कथा :
अथानन्तर सूर्यरज ने अपनी चन्द्रमालिनी नामक गुणवती रानी में बाली नाम का पुत्र उत्पन्न किया ॥1॥ वह पुत्र परोपकारी था, निरन्तर शीलव्रत से युक्त रहता था, विद्वान् था, कुशल था, धीर था, लक्ष्मी से युक्त था, शूर-वीर था, ज्ञानवान् था, कलाओं के समूह से युक्त था, सम्यग्दृष्टि था, महाबलवान् था, राजनीति का जानकार था, वीर था, दयालु था, विद्याओं के समूह से युक्त था, कान्तिमान् था और उत्तम तेज से युक्त था ॥2-3॥ जिस प्रकार लोक में उत्कृष्ट चन्दन की उत्पत्ति विरल अर्थात् कहीं-कहीं ही होती है उसी प्रकार बाली-जैसे उत्कृष्ट पुरुषों का जन्म भी विरल अर्थात् कहीं-कहीं होता है ॥4॥ जिसका समस्त सन्देह दूर हो गया था ऐसा बाली उत्कृष्ट भक्ति से युक्त होकर तीनों ही काल समस्त जिन-प्रतिमाओं की वन्दना करने के लिए उद्यत रहता था ॥5॥ जिसकी चारों दिशा में समुद्र घिरा हुआ है ऐसे जम्बूद्वीप की वह क्षणभर में तीन प्रदक्षिणाएँ देकर अपने किष्किन्ध नगर में वापस आ जाता था ॥6॥ इस प्रकार के अद्भुत पराक्रम का आधारभूत बाली शत्रुओं के पक्ष का मर्दन करनेवाला था, पुरवासी लोगों के नेत्ररूपी कुमुदिनियों को विकसित करने के लिए चन्द्रमा के समान था और निरन्तर शंका से दूर रहता था ॥7॥ जहाँ रंग-बिरंगे महलों के तोरणद्वार थे, जो विद्वज्जनों से व्याप्त था, एक से एक बढ़कर हाथियों और घोड़ों से युक्त था, और अनेक प्रकार के व्यापारों से युक्त बाजारों से सहित था ऐसे मनोहर किष्किन्ध नगर में वह बाली इस प्रकार क्रीड़ा करता था जिस प्रकार कि ऐशान स्वर्ग में रत्नों की माला धारण करनेवाला इन्द्र क्रीड़ा किया करता है ॥8-9॥ अनुक्रम से बाली के सुग्रीव नाम का छोटा भाई उत्पन्न हुआ। सुग्रीव भी अत्यन्त धीर वीर, नीतिज्ञ एवं मनोहर रूप से युक्त था ॥१०॥ बाली और सुग्रीव-दोनों ही भाई किष्किन्ध नगर के कुल-भूषण थे और विनय आदि गुण उन दोनों के आभूषण थे ॥११॥ सुग्रीव के बाद श्रीप्रभा नाम की कन्या उत्पन्न हुई जो पृथ्वी में रूप से अनुपम थी तथा साक्षात् श्री अर्थात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ॥१२॥ सूर्यरज का छोटा भाई ऋक्षरज किष्कुप्रमोद नामक नगर में रहता था । सो उसने वहाँ हरिकान्ता नामक रानी में क्रम से नल और नील नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥१३॥ ये दोनों ही पुत्र आत्मीय जनों को आनन्द प्रदान करते थे, शत्रुओं को भय उत्पन्न करते थे, उत्कृष्ट गुणों से युक्त थे और किष्कुप्रमोद नगर के मानो आभूषण ही थे ॥१४॥ विद्वान्, कुशल एवं समीचीन चेष्टाओं को धारण करने वाले सूर्यरज ने जब देखा कि पुत्र की यौवन लक्ष्मी कुल-मर्यादा का पालन करने में समर्थ हो गयी है, तब उसने पंचेन्द्रियों के विषयों को विषमिश्रित अन्न के समान त्याज्य समझकर धर्म रक्षा का कारणभूत राज्य बाली के लिए दे दिया और सुग्रीव को युवराज बना दिया ॥१५-१६॥ सत्पुरुष सूर्यरज स्वजन और परिजन को समान जान तथा चतुर्गति रूप संसार को महादु:खों से पीड़ित अनुभव कर पिहितमोह नामक मुनिराज का शिष्य हो गया । जिनेन्द्र भगवान ने मुनियों का जैसा चारित्र बतलाया है सूर्यरज वैसे ही चारित्र का आधार था । वह शरीर में भी नि:स्पृह था । उसका हृदय आकाश के समान निर्मल था, वह वायु के समान नि:संग था, क्रोध-रहित था और केवल मुक्ति की ही लालसा रखता हुआ पृथिवी में विहार करता था ॥१७-१९॥ अथानन्तर बाली की ध्रुवा नाम की शीलवती स्त्री थी । वह ध्रुवा अपने गुणों के अभ्युदय से उसकी अन्य सौ स्त्रियों में प्रधानता को प्राप्त थी ॥२०॥ जिसके मुकुट में वानर का चिह्न था, तथा विद्याधर राजा जिसकी आज्ञा बड़े सम्मान के साथ मानते थे ऐसा सुन्दर विभ्रम को धारण करने वाला बाली उस ध्रुवा रानी के साथ महान् ऐश्वर्य का अनुभव करता था ॥२१॥ इसी बीच में मेघप्रभ का पुत्र खरदूषण जो निरन्तर छल का अन्वेषण करता था दशानन की बहन चन्द्रनखा का अपहरण करना चाहता था ॥२२॥ जिसका सर्व शरीर सुन्दर था ऐसी चन्द्रनखा को जिस समय से खरदूषण ने देखा था उसी समय से उसका शरीर काम से पीड़ित हो गया था ॥२३॥ एक दिन यम का मान मर्दन करनेवाला दशानन राजा प्रवर की आवली रानी से समुत्पन्न तनूदरी नामा कन्या का अपहरण करने के लिए गया था ॥२४॥ सो विद्या और माया दोनों में ही कुशल खरदूषण ने लंका को दशानन से रहित जानकर चन्द्रनखा का सुखपूर्वक-अनायास ही अपहरण कर लिया ॥२५॥ यद्यपि शूरवीर भानुकर्ण और विभीषण दोनों ही लंका में विद्यमान थे पर जब शत्रु माया से छिद्र पाकर कन्या का अपहरण कर रहा था तब वे क्या करते? ॥२६॥ उसके पीछे जो सेना जा रही थी भानुकर्ण और विभीषण ने उसे यह सोचकर लौटा लिया कि यह जिन्दा युद्ध में पकड़ा नहीं जा सकता ॥२७॥ लंका वापस आने पर दशानन ने जब यह बात सुनी तो भयंकर क्रोध से वह दुरीक्ष्य हो गया अर्थात् उसकी ओर देखना कठिन हो गया ॥२८॥ तदनन्तर बाहर से आने के कारण उत्पन्न परिश्रम से उसके शरीर पर पसीने की जो बूँदें उत्पन्न हुई थीं वे सूख नहीं पायी थीं, कि अभिमान से प्रेरित हो वह पुन: जाने के लिए उद्यत हो गया ॥२९॥ उसने अन्य किसी की अपेक्षा न कर सहायता के लिए सिर्फ एक तलवार अपने साथ ली, सो ठीक ही है क्योंकि युद्ध में शक्तिशाली मनुष्यों का अन्तरंग सहायक वही एक तलवार होती है ॥३०॥ ज्यों ही दशानन जाने के लिए उद्यत हुआ त्योंही स्पष्ट रूप से लोक की स्थिति को जानने वाली मन्दोदरी दोनों हस्त कमल जोड़कर इस प्रकार निवेदन करने लगी ॥३१॥ कि हे नाथ! निश्चय से कन्या दूसरे के लिए ही दी जाती है क्योंकि समस्त संसार में उनकी उत्पत्ति ही इस प्रकार की होती है ॥३२॥ खरदूषण के पास चौदह हजार विद्याधर हैं जो अत्यधिक शक्तिशाली तथा युद्ध से कभी पीछे नहीं हटने वाले हैं ॥३३॥ इस के सिवाय उस अहंकारी को कई हजार विद्याएँ सिद्ध हुई हैं यह क्या आपने लोगों से नहीं सुना? ॥३४॥ आप दोनों ही समान शक्ति के धारक हो अत: दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने पर एक दूसरे के प्रति विजय का सन्देह ही रहेगा ॥३५॥ यदि किसी तरह वह मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या दूसरे के लिए नहीं दी जा सकेगी, उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा ॥३६॥ इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि तुम्हारे अलंकारोदय नगर को जब राजा सूर्यरज ने छोड़ा था तब चन्द्रोदर नामा विद्याधर तुम्हारी इच्छा के प्रतिकूल उस नगर में जम गया था सो उसे निकालकर महाबलवान् खरदूषण तुम्हारी बहन के साथ उसमें रह रहा है इस प्रकार तुम्हारे स्वजन उससे उपकार को भी प्राप्त हुए हैं ॥३७-३८॥ यह कहकर जब मन्दोदरी चुप ही रही तब दशाननने कहा कि हे प्रिये ! यद्यपि मैं युद्ध से नहीं डरता हूँ तो भी अन्य कारणों को देखता हुआ मैं तुम्हारे वचनों में स्थित हूँ अर्थात् तुम्हारे कहे अनुसार उसका पीछा नहीं करता हूँ ॥३९॥ अथानन्तर कर्मों के नियोग से चन्द्रोदर विद्याधर काल को प्राप्त हुआ सो उसकी दीन-हीन अनुराधा नाम की गर्भवती स्त्री शरण रहित हो तथा विद्या के बल से शून्य हो हरिणी की नांई भयंकर वन में इधर-उधर भटकने लगी ॥४०-४१॥ वह भटकती-भटकती मणिकान्त नामक पर्वत पर पहुँची । वहाँ उसने कोमल पल्लव और फूलों के समूह से आच्छादित समशिला तल पर एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया ॥४२॥ तदनन्तर जिसका चित्त निरन्तर उद्विग्न रहता था, और पुत्र की आशा से ही जिसका जीवन स्थित था ऐसी उस वनवासिनी माता ने क्रम—क्रम से उस पुत्र को बड़ा किया ॥४३॥ चूँकि शत्रु ने उस पुत्र को गर्भ में ही विराधित किया था इसलिए भोगों से रहित उस पुत्र का माता ने विराधित नाम रखा ॥४४॥ जिस प्रकार अपने स्थान-मस्तक से च्युत हुए केश का कोई आदर नहीं करता उसी प्रकार उस विराधित का पृथिवी पर कोई भी आदर नहीं करता था ॥४५॥ वह शत्रु से बदला लेने में समर्थ नहीं था इसलिए मन में ही वैर धारण करता था और कुछ परम्परागत आचार का पालन करता हुआ इच्छित देशों में घूमता रहता था ॥४६॥ वह कुलाचलों के ऊपर, मनोहर वनों में तथा जहाँ देवों का आगमन होता था ऐसे अतिशय-पूर्ण स्थानों में क्रीड़ा किया करता था ॥४७॥ वह ध्वजा, छत्र आदि से सुन्दर तथा हाथियों आदि से व्याप्त देवों के साथ होनेवाले युद्धों में वीर मनुष्यों की चेष्टाएँ देखता हुआ घूमता फिरता था ॥४८॥ अथानन्तर उत्कृष्ट भोगों को प्राप्त करता हुआ देदीप्यमान दशानन लंकानगरी में इन्द्र के समान रहता था ॥४९॥ सो आश्चर्यजनक कार्य करने वाली विद्याओं से सेवित बलवान् बाली उसकी आज्ञा का अतिक्रम करने लगा ॥५०॥ तदनन्तर दशानन ने बाली के पास महाबुद्धिमान् दूत भेजा । सो स्वामी के गर्व को धारण करता हुआ दूत बाली के पास जाकर कहने लगा कि दशानन इस भरत क्षेत्र में अपनी शानी नहीं रखता । वह अतिशय प्रतापी, महाबलवान्, महातेजस्वी, लक्ष्मी-सम्पन्न, नीति में निपुण, महासाधन सम्पन्न, उग्रदण्ड देने वाला महान् अभ्युदय से युक्त, और शत्रुओं का मान मर्दन करनेवाला है । वह तुम्हें आज्ञा देता है कि ॥५१-५३॥ मैंने यमरूपी शत्रु को हटाकर आपके पिता सूर्यरज को वानरवंश में किष्किन्धपुर के राजपद पर स्थापित किया था ॥५४॥ तुम उस उपकार को भूलकर पिता के विरुद्ध कार्य करते हो । हे सत्पुरुष! तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है ॥55॥ मैं तेरे साथ पिता के समान अथवा उससे भी अधिक प्यार करता हूँ । तू आज भी आ और सुखपूर्वक रहने के लिए मुझे प्रणाम कर ॥56॥ अथवा अपनी श्रीप्रभा नामक बहन मेरे लिए प्रदान कर । यथार्थ में मेरे साथ सम्बन्ध प्राप्त कर लेने से तेरे लिए समस्त पदार्थ सुखदायक हो जायेंगे ॥५७॥ इतना कहने पर भी बाली दशानन को नमस्कार करने में विमुख रहा । मुख की विकृति से रोष प्रकट करता हुआ दूत फिर कहने लगा कि अरे वानर! इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है ? तू मेरे निश्चित वचन सुन, तू व्यर्थ ही थोड़ी-सी लक्ष्मी पाकर विडम्बना कर रहा है ॥58-59॥ तू अपने दोनों हाथों को या तो कर देने के लिए तैयार कर या शस्त्र ग्रहण करने के लिए तैयार कर । तू या तो शीघ्र ही चामर ग्रहण कर अर्थात् दास बनकर दशानन के लिए चामर ढोल या दिशामण्डल को ग्रहण कर अर्थात् दिशाओं के अन्त तक भाग जा ॥६०॥ तू या तो शिर को नम्र कर या धनुष को नम्रीभूत कर । या तो आज्ञा को कानों में पूर्ण कर या असहनीय शब्दों से युक्त तथा अपना जीवन प्रदान करने वाली धनुष की डोरी को कानों में पूर्ण कर अर्थात् कानों तक धनुष की डोरी खींच ॥६१॥ या तो मेरी चरणरज को मस्तक पर धारण कर अथवा सिर की रक्षा करनेवाला टोप मस्तक पर धारण कर । या तो क्षमा माँगने के लिए हाथ जोड़कर अंजलिया बांध या हाथियों का बड़ा भारी समूह एकत्रित कर ॥६२॥ या तो बाण छोड़ या पृथिवी को प्राप्त कर । या तो वेत्र ग्रहण कर या माला ग्रहण कर । या तो मेरे चरणों के नखों में अपना मुख देख या तलवाररूपी दर्पण में मुख देख ॥६३॥ तदनन्तर दूत के कठोर वचनों से जिसका मन उद्धूत हो रहा था ऐसा व्याघ्रविलम्बी नामक प्रमुख योद्धा कहने लगा ॥६४॥ कि रे दूत ! जिसके पराक्रम आदि गुणों का अभ्युदय समस्त पृथिवी में व्याप्त हो रहा है ऐसा बाली राजा क्या दुष्ट राक्षस के कर्णमूल को प्राप्त नहीं हुआ है? अर्थात् उसने बाली का नाम क्या अभी तक नहीं सुना है? ॥६५॥ यदि वह राक्षस ऐसा कहता है तो वह निश्चित ही भूतों से आक्रान्त है । अरे अधम दूत! तू तो स्वस्थ है फिर क्यों इस तरह तारीफ हाँक रहा है? ॥६६॥ इस प्रकार कहकर व्याधविलम्बी क्रोध से मूर्च्छित हो गया । उसकी ओर देखना भी कठिन हो गया । उसका शरीर स्पष्ट रूप से काँपने लगा । इसी दशा में वह दूत को मारने के लिए बाण उठाने लगा तो बाली ने कहा ॥६७॥ कि कथित बात को कहने वाले बेचारे दूत के मारने से क्या लाभ है? यथार्थ में ये लोग अपने स्वामी के वचनों की प्रतिध्वनि ही करते हैं ॥68॥ जो कुछ मन में आया हो वह दशानन का ही करना चाहिए । निश्चय ही दशानन की आयु अल्प रह गयी है इसीलिए तो वह कुवचन कह रहा है ॥६९॥ तदनन्तर अत्यन्त भयभीत दूत ने जाकर सब समाचार दशानन को सुनाये और दु:सह तेज के धारक उस दशानन के क्रोध को वृर्द्धिगत किया ॥७०॥ वह बड़ी शीघ्रता से तैयार हो सेना साथ ले किष्किन्धपुर की ओर चला सो ठीक ही है क्योंकि उसकी रचना अहंकार के परमाणुओं से ही हुई थी ॥७१॥ तदनन्तर आकाश को आच्छादित करनेवाला शत्रुदल का कल-कल शब्द सुनकर युद्ध करने में कुशल बालि ने महल से बाहर निकलने का मन किया ॥७२॥ तब क्रोध से प्रज्वलित बालि को सागर वृद्धि आदि नीतिज्ञ मन्त्रियों ने वचनरूपी जल के द्वारा इस प्रकार शान्त किया कि हे देव! अकारण युद्ध रहने दो, क्षमा करो, युद्ध के प्रेमी अनेकों राजा अनायास ही क्षय को प्राप्त हो चुके हैं ॥७३-७४॥ जिन्हें अर्ककीर्ति की भुजाओं का आलम्बन प्राप्त था तथा देव भी जिनकी रक्षा कर रहे थे ऐसे अष्टचन्द्र विद्याधर जयकुमार के बाणों के समूह से क्षय को प्राप्त हुए थे ॥७५॥ साथ ही जिसे देखना कठिन था, तथा जो उत्तमोत्तम तलवार और गदाओं को धारण करने वाली थी ऐसी बहुत भारी सेना भी नष्ट हुई थी इसलिए संशय की अनुपम तराजू पर आरूढ़ होना उचित नहीं है ॥७६॥ मन्त्रियों के वचन सुनकर बाली ने कहा कि यद्यपि अपनी प्रशंसा करना उचित नहीं है तथापि है मन्त्रिगणों! यथार्थ बात आप लोगों को कहता हूँ ॥७७॥ मैं सेना सहित दशानन को भ्रकुटिरूपी लता के उत्क्षेपमात्र से बायें हस्ततल की चपेट से ही चूर्ण करने में समर्थ हूँ ॥७८॥ फिर-फिर कठिन मन को क्रोधाग्नि से प्रज्वलित किया जाये तो कहना ही क्या है? फिर भी मुझे उस कर्म की आवश्यकता नहीं जिससे कि क्षण-भंगुर भोग प्राप्त होते हैं ॥७९॥ मोही जीव केला के स्तम्भ के समान नि:सार भोगों को प्राप्त कर महादुख से भरे नरक में पड़ते हैं ॥८०॥ जिन्हें अपना जीवन अत्यन्त प्रिय है ऐसे जीवों के समूह को मारकर सुख नाम को धारण करनेवाला दुख ही प्राप्त होता है, अत: उससे क्या लाभ है? ॥८१॥ ये प्राणी अरहट (रहट) की घटी के समान अत्यन्त दुःखी होते हुए संसाररूपी कूप में निरन्तर घूमते रहते हैं ॥८२॥ संसार से निकलने में कारणभूत जिनेन्द्र भगवान के चरण युगल को नमस्कार कर अब मैं अन्य पुरुष के लिए नमस्कार कैसे कर सकता हूँ ॥८३॥ जब पहले मुझे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ था तब मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों के सिवाय अन्य किसी को नमस्कार नहीं करूँगा ॥८४॥ मैं न तो इस प्रतिज्ञा का भंग करना चाहता हूँ और न प्राणियों की हिंसा ही । मैं तो मोक्ष-प्रदान करने वाली निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण करता हूँ ॥८५॥ जो हाथ उत्तमोत्तम स्त्रियों के स्तन तट का स्पर्श करने वाले थे तथा मनोहर रत्नमयी बाजूबन्दों से सुशोभित जो भुजाएँ उत्तमोत्तम स्त्रियों का आलिंगन करने वाली थीं उन्हें जो मनुष्य शत्रुओं के समक्ष अंजलि बाँधने में प्रयुक्त करता है उस अधम का ऐश्वर्य कैसा? और जीवन कैसा? ॥८६-८७॥ इस प्रकार कहकर उसने छोटे भाई सुग्रीव को बुलाकर कहा कि हे बालक! तू राज्य पर प्रतिष्ठित होकर दशानन को नमस्कार कर अथवा न कर और इसके लिए अपनी बहन दे अथवा न दे, मुझे इससे प्रयोजन नहीं । मैं तो आज ही घर से बाहर निकलता हूँ । जो तुझे हितकर मालूम हो वह कर ॥८८-८९॥ इतना कहकर बाली घर से निकल गया और गुणों से श्रेष्ठ गगन चन्द्र गुरु के समीप दिगम्बर हो गया ॥९०॥ अब तो उसने अपना मन परमार्थ में ही लगा रखा था । उसे अनेक ऋद्धि आदि अम्युदय प्राप्त हुए थे । वह एक शुद्ध भाव में ही सदा रत रहता था, परीषहों के सहन करने में शूरवीर था, सम्यग्दर्शन से निर्मल था अर्थात् शुद्ध सम्यग्दृष्टि था, उसकी आत्मा सदा सम्यग्ज्ञान में लीन रहती थी, वह सम्यक् चारित्र में तत्पर रहता था और मोह से रहित हो अनुप्रेक्षाओं के द्वारा आत्मा का चिन्तवन करता रहता था ॥९१-९२॥ सूक्ष्म जीवों से रहित तथा निर्मल आचार के धारी महामुनियों से सेवित धर्माराधन के योग्य भूमियों में ही वह विहार करता था । वह जीवों पर पिता के समान दया करता था । बाह्य तप से अन्तरंग तप को निरन्तर बढ़ाता रहता था ॥९३-९४॥ बड़ी-बड़ी ऋद्धियों की आवासता को प्राप्त था अर्थात् उसमें बडी-बड़ी ऋद्धियां निवास करती थीं, प्रशान्त चित्त था, उत्कष्ट तपरूपी लक्ष्मी से आलिंगित था, अत्यन्त सुन्दर था ॥९५॥ ऊँचे-ऊँचे गुणस्थानरूपी सीढ़ियों के चढ़ने में उद्यत रहता था, उसने अपने हृदय में समस्त ग्रन्थों की ग्रन्थियाँ अर्थात् कठिन स्थल खोल रखे थे, समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित था ॥९६॥ वह शास्त्र के द्वारा समस्त कृत्य और अकृत्य को समझता था । महा गुणवान् था, महासंवर से युक्त था, और कर्मों की सन्तति को नष्ट करनेवाला था ॥९७॥ वह प्राणों की रक्षा के लिए ही आगमोक्त विधि से आहार ग्रहण करता था, धर्म के लिए ही प्राण धारण करता था और मोक्ष के लिए ही धर्म का अर्जन करता था ॥९८॥ वह भव्य जीवों को सदा आनन्द उत्पन्न करता था, उत्कृष्ट पराक्रम का धारी था और अपने चारित्र से तपस्वीजनों का उपमान हो रहा था ॥९९॥ इधर सुग्रीव दशानन के लिए श्रीप्रभा बहन देकर उसकी अनुमति से सुख पूर्वक वंश-परम्परागत राज्य का पालन करने लगा ॥१००॥ पृथ्वी पर विद्याधरों की जो सुन्दर कुमारियां थीं दशाननने अपने पराक्रम से उन सबके साथ विवाह किया ॥१०१॥ अथानन्तर एक बार दशानन नित्यालोक नगर में राजानित्यालोक की श्रीदेवी से समुत्पन्नरलावली नाम की पुत्री को विवाह कर बड़े हर्ष के साथ आकाशमार्ग से अपनी नगरी की ओर आ रहा था । उस समय उसके मुकुट में जो रत्न लगे थे उनकी किरणों से आकाश सुशोभित हो रहा था ॥१०२-१०३॥ जिस प्रकार बड़ा भारी वायुमण्डल मेरु के तट को पाकर सहसा रुक जाता है उसी प्रकार मन के समान चंचल पुष्पक विमान सहसा रुक गया ॥१०४॥ जब पुष्पक विमान की गति रुक गयी और घण्टा आदि से उत्पन्न होनेवाला शब्द भंग हो गया तब ऐसा जान पड़ता था मानो तेजहीन होने से लज्जा के कारण उसने मौन ही ले रखा था ॥१०५॥ विमान को रुका देख दशानन ने क्रोध से दमकते हुए कहा कि अरे यहाँ कौन है? कौन है? ॥१०६॥ तब सर्व वृत्तान्त को जानने वाले मारीच ने कहा कि हे देव! सुनो, यहाँ कैलास पर्वत पर एक मुनिराज प्रतिमा योग से विराजमान हैं ॥१०७॥ ये सूर्य के सम्मुख विद्यमान हैं और अपनी किरणों से सूर्य की किरणों को इधर-उधर प्रक्षिप्त कर रहे हैं । समान शिलातल पर ये रत्नों के स्तम्भ के समान अवस्थित हैं ॥१०८॥ घोर तपश्चरण को धारण करने वाले ये कोई महान् वीर पुरुष हैं और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं । इन्हीं से यह वृत्तान्त हुआ है ॥१०९॥ इन मुनिराज के प्रभाव से जब तक विमान खण्ड-खण्ड नहीं हो जाता है, तब तक शीघ्र ही इस स्थान से विमान को लौटा लेता हूँ ॥११०॥ अथानन्तर मारीच के वचन सुनकर अपने पराक्रम के गर्व से गर्वित दशानन ने कैलास पर्वत की ओर देखा ॥१११॥ वह कैलास पर्वत व्याकरण की उपमा प्राप्त कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार व्याकरण भू आदि अनेक धातुओं से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी सोना-चाँदी अनेक धातुओं से युक्त था । जिस प्रकार व्याकरण हजारों गणों-शब्द-समूहों से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी हजारों गणों अर्थात् साधु-समूहों से युक्त था । जिस प्रकार व्याकरण सुवर्ण अर्थात् उत्तमोत्तम वर्णों की घटना से मनोहर है उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवर्ण अर्थात् स्वर्ण की घटना से मनोहर था । जिस प्रकार व्याकरण पदों अर्थात् सुबन्त तिङन्तरूप शब्द समुदाय से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक पदों अर्थात् स्थानों या प्रत्यन्त पर्वतों अथवा चरणचिह्नों से युक्त था ॥११२॥ जिस प्रकार व्याकरण प्रकृति अर्थात् मूल शब्दों के अनुरूप विकारों अर्थात् प्रत्ययादिजन्य विकारों से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रकृति अर्थात् स्वाभाविक रचना के अनुरूप विकारों से युक्त था । जिस प्रकार व्याकरण विल अर्थात् मूल सूत्रों से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी विल अर्थात् ऊपर पृथिवी अथवा गर्त आदि से युक्त था । और जिस प्रकार व्याकरण उदात्त-अनुदात्तस्वरित आदि अनेक प्रकार के स्वरों से पूर्ण है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक प्रकार के स्वरों अर्थात् प्राणियों के शब्दों से पूर्ण था ॥११३॥ वह अपने तीक्ष्ण शिखरों से ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश के खण्ड ही कर रहा था । और ऊपर की ओर उछलते हुए छींटों से युक्त निर्झरों से ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो ॥११४॥ मकरन्दरूपी मदिरा से मत्त भ्रमरों के समूह से वह पर्वत कुछ बढ़ता हुआ-सा जान पड़ता था । शालाओं के समूह से उसने आकाश को व्याप्त कर रखा था । साथ ही नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त था ॥११५॥ वह सर्व ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले पुष्प आदि से व्याप्त था तथा उसकी उपत्यकाओं में हर्ष से भरे हजारों प्राणी चलते-फिरते दिख रहे थे ॥११६॥ वह पर्वत औषधियों के भय से दूर स्थित सर्पों के समूह से व्याप्त था तथा मनोहर सुगन्धि से ऐसा जान पड़ता था मानो सदा यौवन को ही धारण कर रहा हो ॥११७॥ बड़ी-बड़ी शिलाएँ ही उसका लम्बा-चौड़ा वक्षस्थल था, बड़े-बड़े वृक्ष ही उसकी महाभुजाएँ थीं: और गुफाएँ ही उसका गम्भीर मुख थीं, इस प्रकार वह पर्वत अपूर्व पुरुष की आकृति धारण कर रहा था ॥१ १८॥ वह शरद्ऋतु के बादलों के समान सफेद-सफेद किनारों के समूह से व्याप्त था तथा किरणों के समूह से ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त संसार को दूध से ही धो रहा हो ॥११९॥ कहीं उसकी गुफाओं में सिंह निशंक होकर सो रहे थे और कहीं सोये हुए अजगरों की श्वासोच्छवास की वायु से वृक्ष हिल रहे थे ॥१२०॥ कहीं उसके किनारों के वनों में हरिणों का समूह क्रीड़ा कर रहा था और कहीं उसकी अधित्यका के वनों में मदोन्मत्त हाथियों के समूह स्थित थे ॥१२१॥ कहीं फूलों के समूह से व्याप्त होने के कारण ऐसा जान पड़ता था मानो उसके रोमांच ही उठ रहे हों और कहीं उद्धत रीक्षों की लम्बी-लम्बी सटाओं से उसका आकार भयंकर हो रहा था ॥१२२॥ कहीं बन्दरों के लाल-लाल मुँहों से ऐसा जान पड़ता था मानो कमलों के वन से ही युक्त हो और कहीं गैंडा-हाथियों के द्वारा खण्डित साल आदि वृक्षों से जो पानी झर रहे था उससे सुगन्ध फैल रही थी ॥१२३॥ कहीं बिजलीरूपी लताओं से आलिंगित मेघों की सन्तति उत्पन्न हो रही थी और कहीं सूर्य के समान देदीप्यमान शिखरों से आकाश प्रकाशमान हो रहा था ॥१२४॥ जिनके लम्बे-चौड़े सघन वृक्ष सुगन्धित फूलों से ऊँचे उठे हुए थे ऐसे वनों से वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो पाण्डुकवन को जीतना ही चाहता हो ॥१२५॥ दशानन ने उस पर्वत पर उतरकर उन महामुनि के दर्शन किये । वे महामुनि ध्यानरूपी समुद्र में निमग्न थे और तेज के द्वारा चारों ओर मण्डल बाँध रहे थे ॥१२६॥ दिग्गजों के शुण्डादण्ड के समान उनकी दोनों भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सर्पों से आवेष्टित चन्दन का बड़ा वृक्ष ही हो ॥१२७॥ वे आतापन योग में शिला पीठ के ऊपर निश्चल बैठे थे और प्राणियों के प्रति ऐसा संशय उत्पन्न कर रहे थे कि ये जीवित हैं भी या नहीं ॥१२८॥ तदनन्तर यह बालि हैं ऐसा जानकर दशानन पिछले वैर का स्मरण करता हुआ क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो उठा ॥१२९॥ जो ओंठ चबा रहा था, जिसकी आवाज अत्यन्त कर्कश थी, और जो अत्यन्त देदीप्यमान आकार का धारक था ऐसा दशानन भ्रकुटी बाँधकर बड़ी निर्भयता के साथ मुनिराज से कहने लगा ॥१३०॥ कि अहो! तुमने यह बड़ा अच्छा तप करना प्रारम्भ किया कि अब भी अभिमान से मेरा विमान रोका जा रहा है ॥१३१॥ धर्म कहाँ और क्रोध कहाँ? अरे दुर्बुद्धि ! तू व्यर्थ ही श्रम कर रहा है और अमृत तथा विष को एक करना चाहता है ॥१३२॥ इसलिए मैं तेरे इस उद्धत अहंकार को आज ही नष्ट किये देता हूँ । तू जिस कैलास पर्वत पर बैठा है उसे उखाड़कर तेरे ही साथ अभी समुद्र में फेंकता हूँ ॥१३३॥ तदनन्तर उसने समस्त विद्याओं का ध्यान किया जिससे आकर उन्होंने उसे घेर लिया । अब दशाननने इन्द्र के समान महा भयंकर रूप बनाया और महाबाहु-रूपी वन से सब ओर सघन अन्धकार फैलाता हुआ वह पृथिवी को भेदकर पाताल में प्रविष्ट हुआ । पाप करने में वह उद्यत था ही ॥१३४-१३५॥ तदनन्तर क्रोध के कारण जिसके नेत्र अत्यन्त लाल हो रहे थे, और जिसका मुख क्रोध से मुखरित था ऐसे प्रबल पराक्रमी दशानन ने अपनी भुजाओं से कैलास को उठाना प्रारम्भ किया ॥१३६॥ आखिर, पृथिवी को अत्यन्त चंचल करता हुआ कैलास पर्वत स्वस्थान से चलित हो गया । उस समय वह कैलास विषकणों को छोड़ने वाले लम्बे-लम्बे लटकते हुए साँपों को धारण कर रहा था । सिंहों की चपेट में जो मत्त हाथी आ फंसे थे वे छूटकर अलग हो रहे थे । घबड़ाये हुए हरिणों के समूह अपने कानों को ऊपर की ओर निश्चल खड़ा कर इधर-उधर भटक रहे थे । फटी हुई पृथिवी ने झरनों का समस्त जल पी लिया था इसलिए उनकी धाराएँ टूट गयी थीं । बड़े-बड़े वृक्षों का जो समूह टूट-टूटकर चारों ओर गिर रहा था उससे बड़ा भारी शब्द उत्पन्न हो रहा था । शिलाओं के समूह चटक कर चट-चट शब्द कर रहे थे इससे वहाँ भयंकर शब्द हो रहा था । और बड़े-बड़े पत्थर टूट-टूटकर नीचे गिर रहे थे तथा उससे उत्पन्न होनेवाले शब्दों से समस्त लोक व्याप्त हो रहा था ॥१३७-१४०॥ विदीर्ण पृथिवी ने समुद्र का सब जल पी लिया था इसलिए वह सूख गया था । समुद्र की ओर जाने वाली नदियां स्वच्छता से रहित होकर उलटी बहने लगी थीं ॥१४१॥ प्रमथ लोग भयभीत होकर दिशाओं की ओर देखने लगे तथा बहुत भारी आश्चर्य में निमग्न हो यह क्या है? क्या है? हा-हाँ, हुँ-ही आदि शब्द करने लगे ॥१४२॥ अप्सराओं ने भयभीत होकर उत्तमोत्तम लताओं के मण्डप छोड़ दिये और पक्षियों के समूह कलकल शब्द करते हुए आकाश में जा उड़े ॥१४३॥ पाताल से लगातार निकलने वाले दशानन के दस मुखों की अट्टहास से दिशाओं के साथ-साथ आकाश फट पड़ा ॥१४४॥ तदनन्तर जब समस्त संसार संवर्तक नामक वायु से ही मानो आकुलित हो गया था तब भगवान् बाली मुनिराज ने अवधिज्ञान से दशानन नामक राक्षस को जान लिया ॥१४५॥ यद्यपि उन्हें स्वयं कुछ भी पीड़ा नहीं हुई थी और पहले की तरह उनका समस्त शरीर निश्चल रूप से अवस्थित था तथापि वे धीरवीर और क्रोध से रहित हो अपने चित्त में इस प्रकार विचार करने लगे कि ॥१४६॥ चक्रवर्ती भरत ने ये नाना प्रकार के सर्व रत्नमयी ऊँचे-ऊँचे जिन-मन्दिर बनवाये हैं । भक्ति से भरे सुर और असुर प्रतिदिन इनकी पूजा करते हैं सो इस पर्वत के विचलित हो जाने पर कहीं ये जिन-मन्दिर नष्ट न हो जावें ॥१४७॥ ऐसा विचारकर शुभध्यान के निकट ही जिनकी चेतना थी ऐसे मुनिराज बाली ने पर्वत के मस्तक को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया ॥१४८-१४९॥ तदनन्तर जिसकी भुजाओं का बन बहुत भारी बोझ से आक्रान्त होने के कारण अत्यधिक टूट रहा था, जो दुख से आकुल था, इसकी लाल-लाल मनोहर आँखें चंचल हो रही थीं ऐसा दशानन अत्यन्त व्याकुल हो गया । उसके सिर का मुकुट टूटकर नीचे गिर गया और उस नंगे सिर पर पर्वत का भार आ पड़ा । नीचे धँसती हुई पृथिवी पर उसने घुटने टेक दिये । स्थूल होने के कारण उसकी जंघाएँ मांसपेशियों में निमग्न हो गयीं ॥१५०-१५१॥ उसके शरीर से शीघ्र ही पसीना की धारा बह निकली और उससे उसने रसातल को धो दिया । उसका सारा शरीर कछुए के समान संकुचित हो गया ॥१५२॥ उस समय चूंकि उसने सर्व प्रयत्न से चिल्लाकर समस्त संसार को शब्दायमान कर दिया था इसलिए वह पीछे चलकर सर्वत्र प्रचलित रावण इस नाम को प्राप्त हुआ ॥१५३॥ रावण की स्त्रियों का समूह अपने स्वामी के उस अश्रुतपूर्व दीन-हीन शब्द को सुनकर व्याकुल हो विलाप करने लगा॥१५४॥ मन्त्री लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । वे युद्ध के लिए तैयार हो व्यर्थ ही इधर-उधर फिरने लगे । उनके वचन बार-बार बीच में ही स्खलित हो जाते थे और हथियार उनके हाथ से छूट जाते थे ॥१५५॥ मुनिराज के वीर्य के प्रभाव से देवो के दुन्दुभि बजने लगे और भ्रमरसहित फूलों की वृष्टि आकाश को आच्छादित कर पड़ने लगी ॥१५६॥ क्रीड़ा करना जिनका स्वभाव था ऐसे देव-कुमार आकाश में नृत्य करने लगे और देवियों की संगीत ध्वनि वंशी की मधुर ध्वनि के साथ सर्वत्र उठने लगी ॥१५७॥ तदनन्तर मन्दोदरी ने दीन होकर मुनिराज को प्रणाम कर याचना की कि है अद्भुत पराक्रम के धारी! मेरे लिए पति-भिक्षा दीजिए ॥१५८॥ तब महामुनि ने दयावश पैर का अँगूठा ढीला कर लिया और रावण भी पर्वत को जहाँ का तहाँ छोड़ क्लेशरूपी अटके से बाहर निकला ॥१५९॥ तदनन्तर जिसने तप का बल जान लिया था ऐसे रावण ने जाकर मुनिराज को प्रणाम कर बार-बार क्षमा मांगी और इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥१६०॥ कि हे पूज्य! आपने जो प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिनेन्द्रदेव के चरणों को छोड़कर अन्य के लिए नमस्कार नहीं करूँगा यह उसी की सामर्थ्य का फल है ॥१६१॥ हे भगवद् ! आपके तप का महाफल निश्चय से सम्पन्न है इसीलिए तो आप तीन लोक को अन्यथा करने में समर्थ हैं ॥१६२॥ तप से समृद्ध मुनियों की थोड़े ही प्रयत्न से उत्पन्न जैसी सामर्थ्य देखी जाती है हे नाथ! वैसी सामर्थ्य इन्द्रों की भी नहीं देखी जाती है ॥१६३॥ आपके गुण, आपका रूप, आपकी कान्ति, आपका बल, आपकी दीप्ति, आपका धैर्य, आपका शील और आपका तप सभी आश्चर्यकारी हैं ॥१६४॥ ऐसा जान पड़ता है मानो कर्मों ने तीनों लोकों से समस्त सुन्दर पदार्थ ला-लाकर पुण्य के आधारभूत आपके शरीर की रचना की है ॥१६५॥ हे सत्पुरुष! इस लोकोत्तर सामर्थ्य से युक्त होकर भी जो आपने पृथिवी का त्याग किया है यह अत्यन्त आश्चर्यजनक कार्य है ॥१६६॥ ऐसी सामर्थ्य से युक्त आपके विषय में जो मैंने अनुचित कार्य करना चाहा था वह मुझ असमर्थ के लिए केवल पाप-बन्ध का ही कारण हुआ ॥१६७॥ मुझ पापी के इस शरीर को, हृदय को और वचन को धिक्कार है कि जो अयोग्य कार्य करने के सम्मुख हुए ॥१६८॥ हे द्वेषरहित ! आप-जैसे नर-रत्नों और मुझ-जैसे दुष्ट पुरुषों के बीच उतना ही अन्तर है जितना कि मेरु और सरसों के बीच होता है ॥१६९॥ हे मुनिराज ! मुझ मरते हुए के लिए आपने प्राण प्रदान किये हैं सो अपकार करने वाले पर जिसकी ऐसी बुद्धि है उसके विषय में क्या कहा जावे? ॥१७०॥ मैं सुनता हूँ, जानता हूँ और देखता हूँ कि संसार केवल दुःख का अनुभव कराने वाला है फिर भी मैं इतना पापी हूँ कि विषयों से वैराग्य को प्राप्त नहीं होता ॥१७१॥ जो तरुण अवस्था में ही विषयों को छोड़कर मोक्ष-मार्ग में स्थित हुए हैं वे पुण्यात्मा हैं, महा शक्तिशाली हैं और मुक्तिलक्ष्मी के समीप में विचरने वाले हैं ॥१७२॥ इस प्रकार स्तुति कर उसने मुनिराज को प्रणाम कर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, अपने आपकी बहुत निन्दा की और दु:खवश मुँह से सू-सू शब्द कर रुदन किया ॥१७३॥ मुनिराज के समीप जो जिन-मन्दिर था लज्जा से युक्त और विषयों से विरक्त रावण उसी के अन्दर चला गया ॥१७४॥ वहाँ उसने चन्द्रहास नामक खड्ग को अनादर से पृथिवी पर फेंक दिया और अपनी स्त्रियों से युक्त होकर जिनेन्द्रदेव की पूजा की ॥१७५॥ उसके भाव-भक्ति में इतने लीन हो गये थे कि उसने अपनी भुजा की नाड़ी रूपी तन्त्री को खींचकर वीणा बजायी और सैकड़ों स्तुतियों के द्वारा जिनराज का गुणगान किया ॥१७६॥ वह गा रहा था कि नाथ! आप देवों के देव हो, लोक और अलोक को देखने वाले हो, आपने अपने तेज से समस्त लोक को अतिक्रान्त कर दिया है, आप कृतकृत्य हैं, महात्मा हैं । तीनों लोक आपकी पूजा करते हैं, आपने मोह रूपी महा शत्रु को नष्ट कर दिया है, आप वचनागोचर गुणों के समूह को धारण करने वाले हैं। आप महान् ऐश्वर्य से सहित हैं, मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले हैं, सुख की परम सीमा से समृद्ध हैं, आपने समस्त कुत्सित वस्तुओं को दूर कर दिया है । आप प्राणियों के लिए मोक्ष तथा स्वर्ग के हेतु हैं, महा कल्याणों के मूल कारण हैं, समस्त कार्यों के विधाता हैं । आपने ध्यानाग्नि के द्वारा समस्त पापों को जला दिया है, आप जन्म का विध्वंस करने वाले हैं, गुरु हैं, आपका कोई गुरु नहीं है, सब आपको प्रणाम करते हैं और आप स्वयं किसी को प्रणाम नहीं करते । आप आदि तथा अन्त से रहित हैं, आप निरन्तर आदि तथा अन्तिम योगी हैं, आपके परमार्थ को कोई नहीं जानता पर आप समस्त परमार्थ को जानते हैं । आत्मा रागादिक विकारों से शून्य है ऐसा उपदेश आपने सबके लिए दिया है, आत्मा है, परलोक है इत्यादि आस्तिक्यवाद का उपदेश भी आपने सबके लिए दिया है, पर्यायार्थिक नय से संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं इस पक्ष का निरूपण आपने जहाँ किया है वहाँ द्रव्यार्थिक नय से समस्त पदार्थों को नित्य भी आपने दिखलाया है । हमारी आत्मा समस्त पर-पदार्थों से पृथक् अखण्ड एक द्रव्य है ऐसा कथन आपने किया है, आप सबके लिए अनेकान्त धर्म का प्रतिपादन करने वाले हैं, कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वालो में श्रेष्ठ हैं, सर्व-पदार्थों को जानने वाले होने से सर्वरूप हैं, अखण्ड चैतन्य पुंज के धारक होने से एकरूप हैं और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं अत: आपको नमस्कार हो ॥१७७-१८४॥ ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयोनाथ, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, सौख्यों के मूल कारण शान्तिनाथ, कुन्थु जिनेन्द्र, अरनाथ, मल्लि महाराज और मुनिसुव्रत भगवान् इन वर्तमान तीर्थंकरों को मन-वचन-काय से नमस्कार हो । इनके सिवाय जो अन्य भूत और भविष्यत् काल सम्बन्धी तीर्थकर हैं उन्हें नमस्कार हो । साधुओं के लिए सदा नमस्कार हो । सम्यक्त्व-सहित ज्ञान और एकान्तवाद को नष्ट करने वाले दर्शन के लिए निरन्तर नमस्कार हो, तथा सिद्ध-परमेश्वर के लिए सदा नमस्कार हो ॥१८५-१९१॥ लंका का स्वामी रावण जब इस प्रकार के पवित्र अक्षर गा रहा था तब नागराज धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ ॥१९२॥ तदनन्तर उत्तम हृदय को धारण करनेवाला नागराज शीघ्र ही पाताल से निकलकर बाहर आया । उस समय अवधिज्ञानरूपी प्रकाश से उसकी आत्मा प्रकाशमान थी, सन्तोष से उसके नेत्र विकसित हो रहे थे, ऊपर उठे हुए फणों में जो मणि लगे हुए थे उनकी कान्ति से वह अन्धकार के समूह दूर हटा रहा था और पूर्ण तथा निर्मल चन्द्रमा के समान प्रसन्न मुख से शोभित था ॥१९३-१९४॥ उसने आकर जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार किया और तदनन्तर ध्यान मात्र से ही जिसमें समस्त द्रव्यरूपी सम्पदा प्राप्त हो गयी थी ऐसी विधिपूर्वक पूजा की ॥१९५॥ पूजा के बाद उसने रावण से कहा कि हे सत्पुरुष! तुमने जिनेन्द्रदेव की स्तुति से सम्बन्ध रखने वाला यह बहुत अच्छा गीत गाया है । तुम्हारा यह गीत रोमांच उत्पन्न होने का कारण है ॥१९६॥ देखो, सन्तोष के कारण मेरे शरीर में सघन एवं कठोर रोमांच निकल आये हैं । मैं पाताल में रहता था फिर भी तुझे अब भी शान्ति प्राप्त नहीं हो रही है ॥१९७॥ हे राक्षसेश्वर! तू धन्य है जो जिनेन्द्र भगवान की इस प्रकार स्तुति करता है । तेरी भावना ने मुझे बलपूर्वक खींचकर यहाँ बुलाया है ॥१९८॥ जिनेन्द्रदेव के प्रति जो तेरी भक्ति है उससे में बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ । तू वर माँग, मैं तुझे शीघ्र ही कुपुरुषों की दुर्लभ इच्छित वस्तु देता हूँ ॥१९९॥ तदनन्तर कैलास को कम्पित करने वाले रावण ने कहा कि मुझे मालूम है-आप नागराज धरणेन्द्र हैं। सो मैं आप से ही पूछता हूँ भला आप ही बतलाइए ॥२००॥ कि जिन-वन्दना के समान और कौन-सी शुभ-वस्तु है जिसे देने के लिए उद्यत हुए आप से मैं मांगूँ ॥२०१॥ तब नागराज ने कहा कि हे रावण! सुन, जिनेन्द्र-वन्दना के समान और दूसरी वस्तु कल्याणकारी नहीं है ॥२०२॥ जो जिन-भक्ति अच्छी तरह उपासना करने पर निर्वाण सुख प्रदान करती है उसके तुल्य दूसरी वस्तु न तो हुई है और न होगी ॥२०३॥ यह सुन रावण ने कहा कि जब जिनेन्द्र वन्दना से बढ़कर और कुछ नहीं है और वह मुझे प्राप्त है तब हे महाबुद्धिमान् ! तुम्हीं कहो इससे अधिक और किस वस्तु की याचना तुम से करूँ ॥२०४॥ नागराज ने फिर कहा कि तुम्हारा यह कहना सच है । वास्तव में जो वस्तु जिन-भक्ति से असाध्य हो वह है ही नहीं ॥२०५॥ तुम्हारे समान, हमारे समान और इन्द्र आदि के समान जो भी सुख के आधार हैं वे सब जिन-भक्ति से ही हुए हैं ॥२०६॥ यह संसार का सुख तो अत्यन्त अल्प तथा बाधा से सहित है अत: इसे रहने दो, जिन-भक्ति से तो मोक्ष का भी उत्तम सुख प्राप्त हो जाता है ॥२०७॥ यद्यपि तू त्यागी है, महाविनय से युक्त है, वीर्यवान् है, उत्तम ऐश्वर्य से सहित है और गुणों से विभूषित है तथापि तेरे लिए मेरा जो अमोघ दर्शन हुआ वह व्यर्थ न हो इसलिए मैं तुझ से कुछ ग्रहण करने की याचना करता हूँ ॥२०८-२०९॥ हे लंकेश! जिससे मनचाहे रूप बनाये जा सकते हैं ऐसी अमोघविजया शक्ति नाम की विद्या मैं तुझे देता हूँ सो ग्रहण कर, मेरा स्नेह खण्डित मत कर ॥२१०॥ हे भले मानुष। एक ही दशा में किसका काल बीतता है? विपत्ति के बाद सम्पत्ति और सम्पत्ति के बाद विपत्ति सभी को प्राप्त होती है ॥२११॥ इसलिए यदि कदाचित् किसी कारणवश विपत्ति तेरे समीप आयेगी तो यह विद्या शत्रु को बाधा पहुँचाती हुई तेरी रक्षक होगी ॥२१२॥ मनुष्य तो दूर रहें अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त इस शक्ति से, शक्ति के धारक देव भी भयभीत रहते है ॥२१३॥ आखिर, रावण नागराज के इस स्नेह को भंग नहीं कर सका और उसने बड़ी कठिनाई से ग्रहण करने वाले की लघुता प्राप्त की ॥२१४॥ तदनन्तर हाथ जोड़कर और पूजा कर रावण से वार्तालाप करता हुआ नागराज बड़े हर्ष से अपने स्थान पर चला गया ॥२१५॥ रावण भी एक माह तक कैलास पर्वत पर रहकर तथा जिनेन्द्रदेव को नमस्कार कर इच्छित स्थल को चला ॥२१६॥ मुनिराज बाली ने मन में क्षोभ उत्पन्न होने से अपने आपको पाप-कर्म का बन्ध करनेवाला समझ गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त ग्रहण किया ॥२१७॥ जिस प्रकार विष्णुकुमार महामुनि प्रायश्चित्त कर सुखी हुए थे उसी प्रकार बाली मुनिराज भी प्रायश्चित्त द्वारा हृदय की शल्य निकल जाने से सुखी हुए ॥२१८॥ चारित्र, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, समिति और परीषह सहन करने से मुनिराज महासंवर को प्राप्त हुए । नवीन कर्मों का अर्जन उन्होंने बन्द कर दिया और पहले के संचित कर्मों का तप के द्वारा नाश करना शुरू किया । इस तरह संवर और निर्जरा के द्वारा वे केवलज्ञान प्राप्त हुए ॥२१९-२२०॥ अन्त में आठ कर्मों को नष्ट कर वे तीन-लोक के उस शिखर पर जा पहुँचे जहां अनन्त सुख प्राप्त होता है ॥२२१॥ जो इन्द्रियों को जीतने में समर्थ है मैं उससे हारा हूँ यह जानकर अब रावण साधुओं के समक्ष नम्र रहने लगा ॥२२२॥ जो सम्यग्दर्शन से सम्पन्न था, और जिनदेव में जिसकी दृढ़ भक्ति थी ऐसा रावण परम भोगों से तृप्त न होता हुआ इच्छानुसार रहने लगा ॥२२३॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! जो उत्तम मनुष्य शुभ-तत्पर होता हुआ बाली मुनि के इस चरित्र को सुनता है वह कभी पर से पराभव को प्राप्त नहीं और सूर्य के समान देदीप्यमान पद को प्राप्त होता है ॥२२४॥ इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरितमें बालि निर्वाण का कथन करनेवाला नवम पर्व पूर्ण हुआ ॥9॥ |