कथा :
अथानंतर भामंडल के सुंदर वृत्तांत से आश्चर्यचकित हुए राजा श्रेणिक ने नूतन विनय से युक्त हो अर्थात् पुनः नमस्कार कर गौतम गणधर से पूछा कि हे भगवन् ! राजा जनक ने राम का ऐसा कौन-सा माहात्म्य देखा कि जिससे उसने राम के लिए बुद्धिपूर्वक अपनी कन्या देने का निश्चय किया ? ॥1-2॥ तदनंतर करतल के आसंग से जिनके दाँतों की कांति दूनी हो गयी थी ऐसे गौतम गणधर चित्त को आह्लादित करने वाले वचन बोले ॥3॥ उन्होंने कहा कि हे राजन् ! सुनो, संक्लेश हीन कार्य को करने वाले रामचंद्र के लिए अत्यंत बुद्धिमान् जनक ने जिस कारण अपनी कन्या देना निश्चित किया था वह मैं कहता हूँ ॥4॥ विजयार्द्ध पर्वत के दक्षिण और कैलास पर्वत के उत्तर की ओर बीच-बीच में अंतर देकर बहुत―से देश स्थित हैं ॥5॥ उन देशों में एक अर्धवर्वर नाम का देश है जो असंयमी जनों के द्वारा मान्य है, धूर्त जनों का जिसमें निवास है तथा जो अत्यंत भयंकर म्लेच्छ लोगों से व्याप्त है ॥6॥ उस देश में यमराज के नगर के समान एक मयूरमाल नाम का नगर है । उसमें आंतरंगतम नाम का राजा राज्य करता था ॥7॥ पूर्व से लेकर पश्चिम तक की लंबी भूमि में कपोत, शुक, कांबोज, मंकन आदि जितने हजारों म्लेच्छ रहते थे वे अनेक प्रकार के शस्त्र तथा नाना प्रकार के भीषण अस्त्रों से युक्त हो अपने सब साधनों के साथ प्रीतिपूर्वक आंतरंगतम राजा की उपासना करते थे ॥ 8-9॥ जिनका गमन बीच-बीच में अत्यंत वेग से होता था तथा जो दया से रहित थे ऐसे वे म्लेच्छ इन आर्य देशों को उजाड़ते हुए यहाँ आये ॥10॥ तदनंतर टिड्डियों के समान उपद्रव करने वाले वे म्लेच्छ राजा जनक के देश को व्याप्त करने के लिए उद्यत हुए ॥11॥ राजा जनक ने शीघ्र ही अपने योद्धा अयोध्या भेजे । उन्होंने जाकर राजा दशरथ से आंतरंगतम के आने की खबर दी ॥ 12 ॥ उन्होंने कहा कि हे राजन् ! प्रजा वत्सल राजा जनक आप से निवेदन करते हैं कि समस्त पृथिवीतल म्लेच्छ राजा की सेना से आक्रांत हो चुका है ॥ 13 ॥ उन म्लेच्छों ने आर्य देश नष्ट-भ्रष्ट कर दिये हैं तथा समस्त जगत् को उजाड़ दिया है । वे पापी समस्त प्रजा को एक वर्ण को करने के लिए उद्यत हुए हैं ॥14॥ जब प्रजा नष्ट हो रही है तब हम किसलिए जीवित रह रहे हैं ? विचार कीजिए कि इस दशा में हम क्या करें ? अथवा किसकी शरण में जावें ? ॥15 ॥ हम मित्रजनों के साथ किस दुर्ग का आश्रय लेकर रहें अथवा नंदी, कलिंद या विपुलगिरि इन पर्वतों का आश्रय लें ?॥16 ॥ अथवा सब सेना के साथ निकुंज गिरि में जाकर शत्रु की आती हुई भयंकर सेना को रोकें ॥17॥ अथवा यह कठिन दिखता है कि हम अपना जीवन देकर भी साधु, गौ तथा श्रावकों से व्याप्त इस विह्वल प्रजा को रक्षा कर सकेंगे ॥ 18॥ इसलिए हे राजन् ! मैं आप से कहता हूँ कि चूंकि आप ही पृथिवी की रक्षा करते रहे, अतः यह राज्य आपका ही है और हे महाभाग ! आप ही जगत् के स्वामी हैं ॥12॥ जितने श्रावक आदि सत्पुरुष हैं वे भाव पूर्वक पूजा करते हैं । अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति से रहित पुराने धान आदि के द्वारा विधिपूर्वक पाँच प्रकार के यज्ञ करते हैं ॥20॥ निर्ग्रंथ मुनि मुक्ति क्षांति आदि गुणों से युक्त होकर ध्यान में तत्पर रहते हैं तथा मोक्ष का साधनभूत उत्तम तप तपते हैं ॥21॥ जिनमंदिर आदि स्थलों में कर्मो को नष्ट करने वाले जिनेंद्र भगवान् की बड़ी-बड़ी पूजाएँ तथा अभिषेक होते हैं ॥22॥ प्रजा की रक्षा रहने पर ही इन सबकी रक्षा हो सकती है और इन सबकी रक्षा होने पर ही इस लोक तथा परलोक में राजाओं के धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग सिद्ध हो सकते हैं ॥ 23 ॥ बहुत बड़े खजाने का स्वामी होकर जो राजा प्रसन्नता से पृथिवी को रक्षा करता है और परचक्र के द्वारा अभिभूत होने पर भी जो विनाश को प्राप्त नहीं होता तथा हिंसाधर्म से रहित एवं यज्ञ आदि में दक्षिणा देने वाले लोगों की जो रक्षा करता है उस राजा को भोग पुनः प्राप्त होते हैं ॥24-25॥ पृथिवीतल पर मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अधिकार है सो राजाओं के द्वारा सुरक्षित मनुष्यों को ही ये अधिकार प्राप्त होते हैं अन्यथा किस प्रकार प्राप्त हो सकते हैं ? ॥26 ॥ राजा के बाहुबल की छाया का आश्रय लेकर प्रजा सुख से आत्मा का ध्यान करती है तथा आश्रमवासी विद्वान् निराकुल रहते हैं ॥27॥ जिस देश का आश्रय पाकर साधुजन तपश्चरण करते हैं उन सबकी रक्षा के कारण राजा तप का छठवाँ भाग प्राप्त करता है ॥28॥ अथानंतर यह सब सुनकर राजा दशरथ शीघ्र ही राम को बुलाकर राज्य देने के लिए उद्यत हो गये ॥29॥ किंकरों ने प्रसन्न होकर बहुत भारी आनंद देने वाली भेरी बजायी । हाथी और घोड़ों से व्याकुल समस्त मंत्री लोग आ पहुँचे ॥30॥ देदीप्यमान शूरवीर जल से भरे हुए सुवर्ण कलश लेकर तथा कमर कसकर आ गये ॥31॥ जिनके नूपुरों से सुंदर शब्द हो रहा था तथा जो उत्तमोत्तम वेष धारण कर रही थीं ऐसी स्त्रियाँ पिटारों में वस्त्रालंकार ले-लेकर आ गयीं ॥32॥ यह सब तैयारी देखकर रामने पूछा कि यह क्या है ? तब राजा दशरथ ने कहा कि हे पुत्र ! तुम इस पृथिवी का पालन करो ॥33॥ यहाँ ऐसा शत्रुदल आ पहुँचा है जो देवों के द्वारा भी दुर्जेय है । मैं प्रजा के हित को वांछा से जाकर उसे जीतूंगा ॥34॥ तदनंतर कमललोचन रामने राजा दशरथ से कहा कि हे तात ! अस्थान में क्रोध क्यों करते हो ? ॥35॥ आप रण की इच्छा से जिनके सम्मुख जा रहे हैं, उन पशु स्वरूप भाषाहीन दुष्ट मनुष्यों से क्या कार्य हो सकता है ? ॥36॥ चूहों के विरोध करने से उत्तम गजराज क्षोभ को प्राप्त नहीं होते और न सूर्य रुई को जलाने के लिए तत्पर होता है ॥37॥ वहाँ जाने के लिए तो मुझे आज्ञा देना उचित है सो दीजिए । ऐसा कहने पर हर्षित शरीर के धारी पिता ने राम का आलिंगन कर कहा ॥38॥ कि हे पद्म ! अभी तुम बालक हो, तुम्हारा शरीर सुकुमार है तथा नेत्र कमल के समान हैं, इसलिए हे बालक ! तुम उन्हें किस तरह जीत सकोगे इसका मुझे प्रत्यय नहीं है ॥39॥ रामने उत्तर दिया कि तत्काल उत्पन्न हुई थोड़ी-सी अग्नि बड़े विस्तृत वन को जला देती है इसलिए बड़ों से क्या प्रयोजन है ? ॥40॥ बालसूर्यं अकेला ही घोर अंधकार को तथा नक्षत्र-समूह को कांति को नष्ट कर देता है इसलिए विभूति से क्या प्रयोजन है ? ॥41॥ तदनंतर जिनका शरीर रोमांचित हो रहा था ऐसे राजा दशरथ पुनः परम प्रमोद और विषाद को प्राप्त हुए । उनके नेत्रों से आंसू निकल पड़े ॥42॥ सत्त्व त्याग आदि करना जिनकी वृत्ति है ऐसे क्षत्रियों का यही स्वभाव है कि वे युद्ध में प्रस्थान करने के लिए अथवा जीवन का भी त्याग करने के लिए सदा उत्साहित रहते हैं ॥43॥ उन्होंने विचार किया कि जब तक आयु क्षीण नहीं होती है तब तक यह जीव परम कष्ट को पाकर भी मरण को प्राप्त नहीं होता ॥44॥ इस प्रकार राजा दशरथ विचार ही करते रहे और राम-लक्ष्मण दोनों कुमार उनके चरण-कमल को नमस्कार कर बाहर चले गये ॥45॥ तदनंतर जो सर्व शस्त्र चलाने में कुशल थे, सर्व शास्त्रों में निपुण थे, सर्व लक्षणों से परिपूर्ण थे, जिनका दर्शन सबके लिए प्रिय था, जो चतुरंग सेना से सहित थे, विभूतियों से परिपूर्ण थे तथा आत्मतेज से देदीप्यमान हो रहे थे ऐसे दोनों कुमार रथ पर आरूढ़ होकर चले ॥46-47॥ राजा जनक अपने भाई के साथ पहले ही निकल पड़ा था । जनक और शत्रुसेना के बीच में दो योजन का ही अंतर रह गया था ॥ 48 । जिस प्रकार सूर्य-चंद्रमा आदि ग्रह मेघसमूह के बीच में प्रवेश करते हैं उसी प्रकार राजा जनक के महारथी योद्धा शत्रु के शब्द को सहन नहीं करते हुए मलेच्छ समूह के भीतर प्रविष्ट हो गये ॥49॥ दोनों ही सेनाओं के बीच जिसमें बड़े-बड़े शस्त्रों का विस्तार फैला हुआ था, और जो आर्य तथा म्लेच्छ योद्धाओं से व्याप्त था, ऐसा रोमहर्षित करने वाला महा भयंकर युद्ध हुआ ॥50॥ राजा जनक ने देखा कि भाई कनक संकट में पड़ गया है तब उसने अत्यंत क्रुद्ध होकर दुर्वार हाथियों की घटा को प्रेरित कर आगे बढ़ाया ॥51॥ म्लेच्छों की सेना बहुत बड़ी तथा भयंकर थी इसलिए उसने बार-बार भग्न होने पर भी राजा जनक को सब दिशाओं में घेर लिया ॥52॥ इसी बीच में सुंदर नेत्रों को धारण करने वाले राम लक्ष्मण के साथ वहाँ जा पहुँचे । पहुँचते ही उन्होंने शत्रु की अपार तथा भयंकर सेना देखी ॥53॥ राम के सफेद छत्र को देखकर शत्रु की सेना इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो गयी जिस प्रकार कि अंधकार को संतति पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है ॥54॥ बाणों के समूह से जिसका कवच टूट गया था ऐसे जनक को रामने उसी तरह आश्वासन दिया-धैर्य बंधाया जिस प्रकार कि जगत् के प्राणस्वरूप धर्म के द्वारा दुःखी प्राणी को आश्वासन दिया जाता है ॥ 55॥ रामचंद्र चंचल घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार थे, उनका शरीर कवच से प्रकाशमान हो रहा था, हार और कुंडल उनकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥56॥ वे एक हाथ में लंबा धनुष और दूसरे हाथ में बाण लिये हुए थे । उनकी ध्वजा में सिंह का चिह्न था, शिर पर विशाल छत्र फिर रहा था तथा उनका मन पृथिवी के समान धीर था ॥57 ॥ जिनके साथ अनेक सुभट थे ऐसे लोकवत्सल राम, लीला पूर्वक विशाल सेना के बीच प्रवेश करते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किरणों से सहित सूर्य ही हो ॥58॥ प्रसन्नता से भरे रामने जनक और कनक दोनों भाइयों की विधिपूर्वक रक्षा कर शत्रुसेना को उस तरह नष्ट कर दिया जिस प्रकार कि हाथी केला के वन को नष्ट कर देता है ॥ 59॥ जिस प्रकार वायु से प्रेरित मेघ समुद्र पर जल-वर्षा करता है उसी प्रकार लक्ष्मण ने शत्रुदल पर कान तक खिचे हुए बाण बरसाये ॥60॥ वह अत्यंत तीक्ष्ण चक्र, शक्ति, कनक, शूल, क्रकच और वज्रदंड आदि शस्त्रों की खूब वर्षा कर रहा था ॥61॥ जिस प्रकार पड़ते हुए कुल्हाड़ों से वृक्ष कट जाते हैं उसी प्रकार लक्ष्मण को भुजा से छूटकर जहाँ-तहाँ पड़ते हुए पूर्वोक्त शस्त्रों से म्लेच्छों के शरीर कट रहे थे ॥62॥ म्लेच्छों की इस सेना में बाणों से कितने ही योद्धाओं का वक्षःस्थल छिन्न-भिन्न हो गया था, और हजारों योद्धा भुजा तथा गरदन कट जाने से नीचे गिर गये थे ॥63 ॥ यद्यपि लोक के शत्रुओं की वह सेना लक्ष्मण से पराङ्मुख हो गयी थी तो भी वह उनके पीछे दौड़ता ही गया ॥64॥ जिसे कोई रोक नहीं सकता था ऐसे लक्ष्मणरूपी मृगराज को देखकर म्लेच्छरूपी तेंदुए सब ओर से क्षोभ को प्राप्त हो गये ॥65 ॥ उस समय वे म्लेच्छ बड़े भारी बाजों के शब्द से भयंकर शब्द कर रहे थे, धनुष, कृपाण तथा चक्र आदि शस्त्र बहुलता से लिये थे और झुंड के झुंड बनाकर पंक्तिरूप में खड़े थे ॥66॥ कितने ही म्लेच्छ लाल वस्त्र का साफा बांधे हुए थे, कोई छुरी हाथ में लिये थे और नाना रंग के शरीर धारण कर रहे थे ॥67 ॥ कोई मसले हुए अंजन के समान काले थे, कोई सूखे पत्तों के समान कांति वाले थे, कोई कीचड़ के समान थे और कोई लाल रंग के थे ॥68॥ अधिकतर वे कटिसूत्र में मणि बाँधे हुए थे, पत्तों के वस्त्र पहने हुए थे, नाना धातुओं से उनके शरीर लिप्त थे, फूल की मंजरियों से उन्होंने सेहरा बना रखा था ॥ 69॥ कौड़ियों के समान उनके दांत थे, बड़े मट का के समान उनके पेट थे और सेना के बीच वे फूले हुए कुटज वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे ॥70॥ जिनके हाथों में भयंकर शस्त्र थे, और जिनकी जांघे, भुजाएँ और स्कंध अत्यंत स्थूल थे ऐसे कितने ही म्लेच्छ गर्वीले असुरों के समान जान पड़ते थे ॥71॥ वे अत्यंत निर्दय थे, पशुओं का मांस खाने वाले थे, मूढ़ थे, पापी थे और सहसा अर्थात् बिना विचार किये काम करने वाले थे ॥72॥ वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक आदि के चिह्न उनकी पताकाओं में थे, उनके सामंत भी अत्यंत भयंकर थे तथा नाना प्रकार के वाहन, चद्दर और छत्र आदि से सहित थे ॥73॥ नाना युद्धों में जिन्होंने अंधकार उत्पन्न किया था, जो समुद्र की लहरों के समान प्रचंड थे, और नाना प्रकार का भयंकर शब्द कर रहे थे ऐसे महावेगशाली पैदल योद्धा उनके साथ थे ॥74॥ अपने सामंत रूपी वायु से प्रेरित होने के कारण जिनका वेग बढ़ रहा था ऐसे उन क्षोभ को प्राप्त हुए म्लेच्छरूपी मेघों ने लक्ष्मण रूपी पर्वत को घेर लिया ॥75॥ जिस प्रकार बैलों के समूह को नष्ट करने के लिए महावेगशाली हाथी दौड़ता है उसी प्रकार उन सबको नष्ट करने के लिए उद्यत लक्ष्मण दौड़ा ॥76॥ लक्ष्मण के दौड़ते ही उनमें भगदड़ मच गयी जिससे वे अपने ही लोगों से कुचले जाकर पृथिवी पर गिर पड़े । तथा भय से जिनके शरीर खंडित हो रहे थे ऐसे अनेक योद्धा इधर-उधर भाग गये ॥77॥ तदनंतर आंतरंगतम राजा सेना को रोकता हुआ सब सेना के साथ लक्ष्मण के सम्मुख खड़ा हुआ ॥78॥ उसने आते ही भयंकर युद्ध किया और निरंतर बरसते हुए बाणों से लक्ष्मण का धनुष तोड़ डाला ॥79॥ लक्ष्मण जब तक तलवार उठाता है तब तक उसने उसे रथरहित कर दिया अर्थात् उसका रथ तोड़ डाला । यह देख राम ने वायु के समान वेग वाला अपना रथ आगे बढ़ाया ॥80॥ लक्ष्मण के लिए शीघ्र ही दूसरा रथ लाया गया और जिस प्रकार अग्नि वन को जलाती है, उसी प्रकार राम ने शत्रु की सेना को जला दिया ॥ 81 ॥ उन्होंने कितने ही लोगों को बाणों के समूह से छेद डाला, कितने ही लोगों को कनक और तोमर नामक शस्त्रों से काट डाला तथा जिनके ओठ टेढ़े हो रहे थे ऐसे कितने ही लोगों के शिर चक्र रत्न से नीचे गिरा दिये ॥82॥ टूटे-फूटे चमर, छत्र, ध्वजा और धनुषों से व्याप्त म्लेच्छों की वह सेना भयभीत होकर इच्छानुसार नष्ट हो गयी-इधर-उधर भाग गयी ॥ 83॥ जिस प्रकार साधु कषायों को क्षण-भर में नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार क्लेशरहित कार्य करने वाले रामने निमेष मात्र में ही समस्त म्लेच्छों को नष्ट कर दिया ॥ 84॥ जो म्लेच्छ राजा समुद्र के समान अपार सेना के साथ आया था वह भयभीत होकर केवल दस घोड़ों के साथ बाहर निकला था ॥ 85 ॥ इन विमुख नपुंसकों को मारने से क्या प्रयोजन है ऐसा विचारकर कृतकृत्य राम लक्ष्मण के साथ सुखपूर्वक युद्ध से लौट गये ॥86॥ भय से घबड़ाये हुए म्लेच्छ विजय की इच्छा छोड़ संधि कर सह्य और विंध्य पर्वतों पर रहने लगे ॥87॥ जिस प्रकार साँप गरुड़ से भयभीत रहते हैं उसी प्रकार मलेच्छ भी राम से भयभीत रहने लगे । वे कंद-मूल, फल आदि खाकर अपना निर्वाह करने लगे तथा उन्होंने सब दुष्टता छोड़ दी ॥88॥ तदनंतर युद्ध में जिनका शरीर शांत रहा था ऐसे सानुज अर्थात् छोटे भाई लक्ष्मण सहित राम, सानुज अर्थात् छोटे भाई कनक सहित हर्षित जनक को छोड़कर जनक अर्थात् पिता के सम्मुख चले गये ॥ 89॥ तदनंतर जिसे परम आनंद उत्पन्न हुआ था और जिसका मन आश्चर्य से विस्मित हो रहा था ऐसी समस्त प्रजा आनंद से क्रीड़ा करने लगी और समस्त पृथिवी कृतयुग के समान वैभव से सुशोभित होने लगी ॥20॥ जिस प्रकार हिम के आवरण से रहित नक्षत्रों से आकाश सुशोभित होता है उसी प्रकार धर्म-अर्थ-काम में आसक्त पुरुषों से संसार सुशोभित होता है ॥91॥ गौतमस्वामी श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! राजा जनक ने इसी माहात्म्य से प्रसन्न होकर अपनी लोक-सुंदरी पुत्री जानकी राम के लिए देना निश्चित की थी ॥92॥ इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ? हे श्रेणिक ! यह निश्चित बात है कि मनुष्यों का अपना क्रिया कर्म ही उत्तम पुरुषों के साथ संयोग अथवा वियोग होने में कारणभाव को प्राप्त होता है ॥ 93॥ परम प्रताप को प्राप्त भाग्यशाली एवं असाधारण गुणों से युक्त महात्मा रामचंद्र समस्त संसार में इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि किरणों से युक्त सूर्य सुशोभित होता है ॥ 94॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में म्लेच्छों के पराजय का वर्णन करने वाला सत्ताईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥27॥ |