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अष्टमं पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में असुर-संगीत नाम का नगर है। वहाँ कान्ति में सूर्य की उपमा धारण करनेवाला प्रबल योद्धा मय नाम का विद्याधर रहता था। वह पृथिवी-तल में दैत्य नाम से प्रसिद्ध था। उसकी हेमवती नाम की स्त्री थी जो स्त्रियों के समस्त गुणों से सहित थी ॥१-२॥

उसकी मन्दोदरी नाम की पुत्री थी। उसके समस्त अवयव सुन्दर थे, उदर कृश था, नेत्र विशाल थे और वह सौन्दर्यरूपी जल की धारा के समान जान पड़ती थी ॥३॥

एक दिन नवयौवन से सम्पूर्ण उस पुत्री को देखकर पिता चिन्ता से व्याकुल हो अपनी स्त्री से बड़े आदर के साथ बोला कि हे प्रिये ! पुत्री मन्‍न्दोदरी नवयौवन को प्राप्त हो चुकी है। इसे देख मेरी इस विषय की मानसिक चिन्ता कई गुणी बढ़ गई है ॥४-५॥

किसी ने ठीक ही कहा है कि सन्तापरूपी अग्नि को उत्पन्न करनेवाले कन्याओं के यौवनारम्भ में माता-पिता अन्य परिजनों के साथ ही साथ ईन्धनपने को प्राप्त होते हैं ॥६॥

इसीलिए तो कन्या जन्म के बाद दुःख से आकुलित है चित्त जिनका, ऐसे विद्वग्जन इसके लिए नेत्ररूपी अंजलि के द्वारा जल दिया करते हैं ॥७॥

अहो, जिन्हें अपरिचित जन आकर ले जाते हैं ऐसे अपने शरीर से समुत्पन्न सन्तान ( पुत्री) के साथ जो वियोग होता है वह मर्म को भेदन कर देता है ॥८॥

इसलिए हे प्रिये ! कहो, यह तारुण्यवती पुत्री हम किसके लिए देवें । गुण, कुल और कान्ति से कौन वर इसके अनुरूप होगा ॥९॥

पति के ऐसा कहने पर रानी हेमवती ने कहा कि माताएँ तो कन्याओं के शरीर की रक्षा करने में ही उपयुक्त होती हैं और उनके दान करने में पिता उपयुक्त होते हैं ॥१०॥

जहां आपके लिए कन्या देना रुचता हो वहीं मेरे लिए भी रुचेगा क्‍योंकि कुलांगनाएँ पति के अभिप्राय के अनुसार ही चलती हैं ॥११॥

रानी के ऐसा कहने पर राजा ने मन्त्रियों के साथ सलाह की तो किसी मन्त्री ने किसी विद्याधर का उल्लेख किया ॥१२॥

तदनन्तर किसी दूसरे मन्त्री ने कहा कि इसके लिए इन्द्र विद्याधर ठीक होगा क्‍योंकि वह समस्त विद्याधरों का अधिपति है और सब विद्याधर उसके विरुद्ध जाने में भयभीत भी रहेंगे ॥१३॥

तब राजा मय ने स्वयं कहा कि मैं आप लोगों के मन की बात तो नहीं जानता पर मुझे जिसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हुई हैं ऐसा प्रसिद्ध दशानन अच्छा लगता है ॥१४॥

निश्चित ही वह जगत् में कोई अद्भुत कार्य करनेवाला होगा अन्यथा उसे छोटी ही उमर में शीघ्र ही अनेक विद्याएँ सिद्ध कैसे हो जातीं ॥१५॥

तदनन्तर मन्त्र करने में निपुण मारीच आदि समस्त प्रमुख मन्त्रियों ने बड़े हर्ष के साथ राजा मय को बात का समर्थन किया ॥१६॥

तदनन्तर महाबलवान् मारीच आदि मन्त्रियों और भाइयों ने राजा मय के मन को शीघ्रता से युक्त किया अर्थात् प्रेरणा को कि इस कार्य को शीघ्र ही सम्पन्न कर लेना चाहिए ॥१७॥

तब राजा मय ने भी विचार किया कि 'समय बीत जाने से कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है' -- ऐसा विचारकर वह किसी शुभ दिन, जबकि सौम्य ग्रह सामने स्थित थे, क्रूर ग्रह विमुख थे और लग्न मंगलकारी थी, कन्या के साथ पुष्पान्तक विमान में बैठकर चला । प्रस्थान करते समय तुरही का मधुर शब्द हो रहा था और स्त्रियाँ मंगलगीत गा रही थीं । बीच-बीच में जब तुरही का शब्द बन्द होता था तो स्त्रियों के मंगल गीतों से आकाश ऐसा गूँज उठता था मानो शब्दमय ही हो गया हो ॥१८-२०॥

दशानन भीम वन में है, यह समाचार, पुष्पान्तक विमान से उतरकर जो जवान आगे गये थे उन्होंने लौटकर राजा मय से कहा । तब राजा मय उस देश के जानकार गुप्तचरों से पता चलाकर भीम वन की ओर चला । वहाँ जाकर उसने काली घटा के समान वह वन देखा ॥२१-२२॥

दशानन के खास स्थान का पता बताते हुए किसी गुप्तचर ने कहा कि हे राजन्! जिस प्रकार सम्मेदाचल और कैलास पर्वत के बीच में मन्दारुण नाम का वन है उसी प्रकार वलाहक और सन्ध्यावते नामक पर्वतों के बीच में यह उत्तम वन देखिए । देखिए कि यह वन स्निग्ध अन्धकार की राशि के समान कितना सुन्दर मालूम होता है और यहाँ कितने ऊंचे तथा सघन वृक्ष लग रहे हैं ॥२३-२४॥

इस वन के मध्य में शंख के समान सफेद बड़े-बड़े घरों से सुशोभित जो वह नगर दिखाई दे रहा है वह शरद् ऋतु के बादलों के समूह के समान कितना भला जान पड़ता है? ॥२५॥

उसी नगर के समीप देखो एक बहुत ऊँचा महल दिखाई दे रहा है । ऐसा महल कि जो अपने शिखरों के अग्रभाग से मानो सौधर्म स्वर्ग को ही छूना चाहता है ॥२६॥

राजा मय की सेना आकाश से उतरकर उसी महल के समीप यथायोग्य विश्राम करने लगी ॥२७॥

तदनन्तर दैत्यों का अधिपति राजा मय तुरही आदि वादित्र का आडम्बर छोड़कर तथा विनीत मनुष्यों के योग्य वेष-भूषा धारणकर कुछ आप्त जनों के साथ उस महल के समीप पहुँचा । कन्या मन्दोदरी उसके साथ थी । महल को देखते ही राजा मय का जहाँ अहंकार छूटा वहाँ उसे आश्चर्य भी कम नहीं हुआ । तदनन्तर द्वारपाल के द्वारा समाचार भेज कर वह महल के ऊपर चढा ॥२८-२९॥

सावधानी से पैर रखता हुआ जब वह क्रम से सातवें खण्ड में पहुँचा तब वहाँ उसने मूर्तिधारिणी वनदेवी के समान उत्तम कन्या देखी ॥३०॥

वह कन्या दशानन की बहन चन्द्रनखा थी सो उसने सबका अतिथि-सत्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि कुल के जानकार मनुष्य योग्य उपचार से कभी नहीं चूकते ॥३१॥

तदनन्तर जब मय सुखकारी आसन पर बैठ गया और चन्द्रनखा भी कन्याओं के योग्य आसन पर बैठ चुकी तब विनय दिखाती हुई उस कन्या से मय ने बड़ी नम्रता से पूछा ॥३२॥

कि हे पुत्री! तू कौन है? और किस कारण से इस भयावह वन में रहती है तथा यह बड़ा भारी महल किसका है? ॥३३॥

इस महल में अकेली रहते हुए तुझे कैसे धैर्य उत्पन्न होता है । तेरा यह उत्कृष्ट शरीर पीड़ा का पात्र तो किसी तरह नहीं हो सकता ॥३४॥

स्त्रियों के लज्जा स्वभाव से ही होती है इसलिए मय के इस प्रकार पूछने पर उस सती कन्या का मुख लज्जा से नत हो गया । साथ ही वन की हरिणी के समान भोली थी ही अत: धीरे-धीरे इस प्रकार बोली कि मेरा भाई दशानन षष्ठोपवास अर्थात् तेला के द्वारा इस चन्द्रहास खड्ग को सिद्ध कर जिनेन्द्र भगवान् को वन्दना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर गया है । दशानन मुझे इस खड्ग की रक्षा करने के लिए कह गया है सो हे आर्य! मैं चन्द्रप्रभ भगवान से सुशोभित इस चैत्यालय में स्थित हूँ । यदि आप लोग दशानन को देखने के लिए आये है तो क्षण-मात्र यहीं पर विश्राम कीजिए ॥३५-३८॥

जबतक उन दोनों में इस प्रकार का मधुर आलाप चल रहा था तब तक आकाश तल मे तेज का मण्डल दिखाई देने लगा ॥३९॥

उसी समय कन्या ने कहा कि जान पड़ता है अपनी प्रभा से सूर्य को निष्प्रभ करता हुआ दशानन आ गया है ॥४०॥

बिजली के सहित मेघ-राशि के समान उस दशानन को निकटवर्ती देख मय हड़बड़ाकर आसन से उठ खड़ा हुआ ॥४१॥

यथायोग्य आचार प्रदर्शित करने के बाद सब पुन: आसनों पर आरूढ़ हुए । तलवार की कान्ति से जिनके शरीर श्यामल हो रहे थे ऐसे मारीच, वज्र मध्य, वज्रनेत्र, नभस्तडित्, उग्रनक्र, मरुद्वक्त्र, मेधावी, सारस और शुक आदि मय के मन्त्री लोग दशानन को देखकर परम सन्तोष को प्राप्त हुए और निम्नलिखित मंगल वचन मय से कहने लगे कि हे दैत्यराज! आपकी बुद्धि हम सबसे अधिक श्रेष्‍ठ है क्योंकि आपने ही इस पुरुषोत्तम को हृदय में स्थान दिया था । अर्थात् हम लोगों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया जबकि आपने इसका अपने मन में अच्छी तरह विचार रखा ॥४२-४५॥

मय से इतना कहकर उन मन्त्रियों ने दशानन से कहा कि अहो तुम्हारा उज्जवल रूप आश्चर्य कारी है, तुम्हारा विनय का भार अद्भुत है और तुम्हारा पराक्रम भी अतिशय से सहित है ॥४६॥

यह दैत्यों का राजा दक्षिण श्रेणी के असुर गीत नामा नगर का रहनेवाला है तथा संसार में मय नाम से प्रसिद्ध है । यह आपके गुणों से आकर्षित होकर यहाँ आया है सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष किसे दर्शन के लिए उत्कण्ठित नहीं करते? ॥४७-४८॥

तब रत्नश्रवा के पुत्र दशानन ने कहा कि आपका स्वागत है । आचार्य कहते हैं कि जो मधुर भाषण है वह सत्पुरुषों की कुलविद्या है ॥४९॥

दैत्यों के अधिपति उत्तम पुरुष हैं जिन्होंने कि हमें प्रेमपूर्वक दर्शन दिये । मैं चाहता हूँ कि ये उचित आदेश देकर इस जन को अनुगृहीत करें ॥५०॥

तदनन्तर मय ने कहा कि हे तात! तुम्हें यह कहना उचित है क्योंकि जो उत्तम पुरुष हैं वे विरुद्ध आचरण कभी नहीं करते ॥५१॥

जिनका चित्त कौतुक से व्याप्त था ऐसे मय के मन्त्रियों ने भी दशानन के दर्शन किये और आकुलता से भरे तथा बार-बार कहे हुए उत्तम वचनों से उसे आनन्दित किया ॥५२॥

तदनन्तर अच्छी भावना से युक्त दशानन ने चन्द्रप्रभ जिनालय के महा मनोहर गर्भगृह में प्रवेश किया । वहाँ उसने प्रधान रूप से जिनेन्द्र भगवान की बड़ी भारी पूजा को ॥५३॥

रोमांच उत्पन्न करने वाले अनेक प्रकार के स्तवन पढ़े, हाथ जोड़कर चूड़ामणि से सुशोभित मस्तक पर लगाये, और ललाटतट तथा घुटनों से पृथ्वीतल का स्पर्श कर जैनेन्द्र भगवान के पवित्र चरणों को देर तक नमस्कार किया ॥५४-५५॥

तदनन्तर परम अभ्युदय को धारण करनेवाला दशानन जिनमन्दिर से बाहर निकलकर दैत्यराज मय के साथ आसन पर सुख से बैठा ॥५६॥

वार्तालाप के प्रकरण में जब वह विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले विद्याधरों का समाचार पूछ रहा था तब मन्दोदरी उसके दृष्टिगोचर हुई ॥५७॥

मन्दोदरी सुन्दर लक्षणों से पूर्ण थी, सौभाग्य रूपी मणियों की मानो भूमि थी, उसके चरण-कमलों का पृष्ठ भाग छोटे किन्तु स्निग्ध नखों से ऊपर को उठा हुआ जान पड़ता था ॥५८॥

वह जिन ऊरुओं से सुशोभित थी वे केले के स्तम्भ के समान थे, कामदेव के तरकस के समान जान पड़ते थे अथवा सौन्दर्य रूपी जल के प्रवाह के समान मालूम होते थे ॥५९॥

वह जिस नितम्ब को धारण कर रही थी वह योग्य विस्तार से सहित था, ऊँचा उठा था, कामदेव के सभामण्डप के समान जान पड़ता था और कुछ ऊँचे उठे हुए कूल्हों से मनोहर था ॥६०॥

उसकी कमर वज्र के समान मजबूत अथवा हीरा के समान देदीप्यमान थी, लज्जा के कारण उसका मुख नीचे की ओर था, स्वर्ण कलश के समान उसके स्तन थे, और शिरीष के फूलों की माला के समान कोमल उसकी दोनों भुजाएँ थीं ॥६१॥

उसकी गरदन शंख जैसी रेखाओं से सुशोभित तथा कुछ नीचे की ओर झुकी थी, मुख पूर्णचन्द्रमा के समान था और नाक तो ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रों की कान्तिरूपी नदी के बीच में पुल ही बांध दिया गया हो ॥६२॥

उसके स्वच्छ कपोल ओठों की लाल-लाल कान्ति से व्याप्त थे तथा उसकी आवाज वीणा, भ्रमर और उन्मत्त कोयल की आवाज के समान थी ॥६३॥

उसकी दृष्टि कामदेव की दूती के समान थी और उससे वह दिशाओं में नीलकमल, लालकमल तथा सफेद कमलों का समूह ही मानो बिखेरती थी ॥६४॥

उसका ललाट अष्टमी के चन्द्रमा के समान था, कान सुन्दर थे, तथा चिकने, काले और बारीक बाल थे ॥६५॥

वह मुख तथा चरणों की शोभा से चलती-फिरती कमलिनी को, हाथों की शोभा से हस्तिनी को तथा गति और विभ्रम के द्वारा क्रमश: हंसी और सिंहनी को जीत रही थी ॥६६॥

विद्याओं ने दशानन का आलिंगन प्राप्त कर लिया और मैं ऐसी ही रह गयी इस प्रकार ईर्ष्या को धारण करती हुई लक्ष्मी ही मानो कमलरूपी घर को छोड़कर मन्दोदरी के बहाने आ गयी थी ॥६७॥

कर्मरूपी विधाता ने संसार के समस्त सौन्दर्य को इकहरा कर उसके बहाने स्त्री-विषयक अपूर्व सृष्टि ही मानो रची थी ॥६८॥

वह सूर्य की किरणों का स्पर्श तथा राहु ग्रह के आक्रमण के भय से चन्द्रमा को छोड़कर पृथ्वी पर आयी हुई कान्ति के समान जान पड़ती थी ॥६९॥

उसने अपने सीमन्त (माँग) में जो मणि पहन रखा था उसकी कान्ति का समूह उसके मुख पर घूँघट का काम देता था । वह जिस हार से सुशोभित थी वह मुख के सौन्दर्य के प्रवाह के समान जान पड़ता था ॥७०॥

उसने अपने कानों में मोती जड़ित बालियाँ पहन रखी थीं सो उनकी प्रभा से ऐसी जान पड़ती थी मानो सफेद सिन्दुवार (निगुंण्डी) की मंजरी ही धारण कर रही हो ॥७१॥

चूँकि जघनस्थल काम के दर्पजन्य क्षोभ को सहन नहीं करता था इसलिए ही मानो उसे मणि समूह से सुशोभित कटि सूत्र से वेष्टित कर रखा था ॥७२॥

वह मन्दोदरी अत्यन्त सुन्दर थी फिर भी दशानन उसे देख चिन्ता से दुःखी हो गया सो ठीक ही है क्योंकि धैर्यवान् मनुष्य भी प्रायः विषयों के अधीन हो जाते हैं ॥७३॥

मन्दोदरी माधुर्य से युक्त थी इसलिए उस पर पड़ी दशानन को दृष्टि स्वयं भी मानो मधु से मत्त हो गयी थी, यही कारण था कि वह उस पर से हटा लेने पर भी नशा में झूमती थी ॥७४॥

दशानन विचारने लगा कि यह उत्तम स्त्री कौन हो सकती है? क्या ह्री, श्री, लक्ष्मी, घृति, कीर्ति अथवा सरस्वती है? ॥७५॥

यह विवाहित है या अविवाहित? अथवा किसी के द्वारा की हुई माया है? अहो, यह तो समस्त स्त्रियों की शिरोधार्य सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है ॥७६॥

यदि मैं इन्द्रियों को हरने वाली इस कन्या को प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म कृतकृत्य हो जाये अन्यथा तृण के समान तुच्छ है ही ॥७७॥

इस प्रकार विचार करते हुए दशानन से अभिप्राय के जाननेवाले मय ने पुत्री मन्दोदरी को पास ले जाकर कहा कि इसके स्वामी आप हैं ॥७८॥

मय के इस वचन से दशानन को इतना आनन्द हुआ मानो तत्क्षण अमृत से ही सींचा गया हो । उसके सारे शरीर में रोमांच उठ आये मानो सन्तोष के अंकुर ही उत्पन्न हुए हों ॥७९॥

तदनन्तर जहाँ क्षणभर में ही समस्त वस्तुओं का समागम हो गया था और कुटुम्बीजन जहाँ आनन्द से फूल रहे थे ऐसा इन दोनों का पाणिग्रहण-मंगल सम्पन्न हुआ ॥८०॥

तदनन्तर दशानन कृतकृत्य होता हुआ मन्दोदरी के साथ स्वयंप्रभ नगर गया । वह मन्दोदरी को पाकर ऐसा मान रहा था मानो समस्त संसार की लक्ष्मी ही मेरे हाथ लग गयी है ॥८१॥

पुत्री को चिन्ता रूपी शल्य के निकल जाने से जिसे हर्ष हो रहा था तथा साथ ही उसके वियोग से जिसे शोक हो रहा था ऐसा राजा मय भी अपने योग्य स्थान में जाकर रहने लगा ॥८२॥

जिसके हाव-भाव सुन्दर थे तथा जिसने अपने गुणों से पति का मन आकृष्ट कर लिया था ऐसी मन्दोदरी ने क्रम से हजारों देवियों में प्रधानता प्राप्त कर ली ॥८३॥

समस्त इन्द्रियों को प्रिय लगने वाली उस रानी मन्दोदरी के साथ दशानन, इच्छित स्थानों में इन्द्राणी के साथ इन्द्र के समान क्रीड़ा करने लगा ॥८४॥

उत्कृष्ट कान्ति से सहित दशानन अपनी विद्याओं का प्रभाव जानने के लिए निम्नांकित बहुत सारे कार्य करता था ॥८५॥

वह एक होकर भी अनेक रूप धरकर समस्त स्त्रियों के साथ समागम करता था । कभी सूर्य के समान सन्ताप उत्पन्न करता था तो कभी चन्द्रमा के समान चाँदनी छोड़ने लगता था ॥८६॥ कभी अग्नि के समान ज्वालाएँ छोड़ता था तो कभी मेघ के समान वर्षा करने लगता था । कभी वायु के समान बड़े-बड़े पहाड़ चला देता था तो कभी इन्द्र-जैसा प्रभाव जमाता था ॥८७॥ कभी समुद्र बन जाता था, कभी पर्वत हो जाता था, कभी मदोन्मत्त हाथी बन जाता था और कभी महा वेगशाली घोड़ा हो जाता था ॥८८॥ वह क्षण-भर में पास आ जाता था, क्षण-भर में दूर पहुँच जाता था, क्षण-भर में दृश्य हो जाता था, क्षण-भर में अदृश्य हो जाता था, क्षण-भर में महान् हो जाता था, क्षण-भर में सूक्ष्म हो जाता था, क्षण-भर में भयंकर दिखाई देने लगता था और क्षण भर में भयंकर नहीं रहता था ॥८९॥

इस प्रकार रमण करता हुआ वह एक बार मेघरव नामक पर्वत पर गया और वहाँ स्वच्छ जल से भरी वापिका के पास पहुँचा ॥८२॥ उस वापिका में कुमुद, नील-कमल, लाल-कमल, सफेद-कमल तथा अन्यान्य प्रकार के कमल फूल रहे थे और उसके किनारे पर क्रौंच, हंस, चकवा तथा सारस आदि पक्षी घूम रहे थे ॥९१॥ उसके तट हरी-हरी कोमल घास-रूपी वस्त्र से आच्छादित थे, सीढ़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं और उसका जल तो ऐसा जान पड़ता था, मानो सूर्य की किरणों से पिघलकर आकाश ही उसमें भर गया हो ॥९२॥अर्जुन (कोहा) आदि बड़े-बड़े ऊँचे वृक्षों से उसका तट व्याप्त था । जब कभी उसमें मछलियों के समूह ऊपर को उछलते थे तब उनसे जल के छींटे ऊपर उड़ने लगते थे ॥९३॥ अत्यन्त भंगुर अर्थात् जल्दी-जल्दी उत्पन्न होने और मिटने वाली तरंगों से वह ऐसी जान पड़ती थी मानो भौंहें ही चला रही हो तथा पक्षियों के मधुर शब्द से ऐसी मालूम होती थी मानो वार्तालाप ही कर रही हो ॥९४॥ उस वापिका पर परम शोभा को धारण करने वाली छह हजार कन्याएँ क्रीड़ा में लीन थीं, सो दशानन ने उन सबको देखा ॥९५॥ उनमें से कुछ कन्याएँ तो दूर तक उड़ने वाले जल के फव्वारे से क्रीड़ा कर रही थीं और कुछ अपराध करने वाली सखियों से दूर हटकर अकेली-अकेली ही घूम रही थी ॥९६॥ कोई एक कन्या शेवाल से सहित कमलों के समूह में बैठकर दाँत दिखा रही थी और उसकी सखियों के लिए कमल की आशंका उत्पन्न कर रही थी ॥९७॥ कोई एक कन्या पानी को हथेली पर रख दूसरे हाथ की हथेली से उसे पीट रही थी और उससे मृदंग जैसा शब्द निकल रहा था । इसके सिवाय कोई एक कन्या भ्रमरों के समान गाना गा रही थी । तदनन्तर वे सबकी सब कन्याएँ एक साथ दशानन को देखकर जल-क्रीड़ा भूल गयीं और आश्चर्य से चकित रह गयीं ॥९८-९९॥ दशानन क्रीड़ा करने की इच्छा से उनके बीच में चला गया तथा वे कन्याएँ भी उसके साथ क्रीड़ा करने के लिए बड़े हर्ष से तैयार हो गयीं ॥१००॥ क्रीड़ा करते-करते ही वे सब कन्याएँ एक साथ काम के बाणों से आहत (घायल) हो गयीं और दशानन पर उनकी दृष्टि ऐसी बँधी कि वह फिर अन्यत्र संचार नहीं कर सकी ॥१०१॥ उस अपूर्व समागम के कारण उन कन्याओं का कामरूपी रस लज्जा से मिश्रित हो रहा था अत: उनका मन दोला पर आरूढ़ हुए के समान अत्यन्त आकुल हो रहा था ॥१०२॥ अब उन कन्याओं में जो मुख्य हैं उनके नाम सुनो । राजा सुर सुन्दर से सर्वश्री नाम की स्त्री में उत्पन्न हुई पद्‌मावती नाम को शुभ कन्या थी । उसके नेत्र किसी बड़े नीलकमल की कलिका के समान थे ॥१०३॥ राजा बुध की मनोवेगा रानी से उत्पन्न अशोकलता नाम की कन्या थी जो नूतन अशोक लता के समान थी ॥१०४॥ राजा कनक से संख्या नामक रानी से उत्पन्न हुई विद्युतप्रभा नाम की श्रेष्ठ कन्या थी जो इतनी सुन्दरी थी कि अपनी प्रभा से बिजली को भी लज्जा प्राप्त करा रही थी ॥१०५॥ ये कन्याएँ महाकुल में उत्पन्न हुई थीं और शोभा से उन सबमें श्रेष्‍ठ थीं । विभूति से तो ऐसी जान पड़ती थीं मानो तीनों लोक की सुन्दरता ही रूप धरकर इकट्ठी हुई हो ॥१०६॥ उक्त तीनों कन्याएँ अन्य समस्त कन्याओं के साथ दशानन के समीप आयीं सो ठीक ही है क्योंकि लज्जा तभी तक सही जाती है जब तक कि काम की वेदना असह्य न हो उठे ॥१०७॥ तदनन्तर किसी प्रकार की शंका से रहित दशानन ने उन सब कन्याओं को गन्धर्व विधि से उस प्रकार विवाह लिया कि जिस प्रकार चन्द्रमा ताराओं के समूह को विवाह लेता है ॥१०८॥

तदनन्तर 'मैं पहले पहुंचूं, मैं पहले पहुंचूँ' इस प्रकार परस्पर में होड़ लगाकर वे कन्याएँ दशानन के साथ पुन:क्रीड़ा करने लगीं ॥१०९॥ जो कन्या दशानन के साथ क्रीड़ा करती थी वही भली मालूम होती थी सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमा से रहित ताराओं की क्या शोभा है? ॥११०॥ तदनन्तर जो कंचुक की इन कन्याओं के साथ वापिका पर आये थे उन्होंने शीघ्र ही जाकर कन्याओं के पिता से दशानन का यह वृत्तान्त कह सुनाया ॥१११॥ तब कन्याओं के पिता ने दशानन को नष्ट करने के लिए ऐसे क्रूर पुरुष भेजे कि जो क्रोधवश ओठों को डंस रहे थे तथा बद्ध भौंहों के अग्रभाग से भयानक मालूम होते थे ॥११२॥ वे सब एक ही साथ अनेक प्रकार के शस्त्र चला रहे थे पर दशानन ने उन्हें भौंह उठाते ही जीत लिया ॥११३॥ तदनन्तर जिनका सारा शरीर भय से कांप रहा था तथा जिनके हाथ से शस्त्र छूट गये थे ऐसे वे सब पुरुष राजा सुरसुन्दर के पास जाकर कहने लगे ॥११४॥ कि हे नाथ! चाहे हमारा जीवन हर लो, चाहे हमारे हाथ-पैर तथा गरदन काट लो पर हम उस पुरुष को नष्ट करने में समर्थ नहीं है ॥११५॥ इन्द्र के समान सुन्दर तथा कान्ति से चन्द्रमा की तुलना करनेवाला कोई एक धीर-वीर मनुष्य कन्याओं के बीच में बैठा हुआ सुशोभित हो रहा है ॥११६॥ सो जब वह क्रुद्ध होता है तब उसकी दृष्टि को इन्द्र आदि देव भी सहन नहीं कर सकते फिर हमारे जैसे क्षुद्र प्राणियों की तो बात ही क्या है ? ॥११७॥ रथनूपुर नगर के राजा इन्द्र आदि बहुत से उत्तम पुरुष हमने देखे है पर यह उन सबमें परम आदर को प्राप्त है ॥११८॥

यह सुनकर, बहुत भारी क्रोध से जिसका मुंह लाल हो रहा था ऐसा राजा सुरसुन्दर, राजा कनक और बुध के साथ तैयार होकर बाहर निकले ॥११९॥ इनके सिवाय और भी बहुत से शूरवीर विद्याधरों के अधिपति शस्त्रों की किरणों से आकाश को देदीप्यमान करते हुए बाहर निकले ॥१२०॥ तदनन्तर उन्हें आता देख, जिनका मन भय से व्याकुल हो रहा था ऐसी वे विद्याधर कन्याएँ दशानन से बोली कि हे नाथ! आप हमारे निमित्त से अत्यन्त संशय को प्राप्त हुए हैं । यथार्थ में हम सब पुण्यहीन तथा शुभ लक्षणों से रहित हैं ॥१२१-१२२॥ हे नाथ ! उठो और किसी की शरण में जाओ । हम लोगों पर प्रसन्न होओ और शीघ्र ही आकाश में उड़कर अपने दुर्लभ प्राणों की रक्षा करो ॥१२३॥ अथवा ये क्रूर पुरुष जब तक आपका शरीर नहीं देख लेते हैं उसके पहले ही इस जिन-मन्दिर में छिपकर बैठ रहो ॥१२४॥ कन्याओं के यह दीन वचन सुनकर तथा सेना को निकट देख दशानन ने अपने कुमुद के समान सफेद नेत्र कमल के समान लाल कर लिये ॥१२५॥ उसने कन्याओं से कहा कि निश्चय ही आप हमारा पराक्रम नहीं जानती हो इसलिए ऐसा कह रही हो । जरा सोचो तो सही, बहुत से कौए एक साथ मिलकर भी गरुड़ का क्या कर सकते हैं? ॥१२६॥ जिसकी सफेद जटाएँ फहरा रही हैं ऐसा अकेला सिंह का बालक क्या मदोन्मत्त हाथियों के झुण्ड को नष्ट नहीं कर देता ? ॥१२७॥ दशानन के वीरता भरे वचन सुन उन कन्याओं ने फिर कहा कि हे नाथ! यदि आप ऐसा मानते हैं तो हमारे पिता, भाई तथा कुटुम्बीजनों को रक्षा कीजिए, अर्थात् युद्ध में उन्हें नहीं मारिए ॥१२८॥ 'हे प्रिया जनों ! ऐसा ही होगा, तुम सब भयभीत न होओ' इस प्रकार दशानन जब तक उन कन्याओं को सान्तवना देता है कि तब तक वह सेना आ पहुँची ॥१२९॥ तदनन्तर क्षण-भर में विद्या निर्मित विमान पर आरूढ़ होकर रावण आकाश में जा पहुँचा और दाँतों से ओठ चबाने लगा ॥१३०॥ दशानन के वे ही सब अवयव थे पर युद्ध रूपी महोत्सव को पाकर इतने अधिक फूल गये और रोमांचों से कर्कश हो गये कि आकाश में बड़ी कठिनाई से समा सके ॥१३१॥ तदनन्तर जिसप्रकार मेघ किसी पर्वत पर बड़ी मोटी जल की धाराएँ छोड़ते हैं उसी प्रकार सब योद्धा दशानन के ऊपर शस्त्रों के समूह छोड़ने लगे ॥१३२॥ तब दशानन ने शिलाएँ वर्षाना शुरू किया । उसने कितनी ही शिलाओं से तो शत्रुओं के शस्त्र समूह को रोका और कितनी ही क्रियाओं से शत्रु-समूह को भयभीत किया ॥१३३॥ इन बेचारे दीन-हीन विद्याधरों को मारने से मुझे क्या लाभ है? ऐसा विचारकर उसने सुरसुन्दर, कनक और बुध इन तीन प्रधान विद्याधरों को अपनी दृष्टि का विषय बनाया अर्थात् उनकी ओर देखा ॥१३४॥ तदनन्तर उसने तामस शस्त्र से मोहित कर उन्हें निश्चेष्ट बना दिया और नागपाश में बाँधकर तीनों को तीन कन्याओं के सामने रख दिया ॥१३५॥ तब कन्याओं ने उन्हें छुडवाकर उनका सत्कार कराया और तुम्हें शूरवीर वर प्राप्त हुआ है इस समाचार से उन्हें हर्षित भी किया ॥१३६॥ तदनन्तर उन्होंने दशानन और उन कन्याओं का विधिपूर्वक पुन: पाणिग्रहण किया । इस उपलक्ष्‍य में तीन दिन तक विद्या जनित महोत्सव होते रहे ॥१३७॥ तत्पश्चात् ये सब दशानन की अनुमति लेकर अपने-अपने घर चले गये और दशानन भी मन्दोदरी के गुणों से आकृष्ट हुआ स्वयंप्रभ नगर चला गया ॥१३८॥

तदनन्तर श्रेष्‍ठ कान्ति से युक्त दशानन को अनेक स्त्रियों सहित आया देख, बान्धवजन परम हर्ष को प्राप्त हुए । हर्षातिरेक से उनके नेत्र विस्तृत हो गये ॥१३९॥ भानुकर्ण और विभीषण तथा अन्य मित्र और इष्टजन दूर से ही उसे देख अगवानी करने के लिए नगर से बाहर निकले ॥१४०॥ उन सबसे घिरा दशानन, स्वयंप्रभ नगर में प्रविष्ट हो मनचाही क्रीड़ा करने लगा और भानुकर्ण-विभीषण आदि बन्धुजन भी उत्तम सुख को प्राप्त हुए ॥१४१॥ अथानन्तर कुम्भपुर नगर में राजा महोदर की सुरूपाक्षी नामा स्त्री से उत्पन्न तडिन्माला नाम की कन्या थी सो भानुकर्ण ने बड़ी प्रसन्नता से प्राप्त की। सुन्दर हाव-भाव दिखाने वाली तडिन्माला के साथ भानुकर्ण रतिरूपी सागर में निमग्न हो गया ॥१४२-१४३॥ एक बार कुम्भपुर नगर पर किसी प्रबल शत्रु ने आक्रमण कर हल्ला मचाया तब श्वसुर के स्नेह से भानुकर्ण के कान कुम्भपुर पर पड़े अर्थात् वहाँ के दुःख भरे शब्द इसने सुने तब से संसार में इसका कुम्भकर्ण नाम प्रसिद्ध हुआ । इसकी बुद्धि सदा धर्म में आसक्त रहती थी, यह शूरवीर था तथा कलाओं में निपुण था ॥१४४-१४५॥ दुष्टजनों ने इसके विषय में अन्यथा ही निरूपण किया है । वे कहते हैं कि यह मांस और खून का भोजन कर जीवित रहता था तथा छह माह की निद्रा लेता था सो इसका आहार तो इच्छानुसार परम पवित्र मधुर और सुगन्धित होता था । प्रथम ही अतिथियों को सन्तुष्ट कर बन्धुजनों के साथ आहार करता था ॥१४६-१४७॥ सन्ध्या-काल शयन करने का और प्रातःकाल उठने का समय है सो भानुकर्ण इसके बीच में ही निद्रा लेता था । इसका अन्य समय धार्मिक-कार्यों में ही व्यतीत होता था ॥१४८॥ जो परमार्थ ज्ञान से रहित पापी मनुष्य, सत्पुरुषों का अन्यथा वर्णन करते हैं वे दुर्गति में जानेवाले हैं । ऐसे लोगों को धिक्कार है ॥१४९॥

अथानन्तर दक्षिण श्रेणी में ज्योतिप्रभ नाम का नगर है । वहाँ विशुद्ध कमल राजा राज्य करता था जो मय का महामित्र था ॥१५०॥ उसकी नन्दनमाला नाम की स्त्री से राजीवसरसी नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी वह विभीषण को प्राप्त हुई ॥१५१॥ देवों के समान उत्कृष्ट आकार को धारण करनेवाला बुद्धिमान् लक्ष्मी के समान सुन्दरी उस राजीवसरसी स्त्री के साथ क्रीड़ा करता हुआ तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ ॥१५२॥

तदनन्तर समय पाकर मन्दोदरी ने गर्भ धारण किया । उस समय उसके चित्त में जो दोहला उत्पन्न होते थे उनकी पूर्ति तत्काल की जाती थी । उसके हाव-भाव भी मन को हरण करने वाले थे ॥१५३॥ राजा मय पुत्री को अपने घर ले आया वहाँ उसने उस उत्तम बालक को जन्म दिया जो समस्त पृथ्वीतल में इन्द्रजित् नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१५४॥ लोगों को आनन्दित करनेवाला इन्द्रजित् अपने नाना के घर ही वृद्धि को प्राप्त हुआ । वहाँ वह सिंह के बालक के समान उत्तम क्रीड़ा करता हुआ सुख से रहता था ॥१५५॥

तदनन्तर मन्दोदरी पुत्र के साथ अपने भर्त्ता दशानन के पास लायी गयी सो अपने तथा पुत्र के वियोग से वह पिता को दुःख पहुँचाने वाली हुई ॥१५६॥ दशानन पुत्र का मुख देख परम आनन्द को प्राप्त हुआ । यथार्थ में पुत्र से बढ़कर प्रीति का और दूसरा स्थान नहीं है ॥१५७॥ कालक्रम से मन्दोदरी ने फिर गर्भ धारण किया सो पुन: पिता के समीप भेजी गयी । अब की बार वहाँ उसने सुखपूर्वक मेघवाहन नामक पुत्र को जन्म दिया ॥१५८॥ तदनन्तर वह पुन: पति के पास आयी और पति के मन को वश कर इच्छानुसार भोगरूपी सागर में निमग्न हो गयी ॥१५९॥ सुन्दर चेष्टाओं के धारी दोनों बालक आत्मीयजनों का आनन्द बढ़ाते हुए तरुण अवस्था को प्राप्त हुए । उस समय उनके नेत्र किसी महावृषभ के नेत्रों के समान विशाल हो गये थे ॥१६०॥

अथानन्तर वैश्रवण जिन नगरों का राज्य करता था, कुम्भकर्ण हजारों बार जा-जाकर उन नगरों को विध्वस्त कर देता था ॥१६१॥ उन नगरों में जो भी मनोहर रत्न, वस्त्र, कन्याएँ अथवा गणिकाएँ होती थी शूरवीर कुम्भकर्ण उन्हें स्वयंप्रभ नगर ले आता था ॥१६२॥ तदनन्तर जब वैश्रवण को कुम्भकर्ण की इस बाल चेष्टा का पता चला तब उसने कुपित होकर सुमाली के पास दूत भेजा । वैश्रवण इन्द्र का बल पाकर अत्यन्त गर्वित रहता था ॥१६३॥ तदनन्तर द्वारपाल के द्वारा समाचार भेजकर दूत ने भीतर प्रवेश किया । दूत लोकाचार के अनुसार योग्य विनय को प्राप्त था ॥१६४॥ दूत का नाम वाक्यालंकार था सो उसने दशानन के समक्ष ही सुमाली से इस प्रकार क्रम से कहना शुरू किया ॥१६५॥ जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है ऐसे वैश्रवण महाराज ने आप से जो कहा है उसे चित्त में धारण करो ॥१६६॥ उन्होंने कहा है कि तुम पण्डित हो, कुलीन हो, लोक व्यवहार के ज्ञाता हो, महान् हो, अकार्य के समागम से भयभीत हो और सुमार्ग का उपदेश देने वाले हो ॥१६७॥ सो तुम्हें लड़कों जैसी चपलता करने वाले अपने प्रमादी पौत्र को मना करना उचित है ॥१६८॥ तिर्यंच और मनुष्यों में प्राय: यही तो भेद है कि तिर्यंच कृत्य और अकृत्य को नहीं जानते हैं पर मनुष्य जानते हैं ॥१६९॥ जिनका चित्त दृढ़ है ऐसे मनुष्य बिजली के समान भंगुर किसी विभूति के प्राप्त होने पर भी पूर्व वृत्तान्त को नहीं भूलते हैं ॥१७०॥ तुम्हारे कुल का प्रधान माली मारा गया इसी से समस्त कुल को शान्ति धारण करना चाहिए थी - क्योंकि ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने कुल का निर्मूल नाश करने वाले काम करेगा ॥१७१॥ शत्रुओं को नष्ट करने वाले इन्द्र का वह प्रताप जो कि समुद्र की लहर-लहर में व्याप्त हो रहा है तुमने क्यों भुला दिया? जिससे कि अनुचित काम करने की चेष्टा करते हो ॥१७२॥ तुम मेंढक के समान हो और इन्द्र भुजंग के समकक्ष है, सो तुम इन्द्ररूपी भुजंग के उस मुखरूपी बिल में क्रीड़ा कर रहे हो जो दाढ़रूपी कण्टकों से व्याप्त है तथा विषरूपी अग्नि के तिलगे छोड़ रहा है ॥१७३॥ यदि तुम इस चोर बालक पर नियन्त्रण करने में समर्थ नहीं हो तो आज ही मुझे सौंप दो मैं स्वयं इसका नियन्त्रण करूँगा ॥१७४॥ यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो अपने पौत्र को जेलखाने के अन्दर बेड़ियों से बद्ध तथा अनेक प्रकार को यातना सहते हुए देखोगे ॥१७५॥ जान पड़ता है कि तुमने अलकारोदयपुर (पाताललंका) को छोड़कर बहुत समय तक बाहर रह लिया है अब फिर से उसी बिल में प्रवेश करना चाहते हो ॥१७६॥ यह निश्चित समझ लो कि मेरे या इन्द्र के कुपित होने पर पृथ्वी में तुम्हारा कोई शरण नहीं है, जिस प्रकार जरा-सी हवा चलने से पानी का बबूला नष्ट हो जाता है उसी प्रकार तुम भी नष्ट हो जाओगे ॥१७७॥

तदनन्तर उस दूत के कठोर वचनरूपी वायु के वेग से जिसका मनरूपी जल आघात को प्राप्त हुआ था ऐसा दानरूपी महासागर परम क्षोभ को प्राप्त हुआ ॥१७८॥ दूत के वचन सुनते ही दशानन की ऐसी दशा हो गयी मानो किसी ने उसके अंग पकड़कर झकझोर दिया हो, उसके प्रत्येक अंग से पसीना छूटने लगा और उसकी अत्यन्त लाल दृष्टि ने समस्त आकाश को लिप्त कर दिया ॥१७९॥ तदनन्तर आकाश में गूंजने वाले स्वर से दिशाओं को बहरा करता हुआ दशानन, प्रतिध्वनि से हाथियों को मदरहित करता हुआ बोला ॥१८०॥ कि यह वैश्रवण कौन है? अथवा इन्द्र कौन कहलाता है? जो कि हमारी वंश-परम्परा से चली आयी नगरी पर अधिकार किये बैठा है? ॥१८१॥ निर्लज्ज नीच पुरुष अपने भृत्यों के सामने इन्द्र जैसा आचरण करता है सो मानो कौआ बाज बन रहा है और श्रगाल अष्टापद के समान आचरण कर रहा है ॥१८२॥ अरे कुदूत ! हमारे सामने निशंक होकर कठोर वचन बोल रहा है सो मैं अभी क्रोध के लिए तेरे मस्तक की बलि चढ़ाता हूँ ॥१८३॥ यह कहकर उसने म्यान से तलवार खींची जिससे आकाशरूपी सरोवर ऐसा दिखने लगा मानो नीलकमल रूपी वन से ही व्याप्त हो गया हो ॥१८४॥ दशानन की वह तलवार हवा से बात कर रही थी, क्रोध से मानो काँप रही थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो तलवार का रूप धरकर यमराज ही वहाँ आया हो, अथवा मानो हिंसा का बेटा ही हो ॥१८५॥ दशानन ने वह तलवार ऊपर को उठायी ही थी कि विभीषण ने बीच में आकर रोक दिया और बड़े आदर से इस प्रकार समझाया कि ॥१८६॥ जिसने अपना शरीर बेच दिया है और जो तोते के समान कही बात को ही दुहराता हो, ऐसे इस पापी दीन-हीन भृत्य का अपराध क्या है? ॥१८७॥ दूत जो कुछ वचन बोलते हैं सो पिशाच की तरह हृदय में विद्यमान अपने स्वामी से प्रेरणा पाकर ही बोलते हैं । यथार्थ में दूत यन्त्रमयी पुरुष के समान पराधीन है ॥१८८॥ इसलिए हे आर्य! प्रसन्न होओ और दुःखी प्राणी पर दया करो । क्षुद्र का वध करने से संसार में अकीर्ति ही फैलती है ॥१८९॥ आपकी तलवार तो शत्रुओं के ही सिर पर पड़ेगी क्योंकि गरुड जल में रहनेवाले निर्विष साँपों को मारने के लिए प्रवृत्त नहीं होता ॥१९०॥ इस प्रकार न्याय-नीति को जानने वाले सत्पुरुष विभीषण, सदुपदेशरूपी जल से जब तक दशानन की क्रोधाग्नि को शान्त करता है तब तक अन्य लोगों ने उस दूत के पैर खींचकर उसे सभाभवन से शीघ्र ही बाहर निकाल दिया । आचार्य कहते हैं कि दुःख के लिए ही जिसकी रचना हुई है ऐसे भृत्य को धिक्कार हो ॥१९१-१९२॥

दूत ने जाकर अपनी यह सब दशा वैश्रवण को बतला दी और दशानन के मुख से निकली वह अभद्र वाणी भी सुना दी ॥१९३॥ दूत के वचनरूपी ईंधन से वैश्रवण की क्रोधाग्नि भभक उठी । इतनी भभकी कि वैश्रवण के मन में मानो समा नहीं सकी इसलिए उसने भृत्यजनों के चित्त में बाँट दी अर्थात् दूत के वचन सुनकर वैश्रवण कुपित हुआ और साथ ही उसके भृत्य भी बहुत कुपित हुए ॥१९४॥ उसने तुरही के कठोर शब्दों से युद्ध की सूचना करवा दी जिससे मणिभद्र आदि योद्धा शीघ्र ही युद्ध के लिए तैयार हो गये ॥१९५॥ तदनन्तर जिनके हाथों में कृपाण, भाले तथा चक्र आदि शंख सुशोभित हो रहे थे ऐसे यक्षरूपी योद्धाओं से घिरा हुआ वैश्रवण युद्ध के लिए निकला ॥१९६॥ इधर अंजनगिरि का आकार धारण करने वाले बड़े-बड़े काले हाथियों, सन्ध्या की लालिमा से युक्त मेघों के समान दिखने वाले बड़े-बड़े रथों, जिनके दोनों ओर चमर ढुल रहे थे तथा जो वेग से वायु को जीत रहे थे ऐसे घोड़ों, देवभवन के समान सुन्दर तथा ऊँची उड़ान भरने वाले विमानों, तथा जो घोड़े, विमान, हाथी और रथ, सभी को उल्लंघन कर रहे थे अर्थात् इन सबसे आगे बढ़कर चल रहे थे, जिनका प्रताप बहुत भारी था, जो अधिकता के कारण एक दूसरे को धक्का दे रहे थे तथा समुद्र के समान गरज रहे थे ऐसे पैदल सैनिकों और भानुकर्ण आदि भाइयों के साथ महाबलवान् दशानन, पहले से ही बाहर निकलकर बैठा था । युद्ध का निमित्त पाकर दशानन के हृदय में बड़ा उत्सव-उल्लास हो रहा था ॥१९७-२००॥

तदनन्तर गुंज नामक पर्वत के शिखर पर दोनों सेनाओं का समागम हुआ । ऐसा समागम कि जिसमें शस्त्रों के पड़ने से अग्नि उत्पन्न हो रही थी ॥२०१॥ तदनन्तर तलवारों की खनखनाहट, घोड़ों की हिनहिनाहट, पैदल सैनिकों की आवाज, हाथियों की गर्जना, परस्पर के समागम से उत्पन्न रथों की सुन्दर चीत्कार, तुरही की बुलन्द आवाज और बाणों की सनसनाहट से उस समय कोई मिश्रित / विलक्षण ही शब्द हो रहा था । उसकी प्रतिध्वनि आकाश और पृथिवी के बीच गूँज रही थी तथा योद्धाओं में उत्तम मद उत्पन्न कर रही थी ॥२०२-२०४॥ इस तरह जिनका आकार यमराज के मुख के समान था तथा जिनकी धार पैनी थी, ऐसे चक्रों, यमराज की जिह्वा के समान दिखने वाली तथा खून की बूँदें बरसाने वाली तलवारों, उसके रोम के समान दिखने वाले भाले, यमराज की प्रदेशिनी अँगुली की उपमा धारण रहनेवाले बाणों, यमराज की भुजा के आकार परिघ नामक शस्त्रों और उनकी मुट्ठी के समान दिखने वाले मुद्गरों से दोनों सेनाओं में बड़ा भारी युद्ध हुआ । उस युद्ध से जहाँ पराक्रमी मनुष्यों को हर्ष हो रहा था वहाँ कातर मनुष्यों को भय भी उत्पन्न हो रहा था । दोनों ही सेनाओं के शूरवीर अपना सिर दे-देकर यशरूपी महाधन खरीद रहे थे ॥२०५-२०७॥ तदनन्तर चिरकाल तक यक्षरूपी भटों के द्वारा अपनी सेना को खेद खिन्न देख दशानन उसे संभालने के लिए तत्पर हुआ ॥२०८॥ तदनन्तर जिसके ऊपर सफेद छत्र लग रहा था और उससे जो उस काले मेघ के समान दिखाई देता था जिस पर कि चन्द्रमा का मण्डल चमक रहा था, जो धनुष से सहित था और उससे इन्द्रधनुष सहित श्याम मेघ के समान जान पड़ता था, सुवर्णमय कवच से युक्त होने के कारण जो बिजली से युक्त श्याम मेघ के समान दिखाई देता था, जो नाना रत्नों के समागम से सुशोभित मुकुट धारण कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कान्ति से आकाश को आच्छादित करता हुआ वज्र से युक्त श्याम मेघ ही हो । ऐसे दशानन को आता हुआ देख यक्षों की आँखें चौंधिया गयीं, उनका सब ओज नष्ट हो गया, युद्ध से विमुख हो भागने की चेष्टा करने लगे और क्षण-भर में उनका युद्ध का अभिप्राय समाप्त हो गया ॥२०६-२१२॥ तदनन्तर जिनके चित्त भय से व्याकुल हो रहे थे ऐसे यक्षों के पैदल सैनिक महाशब्द करते हुए जब भ्रमर में पड़े के समान घूमने लगे तब यक्षों के बहुत सारे अधिपति अपनी सेना के सामने आये और उन्होंने सेना को फिर से युद्ध के सम्मुख किया ॥२१३-२१४॥ तदनन्तर जिस प्रकार सिंह आकाश में उछल-उछलकर मत्त हाथियों को नष्ट करता है उसी प्रकार दशानन यक्षाधिपतियों को नष्ट करने के लिए तत्पर हुआ ॥२१५॥ शंखरूपी ज्वालाओं से युक्त दशाननरूपी अग्नि, क्रोधरूपी वायु से प्रेरित होकर शत्रु सेना रूपी वन में वृद्धि को प्राप्त हो रही थी ॥२१६॥ उस समय पृथिवी, रथ, घोड़े, हाथी अथवा विमान पर ऐसा एक भी आदमी नहीं बचा था जो रावण के बाणों से सछिद्र न हुआ हो ॥२१७॥ तदनन्तर युद्ध में दशानन को सामने आता देख वैश्रवण, क्षण-भर में भाई के उत्तम स्नेह को प्राप्त हुआ ॥२१८॥ साथ ही अनुपम और राज्यलक्ष्मी से उदासीनता को प्राप्त हुआ । जिस प्रकार पहले बाहुबलि अपने भाई भरत से द्वेष कर पछताये उसी प्रकार वैश्रवण भी भाई दशानन से विरोध कर पछताया । वह मन ही मन शान्त अवस्था को प्राप्त होता हुआ विचार करने लगा कि जिस संसार में प्राणी नाना योनियों में चक्र की भाँति परिवर्तन करते रहते हैं वह संसार दुःख का पात्र है, कष्ट स्वरूप है, अत: उसे धिक्कार हो ॥२१९-२२०॥ देखो, ऐश्वर्य में मत्त होकर मैंने यह कौन-सा कार्य प्रारम्भ कर रखा है कि जिसमें अहंकारवश अपने भाई का विध्वंस किया जाता हूँ ॥२२१॥ वह इस प्रकार उत्कृष्ट वचन कहने लगा कि हे दशानन! सुन, क्षणिक राज्यलक्ष्मी से प्रेरित होकर यह कौन-सा पापकर्म किया जा रहा है? ॥२२२॥ मैं तेरी मौसी का पुत्र हूँ अत: तुझ पर सगे भाई-जैसा स्नेह करता हूँ । भाइयों के साथ अनुचित व्यवहार करना उचित नहीं है ॥२२३॥ यह प्राणी मनोहर विषयों की आशा से प्राणियों का वध कर बहुत भारी दुःखों से युक्त भयंकर नरक में जाता है ॥२२४॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य एक दिन का तो राज्य प्राप्त करे और उसके फलस्वरूप वर्ष-भर मृत्यु को प्राप्त हो उसी प्रकार निश्चय से यह प्राणी विषयों के द्वारा क्षणस्थायी सुख प्राप्त करता है और उसके फलस्वरूप अपरिमित काल तक दु:ख प्राप्त करता है ॥२२५॥ यथार्थ में यह जीवन नेत्रों की टिमकार के समान क्षणभंगुर है सो हे दशानन! क्या तू यह जानता नहीं है जिससे भोगों के निमित्त यह कार्य कर रहा है? ॥२२६॥

तब दयाहीन दशानन ने हँसते हुए कहा कि है वैश्रवण! यह धर्म-श्रवण करने का समय नहीं है ॥२२७॥ मदोन्मत्त हाथियों पर चढ़े तथा तलवार को हाथ में धारण करने वाले मनुष्य तो शत्रु का संहार करते हैं न कि धर्म का उपदेश ॥२२8॥ व्यर्थ ही बहुत क्यों बक रहा है? या तो तलवार के मार्ग में खड़ा हो या मेरे लिए प्रणाम कर । तेरी तीसरी गति नहीं है ॥२२९॥ अथवा तू धनपाल है सो मेरे धन की रक्षा कर । क्योंकि जिसका जो अपना कार्य होता है उसे करता हुआ वह लज्जित नहीं होता ॥२३०॥ तब वैश्रवण फिर दशानन से बोला कि निश्चय ही तेरी आयु अल्प रह गयी है इसीलिए तू इस प्रकार क्रूर वचन बोल रहा है ॥२३१॥ इसके उत्तर में रोष से रूषित मन को धारण करने वाले दशानन ने फिर कहा कि यदि तेरी सामर्थ्य है तो मार ॥२३२॥ तब वैश्रवण ने कहा कि तू बड़ा है इसलिए प्रथम तू ही मुझे मार क्योंकि जिनके शरीर में घाव नहीं लगता ऐसे शूरवीरों का पराक्रम वृद्धि को प्राप्त नहीं होता ॥२३३॥ तदनन्तर मध्याह्न के समय जिस प्रकार सूर्य अपनी किरण पृथिवी के ऊपर छोड़ता है उसी प्रकार वैश्रवण ने दशानन के ऊपर बाण छोड़े ॥२३४॥ तत्पश्चात् दशानन ने अपने बाणों से उसके बाण छेद डाले और बिना किसी आकुलता के लगातार छोड़े हुए बाणों से उसके ऊपर मण्डप-सा तान दिया ॥२३५॥ तदनन्तर अवसर पाकर वैश्रवण ने अर्धचन्द्र बाण से दशानन का धनुष तोड़ डाला और उसे रथ से च्युत कर दिया ॥२३६॥ तत्पश्चात् अद्भुत पराक्रम का धारी दशानन मेघ के समान शब्द करने वाले मेघनाद नामा दूसरे रथ पर वेग से चढ़कर वैश्रवण के समीप पहुँचा ॥२३७॥ वहाँ बहुत भारी क्रोध से उसने जोर-जोर से चलाये हुए उल्का के समान आकार वाले वज्रदण्डों से वैश्रवण का कवच चूर-चूर कर डाला ॥२३८॥ और सफेद माला को धारण करने वाले उसके हृदय में वेगशाली भिण्डिमाल से इतने जमकर प्रहार किया कि वह वहीं मूर्छित हो गया॥२३९॥ यह देख वैश्रवण की सेना में रुदन का महाशब्द होने लगा और राक्षसों की सेना में हर्ष के कारण बड़ा भारी कल-कल शब्द होने लगा ॥२४०॥ तब अतिशय दुखी और वीरशय्या पर पड़े वैश्रवण को उसके भृत्यगण शीघ्र ही यक्षपुर ले गये ॥२४१॥ रावण भी शत्रु को पराजित जान युद्ध से विमुख हो गया सो ठीक ही है क्योंकि वीर मनुष्यों का कृतकृत्यपना शत्रुओं के पराजय से ही हो जाता है । धनादि की प्राप्ति से नहीं ॥२४२॥

अथानन्तर वैद्यों ने वैश्रवण का उपचार किया सो वह पहले के समान स्वस्थ शरीर को प्राप्त हो गया । स्वस्थ होने पर उसने मन में विचार किया ॥२४३॥ कि इस समय मैं पुष्परहित वृक्ष, फूटे हुए घट अथवा कमल रहित सरोवर के समान हूँ ॥२४४॥ जब तक मनुष्य मान को धारण करता है तभी तक संसार में जीवित रहते हुए उसे सुख होता है । इस समय मेरा वह मान नष्ट हो गया है इसलिए मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हूँ ॥२४५॥ चूँकि यह विषयजन्य सुख अनित्य है, थोड़ा है, सान्तराय है और दुःखों से सहित है इसलिए सत्पुरुष उसकी चाह नहीं रखते ॥२४६॥ इसमें किसी का अपराध नहीं है, यह तो प्राणियों ने अन्य-जन्म में जो कर्म कर रखे हैं उन्हीं की समस्त चेष्टा है ॥२४७॥ दुःख अथवा सुख के दूसरे लोग निमित्त मात्र, इसलिए संसार की स्थिति के जानने वाले विद्वान् उनसे कुपित नहीं होते हैं अर्थात् ? निमित्त के प्रति हर्ष-विषाद नहीं करते हैं ॥२४८॥ वह दशानन मेरा कल्याणकारी मित्र है कि जिसने मुझ दुर्बुद्धि को गृहवास रूपी महाबन्धन से मुक्त करा दिया ॥२४९॥ भानुकर्ण भी इस समय मेरा परम हितैषी हुआ है कि जिसके द्वारा किया हुआ संग्राम मेरे परम वैराग्य का कारण हुआ है ॥२५०॥ इस प्रकार विचारकर उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और समीचीन तप की आराधना कर परम धाम प्राप्त किया ॥२५१॥

इधर दशानन भी अपने कुल के ऊपर जो पराभवरूपी मैल जमा हुआ था उसे धोकर पृथिवी में सुख से रहने लगा तथा समस्त बन्धुजनों ने उसे अपना शिरपौर माना ॥२५२॥ अथानन्तर वैश्रवण का जो पुष्पक विमान था उसे रावण के भृत्यजन रावण के समीप ले आये । वह पुष्पक विमान अत्यन्त सुन्दर था, वैश्रवण उसका स्वामी था, उसके शिखर में नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए थे, झरोखे उसके नेत्र थे, उसमें जो मोतियों की झालर लगी थी उससे निर्मल कान्ति का समूह निकल रहा था और उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वामी का वियोग हो जाने के कारण निरन्तर आँसू ही छोड़ता रहता हो । उसका अग्रभाग पद्मराग मणियों से बना था इसलिए उसे धारण करता हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो शोक के कारण उसने हृदय को बहुत कुछ पीटा था इसीलिए वह अत्यन्त लालिमा को धारण कर रहा था । कहीं-कहीं इन्द्रनील मणियों की प्रभा उस पर आवरण कर रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो शोक के कारण ही वह अत्यन्त श्यामलता को प्राप्त हुआ हो । चैत्यालय, वन, मकानों के अग्रभाग, वापिका तथा महल आदि से सहित होने के कारण वह किसी नगर के समान जान पड़ता था । नाना शस्त्रों ने उस विमान में चोटें पहुँचायी थीं, वह बहुत ही ऊँचा था, देव भवन के समान जान पड़ता था और आकाशतल का मानो आभूषण ही था ॥२५३-२५8॥ मानी दशानन ने शत्रु की पराजय का चिह्न समझ उस पुष्पक विमान को अपने पास रखने की इच्छा की थी अन्यथा उसके पास वि‍द्या निर्मित कौन-सा वाहन नहीं था? ॥२५९॥ वह उस विमान पर आरूढ़ होकर मन्त्रियों, वाहनों, नागरिक जनों, पुत्रों, माता-पिताओं तथा बन्धुजनों के साथ चला ॥२६०॥ वह उस विमान के अन्दर अन्त:पुररूपी महाकमल वन के बीच में सुख से बैठा था, उसकी गति को कोई नहीं रोक सकता था, तथा अपनी इच्छानुसार उसने हाव-भावरूपी आभूषण धारण कर रखे थे ॥२६१॥ चाप, त्रिशूल, तलवार, भाला तथा पाश आदि शस्त्र जिनके हाथ में थे तथा जिन्होंने अनेक आश्चर्यजनक कार्य करके दिखलाये थे ऐसे अनेक सेवक उसके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥२६२॥ जिन्होंने शत्रुओं के समूह का अन्त कर दिया था, जो चक्राकार मण्डल बनाकर पास खड़े थे, जिनका चित्त गुणों के अधीन था तथा जो महा-वैभव से शोभित थे ऐसे अनेक सामन्त उसके साथ जा रहे थे ॥२६३॥ गोशीर्ष आदि विलेपनों से उसका सारा शरीर लिप्त था तथा उत्तमोत्तम विद्याधरियाँ हाथ में लिये हुए सुन्दर चमरों से उसे हवा कर रही थीं ॥२६४॥ वह चन्द्रमा के समान सुशोभित ऊपर तने हुए छत्र से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शत्रु की पराजय से उत्पन्न यश से ही सुशोभित हो रहा हो ॥२६५॥ वह सूर्य के समान उत्कृष्ट तेज को धारण कर रहा था तथा लक्ष्मी से इन्द्र के समान जान पड़ता था । इस प्रकार पुण्य से उत्पन्न फल को प्राप्त होता हुआ वह दक्षिणसमुद्र की ओर चला ॥२६६॥ हाथी पर बैठा हुआ कुम्भकर्ण और रथ पर बैठा तथा स्वाभिमान रूपी वैभव से युक्त विभीषण इस प्रकार दोनों भाई उसके पीछे-पीछे जा रहे थे ॥२६७॥ भाई-बान्धवों एवं सामन्तों से सहित महादैत्य मय भी, जिनमें सिंह-शरभ आदि जन्तु जुते थे ऐसे रथों पर बैठकर जा रहा था ॥२६८॥ मरीच, अम्बर विद्युत्, वच, वज्रोदर, बुध, वज्राक्ष, क्रूरनक्र, सारण और सुनय ये राजा मय के मन्त्री तथा उत्कृष्ट वैभव से युक्त अन्य अनेक विद्याधरों के राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे ॥२६९-२७०॥ इस प्रकार समस्त दक्षिण दिशा को वश कर वह वन, पर्वत तथा समुद्र से सहित पृथ्वी को देखता हुआ अन्य दिशा की ओर चला ॥२७१॥

अथानन्तर एक दिन विनय से जिसका शरीर झुक रहा था, ऐसा दशानन आकाश में बहुत ऊँचे चढ़कर अपने दादा सुमाली से आश्चर्यचकित हो पूछता है कि हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं है पर कमलों का वन लहलहा रहा है सो इस महा-आश्चर्य को आप देखें ॥२७२-२७३॥ हे स्वामिन् ! यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े रंगबिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर कैसे खड़े हैं? ॥२७४॥ तब सुमाली ने 'नम: सिद्धेभ्‍य:' कहकर दशानन से कहा कि हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं ॥२७५॥ किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिन में हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे-ऐसे ये जिन-मन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं ॥२७६॥ ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं । हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर ॥२७७॥ तदनन्तर वैश्रवण का मान-मर्दन करने वाले दशानन ने वहीं खड़े रहकर जिनालयों को नमस्कार किया और आश्चर्यचकित हो सुमाली से पूछा कि पूज्यवर! हरिषेण का ऐसा क्या माहात्म्य था कि जिससे आपने उनका इस तरह कथन किया है? ॥२७८-२७९॥ तब सुमाली ने कहा कि हे दशानन! तूने बहुत अच्छा प्रश्न किया । अब पाप को नष्ट करनेवाला हरिषेण का चरित्र सुन ॥२८०॥

काम्पिल्य नगर में अपने यश के द्वारा समस्त संसार को व्याप्त करने वाला सिंहध्वज नाम का एक बड़ा राजा रहता था ॥२८१॥ उसकी वप्रा नाम की पटरानी थी जो स्त्रियों के योग्य गुणों से सुशोभित थी तथा अपने सौभाग्य के कारण सैकड़ों रानियों में आभूषणपना को प्राप्त थी ॥२८२॥ उन दोनों से परम अभ्युदय को धारण करनेवाला हरिषेण नाम का पुत्र हुआ । वह पुत्र उत्तमोत्तम चौंसठ लक्षणों से युक्त था तथा पापों को नष्ट करनेवाला था ॥२८३॥ किसी एक समय आष्टाह्निक महोत्सव आया सो धर्मशील वप्रा रानी ने नगर में जिनेन्द्र भगवान का रथ निकलवाना चाहा ॥२८४॥ राजा सिंहध्वज की महालक्ष्मी नामक दूसरी रानी थी जो कि सौभाग्य के गर्व से सदा विह्वल रहती थी । अनेक खोटी-चेष्टाओं से भरी महालक्ष्मी वप्रा की सौत थी इसलिए उसने उसके विरुद्ध आवाज उठायी कि पहले मेरा ब्रह्मरथ नगर की गलियों में घूमेगा । उसके पीछे वप्रा रानी के द्वारा बनवाया हुआ जैनरथ घूम सकेगा ॥२८५-२८६॥ यह सुनकर वप्रा को इतना दुःख हुआ कि मानो उसके हृदय में वज्र की ही चोट लगी हो । दुःख से सन्तप्त होकर उसने प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा यह रथ नगर में पहले घूमेगा, तो मैं पूर्व की तरह पुन: आहार करूँगी अन्यथा नहीं ॥२८७-२८८॥

यह कहकर उसने प्रतिज्ञा के चिह्न स्वरूप वेणी बाँध ली और सब काम छोड़ दिया । उसका मुखकमल शोक से मुरझा गया, वह निरन्तर मुख से श्वास और नेत्रों से आँसू छोड़ रही थी । माता को, ऐसी दशा देख हरिषेण ने कहा कि हे मात ! जिसका पहले कभी स्वप्न में भी तुमने सेवन नहीं किया वह अमांगलिक रुदन तुमने क्यों प्रारम्भ किया ? अब बस करो और रुदन का कारण कहो ॥२८९-२९१॥ तदनन्तर माता का कहा कारण सुनकर हरिषेण ने इस प्रकार विचार किया कि अहो! मैं क्या करूँ? यह बहुत भारी पीड़ा प्राप्त हुई है सो पिता से इसे कैसे कहूं? ॥२९२॥ वह पिता हैं और यह माता हैं । दोनों ही मेरे लिए परमगुरु हैं । मैं किसके प्रति द्वेष करूँ? आश्चर्य है कि मैं बड़े संकट में आ पड़ा हूँ ॥२९३॥ कुछ भी हो पर मैं रुदन करती माता को देखने में असमर्थ हूँ । ऐसा विचारकर वह महल से निकल पड़ा और हिंसक जन्तुओं से भरे हुए वन में चला गया ॥२९४॥ वहाँ वह निर्जन वन में मूल, फल आदि खाता और सरोवर में पानी पीता हुआ निर्भय हो घूमने लगा ॥२९५॥ हरिषेण का ऐसा रूप था कि उसे देखकर दुष्ट पशु भी क्षण-भर में उपशम भाव को प्राप्त हो जाते थे सो ठीक ही है क्योंकि भव्य-जीव किसे नहीं प्रिय होता है? ॥२९६॥ निर्जन वन में ही जब हरिषेण को माता के द्वारा किये हुए रुदन की याद आती थी तब वह अत्यन्त दुःखी हो उठता था । माता ने गदगद कण्ठ से जो भी प्रलाप किया वह सब स्मरण आने पर उसे बहुत कुछ बाधा पहुँचा रहा था ॥२१७॥ कोमल चित्त से निरन्तर भ्रमण करने वाले हरिषेण को वन के भीतर एक-से-एक बढ़कर मनोहर स्थान मिलते थे पर उनमें उसे धैर्य प्राप्त नहीं होता था ॥२९८॥ क्या यह वनदेव है? इस प्रकार की भ्रान्ति वह निरन्तर करता रहता था और हरिणियाँ उसे दूर तक आंख फाड़-फाड़कर देखती रहती थीं ॥२९९॥ इस प्रकार घूमता हुआ हरिषेण, जहाँ वन में प्राणी परस्पर का वैरभाव दूर छोड़कर शान्ति से रहते थे ऐसे अंगिरस ऋषि के शिष्य शतमन्यु के आश्रम में पहुँचा ॥३००॥

अथानन्तर एक काल कल्प नाम का राजा था जो महा-भयंकर, महा-प्रतापी और बहुत बड़ी सेना को धारण करनेवाला था सो उसने चारों-ओर से चम्पा-नगरी को घेर लिया ॥३०१॥ चम्पा का राजा जनमेजय जब तक उसके साथ युद्ध करता है तब तक पहले से बनवायी हुई लम्बी सुरंग से माता नागवती अपनी पुत्री के साथ निकलकर शतमन्यु ऋषि के उस आश्रम में पहले से ही पहुँच गयी थी ॥३०२-३०३॥ वहाँ नागवती की पुत्री सुन्दर रूप से सुशोभित हरिषेण को देखकर शरीर में बेचैनी उत्पन्न करने वाले कामदेव के बाणों से घायल हो गयी ॥३०४॥ तदनन्तर पुत्री को अन्यथा देख नागवती ने कहा ? कि हे पुत्री! सावधान रह, तू महामुनि के वचन स्मरण कर ॥३०५॥ सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु को धारण करने वाले मुनिराज ने पहले कहा था कि तू चक्रवर्ती का स्त्री-रत्‍न होगी ॥३०६॥ तपस्वियों को जब मालूम हुआ कि नागवती की पुत्री हरिषेण से बहुत अनुराग रखती है तो अपकीर्ति से डरकर उन मूढ-तपस्वियों ने हरिषेण को आश्रम से निकाल दिया ॥३०७॥ तब अपमान से जला हरिषेण हृदय में कन्या को धारण कर निरन्तर इधर-उधर घूमता रहा । ऐसा जान पड़ता था मानो वह भ्रामरी विद्या से आलिंगित होकर ही निरन्तर घूमता रहता था ॥३०८॥ उत्कण्ठा के भार से दबा हरिषेण निरन्तर शोकग्रस्त रहता था । उसे भोजन में, न पुष्प और पल्लवों से निर्मित शय्या में, न फलों के भोजन में, न सरोवर का जल पीने में, न गाँव में, न नगर में और न मनोहर निकुंजों से युक्त उपवन में धीरज प्राप्त होता था ॥३०९-३१०॥ कमलों के समुह को वह दावानल के समान देखता था और चन्द्रमा की किरणें उसे वज्र की सुई के समान जान पड़ती थीं ॥३११॥ विशाल तटों से सुशोभित एवं स्वच्छ जल को धारण करने वाली नदियां इसके मन को इसलिए आकर्षित करती थीं, क्योंकि उनके तट, इसके प्रति आकर्षित कन्या के नितम्बों की समानता रखते थे ॥३१२॥ केतकी की अनी भाले के समान इसके मन को भेदती रहती थी और कदम्बवृक्षों के सुगन्धित फूल चक्र के समान छेदते रहते थे ॥३१३॥ वायु के मन्द-मन्द झोंके से हिलते हुए कुटज वृक्षों के फूल कामदेव के बाणों के समान उसके मर्मस्थल छेदते रहते थे ॥३१४॥ हरिषेण ऐसा विचार करता रहता था कि यदि मैं उस स्त्रीरत्‍न को पा सका तो नि:सन्देह माता का शोक दूर कर दूँगा ॥३१५॥ यदि वह कन्या मिल गयी तो मैं यही समझूँगा कि मुझे समस्त भरत-क्षेत्र का स्वामित्व मिल गया है । क्योंकि उसकी जो आकृति है वह अल्प-भोगों को भोगने वाली नहीं है ॥३१६॥ यदि मैं उसे पा सका तो नदियों के तटों पर, वनों में, गाँवों में, नगरों में और पर्वतों पर जिन-मन्दिर बनवाऊँगा ॥३१७॥ यदि मैं उसे नहीं देखता तो माता के शोक से सन्तृप्त होकर कभी का मर जाता । वास्तव में मेरे प्राण उसी के समागम की आशा से रुके हुए हैं ॥३१८॥ जिसका मन अत्यन्त दुखी था ऐसा हरिषेण इस प्रकार तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करता हुआ माता का शोक भूल गया । अब तो वह भूताक्रान्त मानव के समान इधर-उधर घूमने लगा ॥३१९॥ इस प्रकार अनेक देशों में घूमता हुआ सिन्धुनद नामक नगर में पहुँचा । यद्यपि उसकी वैसी अवस्था हो रही थी तो भी वह बहुत भारी पराक्रम और विशाल तेज से युक्त था ॥३२०॥ उस नगर की जो स्त्रियाँ क्रीड़ा करने के लिए नगर के बाहर गयी थीं वे हरिषेण को देखकर आश्चर्यचकित की तरह निश्चेष्ट हो गयीं । वे सैकड़ों बार आंखें फाड़-फाड़कर उसे देखती थीं ॥३२१॥ जिसके नेत्र कमल के समान थे, जिसका वक्षःस्थल मेरुपर्वत के कटक के समान लम्बा-चौड़ा था, जिसके कन्धे दधिज के गण्डस्थल के समान थे, और जिसकी जाँघें हाथी बाँधने के खम्भे के समान संपुष्ट थीं ऐसे हरिषेण को देखकर वे स्त्रियाँ पागल-सी हो गयीं, उनके चित्त ठिकाने नहीं रहे तथा उसे देखने-देखते उन्हें तृप्ति नहीं हुई ॥३२२-३२३॥ अथानन्तर-अंजनगिरि के समान काला और झरते हुए मद से भरा एक हाथी बलपूर्वक उन स्त्रियों के सामने आया ॥३२४॥ हाथी का महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था कि हे स्त्रियों! यदि तुम लोगों में शक्ति है तो शीघ्र ही भाग जाओ, मैं हाथी को रोकने में असमर्थ हूँ ॥३२५॥ पर स्त्रियाँ तो श्रेष्ठ पुरुष हरिषेण के देखने में आसक्त थीं इसलिए महावत के वचन नहीं सुन सकी और न भागने में ही समर्थ हुईं ॥३२६॥ जब महावत ने बार-बार जोर से चिल्लाना शुरू किया तब स्त्रियों ने उस ओर ध्यान दिया और तब वे भय से व्याकुल हो गयीं ॥३२७॥ तदनन्तर काँपती हुई वे स्त्रियों हरिषेण की शरण में गयीं । इस तरह उसके साथ समागम की इच्छा करने वाली स्त्रियों का भय ने उपकार किया ॥३२८॥ तत्पश्चात् घबड़ायी हुई उत्तम स्त्रियों के शरीर के सम्पर्क से जिसे रोमांच उठ आये थे ऐसे हरिषेण ने दया-युक्त हो विचार किया ॥३२९॥ कि इस ओर गहरा समुद्र है, उस ओर प्राकार है और उधर हाथी है इस तरह संकट उपस्थित होने पर मैं प्राणियों की रक्षा अवश्य करूँगा ॥३३०॥ जिस प्रकार बैल अपने सींगों से वामी को खोदता है पर्वत को नहीं । और पुरुष बाण से केले के वृक्ष को छेदता है, शिला को नहीं ॥३३१॥ इसी प्रकार दुष्ट चेष्टाओं से भरा मानव कोमल प्राणी का ही पराभव करता है, कठोर प्राणी को दुःख पहुँचाने की वह इच्छा भी नहीं करता ॥३३२॥ वे तपस्वी तो अत्यन्त दीन थे इसलिए मैंने उनपर क्षमा धारण की थी । उन तपस्वियों ने आश्रम से निकालकर यद्यपि अपराध किया था पर उनकी वृत्ति हिरणों के समान दीन थी साथ ही वे गुरुओं के घर रहते थे इसलिए उनपर क्षमा धारण करना अत्यन्त श्रेष्ठ था । यथार्थ में मैंने उनपर जो क्षमा को थी वह मेरे लिए अत्यन्त हितावह था परमाभ्युदय का कारण हुई है ॥३३३-३३४॥ तदनन्तर हरिषेण ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा कि रे महावत! तू हाथी दूसरे स्थान से ले जा ॥३३५॥ तब महावत ने कहा कि अहो ! तेरी बडी धृष्टता है कि जो तू हाथी को मनुष्‍य समझता है और अपने को हाथी मानता है ॥३३६॥ जान पड़ता है कि तू मृत्यु के समीप पहुंचने वाला है इसलिए तो हाथी के विषय में गर्व धारण कर रहा है अथवा तुझे कोई भूत लग रहा है । यदि भला चाहता है तो शीघ्र ही इस स्थान से चला जा । ॥३३७॥ तदनन्तर क्रोधवश लीला-पूर्वक नृत्य करते हुए हरिषेण ने जोर से अट्टहास किया, स्त्रियों को सान्तवना दी और स्वयं स्त्रियो को अपने पीछे कर हाथी के सामने गया ॥३३८॥ तदनन्तर बिजली की चमक के समान शीघ्र ही आकाश में उछलकर और शीश पर पैर रखकर वह हाथी पर सवार हो गया ॥३३९॥ तदनन्तर उसने लीला पूर्वक हाथी के साथ क्रीड़ा करना शुरू किया । क्रीड़ा करतेकरते कभी तो वह दिखाई देता था और कभी अदृश्य हो जाता था । इस तरह उसने हाथी के समस्त शरीर पर कीड़ा की पश्चात् पृथ्वी पर नीचे उतरकर भी उसके साथ नाना क्रीड़ाएँ कीं ॥३४०॥ तदनन्तर परम्परा से इस महान् कल-कल को सुनकर नगर के सब लोग इस महा-आश्चर्य को देखने के लिए बाहर निकल आये ॥३४१॥ बड़ी-बड़ी स्त्रियों ने झरोखों में बैठकर उसे देखा तथा कन्याओं ने उसके साथ समागम की इच्छाएँ की ॥३४२॥ अस्फालन अर्थात् पीठ पर हाथ फेरने से, जोरदार डांट-डपट के शब्दों से और बार-बार शरीर के कम्पन से हरिषेण ने उस हाथी को क्षण-भर में मदरहित कर दिया ॥३४३॥ नगर का राजा सिन्ध, महल को छत पर बैठा हुआ यह सब आश्चर्य देख रहा था । वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हरिषेण को बुलाने के लिए अपना समस्त परिकर भेजा ॥३४४॥ तदनन्तर रंग-बिरंगी झूल से जिसकी शोभा बढ़ रही थी तथा नाना रंगों के चित्राम से जो शोभायमान था ऐसे उसी हाथी पर वह बड़े वैभव से प्राप्‍त हुआ ॥३४५॥ जो पसीने की बूंदों के बहाने मानो मोतियों से सहित था ऐसा हरिषेण अपने सौन्दर्य रूपी हाथ से नगर की स्त्रियों का मन संचित करता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ ॥३४६॥ तदनन्तर उसने राजा की सौ कन्याओं के साथ विवाह किया । इस प्रकार से जहाँ देखो वहीं सर्वत्र हरिषेण की चर्चा फैल गयी ॥३४७॥ यद्यपि उसने राजा से बहुत भारी सम्मान प्राप्त किया था तो भी तपस्वियों के आश्रम में जो स्त्री-रत्न देखा था उसके बिना उसने एक रात को वर्ष के समान समझा ॥३४८॥ वह विचार करने लगा कि इस समय निश्चय ही वह कन्या मेरे बिना विषम वन में हरिणी के समान परम आकुलता को प्राप्त होती होगी ॥३४९॥ यदि यह रात्रि किसी तरह एक बार भी समाप्त हो जाये तो मैं शीघ्र ही उस बाला पर दया करने के लिए दौड़ पडूंगा ॥३५०॥ यह अत्यन्त सुशोभित शय्या पर पड़ा हुआ ऐसा विचार करता रहा । विचार करतेकरते बड़ी देर बाद बहुत कठिनाई से उसे नींद आयी ॥३५१॥ स्वप्न में भी यह उसी कमल-लोचना को देखता रहा सो ठीक ही है क्योंकि प्रायः करके इसके मन का वही एक विषय रह गयी थी ॥३५२॥

अथानन्तर विद्याधर राजा की कन्या की सहेली वेगवती जो कि सर्व प्रकार को कलाओं और गुणों में विशारद थी, सोते हुए हरिषेण को क्षण एक में हर कर ले गयी ॥३५३॥ जब उसकी निद्रा भग्न हुई तो उसने अपने आपको आकाश में हरा जाता देख क्रोधपूर्वक वेगवती से कहा कि रे पापिनी! तू मुझे किस लिए हर लिये जा रही है? ॥३५४॥ जिसके नेत्रों की समस्त पुतलियां दिख रही थीं तथा जिसने ओठ डंस रखा था ऐसे हरिषेण ने उस वेगवती को मारने के लिए वज्रमय मुद्‌गर के समान मुट्ठी बाँधी ॥३५५॥ तदनन्तर सुन्दर लक्षणों के धारक हरिषेण को कुपित देख वेगवती यद्यपि विद्याबल से समृद्ध थी तो भी भयभीत हो गयी । उसने उससे कहा कि हे आयुष्मान! जिस प्रकार वृक्ष की शाखा पर चढा कोई मनुष्य उसी की जड़ को काटता है उसी प्रकार मुझ पर आरूढ़ हुए तुम मेरा ही घात कर रहे हो ॥३५६-३५७॥ हे तात! मैं तुझे जिस लिए ले जा रही हूँ तुम जब उसको प्राप्त होओगे तब मेरे वचनों की यथार्थता जान सकोगे । यह निश्चित समझो कि वहाँ जाकर तुम्हारे इस शरीर को रंचमात्र भी दुःख नहीं होगा ॥३५८॥ वेगवती का कहा सुनकर हरिषेण ने विचार किया कि यह स्त्री मन्दर तथा मधुरभाषिणी है। इसकी आकृति ही बतला रही है कि यह पर-पीडा से निवृत्त है अर्थात् कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाती ॥३५९॥ और चूँकि इस समय मेरी दाहिनी आँख फड़क रही है इससे निश्चय होता है कि यह अवश्य ही प्रियजनों का समागम करावेगी ॥३६॥ तब हरिषेण ने उससे फिर पूछा कि हे भद्रे! तू ठीक-ठीक कारण बता और मनोहर कथा सुनाकर मेरे कानों को सन्तुष्ट कर ॥३६१॥

इसके उत्तर में वेगवती ने कहा कि सूर्योदय नामक श्रेष्ठ नगर में राजा शक्रधनु रहता है । उसकी स्त्री धी नाम से प्रसिद्ध है । उन दोनों के जयचन्द्रा नाम की पुत्री है जो कि गुण तथा रूप के अहंकार से ग्रस्त है, पुरुषों के साथ द्वेष रखती है और पिता के वचनों की अवहेलना करती है ॥३६२-३६३॥ समस्त भरत क्षेत्र में जो-जो उत्तम पुरुष थे उन सबके चित्रपट बनाकर मैंने पहले उसे दिखलाये हैं पर उसकी रुचि में एक भी नहीं आया ॥३६४॥ तब मैंने आपका चित्रपट उसे दिखलाया सो उसे देखते ही वह तीव्र उत्कण्ठारूपी शल्य से विद्ध होकर बोली कि कामदेव के समान इस पुरुष के साथ यदि मेरा समागम न होगा तो मैं मृत्यु को भले ही प्राप्त हो जाऊँगी पर अन्य अधम मनुष्य को प्राप्त नहीं होऊँगी ॥३६५-३६६॥ उसके गुणों से जिसका चित्त आकृष्ट हो रहा था ऐसी मैंने उसका बहुत भारी शोक देखकर उसके आगे यह कठिन प्रतिज्ञा कर ली कि तुम्हारे मन को चुराने वाले इस पुरुष को यदि मैं शीघ्र नहीं ले आऊँ तो हे सखि! ज्वालाओं से युक्त अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी ॥३६७-३६८॥ मैंने ऐसी प्रतिज्ञा को ही थी कि बड़े भारी पुण्योदय से आप मिल गये । अब आपके प्रसाद से अपनी प्रतिज्ञा को अवश्य ही सफल बनाऊँगी ॥३६९॥ ऐसा कहती हुई वह सूर्योदय पुर आ पहुंची । वहाँ आकर उसने राजा शक्रधनु और कन्या जयचन्द्रा के लिए सूचना दे दी कि तुम्हारे मन को हरण करनेवाला हरिषेण आ गया है ॥३७०॥ तदनन्तर आश्चर्यकारी रूप को धारण करने वाले दोनों-वर कन्या का पाणिग्रहण किया गया । जिनका चित्त आश्चर्य से भर रहा था ऐसे सभी आत्मीय जनों ने उनके उस पाणिग्रहण का अभिनन्दन किया था ॥३७१॥ जिसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी थी ऐसी वेगवती ने राजा और कन्या दोनों की ओर से परम सम्मान प्राप्त किया था । उसके हर्ष और सुयश का भी ठिकाना नहीं था ॥३७२॥ इस कन्या ने हम लोगों को छोड़कर भूमि गोचरी पुरुष स्वीकृत किया ऐसा विचारकर कन्या के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर बहुत ही कुपित हुए । कुपित ही नहीं हुए अपमान से प्रेरित हो बड़ी भारी सेना लेकर युद्ध करने की भी इच्छा करने लगे ॥३७३-३७४॥ तदनन्तर करुणा में आसक्त है चित्त जिसका ऐसे राजा शक्रधनु ने अपने सुचाप नामक पुत्र के साथ हरिषेण से इस प्रकार निवेदन किया कि हे जामात ! तुम यहीं ठहरो, मैं युद्ध करने के लिए जाता हूँ । तुम्हारे निमित्त से दो उत्कट शत्रु कुपित होकर दुःख का अनुभव कर रहे हैं ॥३७५-३७६॥ तब हँसकर हरिषेण ने कहा कि जो परकीय कार्यों में सदा तत्पर रहता है उसके अपने ही कार्य में उदासीनता कैसे हो सकती है? ॥३७७॥ हे पूज्य! प्रसन्नता करो और मेरे लिए युद्ध का आदेश दो । मेरे जैसा भृत्य पाकर आप इस प्रकार स्वयं क्यों युद्ध करते हो? ॥३७८॥ तदनन्तर अमंगल से भयभीत श्वसुर ने चाहते हुए भी उसे नहीं रोका । फलस्वरूप जिसमें हवा के समान शीघ्रगामी घोड़े जुते थे, जो नाना प्रकार के शस्त्रों से पूर्ण था, जिसका सारथी शूरवीर था और जो योद्धाओं के समूह से घिरा था ऐसे रथ को हरिषेण प्राप्त हुआ ॥३७९-३८०॥ उसके पीछे विद्याधर लोग शत्रु के मन को असहनीय बहुत भारी कोलाहल कर घोड़ों और हाथियों पर सवार होकर जा रहे थे ॥३८१॥ तदनन्तर शूरवीर मनुष्य जिसकी व्यवस्था बनाये हुए थे ऐसा महायुद्ध प्रवृत्त हुआ सो कुछ ही समय बाद शक्रधनु की सेना को पराजित देख हरिषेण युद्ध के लिए उठा ॥३८२॥ तदनन्तर जिस दिशा से उसका उत्तम रथ निकल जाता था उस दिशा में न घोड़ा बचता था, न हाथी दिखाई देता था, न मनुष्य शेष रहता था और न रथ ही बाकी बचता था ॥३८३॥ उसने एक साथ डोरी पर चढ़ाये हुए बाणों से शत्रु की सेना को इस प्रकार मारा कि वह पीछे बिना देखे ही एकदम सरपट कहीं पर भाग खड़ी हुई ॥३८४॥ जिनके शरीर में बहुत भारी कँपकँपी छूट रही थी ऐसे भय से पीडित कितने ही योद्धा कह रहे थे कि गंगाधर और महीधर ने यह बड़ा अनिष्ट कार्य किया है ॥३८५॥ यह कोई अद्भुत पुरुष युद्ध में सूर्य की भांति सुशोभित हो रहा है । जिस प्रकार सूर्य समस्त दिशाओं में किरणें छोड़ता है उसी प्रकार यह भी समस्त दिशाओं में बहुत बाण छोड़ रहा है ॥३८६॥ तदनन्तर अपनी सेना को उस महात्मा के द्वारा नष्ट होती देख भय से ग्रस्त हुए गंगाधर और महीधर दोनों ही कहीं भाग खड़े हुए ॥३८७॥ तदनन्तर उसी समय पुण्योदय से रत्न प्रकट हो गये जिससे हरिषेण महान् अभ्युदय को धारण करनेवाला दसवाँ चक्रवर्ती प्रसिद्ध हुआ ॥३८८॥ यद्यपि वह चक्ररत्न से चिह्नित परम लक्ष्मी से युक्त हो गया था तो भी मदनावली से रहित अपने आपको मृग के समान तुच्छ समझता था ॥३८९॥ तदनन्तर बारह योजन लम्बी-चौड़ी सेना को चलाता और समस्त शत्रुओं को नम्रीभूत करता हुआ वह तपस्वियों के आश्रम में पहुँचा ॥३९०॥ जब तपस्वियों को इस बात का पता चला कि यह वही है जिसे हम लोगों ने आश्रम से निकाल दिया था तो बहुत ही भयभीत हुए । निदान, हाथों में फल लेकर उन्होंने हरिषेण को अर्घ दिया और आशीर्वाद से युक्त वचनों से उसका सम्मान किया ॥३९१॥ शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने सन्तुष्ट होकर वह कन्या: इसके लिए समर्पित कर दी ॥३९२॥ तदनन्तर उन दोनों का विधिपूर्वक विवाहोत्सव हुआ । इस कन्या को पाकर राजा हरिषेण ने अपना पुनर्जन्म माना ॥३९३॥ तदनन्तर चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त होकर वह काम्पिल्यनगर आया । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके साथ थे ॥३९४॥ उसने मुकुट में लगे मणियों के समूह से सुशोभित शिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर बड़ी विनय से माता के चरणों में नमस्कार किया ॥३९५॥ सुमाली दशानन से कहते हैं कि हे दशानन! उस समय उक्त प्रकार के पुत्र को देखकर वप्रा के हर्ष का पार नहीं रहा । वह अपने अंगों में नहीं समा सकी तथा हर्ष के आँसुओं से उसके दोनों नेत्र भर गये ॥३९६॥ तदनन्तर उसने सूर्य के समान तेजस्वी बड़े-बड़े रथ काम्पिल्यनगर मे घुमाये और इस तरह अपनी माता का मनोरथ सफल किया ॥३९७॥ इस कार्य से मुनि और श्रावकों को परम हर्ष हुआ तथा बहुत से लोगों ने जिन-धर्म धारण किया ॥३९८॥ पृथिवी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव आदि में जो नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनालय शोभित हो रहे हैं वे सब उसी के बनवाये हैं ॥३९९॥ उदार हृदय को धारण करने वाले हरिषेण ने चिरकाल तक राज्य कर दीक्षा ले ली । और परम तपश्चरण कर तीन लोक का शिखर अर्थात् सिद्धालय प्राप्त कर लिया ॥४००॥ इस प्रकार हरिषेण चक्रवर्ती का चरित्र सुनकर दशानन आश्चर्य को प्राप्त हुआ । तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर वह आगे बढ़ा ॥४०१॥

अथानन्तर सन्ध्या काल आया और सूर्य डूब गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य ने दशानन को विजयी जानकर भय से ही उसके नेत्रों का गोचर-स्थान छोड़ दिया था ॥४०२॥ सन्ध्या की लालिमा से समस्त लोक व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशानन से उत्पन्न हुए बहुत भारी अनुराग से ही व्याप्त हो गया था ॥४०३॥ क्रम-क्रम से सन्ध्या को नष्ट कर काला अन्धकार आकाश में व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशानन की सेवा करने के लिए ही व्याप्त हुआ था ॥४०४॥ तदनन्तर दशानन ने आकाश से उतरकर सम्मेदाचल के समीप स्थली नामक पर्वत के ऊपर अपना डेरा डाला ॥४०५॥ अथानन्तर जिसप्रकार वर्षाकालीन मेघों के समूह से वज्र का शब्द निकलता है इसी प्रकार कहीं से ऐसा भयंकर शब्द निकला कि जिसने समस्त सेना को भयभीत कर दिया ॥४०६॥ बड़े-बड़े हाथियों ने अपने आलानभूत वृक्ष तोड़ डाले और घोड़े कान खड़े कर फरहरी लेते हुए हिनहिनाने लगे ॥४०७॥ वह शब्द सुनकर दशानन शीघ्रता से बोला कि यह क्या है? क्या है? अपराध के बहाने मरने के लिए आज कौन उद्यत हुआ है? ॥४०८॥ जान पड़ता है कि वैश्रवण आया है अथवा शत्रु से प्रेरित हुआ सोम आया है अथवा मुझे निश्चिन्त रूप से ठहरा जानकर शत्रु पक्ष का कोई दूसरा व्यक्ति यहाँ आया है ॥४०९॥ तदनन्तर दशानन की आज्ञा पाकर प्रशस्त नामा मन्त्री उस स्थान पर गया जहाँ से कि वह शब्द आ रहा था । वहाँ जाकर उसने पर्वत के समान आकार वाला, क्रीड़ा करता हुआ एक हाथी देखा ॥४१०॥ वहाँ से लौटकर प्रहस्त ने बड़े आश्चर्य के साथ दशानन को सूचना दी कि हे देव! मेघों की महा राशि के समान उस हाथी को देखो ॥४११॥ ऐसा जान पड़ता है कि इस हाथी को मैंने पहले भी कभी देखा है, इन्द्र विद्याधर भी इसे पकड़ने में समर्थ नहीं था इसीलिए उसने इसे छोड़ दिया है, अथवा इन्द्र विद्याधर की बात जाने दो साक्षात् देवेन्द्र भी इसे पकड़ने में असमर्थ है, इसे कोई सहन नहीं कर सकता । नहीं जान पड़ता कि यह हाथी है या समस्त प्राणियों का एकत्रित तेज का समूह है? ॥४१२-४१३॥ तब दशानन ने हँसकर कहा कि हे प्रहस्त! यद्यपि अपनी प्रशंसा स्वयं करना ठीक नहीं है फिर भी मैं इतना तो कहता ही हूँ कि यदि मैं इस हाथी को क्षण-भर में न पकड़ लूँ तो बाजुबन्द से पीड़ित अपनी इन दोनों भुजाओं को काट डालूँ ॥४१४-४१५॥ तदनन्तर वह इच्छानुसार चलने वाले पुष्पक विमान पर सवार हो, जाकर उत्तम लक्षणों से युक्त उस हाथी को देखता है ॥४१६॥ वह हाथी चिकने इन्द्रनील मणि के समान था, उसका तालु कमल के समान लाल था, वह लम्बे, गोल तथा अमृत के फेन के समान सफेद दाँतों को धारण कर रहा था ॥४१७॥ वह सात हाथ ऊंचा, दस हाथ चौड़ा और नौ हाथ लम्बा था । उसके नेत्र मधु के समान कुछ पीतवर्ण के थे ॥४१८॥ उसकी पीठ की हड्डी मांसपेशियों में निमग्न थी, उसके शरीर का अगला भाग ऊँचा था, पूँछ लम्बी थी, सूंड़ विशाल थी, और नखरूपी अंकुर चिकने तथा पीले थे ॥४१९॥ उसका मस्तक गोल तथा स्थूल था, उसके चरण अत्यन्त जमे हुए थे, वह स्वयं बलवान् था, उसकी विशाल गर्जना भीतर से मधुर तथा गम्भीर थी और वह विनय से खड़ा था ॥४२०॥ उसके गण्डस्थल से जो मद चू रहा था उसकी सुगन्धि के कारण भ्रमरों की पंक्तियाँ उसके समीप खिंची चली आ रही थीं । वह कर्णरूपी ताल पत्रों की फटकार से बन्धुभि के समान विशाल शब्द कर रहा था ॥४२१॥ वह अपनी स्थूलता के कारण आकाश को मानो निरवकाश कर रहा था और चित्त तथा नेत्रों को चुराने वाली क्रीड़ा कर रहा था ॥४२२॥ उस हाथी को देख दशानन परम प्रीति को प्राप्त हुआ । उसने अपने आपको कृतकृत्य-सा माना और उसका रोम-रोम हर्षित हो उठा ॥४२३॥ तदनन्तर दशानन ने विमान छोड़कर अपना परिकर मजबूत बाँधा और उसके सामने शब्द से लोक को व्याप्त करनेवाला शंख फूँका ॥४२४॥ तत्पश्चात् शंख के शब्द से जिसके चित्त में क्षोभ उत्पन्न हुआ था तथा जो बल के गर्व से युक्त था ऐसा हाथी गर्जना करता हुआ दशानन के सम्मुख चला ॥४२५॥ जब हाथी वेग से दशानन के सामने दौड़ा तो घूमने में चतुर दशानन ने उसके सामने अपना सफेद चद्दर घरियाकर फेंक दिया ॥४२६॥ हाथी जब तक उस चद्दर को सूँघता है तब तक दशानन ने उछलकर भ्रमर समूह के शब्दों से तीक्ष्ण उसके दोनों कपोलों का स्पर्श कर लिया ॥४२७॥ हाथी जब तक दशानन को सूंड से लपेटने की इच्छा करता है कि तब तक शीघ्रता से युक्त दशानन उसके दाँतों के बीच से बाहर निकल गया ॥४२८॥ घूमने में बिजली के समान चंचल दशानन उसके चारों ओर के अंगों का स्पर्श करता था । बार-बार दाँतों पर टक्कर लगाता था और कभी खीसों पर झूला झूलने लगता था ॥४२९॥ तदनन्तर दशानन विलासपूर्वक उसकी पीठ पर चढ़ गया और हाथी उसी क्षण उत्तम शिष्य के समान विनीत भाव से खड़ा हो गया ॥४३०॥ उसी समय देवों ने फूलों की वर्षा की, बार-बार धन्यवाद दिये, और विद्याधरों की सेना कल-कल करती हुई परम हर्ष को प्राप्त हुई ॥४३१॥ वह हाथी, दशानन से त्रिलोकमण्डन इस नाम को प्राप्त हुआ । यथार्थ में उस हाथी से तीनों लोक मण्डित हुए थे इसलिए दशानन ने बड़े हर्ष से उसका त्रिलोकमण्डन नाम सार्थक माना था ॥४३२॥ फूलों से व्याप्त उस रमणीय पर्वत पर नृत्य करते हुए विद्याधरों ने उस श्रेष्ठ हाथी के मिलने का महोत्सव किया था ॥४३३॥

इस हाथी के प्रकरण से यद्यपि सब लोग जाग रहे थे तो भी रात्रि और दिवस की मर्यादा बतलाने के लिए प्रभातकालीन तुरही ने ऐसा जोरदार शब्द किया कि वह पर्वत की प्रत्येक गुफा में गूँज उठा ॥४३४॥ तदनन्तर सूर्य बिम्ब का उदय हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो सेवा की चतुराई को जानने वाले दिवस ने दशानन के लिए मंगल-कलश ही समर्पित किया हो ॥४३५॥

तदनन्तर दशानन शारीरिक क्रियाएँ कर सोफा पर बैठा था । साथ ही अन्य विद्याधर भी हाथी की चर्चा करते हुए उसे घेरकर बैठे थे ॥४३६॥ उसी समय आकाश से उतरकर एक पुरुष वहाँ आया । वह पुरुष अत्यन्त काँप रहा था, पसीने को बूँदों से व्याप्त था, खेद को धारण कर रहा था, प्रहार जन्य घावों से सहित था, आँसू छोड़ रहा था और अपना जर्जर शरीर दिखला रहा था । उसने हाथ जोड़ मस्तक से लगा बड़े दुःख के साथ निवेदन किया ॥४३७-४३८॥ कि हे देव! आज से दस दिन पहले हृदय में आपके बल का भरोसा कर सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों भाई, अपनी वंश-परम्परा से चले आये किष्कु नगर को लेने के लिए बड़े उत्साह से अलंकारपुर अर्थात् पाताल लंका से निकलकर चले थे ॥४३९-४४०॥ दोनों ही भाई महान् अभिमान से युक्त, बड़ी भारी सेना से सहित तथा निशंक थे । वे आपके गर्व से संसार को तृण के समान तुच्छ मानते थे । ॥४४१॥ इन दोनों भाइयों की प्रेरणा से अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त हुए बहुत-से लोग एक साथ आक्रमण कर किष्कुपुर को लूटने लगे ॥४४२॥ तदनन्तर जिनके हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र चमक रहे थे ऐसे यम नामा दिक्पाल के उत्तम योद्धा युद्ध करने के लिए उठे सो मध्य रात्रि में उन सबके बीच बड़ा भारी युद्ध हुआ । उस युद्ध में परस्पर के शस्त्र प्रहार से अनेक पुरुषों का क्षय हुआ ॥४४३-४४४॥ अथानन्तर बड़ी गौर से उनका कल-कल शब्द सुनकर यह दिक्पाल स्वयं क्रोध से युद्ध करने के लिए निकला । उस समय वह यम क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान भयंकर जान पड़ता था ॥४४५॥ जिसका तेज अत्यन्त दु:सह था ऐसे यम ने आते ही के साथ हमारी सेना को नाना प्रकार के शस्त्रों से घायल कर भग्न कर दिया ॥४४६॥ अथानन्तर वह दूत इस प्रकार कहता-कहता बीच में ही मूर्च्छित हो गया । वस्त्र के छोर से हवा करने पर पुन: सचेत हुआ ॥४४७॥ यह क्या है? इस प्रकार पूछे जाने पर उसने हृदय पर हाथ रखकर कहा कि हे देव! मुझे ऐसा जान पड़ा कि मैं वहीं पर हूँ । उसी दृश्य को सामने देख मैं मूर्च्छित हो गया ॥४४८॥

तदनन्तर आश्चर्य को धारण करने वाले रावण ने पूछा कि फिर क्या हुआ ? इस प्रश्न के उत्तर में वह कुछ विश्राम कर फिर कहने लगा ॥४४९॥ कि हे नाथ! जब ऋक्षरज ने देखा कि हमारी सेना अत्यन्त दु:ख पूर्ण शब्दों से व्याकुल होती हुई पराजित हो रही है, नष्ट हुई जा रही है तब स्नेह युक्त हो वह युद्ध करने के लिए स्वयं उद्यत हुआ ॥४५०॥ वह अत्यन्त बलवान् यम के साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा । युद्ध करते-करते उसका हृदय नहीं टूटा था फिर भी शत्रु ने छल से उसे पकड़ लिया ॥४५१॥ तदनन्तर जब ऋक्षरज युद्ध कर रहा था उसी समय सूर्यरज भी युद्ध के लिए उठा । उसने भी चिरकाल तक युद्ध किया पर अन्त में वह शस्त्र की गहरी चोट खाकर मूर्च्छित हो गया ॥४५२॥ आत्मीय लोग उसे उठाकर शीघ्र ही मेखला नामक वन में ले गये । वहाँ वह चन्दन मिश्रित शीतल जल से श्वास को प्राप्त हो गया अर्थात् शीतलोपचार से उसकी मूर्च्छा दूर हुई ॥४५३॥ लोकपाल यम ने अपने आपको सचमुच ही यमराज समझकर नगर के बाहर वैतरणी नदी आदि कष्ट देने के स्थान बनवाये ॥४५४॥ तदनन्तर उसने अथवा इन्द्र विद्याधर ने जिन्हें युद्ध में जीता था उन सबको उसने उस कष्टदायी स्थान में रखा सो वे वहाँ दु:खपूर्वक मरण को प्राप्त हो रहे हैं ॥४५५॥ इस वृत्तान्त को देख मैं बहुत ही व्याकुल हूँ । मैं ऋक्षरज की वंश परम्परा से चला आया प्यारा नौकर हूँ । शाखावली मेरा नाम है, मैं सुश्रोणी और रणदक्ष का पुत्र हूँ । आप चूँकि रक्षक हो इसलिए किसी तरह भागकर आपके पास आया हूँ ॥४५६-४५७॥ इस प्रकार अपने पक्ष के लोगों की दुर्दशा जानकर मैंने आप से कही है । इस विषय में अब आप ही प्रमाण हैं अर्थात् जैसा उचित समझें सो करें । मैं तो आप से निवेदन कर कृतकृत्य हो चुका ॥४५८॥ तदनन्तर महाक्रोधी रावण ने अपने पक्ष के लोगों को बड़े आदर से आदेश दिया कि इस शाखावली के घाव ठीक किये जावें । तदनन्तर मुसकराता हुआ वह उठा और साथ ही उठे अन्य लोगों से कहने लगा कि मैं कष्टरूपी महासागर में पड़े तथा वैतरणी आदि कष्टदायी स्थानों में डाले गये लोगों का उद्धार करूँगा ॥४५९-४६०॥ प्रहस्त आदि बड़े-बड़े राजा सेना के आगे दौड़े । वे शस्त्रों के तेज से आकाश को देदीप्यमान कर रहे थे ॥४६१॥ नाना प्रकार के वाहनों पर सवार थे, छत्र और ध्वजाओं को धारण करने वाले थे । तुरही के शब्दों से उनका बड़ा भारी उत्साह प्रकट हो रहा था और वे महा तेजस्वी थे ही ॥४६२॥ इस प्रकार विद्याधरों के अधिपति आकाश से उतरकर पृथिवी पर आये और नगर के समीप महलों की पंक्ति की शोभा देख परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥४६३॥ तदनन्तर रावण ने किष्कुपुर नगर की दक्षिण दिशा में कृत्रिम नरक के गर्त में पड़े मनुष्यों के समूह को देखा ॥४६४॥ देखते ही उसने नरक की रक्षा करने वाले लोगों को नष्ट किया और जिस प्रकार बन्धुजन अपने इष्ट लोगों को कष्ट से निकालते हैं उसी प्रकार उसने सब लोगों को नरक से निकाला ॥४६५॥ तदनन्तर शत्रुसेना को आया सुनकर बड़े भारी आडम्बर को धारण करनेवाला, शक्तिशाली यम नाम लोकपाल का साटोप नाम का प्रमुख भट युद्ध करने के लिए अपनी सब सेना के साथ बाहर निकला । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो क्षोभ को प्राप्त हुआ सागर ही हो ॥४६६॥ पहाड़ के समान ऊँचे, भयंकर और मद की धारा से अन्धकार फैलाने वाले हाथी, चलते हुए सुन्दर चामर रूपी आभूषणों को धारण करने वाले घोड़े, सूर्य के समान देदीप्यमान तथा ध्वजाओं की पंक्ति से सुशोभित रथ, और कवच धारण करने वाले एवं शस्त्रों से युक्त शूरवीर योद्धा इस प्रकार चतुरंग सेना उसके साथ थी ॥४६७-४६८॥ तदनन्तर रथ पर आरूढ़ एवं रण कला में निपुण विभीषण ने हँसते-हँसते ही बाणों के द्वारा उस साटोप को क्षण-भर में मार गिराया ॥४६९॥ यम के जो दीन हीन किंकर थे वे भी बाणों से ताड़ित हो आकाश को लम्बा करते हुए शीघ्र ही कहीं भाग खड़े हुए ॥४७०॥ जब यम नाम लोकपाल को पता चला कि सूर्यरज-ऋक्षरज आदि को नरक से छुड़ा दिया है तथा साटोप नामक प्रमुख भट को मार डाला है तब यमराज के समान क्रूर तथा महा शस्त्रों को धारण करनेवाला वह यम लोकपाल बड़े वेग से रथ पर सवार हो युद्ध करने के लिए बाहर निकला । वह धनुष तथा क्रोध को धारणकर रहा था, बढ़े हुए प्रताप और ऊँची उठी ध्वजा से युक्त था, महाबलवान् था, काले सर्प के समान भयंकर भौंहों से उसका ललाट कुटिल हो रहा था, वह अपने लाल-लाल नेत्रों से ऐसा जान पड़ता था मानो जगत्‌रूपी वन को जला ही रहा हो । अपने ही प्रतिबिम्ब के समान दिखने वाले अन्य सामन्त उसे घेरे हुए थे तथा तेज से वह आकाश को आच्छादित कर रहा था ॥४७१-४७४॥ तदनन्तर यम लोकपाल को बाहर निकला देख दशानन ने विभीषण को मना किया और स्वयं ही क्रोध को धारण करता हुआ युद्ध करने के लिए उठा ॥४७५॥ साटोप के मारे जाने से जो अत्यन्त देदीप्यमान दिख रहा था ऐसे भयंकर मुख को धारण करनेवाला यम ने दशानन के साथ युद्ध करना शुरू किया ॥४७६॥ यम को देख राक्षसों की सेना भयभीत हो उठी, उसकी चेष्टाएँ मन्द पड़ गयीं और वह निरुत्साह हो दशानन के समीप भाग खड़ी हुई ॥४७७॥ तदनन्तर रथ पर बैठा हुआ दशानन बाणों की वर्षा करता हुआ यम के सम्मुख गया । यम भी बाणों की वर्षा कर रहा था ॥४७८॥ तदनन्तर सघन मण्‍डल बाँधने वाले मेघों से जिस प्रकार समस्त आकाश व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार उन दोनों के भयंकर शब्द करने वाले बाणों से समस्त आकाश व्याप्त हो गया ॥४७९॥ अथानन्तर दशानन के बाण की चोट खाकर यम का सारथी पुण्यहीन ग्रह के समान भूमि पर गिर पड़ा ॥४८०॥ यम लोकपाल भी दशानन के तीक्ष्ण बाण से ताड़ित हो रथरहित हो गया । इस कार्य से वह इतना घबड़ाया कि क्षण-भर में छिपकर आकाश में जा उड़ा ॥४८१॥ तदनन्तर भय से जिसका शरीर काँप रहा था ऐसा यम अपने अन्तःपुर, पुत्र और मन्त्रियों को साथ लेकर रथनूपुर नगर में पहुँचा ॥४८२॥ और बड़ी घबराहट के साथ इन्द्र को नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा कि हे देव! मेरी बात सुनिए । अब मुझे यमराज की लीला से प्रयोजन नहीं है ॥४८३॥ हे नाथ ! चाहे आप प्रसन्न हों, चाहे क्रोध करें, चाहे मेरा जीवन हरण करें अथवा चाहे जो आपकी इच्छा हो सो करें परन्तु अब मैं यमपना अर्थात् यम नामा लोकपाल का कार्य नहीं करूँगा ॥४८४॥ विशाल तेज को धारण करने वाले जिस योद्धा ने पहले युद्ध में वैश्रवण को जीता था उसी योद्धा दशानन ने मुझे भी पराजित किया है । यद्यपि मैं चिरकाल तक उसके साथ युद्ध करता रहा पर स्थिर नहीं रह सका ॥४८५॥ उस महात्मा का शरीर ऐसा जान पड़ता है मानो वीर रस से ही बना हो । वह आकाश के मध्य में स्थित ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य है अर्थात् उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता है ॥४८६॥ यह सुनकर इन्द्र युद्ध के लिए उद्यत हुआ परन्तु नीति की यथार्थता को जानने वाले मन्त्री मण्डल ने उसे रोक दिया ॥४८७॥ इन्द्र, यम का जामाता था सो यम की बात सुन मन्द हास्य करते हुए उसने कहा कि हे मातुल! दशानन कहां जायेगा? तुम भय को छोड़ो और निश्चिन्त होकर इस आसन पर सुख से बैठो ॥४८५॥ इस प्रकार जामाता के वचन से शत्रु का भय छोड़कर यम इन्द्र के द्वारा बतलाये हुए नगर में सुख से रहने लगा ॥४८६॥ बहुत भारी गर्व को धारण करनेवाला इन्द्र यम का सन्मान कर अन्तःपुर में चला गया और वहाँ जाकर काम भोगरूपी समुद्र में निमग्न हो गया ॥४९०॥ यम ने दशानन का जो चरित्र इन्द्र के लिए कहा था तथा युद्ध में दशानन से पराजित होकर वैश्रवण को जो वनवास करना पड़ा था, ऐश्वर्य के मद में मस्त रहनेवाले इन्द्र के लिए वह सब क्षण-भर में उस प्रकार विस्मृत हो गया जिस प्रकार कि पहले पढ़ा शास्त्र अभ्यास न करने पर विस्मृत हो जाता है ॥४९१-४९२॥ स्वप्न में उपलब्ध वस्तु का कुछ तो भी स्मरण रहता है परन्तु इन्द्र के लिए पूर्व कथित बात का निर्मूल विस्मरण हो गया ॥४९३॥ इधर इन्द्र का यह हाल हुआ उधर यम सुरसंगीत नामा नगर का स्वामित्व पाकर दशानन से प्राप्त हुए तिरस्कार को बिलकुल भूल गया ॥४९४॥ वह मानता था कि मेरी पुत्री सर्वश्री अत्यन्त रूपवती है और इन्द्र को प्राणों से भी अधिक प्रिय है ॥४९५॥ इस प्रकार एक बड़े पुरुष के साथ मेरा अन्तरंग सम्बन्ध है इसलिए इन्द्र का सम्मान पाकर मेरा जन्म कृतकृत्य अर्थात् सफल हुआ है ॥४९६॥

तदनन्तर महान् अभ्युदय और उत्साह को धारण करने वाले दशानन ने यम को हटाकर किष्किन्ध नामा नगर सूर्यरज के लिए दिया ॥४९७॥ और ऋक्षरज के लिए परम सम्पत्ति को धारण करनेवाला किष्कुपुर नगर दिया । इस प्रकार सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों ही अपनाई कुल-परम्परा से आगत नगरों को पाकर सुख से रहने लगे ॥४९८॥ जिनकी शोभा इन्द्र के नगर के समान थी, और जिन में सुवर्णमय भवन बने हुए थे ऐसे वे दोनों नगर योग्य-स्वामी से युक्त होकर परम लक्ष्मी को प्राप्त हुए ॥४९९॥ बहुत भारी लक्ष्मी और कीर्ति को धारण करने वाले दशानन ने कृतकृत्य होकर बड़े वैभव के साथ त्रिकूटाचल के शिखर की ओर प्रस्थान किया । उस समय शत्रु राजा प्रणाम करते हुए उससे मिल रहे थे । वह स्वयं उत्तम था और जिस प्रकार शुक्लपक्ष में चन्द्रमा प्रतिदिन पूर्ण होता रहता है उसी प्रकार वह भी प्रतिदिन सेवनीय वैभव से पूर्ण होता रहता था । रत्नमयी मालाओं से युक्त, ऊँचे शिखरों की पंक्ति से सुशोभित, सुन्दर और इच्छानुसार गमन करने वाले पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर वह जा रहा था । वह परम धैर्य से युक्त था तथा पुण्य के फलस्वरूप अनेक अम्युदय उसे प्राप्त थे ॥५००-५०३॥

तदनन्तर परम हर्ष को प्राप्त, नाना अलंकारों से युक्त एवं उत्तमोत्तम वस्त्र धारण करने वाले राक्षसों के झुण्‍ड के झुण्ड जोर-जोर से निम्नांकित मंगल वाक्यों का उच्चारण कर रहे थे कि हे देव ! तुम्हारी जय हो, तुम समृद्धि को प्राप्त होओ, चिरकाल तक जीते रहो, बढ़ते रहो और निरन्तर अभ्‍युदय को प्राप्त होते रहो ॥५०४-५०५॥ वे राक्षस, सिंह, शार्दूल, हाथी, घोड़े तथा हंस आदि वाहनों पर आरूढ़ थे । नाना प्रकार के विभ्रमों से युक्त थे । हर्ष से उनके नेत्र फूल रहे थे । वे देवों जैसी आकृतियों को धारण कर रहे थे । अपने तेज से उन्होंने दिशाओं को व्याप्त कर रखा था । उनकी प्रभा से समस्त दिशाएँ जगमगा रही थीं और वे वन, पर्वत तथा समुद्र आदि सर्व स्थानों में चल रहे थे ॥५०६-५०७॥ जिसका किनारा नहीं दीख रहा था, जो अत्यन्त गहरा था, बड़े-बड़े ग्राह-मगरमच्छों से व्याप्त था, तमाल वन के समान श्याम था, पर्वतों-जैसी ऊँची-ऊँची तरंगों के समूह उठ रहे थे, जो रसातल के समान अनेक बड़े-बड़े नागों-सर्पों से भयंकर था, और नाना-प्रकार के रत्नों की किरणों के समूह से अनुरक्त स्थलों से सुशोभित था ऐसे अनेक आश्चर्यों से युक्त समुद्र को देखते हुए वे राक्षस आश्चर्य से भर रहे थे । अहो, ही, आदि आश्चर्य व्यंजक शब्दों से उनके मुख बार-बार मुखरित हो रहे थे । इस प्रकार अनेक राक्षस दशानन के पीछे-पीछे चल रहे थे ॥५०८-५१०॥

अथानन्‍तर जिसमें बड़ी-बड़ी शालाएँ देदीप्‍यमान हो रही थीं, जो गम्‍भीर परिखा से आवृत्त थी, जो झरोखों में लगे हुए मणियों से कहीं तो कुन्‍द के समान सफेद, कहीं महानील मणियों के समान नील, कहीं पद्मरागमणि के समान लाल, कहीं पुष्‍परागमणियों के समान प्रभास्‍वर और कहीं गरुड़मणियों के समान गहरे नील वर्ण वाले महलों में व्‍याप्‍त थी। जो स्‍वभाव से ही सुशोभित थी फिर राक्षसों के अधिपति दशानन के शुभागमन के अवसर पर आश्‍चर्यकारी हर्ष से भरे भक्‍त नागरिकजनों के द्वारा और भी अधिक सुशोभित की गयी थी ऐसी अपनी लंका नगरी में हितकारी उदार शासक दशानन ने नि:शंक हो इन्‍द्र के समान प्रवेश किया। प्रवेश करते समय दशानन, पर्वतों के समान ऊँचे-ऊँचे हाथियों, बड़े-बड़े महलों के समान रत्‍नों से रंजित रथों, जिनकी लगाम के स्‍वर्णमयी छल्‍ले शब्‍द कर रहे थे एवं जिनके आजूबाजू चमर ढोले जा रहे थे ऐसे घोड़ों जिनके शिखर दूर तब आकाश में चले गये थे ऐसे रंगबिरंगे विमानों, चन्‍द्रमा के समान उज्‍ज्वल छत्रों, और जिनका अंचल आकाश में दूर-दूर तक फहरा रहा था ऐसी ध्‍वजाओं से लंका की शोभा को अत्‍यन्‍त अधिक बढ़ा रहा था। उत्तमोत्तम चारणों के झुण्‍ड मंगल शब्‍दों का उच्‍चारण कर रहे थे। वीणा, बाँसुरी और शंखों के शब्‍द से मिश्रित तुरही की विशालध्‍वनि से समस्‍त दिशा और आकाश व्‍याप्‍त हो रहे थे॥५११-५१८॥ तदनन्‍तर कुलक्रम से आगत स्‍वामी के दर्शन करने की जिनकी लालसा बढ़ रही थी, जिन्‍होंने आभूषण तथा अत्‍यन्‍त सुन्‍दर वस्‍त्रादि सम्‍पदाएँ धारण कर रखी थी और जो नृत्‍य करती हुई नयनाभिराम गणिकाओं के समूह से युक्‍त थे, ऐसे समस्‍त पुरवासी जन, फलों-फूलों, पत्तों और रत्‍नों से निर्मित अर्घ लेकर बार-बार आर्शीवाद का उच्‍चारण करते हुए दशानन के समक्ष आये। उन पुरवासियों ने वृद्धजनों को अपने आगे कर रखा था। उन्‍होंने आते ही दशानन को नमस्‍कार कर उसकी पूजा की॥५१९-५२१॥ दशानन ने सबका सम्‍मान कर उन्‍हें विदा किया और सब अपने मुखों से उसी का गुणगान करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥५२२॥ अथानन्‍तर जिनकी बुद्धि कौतुक से व्‍याप्‍त हो रही थी और जिन्‍होंने तरह-तरह के आभूषण धारण कर रखे थे ऐसी उसकी दर्शनाभिलाषी स्त्रियों से दशानन का घर भर गया ॥५२३॥ उन स्त्रियों में कितनी ही स्त्रियाँ झरोंखों के सम्‍मुख आ रही थी। शीघ्रता के कारण उनके वस्‍त्र खुल रहे थे और परस्‍पर की धक्‍काधूमी से उनके मोतियों के हार तथा अन्य आभूषण टूट-टूटकर गिरे रहे थे ॥५२४॥ कितनी ही स्त्रि‍याँ अपने स्थूल स्तनों से एक दूसरे को पीड़ा पहुँचा रही थीं और उससे उनके कुण्डल हिल रहे थे । कितनी ही स्त्रियों के दोनों पैर रुनझुन करते हुए नुपूरों से झंकृत हो रहे थे ॥५२५॥ कोई स्‍त्री सामने खड़ी दूसरी स्‍त्री से कह रही थी कि हे माता ! क्या देख नहीं रही हो? अरी दुर्भगे ! जरा बगल में हो जा, मुझे भी रास्ता दे दे । कोई कह रही थी कि अरी भली आदमिन ! तू यहाँ से चली जा, तू यहाँ शोभा नहीं देती ॥५२६॥ इत्यादि शब्द वे स्त्रियाँ कर रहीं थीं । उस समय उनके मुखकमल हर्ष से खिल रहे थे । वे अन्य सब काम छोड़कर एक दशानन को ही देख रही थीं ॥५२७॥ इस प्रकार यम का मान-मर्दन करनेवाला दशानन, लंका नगरी में स्थित चूड़ामणि के समान मनोहर अपने सुसज्जित महल में अन्तःपुर सहित सुख से रहने लगा ॥५२८॥ इसके सिवाय अन्य विद्याधर राजा भी देवों के समान निरन्तर महा आनन्द को प्राप्त हुए यथायोग्य स्थान में रहने लगे ॥५२९॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! जो निर्मल कार्य करते हैं उन्हें नाना प्रकार के रत्नादि सम्पदाओं की प्राप्ति होती है, उनके प्रबल शत्रुओं का समूह नष्ट होता है और समस्त संसार में फैलने वाला उज्जवल यश उन्हें प्राप्त होता है ॥५३०॥ पंचेन्द्रियों के विषय सबसे प्रबल शत्रु हैं; सो जो निर्मल कार्य करते हैं उनके ये प्रबल शत्रु भी तीनों लोकों में अपनी स्मृति नष्ट कर देते हैं अर्थात् इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं कि उनका स्मरण भी नहीं रहता । इसी प्रकार बाह्य में स्थित होनेवाला जो शत्रुओं का समूह है वह भी निर्मल कार्य करने वाले मनुष्यों के चरणों के समीप निरन्तर नमस्कार करता रहता है । भावार्थ –- निर्मल कार्य करने वाले मनुष्यों के अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही शत्रु नष्ट हो जाते हैं॥५३१॥ ऐसा विचारकर हे श्रेष्ठ चित्त के धारक पुरुषों! विषयरूपी शत्रुसमूह की उपासना करना उचित नहीं है । क्योंकि उनकी उपासना करनेवाला मनुष्य अन्धकार से युक्त नरकरूपी गर्त में पड़ता है न कि सूर्य की किरणों से प्रकाशमान उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ॥५३२॥

इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्यनिर्मित पद्मचरित ग्रन्थ में दशानन का कथन करनेवाला अष्टम पर्व समाप्त हुआ ॥8॥