कथा :
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! अब आठवें बलभद्र श्रीराम का सम्बन्ध बतला ने के लिए कुछ महापुरुषों से उत्पन्न वंशों का कथन करता हूँ सो सुन ॥1॥ दशवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भगवान् के मोक्ष चले जाने के बाद कौशाम्बी नगरी में एक सुमुख नाम का राजा हुआ। उसी समय उस नगरी में एक वीरक नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसकी स्त्री का नाम वनमाला था। राजा सुमुख ने वनमाला का हरणकर उसके साथ इच्छानुसार कामोपभोग किया और अन्त में वह मुनियों के लिए दान देकर विजया पर्वतपर गया। वहाँ विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक हरिपुर नाम का नगर था। उस में वे दोनों दम्पती उत्पन्न हुए अर्थात् विद्याधर-विद्याधरी हुए। वहां क्रीड़ा करता हुआ राजा सुमुख का जीव विद्याधर भोगभूमि गया। उसके साथ उसकी स्त्री विद्याधरी भी थी। इधर स्त्री के विरहरूपी अंगार से जिसका शरीर जल रहा था ऐसा वीरक श्रेष्ठी तप के प्रभाव से अनेक देवियों के समूह से युक्त देवपद को प्राप्त हुआ ॥2-5॥ उसने अवधि ज्ञान से जब यह जाना कि हमारा वैरी राजा सुमुख हरिक्षेत्र में उत्पन्न हुआ है तो पाप बुद्धि में प्रेम करनेवाला वह देव उसे वहाँ से भरतक्षेत्र में रख गया तथा उसकी दुर्दशा की ॥6॥ चूंकि वह अपनी भार्या के साथ हरिक्षेत्र से हरकर लाया गया था इसलिए समस्त संसार में वह हरि इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ॥7॥ उसके महागिरि नाम का पुत्र हुआ, उसके हिमगिरि, हिमगिरि के वसुगिरि, वसुगिरि के इन्द्रगिरि, इन्द्रगिरि के रत्नमाला, रत्नमाला के सम्भूत और सम्भूत के भूतदेव आदि सैकड़ों राजा क्रमशः उत्पन्न हुए। ये सब हरिवंशज कहलाये ॥8-9॥ आगे चलकर उसी हरिवंश में कुशाग्न नामक महानगर में सुमित्र नामक प्रसिद्ध उत्कृष्ट राजा हुआ ॥10॥ यह राजा भोगों से इन्द्र के समान था, कान्ति से चन्द्रमा को जीतनेवाला था, दीप्ति से सूर्य को पराजित कर रहा था और प्रताप से समस्त शत्रुओं को नम्र करनेवाला था ॥11॥ उसकी पद्मावती नाम की स्त्री थी। पद्मावती बहुत ही सुन्दरी थी। उसके नेत्र कमल के समान थे, वह विशाल कान्ति की धारक थी, शुभ लक्षणों से सम्पूर्ण थी तथा उसके सर्व मनोरथ पूर्ण हुए थे ॥12॥ एक दिन वह रात्रि के समय सुन्दर महल में सुखकारी शय्यापर सो रही थी कि उसने पिछले पहर में निम्नलिखित सोलह उत्तम स्वप्न देखे ॥13॥ गज 1 वृषभ 2 सिंह 3 लक्ष्मी का अभिषेक 4 दो मालाएँ 5 चन्द्रमा 6 सूर्य 7 दो मीन 8 कलश 9 कमलकलित सरोवर 10 समुद्र 11 रत्नों से चित्रविचित्र सिंहासन 12 विमान 13 उज्ज्वल भवन 14 रत्नराशि 15 और अग्नि 16 ॥14-15॥ - तदनन्तर जिसका चित्त आश्चर्य से चकित हो रहा था ऐसी बुद्धिमती रानी पद्मावती जागकर तथा प्रातःकाल सम्बन्धी यथायोग्य कार्य कर बड़ी नम्रता से पति के समीप गयी ॥16॥ वहाँ जाकर जिसका मुखकमल फूल रहा था ऐसी न्याय की जाननेवाली रानी भद्रासनपर सुख से बैठी। तदनन्तर उसने हाथ जोड़कर पति से अपने स्वप्नों का फल पूछा ॥17॥ इधर पति ने जबतक उससे स्वप्नों का फल कहा तबतक उधर आकाश से रत्नों की वृष्टि पड़ने लगी ॥18॥ इन्द्र की आज्ञा से प्रसन्न यक्ष प्रतिदिन इसके घर में साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करता था ॥19॥ पन्द्रह मास तक लगातार पड़ती हुई धनवृष्टि से वह समस्त नगर रत्न तथा सुवर्णादिमय हो गया ॥20॥ पद्म, महापद्म आदि सरोवरों के कमलों में रहनेवाली श्री-ह्री आदि देवियां अपने परिवार के साथ मिलकर जिनमाता की सब प्रकार को सेवा बड़े आदरभाव से करती थीं ॥21॥ अथानन्तर भगवान् का जन्म हुआ। सो जन्म होते ही इन्द्र ने लोकपालों के साथ बड़े वैभव से सुमेरु पर्वतपर भगवान् का क्षीरसागर के जल से अभिषेक किया ॥22॥ अभिषेक के बाद इन्द्र ने भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा की, स्तुति की, प्रणाम किया और तदनन्तर प्रेमपूर्वक माता की गोद में लाकर विराजमान कर दिया ॥23॥ जब भगवान् गर्भ में स्थित थे तभी से उनकी माता विशेषकर सुव्रता अर्थात् उत्तम व्रतों को धारण करनेवाली हो गयी थीं इसलिए वे मुनिसुव्रत नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ॥24॥ जिनका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान था ऐसे सुव्रतनाथ भगवान् यद्यपि अंजनागिरि के समान श्यामवर्ण थे तथापि उन्होने अपने तेज से सूर्य को जीत लिया था ॥25॥ इन्द्र के द्वारा कल्पित ( रचित ) उत्तम भोगों को धारण करते हुए उन्होने अहमिन्द्र का भारी सुख दूर से ही तिरस्कृत कर दिया था ॥26॥ हा-हा, हू-हू, तुम्बुरू, नारद और विश्वावसु आदि गन्धर्वदेव सदा उनके समीप गाते रहते थे तथा किन्नर देवियां और अनेक अप्सराएँ वीणा, बांसुरी आदि बाजों के साथ नृत्य करती रहती थीं। अनेक देवियां उबटन आदि लगाकर उन्हें स्नान कराती थीं ॥27-28॥ सुन्दर शरीर को धारण करनेवाले भगवान् ने यौवन अवस्था में मन्द मुसकान, लज्जा, दम्भ, ईर्ष्या, प्रसाद आदि सुन्दर विभ्रमों से युक्त स्त्रियों को इच्छानुसार रमण कराया था।॥२९॥ अथानन्तर एक बार शरदऋतु के मेघ को विलीन होता देख वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये जिससे दीक्षा ले ने की इच्छा उनके मन में जाग उठी। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी स्तुति की ॥30॥ तदनन्तर जिसमें समस्त सामन्तों के समूह नम्रीभूत थे तथा सुख से जिसका पालन होता था ऐसा राज्य उन्होने अपने सुव्रत नामक पुत्र के लिए देकर सब प्रकार की इच्छा छोड़ दी ॥31॥ तत्पश्चात् जिसने अपनी सुगन्धि से दशों दिशाओं को व्याप्त कर रखा था, जिसमें शरीरपर लगा हुआ दिव्य विलेपन ही सुन्दर मकरन्द था, जिसने अपनी सुगन्धि से आतुर भ्रमरियों के भारी समूह को अपनी ओर खींच रखा था, जो हरे मणियों की कान्तिरूपी पत्तों के समूह से व्याप्त था, जो दांतों की पंक्ति की सफेद कान्तिरूपी मृणाल के समूह से युक्त था, जो नाना प्रकार के आभूषणों की ध्वनिरूपी पक्षियों की कलकूजन से परिपूर्ण था, बलिरूपी तरंगों से युक्त था और जो स्तनरूपी चक्रवाक पक्षियों से सुशोभित था ऐसी उत्तम स्त्रियोंरूपी कमल-वन से वे कीर्तिधवल राजहंस ( श्रेष्ठ राजा भगवान् मुनिसुव्रतनाथ) इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी कमल-वन से राजहंस (हंस विशेष ) निकलता है ॥32-35॥ तदनन्तर मनुष्यों के चूड़ामणि भगवान् मुनिसुव्रतनाथ, देवों तथा राजाओं के द्वारा उठायी हुई अपराजिता नाम की पालकी में सवार होकर विपुल नामक उद्यान में गये ॥36॥ तदनन्तर पाल की से उतरकर हरिवंश के आभूषणस्वरूप भगवान् मुनिसुव्रतनाथ ने कई हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ॥37॥ भगवान् ने दीक्षा लेते समय दो दिन का उपवास किया था। उपवास समाप्त होनेपर राजगृह नगर में वृषभदत्त ने उन्हें परमान्न अर्थात् खीर से भक्तिपूर्वक पारणा करायी ॥38॥ जिनशासन में आचार को वृत्ति किस तरह है यह बतला ने के लिए ही भगवान् ने आहार ग्रहण किया था। आहारदान के प्रभाव से वृषभदत्त पंचातिशय को प्राप्त हुआ ॥39॥ तदनन्तर चम्पक वृक्ष के नीचे शुक्ल-ध्यान से विराजमान भगवान् को घातिया को का क्षय होने के उपरान्त केवलज्ञान उत्पन्न हआ ॥40॥ तदनन्तर इन्द्रों सहित देवों ने आकर स्तति की. प्रणाम किया तथा उत्तम गणधरों से युक्त उन मुनिसुव्रतनाथ भगवान से उत्तम धर्म का उपदेश सुना ॥41॥ भगवान् ने सागार और अनगार के भेद से अनेक प्रकार के धर्म का निरूपण किया सो उस निर्मल धर्म को विधिपूर्वक सुनकर वे सब यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर गये ॥42॥ हर्ष से भरे नम्रीभूत सुरासुर जिनकीस्तुति करते थे ऐसे भगवान् मुनिसुव्रतनाथ ने भी धर्मतीर्थ को प्रवृत्ति कर महाधैर्य के धारक तथा गण की रक्षा करनेवाले गणधरों एवं अन्यान्य साधुओं के साथ पृथिवीतलपर विहार किया ॥43-44॥ तदनन्तर सम्मेदाचल के शिखरपर आरूढ़ होकर तथा चार अधातिया कर्मों का क्षय कर वे लोक के चूड़ामणि हो गये अर्थात् सिद्धालय में जाकर विराजमान हो गये ॥45॥ जो मनुष्य उत्तम भाव से मुनिसुव्रत भगवान् के इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥46॥ वे पुनः आकर रत्नत्रय को निर्मल कर उस परम स्थान को प्राप्त होते हैं जहाँ से कि फिर आना नहीं होता ॥47॥ तदनन्तर मुनिसुव्रतनाथ के पुत्र सुव्रत ने भी चिरकाल तक निश्चल राज्य कर अन्त में अपने पुत्र दक्ष के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया ॥48॥ राजा दक्ष के इलावर्धन, इलावधन के श्रीवर्धन, श्रीवर्धन के श्रीवृक्ष, श्रीवृक्ष के संजयन्त, संजयन्त के कुणिम, कुणिम के महारथ और महारथ के पुलोमा इत्यादि हजारों राजा हरिवंश में उत्पन्न हुए। इन में से कित ने ही राजा निर्वाण को प्राप्त हुए और कित ने ही स्वर्ग गये ॥49-51॥ इस प्रकार क्रम से अनेक राजाओं के हो चुकनेपर इसी वंश में मिथिला का राजा वासवकेतु हुआ ॥52॥ उसकी विपुला नाम की पट्टरानी थी। वह विपुला, विपुल अर्थात् दीर्घ नेत्रों को धारण करनेवाली थी और उत्कृष्ट लक्ष्मी की धारक होकर भी मध्यभाग से दरिद्रता को प्राप्त थी अर्थात् उसकी कमर अत्यन्त कृश थी ॥53॥ उन दोनों के नीतिनिपुण जनक नाम का पुत्र हुआ। वह जनक, जनक अर्थात् पिता के समान ही निरन्तर प्रजा का हित करता था ॥54॥ गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! इस तरह मैंने तेरे लिए राजा जनक की उत्पत्ति कही। अब जिस वंश में राजा दशरथ हुए उसका कथन करता हूँ सो सुन ॥55॥ अथानन्तर इक्ष्वाकुओं के रमणीय कुल में जब भगवान् ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त हो गये और उनके बाद चक्रवर्ती भरत, अर्ककीर्ति तथा वंश के अलंकारभूत सोम आदि राजा व्यतीत हो चु के तब असंख्यात काल के भीतर उस वंश में अनेक राजा हुए। उनमें कित ने ही राजा अत्यन्त कठिन तपश्चरण कर निर्वाण को प्राप्त हुए, कित ने ही स्वर्ग में जाकर भोगों में निमग्न हो क्रीड़ा करने लगे, और कित ने ही पुण्य का संचय नहीं करने से शुष्क हो गये अर्थात् नरकादि गतियों में जाकर रोते हुए अपने कर्मों का फल भोग ने लगे ॥56-58॥ हे श्रेणिक ! इस संसार में जो व्यसनकष्ट हैं वे चक्र की नाईं बदलते रहते हैं अर्थात् कभी व्यसन महोत्सवरूप हो जाते हैं और कभी महोत्सव व्यसनरूप हो जाते हैं, कभी इस जीव में धीरे-धीरे माया आदि दोष वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ॥52॥ कभी ये जीव निधन होकर क्लेश उठाते हैं और कभी पूर्वबद्ध आयु के क्षीण हो जाने अथवा किसी कारणवश कम हो जाने से बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं ॥60॥ कभी ये जीव नाना रूपता को धारण करते हैं, कभी ज्यों-के-त्यों स्थिर रह जाते हैं, कभी एक दूसरे को मारते हैं, कभी शोक करते हैं, कभी रोते हैं, कभी खाते हैं, कभी बाधा पहुंचाते हैं, कभी विवाद करते हैं, कभी गमन करते हैं, कभी चलते हैं, कभी प्रभावशील होते हैं, अर्थात् स्वामी बनते हैं, कभी भार ढोते हैं, कभी गाते हैं, कभी उपासना करते हैं, कभी भोजन करते हैं, कभी दरिद्रता को प्राप्त करते हैं, कभी शब्द करते हैं ॥61-62॥ कभी जीतते हैं, कभी देते हैं, कभी कुछ छोड़ते हैं, कभी विराजमान होते हैं, कभी अनेक विलास धारण करते हैं, कभी सन्तोष धारण करते हैं, कभी शासन करते हैं, कभी शान्ति अर्थात् क्षमा की अभिलाषा करते हैं, कभी शान्ति का हरण करते हैं ॥3॥ कभी लज्जित होते हैं, कभी कुत्सित चाल चलते हैं, कभी किसी को सताते हैं, कभी सन्तप्त होते हैं, कभी कपट धारण करते हैं, कभी याचना करते हैं, कभी सम्मुख दौड़ते हैं, कभी मायाचार दिखाते हैं, कभी किसी के द्रव्यादि का हरण करते हैं ॥64॥ कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी किसी वस्तु को नष्ट करते हैं, कभी किसी को कुछ देते हैं, कभी कहीं वास करते हैं, कभी किसी को लोंचते हैं, कभी किसी को नापते हैं, कभी दुःखी होते हैं, कभी क्रोध करते हैं, कभी विचलित होते हैं, ॥65॥ कभी सन्तुष्ट होते हैं, कभी किसी की पूजा करते हैं, कभी किसी को छलते हैं, कभी किसी को सान्त्वना देते हैं, कभी कुछ समझते हैं, कभी मोहित होते हैं, कभी रक्षा करते हैं, कभी नृत्य करते हैं, कभी स्नेह करते हैं, कभी विनय करते हैं, ॥66॥ कभी किसी को प्रेरणा देते हैं, कभी दाने-दा ने बीनकर पेट भरते हैं, कभी खेत जोतते हैं, कभी भाड़ दूंजते हैं, कभी नमस्कार करते हैं, कभी क्रीड़ा करते हैं, कभी लुनते हैं, कभी सुनते हैं, कभी होम करते हैं, कभी चलते हैं, कभी जागते हैं ॥67॥ कभी सोते हैं, कभी डरते हैं, कभी नाना चेष्टा करते हैं, कभी नष्ट करते हैं, कभी किसी को खण्डित करते हैं, कभी किसी को पीड़ा पहुंचाते हैं, कभी पूर्ण करते हैं, कभी स्नान करते हैं, कभी बांधते हैं, कभी रोकते हैं, कभी चिल्लाते हैं, ॥68॥ कभी सोते हैं, कभी घूमते हैं, कभी जीणं होते हैं, कभी पीते हैं, कभी रचते हैं, कभी वरण करते हैं, कभी मसलते हैं, कभी फैलाते हैं, कभी तपंण करते हैं ॥69॥ कभी मीमांसा करते हैं, कभी घृणा करते हैं, कभी इच्छा करते हैं, कभी तरते हैं, कभी चिकित्सा करते हैं, कभी अनुमोदना करते हैं, कभी रोकते हैं और कभी निगलते हैं ॥70॥ हे राजन् ! इत्यादि क्रियाओं के जाल से जिनके मन व्याप्त हो रहे थे तथा शुभ-अशुभ कार्यों में लीन थे ऐसे अनेक मानव उस इक्ष्वाकुवंश में क्रम से हुए थे ॥71॥ इस प्रकार जिसमें समस्त मानवों की चेष्टाएँ चित्रपट के समान नाना प्रकार की हैं ऐसा यह अवसर्पिणी नाम का काल धीरे-धीरे समाप्त होता गया ॥72॥ अथानन्तर जिसमें देवों का आगमन जारी रहता था ऐसे बोसवें वर्तमान तीर्थकर का अन्तराल शुरू होनेपर अयोध्यानामक विशाल नगरी में विजय नाम का बड़ा राजा हुआ। उसने समस्त शत्रुओं को जीत लिया था। वह सूर्य के समान प्रताप से संयुक्त था तथा प्रजा का पालन करने में निपुण था ॥73-74॥ उसकी हेमचूला नाम की महातेजस्विनी पट्टरानी थी सो उसके सुरेन्द्रमन्य नाम का महागुणवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ॥75॥ सुरेन्द्रमन्यु की कीर्तिसमा स्त्री हुई सो उसके चन्द्रमा और सूर्य के समान कान्ति को धारण करनेवाले दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र गुणों से सुशोभित थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम वज्रबाहु और छोटे पुत्र का नाम पुरन्दर था। दोनों ही सार्थक नाम को धारण करनेवाले थे और संसार में सुख से क्रीड़ा करते थे॥७६-७७।। उसी समय अत्यन्त मनोहर हस्तिनापुर नगर में इभवाहन नाम का राजा रहता था। उसकी स्त्री का नाम चूड़ामणि था। उन दोनों के मनोदया नाम की अत्यन्त सुन्दरी पुत्री थी सो उसे मनुष्यों में अत्यन्त प्रशंसनीय वज्रबाहु कुमार ने प्राप्त किया ॥78-79॥ कदाचित् कन्या का भाई उदयसुन्दर उस कन्या को ले ने के लिए वज्रबाहु के घर गया सो जिसपर अत्यन्त सुशोभित सफ़ेद छत्र लग रहा था ऐसा वज्रबाहु स्वयं भी उसके साथ चलने के लिए उद्यत हुआ ॥80॥ वह कन्या अपने सौन्दर्य से समस्त पृथ्वी में प्रसिद्ध थी, उसे मन में धारण करता हुआ वज्रबाहु बड़े वैभव के साथ श्वसुर के नगर की ओर चला ॥8॥ अथानन्तर चलते-चलते उस को दृष्टि वसन्त ऋतु के फूलों से व्याप्त वसन्त नामक मनोहर पर्वतपर पड़ी ॥82॥ वह जैसे-जैसे उस पर्वत के समीप आता जाता वैसे-वै से ही उसकी परम शोभा को देखता हुआ हर्ष को प्राप्त हो रहा था ॥83॥ फूलों की धूलि से मिली सुगन्धित वाय उसका आलिंगन कर रही थी सो ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकाल के बाद प्राप्त हुआ मित्र ही आलिंगन कर रहा हो ॥84॥ जहां वृक्षों के अग्रभाग वायु से कम्पित हो रहे थे ऐसा वह पर्वत पुंस्कोकिलाओं के शब्दों के बहा ने मानो वज्रबाहु का जय-जयकार ही कर रहा था ॥85॥ वीणा की झंकार के समान मनोहर मदशाली भ्रमरों के शब्द से उसके श्रवण तथा मन साथ-ही-साथ हरे गये ॥86॥ 'यह आम है, यह कनेर है, यह फूलों से सहित लोध्र है, यह प्रियाल है और यह जलती हुई अग्नि के समान सुशोभित पलाश है' इस प्रकार क्रम से चलती हुई उसकी निश्चल दृष्टि दूरी के कारण जिसमें मनुष्य के आकार का संशय हो रहा था ऐसे मुनिराजपर पड़ी ॥87-88॥ कायोत्सर्ग से स्थित मुनिराज के विषय में वज्रबाहु को वितर्क उत्पन्न हुआ कि क्या यह ठूठ है ? या साधु हैं, अथवा पर्वत का शिखर है ? ॥89॥ तदनन्तर जब अत्यन्त समीपवर्ती मार्ग में पहुंचा तब उसे निश्चय हुआ कि ये महायोगी-मुनिराज हैं ॥90॥ वे मुनिराज ऊंची-नीची शिलाओं से विषम धरातल में स्थिर विराजमान थे, सूर्य की किरणों से आलिंगित होने के कारण उनका मुखकमल म्लान हो रहा था, किसी बड़े सर्प के समान सुशोभित उनकी दोनों उत्तम भुजाएं नीचे की ओर लटक रही थीं, उनका वक्षःस्थल सुमेरुके तट के समान स्थूल तथा चौड़ा था, उनकी देदीप्यमान दोनों उत्कृष्ट जाँचे दिग्गजों के बांधने के खम्भों के समान स्थिर थीं, यद्यपि वे तप के कारण कृश थे तथापि कान्ति से अत्यन्त स्थूल जान पड़ते थे, उन्होने अपने अत्यन्त सौम्य निश्चल नेत्र नासि का के अग्रभाग पर स्थापित कर रखे थे, इस प्रकार एकाग्र रूप से ध्यान करते हुए मुनिराज को देखकर राजा वज्रबाहु इस प्रकार विचार करने लगा कि ॥91-94॥ अहो! इन अत्यन्त प्रशान्त उत्तम मानव को धन्य है जो समस्त परिग्रह का त्याग कर मोक्ष की इच्छा से तपस्या कर रहे हैं !॥95॥ इन मुनिराजपर मुक्ति-लक्ष्मी ने अनुग्रह किया है, इन की बुद्धि आत्मकल्याण में लीन है, इन की आत्मा परपीड़ा से निवृत्त हो चुकी है, ये अलौकिक लक्ष्मी से अलंकृत हैं, शत्रु और मित्र, तथा रत्नों की राशि और तृण में समान बुद्धि रखते हैं, मान एवं मत्सर से रहित हैं, सिद्धिरूपी वधू का आलिंगन करने में इन की लालसा बढ़ रही है, इन्हों ने इन्द्रियों और मन को वश में कर लिया है, ये सुमेरुके समान स्थिर हैं, वीतराग हैं तथा कुशल कार्य में मन स्थिर कर ध्यान कर रहे हैं ॥96-98॥ मनुष्य में जन्म का पूर्ण-फल इन्हों ने प्राप्त किया है, इन्द्रियरूपी दुष्ट चोर इन्हें नहीं ठग सके हैं ॥99॥ और मैं ? मैं तो कर्मरूपी पाशों से उस तरह निरन्तर वेष्टित हूँ जिस तरह कि आशीविष जाति के बड़े-बड़े सो से चन्दन का वृक्ष वेष्टित होता है ॥100॥ जिसका चित्त प्रमाद से भरा हुआ है ऐसे जड़तुल्य मुझ पापी के लिए धिक्कार है। मैं भोगरूपी पर्वत की बड़ी गोल चट्टान के अग्रभाग पर बैठकर सो रहा हूँ ॥101॥ यदि मैं इन मुनिराज की इस अवस्था को धारण कर सकूँ तो मनुष्य-जन्म का फल मुझे प्राप्त हो जावे ॥102॥ इस प्रकार विचार करते हुए राजा वज्रबाहु की दृष्टि उन निर्ग्रन्थ मुनिराजपर खम्भे में बँधी हुई के समान अत्यन्त निश्चल हो गयी॥१०३॥ इस तरह वज्रबाहु को निश्चल दृष्टि देख उदयसुन्दर ने सुसकराकर हँसी करते हुए कहा कि आप इन मुनिराज को बड़ी देर से देख रहे हैं सो क्या इस दीक्षा को ग्रहण कर रहे हो? इसमें आप अनुरक्त दिखाई पड़ते हैं ॥104-105॥ तदनन्तर अपने भाव को छिपाकर वज्रबाहु ने कहा कि हे उदय ! तुम्हारा क्या भाव है सो तो कहो ॥106॥ उसे अन्तर से विरक्त न जानकर उदयसुन्दर ने परिहास के अनुरागवश दाँतों की किरणों से ओठों को व्याप्त करते हुए कहा कि ॥107॥ यदि आप इस दीक्षा को स्वीकृत करते हैं तो मैं भी आपका सखा अर्थात् साथी होऊँगा। अहो कुमार! आप इस मुनि दीक्षा से अत्यधिक सुशोभित होओगे ॥108॥ 'ऐसा हो' इस प्रकार कहकर विवाहक आभूषणों से युक्त वज्रबाहु हाथी से उतरा और पर्वतपर चढ़ गया ॥109॥ तब विशाल नेत्रों को धारण करनेवाली स्त्रियां जोर-जोर से रोने लगीं। उनके नेत्रों से टूटे हुए मोतियों के हार के समान आँसुओं की बड़ी-बड़ी बँदें गिरने लगीं ॥110॥ उदयसुन्दर ने भी आँखों में आँसू भरकर कहा कि हे देव ! प्रसन्न होओ, यह क्या कर रहे हो ? मैंने तो हँसी की थी ॥111॥ तदनन्तर मधुर शब्दों में सान्त्वना देते हुए वज्रबाह ने उदयसुन्दर से कहा कि हे उत्तम अभिप्राय के धारक ! मैं कुएँ में गिर रहा था सो तुमने निकाला है ॥112॥ तीनों लोकों में तुम्हारे समान मेरा दूसरा मित्र नहीं है। हे सुन्दर ! संसार में जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है और जो मरता है उसका जन्म अवश्यंभावी है ॥113॥ यह जन्म-मरणरूपी घटीयन्त्र बिजली, लहर तथा दुष्ट सर्प की जिह्वा से भी अधिक चंचल है तथा निरन्तर घूमता रहता है ॥114॥ दुःख में फं से हुए संसार के जीवन की ओर तुम क्यों नहीं देख रहे हो? ये भोग स्वप्नों के भोगों के समान हैं, जीवन बुद्बुद के तुल्य है, स्नेह सन्ध्या की लालिमा के समान है और यौवन फूल के समान है। हे भद्र ! तेरी हंसी भी मेरे लिए अमृत के समान हो गयी ॥115-116॥ क्या हंसी में पो गयी औषधि रोग को नहीं हरती? चूंकि तुमने मेरी कल्याण की ओर प्रवृत्ति करायी है इसलिए आज तुम्ही एक मेरे बन्धु हो॥११७।। मैं संसार के आचार में लीन था सो आज तुम उससे विरक्ति के कारण हो गये। लो, अब मैं दीक्षा लेता हूँ। तुम अपने अभिप्राय के अनुसार कार्य करो ॥118॥ इतना कहकर वह गुणसागर नामक मुनिराज के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम कर बड़ी विनय से हाथ जोड़ता हुआ बोला कि हे स्वामिन् ! आपके प्रसाद से मेरा मन पवित्र हो गया है सो आज मैं इस भयंकर संसाररूपी कारागृह से निकलना चाहता हूँ ॥119-120॥ तदनन्तर ध्यान समाप्त होनेपर मुनिराज ने उसके इस कार्य की अनुमोदना की। सो महासंवेग से भरा वज्रबाह वस्त्राभूषण त्याग कर उनके समक्ष शीघ्र ही पद्मासन से बैठ गया। उसने पल्लव के समान लाल-लाल हाथों से केश उखाड़कर फेंक दिये। उसे उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उसका शरीर रोगरहित होने से हल का हो गया हो। इस तरह उसने विवाह-सम्बन्धी दीक्षा का परित्याग कर मोक्ष प्राप्त करानेवाली दीक्षा धारण कर ली ॥121-123॥ तदनन्तर जिन्हों ने राग, द्वेष और मद का परित्याग कर दिया था, संवेग की ओर जिनका वेग बढ़ रहा था, तथा जो काम के समान सुन्दर विभ्रम को धारण करनेवाले थे, ऐसे उदयसुन्दर आदि छब्बीस राजकुमारों ने भी परमोत्साह से सम्पन्न हो मुनिराज को प्रणाम कर दीक्षा धारण कर ली ॥124-125॥ यह समाचार जानकर भाई के स्नेह से भीरु मनोदया ने भी बहुत भारी संवेग से युक्त हो दीक्षा ले ली ॥126॥ सफेद वस्त्र से जिसका विशाल स्तनमण्डल आच्छादित था, जिसका उदर अत्यन्त कृश था और जिस के शरीरपर मैल लग रहा था ऐसी मनोदया बड़ी तपस्विनी हो गयी ॥127॥ वज्रबाहु के बाबा विजयस्यन्दन को जब उसके इस समाचार का पता चला तब शोक से पीड़ित होता हुआ वह सभा के बीच में इस प्रकार बोला कि अहो! आश्चर्य की बात देखो, प्रथम अवस्था में स्थित मेरा नाती विषयों से विरक्त हो दैगम्बरी दीक्षा को प्राप्त हुआ है ॥128-129॥ मेरे समान वृद्ध पुरुष भी दुःख से छोड़ ने योग्य जिन विषयों के अधीन हो रहा है वे विषय उस कुमार ने कैसे की छोड़ दिये ॥130॥ अथवा उस भाग्यशालीपर मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने बड़ा अनुग्रह किया है जिससे वह भोगों को तृण के समान छोड़कर निराकुल भाव को प्राप्त हुआ है ॥131॥ प्रारम्भ में सुन्दर दिखनेवाले पापी विषयों ने जिसे चिरकाल से ठगा है तथा जो वृद्धावस्था से पीड़ित है ऐसा मैं अभागा इस समय कौन-सी चेष्टा को धारण करूँ?॥१३२॥ मेरे जो केश इन्द्रनील मणि की किरणों के समान श्याम वर्ण थे वे ही आज कास के फूलों की राशि के समान सफ़ेद हो गये हैं ॥133॥ सफ़ेद काली और लाल कान्ति को धारण करनेवाले मेरे जो नेत्र मनुष्यों के मन को हरण करनेवाले थे, अब उनका मार्ग भृकुटी रूपी लताओं से आच्छादित हो गया है अर्थात् अब वे लताओ से आच्छादित गर्त के समान जान पड़ते हैं ॥134॥ मेरा जो यह शरीर कान्ति से उज्ज्वल तथा महाबल से युक्त था वह अब वर्षा से ताड़ित चित्र के समान निष्प्रभ हो गया ॥135॥ अर्थ, धर्म और काम ये तीन पुरुषार्थ तरुण मनुष्य के योग्य हैं। वृद्ध मनुष्य के लिए इन का करना कठिन है ॥136॥ चेतनाशून्य, दुराचारी, प्रमादी तथा भाई-बन्धुओं के मिथ्या स्नेहरूपी सागर को भंवर में पड़े हुए मुझ पापी को धिक्कार हो ॥137॥ इस प्रकार कहकर तथा समस्त बन्धुजनों से पूछकर उदारहृदय वृद्ध राजा विजयस्यन्दन ने निःस्पृह हो छोटे पोते पुरन्दर के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं निर्वाणघोष नामक निर्ग्रन्थ महात्मा के समीप अपने पुत्र सुरेन्द्रमन्यु के साथ दीक्षा ले ली ॥138-139॥ तदनन्तर पुरन्दर को भार्या पृथिवीमती ने कीर्तिधर नामक पुत्र को उत्पन्न किया। वह पुत्र समस्त प्रसिद्ध गुणों का मानो सागर ही था ॥140॥ अपनी सुन्दर चेष्टा से समस्त बन्धुओं की प्रसन्नता को बढ़ाता हुआ विनयी कीर्तिधर क्रम-क्रम से यौवन को प्राप्त हुआ ॥141॥ तब राजा परन्दर ने उसके लिए कौशल देश के राजा की पुत्री स्वीकृत की। इस तरह पत्र का विवाहकर राजा पुरन्दर विरक्त हो घर से निकल पड़ा ॥142॥ गुणरूपी आभूषणों को धारण करनेवाले राजा पुरन्दर ने क्षेमंकर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर कर्मों की निर्जरा का कारण कठिन तप करना प्रारम्भ किया ॥143॥ इधर शत्रुओं को जीतनेवाला राजा कीर्तिधर कुल-क्रमागत राज्य का पालन करता हुआ देवों के समान उत्तम भोगों के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करने लगा ॥144॥ अथानन्तर किसी दिन शत्रुओं को भयभीत करनेवाला प्रजा-वत्सल राजा कीर्तिधर, अपने सुन्दर भवन के ऊपर नलकूबर विद्याधर के समान सुख से बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था कि उसकी दृष्टि राह विमान को नील कान्ति से आच्छादित सूर्यमण्डल (सूर्यग्रहण ) पर पड़ी। उसे देखकर वह विचार करने लगा कि अहो ! उदय में आया कम दूर नहीं किया जा सकता ॥145-146॥ भीषण अन्धकार को नष्ट कर चन्द्रमण्डल को कान्तिहीन कर देता है तथा कमलों के वन को विकसित करता है वह सूर्य राहु को दूर करने में समर्थ नहीं है ॥147॥ जिस प्रकार यह सूर्य नष्ट हो रहा है उसी प्रकार यह यौवनरूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहण को प्राप्त कर नष्ट हो जावेगा। मजबूत पाश से बँधा हुआ यह बेचारा प्राणी अवश्य ही मृत्यु के मुख में जाता है ॥148॥ इस प्रकार समस्त संसार को अनित्य मानकर राजा कीर्तिधर ने सभा में बैठे हुए मन्त्रियों से कहा कि अहो मन्त्री जनो! इस सागरान्त पथिवी की आप लोग रक्षा करो। मैं तो मुक्ति के मार्ग में प्रयाण करता हूँ ॥149॥ राजा के ऐसा कहनेपर विद्वानों तथा बन्धुजनों से परिपूर्ण सभा विषाद को प्राप्त हो उससे इस प्रकार बोली कि हे राजन! इस समस्त पथिवी के तम्ही एक अद्वितीय पति हो ॥150॥ यह पृथिवी आपके आधीन है तथा आप ने समस्त शत्रुओं को जीता है, इसलिए आपके छोड़नेपर सुशोभित नहीं होगी। उन्नत पराक्रम के धारक ! अभी आपकी नयो अवस्था है इसलिए इन्द्र के समान राज्य करो ॥151॥ इसके उत्तर में राजा ने कहा कि जो जन्मरूपी वृक्षों से संकुल है, व्याप्त है, बुढ़ापा, वियोग तथा अरतिरूपी अग्नि से प्रज्वलित है, तथा अत्यन्त दीर्घ है ऐसी इस व्यसनरूपी अटवी को देखकर मुझे भारी भय उत्पन्न हो रहा है ॥152॥ जब मन्त्रीजनों को राजा के दृढ़ निश्चय का बोध हो गया तब उन्होने बहुत से बुझे हुए अंगारों का समूह बुझाकर उस में किरणों से सुशोभित उत्तम वैडूर्यमणि रखा सो उसके प्रभाव से वह बुझे हुए अंगारों का समूह प्रकाशमान हो गया ॥153॥ तदनन्तर वह रत्न उठाकर बोले कि हे राजन् ! जिस प्रकार इस उत्तम रत्न से रहित अंगारों का समूह शोभित नहीं होता है उसी प्रकार आपके बिना यह संसार शोभित नहीं होगा ॥154॥ हे नाथ ! तुम्हारे बिना यह बेचारी समस्त प्रजा अनाथ तथा विकल होकर नष्ट हो जायेगी। प्रजा के नष्ट होनेपर धर्म नष्ट हो जायेगा और धर्म के नष्ट होनेपर क्या नहीं नष्ट होगा सो तुम्हीं कहो ॥155॥ इसलिए जिस प्रकार आपके पिता ने प्रजा की रक्षा के लिए आप को देकर मोक्ष प्रदान करने में दक्ष तपश्चरण किया था उसी प्रकार आप भी अपने इस कुलधर्म की रक्षा कीजिए ॥156॥ अथानन्तर कुशल मन्त्रियों के इस प्रकार कहने पर राजा कीर्तिधर ने नियम किया कि जिस समय मैं पुत्र को उत्पन्न हुआ सुनूँगा उस समय मुनियों का उत्कृष्ट पद अवश्य धारण कर लँगा ॥157॥ तदनन्तर जिस के भोग और पराक्रम इन्द्र के समान थे तथा जिसकी आत्मा सदा सावधान रहती थी ऐसे राजा कीर्तिधर ने सब प्रकार के भय से रहित तथा व्यवस्था से युक्त दीर्घ पृथ्वी का चिरकाल तक पालन किया ॥158॥ तदनन्तर राजा कीर्तिधर के साथ चिरकाल तक सुख का उपभोग करती हुई रानी सहदेवी ने सवंगुणों से परिपूर्ण एवं पृथ्वी के धारण करने में समर्थ पुत्र को उत्पन्न किया ॥159॥ पुत्र-जन्म का समाचार राजा के कानों तक न पहुँच जावे इस भय से पुत्र जन्म का उत्सव नहीं किया गया तथा इसी कारण कित ने ही दिन तक प्रसव का समय गुप्त रक्खा गया ॥160॥ तदनन्तर उगते हुए सूर्य के समान वह बालक चिरकाल तक छिपाकर कैसे की रक्खा जा सकता था ? फलस्वरूप किसी दरिद्र मनुष्य ने पुरस्कार पा ने के लोभ से राजा को उसकी खबर दे दी ॥161॥ राजा ने हर्षित होकर उसके लिए मुकुट आदि दिये तथा विपुल धन से युक्त सौ गाँवों के साथ घोष नाम का मनोहर शाखानगर दिया ॥162॥ और माता की महा तेजपूर्ण गोद में स्थित उस एक पक्ष के बालक को बुलवाकर उसे बड़े वैभव के साथ अपने पदपर बैठाया तथा सब लोगों का सन्मान किया ॥163॥ चूंकि उसके उत्पन्न होनेपर वह कोसला नगरी वैभव से अत्यन्त मनोहर हो गयी थी इसलिए उत्तम चेष्टाओं को धारण करनेवाला वह बालक 'सुकोसल' इस नाम को प्राप्त हुआ ॥164॥ तदनन्तर राजा कीर्तिधर भवनरूपी कारागार से निकलकर तपोवन में पहुँचा और तप सम्बन्धी तेज से वर्षाकाल से रहित सूर्य के समान अत्यन्त सुशोभित होने लगा ॥165॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में भगवान् मुनिसुव्रतनाथ, वज्रबाहु तथा राजा कीर्तिधर के माहात्म्य को कथन करनेवाला इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥21॥ |