+ राजा दशरथ की उत्पत्ति -
बाईसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानन्तर जो घोर तपस्वी थे, पृथ्वी के समान क्षमा के धारक थे, प्रभु थे, जिनका शरीर मैलरूपी कंचुक से व्याप्त था, जिन्हों ने मान को नष्ट कर दिया था, जो उदार हृदय थे, जिनका समस्त शरीर तप से सूख गया था, जो अत्यन्त धीर थे, केश लोंच करने को जो आभूषण के समान समझते थे, जिनकीलम्बी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, जो युगप्रमाण अर्थात् चार हाथ प्रमाण मार्ग में दृष्टि डालते हुए चलते थे, जो स्वभाव से ही मत्त हाथी के समान मन्दगति से चलते थे, विकार-शून्य थे, समाधान अर्थात् चित्त की एकाग्रता से सहित थे, विनीत थे, लोभरहित थे, आगमानुकूल आचार का पालन करते थे, जिनका मन दया से निर्मल था, जो स्नेहरूपी पंक से रहित थे, मुनिपदरूपी लक्ष्मी से सहित थे और जिन्हों ने चिरकाल का उपवास धारण कर रखा था, ऐसे कीर्तिधर मुनिराज भ्रमण करते हुए गृहपंक्तिकें क्रम से प्राप्त अपने पूर्व घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करने लगे ॥1-5॥ उस समय उनकी गृहस्थावस्था की स्त्री सहदेवी झरोखे में दृष्टि लगाये खड़ी थी सो उन्हें आते देख परमक्रोध को प्राप्त हुई। क्रोध से उसका मुंह लाल हो गया । ओंठ चाबती हुई उस दुष्टा ने द्वारपालों से कहा कि यह मुनि घर को फोड़नेवाला है इसलिए यहाँ से शीघ्र ही निकाल दिया जाय ॥६-७|मुग्ध, सर्वजन प्रिय और स्वभाव से ही कोमल चित्त का धारक, सुकुमार कुमार जबतक इसे नहीं देखता है तबतक शीघ्र ही दूर कर दो। यही नहीं यदि मैं और भी नग्न मनुष्यों को महल के अन्दर देखूगी तो हे द्वारपालो! याद रखो मैं अवश्य ही तुम्हें दण्डित करूंगी। यह निर्दय जबसे शिशुपुत्र को छोड़कर गया है तभी से इन लोगों में मेरा सन्तोष नहीं रहा ॥8-10॥ ये लोग महाशूर वीरों से सेवित राज्यलक्ष्मी से द्वेष करते हैं तथा महान् उद्योग करने में तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को अत्यन्त निर्वेद प्राप्त करा देते हैं ॥11॥ सहदेवी के इस प्रकार कहनेपर जिनके मुख से दुर्वचन निकल रहे थे तथा जो हाथ में वेत्र धारण कर रहे थे ऐसे दुष्ट द्वारपालों ने उन मुनिराज को दूर से ही शीघ्र निकाल दिया ॥12॥ इन्हें ही नहीं, 'राज विद्यमान राजकुमार धर्म का शब्द न सन ले' इस भय से नगर में जो और भी मनि विद्यमान थे उन सब को नगर से बाहर निकाल दिया ॥13॥

इस प्रकार वचनरूपी वसूली के द्वारा छीले हुए मुनिराज को सुनकर तथा देखकर जिसका भारी शोक फिर से नवीन हो गया था, तथा जो भक्ति से युक्त थी ऐसी सुकोसल धाय चिरकाल बाद अपने स्वामी कीर्तिधर को पहचानकर गला फाड़-फाड़कर रोने लगी ॥14-15॥ उसे रोती सुनकर सुकोशल शीघ्र ही उसके पास आया और सान्त्वना देता हुआ बोला कि हे माता! कह तेरा अपकार किस ने किया है ? ॥16॥ माता ने तो इस शरीर को गर्भमात्र में ही धारण किया है पर आज यह शरीर तेरे दुग्ध-पान से ही इस अवस्था को प्राप्त हुआ है ॥17॥ तू मेरे लिए माता से भी अधिक गौरव को धारण करती है। बता, यमराज के मुख में प्रवेश करने की इच्छा करनेवाले किस मनुष्य ने तेरा अपमान किया है ? ॥18॥ यदि आज माता ने भी तेरा पराभव किया होगा तो मैं उसकी अविनय करने को तैयार हूँ फिर दूसरे प्राणी की तो बात ही क्या है ? ॥19॥ तदनन्तर वसन्तलता नामक धाय ने बड़े दुःख से आँसुओं को धारा को कमकर सुकोशल से कहा कि तुम्हारा जो पिता शिशु अवस्था में ही तुम्हारा राज्याभिषेक कर संसाररूपी दुःखदायी पंजर से भयभीत हो तपोवन में चला गया था आज वह भिक्षा के लिए आपके घर में प्रविष्ट हुआ सो तुम्हारी माता ने अपने अधिकार से उसे द्वारपालों के द्वारा अपमानित कर बाहर निकलवा दिया | अपमानित होते देख मुझे बहुत शोक हुआ और उस शोक को मैं रोक नहीं सकी। इसलिए हे वत्स ! मैं रो रही हूँ ॥23॥ जिसे आप सदा गौरव से देखते हैं उसका पराभव कौन कर सकता है ? मेरे रोने का कारण यही है जो मैंने आप से कहा है ॥24॥ उस समय स्वामी कीर्तिधर ने हमारा जो उपकार किया था वह स्मरण में आते ही शरीर को स्वतन्त्रता से जला ने लगता है ॥25॥ पाप के उदय से दुःख का पात्र बनने के लिए ही मेरा यह शरीर रु का हुआ है। जान पड़ता है कि यह लोहे से बना है इसलिए तो स्वामी का वियोग होनेपर भी स्थिर है ॥26॥ निर्ग्रन्थ मुनि को देखकर तुम्हारी बुद्धि वैराग्यमय न हो जावे इस भय से नगर में मुनियों का प्रवेश रोक दिया गया है ॥27॥ परन्तु तुम्हारे कुल में परम्परा से यह धर्म चला आया है कि पुत्र को राज्य देकर तपोवन की सेवा करना ॥28॥ तुम कभी घर से बाहर नहीं निकल सकते हो इतने से ही क्या मन्त्रियों के इस निश्चय को नहीं जान पाये हो ॥29॥ इसी कारण नीति के जाननेवाले मन्त्रियों ने तुम्ह आदि को व्यवस्था इसी भवन में कर रखी है ॥30॥

तदनन्तर वसन्तलता धाय के द्वारा निरूपित समस्त वृत्तान्त सुनकर सुकोशल शीघ्रता से महल के अग्रभाग से नीचे उतरा ॥31॥ और छत्र चमर आदि राज-चिह्नों को छोड़कर कमल के समान कोमल कान्ति को धारण करनेवाले पैरों से पैदल ही चल पड़ा। वह लक्ष्मी से सुशोभित था तथा मार्ग में लोगों से पूछता जाता था कि यहां कहीं आप लोगों ने उत्तम मुनिराज को देखा है ? इस तरह परम उत्कण्ठा से युक्त सुकोशल राजकुमार पिता के समीप पहुँचा ॥32-33॥ इसके जो छत्र धारण करनेवाले आदि सेवक थे वे सब व्याकुल चित्त होते हुए हड़बड़ाकर उसके पीछे दौड़ते आये ॥34॥ जाते हो उसने प्रासुक विशाल तथा उत्तम शिलातल पर विराजमान अपने पिता कीर्तिधर मुनिराज की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। उस समय उसके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे, और उसकी भावनाएँ अत्यन्त उत्तम थीं ॥35॥ उसने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये तथा घुटनों और मस्तक से पृथिवी का स्पर्श कर बड़े स्नेह के साथ उनके चरणों में नमस्कार किया ॥36॥ वह हाथ जोड़कर विनय से मुनिराज के आगे बैठ गया। अपने घर से मुनिराज का तिरस्कार होने के कारण मानो वह लज्जा को प्राप्त हो रहा था ॥37॥ उसने मुनिराज से कहा कि जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त घर में सोते हुए मनुष्यों को तीव्र गर्जना से युक्त मेघों का समूह जगा देता है उसी प्रकार जन्म-मरणरूपी अग्नि से प्रज्वलित इस संसाररूपी घर में मैं मोहरूपी निद्रा से आलिंगित होकर सो रहा था सो हे प्रभो ! आप ने मुझे जगाया है ॥38-39॥ आप प्रसन्न होइए तथा आप ने स्वयं जिस दीक्षा को धारण किया है वह मेरे लिए भी दीजिये। हे भगवन् ! मुझे भी इस संसार के व्यसनरूपी संकट से बाहर निकालिए ॥40॥ नीचे की ओर मुख किये सुकोशल जबतक मुनिराज से यह कह रहा था तब तक उसके समस्त सामन्त वहाँ आ पहँचे ॥41॥ सकोशल की स्त्री विचित्रमाला भी गर्भ के भार को धारण करती, विषादभरी, अन्तःपुर के साथ वहाँ आ पहुँची ॥42॥ सुकाशल को दोक्षा के सम्मुख जानकर अन्तःपुर से एक साथ भ्रमर की झंकार के समान कोमल रा ने का आवाज उठ पड़ी ॥43॥

तदनन्तर सुकोशल ने कहा कि 'यदि विचित्रमाला के गर्भ में पुत्र है तो उसके लिए मैंने राज्य दिया' इस प्रकार कहकर उसने निःस्पृह हो, आशारूपी पाश को छेदकर, स्नेहरूपी पंजर को जलाकर, स्त्रीरूपी बेड़ी को तोड़कर, राज्य को तृण के समान छोड़कर, अलंकारों का त्याग कर अन्तरंगबहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का उत्सर्ग कर, पर्यकासन से बैठकर, केशों का लोंचकर पिता से महाव्रत धारण कर लिये। और दढ निश्चय हो शान्त चित्त से पिता के साथ विहार करने लगा ॥44-47॥ जब वह विहार के योग्य पृथिवीपर भ्रमण करता था तब पैरों की लाल-लाल किरणों से ऐसा जान पड़ता था मानो कमलों का उपहार ही पृथिवीपर चढ़ा रहा हो। लोग उसे आश्चर्यभरे नेत्रों से देखते थे ॥48॥

मिथ्यादृष्टि तथा पाप करने में तत्पर रहनेवाली सहदेवी आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुई ॥49॥ इस प्रकार पिता-पुत्र आगमानुकूल विहार करते थे। विहार करते-करते जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वे वहीं सो जाते थे। तदनन्तर दिशाओं को मलिन करता हुआ वर्षा काल आ पहुंचा ॥50॥ काले-काले मेघों के समूह से आकाश ऐसा जान पड़ने लगा मानो गोबर से लीपा गया हो और कहीं-कहीं उड़ती हुई वलाकाओं से ऐसा जान पड़ता था मानो उसपर कुमुदों के समूह से अर्चा ही की गयी हो ॥51॥ जिनपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ऐसी कदम्ब की बड़ी-बड़ी बोडियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो वर्षाकालरूपी राजा का यशोगान ही कर रहे हों ॥52॥ जगत् ऐसा जान पड़ता था मानो ऊंचे-ऊँचे पर्वतों के समान नीलांजन के समूह से ही व्याप्त हो गया हो और चन्द्रमा तथा सूर्य कहीं चले गये थे मानो मेवों की गर्जना से तर्जित होकर ही चले गये थे ॥53॥ आकाशतल से अखण्ड जलधारा बरस रही थी सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशतल पिघल-पिघलकर बह रहा हो और पृथिवी में हरी-हरी घास उग रही थी उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उसने सन्तोष से घासरूपी कंचुक ( चोली ) ही पहन रखी हो ॥54॥ जिस प्रकार अतिशय दुष्ट मनुष्य का चित्त ऊंच-नीच सब को समान कर देता है उसी प्रकार वेग से बहनेवाले जल के पूर ने ऊंची-नीची समस्त भूमि को समान कर दिया था ॥55॥ पृथिवीपर जल के समूह गरज रहे थे और आकाश में मेघों के समूह गर्जना कर रहे थे उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे भागे हुए ग्रीष्मकालरूपी शत्रु को खोज ही रहे थे ॥56॥ झरनों से सुशोभित पर्वत अत्यन्त सघन कन्दलों से आच्छादित हो गये थे। उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जल के बहुत भारी भार से मेघ ही नीचे गिर पड़े हों ॥57॥ वन की स्वाभाविक भूमि में जहाँ-तहां चलते-फिरते इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़े दिखाई देते थे। जो ऐसे जान पड़ते थे मानो मेघों के द्वारा चूर्णीभूत सूर्य के टुकड़े ही पृथिवीपर आ पड़े हों ॥58॥ बिजली का तेज जल्दी-जल्दी समस्त दिशाओं में घूम रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश का नेत्र 'कौन देश जल से भरा गया और कौन देश नहीं भरा गया' इस बात को देख रहा था ॥59॥ अनेक प्रकार के तेज को धारण करनेवाले इन्द्रधनुष से आकाश ऐसा सुशोभित हो गया मानो अत्यन्त ऊंचे सुन्दर तोरण से हो सुशोभित हो गया हो ॥60॥ जो दोनों तटों को गिरा रही थीं, जिन में भयंकर आवर्त उठ रहे थे, और जो बड़े वेग से बह रही थीं ऐसी कलुषित नदियां व्यभिचारिणी स्त्रियों के समान जान पड़ती थीं ॥61॥ जो मेघों की गर्जना से भयभीत हो रहीं थीं, तथा जिनके नेत्र हरिणी के समान चंचल थे ऐसी प्रोषितभर्त का स्त्रियां शीघ्र ही खम्भों का आलिंगन कर रही थीं ॥62॥ अत्यन्त भयंकर गर्जना से जिनकीचेतना जर्जर हो रही थी ऐसे प्रवासी-परदेशी मनुष्य जिस दिशा में स्त्री थी उसी दिशा में नेत्र लगाये हुए विह्वल हो रहे थे ॥63॥ सदा अनुकम्पा ( दया ) के पालन करने में तत्पर रहनेवाले दिगम्बर मुनिराज प्रासुक स्थान पाकर चातुर्मास व्रत का नियम लिये हुए थे ॥64॥ जो शक्ति के अनुसार नाना प्रकार के व्रत-नियम आखड़ी आदि धारण करते थे तथा सदा साधुओं की सेवा में तत्पर रहते थे ऐसे श्रावकों ने दिग्व्रत धारण कर रखा था ॥65॥ इस प्रकार मेघों से युक्त वर्षाकाल के उपस्थित होनेपर आगमानुकूल आचार को धारण करनेवाले दोनों पिता-पुत्र निर्ग्रन्थ साधु कीतिधर मुनिराज और सुकोशलस्वामी इच्छानुसार विहार करते हुए उस श्मशानभूमि में आये जो वृक्षों के अन्धकार से ्भीर था, अनेक प्रकार के सर्प आदि हिंसक जन्तुओं से व्याप्त था, पहाड़ की छोटी-छोटी शाखाओं था, भयंकर जीवों को भी भय उत्पन्न करनेवाला था, काक, गीध, रीछ तथा शृगाल आदि के शब्दों से जिस के गर्त भर रहे थे. जहाँ अधजले मरदे पडे हए थे, जो भयंकर था, जहाँ की भूमि ऊँची-नीची थी, जो शिर की हड्डियों के समूह से कहीं-कहीं सफेद हो रहा था, जहाँ चर्बी की अत्यन्त सड़ी बास से तीक्ष्ण वायु बड़े वेग से बह रही थी, जो अट्टहास से युक्त घूमते हुए भयंकर राक्षस और वेतालों से युक्त था तथा जहाँ तृणों के समूह और लताओं के जाल से बड़े-बड़े वृक्ष परिणद्ध-व्याप्त थे। ऐसे विशाल श्मशान में एक साथ विहार करते हुए, तपरूपी धन के धारक तथा उज्ज्वल मन से युक्त धीरवीर पिता-पुत्र-दोनों मुनिराज आषाढ सुदी पूर्णिमा को अनायास ही आ पहुँचे ॥66-71॥ सब प्रकार को स्पृहा से रहित दोनों मुनिराज, जहाँ पत्तों के पड़ने से पानी प्रासुक हो गया था ऐसे उस श्मशान में एक वृक्ष के नीचे चार मास का उपवास लेकर विराजमान हो गये ॥72॥ वे दोनों मुनिराज कभी पर्यकासन से विराजमान रहते थे, कभी कायोत्सर्ग धारण करते थे, और कभी वीरासन आदि विविध आसनों से अवस्थित रहते थे। इस तरह उन्होने वर्षाकाल व्यतीत किया ॥73॥

तदनन्तर जिसमें समस्त मानव उद्योग-धन्धों से लग गये थे तथा जो प्रातःकाल के समान समस्त संसार को प्रकाशित करने में निपुण थी ऐसी शरद् ऋतु आयी ॥74 / उस समय आकाशांगण में कहीं-कहीं ऐसे सफेद मेघ दिखाई देते थे जो फूले हुए काश के फूलों के समान थे तथा मन्दमन्द हिल रहे थे ॥75॥ जिस प्रकार उत्सर्पिणी काल के दुःषमा-काल बीतनेपर भव्य जीवों के बन्धु श्रीजिनेन्द्रदेव सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार मेघों के आगमन से रहित आकाश में सूर्य सुशोभित होने लगा ॥76 / जिस प्रकार कुमुदों के बीच में तरुण राजहंस सुशोभित होता है उसी प्रकार ताराओं के समूह के बीच में चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ॥77॥ रात्रि के समय चन्द्रमारूपी प्रणाली के मुख से निकली हुई क्षीरसागर के समान सफेद चांदनी से समस्त संसार व्याप्त हो गया ॥78॥ जिनके रेतीले किनारे तरंगों से चिह्नित थे, तथा जो क्रौंच सारस चकवा आदि पक्षियों के शब्द के बहा ने मानो परस्पर में वार्तालाप कर रही थीं ऐसी नदियाँ प्रसन्नता को प्राप्त हो गयी थीं ॥79॥ जिनपर भ्रमर चल रहे थे ऐसे कमलों के समूह तालाबों में इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मिथ्यात्व रूपी मैल के समूह को छोड़ते हुए भव्य जीवों के समूह ही हों ॥80॥ भोगी मनुष्य, फूलों के समूह से सुन्दर ऊंचे-ऊँचे महलों के तल्लों से रात्रि के समय अपनी वल्लभाओं के साथ रमण करने लगे ॥81॥ जिन में मित्र तथा बन्धुजनों के समूह सम्मानित किये गये थे तथा जिन में महान् उत्सव की वृद्धि हो रही थी ऐसे वियुक्त स्त्री-पुरुषों के समागम होने लगे ॥82॥ कार्तिक मासकी पूर्णिमा व्यतीत होनेपर तपस्वीजन उन स्थानों में विहार करने लगे जिन में भगवान् के गर्भ जन्म आदि कल्याणक हुए थे तथा जहां लोग अनेक प्रकार को प्रभावना करने में उद्यत थे ॥83॥

अथानन्तर जिनका चातुर्मासोपवास का नियम पूर्ण हो गया था ऐसे वे दोनों मुनिराज आगमानुकूल गति से गमन करते हुए पारणा के निमित्त नगर में जाने के लिए उद्यत हुए ॥84॥ उसी समय एक व्याघ्री जो पूर्वभव में सुकोशलमुनि की माता सहदेदी थी उन्हें देखकर क्रोध से भर गयी, उसकी खून से लाल-लाल दिखनेवाली बिखरी जटाएं काँप रही थीं, उसका मुख दाढ़ों से भयंकर था, पीले-पीले नेत्र चमक रहे थे, उसकी गोल पूंछ मस्तक के ऊपर आकर लग रही थी, नखों के द्वारा वह पृथिवी को खोद रही थी, गम्भीर हुंकार कर रही थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो शरीर को धारण करनेवाली मारी ही हो, उसकी लाल-लाल जिह्वा का अग्रभाग लपलपा रहा था, वह देदीप्यमान शरीर को धारण कर रही थी और मध्याह्न के सूर्य के समान जान पड़ती थी। बहुत देर तक क्रीड़ा करने के बाद उसने सुकोशलस्वामी को लक्ष्य कर ऊंची छलांग भरी ॥85-88॥ सुन्दर शोभा को धारण करनेवाले दोनों मुनिराज, उसे छलांग भरती देख 'यदि इस उपसर्ग से बचे तो आहार पानी ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं' इस प्रकार की सालम्ब प्रतिज्ञा लेकर निर्भय हो कायोत्सर्ग से खड़े हो गये ॥89॥ वह दयाहीन व्याघ्री सुकोशल मुनि के ऊपर पड़ी और नखों के द्वारा उनके मस्तक आदि अंगों को विदारती हुई पृथिवीपर आयी ॥90॥ उसने उनके समस्त शरीर को चीर डाला जिससे खून की धाराओं को छोड़ते हुए वे उस पहाड़ के समान जान पड़ते थे जिससे गेरू आदि धातुओं से मिश्रित पानी के निर्झर झर रहे हों ॥11॥ तदनन्तर वह पापिन उनके सामने खड़ी होकर तथा नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर उन्हें पैर की ओर से खा ने लगी ॥92॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मोह की चेष्टा तो देखो जहां माता ही प्रिय पुत्र के शरीर को खाती है ॥93॥ इस से बढ़कर और क्या कष्ट की बात होगी कि दूसरे जन्म से मोहित हो बान्धवजन ही अनर्थकारी शत्रुता को प्राप्त हो जाते हैं ॥94॥

तदनन्तर मेरुके समान स्थिर और शुक्ल ध्यान को धारण करनेवाले सुकोशल मुनि को शरीर छूट ने के पहले ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥95॥ सुर और असुरों ने इन्द्र के साथ आकर बड़े हर्ष से दिव्य पुष्पादि सम्पदा के द्वारा उनके शरीर को पूजा की ॥96॥ सुकोशल के पिता कीर्तिधर मुनिराज ने भी उस व्याघ्री को मधुर शब्दों से सम्बोधा जिससे संन्यास ग्रहण कर वह स्वर्ग गयी ॥97॥ तदनन्तर उसी समय कीर्तिधर मुनिराज को भी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ सो महिमा को करनेवाले देवों की वही एक यात्रा पिता और पुत्र दोनों का केवलज्ञान महोत्सव करनेवाली हई॥९८॥ सर और असर केवलज्ञान को परम महिमा फैलाकर तथा दोनों केवलियों के चरणों को नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर गये ॥99॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि जो पुरुष सुकोशलस्वामी के माहात्म्य को पढ़ता है वह उपसर्ग से रहित हो चिरकाल तक सुख से जीवित रहता है ॥100॥

अथानन्तर सुकोशल की स्त्री विचित्रमाला ने गर्भ का समय पूर्ण होनेपर सुन्दर लक्षणों से चिह्नित शरीर को धारण करनेवाला पुत्र उत्पन्न किया ॥101॥ चूंकि उस बालक के गर्भ में स्थित रहनेपर माता सुवर्ण के समान सुन्दर हो गयी थी इसलिए वह बालक हिरण्यगर्भ नाम को प्राप्त हुआ ॥102॥ आगे चलकर हिरण्यगर्भ ऐसा राजा हुआ कि उसने अपने गुणों के द्वारा भगवान् ऋषभदेव का समय ही मानो पुनः वापस लाया था। उसने राजा हरि की अमृतवती नाम की शुभ पुत्री के साथ विवाह किया ॥103॥ राजा हिरण्यगर्भ समस्त मित्र तथा बान्धवजनों से सहित था, सर्व शास्त्रों का पारगामी था, अखण्ड धन का स्वामी था, श्रीमान् था, सुमेरु पर्वत के समान सुन्दर था, और उदार हृदय था। वह उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ समय बिताता था कि एक दिन उसने अपने भ्रमर के समान काले केशों के बीच एक सफ़ेद बाल देखा ॥104-105॥ दर्पण के मध्य में स्थित उस सफेद बाल को देखकर वह ऐसा शोक को प्राप्त हुआ मानो अपने आप को बुलाने के लिए यम का दूत ही आ पहुँचा हो ॥१०६॥ वह विचार करने लगा कि हाय बड़े कष्ट की बात है कि इस समय शक्ति और कान्ति को नष्ट करनेवाली इस वृद्धावस्था के द्वारा मेरे अंग बलपूर्वक हरे जा रहे हैं ॥107॥ मेरा यह शरीर चन्दन के वृक्ष के समान सुन्दर है सो अब वृद्धावस्थारूपी अग्नि से जलकर अंगार के समान हो जावेगा ॥108॥ जो वृद्धावस्था रोगरूपी छिद्र की प्रतीक्षा करती हुई चिरकाल से स्थित थी अब वह पिशाची की नाईं प्रवेश कर मेरे शरीर को बाधा पहुँचावेगी ॥109॥ ग्रहण करने में उत्सुक जो मृत्यु व्याघ्र की तरह चिरकाल से बद्धक्रम होकर स्थित था अब वह हठात् मेरे शरीर का भक्षण करेगा ॥110॥ वे श्रेष्ठ तरुण धन्य हैं जो इस कर्मभूमि को पाकर तथा व्रतरूपी नावपर सवार हो संसाररूपी सागर से पार हो चु के हैं ॥111॥ ऐसा विचारकर उसने अमृतवती के पुत्र नघुष को राज्य-सिंहासनपर बैठाकर विमल योगी के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥112॥ चूँकि उस पुत्र के गर्भ में स्थित रहते समय पृथिवीपर अशुभ की घोषणा नहीं हुई थी अर्थात् जबसे वह गर्भ में आया था तभी से अशुभ शब्द नहीं सुनाई पड़ा था इसलिए वह 'नघुष' इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था। उसने अपने गुणों से समस्त संसार को नम्रीभूत कर दिया था ॥113॥

अथानन्तर किसी समय राजा नधुष अपनी सिंहि का नामक रानी को नगर में रखकर प्रतिकूल शत्रुओं को वश करने के लिए उत्तर दिशा की ओर गया ॥114॥ इधर दक्षिण दिशा के राजा नघुष को दूरवर्ती जानकर उसकी अयोध्या नगरी को हथिया ने के लिए आ पहुँचे। वे राजा बहुत भारी सेना से सहित थे ॥115॥ परन्तु अत्यन्त प्रतापिनी सिंहि का रानी ने उन सब को युद्ध में जीत लिया। इतना ही नहीं वह एक विश्वासपात्र राजा को नगर की रक्षा के लिए नियुक्त कर युद्ध में जीते हुए सामन्तों के साथ शेष राजाओं को जीत ने के लिए दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ी। शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही उसने अच्छा परिश्रम किया था ॥116-117॥ वह प्रतिकूल सामन्तों को अपने प्रताप से ही जीतकर विजयनाद से दिशाओं को पूर्ण करती हुई नगरी में वापस आ गयी ॥118॥ उधर जब राजा नघुष उत्तर दिशा को वश कर वापस आया तब स्त्री के पराक्रम की बात सुनकर वह परम क्रोध को प्राप्त हुआ ॥119॥ अखण्डशील को धारण करनेवाली कुलांगना की ऐसी धृष्टता नहीं हो सकती ऐसा निश्चय कर वह सिंहि का से विरक्त हो गया ॥120॥ वह उत्तम चेष्टाओं से सहित थी फिर भी राजा ने उसे महादेवी के पद से च्युत कर दिया। इस तरह महादरिद्रता को प्राप्त हो वह कुछ समय तक बड़े कष्ट से रही ॥121॥

अथानन्तर किसी समय राजा को ऐसा महान् दाहज्वर हुआ कि जो समस्त वैद्यों के द्वारा प्रयुक्त ओषधियों से भी अच्छा नहीं हो सका ॥122॥ जब सिंहि का को इस बात का पता चला तब वह शोक से बहुत ही आकुल हुई। उसी समय उसने अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए यह काम किया ॥123॥ कि उसने समस्त बन्धुजनों, सामन्तों और प्रजा को बुलाकर अपने करपुट में पुरोहित के द्वारा दिया हुआ जल धारण किया और कहा कि यदि मैंने अपने चित्त में किसी दूसरे भर्ता को स्थान नहीं दिया हो तो इस जल से सींचा हुआ भर्ता दाहज्वर से रहित हो जावे ॥124-125॥ तदनन्तर सिंहि का रानी के हाथ में स्थित जल का एक छींटा ही राजापर सींचा गया था कि वह इतना शीतल हो गया मानो बर्फ में ही डबा दिया गया हो। शीत के कारण उसकी दन्तावली वीणा के समान शब्द करने लगी ॥126॥ उसी समय 'साधु'-'साधु' शब्द से आकाश भर गया औ अदृष्टजनों के द्वारा छोड़े हुए फूलों के समूह बरस ने लगे ॥127॥ इस प्रकार राजा नघुष ने सिंहि का रानी को शीलसम्पन्न जानकर फिर से उसे महादेवी पदपर अधिष्ठित किया तथा उसकी बहुत भारी पुजा को ॥128॥ शत्रुरहित होकर उसने चिरकाल तक उसके साथ भोगों का अनुभव किया और अपने पूर्वपुरुषों के द्वारा आचारित समस्त कार्य किये। उसकी यह विशेषता थी कि भोगरत रहनेपर भी वह मन में सदा भोगों से निःस्पृह रहता था ॥129॥ अन्त में वह धीरवोर सिंहिकादेवी से उत्पन्न पुत्र को राज्य देकर अपने पिता के द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने लगा अर्थात् पिता के समान उसने जिनदीक्षा धारण कर ली ॥130॥

राजा नघुष समस्त शत्रुओं को वश कर ले ने के कारण सुदास कहलाता था। इसलिए उसका पुत्र संसार में सौदास ( सुदासस्यापत्यं पुमान् सौदासः) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥131॥ प्रत्येक चार मास समाप्त होनेपर जब अष्टाह्निका के आठ दिन आते थे तब उसके गोत्र में कोई भी मांस नहीं खाता था भले ही उसका शरीर मांस से ही क्यों न वृद्धिंगत हुआ हो ॥132॥ किन्तु इस राजा सौदास को किसी अशुभ कर्म के उदय से इन्हीं दिनों में मांस खा ने की इच्छा उत्पन्न हुई ॥133॥ तब उसने रसोइया को बुलाकर एकान्त में कहा कि हे भद्र ! आज मेरे मांस खा ने की इच्छा उत्पन्न हुई है ॥134॥ रसोइया ने उत्तर दिया कि देव ! आप यह जानते हैं कि इन दिनों में समस्त पृथ्वी में बड़ी समृद्धि के साथ जिनपूजा होती है तथा जीवों के मार ने की मनाही है ॥135॥ यह सुन राजा ने रसोइया से कहा कि यदि आज मैं मांस नहीं खाता हूँ तो मर जाऊंगा। ऐसा निश्चय कर जो उचित हो सो करो। बात करने से क्या लाभ है ? ॥136॥ राजा की ऐसी दशा जानकर रसोइया नगर के बाहर गया। वहाँ उसने उसी दिन परिखा में छोड़ा हुआ एक मृतक बालक देखा ॥137॥ उसे वस्त्र से लपेटकर वह ले आया और स्वादिष्ट वस्तुओं से पकाकर खा ने के लिए राजा को दिया ॥138॥ महामांस ( नरमांस ) के रसास्वाद से जिसका मन अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था ऐसा राजा उसे खाकर जब उठा तब उसने आश्चर्यचकित हो रसोइया से कहा कि भद्र ! जिस के इस अत्यन्त मधुर रस का मैंने पहले कभी स्वाद नहीं लिया ऐसा यह मांस तुमने कहाँ से प्राप्त किया है ? ॥139-140॥ इसके उत्तर में रसोइया ने अभयदान की याचना कर सब बात ज्योंकी-त्यों बतला दी। तब राजा ने कहा कि सदा ऐसा ही किया जाये ॥141॥

अथानन्तर रसोइया ने छोटे-छोटे बालकों के लिए लड्डू देना शुरू किया, उसके लोभ से बालक प्रतिदिन उसके पास आने लगे ॥142॥ लड्डू लेकर जब बालक जाने लगते तब उनमें जो पीछे रह जाता था उसे मारकर तथा पकाकर वह निरन्तर राजा कोदेने लगा ॥143॥ जब प्रतिदिन नगर के बालक कम होने लगे तब लोगों ने इसका निश्चय किया और रसोइया के साथसाथ राजा को नगर से निकाल दिया ॥144॥ सौदासकी कनकाभा स्त्री से एक सिंहरथ नाम का पुत्र हुआ था। नगरवासियों ने उसे ही राज्यपदपर आरूढ़ किया तथा सब राजाओं ने उसे प्रणाम किया ॥145॥ राजा सौदास नरमांस में इतना आसक्त हो गया कि उसने अपने रसोइया को ही खा लिया। अन्त में वह छोड़े हुए मुर्दो को खाता हुआ दुःखी हो पृथ्वीपर भ्रमण करने लगा ॥146॥ जिस प्रकार सिंह का आहार मांस है उसी प्रकार इसका भी आहार मांस हो गया था। इसलिए यह संसार में सिंहसौदास के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ॥147॥

अथानन्तर वह दक्षिण देश में जाकर एक दिगम्बर मुनि के पास पहुंचा और उनसे धर्म श्रवण कर बड़ा भारी अणव्रतों का धारी हो गया ॥148॥ तदनन्तर उसी समय महापर नगर का राजा मर गया था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। सो लोगों ने निश्चय किया कि पट्टबन्ध हाथी छोड़ा जावे। वह जिसे कन्धेपर बैठाकर लावे उसे ही राजा बना दिया जाये। निश्चयानुसार पट्टबन्ध हाथी छोड़ा गया और वह सिंहसौदास को कन्धेपर बैठाकर नगर में ले गया। फलस्वरूप उसे राज्य प्राप्त हो गया ॥149॥ कुछ समय बाद जब सौदास बलिष्ठ हो गया तब उसने नमस्कार करने के लिए पुत्र के पास दूत भेजा। इसके उत्तर में पुत्र ने निर्भय होकर लिख दिया कि चूंकि तुम निन्दित आचरण करनेवाले हो अतः तुम्हें नमस्कार नहीं करूंगा ॥150॥ तदनन्तर सौदास पुत्र के ऊपर चढ़ाई करने के लिए चला सो 'कहीं यह खा न ले' इस भय से समस्त देशवासी लोगों ने भागना शुरू कर दिया ॥151॥ अन्त में सौदास ने युद्ध में पुत्र को जीतकर उसे ही राजा बना दिया और स्वयं कृतकृत्य हो वह महावैराग्य से युक्त होता हुआ तपोवन में चला गया ॥152॥

तदनन्तर सिंहरथ के ब्रह्मरथ, ब्रह्मरथ के चतुर्मुख, चतुर्मुख के हेमरथ, हेमरथ के शतरथ, शतरथ के मान्धाता, मान्धाता के वीरसेन, वीरसेन के प्रतिमन्यु, प्रतिमन्यु के दीप्ति से सूर्य की तुलना करनेवाला कमलबन्धु, कमलबन्धु के प्रताप से सूर्य के समान तथा समस्त मर्यादा को जाननेवाला रविमन्यु, रविमन्यु के वसन्ततिलक, वसन्ततिलक के कुबेरदत्त, कुबेरदत्त के कीर्तिमान् कुन्थुभक्ति, कुन्थुभक्ति के शरभरथ, शरभरथ के द्विरदरथ, द्विरदरथ के सिंहदमन, सिंहदमन के हिरण्यकशिपु, हिरण्यकशिपु के पुंजस्थल, पुंजस्थल के ककुत्थ और ककुत्थ के अतिशय पराक्रमी रघु पुत्र हुआ ॥153-158॥ इस प्रकार इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए राजाओं का वर्णन किया। इन में से अनेक राजा दिगम्बर व्रत धारण कर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥159॥ तदनन्तर राजा रघु के अयोध्या में अनरण्य नाम का ऐसा पुत्र हुआ कि जिसने लोगों को बसाकर देश को अनरण्य अर्थात् वनों से रहित कर दिया ॥160॥ राजा अनरण्य की पृथिवीमती नाम की महादेवी थी जो महागुणों से युक्त थी, कान्ति के समूह के मध्य में स्थित थी और समस्त इन्द्रियों के सुख धारण करनेवाली थी ॥161॥ उसके उत्तम लक्षणों के धारक दो पुत्र हुए। उनमें ज्येष्ठ पुत्र का नाम अनन्तरथ और छोटे पुत्र का नाम दशरथ था ॥162॥ माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि की अनरण्य के साथ उत्तम मित्रता थी ॥१६३॥ परस्पर के आने-जाने से जिनका प्रेम वृद्धि को प्राप्त हुआ था ऐसे दोनों राजा अपने-अपने घर सौधर्म और ऐशानेन्द्र के समान रहते थे ॥164॥

अथानन्तर रावण से पराजित होकर राजा सहस्ररश्मि प्रतिबोध को प्राप्त हो गया जिससे उत्तम संवेग को धारण करते हुए उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ॥165॥ दीक्षा धारण करने के पहले उसने राजा अनरण्य के पास दूत भेजा था सो उससे सब समाचार जानकर राजा अनरण्य, जिसे उत्पन्न हुए एक माह ही हुआ था ऐसे दशरथ के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर अभयसेन नामक निर्ग्रन्थ महात्मा के समीप ज्येष्ठ पुत्र अनन्तरथ के साथ अत्यन्त निःस्पृह हो दीक्षित हो गया ॥166-167॥ अनरण्य मुनि तो मोक्ष चले गये और अनन्तरथ मुनि सर्व प्रकार के परिग्रह से रहित हो यथायोग्य पृथिवीपर विहार करने लगे ॥168॥ अनन्तरथ मुनि अत्यन्त दुःसह बाईस परीषहों से क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे इसलिए पृथिवीपर 'अनन्तवीर्य' इस नाम को प्राप्त हुए ॥169॥

अथानन्तर राजा दशरथ ने नवयौवन से सुशोभित तथा नाना प्रकार के फूलों से सुभूषित पहाड़ के शिखर के समान ऊँचा शरीर प्राप्त किया ॥170॥ तदनन्तर उसने दर्भस्थल नगर के स्वामी तथा सुन्दर विभ्रमों को धारण करनेवाले राजा सुकोशल की अमृतप्रभावा नाम की उत्तम स्त्री से उत्पन्न अपराजिता नाम की पुत्री के साथ विवाह किया। अपराजिता इतनी उत्तम स्त्री थी कि स्त्रियों के योग्य गुणों के द्वारा रति भी उसे पराजित नहीं कर सकी थी ॥171-172॥ तदनन्तर कमलसंकूल नाम का एक महासुन्दर नगर था। उस में सुबन्धतिलक नाम का राजा राज्य था। उसकी मित्रा नाम की स्त्री थी। उन दोनों के कैकयी नाम की गुणवती पुत्री थी। वह इतनी सुन्दरी थी कि उसके नेत्ररूपी नील कमलों की माला से मस्तक मालारूप हो गया चूंकि यह मित्रा नामक माता से उत्पन्न हुई थी, उत्तम चेष्टाओं से युक्त थी, तथा रूपवती थी इसलिए लोक में सुमित्रा इस नाम से भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुई थी। राजा दशरथ ने उसके साथ भी विवाह किया था ॥175॥ इन के सिवाय लावण्यरूपी सम्पदा के द्वारा लक्ष्मी को भी लज्जा उत्पन्न करनेवाली सुप्रभा नाम की एक अन्य राजपुत्रो के साथ भी उन्होने विवाह किया था ॥176॥ राजा दशरथ ने सम्यग्दर्शन तथा परम वैभव से युक्त राज्य इन दोनों वस्तुओं को प्राप्त था। सो प्रथम जो सम्यग्दर्शन है उसे वह रत्न समझता था और अन्तिम जो राज्य था उसे तृण मानता था ॥177॥ इस प्रकार मानने का कारण यह है कि यदि राज्य का त्याग नहीं किया जाये तो उससे अधोगति होती है और सम्यग्दर्शन के सुयोग से निःसन्देह ऊध्वंगति होती है ॥178॥ भरतादि राजाओं ने जो पहले जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम मन्दिर बनवाये थे वे यदि कहीं भग्नावस्था को प्राप्त हुए थे तो उन रमणीय मन्दिरों को राजा दशरथ ने मरम्मत कराकर पुनः नवीनता प्राप्त करायी थी ॥179॥ यही नहीं, उसने स्वयं भी ऐसे जिनमन्दिर बनवाये थे जिनकीकि इन्द्र स्वयं स्तुति करता था तथा रत्नों के समूह से जिनकीविशाल कान्ति स्फुरायमान हो रही थी ॥180॥

गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! अन्य भवों में जो धर्म का संचय करते हैं वे देवों की अत्यन्त रमणीय लक्ष्मी प्राप्त कर संसार में पुनः राजा दशरथ के समान भाग्यशालो जीव होते हैं और सूर्य के समान कान्ति को धारण करते हुए समृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥181॥

इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित, पद्मचरित में सुकोशल स्वामी के माहात्म्य से युक्त राजा दशरथ की उत्पत्ति का कथन करनेवाला बाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥22॥