कथा :
अथानन्तर जो इन्द्र के समान शोभा का धारक था, जिसका मन भोगों में मूढ़ रहता था, जिसे इच्छानुसार कार्यों की प्राप्ति होती थी तथा जिसकी क्रियाएँ शत्रुओं को प्राप्त होना कठिन था ऐसा रावण एक समय मेरुपर्वतपर गया था। वहाँ जिनेन्द्रदेव की वन्दना कर वह अपनी इच्छानुसार वापस आ रहा था ॥1-2॥ मार्ग में वह भरतादि क्षेत्रों का विभाग करनेवाले एवं अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित हिमवत् आदि पर्वतों को तथा स्फटिक से भी अधिक निर्मल एवं अत्यन्त सुन्दर नदियों को देखता हुआ चला आ रहा था ॥3॥ सूर्यबिम्ब के आकार विमान को अलंकृत कर रहा था, उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त था तथा लंका की प्राप्ति में अत्यन्त उत्सुक था ॥4॥ अचानक ही उसने जोरदार कोमल शब्द सुना जिसे सुनकर वह अत्यन्त क्षुभित हो गया। उसने शीघ्र ही मारीच से पूछा भी ॥5॥ अरे मारीच ! मारीच !! यह महाशब्द कहाँ से आ रहा है ? और दिशाएं सुवर्ण के समान लाल-पीली क्यों हो रही हैं ॥6॥ तब मारीच ने कहा कि हे देव ! किसी महामुनि के महाकल्याणक में सम्मिलित होने के लिए यह देवों का आगमन हो रहा है ॥7॥ सन्तोष से भरे एवं नाना प्रकार से गमन करनेवाले देवों का यह संसारव्यापी प्रशस्त शब्द सुनाई दे रहा है ॥8॥ ये दिशाएँ उन्ही के मुकुट आदि की किरणों से व्याप्त होकर कुसुम्भ रंग की देदीप्यमान कान्ति को धारण कर रही हैं ॥9॥ इस सुवर्णगिरिपर अनन्तबल नामक मनिराज रहते थे जान पड़ता है उन्हें ही आज केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ॥10॥ तदनन्तर मारीच के वचन सुनकर सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त रावण परम हर्ष को प्राप्त हुआ ॥11॥ महाकान्ति को धारण करनेवाला रावण उन महामुनि की वन्दना करने के लिए दूरवर्ती आकाश प्रदेश से इस प्रकार नीचे उतरा मानो दूसरा इन्द्र ही उतर रहा हो ॥12॥ तत्पश्चात् इन्द्र आदि देवों ने हाथ जोड़कर मुनिराज को नमस्कार किया। स्तुति की और फिर सब यथास्थान बैठ गये ॥13॥ विद्याधरों से युक्त रावण भी बड़ी भक्ति से नमस्कार एवं स्तुति कर योग्य भूमि में बैठ गया ॥14॥ तदनन्तर विनीत शिष्य के समान रावण ने मुनिराज से इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! समस्त प्राणी धर्म-अधर्म का फल और मोक्ष का कारण जानना चाहते हैं सो आप यह सब कहने के योग्य हैं। रावण के इस प्रश्न की चारों प्रकार के देवों, मनुष्यों और तियंचों ने भारी प्रशंसा की ॥15-16॥ तदनन्तर मुनिराज निम्न प्रकार वचन कहने लगे। उनके वे वचन निपुणता से युक्त थे, शुद्ध थे, महाअर्थ से भरे थे, परिमित अक्षरों से सहित थे, अखण्डनीय थे और सर्वहितकारी तथा प्रिय थे॥१७॥ उन्हों ने कहा कि अनादिकाल से बँधे हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से जिसकी आत्मीय शक्ति छिप गयो है ऐसा यह प्राणी निरन्तर भ्रमण कर रहा है ॥18॥ अनेक लक्ष योनियों में नाना इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख का सदा अनुभव करता रहता है ॥19॥ कर्मों का जब जैसा तोत्र, मन्द या मध्यम उदय आता है वैसा रागी, द्वेषी अथवा मोही होता हुआ कुम्हार के चक्र के समान चतुर्गति में घूमता रहता है ॥20॥ यह जीव अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय को भी प्राप्त कर लेता है फिर भी ज्ञानावरण कर्म के कारण आत्महित को नहीं समझ पाता है ॥21॥ रसना और स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणी अत्यन्त निन्दित कार्य कर के पाप के भार से इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे अनेक साधनों से उत्पन्न महादुःख देनेवाले नरकों में उस प्रकार जा पड़ते हैं जिस प्रकार कि पानी में पत्थर पड़ जाते हैं-डूब जाते हैं ॥22-23॥ जिनके मन की सभी निन्दा करते हैं ऐसे कित ने ही मनुष्य धनादि से प्रेरित होकर माता, पिता, भाई, पुत्री, पत्नी, मित्रजन, गर्भस्थ बालक, वृद्ध, तरुण एवं स्त्रियों को मार डालते हैं तथा कित ने ही महादुष्ट मनुष्य मनुष्यों, पक्षियों और हरिणों की हत्या करते हैं ॥24-25॥ जिनका चित्त धर्म से च्युत है ऐसे कित ने ही दुर्बुद्धि मनुष्य स्थलचारी एवं जल चारी जीवों को मारकर भयंकर वेदनावाले नरक में पड़ते हैं ॥26॥ मधुमक्खियों का घात करनेवाले तथा वन में आग लगानेवाले दुष्ट चाण्डाल निरन्तर हिंसा में तत्पर रहनेवाले पापी कहार और नीच शिकारी, झूठ वचन बोल ने में आसक्त एवं पराया धन हरण करने में उद्यत प्राणी शरणरहित हो भयंकर नरक में पड़ते हैं ॥27-28॥ जो मनुष्य जिस-जिस प्रकार से मांस भक्षण करते हैं नरक में दूसरे प्राणी उसी-उसी प्रकार से उनका भक्षण करते हैं ॥29॥ जो मनुष्य बहत भारी परिग्रह से सहित हैं. बहत बडे आरम्भ करते हैं और तीव्र संकल्प-विकल्प करते हैं वे चिरकाल तक नरक में वास करते हैं ॥30॥ जो साधुओं से द्वेष रखते हैं, पापी हैं, मिथ्यादर्शन से सहित हैं एवं रौद्रध्यान से जिनका मरण होता है वे निश्चय ही नरक में जाते हैं ॥31॥ ऐसे जीव नरकों में कुल्हाड़ियों, तलवारों, चक्रों, करोंतों तथा अन्य अनेक प्रकार के शस्त्रों से चीरे जाते हैं। तीक्ष्ण चोंचोंवाले पक्षी उन्हें चूंथते हैं ॥32॥ सिंह, व्याघ्र, कुत्ते, सर्प, अष्टापद, बिच्छू, भेड़िया तथा विक्रिया से ब ने हुए विविध प्रकार के प्राणी उन्हें बहुत भारी दुःख पहुंचाते हैं ॥33॥ जो शब्द आदि विषयों में अत्यन्त आसक्ति करते हैं ऐसे मायावी जीव तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं ॥34॥ उस तिर्यंच गति में जीव एक दूसरे को मार डालते हैं। मनुष्य विविध प्रकार के शस्त्रों से उनका घात करते हैं तथा स्वयं भार ढोना एवं दोहा जाना आदि कार्यों से महादुःख पाते हैं ॥35॥ संसार के संकट में भ्रमण करता हुआ यह जीव स्थल में, जल में, पहाड़पर, वृक्षपर और अन्यान्य सघन स्थानों में सोया है ॥36॥ यह जीव अनादि काल से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता हुआ जन्म-मरण कर रहा है ॥37॥ ऐसा तिलमात्र भी स्थान बा की नहीं है जहाँ संसाररूपी भंवर में पड़े हुए इस जीव ने जन्म और मरण प्राप्त न किया हो ॥38॥ यदि कोई प्राणी मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही सन्तोष प्राप्त करते हैं तो वे मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं ॥39॥ मनुष्य गति में भी मोही जीव परम सुख के कारणभूत कल्याण मार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं ॥40॥ अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार कोई आय होते हैं और कोई म्लेच्छ होते हैं। कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यन्त दरिद्र होते हैं ॥41॥ कर्मों से घिरे कित ने ही प्राणी सैकड़ों मनोरथ करते हुए दूसरे के घरों में बड़ी कठिनाई से समय बिताते हैं ॥42॥ कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होते हैं, कोई रूपवान् होकर भी निर्धन रहते हैं, कोई दीर्घायु होते हैं और कोई अल्पायु होते हैं ॥43॥ कोई सब को प्रिय तथा यश के धारक होते हैं, कोई अत्यन्त अप्रिय होते हैं, कोई आज्ञा देते हैं और कोई उस आज्ञा का पालन करते हैं ॥44॥ कोई रण में प्रवेश करते हैं, कोई पानी में गोता लगाते हैं, कोई विदेश में जाते हैं और कोई खेती आदि करते हैं ॥45॥ इस प्रकार मनुष्य गति में भी सुख और दुःख की विचित्रता देखी जाती है । वास्तव में तो सब दुःख ही है सुख तो कल्पना मात्र है ॥46॥ कोई जीव सरागसंयम तथा संयमासंयम के धारक होते हैं, कोई अकाम निर्जरा करते हैं और कोई बालतप करते हैं ऐसे जीव भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चार भेदों से युक्त देव गति में उत्पन्न होते हैं सो वहाँ भी कित ने ही महद्धियों के धारक होते हैं और कित ने ही अल्प ऋद्धियों के धारक ॥47-48॥ स्थिति, कान्ति, प्रभाव, बुद्धि, सुख, लेश्या, अभिमान और मान के अनुसार वे पुनः कर्मों का बन्ध कर चतुर्गति रूप संसार में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं / जिस प्रकार अरघट की घड़ी निरन्तर घूमती रहती है इसी प्रकार ये प्राणी भी निरन्तर घूमते रहते हैं ॥42-50॥ यह जीव अशुभ संकल्प से दुःख पाता है, शुभ संकल्प से सुख पाता है और अष्टकों के क्षय से मोक्ष प्राप्त करता है ॥51॥ पात्र की विशेषता से अनेक रूपता को प्राप्त हुए जीव दान के प्रभाव से भोग-भूमियों में भोगों को प्राप्त होते हैं ॥52॥ जो प्राणिहिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और राग-द्वेष से शून्य हैं उन्हें जिनेन्द्र भगवान् ने उत्तम पात्र कहा है ॥53॥ जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध है ऐसा पात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि उससे मिथ्यादृष्टि दाता के शरीर की शुद्धि होती है ॥54॥ जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है (पातीति पात्रम् ) इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थ है। चूंकि मुनि, सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते अतः पात्र हैं ॥55॥ जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सहित होता है वह उत्तम कहलाता है ॥56॥ जो मान, अपमान, सुख-दुःख और तृण-कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साधु पात्र कहलाता है ॥57॥ जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महातपश्चरण में लीन हैं और तत्त्वों के ध्यान में सदा तत्पर रहते हैं ऐसे श्रमण अर्थात् मनि उत्तम पात्र कहलाते ॥58॥ उन मुनियों के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भावपूर्वक जो भी अन्न, पान, औषधि अथवा उपयोग में आनेवाले पीछी, कमण्डलु आदि अन्य पदार्थ दिये जाते हैं वे महाफल प्रदान करते हैं ॥59॥ जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया हुआ बीज अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुआ दान अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है ॥60॥ जो रागद्वेष आदि दोषों से युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल ही देता है अतः उसके फल का विचार करना दूर की बात है ॥61॥ जिस प्रकार ऊषर जमीन में बीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादर्शन से सहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उससे कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता ॥62॥ एक कुएँ से निकाले हुए पानी को यदि ईख के पौधे पीते हैं तो वह माधुर्य को प्राप्त होता है और यदि नीम के पौधे पीते हैं तो कड़आ हो जाता है ॥63॥ अथवा जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने पानी पिया और सांप ने भी। गाय के द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और साँप के द्वारा पिया पानी विष हो जाता है, उसी प्रकार एक ही गृहस्थ से उत्तम पात्र ने दान लिया और नीच पात्र ने भी। जो दान उत्तम पात्र को प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्र को प्राप्त होता है उसका फल नीचा होता है ॥64॥ कोई-कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त होते हैं ऐसे पात्रों के लिए भाव से जो दान दिया जाता है उसका फल शुभ-अशुभ अर्थात् मिश्रित प्रकार का होता है ॥65॥ दीन तथा अन्धे आदि मनुष्यों के लिए करुणा दान कहा गया है और उससे यद्यपि फल की भी प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता ॥66॥ सभी वेषधारी प्रयत्नपूर्वक अपने अनुकूल धर्म का उपदेश देते हैं पर उत्तम हृदय के धारक मनुष्यों को विशेषकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ॥67॥ काम-क्रोधादि से युक्त तथा अपनी समानता रखनेवाले गृहस्थों के लिए जो द्रव्य दिया जाता है उसका क्या फल भोग ने को मिलता है ? सो कहा नहीं जा सकता ॥68॥ अहो ! यह कितना प्रबल मोह है कि मिथ्यामतों से ठगाये गये लोग सभी अवस्थाओंवाले लोगों को अपना धन दे देते हैं ॥69॥ उन दुष्टजनों को धिक्कार है जिन्हों ने कि इस भोले प्राणी को ठग रखा है तथा लोभ दिखाकर मिथ्या शास्त्रों की चर्चा से उसके मन को विचलित कर दिया है ॥70॥ मीठा तथा बलकारी होने से पापी मनुष्यों ने मांस को भक्ष्य बताया है और अपना कपट बता ने के लिए जिनका मास खाना चाहिए उन की संख्या भी निधारित की है ॥71॥ सो ऐसे दृष्ट लोभी जीव दूसरों को मांस दिलाकर तथा स्वयं खाकर दाताओं के साथ-साथ भयंकर वेदना से यक्त नरक नरक में जाते हैं ॥72॥ लोभ के वशीभूत, दुष्ट अभिप्राय से युक्त तथा झूठ-मूठं ही अपने-आप को ऋषि माननेवाले कित ने ही लोगों ने हाथी, घोड़ा, गाय आदि जीवों का दान भी बतलाया है पर तत्त्व के जानकार मनुष्यों ने उसकी अत्यन्त निन्दा की है ॥73॥ उसका कारण भी यह है कि जीवदान में जो जीव दिया जाता है उसे बोझा ढोना पड़ता है, नुकीली अरी आदि से उसके शरीर को आँ का जाता है तथा लाठी आदि से उसे पीटा जाता है इन कारणों से उसे महादुःख होता है और उसके निमित्त से बहुत- से अन्य जीवों को भी बहुत दुःख उठाना पड़ता है ॥74॥ इसी प्रकार भूमिदान भी निन्दनीय है क्योंकि उससे भूमि में रहनेवाले जीवों को पीड़ा होती है। और प्राणिपीड़ा के निमित्त जुटाकर पुण्य की इच्छा करना मानो पत्थर से पानी निकालना है ॥75॥ इसलिए समस्त प्राणियों को सदा अभयदान देना चाहिए साथ ही ज्ञान. प्रासुक औषधि, अन्न और वस्त्रादि भी देना चाहिए ॥76॥ जो दान निन्दित बताया है वह भी पात्र के भेद से प्रशंसनीय हो जाता है. जिस प्रकार कि शुक्ति (सीप ) के द्वारा पिया हुआ पानी निश्चय से मोती हो जाता है ॥77॥ पशु तथा भूमि का दान यद्यपि निन्दित दान है फिर भी यदि वह जिन-प्रतिमा आदि को उद्देश्य कर दिया जाता है तो वह दीर्घ काल तक स्थिर रहनेवाले उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है ॥78॥ भीतर का संकल्प ही पुण्यपाप का कारण है उसके बिना बाह्य में दान देना पर्वत के शिखरपर वर्षा करने के समान है ॥79॥ इसलिए वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव का ध्यान कर जो दान दिया जाता है उसका फल कहने के लिए कोन समर्थ है ?॥80॥ जिनेन्द्र के सिवाय जो अन्य देव हैं वे द्वेषी, रागी तथा मोही हैं क्योंकि वे शस्त्र लिये रहते हैं इस से द्वेषी सिद्ध होते हैं और स्त्री साथ में रखते हैं तथा आभूषण धारण करते हैं इस से रागी सिद्ध होते हैं। राग-द्वेष के द्वारा उनके मोह का भी अनुमान हो जाता है क्योंकि मोह राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार राग-द्वेष और मोह ये तीन दोष उन में सिद्ध हो गये बा की अन्य दोष इन्हीं के रूपान्तर हैं ॥81-82॥ लोक में जो कुछ मनुष्य देव के रूप में प्रसिद्ध हैं वे साधारण जन के समान ही भोजन के पात्र हैं अर्थात् भोजन करते हैं, कषाय से युक्त हैं और अवसरपर आंशिक कामादि का सेवन करते हैं सो ऐसे देव दान के पात्र कैसे की हो सकते हैं ? वे कितनी ही बातों में जब कि अपने भक्त जनों से गये-गुजरे अथवा उनके समान ही हैं तब उन्हें उत्तम फल कैसे की दे सकते हैं ? ॥83-84॥ यद्यपि वर्तमान में उनके शुभ कर्मों का उदय देखा जाता है तो भी उन से अन्य दुःखी मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति कैसे की हो सकती है ? ॥85॥ ऐसे कुदेवों से मोक्ष की इच्छा करना बालू की मुट्ठी पेरकर तेल प्राप्त करने की इच्छा के समान है अथवा अग्नि की सेवा से प्यास नष्ट करने की इच्छा के तुल्य है ॥86॥ यदि एक लँगड़ा मनुष्य दूसरे लँगड़े मनुष्य को देशान्तर में ले जा सकता हो तो इन देवों से दूसरे दुःखी जीवों को भी फल की प्राप्ति हो सकती है ॥87॥ जब इन देवों की यह बात है तब पाप कार्य करनेवाले उनके भक्तों की बात तो दूर ही रही। उन में सत्पात्रता किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकती ॥88॥ लोभ से प्रेरित हुए पापी जन यज्ञ में प्रवृत्त होते हैं और लोग ऐसा करने वालों को दक्षिणा आदि के रूप में धन देते हैं सो यह निर्दोष कैसे की हो सकता है ? ॥89॥ इसलिए जिनेन्द्र देव को उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है वही सर्वदोष रहित है और वही महाफल प्रदान करता है ॥90॥ धर्म तो व्यापार के समान है, जिस प्रकार व्यापार में सदा हीनाधिकता का विचार किया जाता है उसी प्रकार धर्म में भी सदा हीनाधिकता का विचार रखना चाहिए अर्थात् हानि-लाभपर दृष्टि रखना चाहिए। जिस धर्म में पुण्य की अधिकता हो और पाप की न्यूनता हो गृहस्थ उसे स्वीकृत कर सकता है क्योंकि अधिक वस्तु के द्वारा हीन वस्तु का पराभव हो जाता है ॥91॥ जिस प्रकार विष का एक कण तालाब में पहुंचकर पूरे तालाब को दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकूल आचरण करनेवाले पुरुष से जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी वह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती है ॥92॥ इसलिए भक्ति में तत्पर रहनेवाले कुशल मनुष्यों को जिन-मन्दिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सब की व्यवस्था करनी चाहिए ॥93॥ जिनेन्द्र भगवान् को उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है उसके फलस्वरूप जीव स्वर्ग तथा मनुष्यलोक सम्बन्धी उत्तमोत्तम भोग प्राप्त करते हैं ॥14॥ सन्मार्ग में प्रयाण करनेवाले मुनि आदि के लिए जो यथायोग्य दान दिया जाता है वह उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है। इस प्रकार यही दान गुणों का पात्र है ॥15॥ इसलिए सामर्थ्य के अनुसार भक्तिपूर्वक सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिए जो दान देता है उसी का दान एक दान है बा की तो चोरों को धन लुटाना है ॥96॥ केवलज्ञान ज्ञान के साम्राज्य. पदपर स्थित है। ध्यान के प्रभाव से जब केवलज्ञान की प्राप्ति हो चुकती है तभी यह जीव निर्वाण को प्राप्त होता है ॥97॥ जिनके समस्त कर्म नष्ट हो चुकते हैं, जो सर्व प्रकार की बाधाओं से परे हो जाते हैं, जो अनन्त सुख से सम्पन्न रहते हैं, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन जिन की आत्मा में प्रकाशमान रहते हैं जिनके तीनों प्रकार के शरीर नष्ट हो जाते हैं, निश्चय से जो अपने स्वभाव में ही स्थित रहते हैं और व्यवहार से लोक-शिखरपर विराजमान हैं, जो पुनरागमन से रहित हैं और जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता वे सिद्ध भगवान् हैं ॥98-99॥ लोभरूपी पवन से बढ़े दुःख रूपी अग्नि के बीच में पड़े पापी जीव पुण्य रूपी जल के बिना निरन्तर क्लेश भोगते रहते हैं ॥10॥ पापरूपी अन्धकार के बीच में रहनेवाले तथा मिथ्यादर्शन के वशीभूत कित ने ही जीव धर्मरूपी सूर्य की किरणों से प्रबोध को प्राप्त होते हैं ॥101॥ जो अशुभभावरूपी लोहे के मजबूत पिंजरे के मध्य में रह रहे हैं तथा आशारूपी पाश के अधीन हैं ऐसे जीव धर्मरूपी बन्धु के द्वारा ही मुक्त किये जाते हैंबन्धन से छुड़ाये जाते हैं ॥102॥ जो लोकबिन्दुसार नामक पूर्व का एक देश है ऐसे व्याकरण से सिद्ध है कि जो धारण करे सो धर्म है। 'धरतीति धर्मः' इस प्रकार उसका निरुक्त्यर्थ है ॥103॥ और यह ठीक भी है क्योंकि अच्छी तरह से आचरण किया हुआ धर्म दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण कर लेता है-बचा लेता है इसलिए वह धर्म कहलाता है ॥104॥ लभ धातु का अर्थ प्राप्ति है और प्राप्ति सम्पर्क को कहते हैं, अतः धर्म को प्राप्ति को धर्मलाभ कहते हैं ॥105॥ अब हम जिनभगवान् के द्वारा कहे हुए धर्म का संक्षेप से निरूपण करते हैं। साथ ही उसके कुछ भेदों और उनके फलों का भी निर्देश करेंगे सो तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥106॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होना सो व्रत कहलाता है। ऐसा व्रत अवश्य ॥107॥ ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं / साधु को इन का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए ॥108॥ वचन, मन और काय की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो जाना अथवा उस में कोमलता आ जाना गुप्ति है। इसका आचरण बड़े आदर से करना चाहिए ॥109॥ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय महाशत्रु हैं, इन्हीं के द्वारा जीव संसार में परिभ्रमण करता है ॥110॥ आगम के अनुसार कार्य करनेवाले मनुष्य को क्षमा से क्रोधका, मृदुता से मानका, सरलता से माया का और सन्तोष से लोभ का निग्रह करना चाहिए ॥111॥ अभी ऊपर जिन व्रत समिति आदि का वर्णन किया है वह सब धर्म कहलाता है। इसके सिवाय त्याग भी विशेषधर्म कहा गया है ॥112॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ प्रसिद्ध हैं। इन का जीतना धर्म कहलाता है ॥113॥ उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्यतप हैं। बाह्यतप अन्तरंग तप की रक्षा के लिए वृति अर्थात् बाड़ी के समान हैं ॥114-115॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तप हैं। यह समस्त तप धर्म कहलाता है ॥116-117॥ भव्य जीव इस धर्म के द्वारा कर्मों का वियोजन अर्थात् विनाश तथा अनन्त व्यवसायों को परिवर्तित करनेवाले अनेक आश्चर्यजनक कार्य करते हैं ॥118॥ यह जीव धर्म के प्रभाव से ऐसा विक्रियात्मक शरीर प्राप्त करता है कि जिस के द्वारा समस्त मनुष्य और देवों को बाधा दे ने तथा लोकाकाश को व्याप्त करने में समर्थ होता है ॥119॥ धर्म के प्रभाव से यह जीव इतना महाबलवान् हो जाता है कि तीनों लोकों को एक ग्रास बना सकता है। अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य तथा अनेक दुर्लभ योग भी यह धर्म के प्रभाव से प्राप्त करता है ॥120॥ यह जीव धर्म के प्रभाव से सूर्य के सन्ताप को और चन्द्रमा की शीतलता को नष्ट कर सकता है तथा वृष्टि के द्वारा समस्त संसार को क्षणभर में भर सकता है ॥121॥ यह धर्म के प्रभाव से आशीविष साँप के समान दृष्टिमात्र से लोक को भस्म कर सकता है, मेरु पर्वत को उठा सकता है और समुद्र को बिखेर सकता है ॥122॥ धर्म के ही प्रभाव से ज्योतिश्चक्र को उठा सकता है, इन्द्र, रुद्र आदि देवों को भयभीत कर सकता है, रत्न और सुवर्ण की वर्षा कर सकता है तथा पर्वतों के समूह की सृष्टि कर सकता है ॥123॥ धर्म के ही प्रभाव से अत्यन्त भयंकर बीमारियों की शान्ति अपने पैर की धूलि से कर सकता है तथा मनुष्यों को अन्य अनेक आश्चर्यकारक वैभव की प्राप्ति करा सकता है ॥124॥ जीव धर्म के प्रभाव से और भी कित ने ही कठिन कार्य कर सकता है। यथार्थ में धर्म के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ॥125॥ जो जीव धर्मपूर्वक मरण करते हैं वे ज्योतिश्चक्र को उल्लंघन कर गुणों के निवासभूत सौधर्मादि स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं ॥126॥ धर्म का उपार्जन कर कित ने ही सामानिक देव होते हैं, कित ने ही इन्द्र होते हैं और कित ने ही अहमिन्द्र बनते हैं ॥127॥ धर्म के प्रभाव से जीव उन महलों में उत्पन्न होते हैं जो कि स्वर्ण, स्फटिक और वैडूर्य मणिमय खम्भों के समूह से निर्मित होते हैं जिन की स्वर्णादिनिर्मित दीवालें सदा देदीप्यमान रहती हैं, जो अत्यन्त ऊँचे और अनेक भूमियों (खण्डों) से युक्त होते है ॥१२८॥ जिनके फर्श पद्मराग, दधिराग तथा मधुराग आदि विचित्र-विचित्र मणियोस ब ने होते हैं, जिन में मोतियों की मालाएं लटकती रहती हैं, जो झरोखों से सुशोभित होते हैं ॥129॥ जिनके किनारोंपर हरिण, चमरी गाय, सिंह, हाथी तथा अन्यान्य जीवों के सुन्दर-सुन्दर चित्र चित्रित रहते हैं ऐसी वेदिकाओं से जो अलंकृत होते हैं ॥130॥ जो चन्द्रशाला आदि से सहित होते हैं, ध्वजाओं और मालाओं से अलंकृत रहते हैं तथा जिन की कक्षाओं में मनोहारी शय्याएँ और आसन बिछे रहते हैं ॥131॥ धर्म धारण करनेवाले लोग ऐसे विमान आदि स्थानों में उत्पन्न होते हैं जो वादित्र आदि संगीत के साधनों से युक्त रहते हैं, इच्छानुसार जिन में गमन होता है, जो उत्तम परिकर से सहित होते हैं, कमल आदि प्रसाधन सामग्री से युक्त रहते हैं और अपनी प्रभा से सूर्य की दीप्ति और चन्द्रमा की कान्ति को तिरस्कृत करते रहते हैं ॥132-133॥ धर्म के प्रभाव से प्राणियों को देव-भवनों में ऐसा वैक्रियिक शरीर प्राप्त होता है जो कि सुखमय निद्रा के दूर होनेपर जागृत हुए के समान जान पडता है. जिसकी इन्द्रियाँ अत्यन्त निर्मल होती हैं। जो तत्काल उदित समान देदीप्यमान होता है, जो कान्ति से चन्द्रमा की तुलना प्राप्त करता है, रज, पसीना तथा बीमारी से रहित होता है. अत्यन्त सगन्धित. निर्मल और कोमल होता है. उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त, नयनाभिराम और उपपाद जन्म से उत्पन्न होता है। इसके सिवाय अपनी कान्ति के समूह से दिगन्तराल को आच्छादित करनेवाले आभूषण भी प्राप्त होते हैं ॥134-136॥ धर्म के प्रभाव से स्वर्ग में ऐसी अप्सराएँ प्राप्त होती हैं जिनके कि चरणों का स्पर्शन कमलदल के समान कोमल होता है, जिनके नख अत्यन्त कान्तिमान होते हैं, जिनके लाल-लाल वस्रों के अंचल नूपुरों में उलझते रहते हैं ॥137॥ जिन की जंघाएँ केले के स्तम्भ के समान स्निग्ध स्पर्श से युक्त होती हैं, जिनके घुट ने मांस-पेशियों में अन्तनिहित रहते हैं, जिनके स्थूल नितम्ब मेखलाओं से सुशोभित होते हैं, जिन की चाल हाथो की चाल के समान मस्ती से भरी रहती है ॥138॥ जो सूक्ष्म त्रिवलि से युक्त मध्यभाग से सुशोभित होती हैं, जिनके स्तनों के मण्डल नवीन उदित चन्द्रमा के समान होते हैं ॥139॥ जिन को रत्नावली की कान्ति से सदा चाँदनी छिटकती रहती है, जो मालती के समान कोमल और पतली भुजारूपी लताओं को धारण करती हैं ॥140॥ जिनके हाथ महामूल्य मणियों की खनकती हुई चूड़ियों से सदा युक्त रहते हैं, अशोक पल्लव के समान कोमलता धारण करनेवाली जिन की अंगुलियों से मानो कान्ति चूती रहती है ॥141॥ जिनके कण्ठ शंख के समान होते हैं, जिनके ओठ दाँतों की कान्ति से आच्छादित रहते हैं, जिनके कपोलरूपी निर्मल दर्पणों का समस्त भाग लावण्य से संलिप्त रहता है ॥142॥ जिनके नयनान्त को सघन कान्ति सदा कर्णाभरण की शोभा बढ़ाया करती है, मोतियों से व्याप्त पद्मराग मणि जिन की माँग को अलंकृत करते रहते हैं ॥143॥ जिनके केशों के समूह भ्रमर के समान काले, सूक्ष्म और अत्यन्त कोमल हैं, जिनके शरीर का स्पर्श मृणाल के समान कोमल है, जिन की आवाज अत्यन्त मधुर है ॥144॥ जो सब प्रकार का उपचार जानती हैं, जिन की समस्त क्रियाएँ अत्यन्त मनोहर हैं, जिनके श्वासोच्छ्वासकी सुगन्धि नन्दनवन की सुगन्धि के समान है ॥145॥ जो अभिप्राय के समझ ने में कुशल, पंचेन्द्रियों को सुख पहुंचानेवाली और इच्छानुसार रूप को धारण करनेवाली हैं ॥146॥ देव लोग, उन अप्सराओं के साथ जहाँ संकल्पमात्र से ही समस्त उपकरण उपस्थित हो जाते हैं ऐसा विषयजन्य विशाल सुख भोगते हैं ॥147॥ अथवा मनुष्य लोक में जो सुख प्राप्त होता है जिनेन्द्रदेव ने उस सब को धर्म का फल कहा है ॥148॥ ऊर्च, मध्य और अधोलोक में उपभोक्ताओं को जो भी सुख नाम का पदार्थ प्राप्त होता है वह सब धर्म से ही उत्पन्न होता है ॥149॥ दान देनेवाले, उपभोग करनेवाले एवं मर्यादा स्थापित करनेवाले मनुष्य की जो हजारों मनुष्यों के झुण्ड रक्षा करते हैं वह सब धर्म से उत्पन्न हुआ फल समझना चाहिए ॥150॥ मनोहर आभूषण धारण करनेवाले हजारों देवोंपर इन्द्र जो शासन करता है वह धर्म से उत्पन्न हुआ फल है ॥151 सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से युक्त जो पुरुष मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं वह शुद्ध धर्म का फल है ॥152॥ मनुष्य-जन्म के बिना अन्यत्र वह धर्म प्राप्त नहीं हो सकता इसलिए मनुष्यभव की प्राप्ति सब भवों में श्रेष्ठ है ॥153॥ जिस प्रकार मनुष्यों में राजा, मृगों में सिंह और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवों में मनुष्यभव श्रेष्ठ है ॥154॥ तीनों लोकों में श्रेष्ठ एवं समस्त इन्द्रियों को सुख देनेवाला धर्म मनुष्यशरीर में ही किया जाता है इसलिए मनुष्यदेह ही सर्वश्रेष्ठ है ॥155॥ जिस प्रकार तृणों में धान, वृक्षों में चन्दन और पत्थरों में रत्न श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवों में मनुष्यभव श्रेष्ठ है ॥156॥ हजारों उत्सर्पिणियों में भ्रमण करने के बाद यह जीव किसी तरह मनुष्य-जन्म प्राप्त करता है और नहीं भी प्राप्त करता है ॥157॥ क्लेशों से छुटकारा देनेवाले उस मनुष्य-जन्म को पाकर जो मनुष्य धर्म नहीं करता है वह पुनः दुर्गतियों को प्राप्त होता है ॥158॥ जिस प्रकार समुद्र के पानी में गिरा महामूल्य रत्न दुर्लभ हो जाता है उसी प्रकार नष्ट हुए मनुष्य-जन्म का पुनः पाना भी दुर्लभ है ॥159॥ इसी मनुष्य पर्याय में यथायोग्य धर्म कर प्राणी स्वर्गादिक में समस्त फल प्राप्त करते हैं ॥160॥ सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए इस उपदेश को सुनकर भानुकर्ण बहुत ही हर्षित हुआ। उसके नेत्र कमल के समान विकसित हो गये। उसने भक्तिपूर्वक प्रणाम कर तथा हाथ जोड़कर पूछा कि ॥161॥ हे भगवान् ! अभी जो उपदेश प्राप्त हुआ है उससे मुझे तृप्ति नहीं हुई है अतः भेदप्रभेद के द्वारा धर्म का निरूपण कीजिए ॥162॥ तब अनन्तबल केवली कहने लगे कि अच्छा धर्म का विशेष वर्णन सुनो जिस के प्रभाव से भव्य प्राणी संसार से मुक्त हो जाते हैं ॥163॥ महाव्रत और अणुव्रत के भेद से धर्म दो प्रकार का कहा गया है। उन में से पहला अर्थात् महाव्रत गृहत्यागी मुनियों के होता है और दूसरा अर्थात् अणुव्रत संसारवर्ती गृहस्थों के होता है ॥164॥ अब मैं समस्त परिग्रहों से रहित महान् आत्मा के धारी मुनियों का वह चरित्र कहता हूँ जो कि पापों को नष्ट करने में समर्थ है ॥165॥ समस्त पदार्थों को जाननेवाले मुनि सुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में ऐसे कित ने ही महापुरुष हैं जो जन्म-मरण सम्बन्धी महाभय से यक्त हैं ॥166॥ ये मनुष्य पर्याय को एरण्ड वक्ष के समान निःसार जानकर परिग्रह से रहित हो मुनिपद को प्राप्त हुए हैं ॥167॥ वे साधु सदा पंच महाव्रतों में लीन रहते हैं और शरीरत्यागपर्यन्त तत्त्वज्ञान के प्राप्त करने में तत्पर होते हैं ॥168॥ शुद्ध हृदय को धारण करनेवाले ये धैर्यशालो मुनि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में सदा लीन रहते हैं ॥169॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य और आगमानुमोदित बह्मचर्य उन्हीं के होता है जिनके कि परिग्रह का आलम्बन नहीं होता ॥170॥ जो बुद्धिमान् जन अपने शरीर में भी राग नहीं करते हैं और सूर्यास्त हो जानेपर यत्नपूर्वक विश्राम करते हैं उनके परिग्रह क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥171॥ मुनि पाप उपार्जन करनेवाले बालाग्रमात्र परिग्रह से रहित होते हैं तथा अत्यन्त धीर-वीर और सिंह के समान पराक्रमी होते हैं ॥172॥ ये वायु के समान सब प्रकार के प्रतिबन्ध से रहित होते हैं। पक्षियों के तो परिग्रह हो सकता है पर मुनियों के रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता ॥173॥ ये आकाश के समान मल के संसर्ग से रहित होते हैं, इन की चेष्टाएँ अत्यन्त प्रशंसनीय होती हैं, ये चन्द्रमा के समान सौम्य और दिवाकर के समान देदीप्यमान होते हैं ॥174॥ ये समुद्र के समान गम्भीर, सुमेरुके समान धीर-वीर और भयभीत कछुए के समान समस्त इन्द्रियों के समूह को अत्यन्त गुप्त रखनेवाले होते हैं ॥175॥ ये क्षमाधर्म के कारण क्षमा अर्थात् पृथ्वी के तुल्य हैं, कषायों के उद्रेक से रहित हैं और चौरासी लाख गुणों से सहित हैं ॥176॥ जिनेन्द्र प्रतिपादित शील के अठारह लाख भेदों से सहित हैं, तपरूपी विभूति से अत्यन्त सम्पन्न हैं तथा मुक्ति की इच्छा करने में सदा तत्पर रहते हैं ॥177॥ ये मुनि जिनेन्द्रनिरूपित पदार्थों में लीन रहते हैं, अन्य धर्मों के भी अच्छे जानकार होते हैं, श्रुतरूपी सागर के पारगामी और यम के धारी होते हैं ॥178॥ ये मुनि अनेक नियमों के करनेवाले, उद्दण्डता से रहित, नाना ऋद्धियों से सम्पन्न और महामंगलमय शरीर के धारक होते हैं ॥179॥ इस तरह जो पूर्वोक्त गुणों को धारण करनेवाले हैं, समस्त जगत् के आभरण हैं और जिनके कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे मुनि उत्तम देव पद को प्राप्त होते हैं ॥180॥ तदनन्तर दो-तीन भवों में ध्यानाग्नि के द्वारा समस्त कलषता को जलाकर निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेते हैं ॥181॥ अब स्नेहरूपी पिंजड़े में रुके हुए गृहस्थाश्रमवासी लोगों का बारह प्रकार का धर्म कहता हूँ सो सुनो ॥182॥ गृहस्थों को पांच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत, तीन गुणव्रत और यथाशक्ति हजारों नियम धारण करने पड़ते हैं ॥183॥ स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल परद्रव्यग्रहण, परस्त्री समागम और अनन्ततृष्णा से विरत होना ये गृहस्थों के पाँच अणुव्रत कहलाते हैं। इन व्रतों को रक्षा के लिए जिनेन्द्रदेव ने निम्नांकित भावना का निरूपण किया है ॥184-185॥ जिस प्रकार मुझे अपना शरीर इष्ट है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना-अपना शरीर इष्ट होता है ऐसा जानकर गृहस्थ को सब प्राणियोंपर दया करनी चाहिए ॥186॥ जिनेन्द्रदेव ने दया को ही धर्म को परम सीमा बतलायी है । यथार्थ में जिनके चित्त दयारहित हैं उनके थोड़ा भी धर्म नहीं होता है ॥187॥ जो वचन दूसरों को पीड़ा पहुँचा ने में निमित्त है वह असत्य ही कहा गया है, क्योंकि सत्य इस से विपरीत होता है ॥188॥ की गयी चोरी इस जन्म में वध, बन्धन आदि कराती है और मरने के बाद कुयोनियों में नाना प्रकार के दुःख देती है ॥189॥ इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह चोरी का सर्व प्रकार से त्याग करे । जो कार्य दोनों लोकों में विरोध का कारण है वह किया ही कैसे की जा सकता है ? ॥190॥ परस्त्री का सर्पिणी के समान दूर से ही त्याग करना चाहिए क्योंकि वह पापिनी लोभ के वशीभूत हो पुरुष का नाश कर देती है ॥19॥ जिस प्रकार अपनी स्त्री को कोई दूसरा मनुष्य छेड़ता है और उससे अपने आप को दुःख होता है उसी प्रकार सभी की यह व्यवस्था जाननी चाहिए ॥192॥ परस्त्री सेवन करनेवाले मनुष्य को इसी जन्म में बहुत भारी तिरस्कार प्राप्त होता है और मरनेपर तिर्यंच तथा नरकगति के अत्यन्त दुःसह दुःख प्राप्त करने ही पड़ते हैं ॥193॥ अपनी इच्छा का सदा परिमाण करना चाहिए क्योंकि इच्छापर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो वह महादुःख देती है। इस विषय में भद्र और कांचन का उदाहरण प्रसिद्ध है ॥194॥ वैर आदि को बेचनेवाला एक भद्र नामक पुरुष था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि मैं एक दीनार का ही परिग्रह रखूंगा। एक बार उसे मार्ग में पड़ा हुआ बटुआ मिला। उस बटुए में यद्यपि बहुत दीनारें रखी थीं पर भद्र ने अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान कर कुतूहलवश उन में से एक दीनार निकाल ली। शेष बटुआ वहीं छोड़ दिया। वह बटुआ कांचन नामक दूसरे पुरुष ने देखा तो वह सब का सब उठा लिया । दीनारों का स्वामी राजा था। जब उसने जांच-पड़ताल की तो कांचन को मृत्यु की सजा दी गयी और भद्र ने जो एक दीनार ली थी वह स्वयं ही जाकर राजा को वापस कर दी जिस से राजाने उसका सम्मान किया ॥195-197॥ अनर्थदण्डों का त्याग करना, दिशाओं और विदिशाओं में आवागमन की सीमा निर्धारित करना और भोगोपभोग का परिमाण करना ये तीन गुणवत हैं ॥198॥ प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना, प्रोषधोपवास धारण करना, अतिथिसंविभाग और आयु का क्षय उपस्थित होनेपर सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत हैं ॥199॥ जिसने अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत नहीं किया है, जो परिग्रह से रहित है और सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होकर घर आता है ऐसा मुनि अतिथि कहलाता है ॥200॥ ऐसे अतिथि के लिए अपने वैभव के अनुसार आदरपूर्वक लोभरहित हो भिक्षा तथा उपकरण आदि देना चाहिए यही अतिथिसंविभाग है ॥201॥ इन के सिवाय गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो विरक्त होता है उसे नियम कहा है ॥202॥ इस गृहस्थ धर्म का पालन कर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तमदेव पर्याय को प्राप्त होता है और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है ॥203॥ ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालन कर अन्त में निर्ग्रन्थ हो सिद्धिपद को प्राप्त होता है ॥204॥ जो दुर्लभ मनुष्यपर्याय पाकर यथोक्त आचरण करने में असमर्थ है, केवल जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित आचरण की श्रद्धा करता है वह भी निकट काल में त प्राप्त करता है ॥205॥ जिसका लाभ सब लाभों में श्रेष्ठ है ऐसे केवल सम्यग्दर्शन के द्वारा भी मनुष्य दर्गति के भय से छट जाता है ॥206॥ जो स्वभाव से ही जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर है वह पुण्य का आधार होता है तथा पाप के अंशमात्र का भी उससे सम्बन्ध नहीं होता ॥207॥ नमस्कार तो दूर रहा जो जिनेन्द्र देव का भावपूर्वक स्मरण भी करता है उसके करोड़ों भवों के द्वारा संचित पाप कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥208॥ जो मनुष्य तीन लोक में श्रेष्ठ रत्नस्वरूप जिनेन्द्र देव को हृदय में धारण करता है उसके सब ग्रह, स्वप्न और शकुन की सूचना देनेवाले पक्षी सदा शुभ ही रहते हैं ॥209॥ जो मनुष्य 'अहंते नमः' अहंन्त के लिए नमस्कार हो, इस वचन का भावपूर्वक उच्चारण करता है उसके समस्त कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है ॥210॥ जिनेन्द्र चन्द्र की कथारूपी किरणों के समागम से भव्य जीव का निर्मल हृदयरूपी कुमुद शीघ्र ही प्रफुल्ल अवस्था को प्राप्त होता है ॥211॥ जो मनुष्य अर्हन्त सिद्ध और मुनियों के लिए नमस्कार करता है वह जिनशासन के भक्त जनों से स्नेह रखनेवाला अतीतसंसार है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करनेवाला है ऐसा जानना चाहिए ॥212॥ जो पुरुष जिनेन्द्र देव की प्रतिमा बनवाता है, जिनेन्द्र देव का आकार लिखवाता है, जिनेन्द्र देव की पूजा करता है अथवा जिनेन्द्रदेव की स्तुति करता है उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता ॥213॥ यह मनुष्य चाहे राजा हो चाहे साधारण कुटुम्बी, धनाढय हो चाहे दरिद्र, जो भी धर्म से युक्त होता है वह समस्त संसार में पूज्य होता है ॥214॥ जो महाविनय से सम्पन्न तथा कार्य और अकार्य के विचार में निपुण हैं वे धर्म के समागम से गृहस्थों में प्रधान होते हैं ॥215॥ जो मनुष्य मधु, मांस और मदिरा आदि का उपयोग नहीं करते हैं वे गृहस्थों के आभूषण पद पदपर स्थित हैं अर्थात् गृहस्थों के आभूषण हैं ॥216॥ जो शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से रहित हैं, जिन की आत्मा अन्यदृष्टियों को प्रशंसा से दूर है और जो अन्य शासन सम्बन्धी स्तवन से वर्जित हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद को प्राप्त हैं ॥217-218॥ जो उत्तम वस्त्र का धारक है, जिस के शरीर से सुगन्धि निकल रही है, जिसका दर्शन सब को प्रिय लगता है, नगर की स्त्रियाँ जिसकी प्रशंसा कर रही हैं, जो पृथिवी को देखता हुआ चलता है, जिसने सब विकार छोड़ दिये हैं, जो उत्तम भावना से युक्त है और अच्छे कार्यों के करने में तत्पर है ऐसा होता हुआ जो जिनेन्द्रदेव की वन्दना के लिए जाता है उसे अनन्त पुण्य प्राप्त होता है ॥219-220॥ जो परद्रव्य को तृण के समान, परपुरुष को अपने समान और परस्त्री को माता के समान देखते हैं वे धन्य हैं ॥221॥ 'मैं दीक्षा लेकर पृथिवीपर कब विहार करूँगा? और कब कर्मों को नष्ट कर सिद्धालय में पहुँचूँगा' जो निर्मल चित्त का धारी मनुष्य प्रतिदिन ऐसा विचार करता है कम भयभीत होकर ही मानो उसकी संगति नहीं करते ॥222-223॥ कोई-कोई गृहस्थ प्राणी, सात-आठ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और उत्तम हृदय को धारण करनेवाले कित ने ही मनुष्य तीक्ष्ण तप कर दो-तीन भव में ही मुक्त हो जाते हैं ॥224॥ मध्यम भव्य प्राणी शीघ्र ही महान् आनन्द अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं पर जो असमर्थ हैं किन्त मार्ग को जानते हैं वे कूछ विश्राम करने के बाद महाआनन्द प्राप्त कर पाते हैं ॥225॥ जो मनष्य मार्ग को न जानकर दिन में सौ-सौ योजन तक गमन करता है वह भटकता ही रहता है तथा चिरकाल तक भी इष्ट स्थान को नहीं प्राप्त कर सकता है ॥226॥ जिनका श्रद्धान मिथ्या है ऐसे लोग उग्र तपश्चरण करते हुए भी जन्म-मरण से रहित पद नहीं प्राप्त कर पाते हैं ॥227॥ जो मोक्षमार्ग अर्थात् रत्नत्रय से भ्रष्ट हैं वे मोहरूपी अन्ध-कार से आच्छादित तथा कषायरूपी सो से व्याप्त संसाररूपी अटवी में भटकते रहते हैं ॥228॥ जिस के न शील है, न सम्यक्त्व है और न उत्तम त्याग ही है उसका संसार-सागर से सन्तरण किस प्रकार हो सकता है ? ॥229॥ विन्ध्याचल के जिस प्रवाह में पहाड़ के समान ऊँचे-ऊँचे हाथी बह जाते हैं उस में बेचारे खरगोश तो निःसन्देह ही बह जाते हैं ॥230॥ जहाँ कुतीर्थ का उपदेश देनेवाले कुगुरु भी जन्म-जरा-मृत्युरूपी आवर्तो से युक्त संसाररूपी प्रवाह में चक्कर काटते हैं, वहाँ उनके भक्तों की कथा ही क्या है ? ॥231॥ जिस प्रकार पानी में पड़ी शिला को शिला ही तार ने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार परिग्रही साधु शरणागत परिग्रही भक्तों को तार ने में समर्थ नहीं हैं ॥232॥ जो तप के द्वारा पापों को जलाकर हल के हो गये हैं ऐसे तत्त्वज्ञ मनुष्य ही अपने उपदेश से दूसरों को तार ने में समर्थ होते हैं ॥233॥ जो यह मनुष्य क्षेत्र है सो भयंकर संसार-सागर में मानो उत्तम रत्नद्वीप है। इसकी प्राप्ति बड़े दुःख से होती है ॥234॥ इस रत्नद्वीप में आकर बुद्धिमान् मनुष्य को अवश्य ही नियमरूपी रत्न ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान शरीर छोड़कर पर्यायान्तर में अवश्य ही जाना होगा ॥235॥ इस संसार में जो विषयों के लिए धर्मरूपी रत्नों का चूर्ण करता है वह वैसा ही है जैसा कि कोई सूत प्राप्त करने के लिए मणियों का चूर्ण करता है ॥236॥ शरीरादि अनित्य है, कोई किसी का शरण नहीं है, शरीर अशुचि है, शरीररूपी पिंजड़े से आत्मा पृथक् है, यह अकेला ही सुख-दुःख भोगता है, संसार के स्वरूप का चिन्तवन करना, लोक की विचित्रता का विचार करना, आस्रव के दुर्गुणों का ध्यान करना, संवर की महिमा का चिन्तवन करना, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा का उपाय सोचना, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की दुर्लभता का विचार करना और धर्म का माहात्म्य सोचना-जिनेन्द्र भगवान् ने ये बारह भावनाएँ कही हैं सो इन्हें सदा हृदय में धारण करना चाहिए ॥237-239॥ जो अपनी शक्ति के अनुसार जैसे धर्म का सेवन करता है वह देवादि गतियों में उसका वैसा ही फल भोगता है ॥240॥ इस प्रकार उपदेश देते हुए अनन्तबल केवलो से भानुकर्ण ने पूछा कि हे नाथ ! मैं अब नियम तथा उसके भेदों को जानना चाहता हूँ ॥241॥ इसके उत्तर में भगवान् ने कहा कि हे भानुकर्ण ! ध्यान देकर अवधारण करो। नियम और तप ये दो पदार्थ पृथक्-पृथक् नहीं हैं ॥242॥ जो मनुष्य नियम से युक्त है वह शक्ति के अनुसार तपस्वी कहलाता है इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को सब प्रकार से नियम अथवा तप में प्रवृत्त रहना चाहिए ॥243॥ बुद्धिमान् मनुष्यों को थोड़ा-थोड़ा भी पुण्य का संचय करना चाहिए क्योंकि एक-एक बूंद के पड़ने से समुद्र तक बहनेवाली बड़ी-बड़ी नदियाँ बन जाती हैं ॥244॥ जो दिन में एक मुहर्त के लिए भी भोजन का त्याग करता है उसे एक महीने में उपवास के समान फल प्राप्त होता है ॥245॥ संकल्प मात्र से प्राप्त होनेवाले उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करते हुए इस जीव को कम से कम दसहजार वर्ष तो लगते ही हैं ॥246॥ और जो जैनधर्म की श्रद्धा करता हुआ पूर्वप्रतिपादित व्रतादि धारण करता है उस महात्मा का स्वर्ग में कम से कम एक पल्य प्रमाण काल बीतता है ॥247॥ वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्य गति में उस प्रकार उत्तम भोग प्राप्त करता है जिस प्रकार तापसवंश में उत्पन्न हुई उपवना ने प्राप्त किये थे ॥248॥ एक उपवना नाम की दुःखिनी कन्या थी जो भाई-बन्धुओं से रहित थी और बेर आदि खाकर अपनी जीवि का करती थी। एक बार उसने मुहूर्त-भर के लिए आहार का त्याग किया। उस व्रत के प्रभाव से राजाने उसका बड़ा आदर किया तथा व्रत के अनन्तर उसे उत्कृष्ट धनसम्पदा से युक्त किया। इस घटना से उसका मन धर्म में अत्यन्त उत्साहित हो गया ॥249-250॥ जो मनुष्य निरन्तर जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का पालन करता है वह परलोक में निर्बाध सुख का उपभोग करता है ॥251॥ जो प्रतिदिन दो मुहूर्त के लिए आहार का त्याग करता है उसे महीने में दो उपवास का फल प्राप्त होता है ॥252॥ इस प्रकार जो एक-एक मुहूतं बढ़ाता हुआ तीस मुहूर्त तक के लिए आहार का त्याग करता है उसे तीन-चार आदि उपवासों का फल प्राप्त होता है ॥253॥ तेला आदि उपवासों में भी इसी तरह मुहर्त की योजना कर लेनी चाहिए। जो अधिक काल के लिए त्याग होता है उसका कारण के अनुसार अधिक फल कहना चाहिए ॥254॥ प्राणी स्वर्ग में इस नियम का फल प्राप्त कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहां अद्भत चेष्टाओं के धारक होते हैं ॥255॥ स्वर्ग में फल भोग ने से जो पण्य शेष बचता है उसके फलस्वरूप वे क स्त्रियों के पति होते हैं। जिनका कि शरीर लावण्यरूपी पंक से लिप्त रहता है तथा जो मन को हरण करनेवाले हाव-भाव विभ्रम किया करती हैं ॥256॥ नियमवाली स्त्रियाँ भी स्वर्ग से चयकर मनुष्य भव में आती हैं और महापुरुषों के द्वारा सेवनीय होती हुई लक्ष्मी की समानता प्राप्त करती हैं ॥257॥ जो सूर्यास्त होनेपर अन्न का त्याग करता है उस सम्यग्दृष्टि को भी विशेष अभ्युदय की प्राप्ति होती है ॥258॥ यह जीव इस धर्म के कारण रत्नों से जगमगाते विमानों में अप्सराओं के मध्य में बैठकर अनेक पल्योपमकाल व्यतीत करता है ॥259॥ इसलिए दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर धर्म में तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को महाप्रभु श्रीजिनेन्द्र देव की उपासना करनी चाहिए ॥260॥ जिनके आसनस्थ होनेपर देव, तिर्यंच और मनुष्यों से सेवित एक योजन की पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती है ॥261॥ जिनके आठ प्रातिहार्य और चौंतीस महाअतिशय प्रकट होते हैं। तथा जिनका रूप हजार सूर्यों के समान देदीप्यमान एवं नेत्रों को सुख देनेवाला होता है ॥262॥ ऐसे महाप्रभु जिनेन्द्र भगवान् को जो बुद्धिमान् भव्य प्रणाम करता है वह थोड़े ही समय में संसार-सागर से पार हो जाता है ॥263॥ जीवों को शान्ति प्राप्त करने के लिए यह उपाय छोड़कर और दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिए यत्नपूर्वक इसकी सेवा करनी चाहिए ॥264॥ इन के सिवाय कुतोथियों से सेवित गोदण्डक के समान जो अन्य हजारों मार्ग हैं उन में प्रमादी जीव मोहित हो रहे हैं-यथार्थ मार्ग भूल रहे हैं ॥265॥ उन मार्गाभासों में समीचीन दया तो नाममात्र को नहीं है क्योंकि मधु-मांसादि का सेवन खुलेआम होता है पर जिनेन्द्रदेव की प्ररूपणा में दोष की कणि का भी दृष्टिगत नहीं होती ॥266॥ लोक में यह कार्य तो बिलकुल ही त्याग ने योग्य है कि दिनभर तो भूख से अपनी आत्मा को पीड़ा पहुंचाते हैं और रात्रि को भोजन कर संचित पुण्य को तत्काल नष्ट कर देते हैं ॥267॥ रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन लोगों ने धर्म मान रखा है, उनके हृदय पापकर्म से अत्यन्त कठोर हैं उनका समझना कठिन है ॥268॥ सूर्य के अदृश हो जानेपर जो लम्पटी-पापी मनुष्य भोजन करता है वह दुर्गति को नहीं समझता ॥269॥ जिस के नेत्र अन्धकार के पटल से आच्छादित हैं और बुद्धि पाप से लिप्त है ऐसे पापी प्राणी रात के समय मक्खी, कीड़े तथा बाल आदि हानिकारक पदार्थ खा जाते हैं ॥270॥ जो रात्रि में भोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत, भूत आदि नीच प्राणियों के साथ भोजन करता है ॥271॥ जो रात्रि में भोजन करता है वह कुत्ते, चूहे, बिल्लो आदि मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करता है ॥272॥ अथवा अधिक कहने से क्या ? संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रात में भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है ॥273॥ सूर्य के अस्त हो जानेपर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानों ने मनुष्यता से बंधे हुए पशु कहा है ॥274॥ जो जिनशासन से विमुख होकर रात-दिन चाहे जब खाता रहता है वह नियमरहित नष्य परलोक में सखी कैसे की हो सकता है ? ॥275॥ जो पापी मनुष्य दयारहित होकर जिनेन्द्र देव को निन्दा करता है वह अन्य शरीर में जाकर दुर्गन्धित मुखवाला होता है अर्थात् परभव में उसके मुख से दुर्गन्ध आती है ॥276॥ जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रिभोजन, चोरी और परखो का सेवन करता है वह अपने दोनों भवों को नष्ट करता है ॥277॥ जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह पर-भव में अल्पायु, निर्धन, रोगी और सुखरहित अर्थात् दुःखी होता है ॥278॥ रात्रि में भोजन करने से यह जीव दीर्घ काल तक निरन्तर जन्म-मरण प्राप्त करता रहता है और गर्भवास में दुःख से पकता रहता है ॥279॥ रात्रि में भोजन करनेवाला मिथ्यादृष्टि पुरुष शूकर, भेडिया, बिलाव, हंस तथा कौआ आदि योनियों में दीर्घ काल तक उत्पन्न होता रहता है ॥280॥ जो दुर्बुद्धि रात्रि में भोजन करता है वह हजारों उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक कुयोनियों में दुःख उठाता रहता है ॥281॥ जो जैन धर्म पाकर उसके नियमों में अटल रहता है वह समस्त पापों को जलाकर उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ॥282॥ रत्नत्रय के धारक तथा अणुव्रतों का पालन करने में तत्पर भव्य जीव सूर्योदय होनेपर ही निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं ॥283॥ जो दयालु मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते वे पापहीन मनुष्य स्वर्ग में विमानों के अधिपति होकर उत्कृष्ट भोग प्राप्त करते हैं ॥284॥ वहाँ से च्युत होकर तथा उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर चक्रवर्ती आदि के विभव से प्राप्त होनेवाले सख का उपभोग करते हैं ॥285॥ शभ चेष्टाओं के धारक पुरुष सौधर्मादि स्वर्गों में मन में विचार आते ही उपस्थित होनेवाले उत्कृष्ट भोगों तथा अणिमा-महिमा आदि आठ सिद्धियों को प्राप्त होते हैं ॥286॥ दिन में भोजन करने से मनुष्य जगत् का हित करनेवाले महामन्त्री, राजा, पीठमर्द तथा सर्व लोकप्रिय व्यक्ति होते हैं ॥287॥ धनवान्, गुणवान्, रूपवान्, दीर्घायुष्क, रत्नत्रय से युक्त तथा प्रधान पदपर आसीन व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ॥288॥ जिनका तेज युद्ध में असह्य है, जो नगर आदि के अधिपति हैं, विचित्र वाहनों से सहित हैं तथा सामन्तगण जिनका सत्कार करते हैं ऐसे पुरुष भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ॥289॥ इतना ही नहीं, भवनेन्द्र, देवेन्द्र, चक्रवर्ती और महालक्षणों से सम्पन्न व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ॥290॥ जो रात्रिभोजनत्यागवत में उद्यत रहते हैं वे सूर्य के समान प्रभावान्, चन्द्रमा के समान सौम्य और स्थायी भोगों से युक्त होते हैं ॥291॥ रात्रि में भोजन करने से स्त्रियाँ अनाथ, दुर्भाग्यशाली, मातापिता भाई से रहित तथा शोक और दारिद्रय से युक्त होती हैं ॥292॥ जिन की नाक चपटी है, जिनका देखना ग्लानि उत्पन्न करता है, जिनके नेत्र कीचड़ से युक्त हैं, जो अनेक दुष्टलक्षणों से सहित हैं, जिनके शरीर से दुर्गन्ध आती रहती है, जिनके ओठ फटे और मोटे हैं, कान खड़े हैं, शिर के बाल पीले तथा चट के हैं, दाँत तूंबड़ो के बीज के समान हैं और शरीर सफेद है, जो कानी, शिथिल तथा कान्तिहीन हैं, रूपरहित हैं, जिनका चमं कठोर है। जो अनेक रोगों से युक्त तथा मलिन हैं, जिनके वस्त्र फटे हैं, जो गन्दा भोजन खाकर जीवित रहती हैं, और जिन्हें दूसरे की नौकरी करनी पड़ती है, ऐसी खियाँ रात्रि भोजन के ही पाप से होती हैं ॥293-296॥ रात्रिभोजन में तत्पर रहनेवाली स्त्रियाँ बूढ़े नकटे और धन तथा भाई-बन्धुओं से रहित पति को प्राप्त होती हैं ॥297॥ जो दुःख के भार से निरन्तर आक्रान्त रहती हैं, बाल अवस्था में ही विधवा हो जाती हैं, पानी, लकड़ी आदि ढो-डो कर पेट भरती हैं, अपना पेट बड़ी कठिनाई से भर पाती हैं, सब लोग जिनका तिरस्कार करते हैं, जिनका चित्त वचन रूपी वसूला से नष्ट होता रहता है और जिनके शरीर में सैकड़ों घाव लगे रहते हैं, ऐसी स्त्रियाँ रात्रि भोजन के कारण ही होती हैं ॥298-299॥ जो स्त्रियां शान्त चित्त, शील सहित, मुनिजनों का हित करनेवाली और रात्रि भोजन से विरत रहती हैं वे स्वर्ग में यथेच्छ भोग प्राप्त करती हैं। शिरपर हाथ रखकर आज्ञा की प्रतीक्षा करनेवाले परिवार के लोग उन्हें सदा घेरे रहते हैं ॥300-301॥ स्वर्ग से च्युत होकर वे वैभवशाली उच्च कुल में उत्पन्न होती हैं, शुभ लक्षणों से युक्त तथा समस्त गुणी से सहित होती हैं ॥302॥ अनेक कलाओं में निपुण रहती हैं, उनके शरीर नेत्र और मन में स्नेह उत्पन्न करनेवाले होते हैं, अपने वचनों से मानो वे अमृत छोड़ती हैं, समस्त लोगों को आनन्दित करती हैं ॥303॥ विद्याधरों के अधिपति, नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती भी उन में उत्कण्ठित रहते हैं-उन्हें प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं ॥304॥ जिनके शरीर को कान्ति बिजली तथा लाल कमल के समान मनोहारी है, जिनके सुन्दर कुण्डल सदा हिलते रहते हैं, तथा राजाओं के साथ जिनके विवाह सम्बन्ध होते हैं ऐसी स्त्रियाँ दिन में भोजन करने से ही होती हैं ॥305॥ जो दयावती स्त्रियाँ रात्रि में भोजन नहीं करती हैं उन्हें सदा भृत्य जनों के द्वारा तैयार किया हुआ मनचाहा भोजन प्राप्त होता है ॥306॥ दिन में भोजन करने से स्त्रियां श्रीकान्ता, सुप्रभा, सुभद्रा और लक्ष्मी के समान कान्तियुक्त होती हैं ॥307॥ इसलिए नर हो चाहे नारी, दोनों को अपना चित्त नियम में स्थिरकर अनेक दुःखों से सहित जो रात्रि भोजन है उसका त्याग करना चाहिए ॥308॥ इस प्रकार थोड़े ही प्रयास से जब सुख मिलता है तो उस प्रयास का निरन्तर सेवन करो। ऐसा कोन है जो अपने लिए सुख की इच्छा न करता हो ॥309॥ 'धर्म सुखोत्पत्ति का कारण है और अधर्म दुःखोत्पत्तिका' ऐसा जानकर धर्म की सेवा करनी चाहिए और अधर्म का परित्याग ॥310॥ यह बात गोपालकों तक में प्रसिद्ध है कि धर्म से सुख होता है और अधर्म से दुःख ॥311॥ धर्म का माहात्म्य देखो कि जिस के प्रभाव से प्राणी स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहां महाभोगों से यक्त तथा मनोहर शरीर के धारक होते हैं ॥312॥ वे जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए रत्नों के आधार होते हैं और उदासीन होनेपर भी सदा सुखी रहते हैं ॥313॥ ऐसे मनुष्यों के स्वर्ण, वस्त्र तथा धान आदि के भाण्डारों की रक्षा हाथों में विविध प्रकार के शस्त्र धारण करनेवाले लोग किया करते हैं ॥314॥ उन्हें अत्यधिक गाय, भैंस आदि पशु, हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते हैं। साथ ही जो मन और इन्द्रियों के विषय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, जिन की चाल हंसी के समान विलास पूर्ण है, जिनका शरीर अत्यधिक सौन्दर्य से युक्त है, जिन की आवाज मीठी है, जिनके स्तन स्थूल हैं, जो अनेक शुभ लक्षणों से युक्त हैं, जो नेत्रों को पराधीन करने के लिए जाल के समान हैं, तथा जिन की चेष्टाएँ मनोहर हैं ऐसी अनेक तरुण स्त्रियां और नाना अलंकार धारण करनेवाली दासियाँ पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं ॥315-318॥ कित ने ही मूर्ख प्राणी ऐसे हैं कि जो सुख-समूह की प्राप्ति का कारण धर्म है उसे जानते ही नहीं हैं अतः वे उसके साधन के लिए प्रयत्न ही नहीं करते ॥319॥ और जिन की आत्मा पाप कर्म के वशीभूत है तथा जो पाप कर्मों में निरन्तर तत्पर रहते हैं ऐसे भी कित ने ही लोग हैं कि जो धर्म को सुख प्राप्ति का साधन सुनकर भी उसका सेवन नहीं करते ॥320॥ उत्तम कार्यों के बाधक पापकर्म के उपशान्त हो जानेपर कुछ ही जीव ऐसे होते हैं कि जो उत्सुक चित्त हो गुरुके समीप जाकर धर्म का स्वरूप पूछते हैं ॥321॥ तथा पाप कर्म के उपशान्त होने से यदि वे जीव उत्तम आचरण करने लगते हैं तो उन में सद्गुरुके वचन सार्थक हो जाते हैं ॥322॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य पाप का परित्याग कर इस नियम का पालन करते हैं वे स्वर्ग में महागुणों के धारक होते हुए प्रथम अथवा द्वितीय होते हैं ॥323॥ जो मनुष्य भक्ति-पूर्वक मुनियों के भोजन करने का समय बिताकर बाद में भोजन करते हैं स्वर्ग में देव लोग सदा उन्हें सुखी देख ने की इच्छा करते हैं ॥324॥ उत्तम तेज को धारण करनेवाले वे पुरुष देवों के समूह के इन्द्र होते हैं अथवा मनचाहे भोग प्राप्त करनेवाले सामानिक पद को प्राप्त करते हैं ॥325॥ जिस प्रकार वट वृक्ष का छोटा-सा बीज आगे चलकर ऊंचा वृक्ष हो जाता है उसी प्रकार छोटा-सा तप भी आगे चलकर महाभोग रूपी फल को धारण करता है ॥326॥ जिसकी बुद्धि निरन्तर धर्म में आसक्त रहती है ऐसा मनुष्य अपने पूर्वाचरित धर्म के प्रभाव से कुबेरकान्त के समान नेत्रों को आकर्षित करनेवाले सुन्दर शरीर का धारक होता है ॥327॥ एक सहस्रभट नाम का पुरुष था। उसने मुनिवेलाव्रत धारण किया था अर्थात् मुनियों के भोजन करने का समय बीत जाने के बाद ही वह भोजन करता था। एक बार उसने मुनि के लिए आहार दिया। उसके प्रभाव से उसके घर रत्नवृष्टि हुई और वह मरकर परभव में कुबेरकान्त सेठ हुआ ॥328॥ जो कि भूमण्डल में प्रसिद्ध, उत्कृष्ट पराक्रमी, महाधन से युक्त और सेवक समूह के मध्य में स्थित रहनेवाला था ॥329॥ पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान उसका शरीर अत्यन्त सुन्दर था और वह उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ समस्त शास्त्रों का अर्थ जान ने में निपुण था॥३३०॥ पूर्व धर्म के प्रभाव से ही उसने परम वैराग्य को प्राप्त हो जिनेन्द्र-प्रतिपादित दीक्षा को धारण किया था ॥331॥ जो मनुष्य अनगार महर्षियों के काल की प्रतीक्षा करते हैं वे हरिषेण चक्रवर्ती के समान उत्कृष्ट भोगों को प्राप्त होते हैं ॥332॥ हरिषेण ने मुनिवेला में मुनि के आगमन की प्रतीक्षा कर बहुत भारी पुण्य का संचय किया था इसलिए वह अत्यन्त उन्नत लक्ष्मी को प्राप्त हुआ था ॥333॥ शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले जो मनुष्य ध्यान की भावना से प्रेरित हो मुनि के समीप जाकर एकभक्त करते हैं अर्थात् एक बार भोजन करने का नियम लेते हैं और एक भक्त से हो समय पूरा कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे रत्नों को कान्ति से जगमगाते हुए विमानो में उत्पन्न होते हैं ॥334-335॥ शुद्ध हृदय को धारण करनेवाले वे देव, निरन्तर प्रकाशित रहनेवाले उन विमानों अप्सराओं के बीच बैठकर चिरकाल तक क्रीडा करते हैं ॥336॥ जो उत्तम हार धारण किये हुए हैं, जिन की कलाइयों में उत्तम कड़े सुशोभित हैं, जो कमर में कटिसूत्र और शिरपर मुकुट धारण करते हैं, जिनके ऊपर छत्र फिरता है और पार्श्व में चमर ढोले जाते हैं ऐसे देव, एक भक्त व्रत के प्रभाव से होते हैं ॥337॥ जो महाव्रत धारण करने की भावना रखते हुए वर्तमान में अणुव्रत धारण करते हैं तथा शरीर को अनित्य समझकर जिनके हृदय अत्यन्त शान्त हो चु के हैं ऐसे जो मनुष्य हृदयपूर्वक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं वे स्वर्ग की दीर्घायु का बन्ध करते हैं ॥338-339॥ उन में से कोई तो सौधर्मादि स्वर्गों में जन्म लेते हैं, कोई अहमिन्द्र पद प्राप्त करते हैं और कोई विशुद्धता के कारण मोक्ष जाते हैं ॥340॥ जो निरन्तर विनय से युक्त रहते हैं, गुण और शीलवत से सहित होते हैं तथा जिनका चित्त सदा तप में लगा रहता है ऐसे मनुष्य निःसन्देह स्वर्ग जाते हैं वहाँ इच्छानुसार भोग भोगकर मनुष्य होते हैं, बड़े भारी राज्य का उपभोग करते हैं और जैनमत को प्राप्त होते हैं ॥341-342॥ जैनमत को पाकर क्रम-क्रम से मुनियों का चरित्र धारण करते हैं और उसके प्रभाव से सर्व कर्मरहित सिद्धों का निकेतन प्राप्त कर लेते हैं ॥343॥ जो प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीनों कालों में मन, वचन, काय से स्तुति कर जिन देव को नमस्कार करता है अर्थात् त्रिकाल वन्दना का नियम लेता है वह सुमेरुपर्वत के समान मिथ्यामत रूपी वायु से सदा अक्षोभ्य रहता है ॥344॥ जो गुणरूपी अलंकारों से सुशोभित है तथा जिसका शरीर शीलवत रूपी चन्दन से सुगन्धित है ऐसा वह पुरुष स्वर्ग में समस्त इन्द्रियों को हरनेवाले भोग भोगता है ॥345॥ तदनन्तर मनुष्य और देव इन दो शुभगतियों में कुछ आवागमन कर सर्वकर्मरहित हो परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ॥346॥ चूंकि पंचेन्द्रियों के विषय सब जीवों के द्वारा चिरकाल से अभ्यस्त हैं इसलिए इन से मोहित हुए प्राणी विरति (त्यागआखड़ी) करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते हैं ॥347॥ यहाँ बड़ा आश्चर्य तो यही है कि फिर भी उत्तम पुरुष उन विषयों को विषमिश्रित अन्न के समान देखकर मोक्ष प्राप्ति के साधक कार्य का सेवन करते हैं ॥348॥ संसार में भ्रमण करनेवाले सम्यग्दष्टि जीव को यदि एक ही विरति (आखड़ी) प्राप्त हो जाती है तो वह मोक्ष का बीज हो जाती है ॥349॥ जिन प्राणियों के एक भी नियम नहीं है वे पशु हैं अथवा रस्सी से रहित (पक्ष में व्रतशील आदि गुणों से रहित) फूटे घड़े के समान हैं ॥350॥ गुण और व्रत से समृद्ध तथा नियमों का पालन करनेवाला प्राणी यदि वह संसार से पार होने की इच्छा रखता है तो उसे प्रमादरहित होना चाहिए ॥351॥ जो बुद्धि के दरिद्र मनुष्य दुष्कर्म-खोटे कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जन्मान्ध मनुष्यों के समान चिरकाल तक संसाररूपी अटवी में भटकते रहते हैं ॥352॥ तदनन्तर वहाँ जो भी तिर्यंच, मनुष्य और देव विद्यमान थे वे उन अनन्तबल केवली रूपी चन्द्रमा के वचन रूपी किरणों के समागम से परम हर्ष को प्राप्त हुए ॥353॥ उन में से कोई तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए, कोई अणुव्रती हुए और कोई बलशाली महावतों के धारक हुए ॥354॥ अथानन्तर धर्मरथ नामक मुनि ने रावण से कहा कि हे भव्य ! अपनी शक्ति के अनुसार कोई नियम ले ॥355॥ ये मुनिराज धर्मरूपी रत्नों के द्वीप हैं सो इन से अधिक नहीं तो कम से कम एक ही नियम रूपी रत्न ग्रहण कर ॥356॥ इस प्रकार चिन्ता के वशीभूत होकर क्यों बैठा है ? निश्चय से त्याग महापुरुषों की बुद्धि के खेद का कारण नहीं है अर्थात् त्याग से महापुरुषों को खिन्नता नहीं होती प्रत्युत प्रसन्नता होती है ॥357॥ जिस प्रकार रत्नद्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का चित्त 'यह लूं या यह लूं' इस तरह चंचल होकर घूमता है उसी प्रकार इस चारित्र रूपी द्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का भी चित्त 'यह नियम लूं या यह नियम लूं' इस तरह परम आकुलता को प्राप्त हो घूमता रहता है ॥358॥ अथानन्तर जिसका चित्त सदा भोगों में अनुरक्त रहता था और इसी कारण जो व्याकुलता को प्राप्त हो रहा था ऐसे रावण के मन में यह भारी चिन्ता उत्पन्न हुई कि ॥359॥ मेरा भोजन तो स्वभाव से ही शुद्ध है, सुगन्धित है, स्वादिष्ट है, गरिष्ठ है और मांसादि के संसर्ग से रहित है ॥360॥ स्थूल हिंसा त्याग आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं उन में से मैं एक भी प्रत धारण करने में समर्थ नहीं हूँ फिर अन्य व्रतों की चर्चा ही क्या है ? ॥361॥ मेरा मन मदोन्मत्त हाथी के समान सर्व वस्तुओं में दौड़ता रहता है सो उसे मैं हाथ के समान अपनी भावना से रोक ने में समर्थ नहीं हूँ ॥362॥ जो निर्ग्रन्थ व्रत धारण करना चाहता है वह मानो अग्नि की शिखा को पीना चाहता है, वायु को वस्त्र में बाँधना चाहता है, और सुमेरु को उठाना चाहता है ॥363॥ बड़ा आश्चर्य है कि मैं शूर वीर होकर भी जिस तप एवं व्रत को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ उसी तप एवं व्रत को अन्य पुरुष धारण कर लेते हैं। यथार्थ में वे ही पुरुषोत्तम हैं ॥364॥ रावण सोचता है कि क्या मैं एक यह नियम ले लूं कि परस्त्री कितनी ही सुन्दर क्यों न हो यदि वह मुझे नहीं चाहेगी तो मैं उसे बलपूर्वक नहीं छेड़ें गा ॥365॥ अथवा मुझ क्षुद्र व्यक्ति में इतनी शक्ति कहाँ से आई ? मैं अपने ही चित्त का निश्चय वहन करने में समर्थ नहीं हूँ॥३६६॥ अथवा तीनों लोकों में ऐसी उत्तम स्त्री नहीं है जो मुझे देखकर काम से पीड़ित होती हुई विकलता को प्राप्त न हो जाय?॥३६७।। अथवा जो मनुष्य मान और संस्कार के पात्र स्वरूप मन को धारण करता है उसे अन्य मनुष्य के संसर्ग से दूषित स्त्री के उस शरीर में धैर्यसन्तोष हो ही कैसे की सकता है कि जो अन्य पुरुष के दाँतों द्वारा किये हुए घाव से युक्त ओठ को धारण है. स्वभाव से ही दर्गन्धित है और मल की राशि स्वरूप है॥३६८-३६९।।, ऐसा विचारकर रावण ने पहले तो अनन्तबल केवली को भाव पूर्वक नमस्कार किया। फिर देवों और असुरों के समक्ष स्पष्ट रूप से यह कहा कि ॥370॥ हे भगवन् ! 'जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा' मैं ने यह दृढ़ नियम लिया है ॥371॥ जो समस्त बातों को सुन रहा था तथा जिसका मन सुमेरुके समान स्थिर था ऐसे भानुकर्ण ( कुम्भकर्ण ) ने भी अरहन्त सिद्ध साधु और जिन धर्म इन चार की शरण में जाकर यह नियम लिया कि 'मैं प्रतिदिन प्रातः काल उठकर तथा स्तुति कर अभिषेकपूर्वक जिनेन्द्र देव को पूजा करूँगा। साथ ही जबतक मैं निर्ग्रन्थ साधओं की पूजा नहीं कर लँगा तबतक आज से लेकर आहार नहीं करूंगा'। भानुकर्ण ने यह प्रतिज्ञा बड़े हर्ष से की ॥372-374॥ इसके सिवाय उसने पृथिवीपर घुट ने टेक मुनिराज को आदरपूर्वक नमस्कार कर और भी बड़े-बड़े नियम लिये ॥375॥ तदनन्तर हर्ष से जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे भक्त और असुर मुनिराज को नमस्कार कर अपने-अपने स्थानोंपर चले गये ॥376॥ विशाल पराक्रम का धारी रावण भी आकाश में उड़कर इन्द्र की लीला धारण करता हुआ लंका को ओर चला ॥377॥ उत्तमोत्तम स्त्रियों के समूह ने प्रणामपूर्वक जिसकी पूजा की थी ऐसे रावण ने वस्त्रादि से सुसज्जित अपनी नगरी में प्रवेश किया ॥378॥ जिस प्रकार अनावृत देव मेरुपर्वत की गम्भीर गुहा में रहता है उसी प्रकार रावण भी समस्त वैभव से युक्त अपने निवासगृह में प्रवेश कर रहने लगा ॥379॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जब भव्य जीवों के कर्म उपशम भाव को प्राप्त होते हैं तब वे सुगुरुके मुख से कल्याणकारी उत्तम उपदेश प्राप्त करते हैं ॥380॥ ऐसा जानकर हे प्रबुद्ध एवं उद्यमशील हृदय के धारक भव्य जनो! तुम लोग बार-बार जिनधर्म के सुन ने में तत्पर होओ क्योंकि जो उत्तम विनयपूर्वक धर्म श्रवण करते हैं उन्हें सूर्य के समान विपुल ज्ञान प्राप्त होता है ॥381॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में अनन्तबल केवली के द्वारा धर्मोपदेश का निरूपण करनेवाला चौदहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥14॥ |