+ इन्द्र विद्याधर की हार -
द्वादश पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर उसी गंगा तट पर रावण ने एकान्त में मन्त्रियों के साथ सलाह की कि यह कृतचित्रा कन्या किसके लिए दी जाये? ॥१॥ इन्द्र के साथ संग्राम में जीवित रहने का निश्चय नहीं है इसलिए कन्या का विवाह रूप मंगल कार्य प्रथम ही कर लेना योग्य है ॥२॥ तब रावण को कन्या के योग्य वर खोजने में चिन्तातुर जानकर राजा हरिवाहन ने अपना पुत्र निकट बुलाया ॥३॥ सुन्दर आकार के धारक उस विनयवान् पुत्र को देखकर रावण को बड़ा सन्तोष हुआ और उसने उसके लिए पुत्री देने का विचार किया ॥४॥ जब वह मन्त्रियों के साथ योग्य आसन पर बैठ गया तब नीतिशास्त्र का विद्वान् रावण इस प्रकार विचार करने लगा कि यह मथुरा नगरी का राजा हरिवाहन उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है, इसका मन सदा हमारे गुण-कथन करने में आसक्त रहता है और यह इसका तथा इसके बन्धुजनों का प्राणभूत मधु नाम का पुत्र है । यह अत्यन्त प्रशंसनीय, विनय सम्पन्न और प्रीति के निर्वाह करने में योग्य है ॥५-७॥ यह वृत्तान्त जानकर ही मानो इसकी चेष्टाएँ सुन्दर हो रही हैं । इसके गुणों का समूह अत्यन्त प्रसिद्ध है । यह मेरे समीप आया सो बहुत अच्छा हुआ ॥8॥ तदनन्तर राजा मधु का मन्त्री बोला कि हे देव ! आपके आगे इस पराक्रमी के गुण बड़े दुःख से वर्णन किये जाते हैं अर्थात् उनका वर्णन करना सरल नहीं है ॥9॥ फिर भी आप कुछ जान सकें इसलिए कुछ तो भी वर्णन करने का प्रयत्न करता हूँ ॥१०॥ सब लोगों के मन को हरण करने वाला यह कुमार वास्तविक मधु शब्द को धारण करता है क्योंकि यह सदा मधु-जैसी उत्कृष्ट गन्ध को धारण करनेवाला है ॥११॥ इसके गुणों का वर्णन इतने से ही पर्याप्त समझना चाहिए कि असुरेन्द्र ने इसके लिए महा गुणशाली शूल रत्‍न प्रदान किया है ॥१२॥ ऐसा शूल रत्‍न कि जो कभी व्यर्थ नहीं जाता, अत्यन्त देदीप्यमान है और शत्रुसेना की ओर फेंका जाये जो हजारों शत्रुओं को नष्ट कर हाथ में वापस लौट आता है ॥१३॥ अथवा आप कार्य के द्वारा ही शीघ्र इसके गुण जानने लगेंगे । वचनों के द्वारा उनका प्रकट करना हास्य का कारण है ॥१४॥ इसलिए आप इसके साथ पुत्री का सम्बन्ध करने का विचार कीजिए । आपका सम्बन्ध पाकर यह कृतकृत्य हो जायेगा ॥१५॥ मन्त्री के ऐसा कहने पर रावण ने उसे बुद्धिपूर्वक अपना जामाता निश्चित कर लिया और जामाता के यथायोग्य सब कार्य कर दिये ॥१६॥ इच्छा करते ही जिसके समस्त कारण अनायास मिल गये थे ऐसा उन दोनों का विवाह अत्यन्त प्रसन्न लोगों से व्याप्त था अर्थात् उनके विवाहोत्सव में प्रीति से भरे अनेक लोक आये थे ॥१७॥ मधु नाम उस राजकुमार का था और वसन्तऋतु का भी । इसी प्रकार आमोद का अर्थ सुगन्धि है और हर्ष भी । सो जिस प्रकार वसन्तऋतु नेत्रों को हरण करने वाली अकथनीय पुष्पसम्पदा को पाकर जगत् प्रिय सुगन्धि को प्राप्त होती है उसी प्रकार राजकुमार मधु भी नेत्रों को हरण करने वाली कृतचित्रा को पाकर परम हर्ष को प्राप्त हुआ था ॥१८॥

इसी अवसर पर जिसे कुतूहल उत्‍पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिक ने फिर से नमस्कार कर गौतम स्वामी से पूछा ॥१९॥ कि हे मुनिश्रेष्ठ ! असुरेन्द्र ने मधु के लिए दुर्लभ शूल रत्न किस कारण दिया था? ॥२०॥ श्रेणिक के ऐसा कहने पर विशाल तेज से युक्त तथा धर्म से स्नेह रखनेवाले गौतम स्वामी शूल रत्न की प्राप्ति का कारण कहने लगे ॥२१॥ उन्होंने कहा कि धातकीखण्ड द्वीप के ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी शतद्वार नामक नगर में प्रीतिरूपी बन्धन से बँधे दो मित्र रहते थे ॥२२॥ उनमें से एक का नाम सुमित्र था और दूसरे का नाम प्रभव । सो ये दोनों एक गुरु की चटशाला में पढ़कर बडे विद्वान् हुए ॥२३॥ कई एक दिन में पुण्योपार्जित सत्कर्म के प्रभाव से सुमित्र को सर्व सामन्तों से सेवित तथा परम अभ्युदय से मुक्त राज्य प्राप्त हुआ ॥२४॥ यद्यपि प्रभव पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था तथापि महा स्नेह के कारण सुमित्र ने उसे भी राजा बना दिया ॥२5॥

अथानन्तर एक दिन एक दुष्ट घोड़ा राजा सुमित्र को हरकर जंगल में ले गया सो वहाँ अपनी इच्छा से भ्रमण करने वाले द्विरददंष्ट्र नाम म्लेच्छों के राजा ने उसे देखा ॥२६॥ द्विरददंष्ट्र उसे अपनी पल्ली (भीलों की बस्ती) में ले गया और एक पक्की शर्त कर उसने अपनी पुत्री राजा सुमित्र को विवाह दी ॥२७॥ जो साक्षात् वन लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी वनमाला नामा कन्या को पाकर राजा सुमित्र वहाँ एक माह तक रहा ॥२८॥ तदनन्तर द्विरददंष्ट्र की आज्ञा लेकर वह अपनी कान्ता के साथ शतद्वार नगर की ओर वापस आ रहा था । भीलों की सेना उसके साथ थी ॥२९॥ इधर प्रभव अपने मित्र की खोज के लिए निकला था सो उसने कामदेव की पताका के समान सुशोभित कान्ता से सहित मित्र को देखा ॥३०॥ पापकर्म के उदय से जिसके समस्त करने और न करने योग्य कार्यों का विचार नष्ट हो गया था ऐसे प्रभव ने मित्र की स्त्री में अपना मन किया ॥३१॥ सब ओर से काम के तीक्ष्ण बाणों से ताड़ित होने के कारण उसका मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा था इसलिए वह कहीं भी सुख नहीं पा रहा था ॥३२॥ बुद्धि को नष्ट करनेवाला काम हजारों बीमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है क्योंकि उससे मनुष्यों का शरीर तो नष्ट होता नहीं है पर वे दुःख पाते रहते हैं ॥३३॥ जिस प्रकार सूर्य समस्त ज्योतिषियों में प्रधान है उसी प्रकार काम समस्त रोगों में प्रधान है ॥३४॥ बेचैन क्यों हो रहे हो इस तरह जब मित्र ने बेचैनी का कारण पूछा तब उसने सुन्दरी को देखना ही अपनी बेचैनी का कारण कहा ॥३१॥ मित्र वत्सल सुमित्र ने जब सुना कि मेरे प्राण तुल्य मित्र को जो दुःख हो रहा है उसमें मेरी स्त्री ही निमित्त है तब उस बुद्धिमान ने उसे प्रभव के घर भेज दिया और आप झरोखे में छिपकर देखने लगा कि देखें यह वनमाला इसका क्या करती है ॥३६-३७॥ साथ ही वह यह भी सोचता जाता था कि यदि यह वनमाला इसके अनुकूल नहीं हुई तो मैं निश्चित ही इसका निग्रह करूँगा अर्थात् इसे दण्ड दूँगा ॥३८॥ और यदि अनुकूल होकर इसका मनोरथ पूर्ण करेगी तो हजार ग्राम देकर इस सुन्दरी की पूजा करूँगा ॥३९॥ तदनन्तर जब रात्रि का प्रारम्भ हो गया और आकाश में ताराओं के समूह छिटक गये तब वनमाला बड़ी उत्कण्ठा के साथ प्रभव के समीप पहुँची ॥४०॥ वनमाला को उसने सुन्दर आसन पर बैठाया और स्वयं निर्दोष भाव से उसके सामने बैठ गया । तदनन्तर उसने बड़े आदर के साथ उससे पूछा कि हे भद्रे ! तू कौन है? ॥४१॥ वनमाला ने विवाह तक का सब समाचार कह सुनाया । उसे सुनकर प्रभव प्रभाहीन हो गया और परम निर्वेद को प्राप्त हुआ ॥४२॥ वह विचार करने लगा कि हायहाय ! बड़े कष्ट की बात है कि मैंने मित्र की स्त्री से कुछ तो भी करने की इच्छा की । मुझ अविवेकी के लिए धिक्कार है ॥४३॥ आत्‍मघात के सिवाय अन्य तरह मैं इस पाप से मुक्त नहीं हो सकता। अथवा मुझे अब इस कलंकी जीवन से प्रयोजन ही क्या है? ॥४४॥ ऐसा विचारकर उसने अपना मस्तक काटने के लिए म्यान से तलवार खींची । उसकी वह तलवार अपनी सघन कान्ति से दिशाओं के अन्तराल को व्याप्त कर रही थी ॥45॥ वह इस तलवार को कण्ठ के पास ले ही गया था कि सुमित्र ने सहसा लपककर उसे रोक दिया ॥४६॥ सुमित्र ने शीघ्रता से मित्र का आलिंगन कर कहा कि तुम तो पण्डित हो, आत्मघात से जो दोष होता है उसे क्या नहीं जानते हो? ॥४७॥ जो मनुष्य अपने शरीर का अविधि से घात करते हैं वे चिरकाल तक कच्चे गर्भ में दुख प्राप्त करते हैं अर्थात् गर्भ पूर्ण हुए बिना ही असमय में मर जाते हैं ॥४८॥ ऐसा कहकर उसने मित्र के हाथ से तलवार छीनकर नष्ट कर दी और चिरकाल तक उसे मनोहारी वचनों से समझाया ॥49॥ आचार्य कहते हैं कि परस्पर के गुणों से सम्बन्ध रखने वाली उन दोनों मित्रों की प्रीति इस तरह अन्त को प्राप्त होगी इससे जान पड़ता है कि यह संसार असार है ॥50॥ अपने-अपने कर्मों से युक्त जीव सुख-दुःख उत्पन्न करने वाली पृथक्-पृथक् गति की प्राप्त होते हैं इसलिए इस संसार में कौन किसका मित्र है? ॥५१॥ तदनन्तर जिसकी आत्मा प्रबुद्ध थी ऐसा राजा सुमित्र मुनि-दीक्षा धारण कर अन्त में ऐशान स्वर्ग का अधिपति हो गया ॥५२॥ वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप की मथुरा नगरी में राजा हरिवाहन की माधवी रानी से मधु नाम का पुत्र हुआ । यह पुत्र मधु के समान मोह उत्पन्न करनेवाला था और हरिवंशरूपी आकाश में चन्द्रमा के समान सुशोभित था ॥५३-५४॥ मिथ्यादृष्टि प्रभव मरकर दुर्गति में दुःख भोगता रहा और अन्त में विश्वावसु की ज्योतिष्मती स्त्री के शिखी नामा पुत्र हुआ ॥55॥ सो द्रव्यलिंगी मुनि हो महातप कर निदान के प्रभाव से असुरों का अधिपति चमरेन्द्र हुआ ॥५६॥ तदनन्तर अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्व भवों का स्मरण कर सुमि‍त्र नामक मित्र के निर्मल गुणों का हृदय में चिन्तवन करने लगा ॥५७॥ ज्यों ही उसे सुमित्र राजा के मनोहर चरित्र का स्मरण आया त्यों ही वह करोंत के समान उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा ॥५8॥ वह विचार करने लगा कि सुमित्र बड़ा ही भला और मह गुणवान् था । वह समस्त कार्यों में सहायता करनेवाला मेरा परम मित्र था ॥५९॥ उसने मेरे साथ गुरु के घर विद्या पढ़ी थी । मैं दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था सो उसने मुझे अपने समान धनवान् बना लिया था ॥60॥ मेरे चित्त में पाप समाया सो द्वेषरहित चित के धारक उस दयालु ने तृष्णारहित होकर मेरे पास अपनी स्त्री भेजी ॥६१॥ यह मित्र की स्त्री है ऐसा जानकर जब मैं परम उद्वेग को प्राप्त होता हुआ तलवार से अपना शिर काटने के लिए उद्यत हुआ तो उसी ने मेरी रक्षा की थी ॥६२॥ मैंने जिनशासन की श्रद्धा बिना मरकर दुर्गति में ऐसे दुःख भोगे कि जिनका स्मरण करना भी दु:सह है ॥६३॥ मैंने मोक्षमार्ग का अनुवर्तन करने वाले साधुओं के समूह की जो निन्दा की थी उसका फल अनेक दु:खदायी योनियों में प्राप्त किया ॥६४॥ और वह सुमित्र निर्मल चारित्र का पालन कर ऐशान स्वर्ग में उत्तम सुख का उपभोग करने वाला इन्द्र हुआ तथा अब वहाँ से स्तुत होकर मधु हुआ है ॥65॥ इस प्रकार क्षणभर में उत्पन्न हुए परम प्रेम से जिसका मन आर्द्र हो रहा था ऐसा चमरेन्द्र सुमित्र मित्र के उपकारों से आकृष्ट हो अपने भवन से बाहर निकला ॥६६॥ उसने बड़े आदर के साथ मिलकर महारत्नों से मित्र का पूजन किया और उसके लिए सहखान्तक नामक शूल रत्न भेंट में दिया ॥67॥ हरिवाहन का पुत्र मधु चमरेन्द्र से शूल रत्न पाकर पृथिवी पर परम प्रीति को प्राप्त हुआ और अस्त्र विद्या का स्वामी कहलाने लगा ॥68॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो मनुष्य मधु के इस चरित्र को पढ़ता अथवा सुनता है वह विशाल दीप्ति, श्रेष्ठ धन और उत्कृष्ट आयु को प्राप्त होता है ॥६९॥

अथानन्तर अनेक सामन्त जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा रावण लोक में शत्रुओं को वशीभूत करने वाला अपना प्रभाव फैलाता और अनेक आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ प्रेम से भरे संसार में अठारह वर्ष तक इस प्रकार भ्रमण करता रहा जिस प्रकार कि इन्द्र स्वर्ग में भ्रमण करता है ॥७०-७१॥ तदनन्तर रावण क्रम-क्रम से समुद्र की निकटवर्तिनी भूमि को छोड़ता हुआ चिरकाल के बाद जिनमन्दिरों से युक्त कैलास पर्वत पर पहुँचा ॥७२॥ वहाँ स्वच्छ जल से भरी समुद्र की पत्नी एवं सुवर्ण कमलों की पराग से व्याप्त गंगानदी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥७३॥ सो उसके समीप ही अपनी विशाल सेना ठहराकर कैलास की कन्दराओं में मनोहर क्रीड़ा करने लगा ॥७४॥ पहले विद्याधर और फिर भूमिगोचरी मनुष्यों ने यथाक्रम से गंगा नदी के स्फटिक के समान स्वच्छ सुखकर स्पर्श वाले जल में अपना खेद दूर किया था अर्थात् स्नान कर अपनी थकावट दूर की थी ॥७१॥ पृथ्वी पर लोटने के कारण लगी हुई जिनकी धूलि नमेरुवृक्ष के नये-नये पत्तों से झाड़कर दूर कर दी गयीं थी और पानी पिलाने के बाद जिन्हें खूब नहलाया गया था ऐसे घोड़े विनय से खड़े थे ॥७६॥ जल के छींटों से गीला शरीर होने के कारण जिन पर बहुत गाढ़ी धूलि जमी हुई थी तथा नदी के द्वारा जिनका बड़ा भारी खेद दूर कर दिया गया था ऐसे हाथियों को महावतों ने चिरकाल तक नहलाया था ॥७७॥ कैलास पर आते ही रावण को बालि का वृत्तान्त स्मृत हो उठा इसलिए उसने समस्त चैत्यालयों को बड़ी सावधानी से नमस्कार किया और धर्मानुकूल क्रियाओं का आचरण किया ॥७८॥ अथानन्तर इन्द्र ने दुर्लंघ्यपुर नामा नगर में नलकूबर को लोकपाल बनाकर स्थापित किया था सो गुप्तचरों से जब उसे यह मालूम हुआ कि सेना रूपी सागर के मध्य वर्तमान रहनेवाला रावण जीतने की इच्छा से निकट ही आ पहुँचा है तब उसने भयभीत चित्त होकर पत्र में सब समाचार लिख एक शीघ्रगामी विद्याधर इन्द्र के पास पहुँचाया ॥७९-८१॥ सो इन्द्र जिस समय जिन-प्रतिमाओं की वन्दना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर जा रहा था उसी समय पत्रवाहक विद्याधर ने प्रणाम कर नलकूबर का पत्र उसके सामने रख दिया ॥८२॥ इन्द्र ने पत्र बाँचकर तथा समस्त अर्थ हृदय में धारणकर प्रतिलेख द्वारा आज्ञा दी कि मैं जब तक पाण्‍डुकवन में स्थित जिन-प्रतिमाओं की वन्दना कर वापस आता हूँ तब तक तुम बड़े यत्न से रहना । तुम अमोघ अस्‍त्र के धारक हो ॥८३-८४॥ ऐसा सन्देश देकर जिसका मन वन्दना में आसक्त था ऐसा इन्द्र गर्व-वश शत्रु की सेना को कुछ नहीं गिनता हुआ पाण्डुकवन चला गया ॥८५॥ इधर समयानुसार कार्य करने में तत्पर रहनेवाले नलकूबर ने समस्त आप्तजनों के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से नगर की रक्षा का उपाय सोचा ॥८६॥ उसने सौ योजन ऊँचा और तिगुनी परिधि से युक्त वज्रशाल नामा कोट, विद्या के प्रभाव से नगर के चारों ओर खड़ा कर दिया ॥८७॥ यह नगर शत्रु के अधीन है ऐसा जानकर रावण ने दण्ड वसूल करने के लिए प्रहस्त नामा सेनापति भेजा ॥88॥ सो उसने लौटकर रावण से कहा कि हे देव ! शत्रु का नगर बहुत ऊँचे प्रकार से घिरा हुआ है इसलिए वह नहीं लिया जा सकता है ॥8९॥ देखो वह भयंकर प्राकार यहाँ से ही समस्त दिशाओं में दिखाई दे रहा है । वह बड़ी ऊँची शिखरों और गम्भीर बिलों से युक्त है तथा जिसका मुख दाढ़ों से भयंकर है ऐसे अजगर के समान जान पड़ता है ॥90॥ लड़ते हुए तिलगों से जिनकी ओर देखना भी कठिन है ऐसी ज्वालाओं के समूह से वह प्राकार भरा हुआ है तथा बाँसों के जलते हुए किसी सघन बड़े वन के समान दिखाई देता है ॥९१॥ इस प्राकार में भयंकर दांढों को धारण करने वाले बेतालों के समान ऐसे-ऐसे विशाल यन्त्र लगे हुए हैं जो एक योजन के भीतर रहनेवाले बहुत से मनुष्यों को एक साथ पकड़ लेते हैं ॥९२॥ प्राणियों के जो समूह उन यन्त्रों के मुख में पहुँच जाते हैं फिर उसके शरीर का समागम दूसरे जन्म में ही होता है ॥९३॥ ऐसा जानकर आप नगर लेने के लिए कोई कुशल उपाय सोचिए । यथार्थ में दीर्घदर्शी मनुष्य के द्वारा ही विजिगीषुपना किया जाता है अर्थात् जो दीर्घदर्शी होता है वही विजिगीषु हो सकता है ॥९४॥ इस स्थान से तो शीघ्र ही निकल भागना शोभा देता है क्योंकि यहाँ पर जिसका निरावरण नहीं किया जा सकता ऐसा बहुत भारी संशय विद्यमान है ॥95॥ तदनन्तर कैलास की गुफाओं में बैठे रावण के नीति निपुण मन्त्री उपाय का विचार करने लगे ॥९६॥ अथानन्तर जिसके गुण और आकार रम्भा नामक अप्सरा के समान थे ऐसी नलकूबर की उपरम्भा नामक प्रसिद्ध स्त्री ने सुना कि रावण समीप ही आकर ठहरा हुआ है ॥९७॥ वह रावण के गुणों से पहले ही अनुरक्त थी इसलिए जिस प्रकार कुमुदों की पंक्ति चन्द्रमा के विषय में उत्कण्ठा को प्राप्त रहती है उसी प्रकार वह भी रावण के विषय में परम उत्कण्ठा को प्राप्त हुई ॥९८॥ उसने एकान्त में विचित्रमाला नामक सखी से कहा कि हे सुन्दरि, सुन । तुझे छोड़कर मेरी प्राण-तुल्य दूसरी सखी कौन है? ॥९९॥ जो समान बात कहे वहीं सखी शब्द प्रवृत्त होता है अर्थात् समान बात कहने वाली ही सखी कहलाती है, इसलिए हे शोभने! तू मेरी मनसा का भेद करने के योग्य नहीं है ॥१००॥ हे चतुरे ! तू अवश्य ही मेरा कार्य सिद्ध करती है इसलिए तुझसे कहती हूँ। यथार्थ में सखियां ही जीवन का बड़ा आलम्बन हैं - सब से बड़ा सहारा हैं ॥१०१॥ ऐसा कहने पर विचित्रमाला ने कहा कि हे देवि ! आप ऐसा क्यों कहती हैं । मैं तो आपकी दासी हूँ, मुझे आप इच्छित कार्य में लगाइए ॥१०२॥ मैं अपनी प्रशंसा नहीं करती क्योंकि लोक में उसे निन्दनीय बताया है पर इतना अवश्य कहती हूँ कि मैं साक्षात् रूपधारिणी सिद्धि ही हूँ ॥१०३॥ जो कुछ तुम्हारे मन में हो उसे निशंक होकर कहो; मेरे रहते आप खेद व्यर्थ ही उठा रही हैं ॥१०४॥ तदनन्तर उपरम्भा लम्बी और धीमी साँस लेकर तथा कमल तुल्य हथेली पर चन्द्रमा के समान सुन्दर कपोल रखकर कहने लगी ॥१०५॥ जो अक्षर उपरम्भा के मुख से निकलते थे वे लज्जा के कारण बीच-बीच में रुक जाते थे अत: वह उन्हें बारबार प्रेरित कर रही थी - तथा उसका मन धृष्टता के ऊपर बार-बार चढ़ता और बार-बार गिरता था सो उसे वह बड़े कष्ट से धृष्टता के ऊपर स्थित कर रही थी ॥१०६॥ उसने कहा कि हे सखि ! बाल्य अवस्था से ही मेरा मन रावण में लगा हुआ है। यद्यपि मैंने उसके समस्त लोक में फैलने वाले मनोहर गुण सुने हैं तो भी मैं उसका समागम प्राप्त नहीं कर सकी । किन्तु उसके विपरीत भाग्य की मन्दता से मैं नलकूबर के साथ अप्रिय संगम को प्राप्त हुई हूँ सो अप्रीति के कारण निरन्तर भारी पश्चात्ताप को धारण करती रहती हूँ ॥107-108॥ हे रूपिणी ! यद्यपि मैं जानती हूँ कि यह कार्य प्रशंसनीय नहीं है तथापि हे सुभाषिते ! मैं मरण सहन करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ ॥१०९॥ मेरे मन को हरण करनेवाला वह रावण इस समय निकट ही स्थित है इसलिए हे सखि! मुझ पर प्रसन्न हो और इसके साथ किसी तरह मेरा समागम करा ॥११०॥ यह मैं तेरे चरणों में नमस्कार करती हूँ इतना कहकर ज्यों ही वह शिर झुकाने के लिए उद्यत हुई त्यों ही सखी ने बड़ी शीघ्रता उसका शि‍र पकड़ लि‍या ॥१११॥ स्वामिनी! मैं आपका मनोरथ शीघ्र ही सिद्ध करती हूँ यह कहकर सब स्थिति को जानने वाली दूती घर से बाहर निकली ॥११२॥ सजल-मेघ के समान सूक्ष्म वस्त्र का घूँघट धारण करने वाली दूती आकाश में उड़कर क्षण-भर में रावण के डेरे में जा पहुँची ॥११३॥ द्वारपालिनी के द्वारा सूचना देकर वह अन्तःपुर में प्रविष्ट हुई । वहाँ प्रणाम कर, रावण के द्वारा दिये आसन पर विनय से बैठी ॥११४॥ तदनन्तर कहने लगी कि हे देव! आपके निर्दोष गुणों से जो समस्त संसार व्याप्त हो रहा है वह आपके समान प्रभावक पुरुष के अनुरूप ही है ॥115॥ चूँकि आपका उदार वैभव पृथिवी पर याचकों को सन्तुष्ट कर रहा है इस कारण मैं जानती हूँ कि आप सबका हित करने में तत्पर हैं ॥११६॥ मैं खूब समझती हूँ कि इस आकार को धारण करने वाले आप मेरी प्रार्थना को भंग नहीं करेंगे । यथार्थ में आप-जैसे लोगों की सम्पदा परोपकार का ही कारण है ॥११७॥ हे विभो! आप क्षण-भर के लिए समस्त परिजन को दूर कर दीजिए और ध्यान देकर मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ॥११८॥

तदनन्तर जब सर्व परिजन दूर कर दिये गये और बिलकुल एकान्त हो गया तब सब वृत्तान्त जानने वाली दूती ने रावण के कान में पहले का सब समाचार कहा ॥११६॥

तदनन्तर दूती की बात सुन रावण ने दोनों हाथों से दोनों कान ढंक लिये । वह चिरकाल तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा ॥१२०॥ सदाचार में तत्पर रहनेवाला रावण परस्त्री की वांछा सुन चिन्ता से क्षण-भर में खिन्नचित्त हो गया ॥१२१॥ उसने हँसते हुए कहा कि हे भद्रे ! पाप का संगम कराने वाली यह ऐसी बात तुम्हारे मन आयी ही कैसे? ॥१२२॥ तूने यह बात अभिमान छोड़कर कही है । ऐसी याचना के पूर्ण करने में मैं अत्यन्त दरिद्र हूँ, क्या करूँ? ॥१२३॥ चाहे विधवा हो, चाहे पति से सहित हो, चाहे कुलवती हो और चाहे रूप से युक्त वेश्या हो, परस्त्री मात्र का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिए ॥१२४॥ यह कार्य इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह विरुद्ध है । तथा जो मनुष्य दोनों लोकों से भ्रष्ट हो गया वह मनुष्य ही क्या सो तू ही कह ॥१२५॥ हे भद्रे ! दूसरे मनुष्य के मुख की लार से पूर्ण तथा अन्य मनुष्य के अंग से मर्दित जूठा भोजन खाने की कौन मनुष्य इच्छा करता है? ॥१२६॥

तदनन्तर रावण ने यह बात प्रीतिपूर्वक विभीषण से भी एकान्त में कही सो नीति को जानने वाले एवं निरन्तर मन्त्रिगणों में प्रमुखता धारण करने वाले विभीषण ने इस प्रकार उत्तर दिया ॥१२७॥ कि हे देव! चूँकि यह कार्य ही ऐसा है अत: सदा नीति के जानने वाले राजा को कभी झूठ भी बोलना पड़ता है ॥१२८॥ सम्भव है स्वीकार कर लेने से सन्तोष को प्राप्त हुई उपरम्भा उत्कट विश्वास करती हुई, किसी तरह नगर लेने का कोई उपाय बता दे ॥१२५॥ तदनन्तर विभीषण के कहने से कपट का अनुसरण करने वाले रावण ने दूती से कहा कि हे भद्रे! तूने जो कहा है वह ठीक है ॥१३०॥ चूँकि उस बेचारी के प्राण मुझ में अटक रहे हैं और वह अत्यन्त दुःख से युक्त है अत: मेरे द्वारा रक्षा करने के योग्य है । यथार्थ में उदार मनुष्य दयालु होते हैं ॥१३१॥ इसलिए जब तक प्राण उसे नहीं छोड़ देते हैं तब तक जाकर उसे ले आ । प्राणियों की रक्षा करने में धर्म है यह बात पृथिवी पर खूब सुनी जाती है ॥१३२॥ इतना कहकर रावण के द्वारा विदा की हुई दूती क्षणभर में जाकर उपरम्भा को ले आयी। आने पर रावण ने उसका बहुत आदर किया ॥१३३॥

तदनन्तर काम के वशीभूत हो जब उपरम्भा रावण के समीप पहुँची तब रावण ने कहा कि हे देवि ! मेरी उत्कट इच्छा दुर्गंध्य नगर में ही रमण करने की है ॥१३४॥ तुम्हीं कहो इस जंगल में क्या सुख है? और क्या काम वर्धक कारण है? हे देवि ! ऐसा करो कि जिससे मैं तुम्हारे साथ नगर में ही रमण करूँ ॥१३५॥ स्त्रियाँ स्वभाव से ही मुग्ध होती हैं इसलिए उपरम्भा रावण की कुटिलता को नहीं समझ सकी । निदान, उसने काम से पीड़ित हो उसे नगर में आने के लिए आशालि का नाम की वह विद्या जो कि प्राकार बनकर खड़ी हुई थी तथा व्यन्तर-देव जिनकी रक्षा किया करते थे ऐसे नाना शस्त्र बड़े आदर के साथ दे दिये ॥१३६-१३७॥ विद्या मिलते ही वह मायामय प्राकार दूर हो गया और उसके अभाव में वह नगर केवल स्वाभाविक प्राकार से ही आवृत रह गया ॥१३८॥ रावण बड़ी भारी सेना लेकर नगर के निकट पहुँचा सो उसका कलकल सुनकर नलकूबर क्षोभ को प्राप्त हुआ ॥१३९॥ तदनन्तर उस मायामय प्राकार को न देखकर लोकपाल नलकूबर बड़ा दुःखी हुआ । यद्यपि उसने समझ लिया था कि अब तो हमारा नगर रावण ने ले ही लिया तो भी उसने उद्यम नहीं छोड़ा । वह पुरुषार्थ को धारण करता हुआ बड़े श्रम से युद्ध करने के लिए बाहर निकला । अत्यन्त पराक्रमी सब सामन्त उसके साथ थे ॥१४०-१४१॥ तदनन्तर जो शस्त्रों से व्याप्त था, जिसमें सूर्य की किरणें नहीं दिख रही थीं और भयंकर कठोर शब्द हो रहा था ऐसे महायुद्ध के होने पर विभीषण ने वेग से उछलकर पैर के आघात से रथ का धुरा तोड़ दिया और नलकूबर को जीवित पकड़ लिया ॥१४२-१४३॥ रावण ने राजा सहस्ररश्मि के साथ जो काम किया था वही काम क्रोध से भरे विभीषण ने नलकूबर के साथ किया ॥१४४॥ उसी समय रावण ने देव और असुरों को भय उत्पन्न करने में समर्थ इन्द्र सम्बन्धी सुदर्शन नाम का चक्ररत्न प्राप्त किया ॥१४५॥

तदनन्तर रावण ने एकान्त में उपरम्भा से कहा कि हे प्रवरांगने ! विद्या देने से तुम मेरी गुरु हो ॥१४६॥ पति के जीवित रहते तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है और नीति मार्ग का उपदेश देने वाले मुझे तो बिलकुल ही योग्य नहीं हुए ॥१४७॥ तत्पश्चात् शस्त्रों से विदारित कवच के भीतर जिसका अक्षत शरीर दिख रहा था ऐसे नलकूबर को वह समझाकर स्त्री के पास ले गया ॥१४८॥ और कहा कि इस भर्ता के साथ मनचाहे भोग भोगो । काम-सेवन के विषय में मेरे और इसके साथ उपभोग में विशेषता ही क्या है ?॥१४९॥ इस कार्य के करने से मेरी कीर्ति मलिन हो जायेगी और मैंने यह कार्य किया है इसलिए दूसरे लोग भी यह कार्य करने लग जावेंगे ॥१५०॥ तुम राजा आकाशध्वज और मृदुकान्ता की पुत्री हो, निर्मल कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है अत: शील की रक्षा करना ही योग्य है ॥१५१॥ रावण के ऐसा कहने पर वह अत्यधिक लज्जित हुई और प्रतिबोध को प्राप्त हो अपने पति में ही सन्तुष्ट हो गयी ॥१५२॥ इधर नलकूबर को अपनी स्त्री के व्यभिचार का पता नहीं चला इसलिए रावण से सम्मान प्राप्त कर वह पूर्ववत् उसके साथ रमण करने लगा ॥१५३॥

तदनन्तर रावण युद्ध में शत्रु के संहार से परम यश को प्राप्त करता हुआ बढ़ती हुई लक्ष्मी के साथ विजयार्धगिरि की भूमि में पहुँचा ॥१५४॥ अथानन्तर इन्द्र ने रावण को निकट आया सुन सभामण्डप में स्थित समस्त देवों से कहा ॥१५५॥ कि हे वस्वश्वि आदि देव जनों! युद्ध की तैयारी करो, आप लोग निश्चिन्त क्यों बैठे हो? यह राक्षसों का स्वामी रावण यहाँ आ पहुँचा है ॥१५६॥ इतना कहकर इन्द्र पिता से सलाह करने के लिए उसके स्थान पर गया और नमस्कार कर विनय-पूर्वक पृथिवी पर बैठ गया ॥१५७॥ उसने कहा कि इस अवसर पर मुझे क्या करना चाहिए। जिसे मैंने अनेक बार पराजित किया पुन: स्थापित किया ऐसा यह शत्रु अब प्रबल होकर यहाँ आया है ॥१५८॥ हे तात! मैंने आत्म कार्य के विरुद्ध यह बड़ी अनीति की है कि जब यह शत्रु छोटा था तभी इसे नष्ट नहीं कर दिया ॥१५९॥ उठते हुए कण्टक का मुख एक साधारण व्यक्ति भी तोड़ सकता है पर जब वही कण्टक परिपक्व हो जाता है तब बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है॥१६०॥ जब रोग उत्पन्न होता है तब उसका सुख से विनाश किया जाता है पर जब वह रोग जड़ बाँधकर व्याप्त हो जाता है तब मरने के बाद ही उसका प्रतिकार हो सकता है ॥१६१॥ मैंने अनेक बार उसके नष्ट करने का उद्योग किया पर आपके द्वारा रोक दि‍या गया । आपने व्यर्थ ही मुझे क्षमा धारण करायी ॥१६२॥ हे तात ! नीति मार्ग का अनुसरण कर ही मैं यह कह रहा हूँ । बड़ी से पूछकर कार्य करना यह कुल की मर्यादा है और इसलिए ही मैंने आप से पूछा है । मैं उसके मारने में असमर्थ नहीं हूँ ॥163॥ अहंकार और क्रोध से मिश्रित पुत्र के वचन सुनकर सहस्रार ने कहा कि हे पुत्र! इस तरह उतावला मत हो ॥१६४॥ पहले उत्तम मन्त्रियों के साथ सलाह कर क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निष्फल हो जाता है ॥१६५॥ केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं है क्योंकि निरन्तर कार्य करने वाले-पुरुषार्थी किसान के वर्षा के बिना क्या सिद्ध हो सकता है? ॥१६६॥ एक ही समान पुरुषार्थ करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो जाते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पाते ॥१६७॥ ऐसी स्थिति आने पर भी तुम रावण के साथ सन्धि कर लो क्योंकि सन्धि के होने पर तुम समस्त संसार को निष्कण्टक बना सकते हो ॥168॥ साथ ही तू रूपवती नाम की अपनी सुन्दरी पुत्री रावण के लिए दे दे । ऐसा करने में कुछ भी दोष नहीं है । बल्कि ऐसा करने से तेरी यही दशा बनी रहेगी ॥१६९॥ पवित्र बुद्धि के धारक पिता ने इस प्रकार इन्द्र को समझाया अवश्य परन्तु क्रोध के समूह के कारण उसके नेत्र क्षण-भर में लाल-लाल हो गये ॥१७०॥ क्रोधाग्नि के सन्ताप से जिसके शरीर में पसीने की परम्परा उत्पन्न हो गयी थी ऐसा देदीप्यमान इन्द्र अपनी वाणी से मानो आकाश को फोड़ता हुआ बोला कि हे तात! जो वध करने योग्य है उसी के लिए कन्या दी जावे यह कहाँ तक उचित है? अथवा वृद्ध पुरुषों की बुद्धि क्षीण हो ही जाती है ॥१७१-१७२॥ हे तात! कहो तो सही मैं किस वस्तु में उससे हीन हूँ? जिससे आपने यह अत्यन्त दीन वचन कहे हैं ॥१७३॥ जो मस्तक पर सूर्य की किरणों का स्पर्श होने पर भी अत्यन्त खेदखिन्न हो जाता है वह उदार मानव मिलने पर अन्य पुरुष के लिए प्रणाम किस प्रकार करेगा? ॥174॥ मैं पुरुषार्थ की अपेक्षा रावण से हर एक बात में अधिक हूँ फिर आपकी बुद्धि में यह बात कैसे बैठ गयी कि भाग्य उसके अनुकूल है? ॥१७५॥ यदि आपका यह ख्याल है कि इसने अनेक शत्रुओं को जीता है तो अनेक हरिणों को मारने वाले सिंह को क्या एक भील नहीं मार देता? ॥१७६॥ शस्त्रों के प्रहार से जहाँ ज्वालाओं के समूह उत्पन्न हो रहे हैं ऐसे युद्ध में प्राणत्याग करना भी अच्छा है पर शत्रु के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं है ॥१७७॥ वह इन्द्र रावण राक्षस के सामने नम्र हो गया इस तरह लोक में जो मेरी हँसी होगी उस ओर भी आपने दृष्टि क्यों नहीं दी? ॥178॥ वह विद्याधर है और मैं भी विद्याधर हूँ इस प्रकार विद्याधरपना की समानता सन्धि का कारण नहीं हो सकती । जिस प्रकार सिंह और शृगाल में वनचारित्व की समानता होने पर भी एकता नहीं होती है उसी प्रकार विद्याधर पना की समानता होने पर भी हम दोनों में एकता नहीं हो सकती ॥१७९॥ इस प्रकार प्रातःकाल के समय इन्द्र पिता के समक्ष कह रहा था कि उसी समय समस्त संसार को व्याप्त करनेवाला शत्रुसेना का जोरदार शब्द उसके कानों में प्रविष्ट हुआ ॥180॥

तदनन्तर पिता की बात अनसुनी कर वह आयुधशाला में गया और वहाँ युद्ध की तैयारी का संकेत करने के लिए उसने जोर से तुरही बजवायी ॥१८१॥ हाथी शीघ्र लाओ, घोड़ा पर शीघ्र ही पलान बाँधो, तलवार यहाँ देओ, अच्छा-सा कवच लाओ, दौड़कर धनुष लाओ, सिर की रक्षा करनेवाला टोप इधर बढ़ाओ, हाथ पर बांधने की पट्टी शीघ्र देओ, छुरी भी जल्दी देओ, अरे चेट, घोड़े जोत और रथ को तैयार करो इत्यादि शब्द करते हुए देवनामधारी विद्याधर इधर-उधर चलने लगे ॥१८२-१८४॥ अथानन्तर-जब वीर सैनिक क्षुभित हो रहे थे, बाजे बज रहे थे, शंख जोरदार शब्द कर रहे थे, हाथी बार-बार चिंघाड़ रहे थे, बेंत के छूते ही घोड़े दीर्घ हुंकार छोड़ रहे थे, रथों के समूह चल रहे थे और प्रत्यंचाओं के समूह जोरदार गुंजन कर रहे थे, तब योद्धाओं के अट्टहास और चारणों के जयजयकार से समस्त संसार ऐसा हो गया था मानो शब्द से निर्मित हो ॥१८५-१८७॥ तलवारों, तोमरों, पाशों, ध्वजाओं, छत्रों और धनुषों से समस्त दिशाएँ आच्छादित हो गयीं और सूर्य का प्रभाव जाता रहा ॥188॥ शीघ्रता के प्रेमी देव तैयार हो-हो कर बाहर निकल पड़े और हाथियों के घण्टाओं के शब्द सुन-सुनकर गोपुर के समीप धक्कमधक्का करने लगे ॥१८९॥ रथ को उधर खड़ा करो, इधर यह मदोन्मत्त हाथी आ रहा है । अरे महावत! हाथी को यहाँ से शीघ्र ही हटा । अरे सवार ! यहीं क्यों रुक गया? शीघ्र ही घोड़ा आगे ले जा । अरी मुग्धे! मुझे छोड़ तू लौट जा, व्यर्थ ही मुझे व्याकुल मत कर इत्यादि वार्तालाप करते हुए शीघ्रता से भरे देव, अपने-अपने मकानों से बाहर निकल पड़े । उस समय वे अहंकार के कारण शुभ गर्जना कर रहे थे ॥१९०-१९२॥ कभी धीमी और कभी जोर से बजायी हुई तुरही से जिसका उत्साह बढ़ रहा था ऐसी सेना जब शत्रु के सम्मुख जाकर यथास्थान खड़ी हो गयी तब आकाश को आच्छादित करने वाले शस्त्र समूह को छोड़ते हुए देवों ने राक्षसों की सेना का मुख भंग कर दिया अर्थात् उसके अग्रभाग पर जोरदार प्रहार किया ॥१९३-१९४॥ सेना के अग्रभाग का विनाश देख प्रबल पराक्रम के धारक राक्षस कुपित हो अपनी सेना के आगे आ डटे ॥१९५॥ वज्रवेग, प्रहस्त, हस्त, मारीच, उद्धव, वज्रमुख, शुक, घोर, सारण, गगनोज्‍ज्‍वल, महाजठर, सन्ध्याभ्र और क्रूर आदि राक्षस आ-आकर सेना के सामने खड़े हो गये । ये सभी राक्षस कवच आदि से युक्त थे, उत्तमोत्तम सवारियों पर आरूढ़ थे और अच्छे-अच्छे शस्त्रों से युक्त थे ॥१६६-१९७॥ तदनन्तर इन उद्यमी राक्षसों ने देवों की सेना को क्षणमात्र में मारकर भयभीत कर दिया । उसके छोड़े हुए अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं के हाथ लगे ॥१९8॥ तब अपनी सेना के अग्रभाग को नष्ट होता देख बड़े-बड़े देव युद्ध करने के लिए उठे । उस समय उन सबके शरीर अत्यन्त तीव्र क्रोध से भर रहे थे ॥१९९॥ मेघमाली, तडित्पिंग, ज्वलिताक्ष, अरिसंज्वर और अग्निरथ आदि देव सामने आये ॥२००॥ जो शस्त्रों के समूह की वर्षा कर रहे थे और उत्पन्न हुए तीव्र क्रोध से अतिशय देदीप्यमान थे ऐसे देवों ने उठकर राक्षसों को रोका ॥२०१॥ तदनन्तर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद राक्षस भंग को प्राप्त हुए । एक-एक राक्षस को बहुत—से देवों ने घेर लिया ॥२०२॥ वेगशाली भँवरों में पड़े हुए के समान राक्षस इधर-उधर घूम रहे थे तथा उनके ढीले हाथों से शस्त्र छूट-छूटकर नीचे गिर रहे थे ॥२०३॥ कितने ही राक्षस युद्ध से पराङ्मुख हो गये पर जो अभिमानी राक्षस थे वे सामने आकर प्राण तो छोड़ रहे थे पर उन्होंने शस्त्र नहीं छोड़े ॥२०४॥ तदनन्तर देवों की विकट मार से राक्षसों की सेना को नष्ट होता देख वानरवंशी राजा महेन्द्र का महाबलवान् पुत्र, जो कि अत्यन्त चतुर था और प्रसन्न कीर्ति इस सार्थक नाम को धारण करता था,युद्ध के अग्रभाग में स्थित शत्रुओं की सेना को भयभीत करता हुआ सामने आया ॥२०५-२०६॥ अपनी सेना की रक्षा करते हुए उसने निरन्तर निकलने वाले बाणों से शत्रु को सेना को पराङ्मुख कर दिया ॥२०७॥ विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले देवों की जो सेना नाना प्रकार के शस्त्रों से देदीप्यमान थी वह प्रथम तो प्रसन्न कीर्ति से अत्यधिक महान् उत्साह को प्राप्त हुई ॥२०8॥ पर उसके बाद ही जब उसने उसकी ध्वजा और छत्र में वानर का चिह्न देखा तो उसका मन दूक-दूक हो गया ॥२०९॥ तदनन्तर जिस प्रकार काम के बाणों से कुगुरु का हृदय खण्डित हो जाता है उसी प्रकार जिनसे अग्नि की देदीप्यमान शिखा निकल रही थी ऐसे प्रसन्न कीर्ति के बाणों से देवों की सेना खण्डित हो गयी ॥२१०॥ तदनन्तर देवों की और दूसरी सेना सामने आयी । वह सेना कनक, तलवार, गदा, शक्ति, धनुष और मुद्गर आदि अस्त्र शस्त्रों से युक्त थी ॥२११॥ तत्पश्चात् माल्यवान् का पुत्र श्रीमाली जो अत्यन्त वीर और निशंक हृदय वाला था देवों की सेना के आगे खड़ा हो गया ॥२१२॥ जिसकी सूर्य के समान कान्ति थी तथा जो निरन्तर बाणों का समूह छोड़ रहा था ऐसे श्रीमाली ने देवों को क्षणमात्र में कहां भेज दिया इसका पता नहीं चला ॥२१३॥ तदनन्तर जो शत्रुपक्ष की ओर से सामने खड़ा था, जिसका वेग अनिवार्य था, जो शत्रुओं की सेना को इस तरह क्षोभ युक्त कर रहा था जिस प्रकार कि महा ग्राह किसी समुद्र को क्षोभ युक्त करता है, जो अपना मदोन्मत्त हाथी शत्रुओं की सेना पर हूल रहा था और जो तलवार हाथ में लिये उद्दण्ड योद्धाओं के बीच में घूम रहा था ऐसे श्रीमाली को देखकर देव लोग अपनी सेना की रक्षा करने के लिए उठे । उस समय उन सबके शरीर बहुत भारी क्रोध से व्यास थे तथा उनके हाथों में अनेक शस्त्र चमक रहे थे ॥२१४—२१६॥ शिखी, केशरी, दण्ड, उग्र, कनक, प्रवर आदि इन्द्र के योद्धाओं ने आकाश को दूर तक ऐसा आच्छादित कर लिया जैसा कि वर्षाऋतु के मेघ आच्छादित कर लेते हैं ॥२१७॥ इनके सिवाय मृग चिह्न आदि इन्द्र के भानेज भी जो कि रण से समुत्पन्न तेज के द्वारा अत्यधिक देदीप्यमान और महाबलवान् थे, आकाश को दूर-दूर तक आच्छादित कर रहे थे ॥२१८॥ तदनन्तर श्रीमाली ने अपने अर्द्धचन्द्राकार बाणों से काटे हुए उनके सिरों से पृथिवी को इस प्रकार ढँक दिया मानो शेवाल-सहित कमलों से ही ढँक दिया हो ॥२१९॥

अथानन्तर इन्द्र ने विचार किया कि जिसने इन श्रेष्ठ देवों के साथ-साथ इन नरश्रेष्ठ राजकुमारों का क्षय कर दिया है तथा अपने विशाल तेज से जिसकी ओर आँख उठाना भी कठिन है ऐसे इस राक्षस के आगे युद्ध में देवों के बीच ऐसा कौन है जो सामने खड़ा होने की भी इच्छा कर सके? इसलिए जब तक यह दूसरे देवों को नहीं मारता है उसके पहले ही मैं स्वयं इसके युद्ध की श्रद्धा का नाश कर देता हूँ ॥ २२०-२२२॥ ऐसा विचारकर देवों का स्वामी इन्द्र भय से काँपती हुई सेवा को सान्तवना देकर ज्योंही युद्ध के लिए उठा त्योंही उसका महाबलवान जयन्त नाम का पुत्र चरणों में गिरकर तथा पृथिवी पर घुटने टेककर कहने लगा कि हे देवेन्द्र! यदि मेरे रहते हुए आप युद्ध करते हैं तो आप से जो मेरा जन्म हुआ है वह निरर्थक है ॥२२३-२२५॥ जब मैं बाल्य अवस्था में आपकी गोद में क्रीड़ा करता था और आप पुत्र के स्नेह से बारबार मेरी ओर देखते थे आज मैं उस स्नेह का बदला चुकाना चाहता हूँ, उस ऋण से मुक्त होना चाहता हूँ ॥२२६॥ इसलिए हे तात! आप निराकुल होकर घर पर रहिए । मैं क्षण-भर में समस्त शत्रुओं का नाश कर डालता हूँ ॥२२७॥ हे तात! जो वस्तु थोड़े ही प्रयत्न से नख के द्वारा छेदी जा सकती है वहाँ परशु का चलाना व्यर्थ ही है ॥२२8॥ इस प्रकार पिता को मनाकर जयन्त युद्ध के लिए उद्यत हुआ । उस समय वह क्रोधावेश से ऐसा जान पड़ता था मानो शरीर के द्वारा आकाश को ही ग्रस रहा हो ॥२२9॥ पवन के समान वेगशाली एवं देदीप्यमान शस्त्रों को धारण करने वाली सेना जिसकी रक्षा कर रही थी ऐसा जयन्त बिना किसी खेद के सहज ही श्रीमाली के सम्मुख आया ॥२३०॥ श्रीमाली चिर काल बाद रण के योग्य शत्रु को आया देख बहुत सन्तुष्ट हुआ और सेना के बीच गमन करता हुआ उसकी ओर दौड़ा ॥२३१॥ तदनन्तर जिनके धनुर्मण्डल निरन्तर खिंचते हुए दिखाई देते थे ऐसे क्रोध से भरे दोनों कुमारों ने एक दूसरे पर बाणों की वर्षा छोड़ी ॥२३२॥ जिनका चित्त आश्चर्य से भर रहा था और जो अपनी-अपनी रेखाओं पर खड़ी थीं ऐसी दोनों ओर की सेनाएं निश्चल होकर उन दोनों कुमारों का युद्ध देख रही थी ॥२३३॥ तदनन्तर अपनी सेना को हर्षित करते हुए श्रीमाली ने कनक नामक हथियार से जयन्त का रथ तोड़कर रथरहित कर दिया ॥२३ड॥ जयन्त मूर्च्छा से नीचे गिर पड़ा सो उसे गिरा देख उसकी सेना का मन भी गिर गया और मूर्च्छा दूर होने पर जब वह उठा तो सेना का मन भी उठ गया ॥२३५॥ तदनन्तर जयन्त ने भिण्डिभाल नामक शस्त्र चलाकर श्रीमाली को रथरहित कर दिया और अत्यन्त बढ़े हुए क्रोध से ऐसा प्रहार किया कि वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ॥१३६॥ तब शत्रुसेना में बड़ा भारी हर्षनाद हुआ और इधर राक्षसों की सेना में रुदन शब्द सुनाई पड़ने लगा ॥२३७॥ जब मूर्च्छा दूर हुई तब श्रीमाली अत्यन्त कुपित हो शस्त्र समूह की वर्षा करता हुआ जयन्त के सम्मुख गया । उस समय वह अत्यन्त भयंकर दिखाई देता था ॥२३8॥ शस्त्र समूह को छोड़ते हुए दोनों कुमार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी चमकीली सटाओं का समूह उड़ रहा था ऐसे सिंह के दो बालक ही हों ॥२३९॥ तदनन्तर इन्द्र के पुत्र जयन्त ने माल्यवार के पुत्र श्रीमाली के वक्षःस्थल पर गदा का ऐसा प्रहार किया कि वह पृथिवी पर गिर पड़ा ॥५४०॥ मुख से खून को छोड़ता पृथिवी पर पड़ा श्रीमाली ऐसा जान पड़ता था मानो अस्त होता हुआ सूर्य ही हो ॥२४१॥ श्रीमाली को मारने के बाद जयन्‍त ने रथ पर सवार हो हर्ष से शंख फूँका जिससे राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे ॥२४२॥

तदनन्तर श्रीमाली को निष्प्राण और जिसके योद्धा हर्षनाद कर रहे थे ऐसे जयन्त को आगामी युद्ध के लिए तत्‍पर देख रावण का पुत्र इन्द्रजित् अपनी भागती हुई सेना को आश्वासन देता हुआ जयन्त के सम्मुख आया । उस समय वह क्रोध से बड़ा विकट जान पड़ता था ॥२४३-२४४॥ तदनन्तर इन्द्रजित् ने कलिकाल की तरह लोगों के अनादर करने में संलग्न जयन्त को अपने बाणों से कवच की तरह जर्जर कर दिया अर्थात् जिस प्रकार बाणों से उसका कवच जर्जर किया था उसी प्रकार उसका शरीर भी जर्जर कर दिया ॥२४५॥ जिसका कवच टूट गया था, जिसका शरीर खून से लाल-लाल हो रहा था और जो गड़े हुए बाणों से सेही की तुलना प्राप्त कर रहा था ऐसे जयन्त को देखकर इन्द्र स्वयं युद्ध करने के लिए उठा। उस समय इन्द्र अपने वाहनों और चमकते हुए तीक्षा शस्त्रों से नीरन्ध्र आकाश को आच्छादित कर रहा था ॥२४६-२४७॥ इन्द्र को युद्ध के लिए उद्यत देख सन्मति नामक सारथी ने रावण से कहा कि हे देव ! यह देवों का अधिपति इन्द्र स्वयं ही आया है ॥२४8॥ लोकपालों का समूह चारों ओर से इसकी रक्षा कर रहा है, यह मदोन्मत्त ऐरावत हाथी पर सवार है, मुकुट के रत्नों की प्रभा से आवृत है, ऊपर लगे हुए सफेद छत्र से सूर्य को ढँक रहा है, तथा क्षोभ को प्राप्त हुए महासागर के समान सेना से घिरा हुआ है ॥२४९-२५०॥ यह चूँकि महाबलवान् है इसलिए कुमार इन्द्रजित् युद्ध करने के लिए इसके योग्य नहीं है अत: आप स्वयं ही उठिए और शत्रु का अहंकार नष्ट कीजिए ॥251॥

तदनन्तर बलवान् इन्द्र को सामने आता देख रावण वायु के समान वेगशाली रथ से सामने दौड़ा ।उस समय रावण माली के मरण का स्मरण कर रहा था और अभी हाल में जो श्रीमाली का वध हुआ था उससे देदीप्यमान हो रहा था । उस समय इन दोनों योद्धाओं का रोमांचकारी भयंकर युद्ध हो रहा था । वह युद्ध शस्त्र समुदाय से उत्पन्न सघन अन्धकार से व्याप्त था । रावण ने देखा कि उसका पुत्र इन्द्रजित् सब ओर से शत्रुओं द्वारा घेर लिया गया है अत: वह कुपित हो आगे दौड़ा ॥२५२-२५४॥ तदनन्तर जहाँ शस्त्रों के द्वारा अन्धकार फैल रहा था और रुधिर का कुहरा छाया हुआ था ऐसे युद्ध में यदि शूरवीर योद्धा पहचाने जाते थे तो केवल अपनी जोरदार आवाज से ही पहचाने जाते थे ॥२५५॥ जिन योद्धाओं ने पहले अपेक्षा भाव से युद्ध करना बन्द कर दिया था उन पर भी जब चोटें पड़ने लगीं तब वे स्वामी की भक्ति से प्रेरित हो प्रहार जन्य क्रोध से अत्यधिक युद्ध करने लगे ॥२५६॥ गदा, शक्ति, कुन्त, मुसल, कृपाण, बाण, परिघ, कनक, चक्र, छुरी, अंह्निप, शूल, पाश, भुशुण्डी, कुठार, मुद्गर, घन, पत्थर, लांगल, दण्ड, कौण, बांस के बाण तथा एक दूसरे को काटने वाले अन्य अनेक शस्त्रों से उस समय आकाश भयंकर हो गया था और शस्त्रों के पारस्परिक आघात से उसमें अग्नि उत्पन्न हो रही थी ॥२५७-२५९॥ उस समय कहीं तो ग्रसद्-ग्रसद्, कहीं शूद्-शूद्, कहीं रण-रण, कहीं किण-किण, कहीं त्रप-त्रप, कहीं दम-दम, कहीं छम-छम, कहीं पट-पट, कहीं छल-छल, कहीं टद्द-टद्द, कहीं तड़-तड़, कहीं चट-चट और कहीं घग्घ—घग्घ की आवाज आ रही थी । यथार्थ बात यह थी कि शस्त्रों से उत्पन्न स्वरों से उस समय रणांगण शब्दमय हो रहा था ॥२६२६३॥ घोड़ा घोड़ा को मार रहा था, हाथी हाथी को मार रहा था, घुड़सवार घुड़सवार को, हाथी का सवार हाथी के सवार को और रथ रथ को नष्ट कर रहा था ॥२६४॥ जो जिसके सामने आया उसी को चीरने में तत्पर रहनेवाला पैदल सिपाहियों का झुण्ड पैदल सिपाहियों के साथ युद्ध करने के लिए उद्यत था ॥२६५॥ हाथियों की शूत्कार के साथ जो जल के छींटों का समूह निकल रहा था वह शस्त्रपात से उत्पन्न अग्नि को शान्त कर रहा था ॥२६६॥ प्रतिमा के समान भारी-भारी जो दाँत हाथियों के मुख से नीचे गिरते थे वे गिरते-गिरते ही अनेक योद्धाओं की पंक्ति का कचूमर निकाल देते थे ॥२६७॥ अरे शूर पुरुष! प्रहार छोड़, कायर क्यों हो रहा है? हे सैनिक शिरोमणे ! इस समय जरा मेरी तलवार का भी तो वार सहन कर ॥२६८॥ ले अब तू मरता ही है, मेरे पास आकर अब तो जा ही कहां सकता है? अरे दुशिक्षित! तलवार पकड़ना भी तो तुझे आता नहीं है, युद्ध करने के लिए चला है ॥२६९॥ जा यहाँ से भाग जा और अपने आपकी रक्षा कर । तेरी रण की खाज व्यर्थ है, तूने इतना थोड़ा घाव किया कि उससे मेरी खाज ही नहीं गयी ॥२७०॥ तुझ नपुंसक ने स्वामी का वेतन व्यर्थ ही खाया है, चुप रह, क्यों गरज रहा है? अवसर आने पर शूरवीरता अपने आप प्रकट हो जायेगी ॥२७१॥ काँप क्यों रहा है? जरा स्थिरता को प्राप्त हो, शीघ्र ही बाण हाथ में ले, मुट्ठी को मजबूत रख, देख यह तलवार खिसककर नीचे चली जायेगी ॥२७2॥ उस समय युद्ध में अपने-अपने स्वामियों के आगे परमोत्साह से युक्त योद्धाओं के बार-बार उल्लिखित वार्तालाप हो रहे थे ॥२७३॥ किसी की भुजा आलस्य से भरी थी-उठती ही नहीं थी पर जब शत्रु ने उसमें गदा की चोट जमायी तब वह क्षण-भर में नाच उठा और उसकी भुजा ठीक हो गयी॥२७४॥ जिससे बड़े वेग से अत्यधिक खून निकल रहा था ऐसा किसी का सिर शत्रु के लिए बार-बार धन्यवाद देता हुआ नीचे गिर पडृा॥२७५॥ बाणों से योद्धाओं का वक्षःस्थल तो खण्डित हो गया पर मन खण्डित नही हुआ । इसी प्रकार योद्धाओं का सिर तो गिर गया पर मान नहीं गिरा । उन्हें मृत्यु प्रिय थी पर जीवन प्रिय नहीं था ॥२७६॥ जो महा-तेजस्वी कुशल वीर थे उन्होंने संकट आने पर शस्त्र लिये यश की रक्षा करते-करते अपने प्राण छोड़ दिये थे ॥२७७॥कोई एक योद्धा मर तो रहा था पर शत्रु को मारने की इच्छा से क्रोध युक्त हो जब गिरने लगा तो-शत्रु के शरीर पर आक्रमण कर गिरा ॥२७8॥ शत्रु के शस्त्र की चोट से जब किसी योद्धा का शस्त्र छूटकर नीचे गिर गया तब उसने मुट्ठी रूपी मुद्गर की मार से ही शत्रु को प्राण रहित कर दिया ॥२७९॥ किसी महायोद्धा ने मित्र की तरह भुजाओं से शत्रु का गाढ आलिंगन कर उसे निर्जीव कर दिया-आलिंगन करते समय शत्रु के शरीर से खून की धारा बह निकली थी ॥२८०॥ किसी योद्धा ने योद्धाओं के समूह को मारकर युद्ध में अपना सीधा मार्ग बना लिया था । भय के कारण अन्य पुरुष उसके उस मार्ग में आड़े नहीं आये थे ॥२8१॥ गर्व से जिनका वक्षःस्थल तना हुआ था ऐसे उत्तम योद्धाओं ने गिरते-गिरते भी शत्रु के लिए अपनी पीठ नही दिखलायी थी ॥२8२॥ बड़े वेग से नीचे गिरने वाले घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियों ने हजारों घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियों को नीचे गिरा दिया था ॥283॥ शस्‍त्रों के निक्षेप से उठी हुई रुधिराक्त धूलि और हाथियों के मदजल से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो इन्द्र धनुषों से ही आच्छादित हो रहा हो ॥२८४॥ कोई एक भयंकर योद्धा अपनी निकलती हुई आँतों को बायें हाथ से पकड़कर तथा दाहिने हाथ से तलवार उठा बड़े वेग से शत्रु के सामने जा रहा था ॥२८५॥ जो ओठ चाब रहा था तथा जिसके नेत्रों की पूर्ण पुतलियां दिख रही थी ऐसा कोई योद्धा अपनी ही आंतों से कमर को मजबूत कसकर शत्रु की ओर जा रहा था ॥२८६॥ जिसके हथियार गिर गये थे ऐसे किसी योद्धा ने क्रोध निमग्न हो अपना खून दोनों हाथों में भरकर शमु के सिर पर डाल दिया था ॥२८७॥ जो निकलते हुए खून की धारा से लथपथ नखों से सुशोभित था ऐसा कोई योद्धा शत्रु के द्वारा काटी हुई अपनी हड्डी लेकर शत्रु के सामने जा रहा था ॥२88॥ जो युद्ध में उत्सुक तथा युद्ध काल में उत्पन्न होनेवाली अनेक चेष्टाओं से युक्त था ऐसे किसी योद्धा ने शत्रु को पाश में बाँधकर दूर ले जाकर छोड़ दिया ॥२8९॥

जो न्यायपूर्ण युद्ध करने में तत्पर था ऐसे किसी योद्धा ने जब देखा कि हमारे शत्रु के शस्त्र नीचे गिर गये हैं और वह निरस्त्र हो गया है तब वह स्वयं भी अपना शस्त्र छोड़कर अनिच्छा से शत्रु के सामने गया था ॥२६०॥ कोई योद्धा धनुष के अग्रभाग में लगे एवं खून की बड़ी मोटी धाराओं की वर्षा करने वाले शत्रु के द्वारा ही दूसरे शत्रुओं को मार रहा था ॥२९१॥ कोई एक योद्धा सिर कट जाने से यद्यपि बन्ध दशा को प्राप्त हुआ था तथापि उसने शत्रु को दिशा में वेग से उछलते हुए सिरके द्वारा ही रुधिर की वर्षा कर शत्रु को मार डाला था ॥292॥ जिसका चित्त गर्व से भर रहा था ऐसे किसी योद्धा का सिर यद्यपि कट गया था तो भी वह ओठों को डसता रहा रसे मुखर होता हुआ चिरकाल बाद नीचे गिरा था॥ 293॥ जो साँप के समान जान पड़ता था ऐसे किसी योद्धा ने गिरते समय उल्काके समान अत्यन्त भयंकर अपनी दृष्टि शत्रु के शरीर पर डाली थी ॥294॥ किसी पराक्रमी योद्धा ने शत्रु के द्वारा आधे काटे हुए अपने सिर को बायें हाथ से थाम लिया और दाहिने हाथ से शत्रु का सिर काटकर नीचे गिरा दिया ॥295॥ किसी योद्धाका शस्त्र शत्रु तक नहीं पहुंच रहा था इसलिए क्रोध में आकर उसने उसे फेंक दिया और अर्गलके समान लम्बी भुजा से ही शत्रु को मारनेके लिए उद्यत हो गया ॥296॥ किसी एक दयालु योद्धा ने देखा कि हमारा शत्रु सामने मूच्छित पड़ा है जब उसे सचेत करनेके लिए जल आदि अन्य साधन न मिले तब उसने सम्भ्रम से युक्त हो वस्त्र के छोर की वायु से शीतल किये गये अपने ही रुधिर से उसे बार-बार सींचना शुरू कर दिया॥ 297॥ क्रोध से कांपते हुए शूर-वीर मनुष्यों को जब मूर्छा आती थी तब वे समझते थे कि विश्राम प्राप्त हुआ है, जब शस्त्रों को चोट लगती थी तब समझते थे कि सुख प्राप्त हआ और जब मरण प्राप्त होता था तब समझते थे कि कृतकृत्यता प्राप्त हुई है॥ 298॥ _ इस प्रकार जब योद्धाओंके बीच महायुद्ध हो रहा था, ऐसा महायुद्ध कि जो भयको भी भय उत्पन्न करनेवाला था तथा उत्तम मनुष्योंको आनन्द उत्पन्न करने में तत्पर था॥ 299॥ जहाँ हाथी अपनी सूंड़ों में कसकर वीर पुरुषोंको अपनी ओर खींचते थे पर वे वीर पुरुष उनकी सूँड़ें स्वयं काट डालते थे। जहाँ लोग घोड़ों को काटनेके लिए उद्यत होते अवश्य थे पर वे वेगशाली घोड़े अपने खुरों के आघात से उन्हें वहीं गिरा देते थे ॥300 । जहाँ घोड़े सारथियों की प्रेरणा पाकर रथ खींचते थे पर उनसे उनका शरीर घायल हो जाता था। जहाँ मस्तक-रहित बड़े-बड़े हाथी पड़े हुए थे और लोग उनपर पैर रखते हुए चलते थे॥ 301॥ जहाँ पैदल सिपाहियों के शरीर एक दूसरेके वेगपूर्ण आघात से खण्डित हो रहे थे। जहाँ उत्तम योद्धा अपने हाथों से घोड़ों की पूंछ पकड़कर इतने जोर से खींचते थे कि वे निश्चल खड़े रह जाते थे ॥302॥ जहाँ हाथों की चोट से हाथियों के गण्डस्थल फट जाते थे तथा उनसे मोती निकलने लगते थे। जहाँ गिरते हुए हाथियों से रथ टूट जाते थे और उनकी चपेट में आकर अनेक योद्धा घायल होकर नीचे गिर जाते थे ॥303॥ जहाँ लोगों की नासिकाओं के समूह पड़ते हुए खून के समूह से आच्छादित हो रहे थे अथवा जहाँ आकाश और दिशाओं के समूह खून के समूह से आच्छादित थे और जहाँ हाथियों के कानों की फटकार से प्रचण्ड वायु उत्पन्न हो रही थी ॥304॥ इस प्रकार योद्धाओं के बीच भयंकर यद्ध हो रहा था पर यद्ध के कुतूहल से भरा वीर रावण उस युद्ध को ऐसा मान रहा था जैसा कि मानो कुछ हो ही न रहा हो। उसने अपने सुमति नामक सारथि से कहा कि उस इन्द्र के सामने ही रथ ले जाया जाये क्योंकि जो हमारी समानता नहीं रखते ऐसे उसके अन्य सामन्तों के मारने से क्या लाभ है ? ॥305-306॥ तृण के समान तुच्छ इनं सामन्तों पर न तो मेरा शस्त्र उठता है और न महाभटरूपी ग्रास के ग्रहण करने में तत्पर मेरा मन ही इनकी ओर प्रवृत्त होता है॥ 307॥ अपने आपकी विडम्बना करानेवाले इस विद्याधर ने क्षुद्र अभिमान के वशीभूत हो अपने आपको जो इन्द्र मान रखा है सो इसके उस इन्द्रपना को आज मृत्यु के द्वारा दूर करता हूँ ॥308॥ यह बड़ा इन्द्र बना है, ये लोकपाल इसी ने बनाये हैं। यह अन्य मनुष्यों को देव मानता है और विजया पर्वत को स्वर्ग समझता है॥ 309॥ बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस प्रकार कोई दुर्बुद्धि नट उत्तम पुरुष का वेष धर अपने आपको भुला देता है उसी प्रकार यह दुर्बुद्धि क्षुद्र लक्ष्मी से मत्त होकर अपने आपको भुला रहा है, तथा लोगों की हँसी का पात्र हो रहा है॥ 310॥ शुक्र, शोणित, मांस, हड्डी और मज्जा आदि से भरे हुए माता के उदर में चिरकाल तक निवास कर यह अपने आपको देव मानने लगा है ॥311॥ विद्या के बल से कुछ तो भी करता हुआ यह अधीर व्यक्ति अपने आपको देव समझ रहा है जो इसका यह कार्य ऐसा है कि जिस प्रकार कोआ अपने आपको गरुड़ समझने लगता है॥ 312॥ ऐसा कहते ही सुमति नामक सारथि ने महाबलवान् सामन्तों के द्वारा सुरक्षित रावण के रथको इन्द्र की सेना में प्रविष्ट कर. दिया ॥313॥ वहाँ जाकर रावण ने इन्द्र के उन सामन्तों को सरल दृष्टि से देखा कि जो युद्ध में असमर्थ होकर भाग रहे थे, तथा कीड़ों के समान जिनकी दयनीय चेष्टाएँ थीं ॥314॥ जिस प्रकार किनारे नीर के प्रवाह को नहीं रोक सकते हैं और जिस प्रकार मिथ्यादर्शन के साथ व्रताचरण करनेवाले मनुष्य क्रोधसहित मन के वेग को नहीं रोक पाते हैं उसी प्रकार शत्रु भी रावण को आगे बढ़ने से नहीं रोक सके थे ॥315॥ जिस प्रकार चन्द्रमा का उदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार क्षीरसमुद्र की आवर्त के समान धवल रावण का छत्र देखकर देवों की सेना न जाने कहाँ नष्ट हो गयी ॥316॥ कैलास पर्वत के समान ऊँचे हाथी पर सवार हुआ इन्द्र भी तरकस से बाण निकालता हुआ रावण के सम्मुख आया ॥317॥ जिस प्रकार मेघ बड़ी मोटी धाराओं के समूह को किसी पर्वत पर छोड़ता है उसी प्रकार इन्द्र भी कान तक खींचे हुए बाण रावण के ऊपर छोड़ने लगा ॥318॥ इधर रावण ने भी इन्द्र के उन बाणों को बीच में ही अपने बाणों से छेद डाला और अपने बाणों से समस्त आकाश में मण्डप-सा बना दिया ॥319॥ इस प्रकार बाणों के द्वारा बाण छेदे-भेदे जाने लगे और सूर्यको किरणें इस तरह निर्मूल नष्ट हो गयीं मानो भयसे कहीं जा छिपी हों ॥320॥ इसी समय युद्धके देखनेसे जिसे बहुत भारी हर्ष उत्पन्न हो रहा था ऐसा नारद जहाँ बाण नहीं पहुँच पाते थे वहाँ आनन्दविभोर हो नृत्य कर रहा था ॥321॥ अथानन्तर जब इन्द्रने देखा कि रावण सामान्य शस्त्रोंसे साध्य नहीं है तब उसने आग्नेय या ॥322॥ वह आग्नेय बाण इतना विशाल था कि स्वयं आकाश ही उसका ईंधन बन गया, धनुष आदि पौद्गलिक वस्तुओं के विषय में तो कहा ही क्या जा सकता है ? ॥323॥ जिस प्रकार बाँसों के वनके जलनेपर विशाल शब्द होता है उसी प्रकार ज्वालाओं के समूहसे भयंकर दिखनेवाली आग्नेय बाण की अग्निसे विशाल शब्द हो रहा था ॥324॥ तदनन्तर जब रावण ने अपनी सेना को आग्नेय बाणसे आकुल देखा तब उसने शीघ्र ही वरुण अस्त्र चलाया॥ 325॥ उस बाण के प्रभावसे तत्क्षण ही महामेघों का समूह उत्पन्न हो गया। वह मेघसमूह पर्वतके समान बड़ी मोटी धाराओं के समूहकी वर्षा कर रहा था, गर्जनासे सुशोभित था और ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के क्रोध से आकाश ही पिघल गया हो। ऐसे मेघसमूह ने इन्द्र के उस आग्नेय बाण को उसी क्षण सम्पूर्ण रूपसे बझा दिया॥ 326-327॥ तदनन्तर इन्द्र ने तामस बाण छोड़ा जिससे समस्त दिशाओं और आकाश में अन्धकार ही अन्धकार छा गया ॥328॥ उस बाण ने रावण को सेना को इस प्रकार व्याप्त कर लिया कि वह अपना शरीर भी देखने में असमर्थ हो गयी फिर शत्रु की सेना को देखने की तो बात ही क्या थी ? ॥329॥ तब अवसर के योग्य वस्तु को योजना करने में निपुण रावणने अपनी सेना को मोहग्रस्त देख प्रभास्त्र अर्थात् प्रकाशबाण छोड़ा ॥330॥ सो जिस प्रकार जिन-शासन के तत्त्व से मिथ्यादृष्टियों का मत नष्ट हो जाता है उसी प्रकार उस प्रभास्त्र से क्षण-भर में ही वह समस्त अन्धकार नष्ट हो गया ॥331॥ तदनन्तर रावणने क्रोधवश नागास्त्र छोड़ा जिससे समस्त आकाश रत्नों से देदीप्यमान साँसे व्याप्त हो गया ॥332॥ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले उन बाणोंने जाकर इन्द्र के शरीर को निश्चेष्ट कर दिया तथा सब उससे लिपट गये ॥333॥ जो महानीलमणि के समान श्याम थे, वलयका आकार धारण करनेवाले थे और चंचल जिह्वाओं से भयंकर दिखते थे ऐसे साँसे इन्द्र बड़ी आकुलता को प्राप्त हुआ ॥334॥ जिस प्रकार कर्मजाल से घिरा प्राणी संसाररूपी सागर में विवश हो जाता है उसी प्रकार व्याल अर्थात् साँसे घिरा इन्द्र विवशता को प्राप्त हो गया ॥335॥ तदनन्तर इन्द्रने गरुडास्त्रका ध्यान किया जिसके प्रभावसे उसी क्षण आकाश सुवर्णमय पंखोंकी कान्तिके समूहसे पीला हो गया ॥336॥ जिसका वेग अत्यन्त तीव्र था ऐसी गरुडके पंखोंकी वायुसे रावणकी समस्त सेना ऐसी चंचल हो गयो मानो हिंडोला ही झूल रही हो ॥337॥ गरुडकी वायुका स्पर्श होते ही पता नहीं चला कि नागबाण कहाँ चले गये। वे शरीरमें कहां-कहाँ बंधे थे उन स्थानोंका पता भी नहीं रहा ॥338॥ गरुड का आलिंगन होने से जिसके समस्त बन्धन दूर हो गये थे ऐसा इन्द्र ग्रीष्मऋतु के सूर्य के समान भयंकर हो गया ॥339॥ जब रावण ने देखा कि इन्द्र नागपाश से छूट गया है तब वह जिससे मद झर रहा था ऐसे त्रिलोकमण्डन नामक विजयी हाथी पर सवार हुआ ॥340॥ उधरसे इन्द्र भी क्रोधवश अपना ऐरावत हाथी रावण के निकट ले आया। तदनन्तर बहुत भारी गर्व को धारण करनेवाले दोनों हाथियों में महायुद्ध हुआ ॥341॥ जिनसे मद झर रहा था, जो चमकती हुई स्वर्ण की मालारूपी बिजली के सहित थे, तथा जो लगातार विशाल गर्जना कर रहे थे ऐसे दोनों हाथी मेध का आकार धारण कर रहे थे ॥342॥ परस्पर के दांतों के आघात से ऐसा लगता था मानो भयंकर वज्र गिर रहे हों और उनसे शब्दायमान हो समस्त संसार कम्पित हो रहा हो ॥343॥ जिनका शरीर अत्यन्त चंचल था तथा वेग भारी था ऐसे दोनों हाथी अपनी मोटी सूड़ों को फैलाते, सिकोड़ते और ताड़ित कर रहे थे ॥344॥ साफ-साफ दिखनेवाली पुतलियों से जिनके नेत्र अत्यन्त क्रूर जान पड़ते थे, जिनके कान खड़े थे और जो महाबल से युक्त थे ऐसे दोनों हाथियों ने बहुत भारी युद्ध किया ॥345॥ तदनन्तर शक्तिशाली रावण ने उछलकर अपना पैर इन्द्र के हाथों के मस्तकपर रखा और बड़ी शीघ्रता से पैर की ठोकर देकर सारथि को नीचे गिरा दिया। बार-बार आश्वासन देते हुए रावण ने इन्द्र को वस्त्र से कसकर बाँध अपने हाथी पर चढ़ा लिया ॥346-347॥ उधर इन्द्रजित् ने भी जयन्त को बाँधकर किंकरों के लिए सौंप दिया। तदनन्तर विजय से जिसका उत्साह बढ़ रहा था तथा जो शत्रुओं को सन्तप्त कर रहा था ऐसा इन्द्रजित् देवों की सेना के सम्मुख दौडा। उसे दौडता देख शत्रुओं को सन्ताप पहुँचानेवाले रावण ने कहा कि हे वत्स ! अब प्रयत्न करना व्यर्थ है, युद्ध के आदर से निवृत्त होओ, विजयार्धवासी लोगों की इस सेना का सिर अपने हाथ लग चुका है ॥348-350॥ इसके हाथ लग चुकने पर दूसरा कौन हलचल कर सकता है ? ये क्षुद्र सामन्त जीवित रहें और अपने इच्छित स्थान पर जावें ॥351॥ जब धान के समूह से चावल निकाल लिये जाते हैं तब छिलकों के समूह को अकारण ही छोड़ देते हैं ॥352॥ रावण के इस प्रकार कहने पर इन्द्रजित् युद्ध के उत्साह से निवृत्त हआ। उस समय राजाओं का बड़ा भारी समह इन्द्रजित को घेरे हए था ॥353॥ तदनन्तर जिस प्रकार शरदऋतु के बादलों का बड़ा लम्बा समूह क्षण-भरमें विशीर्ण हो जाता है उसी प्रकार इन्द्र की सेना क्षण-भर में विशीर्ण हो गयी-इधर-उधर बिखर गयी ॥354॥ रावण की सेना में उत्तमोत्तम पटल, शंख, झर्झर बाजे तथा बन्दीजनों के समूह के द्वारा बड़ा भारी जयनाद किया गया ॥355॥ उस जयनाद से इन्द्र को पकड़ा जानकर रावण की सेना निराकुल हो गयी ॥356॥ तदनन्तर परम विभूतिसे युक्त रावण, सेना से आकाश को आच्छादित करता हुआ लंका की ओर चला । उस समय वह बड़ा सन्तुष्ट था ॥357॥ जो सूर्यके रथके समान थे, ध्वजाओंसे सुशोभित थे और नाना रत्नोंकी किरणोंसे जिनपर इन्द्रधनुष उत्पन्न हो रहे थे ऐसे रथ उसके साथ थे ॥358॥ जो हिलते हुए सुन्दर चमरोंके समूहसे सुशोभित थे, निश्चिन्तता से किये हुए अनेक विलासों से मनोहर थे तथा नृत्य करते हुए से जान पड़ते थे ऐसे घोड़े उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥359॥ जिनके गलेमें विशाल शब्द करनेवाले घण्टा बँधे हुए थे, जिनसे मद के निर्झरने झर रहे थे, जो मधुर गर्जना कर रहे थे तथा भ्रमरों की पंक्ति जिनकी उपासना कर रही थी ऐसे हाथी उसके साथ थे ॥360॥ इनके सिवाय अपनी-अपनी सवारियों पर बैठे हुए बड़ी-बड़ी सेनाओं के अधिपति विद्याधर उसके साथ चल रहे थे। इन सबके साथ रावण क्षण-भरमें ही लंका के समीप जा पहुँचा ॥361॥ तब रावण को निकट आया जान नगर की रक्षा करनेवाले लोग पुरवासी और भाईबान्धव उत्सुक हो अर्घ ले-लेकर बाहर निकले ॥362॥ तदनन्तर कितने ही लोगों ने रावण की पूजा की तथा रावण ने भी कितने ही वृद्धजनों की पूजा की। कितने ही लोगों ने रावण को नमस्कार किया और रावण ने भी कितने ही वद्धजनों को मदरहित हो नमस्कार किया ॥363॥ लोगों की विशेषता को जाननेवाला तथा नम्र मनष्यों से स्नेह रखनेवाला रावण कितने ही मनुष्यों को स्नेहपूर्ण दष्टि से सम्मानित करता था। कितने ही लोगों को मन्द मुसकान से और कितने ही लोगों को मनोहर वचनों से समादृत कर रहा था ॥364॥

तदनन्तर जो स्वभाव से ही सुन्दर थी तथा उस समय विशेषकर सजायी गयी थी, जिसमें रत्ननिर्मित बड़े ऊंचे-ऊँचे तोरण खड़े किये गये थे ॥365॥ जो मन्द-मन्द वायु से हिलती हुई रंगबिरंगी ध्वजाओं से युक्त थी, केशर आदि मनोज्ञ वस्तुओं से मिश्रित जल से जहाँ की समस्त पृथिवी सोंची गयी थी ॥366॥ जो सब ऋतुओं के फूलों से व्याप्त राजमार्गों से सुशोभित थी, काले, पीले, नीले, लाल, हरे आदि पंचवर्णीय चूर्ण से निर्मित अनेक वेल-बूटों से जो अलंकृत थी ॥367॥ जिसके दरवाजों पर पूर्ण कलश रखे गये थे, जो महाकान्ति से युक्त थी, सरस पल्लवों की जिसमें वन्दनमालाएं बांधी गयी थीं, जो उत्तमोत्तम वस्त्रों से विभूषित थी तथा जहाँ बहुत भारी उत्सव हो रहा था ऐसी लंकानगरी में रावण ने प्रवेश किया ॥368॥ जिस प्रकार अनेक देवों से इन्द्र घिरा होता है उसी प्रकार रावण भी अनेक विद्याधरों से घिरा था। उस समय वह अपने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से उत्तम सुख को प्राप्त हो रहा था ॥369॥ अत्यन्त सुन्दर तथा इच्छानुकूल गमन करने वाले पुष्पक विमान पर सवार था। उसके मुकुट में बड़े-बड़े रत्न देदीप्यमान हो रहे थे तथा उसकी भुजाएँ बाजूबन्दों से सुशोभित थीं ॥370॥ जिसकी उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैल रही थी ऐसे हार को वह वक्षःस्थलपर धारण कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उत्पन्न हुए फूलों के समूहसे सुशोभित वसन्त ऋतु ही हो॥ 371॥ जो अतृप्तिकर हर्ष से पूर्ण थीं तथा धीरे-धीरे चमर ऊपर उठा रही थीं ऐसी स्त्रियां हाव-भावपूर्वक उसे देख रही थीं ॥372॥ वह नाना प्रकार के बाजोंके शब्द तथा मनोहर जय-जयकारसे आनन्दित हो रहा था और नृत्य करती हुई उत्तमोत्तम वेश्याओं से सहित था ॥373॥ इस प्रकार उसने बड़ी प्रसन्नता से, अनेक महोत्सवों से भरी लंकामें प्रवेश किया और बन्धुजन तथा भृत्यसमूहसे अभिनन्दित हो अपने भवन में भी पदार्पण किया ॥374॥

गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि जिसने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से, सब प्रकार की तैयारी से युक्त समस्त शत्रुओं को तृण के समान जीतकर उत्तम वैभव प्राप्त किया था ऐसा इन्द्र विद्याधर पुण्यकर्म के क्षीण होने पर कान्तिहीन तथा विभव से रहित हो गया सो इस अत्यन्त चंचल मनुष्य के सुख को धिक्कार है ॥375॥ तथा विद्याधर रावण अपने पूर्वोपाजित पुण्य कर्म के प्रभाव से समस्त बलवान् शत्रुओं को निर्मूल नष्ट कर वृद्धि को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार के समस्त कार्य कर्मजनित हैं ऐसा जानकर हे भव्यजनो! अन्य पदार्थों में आसक्ति छोड़कर सूर्य के समान कान्ति को उत्पन्न करनेवाले एक पुण्य कर्म का ही संचय करो ॥376॥

इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में इन्द्र विद्याधर के पराभव का वर्णन करनेवाला बारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥12॥