितकारी कार्य करने में ही संलग्न हैं सो तुम दोनों उनकी शरण में जाकर परम सुख को प्राप्त करोगे ॥३३१॥ तदनन्तर मुनिराज के मुखरूपी सूर्य से निर्गत वचनरूपी किरणों से विद्युत्केश कमल के समान परम प्रबोध को प्राप्त हुआ॥३३२॥ फलस्वरूप वह धीर वीर, सुकेश नामक पुत्र के लिए अपना पद सौंपकर चारण कवि धारी मुनिराज का शिष्य हो गया अर्थात् उनके समीप उसने दीक्षा धारण कर ली ॥३३३॥ तदनन्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र -- इन तीनों की आराधना कर वह अन्त में समाधि के प्रभाव से उत्तम देव हुआ ॥३३४॥ इधर किष्कपुर का स्वामी महोदधि, बिजली के समान कान्ति को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ, जिस पर चन्द्रमा की किरणें पड़ रहीं थीं ऐसे महामनोहर उत्तुंग भवन के शिखर पर सुन्दर गोष्ठी रूपी अमृत का स्वाद लेता हुआ इन्द्र के समान सुख से बैठा था ॥३३५-३३६॥ कि उसी समय शुक्ल वस्त्र को धारण करने वाले एक विद्याधर ने बड़े वेग से आकर तथा सामने खड़े होकर आदर पूर्वक प्रणाम किया और तदनन्तर विद्युत्केश विद्याधर के दीक्षा लेने का समाचार कहा । समाचार सुनते ही महोदधि ने भोगों से विरक्त होकर दीक्षा लेने का विचार किया ॥३३७-३३८॥ महोदधि के यह कहते ही कि मैं दीक्षा लेता हूँ अन्तःपुर से विलाप का बहुत भारी शब्द उठ खड़ा हुआ । उस विलाप की प्रतिध्वनि समस्त महलों में गूंजने लगी ॥३३९॥ वीणा-बाँसुरी आदि के शब्दों से मिश्रित मृदंग ध्वनि की तुलना करनेवाला स्त्रियों का वह विलाप, साधारण मनुष्य की बात जाने दो, मुनि के भी चित्त को हर रहा था अर्थात् करुणा से द्रवीभूत कर रहा था ॥३४०॥ उसी समय युवराज भी वहाँ आ गया । वह नेत्रों में नहीं समाने वाले जल की बड़ी मोटी धारा का बरसाता हुआ आदरपूर्वक बोला कि विद्युत्केश अपने पुत्र सुकेश को परमप्रीति के कारण अपि के लिए सौंप गया है । वह नवीन राज्य पर आरूढ़ हुआ है इसलिए आपके द्वारा रक्षा करने योग्य है ॥३४१-३४२॥ जिनका हृदय दुखी हो रहा था ऐसे नीति निपुण मन्त्रियों ने भी अनेक शास्त्रों के उदाहरण देकर प्रेरणा की कि इस महा वैभवशाली निष्कण्टक राज्य का इन्द्र के समान उपभोग करो और उत्कृष्ट भोगों से यौवन को सफल करो ॥३४३-३४४॥ जिनके मस्तक चरणों में नम्रीभूत थे, जो अपने गुणों के द्वारा उत्कट प्रेम प्रकट कर रही थीं तथा जिनकी आँखों से आँसू झर रहे थे ऐसी स्त्रियों ने भी यह कहकर उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया कि है नाथ! जिनके हृदय आपके हृदय में स्थित हैं ऐसी हम सबको अनाथ बनाकर लताओं को छोड़ वृक्ष के समान आप कहाँ जा रहे हैं? ॥३४५-३४६॥ हे नाथ! यह मनोहर राज्यलक्ष्मी पतिव्रता स्त्री के समान चिरकाल से आपके उत्कृष्ट गुणों से बद्ध है-आप में आसक्त है इसे छोड़कर आप कहाँ जा रहे हैं? और जिनके कपोलों पर अश्रु बह रहे थे ऐसे सामन्तों ने भी राजकीय आडम्बर से रहित हो एक साथ प्रार्थना की पर सब मिलकर भी उसके मानस को नहीं बदल सके ॥३४७-३४८॥ अन्त में उसने स्नेहरूपी पाश को छेदकर तथा समस्त परिग्रह का त्याग कर प्रतिचन्द्र नामक पुत्र के लिए राज्य सौंप दिया और शरीर में भी नि:स्पृह होकर कठिन दिगम्बरी लक्ष्मी-मुनिदीक्षा धारण कर ली । वह पूर्ण बुद्धि को धारण करनेवाला अतिशय गम्भीर था और अपनी सौम्यता के कारण ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी तल पर स्थिर रहनेवाला चन्द्रमा ही हो ॥३४६-३५०॥ तदनन्तर ध्यानरूपी हाथी पर बैठे हुए मुनिराज महोदधि तपरूपी तीक्ष्ण बाण से संसाररूपी शत्रु का शिर छेदकर सिद्धवन अर्थात् मोक्ष में प्रविष्ट हुए ॥३५१॥ तदनन्तर प्रतिचन्द्र भी अपने ज्येष्ठ पुत्र किष्किन्ध के लिए राज्यलक्ष्मी और अन्ध्रकरूढि नामक छोटे पुत्र के लिए युवराज-पद देकर निर्ग्रन्थ दीक्षा को प्राप्त हुआ और निर्मल ध्यान के प्रभाव से सिद्धालय में प्रविष्ट हो गया अर्थात् मोक्ष चला गया ॥३५२-३५३॥ तदनन्तर-जिनका तेज एक दूसरे में आक्रान्त हो रहा था ऐसे सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी दोनों भाई किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढि पृथिवी पर अपना कार्यभार फैलाने को उद्यत हुए ॥३५४॥ इसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में इन्द्र के समान रथनूपुर नाम का नगर था ॥३५५॥ उसमें दोनों श्रेणियों का स्वामी महा-पराक्रमी तथा शत्रुओं को भय उत्पन्न करनेवाला राजा अशनिवेग रहता था ॥३५६॥ अशनिवेग का पुत्र विजयसिंह था । आदित्यपुर के राजा विद्यामन्दर विद्याधर की वेगवती रानी से समुत्पन्न एक श्रीमाला नाम की पुत्री थी । वह इतनी सुन्दरी थी कि अपनी कान्ति से आकाशतल को लिप्त करती थी । विद्यामन्दर ने पुत्री को यौवनवती देख आत्मीय जनों की अनुमति से स्वयंवर रचवाया । अशनिवेग का पुत्र विजयसिंह श्रीमाला को चाहता था इसलिए रूप के गर्व से प्रेरित हो स्वयंवर में गया ॥३५७-३५९॥ जिनके शरीर भूषित थे ऐसे अन्य समस्त विद्याधर भी मणियों से सुशोभित विमानों के द्वारा आकाश को भरते हुए स्वयंवर में पहुँचे ॥३६०॥ तदनन्तर जो रत्नमय खम्भों पर खड़े थे, ऊँचे-ऊँचे सिंहासनों से युक्त थे तथा जिन में खचित मणियों की किरणें फैल रही थीं ऐसे मनोहर मंचों पर प्रमुख-प्रमुख विद्याधर यथास्थान आरूढ़ हुए। उन विद्याधरों के साथ उनकी शरीर-रक्षा के लिए उपयोगी परिमित परिवार भी था ॥३६१-३६२॥ तदनन्तर मध्य में विराजमान श्रीमाला पुत्री पर सब विद्याधरों के नेत्ररूपी नीलकमल एक साथ पड़े ॥३६३॥ तदनन्तर जिनकी आशा स्वयंवर में लग रही थी और जिनका चित्त काम से आलिंगित था ऐसे विद्याधर में निम्नांकित सुन्दर चेष्टाएँ प्रकट हुई ॥३६४॥ किसी विद्याधर के मस्तक पर स्थित उन्नत मुकुट, यद्यपि निश्चल था तो भी वह उसे रत्नों की किरणों से आच्छादित हाथ के द्वारा निश्चल कर रहा था॥३६५॥ कोई विद्याधर कोहनी कमर के पास रख जमुहाई लेता हुआ शरीर को मोड़ रहा था अँगड़ाई ले रहा था । उसकी इस क्रिया से शरीर के सन्धि-स्थान चटक कर शब्द कर रहे थे ॥३६६॥ कोई विद्याधर बगल में रखी हुई देदीप्यमान छुरी को हाथ के अग्रभाग से चला रहा था तथा बार-बार उसकी ओर कटाक्ष से देखता था ॥३६७॥ यद्यपि पास में खड़ा पुरुष चमर ढोर रहा था तो भी कोई विद्याधर वस्त्र के अंचल से लीला पूर्वक मुख के ऊपर हवा कर रहा था ॥३६८॥ कोई एक विद्याधर, जिसकी हथेली ऊपर की ओर थी ऐसे बायें हाथ से मुँह ढककर, जिसकी मुट्ठी बँधी थी ऐसी दाहिनी भुजा को संकुचित कर फैला रहा था ॥३६९॥ कोई एक रति कुशल विद्याधर, पद्मासन पर रखे दाहिने पाँव को उठाकर धीरे से बायीं जाँघ पर रख रहा था ॥३७०॥ कन्या की ओर कटाक्ष चलाता हुआ कोई एक युवा हथेली पर कपोल रखकर पैर के अँगूठे से पद्मासन को कुरेद रहा था ॥३७१॥ जिसमें लगा हुआ मणियों का समूह शेषनाग के समान जान पड़ता था ऐसे कसकर बँधे हुए कटिसूत्र को खोलकर कोई युवा उसे फिर से धीरे-धीरे बाँध रहा था ॥३७२॥ कोई एक युवा दोनों हाथों की चटचटाती अँगुलियों को एक दूसरे में फँसाकर ऊपर की ओर कर रहा था तथा सीना फुलाकर भुजाओं का तोरण खड़ा कर रहा था ॥३७३॥ जिसकी चंचल आँखें कन्या की ओर पड़ रही थीं ऐसा कोई एक युवा बगल में बैठे हुए मित्र का हाथ अपने हाथ में ले मुस्कुराता हुआ निष्प्रयोजन कथा कर रहा था-गप-शप लड़ा रहा था ॥३७४॥ कोई एक युवा, जिस पर चन्दन का लेप लगाने के बाद केशर का तिलक लगाया था तथा जिस पर हाथ रखा था ऐसे विशाल वक्षस्थल पर दृष्टि डाल रहा था ॥३७५॥ कोई एक विद्याधर ललाट पर लटकते हुए घुँघराले बालों को बायें हाथ की प्रदेशिनी अँगुली में फँसा रहा था ॥३७६॥ कोई एक युवा स्वच्छ ताम्बूल खाने से लाल-लाल दिखने वाले ओठ को धीरे-धीरे बायें हाथ से खींचकर भौंह ऊपर उठाता हुआ देख रहा था ॥३७७॥ और कोई एक युवा कर्णिका की पराग को फैलाता हुआ दाहिने हाथ से जिस पर भौंरे मँडरा रहे थे ऐसा कमल घुमा रहा था ॥३७८॥ उस समय स्वयंवर मण्डप में वीणा, बाँसुरी शंख, मृदंग, झालर, काहल भेरी और मर्दक नामक बाजों से उत्पन्न महा-शब्द हो रहा था ॥३७९॥ महापुरुषों की चेष्टाएँ देख जो मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे तथा जिन्होंने अलग-अलग अपने झुण्ड बना रखे थे ऐसे बन्दीजनों के द्वारा मंगल पाठ का उच्चारण हो रहा था ॥३८०॥ तदनन्तर महा-शब्द के शान्त होने के बाद दाहिने हाथ में स्वर्णमय छड़ी को धारण करने वाली सुमंगला धाय कन्या से निम्न वचन बोली । उस समय कन्या का सुख विनय से अवनत था मणिमयी आभूषणों से वह कल्पलता के समान जान पड़ती थी ॥३८१-३८२॥ वह अपना कोमल हस्त-कमल यद्यपि सखी के कन्धे पर रखी थी तो भी वह नीचे की ओर खिसक रहा था । वह पालकी पर सवार थी और काम को प्रकट करने वाली थी ॥३८३॥ आगत राजकुमारों का परिचय देती हुई सुमंगला धाय बोली कि हे पुत्री ! यह नभस्तिलक नगर का राजा, चन्द्रकुण्डल भूपाल की विमला नामक रानी से उत्पन्न हुआ है ॥३८४॥ मार्तण्डकुण्डल इसका नाम है, अपनी कान्ति से सूर्य को जीत रहा है, सन्धि, विग्रह आदि गुणों से युक्त है तथा इन्हीं सब कारणों से यह अपने मण्डल में परम प्रमुखता को प्राप्त हुआ है ॥३८५॥ जब गोष्ठियों में राजाओं के गुणों की चर्चा शुरू होती है तब विद्वज्जन सबसे पहले इसी का नाम लेते हैं और हर्षातिरेक के कारण उस समय विद्वज्जनों के शरीर रोमांच रूपी कण्टकों से व्याप्त हो जाते हैं ॥३८६॥ हे पुत्री ! यदि इसके साथ रमण करने की तेरे मन की इच्छा है तो जिसने समस्त शास्त्रों का सार देखा है ऐसे इस मार्तण्डकुण्डल को स्वीकृत कर ॥३८७॥ तदनन्तर जिसका यौवन कुछ ढल चुका था ऐसे विद्याधरों के राजा मार्तण्डकुण्डल का श्रीमाला ने मुख नीचा करने मात्र से ही निराकरण कर दिया ॥३८८॥ तदनन्तर सुमंगला धाय बोली कि हे पुत्री ! कान्ति, दीप्ति और विभूति के द्वारा जो समस्त पुरुषों का अधीश्वर है ऐसे इस राजकुमार पर अपनी दृष्टि डालो ॥३८९॥ यह रत्नपुर का स्वामी है, राजा विद्यांग और रानी लक्ष्मी का पुत्र है, विद्या समुद्घात इसका नाम है तथा समस्त विद्याधरों का स्वामी है ॥३९०॥ वीरों में हलचल मचाने वाला इसका नाम सुनते ही शत्रु भय से वायु के द्वारा कम्पित पीपल के पत्ते की दशा को प्राप्त होते हैं अर्थात् पीपल के पत्ते के समान काँपने लगते हैं ॥३९१॥ अनेक क्षुद्र राजाओं के पास भ्रमण करने से जो थक गयी थी ऐसी लक्ष्मी, हाररूपी तकिया से सुशोभित इसके विस्तृत वक्षःस्थल पर मानो विश्राम को प्राप्त हुई है ॥३९२॥ यदि इसकी गोद में बैठने की तेरी अभिलाषा है तो इसे स्वीकार कर । बिजली सुमेरुपर्वत के साथ समागम को प्राप्त हो ॥३९३॥ श्रीमाला उसे अपने नेत्रों से सरलता पूर्वक देखती रही इसी से उसका निराकरण हो गया सो ठीक ही है क्योंकि कन्या जिसे वर रूप से पसन्द करती है उस पर उसकी दृष्टि चंचल हो जाती है ॥३९४॥ तदनन्तर उसका अभिप्राय जानने वाली सुमंगला उसे दूसरे राजा के पास ले जाकर बोली ॥३९५॥ कि यह राजा वज्रायुध और रानी वज्रशीला का पुत्र खेचरभानु वज्रपंजर नामक नगर में रहता है ॥३९६॥ लक्ष्मी यद्यपि स्वभाव से चंचल है तो भी सूर्य की किरणों के समान देदीप्यमान इसकी दोनों भुजाओं पर बँधी हुई के समान सदा स्थिर रहती है ॥३९७॥ यह सच है कि नाममात्र के अन्य विद्याधर भी हैं परन्तु वे सब जुगनू के समान हैं और यह उनके बीच सूर्य के समान देदीप्यमान है ॥३९८॥ यद्यपि इसका मस्तक स्वाभाविक प्रमाण से ही परम ऊँचाई को प्राप्त है फिर भी इस पर जो जगमगाते रत्नों से सुशोभित मुकुट बाँधा गया है सो केवल उत्कर्ष प्राप्त करने के लिए ही बांधा गया है ॥३९९॥ हे सुन्दरि ! यदि इन्द्राणी के समान समस्त भोग भोगने की तेरी इच्छा है तो इस विद्याधरों के अधिपति को स्वीकृत कर ॥४००॥ तदनन्तर उस खेचरभानुरूपी सूर्य को देखकर कन्यारूपी कुमुदिनी परम संकोच को प्राप्त हो गयी । यह देख सुमंगला धाय ने कुछ आगे बढ़कर कहा ॥४०१॥ कि यह राजा चित्राम्बर और रानी पद्मश्री का पुत्र चन्द्रानन है, चन्द्रपुरनगर का स्वामी है । देखो, सुन्दर चन्दन से चर्चित इसका वक्षःस्थल कितना चौड़ा है? यह चन्द्रमा की किरणों से आलिंगित कैलास पर्वत के तट के समान कितना भला मालूम होता है? ॥४०२-४०३॥ छलकती हुई किरणों से सुशोभित हार इसके वक्षःस्थल पर ऐसा सुशोभित हो रहा है जैसा कि उठते हुए जल कणों से सुशोभित निर्झर कैलास के तट पर सुशोभित होता है ॥४०४॥ इसके नाम के अक्षररूपी किरणों से आलिंगित शत्रु का भी मन परम हर्ष को प्राप्त होता है तथा उसका सब दु:खरूपी सन्ताप छूट जाता है ॥४०५॥ हे सौम्यदर्शने! यदि तेरा चित्त इस पर प्रसन्नता को प्राप्त है तो चन्द्रमा के साथ रात्रि के समान तू इसके साथ समागम को प्राप्त हो ॥४०६॥ तदनन्तर नेत्रों को आनन्दित करने वाले चन्द्रमा पर जिस प्रकार कमलिनी का मन प्रीति को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार राजा चन्द्रानन पर श्रीमाला का मन प्रीति को प्राप्त नहीं हुआ ॥४०७॥ तब धाय बोली कि हे कन्ये ! इस राजा पुरन्दर को देखो । यह पुरन्दर क्या है मानो तुम्हारे संगम की लालसा से पृथिवी पर अवतीर्ण हुआ साक्षात् पुरन्दर अर्थात् इन्द्र ही है ॥४०८॥ यह राजा मेरुकान्त और रानी श्रीरम्भा का पुत्र है मन्दरकुंज नगर का स्वामी है, मेघ के समान इसकी जोरदार आवाज है ॥४०९॥ युद्ध में भय से पीड़ित शत्रु इसकी सम्मुखागत दृष्टि को सहन करने में असमर्थ रहते फिर बाणों की तो बात ही अलग है ॥४१०॥ मुझे तो लगता है कि देवों का अधिपति इन्द्र भी इससे भयभीत हो सकता है, वास्तव में इसका अखण्डित प्रताप समस्त पृथ्वी में भ्रमण करता है ॥४११॥ हे सुन्दर शब्दों वाली नितम्बिनि! प्रेमपूर्ण कलह के समय तूँ इसके उन्नत मस्तक को अपने चरण से ताड़ित कर ॥४१२॥ राजा पुरन्दर भी उसके हृदय में स्थान नहीं पा सका सो ठीक ही है क्योंकि अपने-अपने कर्मों के कारण लोगों की चित्तवृत्ति विचित्र प्रकार की होती है ॥४१३॥ जिस प्रकार सरोवर में तरंग हंसी को दूसरे कमल के पास ले जाती है उसी प्रकार धाय उस कन्या को सभारूपी सरोवर में किसी दूसरे विद्याधर के पास ले जाकर बोली कि हे पुत्री ! इस राजा महाबल को देख । यह राजा मनोजव के द्वारा वेगिनी नामक रानी से उत्पन्न हुआ है । वायु के समान इसका वेग है ॥४१४-४१५॥ नाकार्धपुर का स्वामी है, इसके निर्मल गुण गणना से परे हैं ॥४१६॥ अपने शरीर के वेग से उत्पन्न वायु के द्वारा पर्वतों को गिरा देनेवाला यह राजा भौंह उठाते ही समस्त पृथिवी में चक्कर लगा देता है ॥४१७॥ यह विद्या के बल से पृथिवी को आकाशगामिनी बना सकता है और समस्त ग्रहों को पृथिवी-तलचारी दिखा सकता है ॥४१८॥ अथवा तीन लोक के सिवाय चतुर्थ लोक की रचना कर सकता है, सूर्य को चन्द्रमा के समान शीतल बना सकता है, सुमेरु पर्वत का चूर्ण कर सकता है, वायु को स्थिर बना सकता है, समुद्र को सुखा सकता है और आकाश को मूर्तिक बना सकता है । अथवा अधिक कहने से क्या? इसकी जो इच्छा होती है वैसा ही कार्य हो जाता है ॥४१६-४२०॥ धाय ने यह सब कहा सही, पर कन्या का मन: उसमें स्थान नहीं पा सका । कन्या सर्व शास्त्रों को जानने वाली थी इसलिए उसने जान लिया कि यह धाय अत्युक्ति युक्त कह रही है - इसके कहने में सत्यता नहीं है ॥४२१॥ इस तरह धाय के द्वारा जिनके वैभव का वर्णन किया गया था ऐसे बहुत से विद्याबलधारी विद्याधरों का परित्याग कर कन्या आगे बढ़ गयी ॥४२२॥ तदनन्तर जिस प्रकार चन्द्रलेखा जिन पर्वतों को छोड़कर आगे बढ़ जाती है वे पर्वत अन्धकार से मलिन जाते उसी प्रकार कन्या श्रीमाली जिन विद्याधरों को छोडकर आगे बढ़ गयी थी वे शोक को धारण करते हुए मलिन मुख हो गये ॥४२३॥ एक दूसरे को देखने से जिनकी कान्ति नष्ट हो गयी थी ऐसे लज्जा युक्त विद्याधरों के मन में विचार उठ रहा था कि यदि पृथ्वी फट जायें तो उसमें हम प्रविष्ट हो जावें ॥४२४॥ तदनन्तर विद्याधरों की कान्ति का वर्णन करने वाली धाय की उपेक्षा कर श्रीमाला की दृष्टि बड़े आदर से किष्किन्धकुमार के ऊपर पड़ी ॥४२५॥ उसने लोगों के देखते-देखते ही वरमाला किष्किन्धकुमार के गले में डाल दी और उसी समय स्नेह से भरी श्रीमाला ने परस्पर वार्तालाप किया ॥४२६॥ तदनन्तर किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढ़ि पर विजयसिंह की दृष्टि पड़ी । विद्या के बल से गर्वित विजयसिंह ने उन दोनों को बुलाकर कहा ॥४२७॥ कि अरे ! यह तो विद्याधरों का समूह है, यहाँ आप लोग कहाँ आ गये? तुम दोनों का दर्शन अत्यन्त विरूप है । तुम क्षुद्र हो, वानर हो और विनय से रहित हो ॥४२८॥ न तो यहाँ फलों से नम्रीभूत मनोहर वन है और न निर्झरों को धारण करने वाली पहाड़ की गुफाएँ ही हैं ॥४२९॥ तथा जिनके मुख मांस के समान लाल-लाल हैं ऐसी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाली वानरियों के झुण्ड भी यहाँ कुचेष्टाएँ नहीं कर रहे हैं ॥४३०॥ इन पशु रूप वानर निशाचरों को यहाँ कौन बुलाकर लाया है? मैं आज उस नीच दूत का निपात (घात) करूँ ॥४३१॥ यह कह उसने अपने सैनिकों से कहा कि इन दुष्ट वानरों को इस स्थान से निकाल दो तथा इन्हें वृथा ही जो विद्याधरी प्राप्त करने की श्रद्धा हुई है उसे दूर कर दो ॥४३२॥ तदनन्तर विजयसिंह के कठोर शब्दों से रुष्ट हो किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढ़ि दोनों वानरवंशी उस तरह महाक्षोभ को प्राप्त हुए जिस तरह कि हाथियों के प्रति सिंह महाक्षोभ को प्राप्त होते हैं ॥४३३॥ तदनन्तर स्वामी की निन्दारूपी महावायु से ताड़ित विद्याधरों की सेनारूपी वेला रुद्र-भयंकर चेष्टा करती हुई परम क्षोभ को प्राप्त हुई ॥४३४॥ कोई सामन्त दाहिने हाथ से बायें कन्धे को पीटने लगा । उस समय उसके वेगपूर्ण आघात के कारण बायें कन्धे से रक्त के छींटों का समूह उछटने लगा था ॥४३५॥ जिसका चित्त अत्यन्त क्षुभित हो रहा था ऐसा कोई एक सामन्त शत्रुओं पर क्रोध के आवेश से लाल-लाल भयंकर दृष्टि डाल रहा था । उसकी वह लाल दृष्टि ऐसी जान पड़ती थी मानो प्रलय काल की उल्का ही हो ॥४३६॥ कोई सैनिक क्रोध से काँपते हुए दाहिने हाथ से वक्षःस्थल का स्पर्श कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त क्रूर कर्म करने के लिए किसी बड़े स्थान की खोज ही कर रहा हो ॥४३७॥ किसी ने मुसकराते हुए अपने एक हाथ से दूसरे हाथ को इतने जोर से पीटा कि उसका शब्द सुनकर पथिक चिरकाल के लिए बहरा हो गया ॥४३८॥ जिसका महा पीठ जड़ों के समूह से पृथ्वी पर मजबूत बँधा था और जो चंचल पल्लव धारण कर रहा था ऐसे किसी वृक्ष को कोई सैनिक जड से उखाड़ने लगा ॥४३९॥ किसी वानर ने मंच का खम्भा लेकर कन्धे पर इतने जोर से तोड़ा कि उसके निरन्तर बिखरे हुए छोटे-छोटे टुकड़ों से आकाश व्याप्त हो गया ॥४४०॥ किसीने अपने शरीर को इतने जोर से मोड़ा कि उसके पुरे हुए घाव फिर से फट गये तथा खून को बड़ी मोटी धाराओं से उसका शरीर उत्पात-काल के मेघ के समान जान पड़ने लगा ॥४४१॥ किसी ने मुँह फाड़कर इतने जोर से अट्टहास किया कि मानो वह समस्त संसार के अन्तराल को शब्दमय ही करना चाहता था ॥४४२॥ किसी ने अपनी जटाओं का समूह इतनी जोर से हिलाया कि उससे समस्त दिशाएँ व्याप्त हो गयीं और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो चिरकाल के लिए रात्रि ही हो गयी हो ॥४४३॥ कोई सैनिक दाहिने हाथ को संकुचित कर उससे बायीं भुजा को इतनी जोर से पीट रहा था कि उससे वज्रपात के समान भयंकर घोर शब्द हो रहा था ॥४४४॥ अरे दुष्ट विद्याधरों ! तुमने जो कठोर वचन कहे हैं उसके फलस्वरूप इस विध्वंस को सहन करो इस प्रकार के उच्च शब्दों से किसी का मुख शब्दायमान हो रहा था अर्थात् कोई चिल्ला-चिल्लाकर उक्त शब्द कह रहा था ॥४४५॥ तदनन्तर उस अपूर्व तिरस्कार के कारण वानरवंशी, विद्याधरों की सेना को नष्ट करने के लिए सम्मुख आये ॥४४६॥ तत्पश्चात् हाथी हाथियों से, रथों के सवार रथ के सवारों से और पैदल सिपाही पैदल सिपाहियों के साथ भयंकर युद्ध करने लगे ॥४४७॥ इस प्रकार दोनों सेनाओं में वहाँ महायुद्ध हुआ । ऐसा महायुद्ध कि जो दूर खड़े देवों के महान् आश्चर्य उत्पन्न कर रहा था ॥४४८॥ किष्किन्ध और अन्ध्रक का मित्र जो सुकेश नाम का राक्षसों का राजा था वह युद्ध का समाचार सुन तत्काल ही मनोरथ के समान वहाँ आ पहुँचा ॥४४९॥ पहले अकम्पन की पुत्री सुलोचना के निमित्त जैसा महायुद्ध हुआ था वैसा ही युद्ध उस समय हुआ सो ठीक ही है क्योंकि युद्ध का कारण स्त्रियाँ ही हैं ॥४५०॥ इधर जब तक विद्याधर और राक्षसों के बीच भयंकर युद्ध होता है उधर तब तक कन्या को लेकर किष्किन्ध कृतकृत्य हो गया अर्थात् उसे लेकर युद्ध से भाग गया ॥४५१॥ विद्याधरों का राजा विजयसिंह ज्यों ही सामने आया त्यों ही अन्ध्रकरूढि ने ललकार कर उसका उन्नत मस्तक तलवार से नीचे गिरा दिया ॥४५२॥ जिस प्रकार एक आत्मा के बिना शरीर में इन्द्रियों का समूह जहाँ-तहाँ बिखर जाता है उसी प्रकार एक विजयसिंह के विना समस्त सेना इधर-उधर बिखर गयी ॥४५३॥ जब अशनिवेग ने पुत्र के वध का समाचार सुना तो वह शोक के कारण वज्र से ताड़ित हुए के समान परम दुखी हो मूर्छा रूपी गाढ़ अन्धकार से आवृत हो गया ॥४५४॥ तदनन्तर अपनी स्त्रियों के नयन जल से जिसका वक्षःस्थल भीग रहा था ऐसा अशनिवेग, जब प्रबोध को प्राप्त हुआ तब उसने क्रोध से भयंकर आकार धारण किया ॥४५५॥ तदनन्तर प्रलयकाल के उत्पात सूचक भयंकर सूर्य के समान उसके आकार को परिकर के लोग देखने में भी समर्थ नहीं हो सके ॥४५६॥ तदनन्तर उसने शस्त्रों से देदीप्यमान समस्त विद्याधरों के साथ जाकर किसी दूसरे ऊँचे कोट के समान किष्कुपुर को घेर लिया ॥४५७॥ तदनन्तर नगर को घिरा जान दोनों भाई युद्ध की लालसा रखते हुए सुकेश के साथ बाहर निकले ॥४५८॥ फिर वानर और राक्षसों की सेना ने गदा, शक्ति, बाण, पाश, भाले तथा बड़ी-बड़ी तलवारों से विद्याधरों की सेना को विध्वस्त कर दिया ॥४५९॥ उस महायुद्ध में अन्ध्रक, किष्किन्ध और सुकेश जिस दिशा में निकल जाते थे उसी दिशा के मार्ग चूर्णीकृत वानरों से भर जाते थे ॥४६०॥ तदनन्तर पुत्र वध से उत्पन्न क्रोधरूपी अग्नि की ज्वालाओं से प्रदीप्त हुआ अशनिवेग जोर का शब्द करता हुआ अन्ध्रक के सामने गया ॥४६१॥ तब किष्किन्ध ने विचारा कि अन्ध्रक अभी बालक है और यह पापी अशनिवेग महा उद्धत है, ऐसा विचारकर वह अशनिवेग के साथ युद्ध करने के लिए स्वयं उठा ॥४६२॥ सो अशनिवेग के पुत्र विद्युद्वाहन ने उसका सामना किया और फलस्वरूप दोनों में घोर युद्ध हुआ सो ठीक ही है क्योंकि संसार में जितना पराभव होता है वह स्त्री के निमित्त ही होता है ॥४६३॥ इधर जब तक किष्किन्ध और विद्युद्वाहन में भयंकर युद्ध चलता है उधर तब तक अशनिवेग ने अन्ध्रक को मार डाला ॥४६४॥ तदनन्तर बालक अन्ध्रक, तेजरहित पृथ्वी पर पड़ा और निष्प्राण हो प्रातःकाल के चन्द्रमा की कान्ति को धारण करने लगा अर्थात् प्रातःकालीन चन्द्रमा के समान कान्तिहीन हो गया ॥४६५॥ इधर किष्किन्ध ने एक शिला विद्युद्वाहन के वक्षस्थल पर फेंकी जिससे तड़ित हो वह मूर्च्छित हो गया परन्तु कुछ ही समय में सचेत होकर उसने वही शिला किष्किन्ध के वक्ष:स्थल पर फेंकी जिससे वह भी मूर्च्छा को प्राप्त हो गया । उस समय शिला के आघात से उसके नेत्र तथा मन दोनों ही घूम रहे थे ॥४६६-४६७॥ तदनन्तर प्रेम से जिसका चित्त भर रहा था ऐसा लंका का राजा सुकेश उसे प्रमाद छोड़कर शोध ही किष्कपुर ले गया । वहाँ चिरकाल के बाद उसे चेतना प्राप्त हुई ॥४६८॥ जब उसने आंखें खोली और सामने अन्ध्रक को नहीं देखा तब समीपवर्ती लोगों से पूछा कि हमारा भाई कहां है? ॥४६९॥ उसी समय उसने प्रलय की वायु से क्षोभित समुद्र के समान, अन्ध्रक की मृत्यु से उत्पन्न अन्तःपुर के रोने का शब्द सुना ॥४७०॥ तदनन्तर जिसके हृदय में भाई के गुणों के चिन्तवन से उत्पन्न दुःख की लहरें उठ रही थीं ऐसा किष्किन्ध शोकाग्नि से सन्तप्त हो चिरकाल तक विलाप करता रहा ॥४७१॥ हे भाई! मेरे रहते हुए तू मृत्यु को कैसे प्राप्त हो गया? तेरे मरने से मेरी दाहिनी भुजा ही भंग को प्राप्त हुई ॥४७२॥ उस पापी दुष्ट ने मुझ बालक पर शस्त्र कैसे चलाया? अन्याय में प्रवृत्ति करने वाले उस दुष्ट को धिक्कार है ॥४७३॥ जो तुझे निमेष मात्र भी नहीं देखता था तो आकुल हो जाता था यही मैं अब प्राणों को किस प्रकार धारण करूँगा, सो कह ॥४७४॥ अथवा मेरा कठोर चित्त वज्र से निर्मित है इसीलिए तो वह तेरी मृत्यु जानकर भी शरीर नहीं छोड़ रहा है ॥४७५॥ हे बालक ! मन्द-मन्द मुसकान से युक्त, वीर पुरुषों की गोष्ठी में समुत्पन्न जो तेरा प्रकट हर्षोल्लास था उसका स्मरण करता हुआ मैं दु:सह दुःख प्राप्त कर रहा हूँ ॥४७६॥ पहले तेरे साथ जो-जो चेष्टाएं-कौतुक आदि किये थे वे समस्त शरीर में मानो अमृत का ही सिंचन करते थे ॥४७७॥ पर आज वे ही सब स्मरण में आते ही विष के सिञ्चन के समान मर्मघातक मरण क्यों प्रदान कर रहे हैं अर्थात् जो पहले अमृत के समान सुखदायी थे वे ही आज विष के समान दु:खदायी क्यों हो गये? ॥४७८॥ इस प्रकार भाई के स्नेह से दुःखी हुआ किष्किन्ध बहुत विलाप करता रहा । तदनन्तर सुकेश आदि ने उसे इस प्रकार समझाकर प्रबोध को प्राप्त कराया ॥४७९॥ उन्होंने कहा कि थोर-वीर मनुष्यों को क्षुद्र पुरुषों के समान शोक करना उचित नहीं है । यथार्थ में पण्डितजनों ने शोक को भिन्न नाम वाला पिशाच ही कहा है ॥४८०॥ कर्मों के अनुसार इष्टजनों के साथ वियोग का अवसर आने पर यदि शोक होता है तो वह आगे के लिए और भी दुःख देता है ॥४८१॥ विचारपूर्वक कार्य करने वाले मनुष्य को सदा वही कार्य करना चाहिए जो प्रयोजन से सहित हो । यह शोक प्रयोजन रहित है अत: बुद्धिमान् मनुष्य के द्वारा करने योग्य नहीं है ॥४८२॥ यदि शोक करने से मृतक व्यक्ति वापस लौट आता हो तो दूसरे लोगों को भी इकट्ठा कर शोक करना उचित है ॥४८३॥ शोक से कोई लाभ नहीं होता बल्कि शरीर का उत्कट शोषण ही होता है । यह शोक पापों का तीव्रोदय करने वाला और महामोह में प्रवेश कराने वाला है ॥४८४॥ इसलिए इस वैरी शोक को छोड़कर बुद्धि को स्वच्छ करो और करने योग्य कार्य में मन लगाओ क्योंकि शत्रु अपना संस्कार छोड़ता नहीं है ॥४८५॥ मोही मनुष्य शोक रूपी महापंक में निमग्न होकर अपने शेष कार्यों को भी नष्ट कर लेते हैं । मोही मनुष्यों का शोक तब और भी अधिक बढ़ता है जबकि अपने आश्रित मनुष्य उनकी ओर दीनता-भरी दृष्टि से देखते हैं ॥४८६॥ हमारे नाश का सदा ध्यान रखने वाला अशनिवेग चूँकि अत्यन्त बलवान् है इसलिए इस समय हम लोगों को इसके प्रतिकार का विचार अवश्य करना चाहिए ॥४८७॥ यदि शत्रु अधिक बलवान् है तो बुद्धिमान् मनुष्य किसी जगह छिपकर समय बिता देता है । ऐसा करने से वह शत्रु से प्राप्त होनेवाले पराभव से बच जाता है ॥४८८॥ छिपकर रहने वाला मनुष्य जब योग्य समय पाता है तब दूनी शक्ति को धारण करने वाले शत्रु को भी वश कर लेता है सो ठीक ही है क्योंकि सम्पदाओं की सदा एक ही व्यक्ति में प्रीति नहीं रहती ॥४८९॥ अत: परम्परा से चला आया हमारे वंश का निवासस्थल अलंकारपुर (पाताल लंका) इस समय मेरे ध्यान में आया है ॥४९०॥ हमारे कुल के वृद्धजन उसकी बहुत प्रशंसा करते हैं तथा शत्रुओं को भी उसका पता नही है । वह इतना सुन्दर है कि उसे पाकर फिर मन स्वर्गलोक की आकांक्षा नहीं करता ॥४९१॥ इसलिए उठो हम लोग शीघ्र ही शत्रुओं के द्वारा अगम्य उस अलंकारपुर नगर में चलें। इस स्थिति में यदि वहाँ जाकर संकट का समय नहीं निकाला जाता है तो यह बड़ी अनीति होगी ॥४९२॥ इस प्रकार लंका के राजा सुकेश ने किष्किन्ध को बहुत समझाया पर उसका शोक दूर नहीं हुआ । अन्त में रानी श्रीमाला के देखने से उसका शोक दूर हो गया ॥४९३॥ तदनन्तर राजा किष्किन्ध और सुकेश अपने समस्त परिवार के साथ अलंकारपुर की ओर चले परन्तु विद्युद्वाहन शत्रु ने उन्हें देख लिया ॥४९४॥ वह भाई विजयसिंह के घात से अत्यन्त क्रुद्ध था तथा शत्रु का निर्मूल नाश करने में सदा उद्यत रहता था इसलिए भागते हुए सुकेश और किष्किन्ध के पीछे लग गया ॥४९५॥ यह देख नीतिशास्त्र के मर्मज्ञ तया शुद्ध बुद्धि को धारण करने वाले पुरुषों ने विद्युद्वाहन को समझाया कि भागते हुए शत्रुओं का पीछा नहीं करना चाहिए ॥४९६॥ पिता अशनिवेग ने भी उससे कहा कि जिस पापी वैरी ने तुम्हारे भाई विजयसिंह को मारा था उस अन्ध्रक को मैंने बाणों के द्वारा महानिद्रा प्राप्त करा दी है अर्थात् मार डाला है ॥४९७॥ इसलिए हे पुत्र ! लौटो, ये हमारे अपराधी नहीं हैं । महापुरुष को दुःखी जन पर दया करनी चाहिए ॥४९८॥ जिस भीरु मनुष्य ने अपनी पीठ दिखा दी वह तो जीवित रहने पर भी मृतक के समान है, तेजस्वी मनुष्य भला उसका और क्या करेंगे ॥४९९॥ इधर इस प्रकार अशनिवेग जब तक पुत्र को अपने अधीन रहने का उपदेश देता है उधर तब तक वानर और राक्षस अलंकारपुर (पाताललंका) में पहुँच गये ॥५००॥ वह नगर पाताल में स्थित था तथा रत्नों के प्रकाश से व्याप्त था सो उस नगर में वे दोनों शोक तथा हर्ष को धारण करते हुए रहने लगे ॥५०१॥ अथानन्तर एक दिन अशनिवेग शरद्ऋतु के मेघ को क्षणभर में विलीन होता देख राज्य-सम्पदा से विरक्त हो गया ॥५०२॥ विषयों के संयोग से जो सुख होता है वह क्षणभंगुर है तथा चौरासी लाख योनियों के संकट में मनुष्य जन्म पाना अत्यन्त दुर्लभ है ॥५०३॥ ऐसा जानकर उसने सहस्रार नामक पुत्र को तो विधिपूर्वक राज्य दिया और स्वयं विद्युत्कुमार के साथ वह महाश्रमण अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु हो गया ॥५०४॥ इस अन्तराल में अशनिवेग के द्वारा नियुक्त महाविद्या और महापराक्रम का धारी निर्घात नाम का विद्याधर लंका का शासन करता था ॥५०५॥ एक दिन किष्किन्ध बलि के समान पातालवर्ती अलंकारपुर नगर से निकलकर वन तथा पर्वतों से सुशोभित पृथिवी मण्डल का धीरे-धीरे अवलोकन कर रहा था । इसी अवसर पर उसे पता चला कि शत्रु शान्त हो चुके हैं । यह, जानकर वह निर्भय हो अपनी श्रीमाला रानी के साथ जिनेन्द्रदेव की वन्दना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर गया ॥५०६-५०७॥ वन्दना कर वापस लौटते समय उसने दक्षिणसमुद्र के तट पर पृथिवी-कर्णतटा नाम की अटवी देखी । यह अटवी देवकुरु के समान सुन्दर थी ॥५०८॥ किष्किन्ध ने, जिसका स्वर वीणा के समान सुखदायी था, जो वक्षःस्थल से सटकर बैठी थी और बायीं भुजा से अपने को पकड़े थी ऐसी रानी श्रीमाला से कहा ॥५०९॥ कि हे देवि! देखो, यह अटवी कितनी सुन्दर है, यहाँ के वृक्ष फूलों से सुशोभित हैं, तथा नदियों के जल की स्वच्छ एवं मन्द गति से ऐसी जान पड़ती है मानो इसने सीमन्त (माँग) ही निकाल रखी हो ॥५१०॥ इसके बीच में यह शरद्ऋतु के मेघ का आकार धारण करनेवाला तथा ऊंची-ऊँची शिखरों से सुशोभित धरणीमौलि नाम का पर्वत सुशोभित हो रहा है ॥५११॥ कुन्द के फूल के समान शुक्ल फेनपटल से मण्डित निर्झरनों से यह देदीप्यमान पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो अट्टहास ही कर रहा हो ॥५१२॥ यह वृक्ष की शाखाओं से आदरपूर्वक पुष्पांजलि बिखेरकर वायुकम्पित वृक्षों के वन से हम दोनों को आता देख आदर से मानो उठ ही रहा है ॥५१३॥ फूलों को सुगन्धि से समृद्ध तथा नासिका को लिप्त करने वाली वायु से यह पर्वत मानो हमारी अगवानी ही कर रहा है तथा झुकते हुए वृक्षों से ऐसा जान पड़ता है मानो हम लोगों को नमस्कार ही कर रहा है ॥५१४॥ ऐसा जान पड़ता है कि आगे जाते हुए मुझे इस पर्वत ने अपने गुणों से मजबूत बाँधकर रोक लिया है इसीलिए तो मैं इसे लाँघकर आगे जानें के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥५१५॥ मैं यहाँ भूमिगोचरियों के अगोचर सुन्दर महल बनवाता हूँ । इस समय चूँकि मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है इसलिए वह आगामी शुभ की सूचना देता है ॥५१६॥ पाताल के बीच में स्थित अलंकारपुर में रहते-रहते मेरा मन खिन्न हो गया है सो यहाँ अवश्य ही प्रीति को प्राप्त होगा ॥५१७॥ प्रिया श्रीमाला ने किष्किन्ध के इस कथन का समर्थन किया तब आश्चर्य से भरा किष्किन्ध मेघसमूह को चीरता हुआ पर्वत पर उतरा ॥५१८॥ समस्त बान्धवों से युक्त, भारी हर्ष को धारण करने वाले राजा किष्किन्ध ने पर्वत के शिखर पर क्षण-भर में स्वर्ण के समान नगर की रचना की ॥५१९॥ जो अपना नाम था यशस्वी किष्किन्ध ने वही नाम उस नगर का रखा । यही कारण है कि वह पृथिवी में आज भी किष्किन्धपुर कहा जाता ॥५२०॥ पहले उस पर्वत का मधु यह नाम संसार में प्रसिद्ध था परन्तु अब किष्किन्धपुर के समागम से उसका नाम भी किष्किन्धगिरि प्रसिद्ध हो गया ॥५२१॥ सम्यग्दर्शन से सहित तथा जिनपूजा में उद्यत रहनेवाला राजा किष्किन्ध उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ चिरकाल तक उस पर्वत पर निवास करता रहा ॥५२२॥ तदनन्तर राजा किष्किन्ध और रानी श्रीमाला के दो पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें बड़े का नाम सूर्यरज और छोटे का नाम यक्षरज था ॥५२३॥ इन दो पुत्रों के सिवाय उनके कमल के समान कोमल अंग को धारण करने वाली सूर्यकमला नाम को पुत्री भी उत्पन्न हुई । वह पुत्री इतनी सुन्दरी थी कि उसने अपनी शोभा के द्वारा समस्त विद्याधरों को बेचैन कर दिया था ॥५२४॥ अथानन्तर मेघपुरनगर में मेरु नाम का विद्याधर राजा राज्य करता था । उसकी मघोनी नाम की रानी से मृगारिदमन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥५२५॥ एक दिन मृगारिदमन अपनी इच्छानुसार भ्रमण कर रहा था कि उसने किष्किन्ध की पुत्री सूर्यकमला को देखा । उसे देख मृगारिदमन इतना उत्कण्ठित हुआ कि वह न तो रात में सुख पाता था और न दिन में ही ॥५२६॥ तदनन्तर मित्रों ने आदर के साथ उसके लिए सूर्यकमला की याचना की और राजा किष्किन्ध ने रानी श्रीमाला के साथ सलाह कर देना स्वीकृत कर लिया ॥५२७॥ ध्वजा पताका आदि से विभूषित, महामनोहर किष्किन्धनगर में विधिपूर्वक मृगारिदमन और सूर्यकमला का विवाह-मंगल पूर्ण हुआ ॥५२८॥ मृगारिदमन सूर्यकमला को विवाहकर जब वापस जा रहा था तब वह कर्ण नामक पर्वत पर ठहरा । वहाँ उसने कर्णकुण्डल नाम का नगर बसाया ॥५२९॥ अलंकारपुर के राजा सुकेश की इन्द्राणी नामक रानी से क्रमपूर्वक तीन महाबलवान् पुत्रों ने जन्म प्राप्त किया ॥५३०॥ उनमें से पहले का नाम माली, मँझले का नाम सुमाली और सबसे छोटे का नाम माल्यवान् था । ये तीनों ही पुत्र परमविज्ञानी तथा गुणरूपी आभूषणों से सहित थे ॥५३१॥ उन कुमारों की क्रीड़ा देवों की क्रीड़ा के समान अद्भुत थी तथा माता-पिता, बन्धुजन और शत्रुओं के भी मन को हरण करती थी ॥५३२॥ सिद्ध हुई विद्याओं से समुत्पन्न पराक्रम के कारण जिनकी क्रियाएँ अत्यन्त उद्धत हो रही थीं ऐसे उन कुमारों को माता-पिता बड़े प्रयत्न से बार-बार मना करते थे कि हे पुत्रों! यदि तुम लोग अपनी बालचपलता के कारण क्रीड़ा करने के लिए किष्किन्ध गिरि जाओ तो दक्षिण समुद्र के समीप कभी नहीं जाना ॥५३३-५३४॥ पराक्रम तथा बाल्य अवस्था के कारण समुत्पन्न कुतूहल की बहुलता से वे पुत्र प्रणाम कर माता-पिता से इसका कारण पूछ थे तो वे यही उत्तर देते थे कि हे पुत्रों! यह बात कहने की नहीं है । एक बार पुत्रों ने बड़े अनुनय विनय के साथ आग्रह कर पूछा तो पिता सुकेश ने उनसे कहा कि हे पुत्रों ! यदि तुम्हें इसका कारण अवश्य ही जानने का प्रयोजन है तो सुनो ॥५३५-५३७॥ बहुत पहले की बात है कि अशनिवेग लंका में शासन करने के लिए निर्घात नामक अत्यन्त क्रूर एवं बलवान् विद्याधर को नियुक्त किया वह लंका नगरी कुल-परम्परा से चली आयी हमारी शुभ नगरी है । वह यद्यपि हमारे लिए प्राणों समान प्रिय थी तो भी बलवान् शत्रु के भय से हमने उसे छोड़ दिया ॥५३८-५३९॥ पाप कर्म में तत्पर शत्रु ने जगह-जगह ऐसे गुप्तचर नियुक्त किये हैं जो सदा हम लोगों के छिद्र खोजने में सावधान रहते हैं ॥५४०॥ उसने जगह-जगह ऐसे यन्त्र बना रखे हैं कि जो आकाशांगण मे क्रीड़ा करते हुए आप लोगों को जानकर मार देते हैं ॥५४१॥ वे यन्त्र अपने सौन्दर्य से प्रलोभन देकर दर्शकों को भी बुलाते हैं और फिर उस तरह नष्ट कर देते हैं कि जिस तरह तपश्चरण के समय होनेवाले प्रमादपूर्ण आचरण, असमर्थ योगी को नष्ट कर देते हैं ॥५४२॥ इस प्रकार पिता का कहा सुन और उनके दुःख का विचारकर माली लम्बी साँस छोड़ने लगा तथा उसकी आँखों से आँसू बहने लगे ॥५४३॥ उसका चित्त क्रोध से भर गया, वह चिरकाल तक गर्व से मन्द-मन्द हँसता रहा और फिर अपनी भुजाओं का युगल देख इस प्रकार गम्भीर स्वर से बोला ॥५४४॥ हे पिताजी! इतने समय यह बात तुमने हम लोगों से क्यों नहीं कही? बड़े आश्चर्य की बात है कि आपने बड़े भारी स्नेह के बहाने हम लोगों को धोखा दिया ॥५४५॥ जो मनुष्य कार्य न कर केवल निष्प्रयोजन गर्जना कर रहे हैं वे लोक में शक्तिशाली होने पर भी महान् अनादर को पाते हैं ॥५४६॥ अथवा रहने दो, यह सब कहने से क्या? है तात! आप फल देखकर ही शान्ति को प्राप्त होंगे । जब तक यह कार्य पूरा नहीं हो जाता है तब तक के लिए मैं यह चोटी खोलकर रखूँगा ॥५४७॥ अथानन्तर अमंगल से भयभीत माता-पिता ने उन्हें वचनों से मना नहीं किया । केवल स्नेहपूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखकर कहा कि हे पुत्रों! जाओ ॥५४८॥ तदनन्तर वे तीनों भाई भवनवासी देवों के समान पाताल से निकल कर शत्रु की ओर चले । उस समय वे तीनों भाई उत्साह से भर रहे थे तथा शस्त्रों से देदीप्यमान हो रहे थे ॥५४९॥ तदनन्तर चंचल शस्त्रों की धारा ही जिसमें लहरों का समूह था ऐसी राक्षसों की सेनारूपी नदी आकाशतल को व्याप्त कर उनके पीछे लग गयी ॥५५०॥ तीनों पुत्र आगे बढ़े जा रहे थे और जिनके हृदय स्नेह से परिपूर्ण थे ऐसे माता-पिता उन्हें जब तक वे नेत्रों से दिखते रहे तब तक मंगलाचार पूर्वक देखते रहे ॥५५१॥ तदनन्तर त्रिकूटाचल की शिखर से उपलक्षित लंकापुरी को उन्होंने गम्भीर दृष्टि से देखकर ऐसा समझा मानो हमने उसे ले ही लिया है ॥५५२॥ जाते-जाते ही उन्होंने कितने ही दैत्य मौत के घाट उतार दिये, कितने ही वश कर लिये और कितने ही स्थान से स्तुत कर दिये ॥५५३॥ शत्रुपक्ष के सामन्त नम्रीभूत होकर सेना में आकर मिलते जाते थे इससे विशालकीर्ति के धारक तीनों ही कुमार एक बड़ी सेना से युक्त हो गये थे ॥५५४॥ युद्ध में निपुण तथा चंचल छत्र की छाया से सूर्य को आच्छादित करनेवाला निर्घात, शत्रुओं का आगमन सुन लंका से बाहर निकला ॥५५५॥ तदनन्तर दोनों सेनाओं में महायुद्ध हुआ । उनका वह महायुद्ध घोड़ों, मदोन्मत्त हाथियों तथा अपरिमित रथों से जीवों को नष्ट करनेवाला था ॥५५६॥ हाथियों के समूह से आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो पृथ्वीमय ही हो, उनके गण्डस्थल से च्युत जल से ऐसा जान पड़ता था मानो जलमय ही हो, उनके कर्णरूपी तालपत्र से उत्पन्न वायु से ऐसा जान पड़ता था मानो वायुरूप ही हो और परस्पर के आघात से उत्पन्न अग्नि से ऐसा जान पड़ता था मानो अग्निरूप ही हो ॥५५७-५५८॥ युद्ध में दीन-हीन अन्य क्षुद्र विद्याधरों के मारने से क्या लाभ है? वह पापी निर्घात कहाँ है? कहाँ है? इस प्रकार प्रेरणा करता हुआ माली आगे बढ़ रहा था ॥५५९॥ अन्त में माली ने निर्घात को देखकर पहले तो उसे तीक्ष्ण बाणों से रथ-रहित किया और फिर तलवार के प्रहार से उसे समाप्त कर दिया ॥५६०॥ निर्घात को मरा जानकर जिनका चित्त भ्रष्ट हो गया था ऐसे दानव विजयार्ध पर्वत पर स्थित अपने-अपने भवनों में चले गये ॥५६१॥ युद्ध से डरने वाले कितने ही दीन-हीन दानव कण्ठ में तलवार लटकाकर शीघ्र ही माली की शरण में पहुँचे ॥५६२॥ तदनन्तर माली आदि तीनों भाइयों ने मंगलमय पदार्थों से सुशोभित लंकानगरी में प्रवेश किया । वहीं माता-पिता आदि इष्ट जनों के साथ समागम को प्राप्त हुए ॥५६३॥ तदनन्तर हेमपुर के राजा हेमविद्याधर की भोगवती रानी से उत्पन्न चन्द्रवती नामक शुभ पुत्री को माली ने विधिपूर्वक विवाहा । चन्द्रवती माली के मन में आनन्द उत्पन्न करने वाली थी तथा स्वभाव से ही चपल मन और इन्द्रियरूपी मृगों को बाँधने के लिए जाल के समान थी ॥५६४-५६५॥ प्रीतिकूटपुर के स्वामी राजा प्रीतिकान्त और रानी प्रीतिमती की पुत्री प्रीति को सुमाली ने प्राप्त किया ॥५६६॥ कनकाभनगर के स्वामी राजा कनक और रानी कनकश्री की पुत्री कनकावली को माल्यवान् ने विवाहा ॥५६७॥ सदा हृदय में निवास करने वाली ये इनकी प्रथम स्त्रियाँ थीं वैसे प्रत्येक की कुछ अधिक एक-एक हजार स्त्रियाँ थीं ॥५६८॥ तदनन्तर विजयार्ध पर्वत की दोनों श्रेणियाँ उनके पराक्रम से वशीभूत हो शेषाक्षत के समान उनकी आज्ञा को हाथ जोड़कर शिर से धारण करने लगीं ॥५६९॥ अन्त में अपने-अपने पदों पर अच्छी तरह आरूढ़ पुत्रों के लिए अपनी-अपनी सम्पदा सौंपकर सुकेश और किष्किन्ध शान्त चित्त हो निर्ग्रन्थ साधु हो गये ॥५७०॥ इस प्रकार प्राय: कितने ही बड़े-बड़े राक्षसवंशी और वानरवंशी राजा विषय सम्बन्धी सुख का उपभोग कर अन्त में संसार के सैकड़ों दोषों को नष्ट करनेवाला जिनेन्द्र प्रणीत मोक्ष मार्ग पाकर, प्रियजनों के गुणोत्पन्न स्नेह रूपी बन्धन से दूर हट अनुपम सुख से सम्पन्न मोक्षस्थान को प्राप्त हुए ॥५७१॥ कितने ही लोगों ने यद्यपि गृहस्थ अवस्था में बहुत भारी पाप किया था तो भी उसे निर्ग्रन्थ साधु हो ध्यान के योग से भस्म कर दिया था और मोक्ष में अपनी बुद्धि लगायी थी । इस प्रकार सम्यक्चारित्र के प्रभाव को जानकर हे भक्त प्राणियों ! शान्ति को प्राप्त होओ, मोह का उच्छेद कर विजयरूपी सूर्य को प्राप्त होओ और अन्त में ज्ञान का राज्य प्राप्त करो ॥५७२॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य प्रोक्त पद्मचरित में वानरवंश का कथन करनेवाला छठा पर्व पूर्ण हुआ ॥6॥ |