+ रावण का साम्राज्य -
उन्नीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर रावण को सन्तोष नहीं हुआ सो उसने बहुत भारी क्रोध धारण कर पत्रवाहकों के द्वारा समस्त विद्याधरों को फिर से बुलाया ॥1॥ किष्किन्धा का राजा, दुन्दुभि, अलंकारपुर का अधिपति, रथनूपुर का स्वामी तथा विजयार्द्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों में निवास करनेवाले अन्य समस्त विद्याधर सब प्रकार की तैयारी के साथ रावण के समीप जा पहुँचे ॥2-3॥ तदनन्तर मस्तकपर लेख को धारण करनेवाला एक मनुष्य हनूरुह द्वीप में पवनंजय और प्रतिसूर्य के पास भी आया ॥4॥ लेख का अर्थ समझकर दोनों ने रावण के पास जाने का विचार किया सो वहां जाने के पूर्व वे राज्यपर हनूमान् का अभिषेक करने के लिए उद्यत हुए ॥5॥ राज्याभिषेक की बड़ी तैयारी की गयी। तुरही आदि वादित्रों का बड़ा शब्द होने लगा और मनुष्य हाथ में कलश लेकर हनूमान् के सामने खड़े हो गये ॥6॥ हनूमान् ने पवनंजय और प्रतिसूर्य से पूछा कि यह क्या है ? तब उन्होने कहा कि हे वत्स ! अब तुम हनूरुह द्वोप के राज्य का पालन करो ॥7॥ हम दोनों को रावण ने युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया है सो ह में प्रेमपूर्वक यथोचित रूप से आज्ञा-पालन करना चाहिए ॥8॥ रसातलपुर में जो वरुण रहता है वही उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। उसकी बहुत बड़ी सेना है तथा वह पुत्र और दुर्ग के बल से उत्कट होने के कारण दुर्जय है ॥9॥ ऐसा कहनेपर हनूमान् ने विनय से उत्तर दिया कि मेरे रहते हुए आप गुरुजनों को युद्ध के लिए जाना उचित नहीं है ॥10॥ 'हे बेटा ! अभी तुमने रण का स्वाद नहीं जाना है' ऐसा जब उससे कहा गया तब उसने उत्तर दिया कि जो मोक्ष प्राप्त होता वह क्या कभी पहले प्राप्त किया हुआ होता है ? जब रोकनेपर भी उसने रुक ने का मन नहीं किया तब उन दोनों ने उस युवा को जाने की स्वीकृति दे दी ॥11-12॥ तदनन्तर प्रातःकाल स्नान कर जिसने अरहन्त और सिद्ध भगवान् को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम किया था, भोजन कर शरीरपर मंगलद्रव्य धारण किये थे, जो महातेज से सहित था तथा सब विधि-विधान के जानने में निपुण था ऐसा हनूमान् माता-पिता तथा माता के मामा को प्रणाम कर और समस्त लोगों से सम्भाषण कर सूर्य के समान चमकते हुए विमानपर बैठकर शस्त्रों के समूह से दसों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लंकापुरी की ओर चला ॥13-15॥ विमान में बैठकर त्रिकूटाचल के सम्मुख जाता हुआ हनूमान् ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि मेरुके सम्मुख जाता हुआ ऐशानेन्द्र सुशोभित होता है ॥16॥ समुद्र की लहरों को सन्तति जिस के विशाल नितम्ब को चूम रही थी ऐसे जल-वीचि गिरिपर जब वह पहुंचा तब सूर्य अस्त हो गया ॥17॥ सो वहाँ उत्तम योद्धाओं के साथ वार्तालाप करते हुए उसने सुख से रात्रि बितायी और प्रातःकाल होनेपर बड़े उत्साह से लंका की ओर दृष्टि रखकर आगे चला ॥18॥ इस तरह नाना देशों, द्वीपों, तरंगों से आहत, पर्वतों और समुद्र में किलोलें करते मगर-मच्छों को देखता हआ राक्षसों की सेना में जा पहुंचा ॥19॥ हनूमान् को सेना देखकर बड़े-बड़े राक्षसों के शिरोमणि हनूमान् की ओर दृष्टि लगाकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥20॥ जिसने पर्वत को चूर्ण किया था यह वही भव्य जनोत्तम है इस शब्द को सुनता हुआ हनूमान् रावण के समीप गया ॥21॥ उस समय रावण उस शिलातलपर बैठा था जो कि फलों से व्याप्त था, सुगन्धि के कारण खिचे हए मदोन्मत्त भ्रमंर जिसपर गंजार कर रहे थे. जिस के ऊपर रत्नों की किरणों से व्याप्त कपडे का उत्तम मण्डप लगा हआ था और जिस के चारों ओर सामन्त लोग बैठे थे। रावण हनूमान् को देखकर उस शिलातल से उठकर खड़ा हो गया ॥22-23॥ तदनन्तर विनय से जिसका शरीर झुक रहा था ऐसे हनूमान् का आलिंगन कर वह प्रीति से हँसता हुआ उसके साथ उसी शिलातलपर बैठ गया ॥24॥ परस्पर की कुशल पूछकर तथा एक दूसरे को सम्पदा देखकर दोनों महाभाग्यशाली इस तरह रमण करने लगे मानो दो इन्द्र ही परस्पर मिले हों ॥25॥ अथानन्तर जो प्रसन्न चित्त का धारक था और अत्यन्त स्नेहभरी दृष्टि से बार-बार उसी की ओर देख रहा था ऐसा रावण हनूमान् से बोला कि ॥26॥ अहो, सज्जनोत्तम पवनकुमार ने मेरे साथ खूब प्रेम बढ़ाया है जो प्रसिद्ध गुणों के सागरस्वरूप इस पुत्र को भेजा है ॥27॥ इस महा-बलवान् तथा तेजोमण्डल के धारक वीर को पाकर मुझे इस संसार में कोई भी कार्य कठिन नहीं रह जायेगा ॥28॥ जब रावण हनूमान् के गुणों का वर्णन कर रहा था तब वह लज्जित के समान नम्र शरीर का धारक हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों को यही वृत्ति है ॥29॥ तदनन्तर जिसकी किरणों का समूह लाल पड़ गया था ऐसा सूर्य मानो होनेवाले संग्राम के भय से ही अस्त हो गया था ॥30॥ उसके पीछे-पीछे जाती और उत्कट राग अर्थात् लालिमा ( पक्ष में प्रेम) को धारण करती हुई सन्ध्या ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपने प्राणनाथ के पीछे-पीछे जाती हुई विनीत स्त्री-कुलवधू ही हो ॥31॥ जो निरन्तर सूर्य के पीछे-पीछे चला करती थी ऐसी रात्रिरूपी वधू चन्द्रमारूपी तिलक धारण कर अतिशय सुशोभित होने लगी ॥32॥ दूसरे दिन जब सूर्य की किरणों से संसार प्रकाशमान हो गया तब रावण तैयार होकर वरुण के नगर की ओर चला। उस समय रावण अपनी समस्त सेना के मध्य में चल रहा था। हनूमान् उसके पास ही स्थित और मंगलद्रव्य उसने शरीरपर धारण कर रखे थे। वह विद्या के द्वारा समुद्र को भेदन कर वरुण के नगर की ओर चला ॥33-34॥ जिस प्रकार परशुराम को लक्ष्य कर चलनेवाले सुभौम चक्रवर्ती को अनुपम दीप्ति थी उसी प्रकार शत्रुके सम्मुख जानेवाले रावण की दीप्ति भी अनुपम थी ॥35॥ सेना को कल-कल से दशानन को आया जान वरुण का समस्त नगर क्षुभित हो गया उस में बड़ा कुहराम मच गया ॥36॥ वरुण का वह नगर पातालपुण्डरीक नाम से प्रसिद्ध था। उस में मजबूत ध्वजाएं लगी हुई थीं और रत्नमयी तोरण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे, पर रावण के पहुंचनेपर सारा नगर युद्ध की तैयारी सम्बन्धी कल-कल से व्याप्त हो गया ॥37॥ असुरों के नगर के समान सब के मन को हरनेवाले उस नगर में खासकर स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो रही थी। भय से उनके नेत्र त्रकित हो गये थे ॥38॥ वहां भवनवासी देवों के समान जो योद्धा थे वे बाहर निकल आये तथा चमरेन्द्र के समान पराक्रम से गर्वीला वरुण भी निकलकर बाहर आया ॥39॥ जिन्हों ने नाना प्रकार के शत्रों के समूह से सूर्य का दिखना रोक दिया था ऐसे वरुण के सौ पराक्रमी पुत्र भी युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ॥40॥ सो जिस प्रकार असुरकुमार अन्य क्षुद्र देवताओं को क्षण एक में पराजित कर देते हैं उसी प्रकार वरुण के सौ पुत्रों ने क्षण एक में ही राक्षसों की सेना को पराजित कर दिया ॥41॥ जिस के अन्दर सौ भाई अपनी कला दिखा रहे थे ऐसी वरुण की सेना से खण्डित हुई रावण की सेना गायों के झुण्ड के समान भयभीत हो तितर-बितर हो गयी ॥42॥ राक्षसों के हाथ पसी ने से गीले हो गये जिससे चक्र, धनुष, घन, प्रास, शतघ्नी आदि शस्त्र उनसे छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे ॥43॥ तदनन्तर रावण ने देखा कि हमारी सेना बाणों के समूह से व्याकुल होकर प्रातःकालीन सूर्य की किरणों के समान लाल-लाल हो रही है तब वह बाणों की वेगशाली वर्षा से स्वयं ताडित होता हुआ भी क्रुद्ध हो क्षण एक में शत्रुदल को भेदकर भीतर घुस गया और जिस प्रकार गजराज वृक्षों को नीचे गिराता है उसी प्रकार वरुण की सेना के वीरों को मार-मारकर नीचे गिरा ने लगा ॥44-45॥ तदनन्तर वरुण के सौ पुत्रों ने रावण को इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतु के गरजते हुए बादल सूर्य को घेर लेते हैं ॥46॥ यद्यपि सब दिशाओं से आनेवाले बाणों से रावण का शरीर खण्डित हो गया तो भी वह अभिमानी युद्ध के मैदान को नहीं छोड़ रहा था ॥47॥ उधर वरुण ने भी देदीप्यमान कानों को धारण करनेवाले नरश्रेष्ठ इन्द्रजित् तथा राक्षसों के अन्य अनेक राजाओं को अपने सामने किया अर्थात् उनसे युद्ध करने लगा ॥48॥ तदनन्तर वरुण के पुत्र ने जिसे अपने बाणों का निशाना बनाया था और जो रुधिर के बहने से पलाश के फूलों के समूह के समान जान पड़ता था ऐसे रावण को देखकर हनूमान् शीघ्र ही महापुरुषों के बीच में चलनेपर रथपर सवार हुआ। उस समय उसका चित्त रावण के भाई के समान प्रीति से युक्त था तथा वह सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ॥49-50॥ तत्पश्चात् जो अपने वेग से पवन को जीत रहा था, विजय प्राप्त करने में जिसका आदर था और जो सूर्यमण्डल के समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा हनूमान् यमराज के समान युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥51॥ सो जिस प्रकार महावेगशाली वायु से प्रेरित उन्नत मेघों का समूह इधर-उधर उड़ जाता है उसी प्रकार हनूमान् के द्वारा प्रेरित हुए वरुण के सब पुत्र इधर-उधर भाग खड़े हुए ॥52॥ वह बार-बार शत्रुओं के शरीरों के साथ कदली वन को छेद ने की क्रीड़ा करता था अर्थात् शत्रुओं के शरीर को कदली वन के समान अनायास ही काट रहा था ॥53॥ जिस प्रकार कोई पुरुष स्नेह के द्वारा अपने मित्र को खींच लेता है उसी प्रकार उसने किसी वीर को विद्यानिर्मित लांगूलरूपी पाश से खींच लिया था ॥54॥ और जिस प्रकार कोई जिनभक्त हेतुरूपी मुद्गर के प्रहार से मिथ्यादृष्टि के मस्तकपर प्रहार करता है उसी प्रकार वह किसी के शिरपर उल् का के प्रहार से चोट पहुँचा रहा था ॥55॥ इस प्रकार वानर को ध्वजा से सुशोभित हनूमान् को कोड़ा करते देख क्रोध से लाल-लाल नेत्र करता हुआ वरुण उसके सामने आया ॥56॥ ज्योंही रावण ने वरुण को हनूमान् के सामने दौड़ता आता देखा त्यों ही उसने शत्रु को बीच में उस प्रकार रोक लिया जिस प्रकार कि पहाड़ नदी के जल को रोक लेता है ॥57॥ इधर जबतक वरुण का रावण के साथ घोड़े, हाथी, पैदल सिपाही तथा शस्त्रों के समूह से व्याप्त युद्ध हुआ ॥58॥ तबतक हनुमान् ने वरुण के सौ के सौ ही पुत्र बांध लिये। वे चिरकाल तक युद्ध करतेकरते थक गये थे तथा उनके सैनिक मारे गये थे ॥59॥ सौ के सौ ही पुत्रों को बँधा सुनकर वरुण शोक से विह्वल हो गया। वह विद्या का स्मरण भूल गया और उसका पराक्रम ढीला पड़ गया ॥60॥ रण-निपुण रावण ने छिद्र पाकर वरुण की योधिनी नामा विद्या छेद डाली तथा उसे जीवित पकड़ लिया ॥61॥ उस समय जिस के पुत्ररूपी किरणों की शोभा नष्ट हो गयी थी तथा जो उदय से रहित था ऐसे वरुणरूपी चन्द्रमा के लिए रावण ने राहु का काम किया था ॥62॥ जो शत्रुरूपी पिंजड़े के मध्य में स्थित था, जिसका मान नष्ट हो गया था और जिसे लोग बड़े आश्चर्य से देखते थे ऐसा वरुण रक्षा करने के लिए आदर के साथ कुम्भकर्ण को सौंपा गया ॥63॥ तदनन्तर बहुत दिन बाद निश्चिन्तता को प्राप्त हुआ रावण सेना को विश्राम देता हुआ भवनोन्माद नामक उत्कृष्ट उद्यान में ठहरा रहा ॥64॥ वृक्षों को छाया के नीचे ठहरी हुई इसकी सेना का युद्धजनित खेद समुद्र के सम्बन्ध से शीतल वायु ने दूर कर दिया था ॥65॥ स्वामी को पकड़ा जानकर वरुण की समस्त सेना भयभीत हो व्याकुलता से भरे पुण्डरीक नगर में घुस गयी ॥66॥ यद्यपि वही सेना थी, और वे ही महायोद्धा थे तो भी प्रधान पुरुष के बिना सब व्यर्थ हो गये ॥67॥ अहो ! पुण्य का माहात्म्य देखो कि पुण्यवान् के उत्पन्न होते ही अनेक पुरुषों का उद्भव हो जाता है और उसके नष्ट होनेपर अनेक पुरुषों का पतन हो जाता है ॥68॥

अथानन्तर कुम्भकर्ण घबड़ाये हुए समस्त मनुष्यों के समूह से व्याप्त शत्रुके उस नगर को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा ॥69॥ योद्धाओं ने उस नगर की धन-रत्न आदिक समस्त कीमती वस्तुएं लूट लीं। यह लूट शत्रुके नगरपर क्रोध होने के कारण ही की गयी थी न कि लोभ के वशीभूत होकर ॥70॥ जो रति के समान विभ्रम को धारण करनेवाली थीं, जिनके नेत्र झरते हुए आंसुओं से व्याप्त थे तथा जो विलाप कर रही थीं ऐसी बेचारी उत्तमोत्तम स्त्रियां पकड़कर लायी गयीं ॥71॥ जिनके शरीर स्तनों के भार से नम्र थे, जिनके पल्लवों के समान कोमल हाथ हिल रहे थे और जो समस्त बन्धुजनों को चिल्ला-चिल्लाकर पुकार रही थीं ऐसी उन स्त्रियों को निष्ठुर मनुष्य पकड़कर ला रहे थे॥७२॥ जिसका मखरूपी पर्ण चन्द्रमा शोकरूपी राह के द्वारा प्रसा गया था ऐसी विमान के भीतर डाली गयी कोई स्त्री सखी से कह रही थी कि हे सखि ! यदि कदाचित् मेरे शील का भंग होगा तो मैं वस्त्र की पट्टी से लटककर मर जाऊँगी इसमें संशय नहीं है ॥73-74॥ जिस के मरने में सन्देह था ऐसे पति को बार-बार पुकारती हुई म्लान लोचनोंवाली कोई स्त्री उसके गुणों का स्मरण कर मूर्छा को प्राप्त हो रही थी ॥75॥ जो माता, पिता, भाई, मामा और पुत्र को बुला रही थीं तथा जिनके नेत्रों से आँसू झर रहे थे ऐसी वे स्त्रियाँ मुनि के लिए भी दुःखदायिनी हो रही थी अर्थात् उनकी दशा देख मुनि के हृदय में भी दुःख उत्पन्न हो जाता था॥७६।। कुम्भकर्ण की शोभा से जिस के नेत्र हरे गये थे ऐसी कोई एक कमल-लोचना स्त्री एकान्त पाकर विश्वासपूर्वक सखी से कह रही थी कि हे सखि ! इस श्रेष्ठ नर को देखकर मुझे कोई अद्भुत ही आनन्द उत्पन्न हुआ है और जिस आनन्द से मानो मेरा समस्त शरीर पराधीन ही हो गया है ॥77-78॥ इस प्रकार कर्मों की विचित्रता से उन खियों में शुद्ध तथा विरुद्ध दोनों प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो रहे थे सो ठोक ही है क्योंकि लोगों की चेष्टाएँ विचित्र हुआ करती हैं ॥79॥ तदनन्तर जो कुबेर के समान समीचीन विभूति का धारक था, अत्यन्त बलवान् योद्धा जिसकी सेवा कर रहे थे, जो जय-जय की ध्वनि से मुखर था और सुन्दर लीला से सहित था ऐसे कुम्भकर्ण ने विमान से उतरकर बड़े हर्ष के साथ उन धूसर ओठोंवाली अपहृत स्त्रियों को रावण के सामने खड़ा कर दिया ॥80-81॥ वे स्त्रियाँ विषाद से युक्त थीं, उनके नेत्र आंसुओं से भरे हुए थे, बन्धुजनों से रहित थीं, नम्र थीं, उनके शरीर कांप रहे थे, वे इच्छानुसार कुछ दयनीय शब्दों का उच्चारण कर रही थीं तथा लज्जा से युक्त थीं। उन स्त्रियों को देखकर रावण करुणायुक्त हो कुम्भकर्ण से इस प्रकार कहने लगा ॥82-83॥ कि अहो बालक ! जो तू कुलवती स्त्रियों को बन्दी के समान पकड़कर लाया है यह तूने अत्यन्त दुश्चरित का कार्य किया है ॥84॥ इन बेचारी भोलीभाली स्त्रियों का इसमें क्या दोष था जो तूने व्यर्थ ही इन्हें कष्ट पहुँचाया है ? ॥85॥ जो चेष्टा मुग्धजनों का पालन करनेवाली है, शत्रुओं का नाश करनेवाली है और गुरुजनों की शुश्रूषा करने पथार्थ में वही महापरुषों की चेष्टा कहलाती है ॥86॥ ऐसा कहकर उसने उन्हें शीघ्र ही छुड़वा दिया जिससे वे अपने-अपने घर चली गयीं। यही नहीं उसने साध्वी स्त्रियों को अपनी वाणी से आश्वासन भी दिया जिससे उन सब का भय शीघ्र ही कम हो गया ॥87॥

अथानन्तर जो लज्जा से सहित था तथा जिसने सुभटों के देख ने मात्र से राक्षसों का मुख नीचा कर दिया था ऐसे वरुण को बुलाकर रावण ने कहा कि हे प्रवीण ! युद्ध में पकड़े जाने का शोक मत करो क्योंकि युद्ध में वीरों का पकड़ा जाना तो उनकी उत्तम कीर्ति का कारण है ॥88-89॥ मानशाली वीर युद्ध में दो ही वस्तुएँ प्राप्त करते हैं एक तो पकड़ा जाना और दूसरा मारा जाना। इन के सिवाय जो कायर लोग हैं वे भाग जाना प्राप्त करते हैं ॥90॥ तुम पहले के समान ही समस्त मित्र और बन्धुजनों से सम्पन्न हो सकल उपद्रवों से रहित अपने सम्पूर्ण राज्य का अपने ही स्थान में रहकर पालन करो ॥91॥ इस प्रकार कहनेपर वरुण ने हाथ जोड़कर वीर रावण से कहा कि इस संसार में आपका पुण्य विशाल है जो आपके साथ वैर रखता है वह मूर्ख है ॥92॥ अहो! यह तुम्हारा बड़ा धैर्य है, यह मुनि के धैर्य के समान हजारों स्तवन करने के योग्य है, कि जो तुमने दिव्य रत्नों का प्रयोग किये बिना ही मुझे जीत लिया। यथार्थ में तुम्हारा शासन उन्नत है ॥93॥ अथवा आश्चर्यकारी कार्य करनेवाले हनुमान का ही प्रभाव कैसे की कहा जाये? क्योंकि हे सत्पुरुष! वह महानुभाव भी आपके ही शुभोदय से यहाँ आया था ॥94॥ पराक्रमरूपी कोश से जिसकी रक्षा की गयी ऐसी यह पृथिवी गोत्र की परिपाटी के अनुसार किसी को प्राप्त नहीं हुई। यह तो वोर मनुष्य के भोग ने योग्य है और आप वीर मनुष्यों में अग्रसर हो अतः आप लोक का पालन करो ॥95॥ हे उदार यश के धारक ! आप हमारे स्वामी हो। मेरे दुर्वचनों से आप को जो दुःख हुआ हो उसे क्षमा करो। हे नाथ ! ऐसा कहना चाहिए, इसीलिए कह रहा हूँ। वै से आपकी अत्यन्त उदार क्षमा तो देख ही ली है ॥96॥ आप अत्यन्त चेष्टा के धारक हो इसलिए आपके साथ सम्बन्ध कर मैं कृतकृत्य होना चाहता हूँ। आप मेरी पुत्री स्वीकृत कीजिए क्योंकि इसके योग्य आप ही हैं ॥97॥ ऐसा कहकर उसने सुन्दर रूप की धारक, सुदेवी रानी से उत्पन्न, कमल के समान मुखवाली, सत्यवती नाम से प्रसिद्ध अपनी विनीत कन्या रावण के लिए समर्पित कर दी ॥98॥ उन दोनों के विवाह में ऐसा बड़ा भारी उत्सव हुआ था कि जिसमें सब लोगों का सम्मान किया गया तो ठीक ही है क्योंकि दोनों ही समस्त समृद्धि को प्राप्त थे, अतः उन्हें कोई भी वस्तु खोजनी नहीं पड़ी थी ॥99॥ इस प्रकार सम्मान को प्राप्त हुए रावण ने जिसका सम्मान किया था तथा रावण स्वयं जिसे भेज ने के लिए पीछे-पीछे गया था ऐसा वरुण अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुआ। वहाँ पुत्री के वियोग से कुछ दिन तक उसकी अन्तरात्मा दुःखी रही ॥100॥ कैलास को कम्पित करनेवाले रावण ने भी लंका में आकर तथा बहुत भारी सम्मान कर हनूमान् के लिए चन्द्रनखा को कान्तिमती पुत्री समर्पित की। उस कन्या का नाम लोक में 'अनंगपुष्पा' प्रसिद्ध था। वह गुणों की राजधानी थी और उसके नेत्र कामदेव के पुष्परूपी शस्त्र अर्थात् कमल के समान थे। उसे पाकर हनूमान् अत्यधिक सन्तोष को प्राप्त हुआ ॥101-102॥ कन्या ही नहीं दी किन्तु लक्ष्मी से भरपूर कर्णकुण्डलनामा नगर में उसका राज्याभिषेक भी किया सो जिस प्रकार स्वर्गलोक में इन्द्र रहता है उसी प्रकार वह उस नगर में उत्तम भोग भोगता हुआ रहने लगा ॥103॥ किष्कुपुर के राजा नल ने भी रूपसम्पदा के द्वारा लक्ष्मी को जीतनेवाली अपनी हरिमालिनी नाम की प्रसिद्ध पुत्री बड़े वैभव के साथ हनूमान् को दी ॥104॥ इसी प्रकार किन्नरगीत नामा नगर में भी उसने किन्नरजाति के विद्याधरों की सौ कन्याएँ प्राप्त की। इस तरह उस महात्मा के यथाक्रम से एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ हो गयीं ॥105॥ चकि श्रीशैल नाम को धारण करनेवाले हनूमान् भ्रमण करते हुए उस पर्वतपर आकर ठहर गये थे इसलिए सुन्दर शिखरोंवाला वह पर्वत पृथिवी में 'श्रीशैल' इस नाम से ही प्रसिद्ध हो गया ॥106॥ अथानन्तर उस समय किष्किन्धपुर नामा नगर में विद्याधरों के राजा उदारचेता सुग्रीव रहते थे। उनकी चन्द्रमा के समान मुखवाली तथा सुन्दरता में रति की समानता करनेवाली तारा नाम की स्त्री थी ॥107॥ उन दोनों के एक पद्मरागा नाम की पुत्री थी। उस पुत्री का रंग नूतन कमल के समान था, गुणों के द्वारा वह पृथिवी में अत्यन्त प्रसिद्ध थी, रूप से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसके नेत्र विशाल थे, उसका मुखकमल कान्ति के समूह से आवृत था, उसके स्तन किसी बड़े हाथी के गण्डस्थल के समान उन्नत और स्थूल थे, उसका उदर इन्द्रायुध अर्थात् वज्र के पकड़ ने को जगह के समान कृश था, वह अत्यधिक सौन्दर्यरूपो सरोवर के मध्य में संचार करनेवाली थी तथा सर्व मनुष्यों की अन्तरात्मा को चुरानेवाली थी ॥108-109॥ सुन्दर विभ्रमों से युक्त उस कन्या के योग्य वर की खोज करते हुए माता-पिता न रात में सुख से नींद लेते थे और न दिन में चैन / उनका चित्त सदा इसी उलझन में उलझा रहता था ॥110॥

तदनन्तर जो नाना गुणों के धारक थे, जिन की कान्ति अत्यन्त मनोहर थी, और साथ ही जिनके शील तथा वंश का परिचय दिया गया था ऐसे इन्द्रजित् आदि प्रधान विद्याधरों के चित्रपट लिखाकर माता-पिता ने पुत्री को दिखलाये ॥111॥ अनुक्रम से उन चित्रपटों को देखकर कन्या ने बार-बार अपनी दृष्टि संकुचित कर लो। अन्त में हनूमान् का चित्रपट उसे दिखाया गया तो उस ओर उसकी दृष्टि शीघ्र ही आकर्षित होकर निश्चल हो गयी। उसे वह अनुराग से देखती रही ॥112॥ तदनन्तर जिसका समस्त शरीर सदृशता से रहित था ऐसे चित्रपट में स्थित हनूमान् को देखकर वह कन्या एक ही साथ कामदेव के पाँचों दुःसह बाणों से ताड़ित हो गयी ॥113॥ उसे हनूमान् में अनुरक्त देख गुणों को जाननेवाली सखी ने कहा कि हे बाले! यह पवनंजय का श्रीशैल नाम से प्रसिद्ध पुत्र है ॥114॥ इसके गुण तो तुम्हें पहले से ही विदित थे और सुन्दरता तुम्हारे नेत्रों के सामने है इसलिए इसके साथ कामभोग को प्राप्त करो तथा माता-पिता को चिरकाल बाद निद्रा प्रदान करो अर्थात् निश्चिन्त होकर सो ने दो ॥115॥ आश्चर्य की बात है कि हनूमान् ने चित्रगत होकर भी तेरे मन में विकार उत्पन्न कर दिया ऐसा कहती हुई सखी को कन्या ने लज्जावनत हो लीलाकमल से ताड़ित किया ॥116॥ तदनन्तर जब पिता को पता चला कि कन्या का मन पवनपुत्र हनूमान के द्वारा हरा गया है तब उसने शीघ्र ही हनूमान् के पास कन्या का चित्रपट भेजा ॥117॥ सो सुग्रीव का भेजा हुआ दूत श्रीनगर पहुंचा। वहां जाकर उसने अपना परिचय दिया, प्रणाम किया और उसके बाद हनूमान् के लिए तारा की पुत्री पद्मरागा का चित्रपट दिखलाया ॥118॥ जैसा कि इस संसार में प्रसिद्ध है कि कामदेव के पांच बाण हैं यदि यह बात सत्य हे तो कन्या ने एक ही समय सी बाणों के द्वारा हनूमान् को कैसे की घायल किया ॥119॥ यदि मैं इस कन्या को नहीं प्राप्त करता है तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है ऐसा मन में विचारकर हनुमान् बड़े वैभव के साथ क्षण एक में सुग्रीव के नगर की ओर चल पड़ा ॥120॥ उसे अत्यन्त निकट में आया सुन सुग्रीव राजा हर्षित होता हुआ शीघ्र ही उसकी अगवानी के लिए गया। तत्पश्चात् जिसे सैकड़ों अर्घ दिये गये थे ऐसे हनूमान् ने श्वसुर के साथ नगर में प्रवेश किया ॥121॥ उस समय जब हनूमान् राजमहल की ओर जा रहा था तब नगर की स्त्रियाँ अन्य सब काम छोड़कर महलों के मणिमय झरोखों में जा खड़ी हुई थी और उस समय उनके नेत्रकमल हनूमान् को देख ने के लिए व्याकुल हो रहे थे ॥122॥ सुकुमार शरीर की धारक सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा झरोखे से हनूमान् का रूप देखकर मन-ही-मन अपने आपके द्वारा अनुभव करने योग्य किसी अद्भुत अवस्था को प्राप्त हुई ॥123॥ सखि! यह वह पुरुष नहीं है, यह तो कोई दूसरा है, अथवा नहीं सखि ! यह वही है, इस प्रकार स्त्रियाँ जिस के विषय में तर्कणा कर रहीं थी ऐसे हनूमान् ने नगर में प्रवेश किया ॥124॥ तदनन्तर बड़े वैभव के साथ उन दोनों का विवाह हुआ। विवाह में समस्त बन्धुजन सम्मिलित हुए और अत्यन्त सुन्दर रूप के धारक दोनों दम्पति परम-प्रमोद को प्राप्त हुए ॥125॥ जिसका चित्त सन्तुष्ट हो रहा था ऐसे हनूमान् पुत्री तथा अपने आपके वियोग से परिवार सहित सास-श्वसुर को शोकयुक्त करता हुआ नववधू के साथ अपने स्थानपर चला गया ॥126॥ इस प्रकार जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी ऐसे शोभा अथवा लक्ष्मी सम्पन्न पुत्र के रहते हुए राजा पवनंजय और अंजना महासुखानुभव रूपी सागर के मध्य में गोता लगा रहे थे ॥127॥

अथानन्तर हनूमान् जैसे उत्तमोत्तम विद्याधर राजा जिसका सम्मान करते थे, जो अत्यधिक मान को धारण करनेवाला था. तीन खण्ड का स्वामी था और हरिकण्ठ के समान थ रावण समस्त शत्रओं से रहित हो गया ॥128 / जिस प्रकार इन्द्र स्वर्गलोक में क्रीडा करता है उसी प्रकार समस्त लोकों को आनन्द प्रदान करता हुआ विशाल कान्ति का धारक रावण विशाल भोगों से समुत्पन्न सुख से लंका नगरी में क्रीड़ा करने लगा ॥122॥ स्त्रियों के मुखरूपी कमल का भ्रमर रावण स्त्रीजनों के स्तनोंपर हाथ चलाता हुआ बोते हुए बहुत भारी काल को भी नहीं जान पाया अर्थात् कितना अधिक काल बीत गया इसका उसे पता ही नहीं चला ॥130॥ जिस मनुष्य के पास एक ही विरूप तथा निरन्तर झगड़नेवाली स्त्री होती है वह भी सांसारिक सुख में निमग्न हो अपने आप को रतिपति अर्थात् कामदेव समझता है ॥131॥ फिर रावण तो लक्ष्मी की उपमा धारण करनेवाली अठारह हजार स्त्रियों से युक्त था, महाप्रभावशाली था, तीन खण्ड का स्वामी था, अनुपम कान्ति का धारी था अतः उसके विषय में क्या कहना है ? ॥132॥ इस प्रकार समस्त विद्याधर जिसकी स्तुति करते थे, सब लोग घबड़ाकर नम्राभूत मस्तकपर जिसकी आज्ञा धारण करते थे और तीन खण्ड के राज्यपर जिसका अभिषेक किया गया था ऐसा रावण जनसमूह के द्वारा स्तुत साम्राज्य को प्राप्त हुआ ॥133॥ समस्त विद्याधर राजा जिस के चरणकमलों की पूजा करते थे और जिसका शरीर श्री, कीर्ति और कान्ति से मनोज्ञ था ऐसा रावण सर्वग्रहों से परिवृत चन्द्रमा के समान किस का मन हरण नहीं करता था ॥134॥ जिसकी मध्यजाली मध्याह्न के सूर्य को किरणों के समान थी, जो उद्दण्ड शत्रु राजाओं के नष्ट करने में समर्थ था, जिस के अर स्पष्ट दिखाई देते थे, तथा जो अत्यन्त देदीप्यमान रत्नों से चित्र-विचित्र जान पड़ता था ऐसा इसका सुदर्शन नाम का अमोघ देवोपनीत चक्र अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥135॥ जिसका उग्रतेज सब ओर फैल रहा था ऐसा रावण, दुष्टजनों को तो ऐसा भय उत्पन्न कर रहा था मानो शरीरधारी दण्ड अथवा मृत्यु ही हो। जब वह शस्त्रशाला में शस्त्रों की पूजा करता था तब ऐसा जान पडता था मानो इकदा हआ प्रचण्ड उल्काओं का समूह ही हो ॥136॥ इस प्रकार विशाल तथा सुन्दर कीति को धारण करनेवाला रावण स्वकीय कर्मोदय से वंशपरम्परागत लंकापुरी को पाकर सर्वकल्याणयुक्त आश्चर्यकारक ऐश्वर्य को तथा संसार सम्बन्धी श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ था ॥137॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण जो मुनिसुव्रत भगवान का तीर्थ था उसे व्यतीत हुए जब बहुत दिन हो गये तब परमार्थ से दूर रहनेवाले अत्यन्त मूढ़ कवियों ने इस प्रधान पुरुष का लोक में अन्यथा ही कथन कर डाला ॥138॥ जो विषयों के अधीन हैं, जिनका तत्त्वज्ञान नष्ट हो गया है, जो अत्यन्त कुशील हैं और निरन्तर पाप में अनुरक्त रहते हैं ऐसे कवि लोग स्वरचित पापवधंक ग्रन्थरूपी जाल से मन्दभाग्य तथा अत्यन्त सरल मनुष्यरूपी मृगों के समूह को नष्ट करते रहते हैं। इसलिए जिसने वस्तु का यथार्थस्वरूप समझ लिया है, जिसने मिथ्यादृष्टि जनों के द्वारा रचित कुशास्त्ररूपी कीचड़ का प्रसंग नष्ट कर दिया है, जिसका सूर्य के समान विशाल तेज है और जो लक्ष्मी से विशाल है ऐसे है श्रेणिक! त इन्द्रद्वारा वन्दनीय जिनशास्त्ररूपी रत्न की उपासना कर-उसी का अध्ययन-मनन कर ॥139-140॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्म वरित में रावण के साम्राज्य का कथन करनेवाला उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥19॥

इस प्रकार विद्याधरकाण्ड नामक प्रथम काण्ड समाप्त हुआ।