कथा :
अथानन्तर स्वामी के दुःख से आकुल इन्द्र के सामन्त, सहस्रार को आगे कर रावण के महल में पहुँचे ॥1॥ द्वारपाल के द्वारा समाचार देकर बड़ी विनय से सब ने भीतर प्रवेश किया और सब प्रणाम कर दिये हुए आसनोंपर यथायोग्य रीति से बैठ गये ॥2॥ तदनन्तर रावण ने सहस्रार की ओर बड़े गौरव से देखा / तब सहस्रार रावण से बोला कि तूने मेरे पुत्र इन्द्र को जीत लिया है अब मेरे कह ने से छोड़ दे ॥3॥ तूने अपनी भुजाओं और पुण्य की उदार महिमा दिखलायी सो ठीक ही है क्योंकि राजा दूसरे के अहंकार को नष्ट कर ने की ही चेष्टा करते हैं ॥4॥ सहस्रार के ऐसा कहनेपर लोकपालों के मुख से भी यही शब्द निकला सो मानो उस के शब्द की प्रतिध्वनि ही निकली थी ॥5॥ तदनन्तर रावण ने हँसकर लोकपालों से कहा कि एक शर्त है उस शर्त से ही मैं इन्द्र को छोड़ सकता हूँ ॥6॥ वह शर्त यह है कि आज से लेकर तुम सब, मेरे नगर के भीतर और बाहर बुहारी देना आदि जो भी कार्य हैं उन्हें करो ॥7॥ अब आप सब को प्रतिदिन ही यह नगरी धूलि, अशुचिपदार्थ, पत्थर, तृण तथा कण्टक आदि से रहित करनी होगी ॥8॥ तथा इन्द्र भी घड़ा लेकर सुगन्धित जल से पृथिवी सींचें। लोक में इस का यही कार्य प्रसिद्ध है ॥9॥ और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित इन की सम्भ्रान्त देवियाँ पंचवर्ण के सुगन्धित फूलों से नगरी को सजावें ॥10॥ यदि आप लोग आदर के साथ इस शर्त से युक्त होकर रहना चाहते हैं तो इन्द्र को अभी छोड़ देता हूँ। अन्यथा इस का छूटना कैसे हो सकता है ? ॥11॥ इतना कह रावण लज्जा से झुके हुए लोकपालों की ओर देखता तथा आप्तजनों के हाथ को अपने हाथ में ताड़ित करता हुआ बार-बार हंस ने लगा। तदनन्तर उसने विनयावनत होकर सहस्रार से कहा। उस समय रावण सभा के हृदय को हरनेवाली अपनी मधुर वाणी से मानो अमृत ही झरा रहा था ॥13॥ उसने कहा कि हे तात ! जिस प्रकार आप इन्द्र के पूज्य हैं उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उस से भी अधिक। इसलिए मैं आप की आज्ञा का उल्लंघन कैसे की कर सकता हूँ ? ॥14॥ यदि यथार्थ में आप-जैसे गुरुजन न होते तो यह पृथिवी पर्वतों से छोड़ो गयी के समान रसातल को चली जाती ॥15॥ चूंकि आप-जैसे पूज्यपुरुष मुझे आज्ञा दे रहे हैं अतः मैं पुण्यवान् हूँ। यथार्थ में आप-जैसे पुरुषों की आज्ञा के पात्र पुण्यहीन मनुष्य नहीं हो सकते ॥16॥ इसलिए हे प्रभो! आज आप विचारकर ऐसा उत्तम कार्य कीजिए जिस से इन्द्र और मुझ में सौहाद्रं उत्पन्न हो जाये / इन्द्र सुख से रहे और मैं भी सुख से रह सकूँ ॥17॥ यह बलवान् इन्द्र मेरा चौथा भाई है, इसे पाकर मैं पृथ्वी को निष्कण्टक कर दूंगा ॥18॥ इस के लोकपाल पहले की तरह ही रहें तथा इस का राज्य भी पहले की तरह ही रहे अथवा उस से भी अधिक ले ले। हम दोनों में भेद को आवश्यकता ही क्या है ? ॥19॥ आप जिस प्रकार इन्द्र को आज्ञा देते हैं उसी प्रकार मुझ में कर ने योग्य कार्य की आज्ञा देते रहें क्योंकि गुरुजनों की आज्ञा ही शेषाक्षत की तरह रक्षा एवं शोभा को करनेवाली है ॥20॥ आप अपने अभिप्राय के अनुसार यहाँ रहें अथवा रथनूपुर नगर में रहें अथवा जहाँ इच्छा हो वहां रहें। हम दोनों आप के सेवक हैं हमारी भूमि हो कौन है ? ॥21॥ इस प्रकार के प्रियवचनरूपी जल से जिस का मन भीग रहा था ऐसा सहस्रार रावण से भी अधिक मधुर वचन बोला ॥22॥ उसने कहा कि हे भद्र ! आप-जैसे सज्जनों की उत्पत्ति समस्त लोगों को आनन्दित करनेवाले गुणों के साथ ही होती है ॥23॥ हे आयुष्मन् ! तुम्हारी यह उत्तम विनय इस संसार में प्रशंसा को प्राप्त है तथा तुम्हारी इस शूरवीरता के आभूषण के समान है ॥24॥ आप के दर्शन ने मेरे इस जन्म को सार्थक कर दिया। वे माता-पिता धन्य हैं जिन्हें तूने अपनी उत्पत्ति में कारण बनाया है ॥25॥ जो समर्थ होकर भी क्षमावान् है, तथा जिस की कीर्ति कुन्द के फूल के समान निर्मल है ऐ से तूने दोषों के उत्पन्न हो ने की आशं का दूर हटा दी है ॥26॥ तू जैसा कह रहा है वह ऐसा ही है। तुझ में सर्व कार्य सम्भव हैं। दिग्गजों की सूंड़ के समान स्थूल तेरी भुजाएँ क्या नहीं कर सकती हैं ॥27॥ किन्तु जिस प्रकार माता नहीं छोड़ी जा सकती उसी प्रकार जन्मभूमि भी नहीं छोड़ी जा सकती क्योंकि वह क्षण-भर के वियोग से चित्त को आकुल कर ने लगती है ॥28॥ हम अपनी भूमि को छोड़ ने के लिए असमर्थ हैं क्योंकि वहाँ हमारे मित्र तथा भाई-बान्धव चातक की तरह उत्कण्ठा से युक्त हो मार्ग देखते हुए स्थित होंगे ॥29॥ हे गुणालय! आप भी तो अपनी कुल-परम्परा से चली आयी लंका की सेवा करते हुए परम प्रीति को प्राप्त हो रहे हैं सो बात ही ऐसी है जन्मभूमि के विषय में क्या कहा जाये ? ॥30॥ इसलिए हम जहाँ महाभोगों की उत्पत्ति होती है अपनी उसी भूमि को जाते हैं / हे देवों के प्रिय ! तुम चिरकाल तक संसार की रक्षा करो ॥31॥ इतना कहकर सहस्रार इन्द्र नामा पुत्र तथा लोकपालों के साथ विजयाध पर्वतपर चला गया। रावण भेज ने के लिए कुछ दूर तक उस के साथ गया ॥32॥ सब लोकपाल पहले की तरह ही अपने-अपने स्थानोंपर रह ने लगे परन्तु पराजय के कारण निःसार हो गये और चलते-फिरते यन्त्र के समान जान पड़ ने लगे ॥33॥ बहुत भारी लज्जा से भरे देव लोगों की ओर जब विजयावासी लोग देखते थे तब वे यह नहीं जान पाते थे कि हम कहां जा रहे हैं ? इस तरह देव लोग सदा भोगों से उदास रहते थे ॥34॥ इन्द्र भी न नगरमें, न बाग-बगीचों में और न कमलों की पराग से पीले जलवाली वापिकाओं में ही प्रीति को प्राप्त होता था अर्थात् पराजय के कारण उसे कहीं अच्छा नहीं लगता था ॥35॥ अब वह स्त्रियोंपर भी अपनी सरल दृष्टि नहीं डालता था फिर शरीर को तो गिनती ही क्या थी ? उसका चित्त सदा लज्जा से भरा रहता था ॥36॥ यद्यपि लोग अन्यान्य कथाओं के प्रसंग छेड़कर उस के पराजय सम्बन्धी दुःख को भुला दे ने के लिए सदा अनुकूल चेष्टा करते थे तो भी उसका चित्त स्वस्थ नहीं होता था ॥37॥ अथानन्तर एक दिन इन्द्र, अपने महल को भीतर विद्यमान, एक खम्भे के अग्रभागपर स्थित, गन्धमादन पर्वत के शिखर के समान सुशोभित जिनालय में बैठा था ॥38॥ विद्वान् लोग उसे घेरकर बैठे थे। वह निरन्तर पराजय का स्मरण करता हुआ शरीर को निरादर भाव से धारण कर रहा था। बैठे-बैठे ही उसने इस प्रकार विचार किया कि ॥39॥ विद्याओं से सम्बन्ध रखनेवाले इस ऐश्वर्य को धिक्कार है जो कि शरद् ऋतु के बादलों के अत्यन्त उन्नत समूह के समान क्षण-भर में विलीन हो गया ॥40॥ वे शस्त्र, वे हाथी, वे योद्धा और वे घोड़े जो कि पहले मुझे आश्चर्य उत्पन्न करते थे आज सब के सब तृण के समान तुच्छ जान पड़ते हैं ॥41॥ अथवा कर्मों की इस विचित्रता को अन्यथा कर ने के लिए कौन मनुष्य समर्थ है ? यथार्थ में अन्य सब पदार्थ कर्मों के बल से ही बल धारण करते हैं ॥42॥ निश्चय ही मेरा पूर्वसंचित पुण्यकर्म जो कि नाना भोगों की प्राप्ति करा ने में समर्थ है परिक्षीण हो चु का है इसीलिए तो यह अवस्था हो रही है ॥43॥ शत्रु के संकट से भरे युद्ध में यदि मर ही जाता तो अच्छा होता क्योंकि उस से समस्त लोक में फैलनेवाली अपकीर्ति तो उत्पन्न नहीं होती ॥44॥ जिस ने शत्रुओं के सिरपर पैर रखकर जीवन बिताया वह मैं अब शत्रु द्वारा अनुमत लक्ष्मी का कैसे की उपभोग करूँ ? ॥45॥ इसलिए अब मैं संसार सम्बन्धी सुख की अभिलाषा छोड़ मोक्षपद की प्राप्ति के जो कारण हैं उन्हीं की उपासना करता हूँ ॥46॥ शत्रु के वेश को धारण करनेवाला रावण मेरा महाबन्धु बनकर आया था जिस ने कि इस असार सुख के स्वाद में लीन मुझ को जागृत कर दिया ॥47॥ इसी बीच में गुणी मनुष्यों के योग्य स्थानों में विहार करते हुए निर्वाणसंगम नामा चारणऋद्धिधारी मुनि वहाँ आकाशमार्ग से जा रहे थे ॥48॥ सो चलते-चलते उन की गति सहसा रुक गयी। तदनन्तर उन्हों ने जब नीचे दृष्टि डाली तो मन्दिर के दर्शन हुए ॥49॥ प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी महामुनि मन्दिर में विराजमान जिन-प्रतिमा की वन्दना कर ने के लिए शीघ्र ही आकाश से नीचे उतरे ॥50॥ राजा इन्द्र ने बड़े सन्तोष से उठकर जिन की पूजा की थी ऐ से उन मुनिराज ने विधिपूर्वक जिनप्रतिमा को नमस्कार किया ॥51॥ तदनन्तर जब मुनिराज जिनेन्द्रदेव की वन्दना कर चुप बैठ गये तब इन्द्र उन के चरणों को नमस्कार कर साम ने बैठ गया और अपनी निन्दा कर ने लगा ॥52॥ मुनिराज ने समस्त संसार के वृत्तान्त का अनुभव करा ने में अतिशय निपुण उत्कृष्ट वचनों से उसे सन्तोष प्राप्त कराया ॥53॥ अथानन्तर इन्द्र ने मुनिराज से अपना पूर्वभव पूछा सो गुणों के समूह से विभूषित मुनिराज उस के लिए इस प्रकार पूर्वभव कह ने लगे ॥54॥ हे राजन् ! चतुगंति सम्बन्धी अनेक योनियों के दुःखरूपी महावन में भ्रमण करता हुआ एक जीव शिखापदनामा नगर में मनुष्य गति को प्राप्त हो दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ। वहाँ स्त्री पर्याय से युक्त हो वह जीव 'कुलवान्ता' इस सार्थक नाम को धारण करनेवाला हुआ ॥55-56॥ कुलवान्ता के नेत्र सदा कीचर से युक्त रहते थे, उस की नाक चपटी थी और उसका शरीर सैकड़ों बीमारियों से युक्त था। इतना होनेपर भी उस के भोजन का ठिकाना नहीं था। वह कर्मोदय के कारण जिस किसी तरह लोगों का जूठन खाकर जीवित रहती थी ॥57॥ उस के वस्त्र अत्यन्त मलिन थे, दौर्भाग्य उसका पीछा कर रहा था, सारा शरीर अत्यन्त रूक्ष था, हाथ-पैर आदि अंग फटे हुए थे और खोटे केश बिखरे हुए थे। वह जहाँ जाती थी वहीं लोग उसे तंग करते थे। इस तरह वह कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर सकती थी ॥58॥ अन्त समय शुभमति हो उसने एक मुहूर्त के लिए अन्न का त्याग कर अनशन धारण किया जिस से शरीर त्याग कर किपुरुषनामा देव की क्षीरधारा नाम की स्त्री हुई ॥59॥ वहाँ से च्युत होकर रत्नपूर नगर में धरणी और गोमुख नामा दम्पती के सहस्रभाग नामक पुत्र हुआ ॥60॥ वहाँ उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन प्राप्त कर अणुव्रतों का धारी हुआ और अन्त में मरकर शुक्र नामा स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ॥61॥ वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र के रत्नसंचयनामा नगर में मणिनामक मन्त्री की गुणावली नामक स्त्री से सामन्तवर्धन नामक पुत्र हुआ ॥62॥ सामन्तवर्धन अपने राजा के साथ विरक्त हो महाव्रत का धारक हुआ। वहाँ उसने अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया, तत्त्वार्थ के चिन्तन में निरन्तर मन लगाया, इन किये, निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और कषायोंपर विजय प्राप्त की। अन्त समय मरकर वह ग्रैवेयक गया सो अहमिद्र होकर चिरकाल तक वहाँ के सुख भोगता रहा। अन्त समय में वहाँ से च्युत हो रथनूपुर नगर में सहस्रार नामक विद्याधर की हृदयसुन्दरी रानी से इन्द्र नाम को धारण करनेवाला तू विद्याधरों का राजा हुआ है। पूर्व अभ्यास के कारण ही तेरा मन इन्द्र के सुख में लीन रहा है ॥63-66॥ सो हे इन्द्र ! मैं विद्याओं से युक्त होता हुआ भी शत्रु से हार गया हूँ, इस प्रकार अपने आप के विषय में अनादर को धारण करता हुआ तू विषादयुक्त हो व्यर्थं ही क्यों सन्ताप कर रहा है ॥67॥ अरे निर्बुद्धि ! तू कोदों बोकर धान को व्यर्थ ही इच्छा करता है। प्राणियों को सदा कर्मों के अनुकूल ही फल प्राप्त होता है ॥68॥ तुम्हारे भोगोपभोग का साधन जो पूर्वोपार्जित कर्म था वह अब क्षीण हो गया है सो कारण के बिना कार्य नहीं होता है इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥69॥ तेरे इस पराभव में रावण तो निमित्तमात्र है। तूने इसी जन्म में कम किये हैं उन्हीं से यह पराभव प्राप्त हुआ है ॥70॥ तूने पहले कोड़ा करते समय जो अन्याय किया है उसका स्मरण क्यों नहीं करता है ? ऐश्वर्य से उत्पन्न हुआ तेरा मद चूंकि अब नष्ट हो चु का है इसलिए अब तो पिछली बात का स्मरण कर ॥71॥ जान पड़ता है कि बहुत समय हो जाने के कारण वह वृत्तान्त स्वयं तेरी बुद्धि में नहीं आ रहा है इसलिए एकाग्रचित्त होकर सुन, मैं कहता हूँ॥७२॥ अरिंजयपुर नगर में वह्निवेगानामा विद्याधर राजा था सो उसने वेगवती रानी से उत्पन्न आहल्या नामक पुत्री का स्वयंवर रचा था ॥73॥ उत्सुकता से भरे तथा यथायोग्य वैभव से शोभित समस्त विद्याधर दक्षिण श्रेणी छोड़-छोड़कर उस स्वयंवर में आये थे ॥74॥ उत्कृष्ट सम्पदा से युक्त होकर आप भी वहां गये थे तथा चन्द्रावत नगर का राजा आनन्दमाल भी वहां आया था ॥75॥ सर्वांगसुन्दरी कन्या ने पूर्व कर्म के प्रभाव से समस्त विद्याधरों को छोड़कर आनन्दमाल को वरा ॥76॥ सो आनन्दमाल उसे विवाहकर इच्छा करते ही प्राप्त होनेवाले भोगों का उस तरह उपभोग कर ने लगा जिस तरह कि इन्द्र स्वर्ग में प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होनेवाले भोगों का उपभोग करता है ॥77॥ ईर्ष्याजन्य बहुत भारी क्रोध के कारण तू उसी समय से उस के साथ अत्यधिक शत्रुता कर ने लगा ॥78॥ तदनन्तर कर्मों की अनुकूलता के कारण आनन्दमाल को सहसा यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि यह शरीर अनित्य है अतः इस से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है ॥79॥ मैं तो तप करता हूँ जिस से संसार सम्बन्धी दुःख का नाश होगा। धोखा देनेवाले भोगों में क्या आशा रखना है ? ॥80॥ प्रबोध को प्राप्त हुई अन्तरात्मा से ऐसा विचारकर उसने सर्व परिग्रह का त्यागकर उत्कृष्ट तप धारण कर लिया ॥81॥ एक दिन हंसावली नदी के किनारे रथावर्त नामा पर्वतपर वह प्रतिमा योग से विराजमान था सो तूने पहचान लिया ॥82॥ दर्शनरूपी ईन्धन से जिस की पिछली क्रोधाग्नि भड़क उठी थी ऐ से तूने क्रीड़ा करते हुए अहंकारवश उस की बार-बार हंसी की थी ॥83॥ तू कह रहा था कि अरे ! तू तो कामभोग का अतिशय प्रेमी आहल्या का पति है, इस समय यहाँ इस तरह क्यों बैठा है ? ॥84॥ ऐसा कहकर तूने उन्हें रस्सियों से कसकर लपेट लिया फिर भी उन का शरीर पर्वत के समान निष्कम्प बना रहा और उन का मन तत्त्वार्थ की चिन्तना में लीन हो ने से स्थिर रहा आया ॥85॥ इस प्रकार आनन्दमाल मुनि तो निर्विकार रहे पर उन्हीं के समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे जो कि उन के भाई थे तेरे द्वारा उन्हें अनादृत होता देख क्रोध से दुःखी हो गये ॥86॥ वे मुनि ऋद्धिधारी थे तथा प्रतिमायोग से विराजमान थे सो तेरे कुकृत्य से दुःखी होकर उन्हों ने प्रतिमायोग का संकोचकर तथा लम्बी और गरम श्वास भरकर तेरे लिए इस प्रकार शाप दी ॥87॥ कि चूंकि तूने इन निरपराध मुनिराज का तिरस्कार किया है इसलिए तू भी बहुत भारी तिरस्कार को प्राप्त होगा ॥88॥ वे मुनि अपनी अपरिमित श्वास से तुझे भस्म ही कर देना चाहते थे पर तेरी सर्वश्रीनामक स्त्री ने उन्हें शान्त कर लिया ॥८९॥ वह सर्वश्री सम्यग्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनों की पूजा करनेवाली थी इसलिए उत्तम हृदय के धारक मुनि भी उस की बात मानते थे ॥90॥ यदि वह साध्वी उन मुनिराज को शान्त नहीं करती तो उन की क्रोधाग्नि को कौन रोक सकता था ? ॥91॥ तीनों लोकों में वह कार्य नहीं है जो तप से सिद्ध नहीं होता हो। यथार्थ में तप का बल सब बलों के शिरपर स्थित है अर्थात् सब से श्रेष्ठ है ॥92॥ इच्छानुकूल कार्य करनेवाले तपस्वी साधु की जैसी शक्ति, कान्ति, द्युति, अथवा धुति होती है वैसी इन्द्र की भी सम्भव नहीं है ॥93॥ जो मनुष्य साधुजनों का तिरस्कार करते हैं वे तिर्यंच गति और नरक गति में महान् दुःख पाते हैं ॥94॥ जो मनुष्य मन से भी साधुजनों का पराभव करता है वह पराभव उसे परलोक तथा इस लोक में परम दुःख देता है ॥95॥ जो दुष्ट चित्त का धारी मनुष्य निर्ग्रंथ मुनि को गाली देता है अथवा मारता है उस पापी मनुष्य के विषय में क्या कहा जाय ? ॥96॥ मनुष्य मन वचन काय से जो कर्म करते हैं वे छूटते नहीं हैं और प्राणियों को अवश्य ही फल देते हैं ॥97॥ इस प्रकार कर्मों के पुण्य पापरूप फल का विचारकर अपनी बुद्धि धर्म में धारण करो और अपने आप को दुःखों से बचाओ ॥98॥ इस प्रकार मुनिराज के कहनेपर इन्द्र को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आया। उन्हें स्मरण करता हुआ वह आश्चर्य को प्राप्त हुआ। तदनन्तर बहुत भारी आदर से भरे इन्द्र ने निर्ग्रन्थ मुनिराज को नमस्कार कर कहा कि ॥99॥ हे भगवन् ! आप के प्रसाद से मुझे उत्कृष्ट रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है इसलिए मैं मानता हूँ कि अब मेरे समस्त पाप मानो क्षण भर में ही छूट जानेवाले हैं ॥100॥ जो बोधि अनेक जन्मों में भी प्राप्त नहीं हुई वह साधु समागम से प्राप्त हो जाती है इसलिए कहना पड़ता है कि साधुसमागम से संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती ॥101॥ इतना कहकर निर्वाणसंगम मुनिराज तो उधर इन्द्र के द्वारा वन्दित हो यथेच्छ स्थानपर चले गये इधर इन्द्र भी गृहवास से अत्यन्त निर्वेद को प्राप्त हो गया ॥102॥ उसने जान लिया कि रावण पुण्यकर्म के उदय से परम अभ्युदय को प्राप्त हुआ है। उसने महापर्वत के तटपर विद्यमान वीर्यदंष्ट्र को बार-बार स्तुति की ॥103॥ मनुष्य पर्याय को जल के बबूला के समान निःसार जानकर उसने धर्म में अपनी बुद्धि निश्चल की । अपने पाप कार्यों की बार-बार निन्दा की ॥104॥ इस प्रकार महापुरुष इन्द्र ने रथनू पुर नगर में पुत्र के लिए राज्य-सम्पदा सौंपकर अन्य अनेक पुत्रों तथा लोकपालों के समूह के साथ समस्त कर्मो को करनेवाली जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर ली। उस समय उसका मन अत्यन्त विशुद्ध था तथा समस्त परिग्रह का उसने त्याग कर दिया था ॥105-106॥ यद्यपि उसका शरीर इन्द्र के समान लोकोत्तर भोगों से लालित हुआ था तो भी उसने अन्यजन जिसे धारण कर ने में असमर्थ थे ऐसा तप का भार धारण किया था ॥107॥ प्रायः कर के महापुरुषों की रुद्र कार्यों में जैसी अद्भुत शक्ति होती है वैसी ही शक्ति विशुद्ध कार्यों में भी उत्पन्न हो जाती है ॥108॥ तदनन्तर दीर्घ काल तक तपकर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से कर्मो का क्षय कर इन्द्र निर्वाण धाम को प्राप्त हुआ ॥109॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि राजन् ! देखो, बड़े पुरुषों के चरित्र अतिशय शक्ति से सम्पन्न तथा आश्चयं उत्पन्न करनेवाले हैं। ये चिर काल तक भोगों का उपार्जन करते हैं और अन्त में उत्तम सुख से युक्त निर्वाण पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥110॥ इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि बड़े पुरुष समस्त परिग्रह का संग छोड़कर ध्यान के बल से क्षण-भर में पापों का नाश कर देते हैं ॥111॥ क्या बहुत काल से इकट्ठी को हुई ईन्धन की बड़ी राशि को कणमात्र अग्नि क्षणभर में विशाल महिमा को प्राप्त हो भस्म नहीं कर देती ? ॥112॥ ऐसा जानकर हे भव्य जनो! यत्न में तत्पर हो अन्तःकरण को अत्यन्त निर्मल करो। मृत्यु का दिन आनेपर कोई भी पीछे नहीं हट सकते अर्थात् मृत्यु का अवसर आनेपर सब को मरना पड़ता है। इसलिए सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य की प्राप्ति करो ॥113॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में इन्द्र के निर्वाण का कथन करनेवाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥13॥ |