कथा :
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगध देश के मण्डनस्वरूप श्रेणिक ! यह तो मैंने तुम्हारे लिए महात्मा श्रीशैल के जन्म का वृत्तान्त कहा। अब पवनंजय का वृत्तान्त सुनो ॥1॥ पवनंजय वायु के समान शीघ्र ही रावण के पास गया और उसकी आज्ञा पाकर नानाशस्त्रों से व्याप्त युद्ध-क्षेत्र में वरुण के साथ युद्ध करने लगा ॥2॥ चिरकाल तक युद्ध करने के बाद वरुण खेद-खिन्न हो गया सो पवनंजय ने उसे पकड़ लिया। खर-दूषण को वरुण ने पहले पकड़ रखा था सो उसे छड़ाया और वरुण को रावण के समीप ले जाकर तथा सन्धि कराकर उसका आज्ञाकारी किया। रावण ने पवनंजय का बड़ा सम्मान किया ॥3-4॥ तदनन्तर रावण की आज्ञा लेकर हृदय में कान्ता को धारण करता हआ पवनंजय महासामन्तों के साथ शीघ्र ही अपने नगर में वापस आ गया ॥5॥ उत्तमोत्तम मंगल द्रव्यों को धारण करनेवाले नगरवासी जनों ने जिसकी अगवानी की सा पवनंजय देदीप्यमान ध्वजाओं. तोरणों तथा मालाओं से अलंकत नगर में प्रविष्ट हआ ॥6॥ तदनन्तर अपना प्रारम्भ किया हआ कर्म छोड झरोखों में आकर खडी हई नगरवासिनी स्त्रियों के समूह जिसे बड़े हर्ष से देख रहे थे ऐसा पवनंजय अपने महल की ओर चला ॥7॥ तत्पश्चात् जिसका अर्थ आदि के द्वारा सम्मान किया गया था और आत्मीयजनों ने मंगलमय वचनों से जिसका अभिनन्दन किया था ऐसे पवनंजय ने महल में प्रवेश किया ॥8॥ वहाँ जाकर इसने गुरुजनों को नमस्कार किया और अन्य जनों ने इसे नमस्कार किया। फिर कुशलवार्ता करता हुआ क्षणभर के लिए सभामण्डप में बैठा ॥9॥ तदनन्तर उत्कण्ठित होता हुआ अंजना के महल में चढ़ा। उस समय वह पहले की भावना से युक्त था और अकेला प्रहसित मित्र ही उसके साथ था ॥10॥ वहाँ जाकर जब उसने महल को प्राण-वल्लभा से रहित देखा तो उसका मन् क्षण एक में ही निर्जीव शरीर की तरह नीचे गिर गया ॥11॥ उसने प्रहसित से कहा कि मित्र ! यह क्या है ? यहाँ कमल-नयना अंजना सुन्दरी नहीं दिख रही है ॥12॥ उसके बिना यह घर मुझे वन अथवा आकाश के समान जान पड़ता है। अतः शीघ्र ही उसका समाचार मालम किया जाये॥१३॥ तदनन्तर आप्तवर्ग से सब समाचार जानकर प्रहसित ने हृदय को क्षुभित करनेवाला सब समाचार ज्यों का त्यों पवनंजय को सुना दिया ॥14॥ उसे सुन, पवनंजय आत्मीयजनों को छोड़ उसी क्षण मित्र के साथ उत्कण्ठित होता हुआ महेन्द्रनगर जाने के उद्यत हआ ॥15॥ महेन्द्रनगर के निकट पहुँचकर पवनंजय. प्रिया को गोद में आयी समझ हर्षित होता हुआ मित्र से बोला कि हे मित्र ! देखो, इस नगर की सुन्दरता देखो जहाँ सुन्दर विभ्रमों को धारण करनेवाली प्रिया विद्यमान है ॥16-17॥ और जहाँ वर्षाऋतु के मेघों के समान कान्ति के धारक उद्यान के वृक्षों से घिरी महलों की पंक्तियाँ कैलास पर्वत के शिखरों के समान जान पड़ती है ॥18 / इस प्रकार कहता और अभिन्न चित्त के धारक मित्र के साथ वार्तालाप करता हुआ वह महेन्द्रनगर में पहुंचा ॥19॥ तदनन्तर लोगों के समूह से पवनंजय को आया सुन इसका श्वसुर अर्घादि की भेंट लेकर आया ॥20॥ आगे चलते हुए श्वसुर ने प्रेमपूर्ण मन से उसे अपने स्थान में प्रविष्ट किया और नगरवासी लोगों ने उसे बड़े आदर से देखा ॥21॥ प्रिया के दर्शन की लालसा से इसने श्वसुर के घर में प्रवेश किया। वहाँ यह परस्पर वार्तालाप करता हुआ मुहूर्त भर बैठा ॥22॥ परन्तु वहाँ भी जब इसने कान्ता को नहीं देखा तब विरह से आतुर होकर इसने महल के भीतर रहनेवाली किसी बालि का से पूछा कि हे बाले ! क्या तू जानती है कि यहाँ मेरी प्रिया अंजना है ? बालिका ने यही दुःखदायी उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारी प्रिया नहीं है ॥23-24॥ तदनन्तर इस उत्तर से पवनंजय का हृदय मानो वज्र से ही चूणं हो गया, कान तपाये हुए खारे पानी से मानो भर गये और वह स्वयं निर्जीव की भांति निश्चल रह गया। शोकरूपी तुषार के सम्पर्क से उसका मुखकमल कान्तिरहित हो गया ॥25-26॥ तदनन्तर वह किसी 'छल से श्वसुर के नगर से निकलकर अपनी प्रिया का समाचार जान ने के लिए पृथिवी में भ्रमण करने लगा ॥27॥ इधर जब प्रहसित मित्र को मालूम हुआ कि पवनंजय मानो वायु की बीमारी से ही दुःखी हो रहा है तब उसके दुःख से अत्यन्त दुःखी होते हुए उसने सान्त्वना के साथ कहा कि हे मित्र! खिन्न क्यों होते हो ? चित्त को निराकुल करो। तुम्हें शीघ्र ही प्रिया दिखलाई देगी, अथवा यह पृथिवी है ही कितनी-सी ? ॥28-29॥ पवनंजय ने कहा कि हे मित्र ! तुम शीघ्र ही सूर्यपुर जाओ और वहाँ गुरुजनों को मेरा यह समाचार बतला दो ॥30॥ मैं पृथिवी की अनन्य सुन्दरी प्रिया को प्राप्त किये बिना अपना जीवन नहीं मानता इसलिए उसे खोज ने के लिए समस्त पृथिवी में भ्रमण करूंगा ॥32॥ यह कहनेपर प्रहसित बड़े दुःख से किसी तरह पवनंजय को छोड़कर दीन होता हआ सूर्यपुर की ओर गया ॥32॥ इधर पवनंजय भी अम्बरगोचर हाथीपर सवार होकर समस्त पृथिवी में विचरण करता हुआ ऐसा विचार करने लगा कि जिसका कमल के समान कोमल शरीर शोकरूपी आताप से मुरझा गया होगा ऐसी मेरी प्रिया हृदय से मुझे धारण करती हुई कहाँ गयी होगी? ॥33-34॥ जो विधुरतारूपी अटवी के मध्य में स्थित थी, विरहाग्नि से जल रही थी और निरन्तर भयभीत रहती थी ऐसी वह बेचारी किस दिशा में गयी होगी ? ॥35॥ वह सती थी, सरलता से सहित थी तथा गर्भ का भार धारण करनेवाली थी। ऐसा न हुआ हो कि वसन्तमाला ने उसे महावन में अकेली छोड़ दो हो ॥36॥ जिस के नेत्र शोक से अन्धे हो रहे होंगे ऐसी वह प्रिया विषम मार्ग में जाती हुई कदाचित् किसी पुरा ने कुएं में गिर गयी हो अथवा किसी भूखे अजगर के मुंह में जा पड़ी हो ॥37॥ अथवा गर्भ के भार से क्लेशित तो थी ही जंगली जानवरों का भयंकर शब्द सुन भयभीत हो उसने प्राण छोड़ दिये हों ॥38॥ अथवा विन्ध्याचल के निर्जल वन में प्यास से पीड़ित होने के कारण जिस के तालु और कण्ठ सूख रहे होंगे ऐसी मेरी प्राणतुल्य प्रिया प्राणरहित हो गयी होगी ॥39॥ अथवा वह बड़ी भोली थी कदाचित् अनेक मगरमच्छों से भरी गंगा में उतरी हो और तीव्र वेगवाला पानी उसे बहा ले गया हो ॥40॥ अथवा डाभ की अनियों से विदीर्ण हुए जिस के पैरों से रुधिर बह रहा होगा ऐसी प्रिया एक डग भी चलने के लिए असमर्थ हो मर गयो होगी ॥41॥ अथवा कोई आकाशगामी दुष्ट विद्याधर हर ले गया हो। बड़े खेद की बात है कि कोई मेरे लिए उसका समाचार भी नहीं बतलाता ॥42॥ अथवा दुःख के कारण गर्भ-भ्रष्ट हो आर्यिकाओं के स्थान में चली गयी हो ? धर्मानुगामिनी तो वह थी ही ॥43॥ इस प्रकार विचार करते हुए बुद्धि-विह्वल पवनंजय ने पृथिवी में विहारकर जब समस्त इन्द्रियों और मन को हरनेवाली प्रिया को नहीं देखा ॥44॥ तब विरह से जलते हुए उसने समस्त संसार को सूना देख चित्त में मरने का दृढ़ निश्चय किया ॥45॥ अंजना ही पवनंजय की सर्वस्वभूत थी अतः उसके बिना उसे न पर्वतों में आनन्द आता था, न वृक्षों में और न मनोहर नदियों में ही ॥46॥ योंही पवनंजय ने उसका समाचार जान ने के लिए वृक्षों से भी पूछा सो ठीक ही है क्योंकि दुःखीजन विवेक से रहित हो ही जाते हैं ॥47॥ अथानन्तर भूतरव नामक वन में जाकर वह हाथी से उतरा और प्रिया का ध्यान करता हुआ क्षण-भर के लिए मुनि के समान स्थिर बैठ गया ॥48॥ सघन वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग उसपर पड़ते हुए घाम को रो के हुए थे। वहाँ उसने शस्त्र तथा कवच उतारकर अनादर से पृथिवीपर फेंक दिये ॥49॥ अम्बरगोचर नाम का हाथी बड़ी विनय से उसके सामने बैठा था और पवनंजय अत्यधिक थकावट से युक्त थे। उन्होने अत्यन्त मधुर वाणी में हाथी से कहा कि ॥50॥ हे गजराज ! अब तुम जाओ, जहाँ तुम्हारी इच्छा चाहे भ्रमण करो, अंजना का समाचार जान ने के लिए मोह से युक्त होकर मैंने तुम्हारा जो पराभव किया है उसे क्षमा करो ॥51॥ इस नदी के किनारे हरी-हरी घास और शल्ल के वृक्ष के पल्लवों को खाते हुए तुम हस्तिनियों के झुण्ड के साथ यथेच्छ भ्रमण करो ॥52॥ पवनंजय ने हाथी से यह सब कहा अवश्य पर वह किये हुए उपकार को जाननेवाला था और स्वामी के साथ स्नेह करने में उदार था इसलिए उसने उत्तम बन्धु की तरह शोकपीड़ित स्वामी का समीप्य नहीं छोड़ा ॥53॥ पवनंजय ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि मैं उस मनोहारिणी प्रिया को नहीं पाऊँगा तो इस वन में मर जाऊँगा ॥54॥ जिसका मन प्रिया में लग रहा था ऐसे पवनंजय की नाना संकल्पों से युक्त एक रात्रि वन में चार वर्ष से भी अधिक बड़ी मालूम हुई थी ॥55॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! यह वृत्तान्त तो मैंने तुझ से कहा। अब पवनंजय के घर से चले जानेर माता-पिता को क्या चेष्टा हुई यह कहता हूँ सो सुन ॥56॥ मित्र ने जाकर जब पवनंजय का वृत्तान्त कहा तब उसके समस्त भाई-बन्धु परम शोक को प्राप्त हुए ॥57॥ अथानन्तर पुत्र के शोक से पोड़ित केतुमती अश्रुओं की धारा से दुर्दिन उपजाती हुई प्रहसित से बोली कि हे प्रहसित! क्या तझे ऐसा करना उचित था जो त मेरे पत्र को छोडकर अकेला आ गया ॥58-59॥ इसके उत्तर में प्रहसित ने कहा कि हे अम्ब ! उसी ने प्रयत्न कर मुझे भेजा है। उसने मुझे किसी भी भाव से वहाँ नहीं ठहर ने दिया ॥60॥ केतुमती ने कहा कि वह कहाँ गया है ? प्रहसित ने कहा कि जहाँ अंजना है। अंजना कहाँ है ? ऐसा केतुमती ने पुनः पूछा तो प्रहसित ने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। जो मनुष्य बिना परीक्षा किये सहसा कार्य कर बैठते हैं उन्हें पश्चात्ताप होता ही है ॥61-62 / प्रहसित ने केतुमती से यह भी कहा कि तुम्हारे पुत्र ने यह निश्चित प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं प्रिया को नहीं देखूगा तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होऊँगा ॥63॥ यह सुनकर केतुमती अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगी। उस समय जिनके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी स्त्रियों का समूह उसे घेरकर बैठा था ॥64॥ वह कहने लगी कि सत्य को जाने बिना मुझ पापिनी ने क्या कर डाला जिससे पुत्र जीवन के संशय को प्राप्त हो गया ॥65॥ क्रूर अभिप्राय को धारण करनेवाली कुटिलचित्त तथा बिना विचारे कार्य करनेवाली मुझ मूर्खा ने क्या कर डाला? ॥66॥ वायुकुमार के द्वारा छोड़ा हुआ यह नगर शोभा नहीं देता। यही नगर क्यों? विजयार्द्ध पर्वत ही शोभा नहीं देता और न रावण की सेना ही उसके बिना सुशोभित है ॥67॥ जो रावण के लिए भी कठिन थी ऐसी सन्धि युद्ध में जिसने करा दी मेरे उस पुत्र के समान पृथ्वीपर दूसरा मनुष्य है हो कौन ? ॥68॥ हाय बेटा ! तू तो विनय का आधार था, गुरुजनों की में सदा तत्पर रहता था. जगत-भर में अद्वितीय सन्दर था. और तेरे गण सर्वत्र प्रसिद्ध थे फिर भी तू कहाँ चला गया ॥69॥ हे मातृवत्सल ! जो तेरे दुःखरूपी अग्नि से सन्तप्त हो रही है ऐसी अपनी माता को प्रत्युत्तर देकर शोकरहित कर ॥70॥ इस प्रकार विलाप करती और अत्यधिक छाती कूटती हुई केतुमती को राजा प्रह्लाद सान्त्वना दे रहे थे पर शोक के कारण उनके नेत्रों से भी टप-टप आंसू गिरते जाते थे ॥71॥ तदनन्तर पुत्र को पा ने के लिए उत्सुक राजा प्रह्लाद समस्त बन्धुजनों के साथ प्रहसित को आगे कर अपने नगर से निकले ॥72॥ उन्होने दोनों श्रेणियों में रहनेवाले समस्त विद्याधरों को बुलवाया सो अपने-अपने परिवार सहित समस्त विद्याधर प्रेमपूर्वक आ गये ॥73॥ जिनके नाना प्रकार के वाहन आकाश में देदीप्यमान हो रहे थे और जिनके नेत्र नीचे गुफाओं में पड़ रहे थे ऐसे वे समस्त विद्याधर बड़े यत्न से पृथ्वी की खोज करने लगे ॥74॥ इधर प्रह्लाद के दूत से राजा प्रतिसूर्य को जब यह समाचार मालूम हुआ तो हृदय से शोक धारण करते हुए उसने यह समाचार अंजना से कहा ॥75॥ अंजना पहले से ही दुःखी थी अब इस भारी दुःख से और भी अधिक दुःखी होकर वह करुण विलाप करने लगी। विलाप करते समय उसका मुख अश्रुओं से धुल रहा था ॥76॥ वह कहने लगी कि हाय नाथ ! आप ही तो मेरे हृदय के बन्धन थे फिर निरन्तर क्लेश भोगनेवाली अबला को छोड़कर आप कहां चले गये ? ॥77॥ क्या आज भी आप उस पुरातन क्रोध को नहीं छोड़ रहे हैं जिससे समस्त विद्याधरों के लिए अदृश्य हो गये हैं ॥78॥ हे नाथ ! मेरे लिए अमृततुल्य एक भी प्रत्युत्तर दीजिए क्योंकि महापुरुष आपत्ति में पड़े हुए प्राणियों का हित करना कभी नहीं छोड़ते ॥79॥ मैंने अब तक आपके दर्शन की आकांक्षा से ही प्राण धारण किये हैं। अब मुझे इन पापी प्राणों से क्या प्रयोजन है ? |80॥ मैं पति के साथ समागम को प्राप्त होऊँगी, ऐसे जो मनोरथ मैंने किये थे वे आज दैव के द्वारा निष्फल कर दिये गये ॥81॥ मुझ मन्दभागिनी के लिए प्रिय उस अवस्था को प्राप्त हुए होंगे जिसकी कि यह क्रूर हृदय बार-बार आशंका करता रहा है ॥82॥ वसन्तमाले ! देख तो यह क्या हो रहा है? मुझे असह्य विरह के अंगाररूपी शय्यापर कैसे की लोटना पड़ रहा है ? ॥83॥ वसन्तमाला ने कहा कि हे देवि ! ऐसी अमांगलिक रट मत लगाओ। मैं निश्चित कहती हूँ कि भर्ता तुम्हारे समीप आयेगा ॥84॥ 'हे कल्याणि ! मैं तेरे भर्ता की अभी हाल ले आता हूँ' इस प्रकार अंजना को बड़े दुःख से आश्वासन देकर राजा प्रतिसूर्य मन के समान तीव्र वेगवाले सुन्दर विमान में चढ़कर आकाश में उड़ गया। वह पृथिवी को अच्छी तरह देखता हुआ जा रहा था ॥85-86॥ इस प्रकार विजयावासी विद्याधर और त्रिकूटाचलवासी राक्षस राजा प्रतिसूर्य के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से पृथिवी का अवलोकन करने लगे ॥87॥ अथानन्तर उन्होने भूतरव नामक अटवी में वर्षा ऋतु के मेघ के समान विशाल आकार को धारण करनेवाला एक बड़ा हाथी देखा ॥48॥ उस हाथी को उन्होने पहले अनेक बार देखा था इसलिए 'यह पवनकुमार का कालमेघ नामक हाथी है' इस प्रकार पहचान लिया ॥89॥ 'यह वही हाथी है' इस प्रकार सब विद्याधर हर्षित हो जोर से हल्ला करते हुए परस्पर एक दूसरे से कहने लगे ॥90॥ जो नीलगिरि अथवा अंजनगिरि के समान सफेद है तथा जिसकी सूंड योग्य प्रमाण से सहित है ऐसा यह हाथी जिस स्थान में है निःसन्देह उसी स्थान में पवनंजय को होना चाहिए यह हाथी मित्र के समान सदा उसके समीप ही रहता है ॥91-92॥ इस प्रकार कहते हए सब विद्याधर उस हाथी के पास गये। चूंकि वह हाथी निरंकुश था इसलिए विद्याधरों का मन कुछ. कुछ भयभीत हो रहा था ॥93॥ उन विद्याधरों के महाशब्द से वह महान् हाथी सचमुच ही क्षुभित हो गया। उस समय उसका रोकना कठिन था, उसका समस्त भयंकर शरीर चंचल हो रहा था और वेग अत्यन्त तीव्र था॥९४॥ उसके दोनों कपोल मद से भीगे हुए थे, कान खड़े थे और वह जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। वह जिस दिशा में देखता था उसी दिशा के विद्याधर क्षुभित हो जाते थे-भय से भाग ने लगते थे ॥95॥ उस जनसमूह को देखकर स्वामी की रक्षा करने में तत्पर हाथी पवनंजय को समीपता को नहीं छोड़ रहा था ॥96॥ वह लीलासहित सूंड़ को घुमाता और अपने तीक्ष्ण दशन से हो समस्त विद्याधरों को भयभीत करता हुआ पवनंजय के चारों ओर मण्डलाकार भ्रमण कर रहा था ॥97॥ तदनन्तर विद्याधर यत्नपूर्वक हस्तिनियों से उस हाथी को घेरकर तथा वश में कर उत्सुक योग्य होते हुए उस स्थानपर उतरे ॥98॥ वशीकरण के समस्त उपायों में स्त्रीसमागम को छोड़कर और दूसरा उत्तम उपाय नहीं है ॥99॥ अथानन्तर जिसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था, चित्रलिखित के समान जिसका आकार था और जो मौन से बैठा था ऐसे पवनंजय को विद्याधरों ने देखा ॥100॥ यद्यपि सब विद्याधरों ने उसका यथायोग्य उपचार किया तो भी वह मुनि के समान चिन्ता में निमग्न बैठा रहा-किसी से कुछ नहीं कहा ॥101॥ माता-पिता ने पुत्र की प्रीति से उसका मस्तक सूंघा, बार-बार आलिंगन किया और इस हर्ष से उनके नेत्र आँसुओं से आच्छादित हो गये ॥102॥ उन्होने कहा भी कि हे बेटा ! तुम माता-पिता को छोड़कर ऐसी चेष्टा क्यों करते हो? तुम तो विनीत मनुष्यों में सब से आगे थे ॥103॥ तुम्हारा शरीर उत्कृष्ट शय्यापर पड़ने के र तम ने आज इसे भयंकर एवं निर्जन वन के बीच वक्ष की कोटर में क्यों डाल रखा है ? ॥104॥ माता-पिता के इस प्रकार कहने पर भी उसने एक शब्द नहीं कहा। केवल इशारे से यह बता दिया कि मैं मरने का निश्चय कर चु का हूँ ॥105॥ मैंने यह व्रत कर रखा है कि अंजना को पाये बिना मैं न भोजन करूँगा और न बोलूंगा। फिर इस समय वह व्रत के से तोड़ दूँ ? ॥106॥ अथवा प्रिया की बात जाने दो, सत्य-व्रत की रक्षा करता हुआ मैं इन माता-पिता को किस प्रकार सन्तुष्ट करूं यह सोचता हुआ वह कुछ व्याकुल हुआ ॥107॥ तदनन्तर जिसका मस्तक नीचे की ओर झुक रहा था और जो मौन से चुपचाप बैठा था ऐसे पवनंजय को मरने के लिए कृतनिश्चय जानकर विद्याधर शोक को प्राप्त हुए ॥108॥ जिनके हृदय अत्यन्त दीन थे और जो स्वेद को धारण करनेवाले हाथों से पवनंजय के शरीर का स्पर्श कर रहे थे ऐसे सब विद्याधर उसके माता-पिता के साथ विलाप करने लगे।।१०९। तदनन्तर हँसते हुए प्रतिसूर्य ने सब विद्याधरों से कहा कि आप लोग दुःखी न हों। मैं आप लोगों से पवन कुमार को बुलवाता हूँ॥११०॥ तथा पवनंजय का आलिंगन कर क्रमानुसार उससे कहा कि हे कुमार ! सुनो, जो कुछ भी वृत्तान्त हुआ है वह सब मैं कहता हूँ ॥111॥ सन्ध्याभ्र नामक मनोहर पर्वतपर अनंगवीचि नामक मुनिराज को इन्द्रों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ था ॥११२॥ मैं उनको वन्दना कर दीपक के सहारे रात्रि को चला आ रहा था कि मैंने वीणा के शब्द के समान किसी स्त्री के रोने का शब्द सुना ॥113॥ मैं उस शब्द को लक्ष्य कर पर्वत की ऊँची चोटी पर गया। वहाँ मुझे पर्यंक नाम की गुफा में अंजना दिखी ॥114॥ इसके निर्वास का कारण जो बताया गया था उसे जानकर शोक से विह्वल होकर रोती हुई उस बाला को मैंने सांत्वना दी॥११५॥ उसी गफा में उसने शुभ लक्षणों से यक्त ऐसा पुत्र उत्पन्न किया कि जिसकी प्रभा से वह गुफा सुवर्ण से बनी हुई के समान हो गयी ॥116॥ अंजना के पुत्र हो चु का है यह जानकर पवनंजय परम सन्तोष को प्राप्त हुआ और 'फिर क्या हुआ? फिर क्या हुआ ?' यह शीघ्रता से पूछने लगा ॥117॥ प्रतिसूर्य ने कहा कि उसके बाद अंजना के उस सुन्दर चेष्टाओं के धारक पुत्र को विमान में बैठाया जा रहा था कि वह पर्वत की गुफा में गिर गया ॥118॥ यह सुनकर हाहाकार करता हुआ पवनंजय विद्याधरों की सेना के साथ पुनः विषाद को प्राप्त हुआ ॥119॥ तब प्रतिसूर्य ने कहा कि शोक को प्राप्त मत होओ। जो कुछ वृत्तान्त हुआ वह सब सुनो। हे पवन ! पूरा वृत्तान्त तुम्हारे दुःख को दूर कर देगा ॥120॥ प्रतिसूर्य कहता जाता है कि तदनन्तर हाहाकार से दिशाओं को शब्दायमान करते हुए हम लोगों ने नीचे उतरकर पर्वत के बीच उस निर्दोष बालक को देखा ॥121॥ चूंकि उस बालक ने गिरकर पर्वत को चूर-चूर कर डाला था इसलिए हम लोगों ने विस्मित होकर उस को 'श्रीशल' इस नाम से स्तुति की ॥122॥ तदनन्तर पूत्रसहित अंजना को वसन्तमाला के साथ विमान में बैठाकर मैं अपने नगर ले गया ॥123॥ आगे चलकर चूंकि उसका हनूरुह द्वीप में संवर्धन हआ है इसलिए हनुमान यह दूसरा नाम भी रखा गया है॥१२४॥ इस तरह आप जिसका कथन किया है वह शीलवती अंजना आश्चर्यजनक कार्य करनेवाले पुत्र के साथ मेरे नगर में रह रही है सो ज्ञात कीजिए ॥125॥ तदनन्तर हर्ष से भरे विद्याधर अंजना के देख ने के लिए उत्सुकं हो पवनंजय को आगे कर शीघ्र ही हनूरुह नगर गये ॥126॥ वहाँ अंजना और पवनंजय का समागम हो जाने से विद्याधरों को महान् उत्सव हुआ। दोनों दम्पतियों को जो उत्सव हुआ वह स्वसंवेदन से ही जाना जा सकता था विशेषकर उसका कहना अशक्य था ॥127॥ वहाँ विद्याधरों ने प्रसन्नचित्त से दो महीने व्यतीत किये। तदनन्तर पूछकर सम्मान प्राप्त करते हुए सब यथास्थान चले गये ॥128॥ चिरकाल के बाद पत्नी को पाकर पवनंजय की चेष्टाएँ भी ठीक हो गयीं और वह पुत्र की चेष्टाओं से आनन्दित होता हुआ वहाँ देव की तरह रमण करने लगा ॥129॥ हनूमान् भी वहां उत्तम यौवन-लक्ष्मी को पाकर सब के चित्त को चुरा ने लगा तथा उसका शरीर मेरु पर्वत के शिखर के समान देदीप्यमान हो गया ॥130॥ उसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हो गयी थीं, प्रभाव उसका निराला ही था, विनय का वह जानकार था, महाबलवान् था, समस्त शास्त्रों का अर्थ करने में कुशल था, परोपकार करने में उदार था, स्वर्ग में भोग ने से बा की बचे पुण्य का भोगनेवाला था और गुरुजनों की पूजा करने में तत्पर था। इस तरह वह उस नगर में बड़े आनन्द से क्रीड़ा करता था ॥131-132॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जो हनूमान् के साथ-साथ नाना रसों से आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले इस अंजना और पवनं नय के संगम को भाव से सुनता है उसे संसार की समस्त विधि का ज्ञान हो जाता है तथा उस ज्ञान के प्रभाव से उसे आत्म-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वह उत्तम कार्य ही प्रारम्भ करता है और अशुभ कार्य में उसकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ॥133॥ वह दीर्घ आयु, उदार विभ्रमों से युक्त, सुन्दर नीरोग शरीर, समस्त शास्त्रों के पार को विषय करनेवाली बुद्धि, चन्द्रमा के समान निर्मल कीति, स्वर्ग-सुख का उपभोग करने में चतुर, पुण्य तथा लोक में जो कुछ भी दुर्लभ पदार्थ हैं उन सब को एक बार उस तरह प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि सूर्य देदीप्यमान कान्ति के मण्डल को ॥134॥ इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में पवनंजय और अंजना के समागम का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥18॥ |