+ राजा मरुत्व के यज्ञ का विध्वंस -
एकादस पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर रावण ने पृथ्वी पर जिन-जिन राजाओं को मानी सुना उन सबको नम्रीभूत किया ॥१॥ जिन राजाओं को इसने वश किया था उनका सम्मान भी किया और ऐसे उन समस्त राजाओं से वेष्टित होकर उसने बड़े-बड़े ग्रामों से सहित पृथ्वी को देखते हुए सुभूमचक्रवर्ती के समान भ्रमण किया ॥२॥ इसके साथ नाना देशों में उत्पन्न हुए नाना आकार के मनुष्य थे । वे मनुष्य नाना प्रकार के आभूषण पहने हुए थे, नाना प्रकार की उनकी चेष्टाएँ थीं और नाना प्रकार के वाहनों पर वे आरूढ़ थे ॥३॥ वह जीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराता जाता था और देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव की बड़े भाव से पूजा करता था ॥४॥ जैनधर्म के साथ द्वेष रखनेवाले दुष्ट मनुष्यों को नष्ट करता था और दरिद्र मनुष्यों को-दया से युक्त हो धन से परिपूर्ण करता था ॥५॥ सम्यग्दर्शन से शुद्ध जनों की बड़े स्नेह से पूजा करता था और जो मात्र जैन-मुद्रा को धारण करने वाले थे ऐसे मुनियों को भी भक्ति पूर्वक प्रणाम करता था ॥६॥ जिस प्रकार उत्तरायण के समय सूर्य दु:सह प्रताप बिखेरता हुआ उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करता है उसी प्रकार रावण ने भी पुण्य कर्म के उदय से दु:सह प्रताप बिखेरते हुए उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया ॥७॥

अथानन्तर रावण ने सुना कि राजपुर का राजा बहुत बलवान् है । वह बहुत भारी अहंकार को धारण करता हुआ कभी किसी को प्रणाम नहीं करता है ॥८॥ जन्म से ही लेकर दुष्ट-चित्त है, लौकिक मिथ्या मार्ग से मोहित है, और प्राणियों का विध्वंस कराने वाले यज्ञ दीक्षा नामक महापाप को प्राप्त है अर्थात् यज्ञ क्रिया में प्रवृत्त है ॥९॥ तदनन्तर यज्ञ का कथन सुन राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि हे विभो! अभी रावण की कथा रहने दीजिए । पहले मैं इस यज्ञ की उत्पत्ति जानना चाहता हूँ कि जीवों का विघात करने वाले जिस यज्ञ में दुष्टजन प्रवृत्त हुए हैं ॥१०-११॥ तब गणधर बोले कि हे श्रेणिक! सुन, तूने बहुत अच्छा प्रश्न कि‍या है । इस यज्ञ के द्वारा बहुत से जन मोहित हो रहे हैं ॥१२॥

अयोध्या नगरी में इक्ष्‍वाकुकुल का आभूषण स्वरूप एक ययाति नाम का राजा था और सुरकान्ता नाम की उसकी रानी थी ॥१३॥ उन दोनों के वसु नाम का पुत्र हुआ । जब वह पढ़ने के योग्य हुआ तब क्षीरकदम्बक नामक गुरु के लिए सौंपा गया । क्षीरकदम्बक की स्‍त्री का नाम स्वस्तिमती था ॥॥ किसी एक दिन सर्व शास्त्रों में निपुण क्षीरकदम्बक, वन के मध्य में नारद आदि शिष्यों को आरण्यक शास्त्र पढ़ा रहा था ॥१५॥ वहीं आकाशमार्ग से विहार करने वाले चारण मुनियों का संघ विराजमान था । उनमें से एक दयालु मुनि ने इस प्रकार कहा कि इन चार प्राणियों में से एक नरक को प्राप्त होगा । मुनि के वचन सुन क्षीरकदम्बक अत्यन्त भयभीत हो गया ॥१६-१७॥ तदनन्तर उसने नारद, पर्वत और वसु इन तीनों शिष्यों को अपने-अपने घर भेज दिया और वे शिष्य भी बन्धन से छोड़े गये बछड़ों के समान सन्तुष्ट होते हुए अपने-अपने घर गये ॥१८॥ जब पर्वत अकेला ही घर पहुँचा तब उसकी माता स्वस्तिमती ने पूछा कि हे पुत्र! तुम्हारे पिता कहाँ हैं जिससे कि तुम अकेले ही आये हो ॥१९॥ पर्वत ने माता को उत्तर दिया कि उन्होंने कहा था कि पीछे आते हैं । पति के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए स्वस्तिमती का दिन समाप्त हो गया ॥२०॥ जब दिन का बिलकुल अन्त हो गया और सघन अन्धकार फैल चुका फिर भी वह नहीं आया तब स्वस्तिमती शोक के भार से आक्रान्त हो पृथ्वी पर गिर पड़ी ॥२१॥ वह दुःख से पीड़ित हो चकवी के समान इस प्रकार विलाप करने लगी कि हाय-हाय मैं बड़ी मन्दभाग्य हूँ जो पति के द्वारा छोड़ी गयी ॥२२॥ क्या मेरा पति किसी पापी मनुष्य के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ है अथवा किसी कारण परदेश को चला गया है? ॥२३॥ अथवा समस्त शास्त्रों में कुशल होने से वैराग्य को प्राप्त हो सर्व परिग्रह का त्याग कर मुनिदीक्षा को प्राप्त हुआ है? ॥२४॥ इस प्रकार विलाप करते-करते स्वस्तिमती की रात्रि भी व्यतीत हो गयी । जब प्रातःकाल हुआ तब पर्वत पिता को खोजने के लिए गया ॥२५॥ लगातार कुछ दिनों तक खोज करने के बाद पर्वत ने देखा कि हमारे पिता नदी के तटवर्ती उद्यान में मुनि होकर विद्यमान हैं । संघ सहित गुरु के समीप विनय से बैठे हैं ॥२६॥ उसने दूर से ही लौटकर माता से कहा कि मेरा पिता नग्न मुनियों और उनके भक्तों द्वारा प्रतारित हो नग्न हो गया है ॥२७॥ तदनन्तर स्वस्तिमती ने जब निश्चय से यह जान लिया कि अब पति का समागम मुझे प्राप्त नहीं होनेवाला है तब वह अत्यन्त दुःखी हुई । वह दोनों हाथों से स्तनों को पीटती एवं जोर से चिल्लाती हुई रुदन करने लगी ॥२८॥ यह वृत्तान्त सुन धर्म स्नेही नारद शोक से व्याकुल होता हुआ अपनी गुरानी को देखने के लिए आया ॥२९॥ उसे देख वह और भी अधिक स्तन पीटकर रोने लगी सो ठीक ही है क्योंकि यह स्वाभाविक बात है कि आप्तजनों के समक्ष शोक बढ़ने लगता है ॥३०॥ नारद ने कहा कि हे माताजी ! व्यर्थ ही शोक क्यों करती हो क्योंकि इस समय शोक करने से निर्मल बुद्धि के धारक गुरुजी वापस नहीं आवेंगे ॥31॥ सुन्दर चेष्टाओं के धारक गुरुजी पर पुण्यकर्म ने बड़ा अनुग्रह किया है कि जिससे वे जीवन को चंचल जानकर तप करने के लिए उद्यत हुए हैं ॥३२॥ इस प्रकार नारद के समझाने पर उसका शोक क्रम-क्रम से हल्का हो गया । स्वस्तिमती कभी तो पीत की निन्दा करती थी कि वे एक अबला को असहाय छोड़कर चल दिये और कभी उनके गुणों का चिन्तवन कर स्तुति करती थी कि इनकी निर्लेपता कितनी उच्च कोटि की थी । इस प्रकार निन्दा और स्तुति करती हुई वह घर में रहने लगी ॥३३॥

इसी घटना से तत्वों का जानकार ययाति राजा भी वसु के लिए राज्यभार सौंपकर महामुनि हो गया ॥३४॥ नवीन राजा वसु की पृथिवी पर बड़ी प्रतिष्ठा बढ़ी। आकाश स्फटिक की लम्बी-चौड़ी शिला पर उसका सिंहासन स्थित था सो लोक में ऐसी प्रसिद्धि हुई कि सत्य के बल पर वसु आकाश में निराधार स्थित है ॥३५॥ अथानन्तर एक दिन नारद की पर्वत के साथ शास्त्र का वास्तविक अर्थ प्रकट करने पर तत्पर निम्नलिखित चर्चा हुई ॥३६॥ नारद ने कहा कि सबको जानने देखने वाले अर्हन्त भगवान ने अणुव्रत और महाव्रत के भेद से धर्म दो प्रकार का कहा है ॥३७॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों से विरक्त होने को व्रत कहते हैं । यह व्रत प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं से सहित होता है ॥३८॥ जो उक्त पापों का सर्वदेश त्याग करने में समर्थ हैं वे महाव्रत ग्रहण करते हैं और जो घर में रहते हैं ऐसे शेष जन अणुव्रत धारण करते हैं ॥३९॥ जिनेन्द्र भगवान ने गृहस्थों का एक व्रत अतिथिसंविभाग बतलाया है जो पात्रादि के भेद से अनेक प्रकार का है । यज्ञ का अन्तर्भाव इसी अतिथिसंविभाग व्रत में होता है ॥४०॥ ग्रन्थों के अर्थ की गाँठ खोलने वाले दयालु मुनियों ने अजैर्यष्टव्यम् इस वाक्य का यह अर्थ बतलाया है ॥४१॥ कि अज उस पुराने धान को कहते हैं जिसमें कि कारण मिलने पर भी अंकुर उत्पन्न नहीं होते । ऐसे धान से ही यज्ञ करना चाहिए ॥४२॥ नारद की इस व्याख्या को सुनकर तमक कर पर्वत बोला कि नहीं अज नाम पशु का है अत: उनकी हिंसा करनी चाहिए यही यज्ञ कहलाता है ॥४३॥ इसके उत्तर में नारद ने कुपित होकर दुष्ट पर्वत से कहा कि ऐसा मत कहो क्योंकि ऐसा कहने से भयंकर वेदना वाले नरक में पड़ोगे ॥४४॥ अपने पक्ष की प्रबलता सिद्ध करते हुए नारद ने यह प्रतिज्ञा भी की कि हम दोनों राजा वसु के पास चलें, वहाँ जो पराजित होगा उसकी जिह्वा काट ली जावे ॥45॥ आज राजा वसु के मिलने का समय निकल चुका है इसलिए कल इस बात का निश्चय होगा इतना कहकर पर्वत, अपनी माता के पास गया ॥४६॥ अभिमानी पर्वत ने कलह का मूल कारण माता के लिए कह सुनाया । इसके उत्तर में माता ने कहा कि हे पुत्र ! तूने मिथ्या बात कही है ॥४७॥ अनेकों बार व्याख्या करते हुए तेरे पिता से मैंने सुनी है कि अज उस धान को कहते हैं कि जिसमें अंकुर उत्पन्न नहीं होते ॥४८॥ तू देशान्तर में जाकर मांस भक्षण करने लगा इसलिए अभिमान से तूने यह मिथ्या बात कही है । यह बात तुझे दुःख का कारण होगी ॥४९॥ हे पुत्र ! निश्चित ही तेरी जिह्वा का छेद होगा । मैं अभागिनी पति और पुत्र से रहित होकर क्या करूँगी? ॥50॥ उसी क्षण उसे स्मरण आया कि एक बार राजा वसु ने मुझे गुरुदक्षिणा देना कहा था और मैंने उसे धरोहर के रूप में उन्हीं के पास रख दिया था । स्मरण आते हो वह तत्काल घबड़ायी हुई राजा वसु के पास पहुँची ॥५१॥ यह हमारी गुरानी है यह विचारकर राजा वसु ने उसका बहुत सत्कार किया, उसे प्रणाम किया और जब वह आसन पर सुख से बैठ गयी तब हाथ जोड़कर विनय से पूछा ॥५२॥ कि हे गुरानी! मुझे आज्ञा दीजिए । जिस कारण आप आयी हैं मैं उसे अभी सिद्ध करता हूँ । आप दुःखी-सी क्यों दिखाई देती हैं? ॥53॥ इसके उत्तर में स्वस्तिमती ने कहा कि हे पुत्र ! मैं तो निरन्तर दुःखी रहती हूँ क्योंकि पति के द्वारा छोड़ी हुई कौन-सी स्त्री सुख पाती है? ॥५४॥ सम्बन्ध दो प्रकार का है एक योनि सम्बन्धी और दूसरा शास्त्र-सम्बन्धी । इन दोनों में मैं शास्त्रीय सम्बन्ध को ही उत्तम मानती हूँ क्योंकि यह निर्दोष सम्बन्ध है ॥५५॥ चूँकि तुम मेरे पीत के शिष्य हो अत: तुम भी मेरे पुत्र हो । तुम्हारी लक्ष्मी को देखते हुए मुझे सन्तोष होता है ॥५६॥ हे पुत्र! एक बार तुमने कहा था कि दक्षिणा ले लो तब मैंने कहा था कि फिर किसी समय ले लूँगी -- स्मरण करो ॥५७॥ पृथिवी की रक्षा करने में तत्पर राजा लोग सदा सत्य बोलते हैं । यथार्थ में जो जीवों की रक्षा करने में तत्पर हैं वे ही ऋषि कहलाते हैं ॥५८॥ तुम सत्य के कारण जगत् में प्रसिद्ध हो अत: मेरे लिए वह दक्षिणा दो । गुरानी के ऐसा कहने पर राजा वसु ने विनय से मस्तक झुकाते हुए कहा ॥५९॥ कि हे माता! तुम्हारे कहने से मैं आज घृणित कार्य भी कर सकता हूँ । जो बात तुम्हारे मन में हो सो कहो; अन्यथा विचार मत करो ॥६०॥ तदनन्तर स्वस्तिमती ने उसके लिए नारद और पर्वत के विवाद का सब वृत्तान्त कह सुनाया और साथ ही इस बात की प्रेरणा की कि यद्यपि मेरे पुत्र का पक्ष मिथ्या ही है तो भी तुम इसका समर्थन करो ॥६१॥ राजा वसु यद्यपि शास्त्र के यथार्थ अर्थ को जानता था पर स्वस्तिमती ने उसे बार-बार प्रेरणा देकर अपने पक्ष में स्थिर रखा । इस तरह मूर्ख सत्य के वश हो राजा ने उसकी बात स्वीकृत कर ली ॥६२॥ तदनन्तर स्वस्तिमती राजा वसु के लिए बार-बार अनेकों प्रिय आशीर्वाद देकर अत्यन्त सन्तुष्ट होती हुई अपने घर गयी ॥६३॥ अथानन्तर दूसरे दिन प्रातःकाल ही नारद और पर्वत राजा वसु के पास गये । कुतूहल से भरे अनेकों लोग उनके साथ थे ॥६४॥ चार प्रकार के जनपद, नाना प्रजाजन, सामन्त और मन्त्री लोग शीघ्र ही उस वादस्थल में आ पहुँचे ॥६५॥ तदनन्तर सज्जनों के बीच नारद और पर्वत का बड़ा भारी विवाद हुआ । उनमें से नारद कहता था कि अज का अर्थ बीजरहित धान है और, पर्वत कहता था कि अज का अर्थ पशु है ॥६६॥ जब विवाद शान्त नहीं हुआ तब उन्होंने राजा वसु से पूछा कि हे महाराज! इस विषय में गुरु क्षीरकदम्बक ने जो कहा था सो आप कहो । आप अपनी सत्यवादिता से प्रसिद्ध हैं ॥६७॥ इसके उत्तर में राजा वसु ने कहा कि पर्वत ने जो कहा है वही गुरुजी ने कहा था । इतना कहते ही राजा स्फटिक पृथिवी पर गिर पड़ा ॥ ६८ ॥ लोग उस स्फटिक को नहीं जानते थे इसलिए यही समझते थे कि राजा वसु का सिंहासन आकाश में निराधार स्थित है ॥६9॥ नारद ने राजा को सम्बोधते हुए कहा कि वसो ! मिथ्या पक्ष का समर्थन करने से तुम्हारा सिंहासन पृथिवी पर आ पड़ा है । अत: अब भी सत्य पक्ष का समर्थन करना तुम्हें उचित है ॥70॥ परन्तु राजा वसु तो मोहरूपी मदिरा के नशा में इतना निमग्न था कि उसने फिर भी वही बात कही । इस पाप के फलस्वरूप राजा वसु शीघ्र ही सिंहासन के साथ ही साथ पृथिवी में धंस गया ॥७१॥ हिंसा धर्म की प्रवृत्ति चलाने से वह बहुत भारी पाप के भार से आक्रान्त हो बहुत भारी वेदना वाली तमस्तम:प्रभा नामक सातवीं पृथिवी में गया ॥७२॥ तदनन्तर पाप से भयभीत मनुष्य राजा वसु और पर्वत को लक्ष्य कर धिक्-धिक् कहने लगे जिससे बड़ा भारी कोलाहल उत्पन्न हुआ ॥७३॥ अहिंसा पूर्ण आचार का उपदेश देने के कारण नारद सम्मान को प्राप्त हुआ । सब लोगों के मुख से यही शब्द निकल रहे थे कि 'यतो धर्मस्ततो जय:' जहाँ धर्म वहाँ विजय ॥७४॥ पापी पर्वत, लोक में धिक्कार रूपी दण्ड की चोट खाकर दुःखी हो शरीर को सुखाता हुआ कुतप करने लगा ॥७५॥ अन्त में मरण कर प्रबल पराक्रम का धारक दुष्ट राक्षस हुआ । उसे पूर्व पर्याय में जो अपमान और धिक्कार रूपी दण्ड प्राप्त हुआ था उसका स्मरण हो आया ॥७६॥ वह विचार करने लगा कि लोगों ने मेरा पराभव किया था इसलिए मैं इसका दु:खदायी बदला लूँगा ॥७७॥ मैं कपटपूर्ण शास्त्र रचकर ऐसा कार्य करूँगा कि जिसमें आसक्त हुए मनुष्य तिर्यंच अथवा नरक-जैसी दुर्गतियों में जावेंगे ॥७8॥ तदनन्तर उस राक्षस ने मनुष्य का वेष रखा, बायें कन्धे पर यज्ञोपवीत पहना और हाथ से कमण्डलु तथा अक्ष माला आदि उपकरण लिये ॥79॥ इस प्रकार हिंसा कार्यों की प्रवृत्ति कराने में तत्पर तथा क्रूर मनुष्यों को प्रिय भयावह शास्त्र का अत्यन्त अमांगलिक स्वर में उच्चारण करता हुआ वह दुष्ट राक्षस पृथिवी पर भ्रमण करने लगा ॥80॥ वह, स्वभाव से निर्दय था तथा बुद्धिहीन तपस्वियों और ब्राह्मणों को मोहित करने में सदा तत्पर रहता था ॥८१॥ तदनन्तर जिन्हें भविष्य में दुःख प्राप्त होनेवाला था ऐसे मूर्ख प्राणी उसके पक्ष में इस प्रकार पड़ने लगे जिस प्रकार कि अग्नि पर पतंगे पड़ते हैं ॥८२॥ वह उन लोगों से कहता था कि मैं वह ब्रह्मा हूँ जिसने इस चराचर विश्व की रचना की है । यज्ञ की प्रवृत्ति चलाने के लिए मैं स्वयं इस लोक में आया हूँ ॥83॥ मैंने बड़े आदर से स्वयं ही यज्ञ के लिए पशुओं की रचना की हैं । यथार्थ में यज्ञ स्वर्ग की विभूति प्राप्त कराने वाला है इसलिए यज्ञ में जो हिंसा होती: है वह हिंसा नहीं है ॥८४॥ सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरा पीना दोषपूर्ण नहीं है और गोसव नामक यज्ञ में अगम्या अर्थात् परस्त्री का भी सेवन किया जा सकता है ॥85॥ मातृमेध यज्ञ में माता का और पितृमेध यज्ञ में पिता का वध वेदी के मध्य में करना चाहिए इसमें दोष नहीं है ॥86॥ कछुए की पीठ पर अग्नि रखकर जुह्वक नामक देव को बड़े प्रयत्न से स्वाहा शब्द का उच्चारण करते हुए साकल्य से सन्तृप्त करना चाहिए ॥87॥ यदि इस कार्य के लिए कछुआ न मिले तो एक गंजे सिर वाले पीले रंग के शुद्ध ब्राह्मण को पवित्र जल में मुख प्रमाण नीचे उतारे अर्थात् उसका शरीर मुख तक पानी में डूबा रहे ऊपर केवल कछुआ के आकार का मस्तक निकला रहे उस मस्तक पर प्रचण्ड अग्नि जलाकर आहुति देना चाहिए ॥88-89॥ जो कुछ हो चुका है अथवा जो आगे होगा, जो अमृतत्व का स्वामी है अर्थात् देवपक्षीय है और जो अन्न-जीवी है अर्थात् भूचारी है वह सब पुरुष ही है ॥90॥ इस प्रकार जब सर्वत्र एक ही पुरुष है तब किसके द्वारा कौन मारा जाता है? अर्थात् कोई किसी को नहीं मारता इसलिए यज्ञ में इच्छानुसार प्राणियों की हिंसा करो ॥९१॥ यज्ञ में यज्ञ करने वाले को उन जीवों का मांस खाना चाहिए क्योंकि देवता के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण वह मांस पवित्र माना जाता है ॥९२॥ इस प्रकार अत्यन्त पापपूर्ण कार्य दिखाता हुआ वह राक्षस पृथिवी तल पर प्राणियों को यज्ञादि कार्यों में निपुण करने लगा ॥93। तदनन्तर उसकी बातों का विश्वास कर जो लोग सुख की इच्छा से दीक्षित हो हिंसामयी यज्ञ की भूमि में प्रवेश करते थे उन सबको वह लकड़ियों के भार के समान मजबूत बाँधकर आकाश में उड़ जाता था । उस समय उनके शरीर भय से काँप उठते थे, उनकी आंखों की पुतलियाँ घूमने लगती थी । उन्हें वह उलटा कर ऐसा झुकाता था कि उनकी जंघाएँ पीठ तथा ग्रीवा पर और पैर के पंजे सिर पर आ लगते थे तथा पड़ती हुई खून की धाराओं से वे बहुत दुःखी हो जाते थे ॥९४-९६॥ इस कार्य से वे सब बहुत भयंकर शब्द करते हुए चिल्लाते-थे और कहते थे कि हे देव! तुम किसलिए रुष्ट हो गये हो जिससे हम सबको मारने के लिए उद्यत हुए हो ॥९७॥ हे देव! तुम महाबलवान् हो, प्रसन्न होओ, हम सब निर्दोष हैं अत: हम लोगों को छोड़ो। हम सब आपके समक्ष नत शरीर हैं और आप जो आज्ञा देंगे उस सबका पालन करेंगे ॥९८॥ तदनन्तर राक्षस उनसे कहता था कि जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा मारे हुए पशु स्वर्ग जाते हैं उसी प्रकार मेरे द्वारा मारे गये आप लोग भी स्वर्ग जावेंगे ॥९९॥ ऐसा कहकर उसने कितने ही लोगों को जहाँ मनुष्यों का सद्भाव नहीं था ऐसे दूसरे द्वीपों में डाल दिया । कितने ही लोगों को समुद्र में फेंक दिया, कितने ही लोगों को सिंहादिक दुष्ट जीवों के मध्य डाल दिया और जिस प्रकार धोबी अनेक प्रकार के शब्द करता हुआ शिलातल पर वस्त्र पछाड़ता है उसी तरह कितने ही लोगों को घुमा-घुमाकर पर्वत की चोटी पर पछाड़ दिया ॥१००-१०१॥ दुःख से वे मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो गये थे, उन सबके चित्त भयभीत थे, और अन्त में माता पिता, पुत्र और भाई आदि का स्मरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥१०२॥ जो मरने से बाकी बचे थे वे मिथ्या शास्त्ररूपी कन्या से मोहित थे अत: उन्होंने राक्षस के द्वारा दिखलाये हुए हिंसा यज्ञ की वृद्धि की ॥१०३॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जो मनुष्य इस भयंकर हिंसा यज्ञ को नहीं करते वे महादुख देने वाली दुर्गति में नहीं जाते हैं ॥१०४॥ हे श्रेणिक! मैंने यह तेरे लिए हिंसा यज्ञ की उत्पत्ति कही । रावण इसे पहले से ही जानता था ॥१०५॥ अथानन्तर रावण, स्वर्ग की तुलना करने वाले उस राजपुर नगर में पहुँचा जहाँ मरुत्वान् नाम का राजा नगर के बाहर यज्ञशाला में बैठा था ॥१०६॥ हिंसा धर्म में प्रवीण संवर्त नाम का प्रसिद्ध ब्राह्मण उस यज्ञ का प्रधान याजक था जो राजा के लिए विधिपूर्वक सब उपदेश दे रहा था ॥१०७॥ पृथ्वी में जो ब्राह्मण थे वे सब इस यज्ञ में निमन्त्रित किये गये थे इसलिए लोभ के वशीभूत हो स्त्री-पुत्रादि के साथ वहाँ आये थे ॥१०८॥ लाभ की आशा से जिनके मुख प्रसन्न थे तथा जो वेद का मंगल पाठ कर रहे थे ऐसे बहुत सारे ब्राह्मणों से यज्ञ की समस्त भूमि आवृत होकर क्षोभ को प्राप्त हो रही थी॥१०९॥ सैकड़ों दीनहीन पशु भी वहाँ लाकर बाँधे गये गये थे । भय से उन पशुओं के पेट दुःख की सांसें भर रहे थे॥११०॥ उसी समय अपनी इच्छा से आकाश में भ्रमण करते हुए नारद ने वहाँ एकत्रित लोगों का समूह देखा ॥१११॥ उसे देख नारद आश्चर्य से चकित हो, कुतूहल जनित शरीर की चेष्टाओं को धारण करता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा ॥११२॥ यह उत्तम नगर कौन है? यह किसकी सेना है? और यह सागर के आकार किसकी प्रजा यहाँ किस प्रयोजन से ठहरी हुई है? ॥११३॥ मैंने बहुत से नगर, बहुत से लोगों के समूह और बहुत सारी सेनाएं देखी पर कभी ऐसा जनसमूह नहीं देखा ॥११४॥ ऐसा विचारकर नारद कुतूहल वश आकाश से नीचे उतरा सो ठीक ही है क्योंकि कुतूहल देखना ही उसका खास काम है ॥११५॥

यह सुनकर राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से पूछा कि भगवन्! वह नारद कौन है? उसकी उत्पत्ति किससे हुई है और उसके कैसे गुण हैं? ॥११६॥ इसके उत्तर में गणधर कहने लगे कि श्रेणिक! ब्रह्म रुचि नाम का एक ब्राह्मण था और उसकी कूर्मी नामक स्त्री थी ॥११७॥ ब्राह्मण तापस होकर वन में रहने लगा और फल तथा कन्द मूल आदि भक्षण करने लगा । ब्राह्मणी भी इसके साथ रहती थी सो ब्राह्मण ने इसमें गर्भ धारण किया ॥११८॥ अथानन्तर किसी दिन संयम के धारक निर्ग्रन्थमुनि कहीं जा रहे थे सो मार्गवश उस स्थान पर आये ॥११९॥ और श्रम को दूर करने वाले उस आश्रम में थोड़ी देर के लिए विश्राम करने लगे । उसी आश्रम में उन मुनियों ने उस ब्राह्मण दम्पती को देखा जिनका कि आकार तो उत्तम था पर कार्य निन्दनीय था ॥१२०॥ जिसका शरीर पीला था, स्तन स्कूल थे, जो दुर्बल थी, गर्भ के भार से म्‍लान थी और सांसें भरती हुई सर्पिणी के समान जान पड़ती थी ऐसी स्त्री को देखकर संसार के स्वभाव को जानने वाले उदार हृदय मुनियों के मन में दयावश उक्त दम्पती को धर्मोपदेश देने का विचार उत्पन्न हुआ ॥१२१-१२२॥ उन मुनियों के बीच में जो बड़े मुनि-थे वे मधुर शब्दों में उपदेश देने लगे । उन्होंने कहा कि बड़े खेद की बात है देखो, ये प्राणी कर्मों के द्वारा कैसे नचाये जाते हैं? ॥१२३॥ हे तापस! तूने संसार-सागर से पार होने की आशा से धर्म समझ भाई-बन्धुओं का त्याग कर स्वयं अपने आपको इस वन के मध्य क्यों कष्ट में डाला है? ॥१२४॥ अरे भले मानुष! तूने प्रव्रज्या धारण की है पर तुझमें गृहस्थ से भेद ही क्या है? तूने जो चारित्र धारण किया था उसके तू प्रतिकूल चल रहा है । केवल वेष ही तेरा दूसरा है पर चारित्र तो गृहस्थ-जैसा ही है ॥१२५॥ जिस प्रकार मनुष्य वमन किये हुए अन्न को फिर नहीं खाते हैं उसी प्रकार विज्ञजन जिन विषयों का परित्याग कर चुकते हैं फिर उनकी इच्छा नहीं करते ॥१२६॥ जो लिंग धारी साधु एक बार स्त्री का त्याग कर पुन: उसका सेवन करता है वह पापी है और मरकर भयंकर अटवी में भेड़िया होता है ॥१२७॥ जो सब प्रकार के आरम्भ में स्थित रहता हुआ, अब्रह्म सेवन करता हुआ और नशा में निमग्न रहता हुआ भी 'मैं दीक्षित हूँ' ऐसा अपने आपको जानता है वह अत्यन्त मोही है ॥१२८॥ जो ईर्ष्या और काम से जल रहा है, जिसकी दृष्टि दुष्ट है, जिसकी आत्मा दूषित है, और जो आरम्भ में वर्तमान है अर्थात् जो सब प्रकार के आरम्भ करता है उसकी प्रव्रज्या कैसी? तुम्हीं कहो ॥१२९॥ जो कुदृष्टि से गर्वित है, मिथ्या वेशधारी है, और जिसका मन विषयों के अधीन है फिर भी अपने आपको तपस्वी कहता है वह झूठ बोलने वाला है वह व्रती कैसे हो सकता है? ॥१३०॥ जो सुखपूर्वक उठता-बैठता और विहार करता है तथा जो सदा भोजन एवं वस्त्रों में बुद्धि लगाये रखता है फिर भी अपने आपको सिद्ध मानता है वह मूर्ख अपने आपको धोखा देता है ॥ १३१॥ जिस प्रकार जलते हुए मकान से कोई किसी तरह बाहर निकले और फिर से अपने आपको उसी मकान में फेंक दे तो वह मूर्ख ही समझा जाता है ॥१३२॥ अथवा जिस प्रकार कोई पक्षी छिद्र पाकर पिंजडे से बाहर निकल आवे और अज्ञान से प्रेरित हो पुन: उसी में लौट आवे तो यह उसकी मूर्खता ही है ॥१३३॥ उसी प्रकार कोई मनुष्य दीक्षित होकर पुन: इन्द्रियों की आधीनता को प्राप्त हो जावे तो वह लोक में निन्दित होता है और आत्मकल्याण को प्राप्त नहीं होता ॥१३४॥ जिनका चित्त एकाग्र है ऐसे सर्व-परिग्रह का त्याग करने वाले मुनि ही ध्यान करने योग्य तत्व का ध्यान कर सकते हैं तुम्हारे जैसे आरम्भी मनुष्य नहीं ॥१३१॥ परिग्रह की संगति से प्राणी के रागद्वेष की उत्पत्ति होती है । राग से काम उत्पन्न होता है और द्वेष से जीवों का विघात होता है ॥१३६॥ जो काम और क्रोध से अभिभूत ही रहा है उसका मन मोह से आक्रान्त हो जाता है और जो करने योग्य तथा न करने योग्य कर्मों के विषय में मूढ़ है उसकी बुद्धि विवेकयुक्त नहीं हो सकती ॥१३७॥ जो मनुष्य इच्छानुसार चाहे जो कार्य करता हुआ अशुभ कर्म का उपार्जन करता है इस भयंकर संसार-सागर में उसका भ्रमण कभी भी बन्द नहीं होता ॥१३८॥ ये सब दोष ससंग इस ही उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर विद्वान् लोग अपने आपके द्वारा अपने आपका नियन्त्रण कर वैराग्य को धारण करते हैं ॥१३९॥ इस प्रकार परमार्थ का उपदेश देने वाले वचनों से सम्बोधा गया ब्रह्म रुचि ब्राह्मण मिथ्यात्व से च्युत हो दिगम्बरी दीक्षा को प्राप्त हुआ और अपनी कूर्मी नामक स्त्री से नि:स्पृह हो महा वैराग्य से युक्त होता हुआ गुरु के साथ सुखपूर्वक विहार करने लगा । उसका गुरु स्नेह ऐसा ही था ॥१४०-१४१॥ कूर्मी ने भी जान लिया कि जीव का संसार में जो परिभ्रमण होता है वह राग के वश ही होता है । ऐसा जानकर वह पापकार्य से विरत हो शुद्धाचार में निमग्न हो गयी ॥१४२॥ वह मिथ्यामार्गियों का ससंग छोड़कर सदा जिन-भक्ति में ही तत्पर रहने लगी और पति से रहित होने पर भी निर्जन वन में सिंहनी के समान सुशोभित होने लगी ॥१४३॥ उस धैर्यशालिनी ने दसवें मास में शुभ पुत्र उत्पन्न किया । पुत्र को देखकर कर्मों की चेष्टा को जानने वाली कूर्मी ने विचार किया ॥१४४॥ कि चूँकि महर्षियों ने इस सम्पर्क को अनर्थ का कारण कहा था इसलिए मैं इस सम्पर्क अर्थात् पुत्र की संगति को छोड़कर आत्मा का हित करती हूँ ॥१४५॥ इस शिशु ने भी अपने भवान्तर में जो कर्मों की विधि अर्जित की है उसी का यह अच्छा या बुरा फल भोगेगा ॥१४६॥ घनघोर अटवी, समुद्र अथवा शत्रुओं के पिंजड़े में स्थित जन्तु की अपने आपके द्वारा किये हुए कर्म ही रक्षा करते हैं अन्य लोग नहीं ॥१४७॥ जिसका काल आ जाता है ऐसा स्वकृत कर्मों की अधीनता को प्राप्त हुआ जीव माता को गोद में स्थित होता हुआ भी मृत्यु के द्वारा हर लिया जाता है ॥१४८॥ इस प्रकार तत्व को जानने वाली तापसी ने निरपेक्ष बुद्धि से उस बालक को वन में छोड़ दिया । तदनन्तर मत्सर भाव से रहित होकर वह बड़ी शान्ति से आलोक नगर में इन्द्रमालिनी नामक आर्यिका की शरण में गयी और उनके पास बहुत भारी संवेग से उत्तम चेष्टा की धारक आर्यिका हो गयी ॥१४९-१५०॥

अथानन्तर-आकाश में जृम्भक नामक देव जाते थे सो उन्होंने रोदनादि क्रिया से रहित उस पुण्यात्मा बालक को देखा ॥१५१॥ उन दयालु देवों ने आदर से ले जाकर उसका पालन किया और उसे रहस्य सहित समस्त शास्त्र पढ़ाये ॥१५२॥ विद्वान् होने पर उसने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त की और परम यौवन प्राप्त कर अत्यन्त दृढ़ अणुव्रत धारण किये ॥१५३॥ उसने चिह्नों से पहचानने वाली माता के दर्शन किये और उसकी प्रीति से अपने पिता निर्ग्रन्थ गुरु के भी दर्शन कर सम्यग्दर्शन धारण किया ॥१५४॥ क्षुल्लक का चारित्र प्राप्त कर वह जटारूपी मुकुट को धारण करता हुआ अवद्वार के समान हो गया अर्थात् न गृहस्थ ही रहा और न मुनि ही किन्तु उन दोनों के मध्य का हो गया ॥१५५॥ वह कन्दर्प, कौत्कुच्य और मौखर्य्य से अधिक स्नेह रखता था, कलह देखने को सदा उसे इच्छा बनी रहती थी, वह संगीत का प्रेमी और प्रभावशाली था ॥१५६॥ राजाओं के समूह उसका सम्मान करते थे, उसके आगमन में कभी कोई रुकावट नहीं करते थे अर्थात् वह राजाओं के अन्तःपुर आदि सुरक्षित स्थानों में भी बिना किसी रुकावट के आ-जा सकता था । और निरन्तर कौतूहलों पर दृष्टि डालता हुआ आकाश तथा पृथिवी में भ्रमण करता रहता था ॥१५७॥ देवों ने उसका पालन-पोषण किया था इसलिए उसकी सब चेष्टाएँ देवों के समान थीं । वह देवर्षि नाम से प्रसिद्ध था और विद्याओं से प्रकाशमान् तथा आश्चर्यकारी था ॥१५८॥

अपनी इच्छा से संचार करता हुआ वह नारद किसी तरह राजपुर नगर की यज्ञशाला के समीप पहुँचा और वहाँ पास ही आकाश में खड़ा होकर मनुष्यों से भरी हुई यज्ञभूमि को देखने लगा ॥१५९॥ वहाँ बँधे हुए पशुओं को देखकर वह दया से युक्त हो यज्ञभूमि में उतरा । वाद-विवाद करने में वह पण्डित था ही ॥१६०॥ उसने राजा मरुत्वान् से कहा कि हे राजन् ! तुमने यह क्या प्रारम्भ कर रखा है? तुम्हारा यह प्राणि समूह की हिंसा का कार्य दुर्गति में जाने वालों के लिए द्वार के समान है ॥161॥ इसके उत्तर में राजा ने कहा कि इस कार्य से मुझे जो फल प्राप्त होगा वह समस्त शास्त्रों का अर्थ जानने में निपुण यह याजक (पुरोहित)जानता है ॥१६२॥ नारद ने याजक से कहा कि अरे बालक! तूने यह क्या प्रारम्भ कर रखा है? सर्वज्ञ भगवान ने तेरे इस कार्य को दुःख का कारण देखा है ॥१६३॥ नारद की बात सुन संवर्त नामक याजक ने कुपित होकर कहा कि अहो, तेरी बड़ी मूर्खता है जो इस तरह बिना किसी हेतु के अत्यन्त असम्बद्ध बात बोलता है ॥१६४॥ तुम्हारा जो यह मत है कि कोई पुरुष सर्वज्ञ वीतराग है सो वह सर्वज्ञ वक्ता आदि होने से दूसरे पुरुष के समान सर्वज्ञ वीतराग सिद्ध नहीं होता । क्योंकि जो सर्वज्ञ वीतराग है वह वक्ता नहीं हो सकता और जो वक्ता है वह सर्वज्ञ वीतराग नहीं हो सकता॥ १६५॥ अशुद्ध अर्थात् रागी-द्वेषी मनुष्यों के द्वारा कहे हुए वचन मलिन होते हैं और इनसे विलक्षण कोई सर्वज्ञ है नहीं, क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं पाया जाता । इसलिए अकर्तृक वेद ही तीन वर्णों के लिए अतीन्द्रिय पदार्थ के विषय में प्रमाण है । उसी में यज्ञ कर्म का कथन किया है । यज्ञ के द्वारा अपूर्व नामक ध्रुवधर्म प्रकट होता है जो जीव को स्वर्ग में इष्ट विषयों से उत्पन्न फल प्रदान करता है ॥१६६-१६8॥ वेदी के मध्य पशुओं का जो वध होता है वह पाप का कारण नहीं है क्योंकि उसका निरूपण शास्त्र में किया गया है इसलिए निश्चिन्त होकर यज्ञ आदि करना चाहिए ॥१६६॥ ब्रह्मा ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए ही की है इसलिए जो जिस कार्य के लिए रचे गये हैं उस कार्य के लिए उनका विघात करने में दोष नहीं है ॥१७०॥ संवर्त के इतना कह चुकने पर नारद ने कहा कि तूने सब मिथ्या कहा है । तेरी आत्मा मिथ्या शास्त्रों की भावना से दूषित हो रही है इसीलिए तूने ऐसा कहा है सुन ॥ १७१॥ तू कहता है कि सर्वज्ञ नहीं है सो यदि सर्व प्रकार के सर्वज्ञ का अभाव है तो शब्द सर्वज्ञ, अर्थ सर्वज्ञ और बुद्धि सर्वज्ञ इस प्रकार सर्वज्ञ के तीन भेद तूने स्वयं अपने शब्दों द्वारा क्यों कहे? स्ववचन से ही तू बाधित होता है ॥१७२॥ यदि तू कहता है कि शब्द सर्वज्ञ और बुद्धि सर्वज्ञ तो है पर अर्थ सर्वज्ञ कोई नहीं है तो यह कहना नहीं बनता क्योंकि गो आदि समस्त पदार्थों में शब्द, अर्थ और बुद्धि तीनों साथ ही साथ देखे जाते हैं ॥१७३॥ यदि पदार्थ का बिलकुल अभाव है तो उसके बिना बुद्धि और शब्द कहाँ टिकेंगे अर्थात् किसके आश्रय से उस प्रकार को बुद्धि होगी और उस प्रकार शब्द बोला जावेगा । और उस प्रकार का अर्थ बुद्धि और वचन के व्यतिक्रम को प्राप्त हो जायेगा ॥१७४॥ बुद्धि में जो सर्वज्ञ का व्यवहार होता है वह गौण है और गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा करके प्रवृत्त होता है । जिस प्रकार चैत्र के लिए सिंह कहना मुख्य सिंह की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार बुद्धि सर्वज्ञ वास्तविक सर्वज्ञ की अपेक्षा रखता है ॥१७१॥ इस प्रकार इस अनुमान से तुम्हारी सर्वज्ञ नहीं है इस प्रतिज्ञा में विरोध आता है तथा हमारे मत में सर्वथा अभाव माना नहीं गया है ॥१७६॥ पृथिवी में जिसकी महिमा व्याप्त है ऐसा यह सर्वदर्शी सर्वज्ञ कहाँ रहता है इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि दिव्य ब्रह्मपुर में आकाश के समान निर्मल आत्‍मा सुप्रतिष्ठित है ॥१७७॥ तुम्हारे इस आगम से भी प्रतिज्ञा वाक्य विरोध को प्राप्त होता है । यदि सर्वथा सर्वज्ञ का अभाव होता तो तुम्हारे आगम में उसके स्थान आदि की चर्चा क्यों की जाती और इस प्रकार साध्य अर्थ के अनेकान्त हो जाने पर अर्थात् कथचित् सिद्ध हो जाने पर वह हमारे लिए सिद्ध साधन है क्योंकि यही तो हम कहते हैं ॥१७8॥ सर्वज्ञ के अभाव में तुमने जो वक्तृत्व है दिया है सो वक्तृत्व तीन प्रकार का होता है -- सर्वथा अयुक्त वक्तृत्व, युक्त वक्तृत्व और सामावक्तृत्व । उनमें से सर्वथा अयुक्त वक्तृत्व तो बनता नहीं, क्योंकि प्रतिवादी के प्रति वह सिद्ध नह है । यदि स्याद्वाद सम्मत वक्तृत्व लेते हो तो तुम्हारा हेतु असिद्ध हो जाता है, क्योंकि इससे निर्दोष वक्ता की सिद्धि हो जाती है । दूसरे आपके जैमिनि आदिक वेदार्थ वक्ता हम लोगों को भी नहीं हैं । वक्तृत्व हेतु से देवदत्त के समान वे भी सदोष वक्ता सिद्ध होते हैं, इसलिए आपका य वक्तृत्व हेतु विरुद्ध अर्थ को सिद्ध करनेवाला होने से विरुद्ध हो जाता है॥179-180॥ तथा प्रजापति आदि के द्वारा दिया गया यह उपदेश प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वे भी देवदत्तादि के समा रागी-द्वेषी ही हैं और ऐसे रागी-द्वेषी पुरुषों से जो आगम कहा जावेगा वह भी सदोष ही हो अत: निर्दोष आगम का तुम्हारे यहां अभाव सिद्ध होता है ॥१८१॥ एक को जिसने जान लिया उस सद्रूप से अखिल पदार्थ जान लिये, अत: सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि में जो तुमने दूसरे पुरुष का दृष्टान्त दिया है उसे तुमने ही साध्य विकल कह दिया है, क्योंकि वह चूँकि एक को जानता है इसलिए वह सबको जानता है इसकी सिद्धि हो जाती है ॥१८२॥ दूसरे तुम्हारे मत से सर्वथा युक्त वचन बोलने वाला पुरुष दृष्टान्तरूप से है नहीं,अत: आपको दृष्टान्त में साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखलाना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार आप अन्वय दृष्टान्त में अन्वयव्याप्ति करके घटित बतलाते हैं उसी प्रकार व्यतिरेक दृष्टान्त में व्यतिरेक-व्याप्ति भी घटित करके बतलानी चाहिए तभी साध्य की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं ॥१८३॥ तथा आपके यहाँ सुनकर अदृष्ट वस्‍तु के विषय में वेद में प्रमाणता आती है, अत: वस्तुत्व हेतु के बल से सर्वज्ञ के विषय में दूषण उपस्थित करने में इसका आश्रय करना उचित नहीं है अर्थात् वेदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से उसके बल से सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती ॥१८४॥ फिर थोड़ा विचार तो करो कि सर्वज्ञता के साथ वक्तृत्व का क्या विरोध है? मैं तो कहता हूँ कि सर्वज्ञता का सुयोग मिलने पर यह पुरुष अधिक वक्ता अपने आप हो जाता है ॥१८५॥ जो बेचारा स्वयं नहीं जानता है वह बुद्धि का दरिद्र दूसरों के लिए क्या कह सकता है? अर्थात् कुछ नहीं । इस प्रकार व्यतिरेक और अविनाभाव का अभाव होने से वह साधक नहीं हो सकता ॥१८६॥ हमारा पक्ष तो यह है कि जिस प्रकार कि सुवर्णादिक धातुओं का मल किसी में बिलकुल ही क्षीण हो जाता है उसी प्रकार यह अविद्या अर्थात् अज्ञान और रागादिक मल कारण पाकर किसी पुरुष में अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं । जिसमें क्षीण हो जाते हैं बही सर्वज्ञ कहलाने लगता है ॥१८७॥ हमारे सिद्धान्त से पदार्थों के जो धर्म अर्थात् विशेषण हैं वे अपने से विरुद्ध धर्म की अपेक्षा अवश्य रखते हैं जिस प्रकार कि उत्‍पल आदि के लिए जो नील विशेषण दिया जाता है उससे यह सिद्ध होता है कि कोई उत्पल ऐसा भी होता है जो कि नील नहीं है । इसी प्रकार पुरुष के लिए जो आपके यहाँ असर्वज्ञ विशेषण है वह सिद्ध करता है कि कोई पुरुष ऐसा भी है जो असर्वज्ञ नहीं है अर्थात् सर्वज्ञ है । यथार्थ में विशेषण की सार्थकता सम्भव और व्यभिचार रहते ही होती है जैसा कि अन्यत्र कहा है - 'सम्भवव्यभिचारास्यां स्याद्विशेषणमथंवत् । न शैत्येन न् चौष्‍ण्‍येन वह्नि: क्‍वापि विशिष्यते ॥' अर्थात् सम्भव और व्यभिचार के का:रण ही विशेषण सार्थक होता है । अग्नि के लिए कहीं भी शीत विशेषण नहीं दिया जाता क्योंकि वह सम्भव नहीं है इसी प्रकार कहीं भी उष्ण विशेषण नहीं दिया जात्रा क्योंकि अग्नि सर्वत्र उष्ण ही होती है । इसी प्रकार तुम्हारे सिद्धान्तानुसार यदि पुरुष असर्वज्ञ ही होता तो उसके लिए असर्वज्ञ विशेषण देना निरर्थक था । उसकी सार्थकता तभी है जब किसी पुरुष को सर्वज्ञ माना जावे ॥१८८॥ वेद का कोई कर्ता नहीं है यह बात युक्ति के अभाव में सिद्ध नहीं होती अर्थात् अकर्तृत्व की संगति नहीं बैठती जब कि वेद का कर्ता है इस विषय में अनेक हेतु सम्भव हैं । जिस प्रकार दृश्यमान घट-पटादि पदार्थ सहेतुक होते हैं उसी प्रकार वेद सकर्ता है इस विषय में भी अनेक हेतु सम्भव हैं ॥१८६॥ चूँकि वेद पद और वाक्यादि रूप है तथा विधेय और प्रतिषेध्य अर्थ से युक्त है अत: कर्तृमान् है, किसी के द्वारा बनाया गया है । जिस प्रकार मैत्र का काव्य पदवाक्य रूप होने से सकर्तृक है उसी प्रकार वेद भी पदवाक्य रूप होने से सकर्तृक है ॥१९०॥ इसके साथ लोक में यह सुना जाता है कि वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा तथा प्रजापति आदि पुरुषों से हुई है सो इस प्रसिद्धि का दूर किया जाना शक्य नहीं है ॥१९१॥ सम्भवत: तुम्हारा यह विचार हो कि ब्रह्मा आदि वेद के कर्ता नहीं हैं किन्तु प्रवक्ता अर्थात् प्रवचन करने वाले हैं तो वे प्रवचन कर्ता आपके मत से राग-द्वेषादि से युक्त ही ठहरेंगे: ॥१९२॥ और यदि सर्वज्ञ हैं तो वे ग्रन्थ का अन्यथा उपदेश कैसे देंगे और अन्यथा व्याख्यान कैसे करेंगे, क्योंकि सर्वज्ञ होने से उनका मत प्रमाण है । इस प्रकार विचार करने पर सर्वज्ञ की ही सिद्धि होती है ॥१९३॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के भेद से जो जाति के चार भेद हैं वे बिना हेतु के युक्तिसंगत नहीं हैं । यदि कहो कि वेदवाक्य और अग्नि के संस्कार से दूसरा जन्म होने के कारण उनके देहीवशेष का ज्ञान होता है सो यह कहना भी युक्त नहीं है ॥१९४॥ हाँ, जहां-जहां जाति-भेद देखा जाता है वहां-वहां शरीर में विशेषता अवश्य पायी जाती है जिस प्रकार कि मनुष्य, हाथी, गधा, गाय, घोड़ा आदि में पायी जाती है ॥१९५॥ इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि अन्य जातीय पुरुष के द्वारा अन्य जातीय स्त्री में गर्भोत्पत्ति नहीं देखी जाती परन्तु ब्राह्मणादिक में देखी जाती है । इससे सिद्ध है कि ब्राह्मणादिक में जातिवैचित्र्य नहीं है ॥१९६॥ इसके उत्तर में यदि तुम कहो कि गधे के द्वारा घोड़ी में गर्भोत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए उक्त युक्ति ठीक नहीं है? तो ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि गधा और घोड़ा दोनों अत्यन्त भिन्न जातीय नहीं है क्योंकि एक खुर आदि की अपेक्षा उनके शरीर में समानता पायी जाती है ॥१९७॥ अथवा दोनों में भिन्न जातीयता ही है यदि ऐसा पक्ष है तो दोनों की जो सन्तान होगी वह विसदृश ही होगी जैसे कि गधा और घोड़ी के समागम से जो सन्तान होगी वह न घोड़ा ही कहलावेगी और न गधा ही । किन्तु खच्चर नाम की धारक होगी किन्तु इस प्रकार सन्तान की विसदृशता ब्राह्मणादि में नहीं देखी जाती इससे सिद्ध होता है कि वर्णव्यवस्था गुणों के अधीन है जाति के अधीन नहीं है ॥१९८॥ इसके अतिरिक्त जो यह कहा जाता है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है, क्षत्रिय की उत्पत्ति भुजा से हुई है, वैश्य की उत्पत्ति जंघा से हुई है और शूद्र की उत्पत्ति पैर से हुई है सो ऐसा हेतुहीन कथन करनेवाला अपने घर में ही शोभा देता है सर्वत्र नहीं ॥१९९॥ तथा ऋषिशृंग आदि मानवों में जो ब्राह्मणता कही जाती है वह गुणों के संयोग से कही जाती है ब्राह्मण योनि में उत्पन्न होने से नहीं कही जाती ॥२००॥ वास्तव में समस्त गुणों के वृद्धिंगत होने के कारण भगवान् ऋषभदेव ब्रह्या कहलाते हैं और जो सत्पुरुष उनके भक्त हैं वे ब्राह्मण कहे जाते हैं ॥२०१॥ क्षत अर्थात् विनाश से त्राण अर्थात् रक्षा करने के कारण क्षत्रिय कहलाते हैं, शिल्प अर्थात् वस्तु निर्माण या व्यापार में प्रवेश करने से लोग वैश्य कहे जाते हैं और श्रुत अर्थात् प्रशस्त आगम से जो दूर रहते हैं वे शूद्र कहलाते हैं ॥२०२॥ कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले हैं । यही कारण है कि व्रत धारण करने वाले चाण्डाल को भी गणधरादि देव ब्राह्मण कहते हैं ॥२०३॥

विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल आदि के विषय में जो समदर्शी हैं वे पण्डित कहलाते हैं अथवा जो पण्डितजन हैं वे इन सबमें समदर्शी होते हैं ॥२०४॥ इस प्रकार ब्राह्मणादिक चार वर्ण और चाण्डाल आदि विशेषणों का जितना अन्य वर्णन है वह सब आचार के भेद से ही संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है ॥२०५॥

इसके पूर्व तुमने कहा था कि यज्ञ से अपूर्व अथवा अदृष्ट नाम का धर्म व्यक्त होता है सो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अपूर्व धर्म तो आकाश के समान नित्य है वह कैसे व्यक्त होगा? और यदि व्यक्त होता ही है तो फिर वह नित्य न रहकर घटादि के समान अनित्य होगा ॥२०६॥ जिस प्रकार दीपक के व्यक्त होने के बाद रूप का ज्ञान उसका फल होता है उसी प्रकार स्वर्गादि की प्राप्ति रूपी फल भी अपूर्व धर्म के व्यक्त होने के बाद ही होना चाहिए पर ऐसा नहीं है ॥२०7॥

तुमने कहा है कि वेदी के मध्य में पशुओं का जो वध होता है वह शास्त्र निरूपित होने से पाप का कारण नहीं है सो ऐसा कहना अयुक्त है उसका कारण सुनो ॥२०८॥ सर्वप्रथम तो वेद शास्त्र हैं यही बात असिद्ध है क्योंकि शास्त्र वह कहलाता है जो माता के समान समस्त संसार के लिए हित का उपदेश दे ॥२०९॥ जो कार्य निर्दोष होता है उसमें प्रायश्चित्त का निरूपण करना उचित नहीं है परन्तु इस याज्ञिक हिंसा में प्रायश्चित्त कहा गया है इसलिए वह सदोष है । उस प्रायश्चित्त का कुछ वर्णन यहां किया जाता है ॥२१०॥ जो सोमयज्ञ में सोम अर्थात् चन्द्रमा के प्रतीक रूप सोमलता से यज्ञ करता है जिसका तात्पर्य होता है कि वह देवों के वीर सोम राजा का हनन करता है उसके इस यज्ञ की दक्षिणा एक सौ बारह गौ है ॥२११॥ इन एक सौ बारह दक्षिणाओं में से सौ दक्षिणाएं देवों के वीर सोम का शोधन करती हैं, दस दक्षिणाएं प्राणों का तर्पण करती हैं, ग्यारहवीं दक्षिणा आत्मा के लिए है और जो बारहवीं दक्षिणा है वह केवल दक्षिणा ही है । अन्य दक्षिणाओं का व्यापार तो दोषों के निवारण करने में होता है ॥२१२-२१३॥ तथा पशु-यज्ञ में यदि पशु यज्ञ के समय शब्द करे या अपने अगले दोनों पैरों से छाती पीटे तो हे अनल! तुम मुझे इससे होनेवाले समस्त दोष से मुक्त करो ॥२१४॥ इत्यादि रूप से जो दोषों के बहुत से प्रायश्चित्त कहे गये हैं उनके विषय में अन्य आगम से प्रकृत में विरोध दिखाई देता है ॥२१५॥

जिस प्रकार व्याध के द्वारा किया हुआ वध दुःख का कारण होने से पापबन्ध का निमित्त है उसी प्रकार वेदी के बीच में पशु का जो वध होता है वह भी उसे दुःख का कारण होने से पापबन्ध का ही निमित्त है ॥२१६॥

ब्रह्मा के द्वारा लोक की सृष्टि हुई है यह कहना भी सत्य नहीं है क्योंकि विचार करने पर ऐसा कथन जीर्णतृण के समान निस्सार जान पड़ता है ॥२१७॥ हम पूछते हैं कि जब ब्रह्मा कृतकृत्य है तो उसे सृष्टि की रचना करने से क्या प्रयोजन है? कहो कि क्रीड़ावश वह सृष्टि की रचना करता है तो फिर कृतकृत्य कहाँ रहा? जिस प्रकार क्रीड़ा का अभिलाषी बालक अकृत-कृत्य है उसी प्रकार क्रीड़ा का अभिलाषी ब्रह्मा भी अकृतकृत्य कहलायेगा ॥२९८॥ फिर ब्रह्मा अन्य पदार्थों के बिना स्वयं ही रति को क्यों नहीं प्राप्त हो जाता? जिससे सृष्टि निर्माण की कल्पना करनी पड़ी । इसके सिवाय एक प्रश्न यह भी उठता है कि जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना करता है तो इसके सहायक करण, अधिकरण आदि कौनसे पदार्थ हैं? ॥२९९॥ फिर संसार में सब लोग एक सदृश नहीं हैं, कोई सुखी देखे जाते हैं और कोई दुःखी देखे जाते हैं । इससे यह मानना पड़ेगा कि कोई लोग तो ब्रह्मा के उपकारी हैं और कोई अपकारी हैं । जो उपकारी हैं उन्हें यह सुखी करता है और कोई अपकारी हैं उन्हें यह दुखी करता है ॥२२०॥

इस सब विसंवाद से बचने के लिए यदि यह माना जाये कि ईश्वर कृतकृत्य नहीं है तो वह कर्मों के परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं कहलावेगा जिसप्रकार कि आप कर्मों के परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं हैं ॥२२१॥ जिस प्रकार रथ, मकान आदि पदार्थ विशिष्ट आकार से सहित होने के कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयत्न से निर्मित माने जाते हैं उसी प्रकार कमल आदि पदार्थ भी विशिष्ट आकार से युक्त होने के कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयत्न से रचित होना चाहिए । जिसकी बुद्धि से इन सबकी रचना होती है वही ईश्वर है इस अनुमान से सृष्टिकर्ता ईश्वर की सिद्धि होती है सो यह कहना ठीक नहीं है क्‍योंकि एकान्तवादी का उक्त अनुमान समीचीनता को प्राप्त नहीं है ॥२२२-२२३॥ वि‍चार करने पर जान पड़ता है कि रथ आदि जितने पदार्थ हैं वे सब एकान्त से बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयत्‍न से ही उत्पन्न होते हैं ऐसी बात नहीं है । क्योंकि रथ आदि वस्तुओं में जो लकड़ी आदि पदार्थ अवस्थित है वही रथादिरूप उत्पन्न होता है ॥२२४॥ जिस प्रकार रथ आदि के बनाने में बढ़ई आदि को क्लेश उठाना पड़ता है उसी प्रकार ईश्वर को भी सृष्टि के बनाने में क्लेश उठाना पड़ता होगा । इस तरह उसके सुखी होने में बाधा प्रतीत होती है । यथार्थ में तुम जिसे ईश्वर कहते हो वह नाम कर्म है ॥२२५॥ एक प्रश्न यह भी उठता है कि ईश्वर सशरीर है या अशरीर? यदि अशरीर है तो उससे मूर्तिक पदार्थों का निर्माण सम्भव नहीं है । यदि सशरीर है तो उसका वह विशिष्टाकार वाला शरीर किसके द्वारा रचा गया है? यदि स्वयं रचा गया है तो फिर दूसरे पदार्थ स्वयं क्यों नहीं रचे जाते? यदि यह भाना जाय कि वह दूसरे ईश्वर के यत्न से रचा गया है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होगा कि उस दूसरे ईश्वर का शरीर किसने रचा? इस तरह अनवस्था दोष उत्पन्न होगा । इस विसंवाद से बचने के लिए यदि यह माना जाये कि ईश्वर के शरीर है ही नहीं तो फिर अमूर्तिक होने से वह सृष्टि का रचयिता कैसे होगा? जिस प्रकार अमूर्तिक होने से आकाश सृष्टि का कर्ता नहीं है उसी प्रकार अमूर्तिक होने से ईश्वर भी सृष्टि का कर्ता नहीं हो , सकता । यदि बढ़ई के समान ईश्वर को कर्ता माना जाये तो वह सशरीर होगा न कि अशरीर ॥२२६-२२८॥ और तुमने जो कहा कि ब्रह्मा ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए ही की है सो यदि यह सत्य है तो फिर पशुओं से बोझा ढोना आदि काम क्यों लिया जाता? इसमें विरोध आता है; विरोध ही नहीं यह तो चोरी कहलावेगी ॥२२६॥ इससे यह सिद्ध होता है कि रागादि भावों से उपार्जित कर्मों के कारण ही समस्त लोग अनादि संसारसागर में विचित्र दशा का अनुभव करते हैं ॥२३०॥ कर्म पहले होता है कि शरीर पहले होता है? ऐसा प्रश्न करना ठीक नहीं है क्योंकि इन दोनों का सम्बन्ध बीज और वृक्ष के समान अनादि-काल से चला आ रहा है ॥२३१॥ कर्म और शरीर का सम्बन्ध अनादि है इसलिए इसका कभी अन्त नहीं होगा ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बीज के नष्ट हो जाने से वृक्ष की उत्पत्ति का अभाव देखा जाता है उसी प्रकार कर्म के नष्ट होने से शरीर का अभाव भी देखा जाता है ॥२३२॥ इसलिए पाप कार्य करने वाले किसी द्वेषी पुरुष ने खोटे शास्त्र की रचना कर इस यज्ञ कार्य को प्रचलित किया है ॥२३३॥ तुम उच्च-कुल में उत्पन्न हुए हो और बुद्धिमान् मनुष्य हो इसलिए शिकारियों के कार्य के समान इस पाप-कार्य से विरत होओ ॥२३४॥ यदि प्राणियों का वध स्वर्ग प्राप्ति का कारण होता तो थोड़े ही दिनों में यह संसार शून्य हो जाता ॥२३१॥ और फिर उस स्वर्ग के प्राप्त होने से भी क्या लाभ है? जिससे फिर च्युत होना पड़ता है । यथार्थ में बाह्य पदार्थों से जो सुख उत्पन्न होता है वह दुःख से मिला हुआ तथा परिमाण में थोड़ा होता है ॥२३६॥ यदि प्राणियों का वध करने से मनुष्य स्वर्ग जाते हैं तो फिर प्राणि वध की अनुमति मात्र से वसु नरक में क्यों पड़ा? ॥२३७॥ वसु नरक गया है इसमें प्रमाण यह है कि दुराचारी, निज और पर का अकल्याण करने वाले दुष्टचेता ब्राह्मण, अपने पक्ष के समर्थन से प्रसन्न हो आज भी हे वसो! उठो, स्वर्ग जाओ इस प्रकार जोर-जोर से चिल्लाते हुए अग्नि में आहुति डालते हैं । यदि वसु नरक नहीं गया होता तो उक्त मन्त्र द्वारा आहुति देने की क्या आवश्यकता थी? ॥२३८-२३९॥ चूर्ण के द्वारा पशु बनाकर उसका घात करने वाले लोग भी नरक गये हैं फिर अशुभ संकल्प से साक्षात् अन्य पशु के वध करने वाले लोगों की तो कथा ही क्या हैं ॥२४०॥

प्रथम तो यज्ञ को कल्पना से कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात् यज्ञ की कल्पना करना ही व्यर्थ है दूसरे यदि कल्पना करना ही है तो विद्वानों को इस प्रकार के हिंसायज्ञ की कल्पना नहीं करनी चाहिए ॥२४१॥ उन्हें धर्मयज्ञ ही करना चाहिए । आत्मा यजमान है, शरीर वेदी है, सन्तोष साकल्य है, त्याग होम है, मस्तक के बालकुशा हैं, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान प्राणायाम है, सिद्धपद की प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है, चंचल मन पशु है और इन्द्रियाँ समिधाएँ हैं । इन सबसे यज्ञ करना चाहिए यही धर्मयज्ञ कहलाता है ॥२४२-२४४॥

यज्ञ से देवों की तृप्ति होती है यदि ऐसा तुम्हारा ख्याल है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि देवों को तो मनचाहा दिव्य अन्न उपलब्ध है ॥२४५॥ जिन्हें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप की अपेक्षा मनोहर आहार प्राप्त होता है उन्हें इस मांसादिक घृणित वस्तु से क्या प्रयोजन है? ॥२४६॥ जो रज और वीर्य से उत्पन्न है, अपवित्र है, कीड़ों का उत्पत्ति स्थान है तथा जिसकी गन्ध और रूप दोनों ही अत्यन्त कुत्सित हैं - ऐसे मांस को देव लोग किस प्रकार खाते हैं ? ॥२४७॥ ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि और जठराग्नि इस तरह तीन अग्नियाँ शरीर में सदा विद्यमान रहती हैं; विद्वानों को उन्हीं में दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि इन तीन अग्नियों की स्थापना करना चाहिए ॥२४८॥ यदि भूखे देव होम किये गये पदार्थ से तृप्ति को प्राप्त होते हैं तो वे स्वयं ही क्यों नहीं तृप्ति को प्राप्त हो जाते, मनुष्यों के होम को माध्यम क्यों बनाते हैं? ॥२४९॥ जो देव ब्रह्मलोक से आकर योनि से उत्पन्न होनेवाले दुर्गन्धयुक्त शरीर को खाता है वह कौए, शृगाल और कुत्ते के समान है ॥२५०॥

इसके सिवाय तुम श्राद्धतर्पण आदि के द्वारा मृत व्यक्तियों की तृप्ति मानते हो सो जरा विचार तो करो । ब्राह्मण लोग लार से भीगे हुए अपने मुख में जो अन्न रखते हैं वह मल से भरे पेट में जाकर पहुँचता है । ऐसा अन्न स्वर्गवासी देवताओं को तृप्त कैसे करता होगा? ॥२५१॥ इस प्रकार शास्त्रों के अर्थ-ज्ञान से उत्पन्न, देवर्षि के तेज से देदीप्यमान, उक्त कथन करते हुए नारदजी अनेकान्त के सूर्य के समान जान पड़ते थे ॥२५२॥ ब्राह्मणों ने उन्हें सब ओर से घेर लिया । उस समय वे ब्राह्मण याजक की पराजय से उत्पन्न क्रोध के भार से कम्पित थे, वेदार्थ का अभ्यास करने के कारण उनके हृदय दया से रहित थे ॥२५३॥ सर्प के समान उनकी आँखों की पुतलियाँ सबको दिख रही थीं और क्षुभित हो सब ओर से बड़ा भारी कल-कल कर रहे थे ॥२५४॥ वे सब ब्राह्मण कमर कसकर हस्तपादादिक से नारद को मारने के लिए ठीक उसी तरह तैयार हो गये जिस प्रकार कि कौए उल्लू को मारने के लिए तैयार हो जाते हैं ॥२५५॥ तदनन्तर नारद भी उनमें से कितने ही लोगों को मुठ्ठियों रूपी मुद्गरों की मार से और कितने ही लोगों को एड़ीरूपी वज्रपात से मारने लगा ॥२५६॥ उस समय नारद के समस्त अवयव अत्यन्त दु:सह शस्त्रों के समान जान पड़ते थे । उन सबसे उसने घूम-घूमकर बहुत से ब्राह्मणों को मारा ॥२५७॥ अथानन्तर चिरकाल तक ब्राह्मणों को मारता हुआ खेदखिन्न हो गया । उसे बहुत से दुष्ट ब्राह्मणों ने घेर लिया, वे उसे समस्त शरीर में मारने लगे जिससे वह परम आकुलता को प्राप्त हुआ ॥२५८॥ जिस प्रकार जाल से कसकर बँधा पक्षी अत्यन्त दुखी हो जाता है और आकाश में उड़ने में असमर्थ होता हुआ प्राणों के संशय को प्राप्त होता है ठीक वही दशा उस समय नारद की थी ॥२५९॥

इसी बीच में रावण का दूत आ रहा था सो उसने पिटते हुए नारद को देखकर पहचान लिया ॥२६०॥ उसने शीघ्र ही लौटकर रावण से इसप्रकार कहा कि हे महाराज! मुझ दूत को आपने जिसके पास भेजा था वह अकेला ही राजा के देखते हुए बहुत से दुष्ट ब्राह्मणों के द्वारा उस तरह मारा जा रहा है जिस प्रकार कि बहुत से दुष्ट पतंगे किसी साँप को मारते हैं ॥२६१-२६२॥ मैं शक्तिहीन था और राजा को वहाँ देख भय से पीड़ित हो गया इसलिए यह दारुण वृत्तान्त आप से कहने के लिए दौड़ा आया हूँ ॥२६३॥ यह समाचार सुनते ही रावण क्रोध को प्राप्त हुआ और वेगशाली वाहन पर सवार हो यज्ञभूमि में जाने के लिए तत्पर हुआ ॥२६४॥ वायु के समान जिनका वेग था, जो म्यानों से निकली हुई नंगी तलवारें हाथ में लिये थे और सू-सू शब्द से सुशोभित थे ऐसे रावण के सिपाही पहले ही चल दिये थे ॥२६५॥ वे पल-भर में यज्ञभूमि में जा पहुँचे । वहाँ जाकर उन दयालु पुरुषों ने दृष्टिमात्र से नारद को शत्रुरूपी पिंजडे से मुक्त करा दिया ॥२६६॥ क्रूर मनुष्य जिस पशुओं के झुण्ड की रक्षा कर रहे थे उसे उन्होंने आँख के इशारे मात्र से छुड़वा दिया ॥२६७॥ यज्ञ के खम्भे तोड़ डाले, ब्राह्मणों को पिटाई लगायी और पशुओं को बन्धन से छोड़ दिया । इन सब कारणों से वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया ॥268॥ अब्रह्मण्यं अब्रह्मण्यं की रट लगाने वाले एक-एक ब्राह्मण को इतना पीटा कि जब तक वे निश्चेष्ट शरीर होकर भूमि पर गिर न पड़े तब तक पीटते ही गये ॥२६९॥ रावण के योद्धाओं ने उन ब्राह्मणों से पूछा कि जिस प्रकार आप लोगों को दुःख अप्रिय लगता है और सुख प्रिय जान पड़ता है उसी तरह इन पशुओं को भी लगता होगा ॥२७०॥ जिस प्रकार तीन लोक के समस्त जीवों को हृदय से अपना जीवन अच्छा लगता है उसी प्रकार इन समस्त जन्तुओं की भी व्यवस्था जाननी चाहिए ॥२७१॥ आप लोगों को जो पिटाई लगी है उससे आप लोगों की यह कष्टकारी अवस्था हुई है फिर शस्त्रों से मारे गये पशुओं को क्या दशा होती होगी सो आप ही कहो ॥२७२॥ अरे पापी नीच पुरुषों! इस समय तुम्हारे पाप का जो फल प्राप्त हुआ है उसे सहन करो जिससे फिर ऐसा न करोगे ॥२७३॥ देवों के साथ इन्द्र भी यहाँ आ जाये तो भी हमारे स्वामी के कुपित रहते तुम लोगों की रक्षा नहीं हो सकती ॥२७४॥ हाथी, घोड़े, रथ, आकाश और पृथ्वी पर जो भी जहाँ स्थित था वह वहीं से शस्त्रों द्वारा ब्राह्मणों को मार रहा था ॥२७१॥ और ब्राह्मण चिल्ला रहे थे कि 'अब्रह्यण्यम्' बड़ा अनर्थ हुआ । हे राजन् ! हे माता यज्ञपालि ! हमारी रक्षा करो । हे योद्धाओं ! हम जीवित रह सकें इसलिए छोड़ दो, अब ऐसा नहीं करेंगे ॥२७६॥ इस प्रकार दीनता के साथ अत्यन्त विलाप करते हुए वे ब्राह्मण केंचुए-जैसी दशा को प्राप्त थे फिर भी रावण के योद्धा उन्हें पीटते जाते थे ॥२७७॥ तदनन्तर ब्राह्मणों के समूह को पिटता देख नारद ने रावण से इस प्रकार कहा ॥२७8॥ कि हे राजद! तुम्हारा कल्याण हो । मैं इन दुष्ट शिकारी ब्राह्मणों के द्वारा मारा जा रहा था जो आपने मुझे इनसे छुड़ाया ॥२७९॥ यह कार्य चूँकि ऐसा ही होना था सो हुआ अब इन पर दया करो । ये शूद्र जीव जीवित रह सकें ऐसा करो, अपना जीवन इन्हें प्रिय है ॥२८०॥

हे राजन्! इन कुपाखण्डियों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई है? यह क्या आप नहीं जानते हैं । अच्छा सुनो मैं कहता हूँ । इस अवसर्पिणी युग का जब चौथा काल आने वाला था तब भगवान् ऋषभदेव तीर्थंकर हुए । तीनों लोकों के जीव उन्हें नमस्कार करते थे । उन्होंने कृतयुग की व्यवस्था कर सैकड़ों कलाओं का प्रचार किया ॥२८१-२८२॥ जिस समय ऋषभदेव उत्पन्न हुए थे उसी समय देवों ने सुमेरु पर्वत के मस्तक पर ले जाकर सन्तुष्ट हो क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया था । वे महाकान्ति के धारक थे ॥२८३॥ भगवान् ऋषभदेव का पापापहारी चरित्र तीनों लोकों में व्याप्त होकर स्थित है क्या तुमने उनका पुराण नहीं सुना? ॥२८४॥ प्राणियों के साथ स्नेह करने वाले भगवान् ऋषभदेव कुमार-काल के बाद इस पृथ्वी के स्वामी हुए थे । उनके गुण इतने अधिक थे कि इन्द्र भी उनका विस्तार के साथ वर्णन करने में समर्थ नहीं था ॥२८५॥ जब उन्हें वैराग्य आया और वे संसाररूपी संकट को छोड़ने की इच्छा करने लगें तब जो विन्ध्याचल और हिमाचल रूपी उन्नत स्तनों को धारण कर रही थी, आर्य देश ही जिसका मुख था, जो नगरी रूपी चूड़ियों से युक्त होकर बहुत मनोहर जान पड़ती थी, समुद्र ही जिसकी करधनी थी, हरेभरे वन जिसके सिर के बाल थे, नाना रत्नों से जिसकी कान्ति बढ़ रही थी और जो अत्यन्त निपुण थी ऐसी पृथिवीरूपी स्त्री को छोड़कर उन्होंने विशुद्धात्मा हो जगत् के लिए हितकारी मुनिपद धारण किया था ॥२८६-२८८॥ उनका शरीर वज्रमय था, वे स्थिर योग को धारण कर एक हजार वर्ष तक खड़े रहे । उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं और जटाओं का समूह पृथिवी को छू रहा था ॥२८६॥ स्वामी के अनुराग से कच्छ आदि चार हजार राजाओं ने भी उनके साथ नग्न व्रत धारण किया था परन्तु कठिन परीषहों से पीड़ित होकर अन्त में उन्होंने वह व्रत छोड़ दिया और वल्कल आदि धारण कर लिये ॥२६०॥ परमार्थ को नहीं जानने वाले उन राजाओं ने क्षुधा आदि से पीड़ित होने पर फल आदि के आहार से सन्तोष प्राप्त किया । उन्ही भ्रष्ट लोगों ने तापस आदि लोगों की रचना की ॥२९१॥ जब भगवान् ऋषभदेव महा वटवृक्ष के समीप विद्यमान थे तब उन्हें समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्रकट हुआ ॥२५२॥ उस समय उस स्थान पर चूँकि देवों के द्वारा भगवान की पूजा की गयी थी इसलिए उसी पद्धति से आज भी लोग पूजा करने में प्रवृत्त हैं अर्थात् आज जो वटवृक्ष की पूजा होती है उसका मूल स्रोत भगवान् ऋषभदेव के केवलज्ञान कल्याण से है ॥२६३॥ उत्तम हृदय के धारक देवों ने उस स्थान पर उनकी प्रतिमा स्थापित की तथा महान् उत्सवों से युक्त मनुष्यों ने मनोहर चैत्यालयो में उनकी प्रतिमाएँ विराजमान कीं ॥२६४॥ भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने तथा इनके पुत्र मरीचि ने पहले प्रमाद और अहंकार के योग से जिन ब्राह्मणों की रचना की थी वे पानी में विष की बूँदों के समान प्राणियों को दुःख देते हुए संसार में सर्वत्र फैल गये ॥२६५-२६६॥ जिन्होंने कुत्सित आचार की परम्परा चलायी है, जो अनेक प्रकार के कपटों से युक्त हैं, जो नाना प्रकार के खोटे-खोटे वेष धारण करते हैं और प्रचण्ड अत्यन्त तीक्ष्ण दण्ड के धारक हैं ऐसे इन ब्राह्मणों ने इस संसार को मोहित कर रखा है / भ्रम में डाल रखा है ॥२६७॥ यह समस्त संसार निरन्तर प्रवृत्त रहने वाले अत्यन्त क्रूर कार्य रूपी अन्धकार से व्याप्त है, इसका पुण्यरूपी प्रकाश नष्ट हो चुका है और साधुजनों का अनादर करने में तत्पर है ॥२६८॥ इस पृथिवी पर सुभूम चक्रवर्ती ने इक्कीस बार इन ब्राह्मणों का सर्वनाश किया फिर भी ये अत्यन्ताभाव को प्राप्त नहीं हुए ॥२६९॥ इसलिए है दशानन! तुम्हारे द्वारा ये किस तरह शान्त किये जा सकेंगे - सो तुम्हीं कहो । तुम स्वयं उपशान्त होओ । इस प्राणि-हिंसा से कुछ प्रयोजन नहीं है ॥३००॥ जब सर्वज्ञ जिनेन्द्र भी इस संसार को कुमार्ग से रहित नहीं कर सके तब फिर हमारे जैसे लोग कैसे कर सकते हैं? ॥301॥ इस प्रकार नारद के मुख से पुराण की कथा सुनकर रावण बहुत प्रसन्न हुआ और उसने जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार किया ॥३०२॥ इस प्रकार वह नारद के साथ महापुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली अनेक प्रकार की मनोहर और विचित्र कथाएँ करता हुआ क्षणभर सुख से बैठा ॥३०३॥ अथानन्तर नीति के जानकार राजा मरुत्वान् ने हाथ जोड़कर तथा सिर के बाल जमीन पर लगाकर रावण को प्रणाम किया और निम्नांकित वचन कहे ॥३०४॥ हे लंकेश ! मैं आपका दास हूँ । आप मुझ पर प्रसन्न होइए । अज्ञानवश जीवों से खोटे काम बन ही जाते हैं ॥३०५॥ मेरी कनकप्रभा नाम की कन्या है सो इसे आप स्वीकृत करें । क्योंकि सुन्दर वस्तुओं के पात्र आप ही हैं ॥३०६॥ नम्र मनुष्यों पर दया करना जिसका स्वभाव था और निरन्तर जिसका अम्युदय बढ़ रहा था ऐसे रावण ने कनकप्रभा को विवाहना स्वीकृत कर विधिपूर्वक उसके साथ विवाह कर लिया ॥३०७॥ राजा मरुत्व ने सन्तुष्ट होकर रावण के सामन्तों और योद्धाओं का वाहन, वस्त्र तथा अलंकार आदि से यथायोग्य सत्कार किया ॥३०८॥ कनकप्रभा के साथ रमण करते हुए रावण के एक वर्ष बाद कृतचित्रा नाम की पुत्री हुई ॥३०९॥ चूँकि उसने देखने वाले मनुष्यों को अपने रूप से चित्र अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न किया था इसलिए उसका कृतचित्रा नाम सार्थक था । वह मूर्तिमती शोभा के समान सबका चित्त चुराती थी ॥३१०॥ विजय से जिनका उत्साह बढ़ रहा था तथा जिनका शरीर अत्यन्त तेज:पूर्ण था ऐसे दशानन के शूरवीर सामन्त पृथ्वीतल पर जहां-तहाँ क्रीड़ा करते थे ॥३११॥ जो मनुष्य राजा इस ख्याति को धारण करता था वह दशानन के उन बलवान् सामन्तों को देखकर अपने भोगों के नाश से कातर होता हुआ अत्यन्त दीनता को प्राप्त हो जाता था ॥३१२॥ विद्याधर लोग सुवर्णमय पर्वत तथा नदियों से मनोहर भारतवर्ष का मध्यभाग देखकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए थे ॥३१३॥ कितने ही विद्याधर कहने लगे कि यदि हम लोग यहीं रहने लगें तो अच्छा हो । निश्चय ही स्वर्ग भी इस स्थान से बढ़कर अधिक सौन्दर्य को प्राप्त नहीं है ॥३१४॥ कितने ही लोग कहते थे कि हम लोग इस देश को देखकर लंका लौटेंगे इसमें अपने कुटुम्ब का दर्शन ही मुख्य कारण होगा ॥३१५॥ कुछ लोग कहते थे कि घर में रहना तो कुछ भी शोभा नहीं देता । जरा इस मनोहर देश का विस्तार तो देखो ॥३१६॥ देखो, रावण की समुद्र के समान विशाल सेना यहाँ किस प्रकार ठहर गयी कि परस्पर में दिखाई ही नहीं देती ॥३१७॥ नेत्रों को हरण करने वाले इस लोक के धैर्य की महानता आश्चर्यकारी है । इस लोक तथा विद्याधरों के लोक का जब विचार करते हैं तो यह लोक ही उत्तम मालूम होता है ॥३१८॥ राजा मरुत्व के यज्ञ को नष्ट करनेवाला रावण जिस-जिस देश में जाता था वहीं के निवासी जन तोरण आदि के द्वारा उसके मार्ग को मनोहर बना देते थे॥३१९॥ जिनके मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर थे, जो कमल तुल्य नेत्र धारण कर रही थीं और जिनका शरीर सौन्दर्य से परिपूर्ण था ऐसी भूमिगोचरी स्त्रियां विद्याधरों के कुतूहल से जिन्हें बड़े आदर से देख रही थीं ऐसा विद्याधर भी रावण को देखने की इच्छा से पृथ्वी पर चल रहे थे ॥३२०-३२१॥ जो अत्यन्त धुले हुए बाण के अग्रभाग अथवा तलवार के समान श्यामवर्ण था, जिसके ओठ पके हुए बिम्ब फल के समान थे, मुकुट में लगे हुए मोतियों की किरणरूपी जल से जिसका ललाट धुला हुआ था, जिसके घुँघराले बालों का समूह इन्द्रनीलमणि की प्रभा से भी अधिक चमकीला था, जिसके नेत्र कमल के समान थे, मुख चन्द्रमा के समान था, जो प्रत्यंचा सहित धनुष के समान टेढ़ी, चिकनी एवं नीली-नीली भौंहों को युगल से सुशोभित था, जिसकी ग्रीवा शंख के समान थी, कन्धे सिंह के समान थे, जिसका वक्षःस्थल मोटा और चौड़ा था, जिसकी भुजाएँ दिग्गज की सूँड के समान मोटी थीं, जिसकी कमर वच के समान मजबूत एवं पतली थी, जिसकी जंघाएँ साँप के फण के समान थीं, जिसके घुटने अपनी मांसपेशियों में निमग्न थे, पैर कमल के समान थे, जिसका शरीर योग्य ऊँचाई से सहित था, जो श्रीवत्स आदि उत्तमोत्तम बत्तीस लक्षणों से युक्त था, जिसका मुकुट रत्नों की किरणों से जगमगा रहा था, जिसके कुण्डल चित्रविचित्र मणियों से निर्मित थे, जिसके कन्धे बाजूबन्दों की किरणों से देदीप्यमान थे जिसका वक्षस्थल हार से सुशोभित था और जिसे अर्धचक्री के भोग प्राप्त थे ऐसा रावण जब नगर के समीप में गमन करता हुआ आगे जाता था तब उसे देखने के लिए स्त्रियाँ अत्यन्त उत्कण्ठित चित्त हो जाती थीं । उत्तम वेष को धारण करने वाली स्त्रियाँ परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाती हुई प्रारब्ध समस्त कार्यों को छोडकर झरोखों में आ डटी थीं ॥३२२-३२९॥ वे सन्तुष्ट होकर भौंरों से सहित फूल रावण पर फेंक रही थीं और विविधप्रकार के शब्दों से उसका इस प्रकार वर्णन कर रही थीं ॥३३०॥ कोई कह रही थी कि देखो यह वही रावण है जिसने मौसी के लड़के वैश्रवण और यम को जीता था । जो कैलास पर्वत को उठाने के लिए उद्यत हुआ था । जिसने सहस्त्ररश्मि को राज्यभार से विमुक्त किया था यह बड़ा पराक्रमी है ॥३३१-३३२॥ अहो, बड़े आश्चर्य की बात है कि कर्मों ने चिरकाल बाद रावण में रूप तथा अनेक गुणों का लोकानन्दकारी समागम किया है । अर्थात् जैसा इसका सुन्दर रूप है वैसे ही इसमें गुण विद्यमान हैं ॥३३३॥ वह स्‍त्री पुण्यवती है जिसने इस उत्तम पुत्र को गर्भ में धारण किया है और वह पिता भी कृतकृत्यपना को प्राप्त है जिसने इसे जन्म दिया है ॥३३४॥ वे बन्धुजन प्रशंसनीय हैं जिनका कि यह प्रेमपात्र है, जो स्त्रियाँ इसके साथ विवाहित हैं उनका तो कहना ही क्या है? ॥३३५॥ वार्तालाप करती हुई स्त्रियां उसे तबतक देखती रहीं जब तक कि वह उनके विस्तृत नेत्रों का विषय रहा अर्थात् नेत्रों के ओझल नहीं हो गया ॥३३६॥ मन को चुराने वाला रावण जब नेत्रों से अदृश्य हो गया तब मुहूर्त-भर के लिए स्त्रियाँ चित्रलिखित की तरह निश्चेष्ट हो गयीं ॥३३७॥ रावण के द्वारा उन स्त्रियो का चित्त हरा गया था इसलिए कुछ दिन तक तो उनका यह हाल रहा कि उनके मन में कुछ कार्य था और वे कर बैठती थीं कोई दूसरा ही कार्य ॥३३८॥ रावण जिस देश का समागम छोड़ आगे बढ़ जाता था उस देश के स्त्री-पुरुषों में एक रावण की ही कथा शेष रह जाती थी अन्य सबकी कथा छूट जाती थी ॥३३९॥ देश, नगर, ग्राम अथवा अहीरों की बस्ती में जो पुरुष प्रधानता को प्राप्त थे वे उपहार ले-लेकर रावण के समीप गये ॥३४०॥ जनपदों में रहनेवाले लोग यथायोग्य भेंट लेकर रावण के पास गये और हाथ जोड़ नमस्कार कर सन्तुष्ट होते हुए निम्न प्रकार निवेदन करने लगे ॥३४१॥ उन्होंने कहा कि हे राजन्! नन्दन आदि वनों में जो भी मनोहर द्रव्य हैं वे इच्छा करने मात्र से ही आपको सुलभ हैं अर्थात् अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं ॥३४२॥ चूँकि आप महा-वैभव के पात्र हैं इसलिए ऐसा कौन-सा अपूर्व धन है जिसे भेंट देकर हम आपको प्रसन्न कर सकते हैं॥३४३॥ फिर भी हम लोगों को खाली हाथ आपका दर्शन करना उचित नहीं है इसलिए कुछ तो भी लेकर समीप आये हैं ॥३४४॥ देवों ने जिनेन्द्र भगवान की सुवर्ण कमलों से पूजा की थी तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षों के फूलों से पूजा नहीं करते? ॥३४५॥ इस प्रकार नाना जनपद वासी और बड़ी-बड़ी सम्पदाओं को धारण करने वाले सामन्तों ने रावण की पूजा की तथा रावण ने भी प्रिय वचन कहकर बदले में उनका सम्मान किया ॥३४६॥ नाना रत्नमयी, अलंकारों से सुशोभित अपनी स्त्री के समान सुन्दर पृथिवी को देखता हुआ रावण परम प्रीति को प्राप्त हुआ॥347॥ रावण मार्ग के कारण जिस-जिस देश के साथ समागम को प्राप्त हुआ था वहाँ की पृथिवी अकृष्ट पच्य धान्य से युक्त हो गयी थी ॥३४8॥ परम हर्ष को धारण करने वाले लोग रावण के द्वारा छोड़े हुए पृथिवी-तल को तथा उसकी अत्यन्त निर्मल कीर्ति को अनुराग रूपी जल से सींचते थे ॥३४९॥ किसान लोग इस प्रकार कह रहे थे कि हम लोग बड़े पुण्यात्मा हैं जिससे कि रावण इस देश में आया ॥३५०॥ हम लोग अब तक खेती में लगे रहे, हम लोगों का सारा शरीर रूखा हो गया । हमें फटे पुराने वस्त्र पहनने को मिले, हम कठोर स्पर्श और तीव्र वेदना से युक्त हाथ-पैरों को धारण करते रहे और आज तक कभी सुख से अच्छा भोजन भी प्राप्त नहीं हुआ । इस तरह हम लोगों का काल बड़े क्लेश से व्यतीत हुआ परन्तु इस भव्य जीव के प्रभाव से हम लोग इस समय सर्व प्रकार से सम्पन्न हो गये हैं ॥३५१-३५२॥ जिन देशों में यह कल्याणकारी रावण विचरण करता है वे देश पुण्य से अनुगृहीत तथा सम्पत्ति से सुशोभित हैं ॥३५३॥ मुझे उन भाइयों से क्या प्रयोजन जो कि दुःख दूर करने में समर्थ नहीं हैं । यह रावण ही हम सब प्राणियों का बड़ा भाई है ॥३५४॥ इस प्रकार गुणों के द्वारा लोगों के अनुराग को बढ़ाते हुए रावण ने हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु को भी लोगों के लिए सुखदायी बना दिया था ॥३५५॥ चेतन पदार्थ तो दूर रहे जो अचेतन पदार्थ थे वे भी मानो रावण से भयभीत होकर ही लोगों के लिए सुखदायी हो गये थे ॥३५६॥

रावण का प्रयाण जारी था कि इतने में वर्षा ऋतु आ गयी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो हर्ष के साथ रावण की अगवानी करने के लिए ही आयी थी ॥३५७॥ बलाका बिजली और इन्द्रधनुष से शोभित, महानीलगिरि के समान काले-काले मेघ जोरदार गर्जना करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो सुवर्ण मालाओं को धारण करने वाले शंख और पताकाओं से सुशोभित हाथी ही इन्द्र ने रावण के लिए उपहार में भेजे हों ॥३५८-३५९॥ मेघों के समूह से समस्त दिशाएँ इस प्रकार अन्धकार युक्त हो गयी थीं कि लोगों को रात-दिन का भेद ही नहीं मालूम होता था ॥३६०॥ अथवा जो मलिनता को धारण करने वाले हैं उन्हें ऐसा ही करना उचित है कि वे संसार में प्रकाश और अन्धकार से युक्त सभी पदार्थो को एक समान कर देते हैं ॥३६१॥ पानी की बड़ी मोटी धाराएँ रुकावट रहित पृथिवी और आकाश के बीच में इस तरह संलग्न हो रही थीं कि पता ही नहीं चलता था कि ये मोटी धाराएँ ऊपर को जा रही हैं या ऊपर से नीचे फिर रही हैं ॥३६२॥ मानवती स्त्रियों ने जो मान का समूह चिरकाल से अपने मन में धारण कर रखा था वह मेघों की जोरदार गर्जना से क्षण-भर में नष्ट हो गया था ॥३६३॥ जिनकी भुजाएँ रुनझुन करने वाली चूड़ियों से युक्त थीं ऐसी मानवती स्त्रियां मेघ गर्जना से डरकर पति का गाढ़ आलिंगन कर रही थीं ॥३६४॥ मेघों के द्वारा छोड़ी हुई जल की धाराएँ यद्यपि शीतल और कोमल थीं तथापि वे पथिक जनों का मर्म विदारण करती हुई दर्शकों की समानता को प्राप्त हो रही थीं ॥३६५॥ जिसकी आत्मा अत्यन्त व्याकुल थी ऐसे दूरवर्ती पथिक का हृदय धाराओं के समूह से इस प्रकार खण्डित हो गया था मानो अत्यन्त पैने चक्र से ही खण्डित हुआ हो ॥३६६॥ कदम्ब के नये फूल से बेचारा पथिक इतना अधिक मोहित हो गया कि वह क्षण-भर के लिए मिट्टी के पुतले के समान निश्चेष्ट हो गया ॥३६७॥ ऐसा जान पड़ता था कि क्षीर समुद्र से जल ग्रहण करने वाले मेघ मानो गायों के भीतर जा घुसे थे। यदि ऐसा न होता तो वे निरन्तर दूध की धाराएँ कैसे झराते रहते? ॥३६८॥ उस समय के किसान रावण के प्रभाव से महाधनवान् हो गये थे इसलिए उस वर्षा के समय भी वे व्याकुल नहीं हुए थे ॥३६९॥ घर की मालकिन एक व्यक्ति के लिए जो भोजन तैयार करती थी उसे सारा कुटुम्ब खाता था फिर भी वह समाप्त नहीं होता था ॥३७०॥ इस प्रकार रावण समस्त प्राणियों के लिए महोत्सव स्वरूप था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवों का सौभाग्य कौन कह सकता है? ॥३७१॥ रावण नील कमलों के समूह के समान श्याम वर्ण था और जोरदार शब्द करता था इससे ऐसा जान पड़ता था मानो स्त्रियों को उत्सुक करता हुआ साक्षात् वर्षाकाल ही हो ॥३७२॥ मेघों की गर्जना के बहाने मानो रावण का आदेश पाकर ही समस्त राजाओं ने रावण को नमस्कार किया था ॥३७३॥ नेत्रों को हरण करने वाली भूमिगोचरियों की अनेक कन्याएँ रावण को प्राप्त हुई सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो आकाश को छोड़कर बिजलियाँ ही उसके पास आयी हों ॥३७४॥ जिस प्रकार पयोधरभराक्रान्ता अर्थात् मेघों के समूह से युक्त उत्तम वर्षाएँ किसी पर्वत को पाकर क्रीड़ा करती हैं उसी प्रकार पयोधरभराक्रान्ता अर्थात् स्तनों के भार से आक्रान्त कन्याएँ पृथिवी का भार धारण करने में समर्थ रावण को पाकर क्रीड़ा करती थीं ॥३७५॥ वर्षा ऋतु में सूर्य छिप गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो विजयाभिलाषी रावण की उत्कृष्ट कान्ति देख लज्जा और भय से व्याकुल होता हुआ कहीं भाग गया था ॥३७६॥चन्द्रमा ने देखा कि जो काम मैं करता हूँ वही रावण का मुख करता है ऐसा मानकर ही मानो वह कहीं चला गया था ॥३७७॥ तारा भी अन्तर्हित हो गये थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओं ने देखा कि रावण के मुख से हमारा स्वामी-चन्द्रमा जीत लिया गया है इस भय से युक्त होकर ही वे कहीं भाग गयी थीं ॥३७८॥ रावण की स्त्रियों के हाथ और पैर हम से कहीं अधिक लाल हैं ऐसा जानकर ही मानो कमलों का समूह लजाता हुआ कहीं छिप गया था ॥३७९॥ जो मेखला रूपी बिजली से युक्त थीं तथा रंग-बिरंगे वस्त्ररूपी इन्द्रधनुष को धारण कर रही थीं और पयोधर अर्थात् स्तनों (पक्ष में मेघों) से आक्रान्त थीं ऐसी रावण की स्त्रियाँ ठीक वर्षा ऋतु के समान जान पड़ती थीं ॥३८०॥ जिसने गूँजती हुई भ्रमर पंक्ति को आकृष्ट किया था ऐसे श्वासोच्छ्‌वास की वायु से रावण केतकी के फूल और स्त्रियों की गन्ध को अलग-अलग नहीं पहचान सका था ॥३८१॥ जिसके दूर-दूर तक प्रचुर मात्रा में सुन्दर घास उत्पन्न हुई थी और जहाँ नाना फूलों से समुत्पन्न गन्ध घ्राण को व्याप्त कर रही थी ऐसे गंगा नदी के लम्बे-चौड़े सुन्दर तट को पाकर रावण ने सुखपूर्वक वर्षा काल व्यतीत किया ॥३८२॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! पुण्यात्मा मनुष्यों का नाम सुनकर ही लोग उन्हें प्रणाम करने लगते हैं, अनेक विषयों की प्राप्त कराने वाले सुन्दर स्त्रियों के समूह उन्हें प्राप्त होते रहते हैं, आश्चर्य के निवासभूत अनेक ऐश्वर्य उनके घर उत्पन्न होते हैं और कहाँ तक कहा जाये, सूर्य भी उनके प्रभाव से शीतल हो जाता है इसलिए सबको पुण्यबन्ध के लिए प्रयत्‍न करना चाहिए॥383॥

इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में राजा मरुत्व के यज्ञ के विध्वंसका वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥11॥