+ सीता और भामंडल की उत्पत्ति -
छब्बीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब राजा जनक का वृत्तांत कहता हूँ सो तुम सावधान चित्त होकर सुनो ॥ 1 ॥ राजा जनक की विदेहा नाम की सुंदरी स्त्री थी । उसके गर्भ रहा, सो एक देव चिरकाल से उसके गर्भ की प्रतीक्षा करने लगा ॥ 2 ॥ यह सुन राजा श्रेणिक ने कहा कि नाथ ! वह देव किस कारण से विदेहा के गर्भ की रक्षा करता था ? यह मैं जानना चाहता हूँ सो कहिए ॥ 3 ॥ इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा कि चक्रपुर नामा नगर में एक चक्रध्वज नाम का राजा था । उसकी स्त्री का नाम मनस्विनी था ॥4॥ उन दोनों के चित्तोत्सवा नाम की कन्या उत्पन्न हुई । वह कन्या गुरु के घर अर्थात् चाटशाला में खड़िया मिट्टी के टुकड़ों से वर्णमाला लिखती हुई सुशोभित होती थी ॥ 5 ॥ उसी गुरु के घर राजा के पुरोहित धूमकेश की स्वाहा नाम की स्त्री से उत्पन्न पिंगल नाम का पुत्र भी अध्ययन करता था ॥ 6 ॥ चित्तोत्सवा और पिंगल इन दोनों का चित्त परस्पर में हरा गया इसलिए उन्हें विद्या की प्राप्ति नहीं हो पाई । सो ठीक ही है क्योंकि विद्या और धर्म की प्राप्ति स्थिर-चित्त वालों को ही होती है ॥ 7 ॥ आचार्य कहते हैं कि पहले स्त्री पुरुष का संसर्ग अर्थात् मेल होता है फिर प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से रति उत्पन्न होती है, रति से विश्वास उत्पन्न होता है और तदनंतर विश्वास से प्रणय उत्पन्न होता है । इस तरह प्रेम पूर्वोक्त पाँच कारणों से उत्पन्न होता है । जिस प्रकार हिंसादि पाँच पापों से जो छूट न सके ऐसे कर्म का बंध होता है उसी प्रकार पूर्वोक्त पाँच कारणों से प्राणियों के गाढ़ प्रेम उत्पन्न होता है ॥ 8-6 ॥

अथानंतर जब पिंगल को चित्तोत्सवा के अभिप्राय का पूर्ण ज्ञान हो गया तब वह उस रूपवती को एकांत पाकर हर ले गया । जिस प्रकार अपयश के द्वारा कीर्ति का अपहरण होता है उसी प्रकार पिंगल के द्वारा चित्तोत्सव का हरण हुआ ॥10॥ जब वह उसे बहुत दूर देश में ले गया तब बंधुजनों को उसका पता चला । जिस प्रकार मोह के द्वारा उत्तम गति का हरण होता है उसी प्रकार प्रमाद के द्वारा उस कन्या का हरण हुआ था ॥11॥ इधर कन्या को चुराने वाला पिंगल कन्या पाकर प्रसन्न था, पर निर्धन होने के कारण वह उससे उस प्रकार सुशोभित नहीं हो रहा था जिस प्रकार कि धर्महीन लोभी मनुष्य तृष्णा से सुशोभित नहीं होता है ॥ 12 ॥ पिंगल कन्या को लेकर जहाँ दूसरे देश के लोगों का प्रवेश नहीं हो सकता था ऐसे विदग्धनगर में पहुँचा और वहाँ नगर के बाहर जहाँ अन्य दरिद्र मनुष्य रहते थे वहीं कुटी बनाकर रहने लगा ॥13॥ वह ज्ञान-विज्ञान से रहित था साथ ही दरिद्रतारूपी सागर में भी निमग्न था इसलिए तृण, काष्ठ आदि बेचकर अपनी उस पत्नी की रक्षा करता था ꠰꠰14॥ उसी नगर में राजा प्रकाशसिंह और प्रवरावली रानी का पुत्र राजा कुंडल मंडित रहता था जो कि शत्रुओं के देश को भय उत्पन्न करने वाला था ॥ 15॥ एक दिन वह नगर के बाहर गया था सो वहाँ चित्तोत्सवा उसकी दृष्टि में आयी । देखते ही वह काम के पाँचों बाणों से ताड़ित होकर अत्यंत दुःखी हो गया ॥16॥ उसने गुप्तरूप से चित्तोत्सवा के पास दूती भेजी सो उस दूती ने उसे रात्रि के समय राजमहल में उस तरह प्रविष्ट करा दिया जिस प्रकार कि पहले राजा सुमुख की दूती ने कमलामेला को उसके महल में प्रविष्ट कराया था ॥ 17 ॥ जिस प्रकार अनुराग से भरा नलकूबर उर्वशी के साथ रमण करता था उसी प्रकार प्रीति से भरा कुंडलमंडित उस चित्तोत्सवा के साथ रमण करने लगा ॥18॥

तदनंतर जब वह पिंगल थका-माँदा अपने घर आया तो उस विशाल लोचना को न देखकर दुःखरूपी सागर में निमग्न हो गया ॥19॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अधिक कहने से क्या ? उसके विरह से दुःखी हुआ वह चक्रारूढ़ की तरह आकुल होता हुआ किसी भी जगह सुख प्राप्त नहीं करता था ॥ 20 ॥ तदनंतर जिसकी भार्या हरी गयी थी ऐसा वह दीनहीन ब्राह्मण राजा के पास गया और जिस किसी तरह राजा का पता चलाकर बोला कि हे राजन् ! किसी ने मेरी स्त्री चुरा ली है ॥21॥ राजा ही सबका शरण है और खासकर जो स्त्री-पुरुष भयभीत, दरिद्र तथा दुःखी होते हैं उनका राजा ही शरण होता है ॥ 22 ॥ यह सुन राजा ने एक धूर्त मंत्री को बुलाकर मायासहित कहा कि विलंब मत करो, शीघ्र ही इसकी स्त्री का पता चलाओ ॥ 23 ॥ तब एक मंत्री ने विकारसहित नेत्र चलाकर कहा कि हे राजन् ! उस स्त्री को तो पथिकों ने पोदनपुर के मार्ग में देखा था ॥24॥ वह आर्यिकाओं के समूह के बीच में स्थित थी तथा शांतिपूर्वक तप करने के लिए तत्पर जान पड़ती थी । अरे ब्राह्मण ! जल्दी जाकर उसे लौटा ला । इधर क्यों रो रहा है ? ॥ 25 ॥ जब कि वह यौवनपूर्ण शरीर को धारण कर रही है, उत्तम स्त्रियों के गुणों से परिपूर्ण है तथा तरुण जनों को हरने वाली है तब उसका यह तप करने का समय ही कौन-सा है ? ॥26 ॥ मंत्री के ऐसा कहते ही वह ब्राह्मण उठा और अच्छी तरह कमर कसकर वेग से इस प्रकार दौड़ा जिस प्रकार कि बंधन से छूटा घोड़ा दौड़ता है ॥27॥ वहाँ जाकर उसने पोदनपुर के मंदिरों तथा उपवनों में अपनी स्त्री की बहुत खोज की । जब नहीं दिखी तब वह पुनः शीघ्र ही विदग्धनगर में वापस आ गया ॥28॥ राजा की आज्ञा से दुष्ट मनुष्यों ने उसे गले में घिच्चा देकर नाना प्रकार की डाँट दिखाकर तथा लाठी और पत्थरों से मारकर बहुत दूर भगा दिया ॥ 29 ॥ स्थान भ्रंश, अत्यंत क्लेश, अपमान और मार का अनुभव कर उसने स्त्री के बिना वह कहीं भी रति को प्राप्त नहीं होता था । वह अग्नि में पड़े हुए साँप के समान रात दिन सूखता जाता था ॥31 ॥ वह कमलों के विशाल वन को दावानल के समान देखता था और सरोवर में प्रविष्ट होता हुआ भी विरहाग्नि से जलने लगता था ॥32॥ इस प्रकार दुःखित हृदय होकर वह पृथिवी पर घूमता रहा । एक दिन उसने नगर के द्वार पर स्थित आर्यगुप्त नामक दिगंबर आचार्य को देखा । उनके पास जाकर उसने हाथ जोड़कर शिर से प्रणाम किया तथा हर्षित हो धर्म का यथार्थ स्वरूप सुना ॥33-34॥ मुनिराज से धर्म श्रवणकर वह परम वैराग्य को प्राप्त हुआ तथा शांत-चित्त होकर इस प्रकार जिनशासन को प्रशंसा करने लगा ॥35॥ कि अहो ! जिन भगवान् के द्वारा प्रदर्शित यह मार्ग उत्कृष्ट प्रभाव से सहित है । मैं अंधकार में पड़ा था सो यह मार्ग मेरे लिए मानो सूर्य के समान ही उदित हुआ है ॥ 36 ॥

मैं पाप को नष्ट करने वाले जिनशासन को प्राप्त होता हूँ और विरहरूपी अग्नि से जले हुए स शरीर को आज शांत करता हूँ ॥37॥ तदनंतर संवेग को प्राप्त हो तथा गुरु की आज्ञा लेकर उसने परिग्रह का त्याग कर दिया और दिगंबर दीक्षा धारण कर ली ॥38॥ यद्यपि वह समस्त परिग्रह से रहित हो पृथिवी पर विहार करता था तथापि जब कभी भी चित्तोत्सवा के विषय में उत्कंठित हो जाता था ॥39॥ नदी, पर्वत, दुर्ग, श्मशान और अटवियों में निवास करता हुआ वह शरीर को सुखाने वाला परम तपश्चरण करता था ॥40॥ मेघों से अंधकार पूर्ण वर्षाकाल में उसका मन खेद को प्राप्त नहीं होता था और न हेमंत ऋतु में हिम के पंक से उसका शरीर कंपित होता था ॥41 ॥ सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से उसे थोड़ा भी संताप नहीं होता था । वह सदा सत्पुरुषों का स्मरण करता रहता था सो ठीक ही है क्योंकि स्नेह के लिए कौन-सा कार्य दुष्कर अर्थात् कठिन है ? ॥42॥ यह सब था तो भी उसका शरीर विरहाग्नि से जलता रहता था जिसे वह जिनेंद्र भगवान् के वचनरूपी जल के छींटों से पुनः-पुनः शांत करता था ॥ 43 ॥ इस प्रकार निरंतर होने वाले स्त्री के स्मरण तथा उग्र तपश्चरण से उसका वह शरीर अधजले वृक्ष के समान काला हो गया था ॥ 44॥ अथानंतर गौतमस्वामी कहते हैं कि अब यह कथा रहने दो । इसके बाद कुंडलमंडित की कथा कहता हूँ सो सुनो ! यथार्थ में जिस प्रकार रत्नावली बीच-बीच में दूसरे रत्नों के अंतर से निर्मित होती है उसी प्रकार कथा भी बीच-बीच में दूसरी-दूसरी कथाओं के अंतर से निर्मित होती है ॥ 45॥ जिस समय राजा अनरण्य राज्य में स्थित थे अर्थात् राज्य करते थे उस समय की यह कथा है सो कथा के अनुक्रम से कही जाने वाली इस अवांतर कथा को सुनो ॥46 ॥ कुंडल मंडित दुर्गम गढ़ का अवलंबन कर सदा अनरण्य की भूमि को उस तरह विराधित करता रहता था जिस प्रकार कि कुशील मनुष्य कुल की मर्यादा को विराधित करता रहता है ॥47॥ जिस प्रकार दुर्जन गुणों को उजाड़ देता है उसी प्रकार उसने अनरण्य के बहुत से देश उजाड़ दिये और जिस प्रकार योगी कषायों का अवरोध करते हैं उसी प्रकार उसने बहुत से सामंतों का अवरोध कर दिया ॥ 48 ॥ यद्यपि वह क्षुद्र था तो भी अनरण्य उसे पकड़ने के लिए समर्थ नहीं हो सका । सो ठीक ही है क्योंकि पहाड़ के बिल में स्थित चूहे का सिंह क्या कर सकता है ? ॥49॥ वह रात दिन उसी के पराजय को चिंता से सूखता जाता था । भोजन, पान आदि शरीर-संबंधी कार्य भी वह अनादर से करता था ॥50॥

तदनंतर किसी दिन उसके बालचंद्र नामा सेनापति ने उससे कहा कि हे नाथ ! आप सदा उद्विग्न से क्यों दिखाई देते हैं ? ॥51॥ इसके उत्तर में राजा अनरण्य ने कहा कि हे भद्र ! मेरे उद्वेग का परम कारण कुंडलमंडित है । राजा के यह कहने पर बालचंद्र सेनापति ने यह प्रतिज्ञा की कि हे राजन् ! पापी कुंडलमंडित को वश किये बिना मैं आपके समीप नहीं आऊँगा मैंने यह व्रत लिया है ॥ 52-53 ॥ इस प्रकार राजा के सामने प्रतिज्ञा कर क्रोध धारण करता हुआ सेनापति चतुरंग सेना के साथ जाने के लिए उद्यत हुआ ॥54॥

उधर चित्तोत्सवा में जिसका चित्त लग रहा था ऐसा कुंडलमंडित अन्य सब चेष्टाएँ छोड़कर प्रमाद से परिपूर्ण था । उसके मंत्री आदि मूल पक्ष के सभी लोग उससे भिन्न हो चुके थे । लोक में कहाँ क्या हो रहा है ? इसका उसे कुछ भी पता नहीं था । सब प्रकार का उद्यम छोड़कर वह एक स्त्री में ही आसक्त हो रहा था । सो अनरण्य के सेनापति बालचंद्र ने जाकर उसे मृग की भाँति अनायास ही बाँध लिया ॥55-56॥ चतुर बालचंद्र उसकी सेना और राज्य पर अपना अधिकार कर तथा उसे देश से निकालकर अनरण्य के समीप वापस आ गया ॥57॥ इस प्रकार उस उत्तम सेवक के द्वारा जिसकी वसुधा में पुनः सुख-शांति स्थापित की गयी थी ऐसा अनरण्य परम हर्ष को प्राप्त होता हुआ सुख का अनुभव करने लगा ॥58॥

कुंडलमंडित का सब राज्य छिन गया था, शरीर मात्र ही उसके पास बचा था । ऐसी दशा में वह पैदल ही पृथिवी पर भ्रमण करता था, सदा दुःखी रहता था और पश्चात्ताप करता रहता था ॥59॥

एक दिन वह भ्रमण करता हुआ दिगंबर मुनियों के तपोवन में पहुँचा । वहाँ आचार्य महाराज को नमस्कार कर उसने भावपूर्वक धर्म का स्वरूप पूछा ॥60॥ सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी, दरिद्री, भाई- बंधुओं से रहित ओर रोग से पीड़ित मनुष्यों की बुद्धि प्रायः धर्म में लगती ही है ॥ 61 ॥ उसने पूछा कि हे भगवन् ! जिसको मुनि दीक्षा लेने की शक्ति नहीं है उस परिग्रही मनुष्य के लिए क्या कोई धर्म नहीं है ? ॥62 ॥ अथवा चारों संज्ञाओं में तत्पर रहने वाला गृहस्थ पापों से किस प्रकार छूट सकता है ? मैं यह जानना चाहता हूँ सो आप प्रसन्न होकर मेरे लिए यह सब बताइए ॥63॥

तदनंतर मुनिराज ने निम्नांकित वचन कहे कि जीवदया धर्म है तथा अपनी निंदा गर्दा आदि करने से मनुष्य पापों से छूट जाते हैं ॥64॥ यदि तू शुद्ध अर्थात् निर्दोष धर्म धारण करना चाहता है तो हिंसा का भयंकर कारण तथा शुक्र और शोणित से उत्पन्न मांस का कभी भक्षण नहीं कर ॥65॥ जो पापी पुरुष मृत्यु से डरने वाले प्राणियों के मांस से अपना पेट भरता है वह अवश्य ही नरक जाता है ॥ 66 ॥ शिर मुंडाना, स्नान करना तथा नाना प्रकार के वेष धारण करना आदि कार्यों से मांस भक्षी मनुष्य की रक्षा नहीं हो सकती ॥67॥ तीर्थ क्षेत्रों में स्नान करना, दान देना तथा उपवास करना आदि कार्य मांस भोजी मनुष्य को नरक से बचाने में समर्थ नहीं हैं ॥68॥ समस्त जातियों के जीव इस प्राणी के पूर्वभवों में बंधु रह चुके हैं । अतः मांस भक्षण करने वाला मनुष्य अपने इन्हीं भाई-बंधुओं को खाता है यह समझना चाहिए ॥69॥ जो मनुष्य पक्षी, मत्स्य और मृगों को मारता है तथा इनके विरुद्ध आचरण करता है वह मधु-मांस भक्षी मनुष्य इन पक्षी आदि से भी अधिक क्रूर गति को प्राप्त होता है ॥70॥ मांस न वृक्ष से उत्पन्न होता है, न पृथिवीतल को भेदन कर निकलता है, न कमल की तरह पानी से उत्पन्न होता है और न औषधि के समान किन्हीं उत्तम द्रव्यों से उत्पन्न होता है । किंतु जिन्हें अपना जीवन प्यारा है ऐसे पक्षी, मत्स्य, मृग आदि दीनहीन प्राणियों को मारकर दुष्ट मनुष्य मांस उत्पन्न करते हैं । इसलिए दयालु मनुष्य उसे कभी नहीं खाते ॥71-72॥ जिसके दूध से शरीर पुष्ट होता है तथा जो माता के समान है ऐसी भैस के मरने पर नीच मनुष्य उसे खा जाता है यह कितने कष्ट की बात है ? ॥73 ॥ जो नीच मनुष्य मांस खाता है उसने माता, पिता, पुत्र, मित्र और भाइयों का ही भक्षण किया है ॥74॥ यहाँ से मेरुपर्वत के नीचे सात पृथिवियाँ हैं उनमें से रत्नप्रभा नामक पृथिवी में भवनवासी देव रहते हैं । जो मनुष्य कषाय सहित तप करते हैं वे उनमें उत्पन्न होते हैं । भवनवासी देव सब देवों में नीच देव कहलाते हैं तथा ये दुष्ट कार्य करने वाले होते हैं ॥75-76 ॥ रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे छह भयंकर पृथिवियाँ और हैं जिनमें नारकी जीव पापकर्म का फल भोगते हैं ॥ 77 ॥ वे नारकी कुरूप होते हैं, उनके शब्द अत्यंत दारुण होते हैं, वे अंधकार से परिपूर्ण रहते हैं तथा उनके शरीर उपमातीत दुःखों के कारण हैं ॥78॥ उन पृथिवियों में कुंभीपाक नाम का भयंकर नरक है, भय उत्पन्न करने वाली वैतरणी नदी है, तथा तीक्ष्ण काँटों से युक्त शाल्मली वृक्ष है ॥79॥ असिपत्र वन से आच्छादित तथा क्षुरों की धार के समान तीक्ष्ण पर्वत हैं और जलती हुई अग्नि के समान निरंतर लोहे की तीक्ष्ण कीलें वहाँ व्याप्त हैं ॥80॥ मद्यमांस खाने वाले तथा प्राणियों का घात करने वाले जीव उन नरकों में निरंतर तीव्र दुःख पाते रहते हैं ॥81॥ वहाँ अर्ध-अंगुल प्रमाण भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ दुःखी नारकी निमेष मात्र के लिए भी विश्राम कर सकें ॥82॥ हम यहाँ छिपकर रहेंगे ऐसा सोचकर नारकी भाग कर जाते हैं पर वहीं पर दयाहीन अन्य नारकी और दुष्ट देव उनका घात करने लगते हैं ॥ 83 ॥ जिस प्रकार जलते हुए अंगारों से कुटिल अग्नि में जलते हुए मच्छ विरस शब्द करते हैं उसी प्रकार नारकी भी अग्नि में पड़कर विरस शब्द करते हैं । यदि अग्नि के भय से भयभीत हो किसी तरह निकलकर वैतरणी नदी के जल में पहुँचते हैं तो अत्यंत खारी तरंगों के द्वारा अग्नि से भी अधिक जलने लगते हैं ॥ 84-85 ॥ यदि छाया की इच्छा से शीघ्र ही भागकर असिपत्र वन में पहुंचते हैं तो वहाँ पड़ते हुए चक्र, खड̖ग, गदा आदि शस्त्रों से उनके खंड-खंड हो जाते हैं ॥86॥ जिनके नाक, कान, स्कंध तथा जंघा आदि अवयव काट लिये गये हैं तथा जो निकलते हुए खून की मानो वर्षा करते हैं ऐसे उन नारकियों को कुंभीपाक में डाला जाता है अर्थात् किसी घड़े आदि में भरकर उन्हें पकाया जाता है ॥87॥ जिनसे कर शब्द निकल रहा है ऐसे कोल्हुओं में उन विह्वल नारकियों को पेल दिया जाता है फिर तीक्ष्ण नुकीले पर्वतों पर गिराकर उनके टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं जिससे वे विरस शब्द करते हैं ॥88॥ अंधा कर देने वाले बहुत ऊँचे वृक्षों पर उन्हें चढ़ाया जाता है तथा बड़े-बड़े मुद्गरों की चोट से उनका मस्तक पीटा जाता है ॥ 89 ॥ जो नारकी प्यास से पीड़ित होकर पानी मांगते हैं उनके लिए तामा आदि धातुओं का कलल ( पिघलाया हुआ रस ) दिया जाता है जिससे उनका शरीर जल जाता है तथा अत्यंत दु:खी हो जाते हैं । 90॥ यद्यपि वे कहते हैं कि हमें प्यास नहीं लगी है तो भी जबर्दस्ती संडाशी से मुँह फाड़कर उन्हें वह कलल पिलाया जाता है ॥ 91 ॥ पाप करने वाले उन नारकियों को जमीन पर गिराकर तथा उनकी छाती पर चढ़कर दुष्ट वचन बोलते हुए बलवान् नारकी उन्हें पैरों से रूंदते हैं ॥ 92॥ पूर्वोक्त कललपान से उन नारकियों के कंठ जल जाते हैं तथा हृदय जलने लगते हैं । यही नहीं पेट फोड़कर उनकी आंते भी बाहर निकल आती हैं ॥ 93 ॥ इसके सिवाय भवनवासी देव उन्हें परस्पर लड़ाकर जो दुःख प्राप्त कराते हैं उसका वर्णन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥ 94 ॥ इस तरह मांस खाने से नरक में महादुःख भोगना पड़ता है ऐसा जानकर समझदार पुरुष को प्रयत्नपूर्वक मांसभक्षण का त्याग करना चाहिए ॥95 ॥

इसी बीच में जिसका मन अत्यंत भयभीत हो रहा था ऐसे कुंडलमंडित ने कहा कि हे नाथ ! अणुव्रत से युक्त मनुष्यों की क्या गति होती है सो कहिए ॥96 ॥ इसके उत्तर में गुरु महाराज ने कहा कि जो मांस नहीं खाता है तथा अत्यंत दृढ़ता से व्रत पालन करता है उसे तथा खासकर सम्यग्दृष्टि मनुष्य को जो पुण्य होता है उसे कहता हूँ ॥97॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य मांस-भक्षण से दूर रहता है भले ही वह उपवासादि से रहित हो तथा दरिद्र हो तो भी उत्तम गति उसके हाथ में रहती है ॥98॥ और जो शील से संपन्न तथा जिनशासन की भावना से युक्त होता हुआ अणुव्रत धारण करता है वह सौधर्मादि स्वर्गों में उत्पन्न होता है ॥ 99 ॥ धर्म का उत्तम मूल कारण अहिंसा कही गयी है । जो मनुष्य मांस-भक्षण से निवृत्त रहता है उसी के अत्यंत निर्मल अहिंसा-धर्म पलता है ॥100॥ जो परिग्रही म्लेच्छ अथवा चांडाल भी क्यों न हो यदि दयालु है और मधु-मांस भक्षण से दूर रहता है तो वह भी पाप से मुक्त हो जाता है ॥ 101 ॥ ऐसा जीव पाप से मुक्त होते ही पुण्य-बंध करने लगता है और पुण्य-बंध के प्रभाव से वह देव अथवा उत्तम मनुष्य होता है ॥ 102 ॥ यदि सम्यग्दृष्टि मनुष्य अणुव्रत धारण करता है तो वह निश्चित ही देवों के उत्कृष्ट भोग प्राप्त करता है ॥103॥ इस प्रकार आचार्य के वचन सुनकर कुंडलमंडित मंद भाग्य होने से अणुव्रत धारण करने के लिए भी समर्थ नहीं हो सका ॥104॥ अतः उसने शिर से गुरु को नमस्कार कर मधुमांस का परित्याग किया और शरणभूत सम्यग्दर्शन धारण किया ॥105॥

तदनंतर जिन-प्रतिमा और दिगंबराचार्य को नमस्कार कर वह ऐसा विचार करता हुआ उस देश से बाहर निकला कि मेरी माता का सगा भाई यमराज के समान पराक्रम का धारी है सो वह विपत्ति में पड़े हुए मेरी अवश्य ही सहायता करेगा । मैं फिर से राजा होकर निश्चित ही शत्रु को जीतूंगा । ऐसी आशा रखता हुआ वह कुंडलमंडित दुःखी हो दक्षिण दिशा की ओर चला ॥106-108॥ वह थकावट आदि दुःखों से परिपूर्ण होने के कारण धीरे-धीरे चलता था । बीच में पूर्वभव में संचित पापकर्म के उदय से उसके शरीर में अनेक रोग प्रकट हो गये ॥109॥ उसकी संधियाँ छिन्न होने लगी और मर्म स्थानों में भयंकर पीड़ा होने लगी । अंत में समस्त संसार जिससे नहीं बचा सकता ऐसा उसका मरण आ पहुँचा ॥110॥ जिस समय कुंडल मंडित ने प्राण छोड़े उसी समय चित्तोत्सवा का जीव जो स्वर्ग में देव हुआ था शेष पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग से च्युत हुआ ॥111॥

भाग्यवश वे दोनों ही जीव राजा जनक की रानी विदेहा के गर्भ में उत्पन्न हुए । गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो श्रेणिक ! कर्मोदय की यह विचित्र चेष्टा देखो ॥112॥ इसी बीच में वह पिंगल ब्राह्मण अच्छी तरह मरणकर तप के प्रभाव से महातेजस्वी महाकाल नाम का असुर हुआ ॥113॥ उसने उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान से धर्म के फल का विचार किया और साथ ही इस बात का ध्यान किया कि चित्तोत्सवा कहाँ उत्पन्न हुई है ? वह अपने अवधिज्ञान से इन सब बातों को अच्छी तरह से जान गया ॥114॥ फिर कुछ देर बाद उसने विचार किया कि मुझे उस दुष्टा से क्या प्रयोजन है ? वह कुंडलमंडित कहाँ है जिसने मुझे विरहरूपी सागर में गिराकर दुःखपूर्ण अवस्था प्राप्त करायी थी ॥115॥ उसने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि कुंडलमंडित राजा जनक की पत्नी के गर्भ में चित्तोत्सवा के जीव के साथ विद्यमान है ॥ 116 ॥ उसने विचार किया कि यदि गर्भ में ही इसे मारता हैं तो रानी विदेहा मरण को प्राप्त होगी इसलिए यह युगल संतान को उत्पन्न करे पीछे देखा जायेगा । दो गर्भ को धारण करने वाली इस रानी के मारने से मुझे क्या प्रयोजन है ? गर्भ से निकलते ही इस पापी कुंडलमंडित को अवश्य ही भारी दुःख प्राप्त कराऊंगा ॥117-118॥ ऐसा विचार करता हुआ वह असुर पूर्वकर्म के प्रभाव से अत्यंत क्रुद्ध रहने लगा तथा हाथ से हाथ को मसलता हुआ उस गर्भ की रक्षा करने लगा ॥119॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि राजन् ! ऐसा जानकर कभी किसी को दुःख पहुँचाना उचित नहीं है क्योंकि कालांतर में वह दुःख अपने आपको भी प्राप्त होता है ॥120॥

अथानंतर समय आने पर रानी विदेहा ने एक पुत्र और एक पुत्री इस प्रकार युगल संतान उत्पन्न की । सो उत्पन्न होते ही असुर ने पुत्र का अपहरण कर लिया ॥121॥ उसने पहले तो विचार किया कि इस कुंडलमंडित के जीव को मैं शिला पर पछाड़ कर मार डालें । फिर कुछ देर बाद वह विचार करने लगा ॥122॥ कि मैंने जो विचार किया है उसे धिक्कार है । जिस कार्य के करने से संसार ( जन्म-मरण ) की वृद्धि होती है उस कार्य को बुद्धिमान् मनुष्य कैसे कर सकता है ? ॥123 ॥

पूर्वभव में मुनि अवस्था में जब मैं सब प्रकार के आरंभ से रहित था तथा तपरूपी काँवर को धारण करता था तब मैंने तृण को भी दुःख नहीं पहुंचाया था ॥124॥ उन गुरु के प्रसाद से अत्यंत निर्मल धर्म धारण कर मैं ऐसी कांति को प्राप्त हुआ हूँ । अतः अब ऐसा पाप कैसे कर सकता हूँ ॥125 ॥ संचित किया हुआ थोड़ा पाप भी परम वृद्धि को प्राप्त हो जाता है जिससे संसार-सागर में निमग्न हुआ यह जीव चिरकाल तक दुःख से जलता रहता है ॥126 ॥ परंतु जिसकी भावना निर्दोष है, जो दयालु है और जो अपने परिणामों को ठीक रखता है सुगतिरूपी रत्न उसके करतल में स्थित रहता है ॥127॥ ऐसा विचार करके हृदय में दया उत्पन्न हो गयी जिससे उसने उस बालक को मारने का विचार छोड़ दिया तथा उसके कानों में देदीप्यमान किरणों के धारक कुंडल पहनाकर उसे अलंकृत कर दिया ॥ 128॥ तदनंतर वह देव उस बालक में पर्णलध्वी विद्या का प्रवेश कराकर तथा उसे सुखकर स्थान में छोड़कर इच्छित स्थान पर चला गया ॥ 129॥

तदनंतर चंद्रगति विद्याधर रात्रि के समय अपने उद्यान में स्थित था सो उसने आकाश से पड़ते हुए सुख के पात्र स्वरूप उस बालक को देखा ॥130 ॥ क्या यह नक्षत्रपात हो रहा है ? अथवा कोई बिजली का टुकड़ा नीचे गिर रहा है ऐसा संशय कर वह चंद्रगति विद्याधर ज्योंही आकाश में उड़ा त्योंही उसने उस शुभ बालक को देखा ॥131 ॥ देखते ही उसने बड़े हर्ष से उस बालक को बीच में ही ले लिया और उत्तम शय्यापर शयन करने वाली पुष्पवती रानी की जांघों के बीच में रख दिया ॥132 ॥ यही नहीं, ऊँची आवाज से वह रानी से बोला भी कि हे सुंदरि! उठो, क्यों सो रही हो? देखो तुमने सुंदर बालक उत्पन्न किया है ॥133 ॥ तदनंतर पति के हस्त स्पर्श से उत्पन्न सुखरूपी संपत्ति से जागृत हो रानी शय्या से सहसा उठ खड़ी हुई और इधर-उधर नेत्र चलाने लगी ॥134॥

ज्योंही उस सुंदरमुखी ने अत्यंत सुंदर बालक देखा, त्योंही उसकी किरणों के समूह से उसकी अवशिष्ट निद्रा दूर हो गयी ॥135 ॥ उस सुंदरी ने परम आश्चर्य को प्राप्त होकर पूछा कि यह बालक किस पुण्यवती स्त्री ने उत्पन्न किया है ? ॥136 ॥ इसके उत्तर में चंद्रगति ने कहा कि हे प्रिये ! यह तुम्हारे ही पुत्र उत्पन्न हुआ है । विश्वास रखो, संशय मत करो, तुम से बढ़कर और दूसरी धन्य स्त्री कौन हो सकती है ? ॥137 । उसने कहा कि हे प्रिय ! मैं तो वंध्या हूँ, मेरे पुत्र कैसे हो सकता है ? मैं दैव के द्वारा ही प्रतारित हूँ-ठगी गयी हूँ अब आप और क्यों प्रतारित कर रहे हैं ? ॥138॥ उसने कहा कि हे देवि ! शंका मत करो, क्योंकि कदाचित् कर्मयोग से स्त्रियों के प्रच्छन्न गर्भ भी तो होता है ॥139॥ रानी ने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही पर यह बताओ कि इसके कुंडल लोकोत्तर क्यों है ? मनुष्य लोक में ऐसे उत्तम रत्न कहाँ से आये ? ॥140॥ इसके उत्तर में चंद्रगति ने कहा कि हे देवि ! इस विचार से क्या प्रयोजन है ? जो सत्य बात है सो सुनो । यह बालक आकाश से नीचे गिर रहा था सो बीच में ही मैंने प्राप्त किया है ॥141 ॥ मैं जिसकी अनुमोदना कर रहा हूँ ऐसा यह तुम्हारा पुत्र उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है क्योंकि इसके लक्षण इसे महापुरुष से उत्पन्न सूचित करते हैं ॥142॥ बहुत भारी श्रम कर तथा गर्भ का भार धारण कर जो फल प्राप्त होता है वह पुत्र लाभ रूप ही होता है । सो हे प्रिये ! तुम्हें यह फल अनायास ही प्राप्त हो गया है ॥ 143॥ जो मनुष्य कुक्षि से उत्पन्न होकर भी पुत्र का कार्य नहीं करता है हे प्रिये ! वह अपुत्र ही है अथवा शत्रु ही है ॥ 144॥ हे पतिव्रते ! तुम्हारे पुत्र नहीं है अतः यह तुम्हारा पुत्र हो जायेगा । इस उत्तम वस्तु के भीतर जाने से क्या प्रयोजन है ? ॥145॥

तदनंतर ऐसा ही हो इस प्रकार रानी प्रसूतिका गृह में चली गयी और प्रातःकाल होते ही इसके पुत्र-जन्म का समाचार लोक में बड़े हर्ष से प्रकाशित कर दिया गया ॥146॥ तदनंतर रथनूपुर नगर में पुत्र का जन्मोत्सव किया गया । इस उत्सव में आश्चर्यचकित होते हुए समस्त भाई बंधु-रिश्तेदार सम्मिलित हुए ॥147 ॥ चूंकि वह बालक रत्नमय कुंडलों की किरणों के समूह से घिरा हुआ था इसलिए माता-पिता ने उसका भामंडल नाम रक्खा ॥148॥ अपनी लीलाओं से मन को हरने वाला तथा समस्त अंतःपुर के करकमलों में भ्रमर के समान संचार करने वाला वह बालक पोषण करने के लिए धाय को सौंपा गया ॥149 ॥

इधर पुत्र के हरे जाने पर कुररी के समान विलाप करती हुई रानी विदेहा ने समस्त बंधुओं को शोकरूपी सागर में गिरा दिया ॥150॥ चक्र से ताड़ित हुई के समान वह इस प्रकार विलाप कर रही थी कि हाय वत्स ! कठोर कार्य करने वाला कौन पुरुष तुझे हर ले गया है ? ॥151॥ जिसे उत्पन्न होते देर नहीं थी ऐसे तुझ अबोध बालक को उठाने के लिए उस निर्दय पापी के हाथ कैसे पसरे होंगे ? जान पड़ता है कि उसका हृदय पत्थर का बना होगा ॥152॥ जिस प्रकार पश्चिम दिशा में आकर सूर्य तो अस्त हो जाता है और संध्या रह जाती है उसी प्रकार मुझ अभागिनी का पुत्र तो अस्त हो गया और संध्या को भाँति यह पुत्री स्थित रह गयी ॥153॥ निश्चित ही भवांतर में मैंने किसी बालक का वियोग किया होगा सो उसी कर्म ने अपना फल दिखाया है क्योंकि बिना बीज के कोई कार्य नहीं होता ॥154॥ पुत्र की चोरी करने वाले उस दुष्ट ने मुझे मार ही क्यों नहीं डाला । जब कि अधमरी करके उसने मुझे बहुत भारी दुःख प्राप्त कराया है ॥155 ॥ इस प्रकार विह्वल होकर जोर-जोर से विलाप करती हुई रानी के पास जाकर राजा जनक यह कहते हुए उसे समझाने लगे कि हे प्रिये ! अत्यधिक शोक मत करो, तुम्हारा पुत्र जीवित ही है, कोई उसे हरकर ले गया है और निश्चित ही तुम उसे जीवित देखोगी ॥156-157॥ इष्ट वस्तु पूर्व कर्म के प्रभाव से अभी दिखती है फिर नहीं दिखती, तदनंतर फिर कभी दिखाई देने लगती है । इसलिए हे प्रिये ! व्यर्थ ही क्यों रोती हो ? ॥158॥ तुम स्वस्थता को प्राप्त होओ । हे प्रिये ! मैं यह समाचार बतलाने के लिए मित्र राजा दशरथ के पास पत्र भेजता हूँ ॥159॥ वह और मैं दोनों ही चतुर गुप्तचरों से समस्त पृथिवी को आच्छादित कर शीघ्र ही तेरे पुत्र की खोज करेंगे ॥160॥ इस प्रकार स्त्री को सांत्वना देकर उसने मित्र के लिए पत्र दिया । उस पत्र को बाँचकर राजा दशरथ अत्यधिक शोक से व्याप्त हो गये ॥161॥ उन दोनों ने पृथिवी पर पुत्र की खोज की । पर जब कहीं पुत्र नहीं दिखा तब सब बंधुजन शोक को मंद कर बड़े कष्ट से चुप बैठ रहे ॥162॥ उस समय न कोई ऐसा पुरुष था और न कोई ऐसी स्त्री ही थी जिसके नेत्र पुत्र संबंधी शोक के कारण अश्रुओं से व्याप्त नहीं हुए हों ॥ 163 ॥ उस समय बंधु जनों का शोक भुलाने का कारण यदि कुछ था तो अत्यंत मनोहर और शुभ बाल चेष्टाओं को धारण करने वाली जानकी ही थी ॥164॥

वह जानकी हर्ष को प्राप्त होने वाली स्त्रियों की गोद में निरंतर वृद्धिंगत हो रही थी । वह अपने शरीर की विशाल कांति से दिशाओं के समूह को लिप्त करती थी । वह विपुल कमलों को प्राप्त लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसका कंठ सुंदर था, पवित्र हास्य से उसका मुख शुक्ल हो रहा था और कमल के समान उसके नेत्र थे ॥165॥ समस्त भक्तजनों के लिए सुख का समूह प्रदान करने वाला गुणरूपी धान्य, चूंकि उस जानकी में अत्यंत समृद्धि के साथ उत्पन्न होता था, अतः अत्यंत मनोहर और उत्तम लक्षणों से युक्त उस जानकी को लोग भूमि की समानता रखने के कारण सीता भी कहते थे ॥ 166 ॥ उसने अपने मुख से चंद्रमा को जीत लिया था, उसके हाथ पल्लव के समान लालकांति के धारक थे, वह नीलमणि के समान कांति के धारक केशों के समूह से मनोहर थी, उसने कामोन्मत्त हंसिनी की चाल को जीत लिया था, उसकी भौंहें सुंदर थीं तथा मौलिश्री के समान सुगंधित उसके मुख के सुवास से उसके पास भौंरों के समूह मंडराते रहते थे ॥167॥ उसकी भुजाएँ अत्यंत सुकुमार थीं, उसकी कमर वज्र के समान पतली थी, उसकी जाँघें उत्तम सरस केले के स्तंभ के समान सुंदर थीं, उसके पैर स्थल-कमल के समान उन्नत पृष्ठभाग से सुशोभित थे और उसके उठते हुए स्तन युगल अत्यधिक कांति से युक्त थे ॥168॥ वह विदुषी जानकी उत्तमोत्तम राजमहलों के विशाल कोष्ठों में अपनी कांति से विविध मार्ग बनाती हुई सात सौ कन्याओं के मध्य में स्थित हो बड़ी सुंदरता के साथ शास्त्रानुसार क्रीड़ा करती थी ॥169॥ यदि सूर्य की प्रभा, चंद्रमा की चाँदनी, इंद्र की इंद्राणी, और चक्रवर्ती की पट्टरानी सुभद्रा किसी तरह जानकी के शरीर की शोभा प्राप्त कर सकतीं तो वे निश्चित ही अपने पूर्वरूप की अपेक्षा अधिक सुंदर होती ॥170॥ जिस प्रकार विधाता ने रति को कामदेव की पत्नी निश्चित किया था, उसी प्रकार राजा जनक ने सर्व प्रकार के विज्ञान से युक्त सीता को राजा दशरथ के प्रथम पुत्र राम की पत्नी निश्चित किया था सो ठीक ही है क्योंकि कमलों की लक्ष्मी सूर्य को किरणों के साथ संपर्क करने योग्य ही है ॥ 171 ॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा प्रोक्त पद्मचरित में सीता और भामंडल की उत्पत्ति का कथन करने वाला छब्बीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥26॥