+ वज्रकर्ण -
तैंतीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर राम मनुष्यों के उपभोग के योग्य स्थानों से हटकर तपस्वियों के सुंदर आश्रम में पहुँचे । वहाँ वृक्षों के समान जटिल अर्थात् जटाधारी (पक्ष में जड़ों से युक्त ), नाना प्रकार के वल्कलों को धारण करने वाले और स्वादिष्ट फलों से युक्त बहुत से तापस रहते थे ॥1-2॥ उस आश्रम में अनेक मठ बने हुए थे जो विशाल पत्तों से छाये थे । सबके आगे बैठने के लिए चबूतरे थे, जो एक ओर कहीं रखी हुई पलाश तथा ऊमर की लकड़ियों की गड्डियों से सहित थे ॥3॥ बिना जोते बोये अपने-आप उत्पन्न होने वाले धान उनके आँगनों में सूख रहे थे तथा निश्चिंतता से रोमंथ करते हुए हरिणों से वे सुशोभित थे ॥4॥ निरंतर जोर-जोर से रटने वाले जटाधारी बालकों से युक्त गायों के बछड़े अपनी सुंदर पूंछ ऊपर उठाकर उन मठों के आंगनों में चौकड़ियाँ भर रहे थे ॥5॥ फूलों से सुंदर लताओं की छाया में बैठकर स्पष्ट उच्चारण करने वाले तोता, मैना तथा उलूक आदि पक्षियों से वे मठ सहित थे ॥6॥ कन्याओं ने भाई समझकर घड़ों द्वारा मधुर जल से जिनकी क्यारियाँ भर दी थीं ऐसे छोटे-छोटे वृक्ष उन मठों की शोभा बढ़ा रहे थे ॥7 ।꠰ उन तपस्वियों ने नाना प्रकार के मधुर फल, सुगंधित पुष्प, मीठा जल, आदर से भरे स्वागत के शब्द, अर्घ के साथ दिये गये भोजन, मधुर संभाषण, कुटी का दान और कोमल पत्तों की शय्या आदि थकावट को दूर करने वाले उपचार से उनका बहुत सम्मान किया ॥8-9॥ तापस लोग स्वभाव से ही सर्वत्र अतिथि सत्कार करने में निपुण थे फिर इस प्रकार के सुंदर पुरुषों के मिलने पर तो उनका वह गण और अधिक प्रकट हो गया था ॥10॥ राम-लक्ष्मण वहाँ बसकर जब आगे जाने लगे तब वे तापस उनके मार्ग में आ गये सो ठीक ही है क्योंकि उनका रूप पाषाणों को भी द्रवीभूत कर देता था फिर औरों की तो बात ही क्या थी? ॥11॥ उस आश्रम में जो तापस रहते थे उन्होंने सुंदर रूप कहाँ देखा था ? वे सूखे पत्ते खाकर तथा वायु का पान कर जीवन बिताते थे इसलिए सीता का रूप देखते ही उनका चित्त हरा गया जिससे उन्होंने धीरज को दूर छोड़ दिया ॥12॥ वृद्ध तपस्वियों ने शांत वचनों से उनसे बार-बार कहा कि यदि आप लोग हमारे आश्रम में नहीं ठहरते हैं तो भी हमारे वचन सुनिए ॥13॥ यद्यपि ये अटवियां सर्व प्रकार के आतिथ्य-सत्कार से सहित हैं तो भी नारियों और नदियों के समान इनका विश्वास नहीं कीजिए । आप स्वयं बुद्धिमान् है ॥14 ॥तपस्वियों की स्त्रियों ने कमल के समान नेत्रों वाले राम और लक्ष्मण को देखकर अपने सब काम छोड़ दिये । उनका सर्व शरीर शून्य पड़ गया॥15॥उत्कंठा से भरी कितनी ही विह्वल स्त्रियां उनके मार्ग में नेत्र लगाकर किसी अन्य कार्य के बहाने बहुत दूर तक चली गयीं ॥16॥कोई स्त्रियां मधुर शब्दों में कह रही थीं कि आप लोग हमारे आश्रम में क्यों नहीं रहते हैं ? हम आपका सब कार्य यथायोग्य रीति से कर देंगी॥17॥यहाँ से तीन कोश आगे चलकर मनुष्यों के संचार से रहित बड़े-बड़े भरी तथा सिंह, व्याघ्र आदि जंतुओं से व्याप्त एक महाअटवी है ॥18॥ वह अत्यंत भयंकर है तथा डाभ की सूचियों से व्याप्त है । ईंधन तथा फल-फूल लाने के लिए तपस्वी लोग भी वहाँ नहीं जाते हैं ॥19॥ आगे अत्यंत दुर्लध्य तथा बहुत भारी चित्रकूट नाम का पर्वत है सो क्या आप जानते नहीं हैं जिससे क्रोध को प्राप्त हो रहे हैं ॥20॥ इसके उत्तर में राम-लक्ष्मण ने कहा कि हे तपस्वियो ! हम लोगों को अवश्य ही जाना है । इस प्रकार कहने पर वे बड़ी कठिनाई से लौटी और लौटती हुई भी चिरकाल तक उन्हीं की कथा करती रहीं ॥21॥

अथानंतर उन्होंने ऐसे महावन में प्रवेश किया कि जो पृथिवी और पर्वतों के अग्रभाग के चट्टानों के समूह से अत्यंत कर्कश था तथा बड़े-बड़े वृक्षों पर चढ़ी हुई लताओं के समूह से जो व्याप्त था ॥22॥ जहाँ भूख से अत्यंत क्रुद्ध हुए व्याघ्र नखों से वृक्षों को क्षत-विक्षत कर रहे थे । जो सिंहों के द्वारा मारे गये हाथियों के गंडस्थल से निकले रुधिर तथा मोतियों की कीच से युक्त था ॥23॥ जहाँ उन्नत हाथियों ने अपने स्कंधों से बड़े-बड़े वृक्षों के स्कंध छील दिये थे । जहाँ सिंहों की गर्जना से भयभीत हुए मृग इधर-उधर दौड़ रहे थे ॥24॥जहाँ सोये हुए अजगरों की श्वासोच्छ्वास वायु से गुफाएँ भरी हुई थीं । तथा सूकर समूह के मुख के अग्रभाग के आघात से छोटे-छोटे जलाशय ऊँचे-नीचे हो रहे थे॥25 ॥बड़े-बड़े भैंसाओं के सींगों के अग्रभाग से जहाँ वामियों के शिखर खुद गये थे तथा जो बड़े-बड़े फण ऊँचे उठाकर चलने वाले सांपों से भयंकर था ॥26 ॥जहाँ भेड़ियों के द्वारा मारे गये मृगों के रुधिर पर मक्खियां भिनभिना रही थी और कटीली झाड़ियों में पूछ के बाल उलझ जाने से जहाँ चमरी मृगों के झुंड बेचैन हो रहे थे॥27॥ जो अहंकार से भरी सेहियों के द्वारा छोड़ी हुई सूचियों से चित्रविचित्र था तथा विष पुष्पों की पराग के सूंघने से जहाँ अनेक जंतु इधर-उधर घूम रहे थे ॥28॥ जहाँ गेंडा, हाथियों के गंडस्थलों के आघात से खंडित हुए वृक्षों के तनों से पानी झर रहा था तथा इधर-उधर दौड़ते हुए गवय-समूह ने जहाँ वृक्षों के पल्लव तोड़ डाले थे ॥29 ॥जहाँ नाना पक्षियों के समूह की क्रूर ध्वनि गूंज रही थी तथा वानर समूह के आक्रमण से जहाँ वृक्षों के ऊर्ध्वभाग हिल रहे थे ॥30॥ तीव्र वेग से बहने वाले सैकड़ों पहाड़ी झरनों से जहाँ पृथिवी विदीर्ण हो गयी थी तथा वृक्षों के अग्रभाग पर जहाँ सूर्य को किरणों का समूह देदीप्यमान होता था ॥31॥ जो नाना प्रकार के फूलों और फलों से व्याप्त था, विचित्र प्रकार की सुगंधि से सुवासित था, नाना औषधियों से परिपूर्ण था, और जंगली धान्यों से युक्त था ॥32॥ जो कहीं नीला था, कहीं पीला था, कहीं लाल था, कहीं हरा था, और कहीं पिंगल वर्ण था ॥33 ॥वे तीनों महानुभाव वहाँ चित्रकूट के सुंदर निर्झरों में क्रीड़ा करते, सुंदर वस्तुएँ परस्पर एक दूसरे को दिखाते स्वादिष्ट मनोहर फल खाते, पद-पद पर किन्नरियों को लज्जित करने वाला हृदयहारी मधुर गान गाते, जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए पुष्पों से परस्पर एक दूसरे को भूषित करते और वृक्षों से निकले हुए सुगंधित द्रव से शरीर को लिप्त करते हुए इस प्रकार भ्रमण कर रहे थे मानो उद्यान की सैर करने के लिए ही निकले हों । उनके सुंदर नेत्र विकसित हो रहे थे, वे इच्छानुसार शरीर की सजावट करते थे तथा प्राणियों के नेत्रों का अपहरण करते थे ॥34-37॥ वे बार-बार नेत्रों को हरण करने वाले निकुंजों में विश्राम करते थे, नाना प्रकार की कथावार्ता करते थे और तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करते थे ॥38॥ स्वभाव से ही अत्यंत सुंदर लीला के साथ गमन करते हुए वे उस सुंदर वन में इस प्रकार भ्रमण कर रहे थे जिस प्रकार कि नंदन वन में देव ॥39 ॥इस प्रकार एक पक्ष कम पाँच मास में वे उस स्थान को पार कर मनुष्यों से भरे हुए अत्यंत सुंदर अवंती देश में पहुंचे । वह देश गायों की गरदनों में बँधे घंटाओं के शब्द से परिपूर्ण था, नाना प्रकार के धान्य से सुशोभित था, विस्तृत था और ग्राम तथा नगरों से व्याप्त था ॥40-41।।

तदनंतर सुंदर आकार को धारण करने वाले वे तीनों, कितना ही मार्ग उल्लंघकर एक अतिशय विस्तृत ऐसे स्थान में पहुंचे जिसे मनुष्य छोड़कर भाग गये थे ॥42॥ एक वट वृक्ष की छाया में बैठकर विश्राम करते हुए वे परस्पर कहने लगे कि यह मनुष्यों से रहित क्यों दिखाई देता है ? ॥43॥ यहाँ अनेकों धान के प के खेत दिखाई दे रहे हैं, बगीचों के ये वृक्ष फलों और फूलों से सुशोभित हैं ॥44॥ ऊँची भूमि पर बसे गाँव पौंडों और ईखों के बागों से युक्त हैं, जिनके कमलों को किसीने तोड़ा नहीं है ऐसे सरोवर नाना प्रकार के पक्षियों से युक्त हैं ॥45॥ यह मार्ग फूटे घड़ों, गाड़ियों, पिटारों, कँड़ों, कुंडिकाओं और चटाई आदि आसनों से व्याप्त है ॥46 ॥यहाँ चावल, उड़द, मूंग तथा सूप आदि बिखरे हुए हैं और इधर यह बूढ़ा बैल मरा पड़ा है तथा इसके ऊपर फटी पुरानी गोन लदी हुई है ॥47॥ यह इतना बड़ा देश मनुष्यों से रहित हुआ ठीक उस तरह शोभित नहीं होता जिस प्रकार कि कोई दीक्षा लेने वाला साधु विषयों की आसक्ति में पड़कर शोभित नहीं होता ॥48॥

तदनंतर देश के ऊजड़ होने की चर्चा करते हुए राम अत्यंत कोमल स्पर्श वाले रत्न कंबल पर बैठ गये और पास ही उन्होंने अपना धनुष रख लिया ॥49 ॥जो प्रशस्त चेष्टा की धारक और प्रेमरूपी जल की मानो वापिका ही थी ऐसी सीता कमल के भीतरी दल के समान कोमल हाथों से शीघ्र ही राम को विश्राम दिलाने अर्थात् उनके पादमर्दन करने के लिए तैयार हुई ॥50॥ तब आदरपूर्ण क्रम को जानने वाला लक्ष्मण, बड़े भाई की आज्ञा प्राप्त कर जाँघों से लगी सीता को अलग कर स्वयं पादमर्दन करने लगा ॥53॥ राम ने लक्ष्मण से कहा कि हे भाई ! तेरी यह भावज बहुत थक गयी है इसलिए शीघ्र ही किसी गांव, नगर अथवा अहीरों की बस्ती को देखो ॥52॥ तब लक्ष्मण एक बड़े वृक्ष की शिखर पर चढ़ा । राम ने उससे पूछा कि क्या यहाँ कुछ दिखाई देता है ? ॥53॥ लक्ष्मण ने कहा कि हे देव ! जो चाँदी के पर्वत के समान हैं, शरद्ऋतु के बादलों के समान ऊंचे शिखरों से सुशोभित हैं, जो उपरितन अग्र भाग पर जिन-प्रतिमाओं से सहित हैं, उत्तमोत्तम बगीचों से युक्त हैं तथा जिन पर सफेद ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे जिनमंदिरों को देख रहा हूँ ॥54-55॥ लंबी-चौड़ी वापिकाओं तथा धान के हरे-भरे खेतों से घिरे गांव और गंधर्व नगरों की तुलना धारण करने वाले नगर भी दिखाई दे रहे हैं । इस प्रकार बहुत भारी वसतिकाएँ दिखाई दे रही हैं परंतु उनमें आदमी एक भी नहीं दिखाई देता ॥56-57॥क्या यहाँ की प्रजा अपने समस्त परिवार के साथ नष्ट हो गयी है अथवा क्रूर कर्म करने वाले म्लेच्छों ने उसे बंदी बना लिया है ? ॥58॥ बहुत दूर, एक पुरुष-जैसा आकार दिखाई देता है जो ठूंठ नहीं है पुरुष ही मालूम होता है क्योंकि उसकी प्रकृति चंचल है ॥59 ॥परंतु यह जा रहा हैं या आ रहा है इसका पता नहीं चलता । कुछ देर तक गौर से देखने के बाद लक्ष्मण ने कहा कि ‘यह आ रहा है’ यही जान पड़ता है, अच्छा, मार्ग पर आने दो तभी इसे विशेषता से जान सकूँगा ॥60॥ लक्ष्मण ने फिर देखकर कहा कि यह पुरुष मृग के समान भयभीत होकर शीघ्र ही आ रहा है, इसके शिर के बाल रूखे तथा खड़े हैं, दीन है, इसका शरीर मैल से दूषित है, पसीना झर रहा है और पूर्वोपार्जित पाप कर्म को दिखा रहा है ॥61-62॥

राम ने लक्ष्मण से कहा कि इसे शीघ्र ही यहाँ बुलाओ । तब लक्ष्मण नीचे उतरकर आश्चर्य के साथ उसके पास गया ॥63 ॥लक्ष्मण को देखकर उस पुरुष को रोमांच उठ आये । वह आश्चर्य से भर गया और अपनी गति कुछ धीमी कर मन में इस प्रकार विचार करने लगा ॥64॥ कि यह जो वृक्ष को कंपित करने वाला नीचे उतरकर आया है सो क्या इंद्र है ? या वरुण है ? या दैत्य है ? या नाग है ? या किन्नर है ? या मनुष्य है ? या यम है ? या चंद्रमा है ? या अग्नि है ? या कुबेर है ? या पृथिवी पर आया सूर्य है ? अथवा उत्तम शरीर का धारी कौन है ? ॥65-66॥ इस प्रकार विचार करते-करते उसके नेत्र महाभय से बंद हो गये, शरीर निश्चेष्ट पड़ गया और वह मूर्च्छित होकर पृथिवी पर गिर पड़ा ॥67॥यह देख लक्ष्मण ने कहा कि भद्र ! उठ-उठ, डर मत । कुछ देर बाद जब चैतन्य हुआ तब लक्ष्मण उसे राम के पास ले गया ॥68॥

तदनंतर जिनका मुख सौम्य था, जो सर्व प्रकार से सुंदर थे, मानो कांति के समुद्र में ही स्थित थे, नेत्रों को उत्सव प्रदान करने वाले थे, और पास में बैठी हुई अतिशय नम्र सीता से सुशोभित थे ऐसे राम को देखकर उस पुरुष ने क्षुधा आदि से उत्पन्न हुए श्रम को शीघ्र ही छोड़ दिया ॥69-70॥ उसने हाथ जोड़ मस्तक से भूमि का स्पर्श करते हुए नमस्कार किया तथा छाया में विश्राम कर इस प्रकार कहे जाने पर वह बैठ गया ॥71॥ तदनंतर राम ने वाणी से मानो अमृत झराते हुए उससे पूछा कि हे भद्र! तू कहाँ से आ रहा है और तेरा क्या नाम है ?॥72 ॥उसने कहा कि मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ और सीरगुप्ति मेरा नाम है । यह देश मनुष्यों से रहित क्यों है ? इस प्रकार राम के पूछने पर वह पुनः कहने लगा ॥73॥ कि जिसने अपने प्रताप से बड़े-बड़े सामंतों को नम्रीभूत कर दिया है तथा जो देवों के समान जान पड़ता है ऐसा सिंहोदर नाम से प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी का राजा है ꠰꠰74॥दशांगपुरु का राजा वज्रकर्ण जिसने कि अनेक आश्चर्य जनक कार्य किये हैं इसका अत्यंत प्रिय सेवक है ॥75॥वह तीन लोक के अधिपति जिनेंद्र भगवान् और निर्ग्रंथ मुनियों को छोड़कर किसी अन्य को नमस्कार नहीं करता है ॥76॥ ‘साधु के प्रसाद से उसका उत्तम सम्यग्दर्शन पृथिवी में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है’ यह क्या आपने नहीं सुना ? ॥77॥ इसी बीच में राम का अभिप्राय जानने वाल लक्ष्मण ने उससे पूछा कि हे भाई ! साधु ने इस पर किस तरह प्रसाद किया है ? सो तो बता ॥78॥इसके उत्तर में उस पथिक ने कहा कि हे देव! साधने जिस तरह इस पर प्रसाद किया यह मैं संक्षेप से कहता हूँ ॥79॥ एक समय शिकार खेलने के लिए उद्यत हुआ वज्रकर्ण दशारण्यपुरु के समीप में स्थित जीवों से भरी अटवी में प्रविष्ट हुआ ॥80॥ यह वज्रकर्ण जन्म से ही लेकर समस्त संसार में अत्यंत क्रूर प्रसिद्ध था, इंद्रियों का वशगामी था, मूर्ख था, सदाचार से विमुख था, लोभ अर्थात् परिग्रह संज्ञा में आसक्त था, सूक्ष्म तत्त्व के विचार से शून्य था, और भोगों से उत्पन्न महागर्वरूपी पिशाच ग्रह से दूषित था ॥81-82 ॥उस अटवी में घूमते हुए उसने कनेर वन के बीच में शिला पर विद्यमान उत्तम शांति के धारक एक साधु देखे ॥83 ॥उन साधु के ऊपर किसी प्रकार का आवरण नहीं था, वे घाम में बैठकर अपना नियम पूर्ण कर रहे थे, पक्षी के समान निःशंक और सिंह के समान निर्भय थे ॥84॥ जिस प्रकार दुर्जन के अत्यंत तीखे सैकड़ों कुवचनों से सज्जन संतप्त होता है उसी प्रकार वे साधु भी नीचे पत्थरों और ऊपर से सूर्य की किरणों के द्वारा सब ओर से संतप्त हो रहे थे ॥85॥ जो यमराज के समान दिखाई देता था ऐसे वज्रकर्ण ने घोड़े पर चढ़े-चढ़े, समुद्र के समान गंभीर, परमार्थ के ज्ञाता, पापों का विनाश करने वाले, समस्त प्राणियों की दया से युक्त एवं श्रमण लक्ष्मी से विभूषित साधु से भाला हाथ में लेकर कहा ॥86-87॥ कि हे साधो! यह क्या कर रहे हो ? साधु ने उत्तर दिया कि जो पिछले सैकड़ों जन्मों में भी नहीं किया जा सका ऐसा आत्मा का हित करता हूँ ॥88॥ राजा वज्रकर्ण ने हँसते हुए कहा कि इस अवस्था में तो तुम्हें कुछ भी सुख नहीं है फिर आत्मा का हित कैसा ? ॥89॥ जिसका लावण्य और रूप नष्ट हो गया है, जो काम और अर्थ से रहित है, जिसके शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं है तथा जिसका कोई भी सहायक नहीं उसका आत्महित कैसा ? ॥90॥ स्नान तथा अलंकार से रहित एवं पर के द्वारा प्रदत्त भोजन पर निर्भर रहने वाले आप-जैसे लोगों के द्वारा आत्महित किस प्रकार किया जाता है ? ॥91 ॥कामभोग से पीड़ित राजा वज्रकर्ण को देखकर दयालु मुनिराज बोले कि तू आशापाशरूपी बंधन को तोड़ने वाले मुझ से हित क्या पूछ रहा है ? उनसे पूछ कि जो इंद्रियों के द्वारा ठगे गये हैं, हित के उपायों से दूर हैं और अत्यंत बढ़े हुए मोह से जो संसार-सागर में भ्रमण कर रहे हैं ॥92-93 ॥यह जो तू हजारों प्राणियों का घात करने वाले, आत्मा के अनर्थ करने में तत्पर एवं सद्-असद् के विचार से रहित है सो अवश्य ही भयंकर नरक में पड़ेगा ॥94॥ जो तू उठ-उठकर पापों में परम प्रीति कर रहा है सो जान पड़ता है कि तूने भयंकर नरक की पृथिवियों को अब तक जाना नहीं है ॥25॥ इस पृथिवी के नीचे नरकों की सात पृथिवियाँ हैं जो अत्यंत भयंकर हैं, अत्यंत दुर्गंध से युक्त हैं, जिनका देखना अत्यंत कठिन है, जिनका स्पर्श करना अत्यंत दुःखदायी है, जिनका पार करना अत्यंत दुःखकारक है ॥16 ॥लोहे के तीक्ष्ण काँटों से व्याप्त हैं, नाना प्रकार के यंत्रों से युक्त हैं, क्षुरा की धारा के समान पैने पर्वतों से युक्त हैं, जिनका तल भाग तपे हुए लोहे से भी अधिक दुःख-दायी है ॥97॥जो रौरव आदि बिलों से युक्त हैं, महाअंधकार से भरी हैं, महाभय उत्पन्न करने वाली हैं, असिपत्र वन से आच्छादित हैं और अत्यंत खारे जल से भरी नदियों से युक्त हैं ॥98॥ जो पाप कार्यों से संक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं तथा जो हाथियों के समान निरंकुश अर्थात् स्वच्छंद रहते हैं ऐसे नीच पुरुष उन पृथिवियों में हजारों दुःख प्राप्त करते हैं ॥19 ॥मैं आप से ही पूछता हूँ कि तुम्हारे समान विषयों से पीड़ित तथा पापों में लीन मनुष्य आत्मा का कैसा हित करते हैं ? ॥100॥ किंपाक फल के समान जो इंद्रियजंय सुख है उसे प्रतिदिन प्राप्त कर तू आत्मा का हित मान रहा है ॥101 ॥अरे! आत्मा का हित तो वह करता है जो प्राणियों पर दया करने में तत्पर रहता हो, विवे की हो, निर्मल अभिप्राय का धारक हो, मुनि हो अथवा गृहस्थ हो ॥102॥ आत्मा का कल्याण तो उन्होंने किया है जो महाव्रत धारण करने में तत्पर रहते हैं अथवा जो अणुव्रतों से युक्त होते हैं, शेष मनुष्य तो दुःख के ही पात्र हैं ॥103 ॥तू परलोक में उत्तम पुण्य कर यहाँ आया है और अब इस लोक में पाप कर दुर्गति को जायेगा ॥104॥ ये वन के निरपराधी, क्षुद्र, दयनीय मृग; जो अनाथ हैं, चंचल नेत्रों के धारक हैं, निरंतर उद्विग्न रहते हैं, जंगल के तृण और पानी से बने शरीर को धारण करते हैं, अनेक दुःखों से व्याप्त हैं, पूर्व भव में किये पाप को भोग रहे हैं और भय भीत होने के कारण जो रात्रि में भी निद्रा को नहीं प्राप्त होते हैं; उत्तम आचार के धारक कुलीन मनुष्यों के द्वारा मारे जाने के योग्य नहीं हैं ॥105-107 ॥इसलिए हे राजन् ! मैं तुझ से कहता हूँ कि यदि तू अपना हित चाहता है तो मन-वचन-काय से हिंसा छोड़कर प्रयत्नपूर्वक अहिंसा का पालन कर ॥108 ॥इस प्रकार हितकारी उपदेशात्मक वचनों से जब राजा संबोधा गया तब वह फलों से वृक्ष के समान नम्रता को प्राप्त हो गया ॥109॥वह घोड़े से उतरकर पैदल चलने लगा तथा पृथिवी पर घुटने टेक, हाथ जोड़, शिर झुकाकर उसने उन उत्तम मुनिराज को नमस्कार किया ॥110॥ सौम्य दृष्टि से दर्शन कर उनका इस प्रकार अभिनंदन किया कि अहो! आज मैंने परिग्रह रहित प्रशंसनीय तपस्वी मुनिराज के दर्शन किये ॥111॥ वन में निवास करने वाले ये पक्षी तथा हरिण धन्य हैं जो शिलातल पर विराजमान इन ध्यानस्थ मुनि का दर्शन करते हैं ॥112 ॥आज जो मैं त्रिभुवन के द्वारा वंदनीय इस साधु समागम को प्राप्त हुआ हूँ सो धन्य हो गया हूँ, पापकर्म से छूट गया हूँ ॥113॥ये प्रभु सिंह के समान ज्ञानरूपी नखों के द्वारा बंधुओं के स्नेहरूपी बंधन को छोड़कर संसाररूपी पिंजड़े से बाहर निकले हैं ॥114॥ देखो, इन साधु के द्वारा मनरूपी शत्रु को वश कर नग्नता के उपकार से शील स्थान की किस प्रकार रक्षा की जा रही है? ॥115॥ किंतु मेरी आत्मा अभी तृप्त नहीं हुई है । अतः मैं इस गृहस्थाश्रम में रहकर रमणीय अणुव्रत के पालन में ही संतोष धारण करता हूँ ॥116॥इस प्रकार विचार कर उसने उन मुनिराज से गृहस्थ धर्म अंगीकार किया और भाव से प्लावित मन होकर इस प्रकार प्रतिज्ञा की कि मैं देवाधि देव तथा गुणों से अच्युत परमात्मा जिनेंद्र देव और उदार अभिप्राय के धारक निर्ग्रंथ मुनियों को छोड़कर अन्य किसी को नमस्कार नहीं करूंगा॥117-118॥इस प्रकार उसने बड़े आदर से उन प्रीतिवर्धन मुनिराज की बड़ी भारी पूजा को और स्थिर चित्त होकर उस दिन का उपवास किया ॥119॥समीप में बैठे हुए राजा वज्रकर्ण को मुनिराज ने उस परम हित का उपदेश दिया कि जिसकी आराधना कर भव्य प्राणी संसार से मुक्त हो जाते हैं ॥120॥ उन्होंने कहा कि उत्तम चरित्र के दो भेद हैं― एक सागार और दूसरा अनगार । इनमें से पहला चारित्र बाह्य वस्तुओं के आलंबन से सहित है तथा गृहस्थों के होता है और दूसरा चारित्र बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से रहित है तथा आकाशरूपी वस्त्र के धारक मुनियों के ही होता है ॥121॥उन्होंने यह भी बताया कि तप तथा ज्ञान के संयोग से दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है । साथ ही साथ उन्होंने जिनशासन में प्रसिद्ध प्रथमानुयोग आदि का वर्णन भी किया ॥122॥ यह सब सुनने के बाद भी राजा ने निर्ग्रंथ मुनियों का चरित्र अत्यंत कठिन समझकर अणुव्रत धारण करने का ही बार-बार विचार किया ॥123॥ यह जानकर राजा परम संतोष को प्राप्त हुआ कि मुझे उत्कृष्ट धर्मध्यान क्या प्राप्त हुआ मानो किसी निर्धन को उत्तम खजाना ही मिल गया ॥124॥अत्यंत क्रूर कार्य करने वाला यह राजा शांत हो गया है यह देख मुनिराज भी बहुत हर्ष को प्राप्त हुए ॥125 ॥तदनंतर पुण्यरूपी यज्ञ के धारक मुनिराज तप के योग्य दूसरे स्थान पर चले गये और राजा परम विभूति से युक्त हो वहीं रहा आया । उसे उत्तम लाभ की प्राप्ति हुई थी इसलिए सुख से संतृप्त था ॥126 ॥दूसरे दिन अतिथि का सत्कार कर उसने पारणा की और फिर मुनिराज के चरणों को प्रणाम कर अपने नगर में प्रवेश किया ॥127॥

अथानंतर जो परम भक्ति-भाव से गुरु को सदा हृदय में धारण करता था तथा जिसे किसी प्रकार का संदेह नहीं था ऐसा राजा वज्रकर्ण इस प्रकार चिंता करने लगा ॥128॥ कि मैं पुण्यहीन राजा सिंहोदर का सेवक होकर यदि उसकी विनय नहीं करता हूँ तो वह दमन करेगा―दंड देवेगा तब इस दशा में भोगों का सेवन किस प्रकार करूंगा ॥129 ॥इस प्रकार चिंता करते-करते भाग्य से प्रेरित राजा वज्रकर्ण को अपनी स्वच्छ अंतरात्मा से यह बुद्धि उत्पन्न हुई ॥130 ॥कि मैं मुनिसुव्रत भगवान् की प्रतिमा से युक्त एक स्वर्ण की अंगूठी बनवाकर दाहिने हाथ के अंगूठा में धारण करूँ तो मेरा नमस्कार उसी को कहलावेगा ॥131 ॥इस प्रकार विचारकर उस नीति निपुण राजा ने, जिसकी पीठिका हाथ में सुशोभित थी ऐसी अंगूठी बनवायी और अत्यंत हर्षित होकर धारण की ॥132॥ अब वह बुद्धिमान्, राजा सिंहोदर के आगे खड़ा होकर तथा अंगूठे को आगे कर सदा उस प्रतिमा को नमस्कार करने लगा ॥133॥ किसी एक दिन छिद्रान्वेषी वैरी ने यह समाचार सिंहोदर से कह दिया जिससे वह पापी परम कोप को प्राप्त हुआ ॥134॥ तदनंतर पराक्रमरूपी संपदा से मत्त मानी सिंहोदर उसका वध करने के लिए उद्यत हो गया और उसने दशांगपुरु में रहने वाले वज्रकर्ण को छल से अपने यहाँ बुलाया ॥135 ॥बृहद्गति का पुत्र वज्रकर्ण सरल चित्त था इसलिए वह सौ घुड़सवार साथ ले उसके पास जाने के लिए तैयार हो गया । उसी समय जिसके हाथ में लाठी थी, जिसका मोटा तथा ऊँचा शरीर था और जो केशर के तिलक से सुशोभित हो रहा था ऐसा एक पुरुष आकर उससे इस प्रकार बोला॥136-137॥ कि हे राजन् ! यदि तुम भोग और शरीर से उदासीन हो चुके हो तो तुम उज्जयिनी जाओ अन्यथा जाना योग्य नहीं है ॥138॥ हे राजन् ! तुम सिंहोदर को नमस्कार नहीं करते हो इस अपराध से वह क्रुद्ध होकर तुम्हारा वध करने के लिए तैयार हुआ है । अतः जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करो ॥139॥उस पुरुष के ऐसा कहने पर वज्रकर्ण ने विचार किया कि किसी ईर्ष्यालु दुष्ट मनुष्य ने भेद करना चाहा है अर्थात् मुझ में और सिंहोदर में फूट डालने का उद्योग किया है । इस प्रकार विचारकर उसने जिसे अत्यधिक हर्ष हो रहा था तथा जो किंचित् खेद को प्राप्त था ऐसे उस दूत से पूछा कि तु कौन है ? कहाँ से आया है ? ॥140-141 ॥और इस दुर्गम मंत्र का तुझे कैसे पता चला है ? हे भद्र ! यह कह । मैं सब जानना चाहता हूँ ॥142॥ वह बोला कि कुंदनगर में धनसंचय करने में तत्पर एक समुद्रसंगम नामक वैश्य रहता था । उसकी स्त्री का नाम यमुना था । मैं उन्हीं का पुत्र हूँ । चूंकि मेरी माता ने मुझे उस समय जन्म दिया जो बिजली की ज्वालाओं से व्याप्त रहता है इसलिए बंधुजनों ने मेरा विद्युदंग नाम रखा॥143-144॥ क्रम से यौवन को धारण करता हुआ मैं व्यापार की विद्या से युक्त हो धनोपार्जन करने के लिए इस उज्जयिनी नगरी में आया था ॥145 ॥सो यहाँ कामलता नामक वेश्या को देख कर कामबाण से ताड़ित हुआ जिससे व्याकुल होकर न दिन में चैन को पाता हूँ और न रात्रि में ॥146॥ मैं एक रात उसके साथ समागम कर रह लूँ इस प्रीति ने मुझे इस प्रकार अत्यंत मजबूत बाँध रखा जिस प्रकार कि जाल किसी हरिण को बाँध रखता है॥147॥ मेरे पिता ने अनेक वर्षों में जो धन संचित किया था मुझ सुपूत ने उसे केवल छह माह में नष्ट कर दिया ॥148 ॥जिस प्रकार भ्रमर कमल में आसक्त रहता है उसी प्रकार मेरा मन काम से दुःखी हो उस वेश्या में आसक्त रहता था सो ठीक ही है क्योंकि यह पुरुष स्त्रियों के लिए कौन-सा साहस नहीं करता है ? ॥149 ॥एक दिन मैंने सुना कि वह वेश्या सखी के सामने अपने कुंडल की निंदा करती हुई कह रही है कि कानों के भार स्वरूप इस कुंडल से मुझे क्या प्रयोजन है ? वह महासौभाग्य का उपभोग करने वाली श्रीधरा रानी धन्य है जिसके कान में वह रत्नमयी मनोहर कुंडल शोभित होता है ॥150-151 ॥मैंने सुनकर विचार किया कि यदि मैं उस उत्तम कुंडल को चुराकर इसकी आशा पूर्ण नहीं करता हूँ तो मेरा जीवन किस काम का ? ॥152 ॥तदनंतर उस कुंडल को अपहरण करने की इच्छा से मैं अपने प्रिय जीवन की उपेक्षा कर रात्रि के समय अंधकार से आवृत होकर राजा के घर गया ॥153॥ वहाँ मैंने रानी श्रीधरा को सिंहोदर से यह पूछती हुई सुना कि हे नाथ ! आज नींद को क्यों नहीं प्राप्त हो रहे हो तथा उद्विग्न से क्यों मालूम होते हो ? ॥154॥ उसने कहा कि हे देवि ! जब तक मैं नमस्कार से विमुख रहने वाले शत्रु वज्रकर्ण को नहीं मारता हैं तब तक मेरा चित्त व्याकुल है अतः निद्रा कैसे आ सकती है ? ॥155 ॥जो अपमान से जल रहा हो, ऋण की चिंता से व्याकुल हो, जो शत्रु को नहीं जीत सका हो, जिसकी स्त्री विटपुरुष के चक्र में पड़ गयी हो, जो शल्य से सहित दरिद्र हो तथा जो संसार के दुःख से भयभीत हो ऐसे मनुष्य से दया युक्त होकर ही मानो निद्रा दूर भाग जाती है ॥156-157॥यदि मैं नमस्कार से विमुख रहने वाले इस वज्रकर्ण को नहीं मारता हूँ तो मुझ निस्तेज को जीवन से क्या प्रयोजन है ? ॥158॥

तदनंतर यह सुनकर जिसके हृदय में मानो वज्र की ही चोट लगी थी ऐसा मैं इस रहस्य रूपी रत्न को लेकर और कुंडल की भावना छोड़कर आपके पास आया हूँ क्योंकि आपका मन सदा धर्म में तत्पर रहता है तथा आप सदा साधुओं की सेवा करते हैं । हे नाथ ! यह जानकर आप लौट जाइए, उज्जैन मत जाइए ॥159-160॥ उसकी आज्ञा पाकर नगर का यह समस्त मार्ग, जिनके गंडस्थल से मद झर रहा है ऐसे अंजनगिरि के समान आभा वाले हाथियों, महावेगशाली घोड़ों, कवचों से आवृत योद्धाओं तथा आपको मारने के लिए उद्यत कर सामंतों से घिरा हुआ है ॥161-162॥ अतः हे धर्मवत्सल ! प्रसन्न होओ, शीघ्र ही उलटा वापस जाओ, मैं आपके, चरणों में पड़ता है । आप मेरा वचन मानो ॥163 ॥हे राजन् ! यदि आपको विश्वास नहीं हो तो देखो, धूलि के समूह से व्याप्त तथा महा कल-कल शब्द करता हुआ यह शत्रु का दल आ पहुंचा है ॥164॥ इतने में शत्रुदल को आया देख वज्रकर्ण विद्युदंग के साथ वेगशाली घोड़े से वापस लौटा ॥165 ॥और अपने दुर्गम नगर में प्रवेश कर धीरता के साथ युद्ध की तैयारी करता हुआ स्थित हो गया । बड़े-बड़े सामंत गोपुरों को रोककर खड़े हो गये ॥166॥

तदनंतर वज्रकर्ण को नगर में प्रविष्ट सुन, क्रोध से जलता हुआ सिंहोदर अपनी सर्व सेना के साथ वहाँ आया ॥167॥ वज्रकर्ण का नगर अत्यंत दुर्गम था । इसलिए सेना के क्षय से भयभीत हो राजा सिंहोदर ने उस पर तत्काल ही आक्रमण करने की इच्छा नहीं की ॥168॥ किंतु सेना को समीप ही ठहराकर शीघ्र ही एक दूत भेजा । वह दूत वज्रकर्ण के पास जाकर बड़ी निष्ठुरता से बोला ॥169 ॥कि जिन शासन के वर्ग से जिसका मन सदा अहंकारपूर्ण रहता है तथा जो समीचीन भावों से रहित है ऐसा तू मेरे ऐश्वर्य का कंटक बन रहा है ॥170॥ कुटुंबों के भेदन करने में चतुर, तथा खोटी चेष्टाओं से युक्त मुनियों के द्वारा प्रोत्साहित होकर तू इस अवस्था को प्राप्त हुआ है, स्वयं नीति से रहित है ॥171 ॥मेरे द्वारा प्रदत्त देश का उपभोग करता है और अरहंत को नमस्कार करता है । अहो, तुझ दृष्ट हृदय की यह बड़ी माया ॥172॥ तु सुबुद्धि है अतः शीघ्र ही मेरे पास आकर प्रणाम कर अन्यथा देख, अभी मृत्यु के साथ समागम को प्राप्त होता है॥173॥

तदनंतर वज्रकर्ण का उत्तर ले दूत ने वापस जाकर सिंहोदर से कहा कि हे नाथ ! निश्चय को धारण करने वाला वज्रकर्ण इस प्रकार कहता है कि हे विभो ! नगर, सेना, खजाना और देश सब कुछ ले लो पर भार्या सहित केवल मुझे धर्म का द्वार प्रदान कीजिए अर्थात् मेरी धर्माराधना में बाधा नहीं डालिए ॥174-175 ॥मैंने जो यह प्रतिज्ञा की है कि मैं अरहंत देव और निर्ग्रंथ गुरु को छोड़ अन्य किसी को नमस्कार नहीं करूँगा सो मरते-मरते इस प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ें गा । आप मेरे धन के स्वामी हैं शरीर के नहीं ॥176 ॥इतना कहने पर भी सिंहोदर ने क्रोध नहीं छोड़ा और नगर पर घेरा डालकर तथा आग लगाकर इस देश को उजाड़ दिया ॥177 ॥इस प्रकार हे देव ! मैंने आप से इस देश के उजड़ होने का कारण कहा है अब यहाँ पास ही अपने उजड़े गाँव को जाता हूँ ॥178 ॥उस गाँव में विमान के तुल्य जो अच्छे-अच्छे महल थे वे जल गये और उनके साथ तृण तथा काष्ठ से निर्मित मेरी टूटी-फूटी कुटिया भी जल गयी ॥179 ॥उस कुटिया में एक जगह सूपा घट तथा मट का छिपाकर रखे थे सो दुष्ट वचन बोलने वाली स्त्री से प्रेरित हो उन्हें लेने जा रहा हूँ ॥180॥ सूने गाँवों में घर-गृहस्थी के बहुत से उपकरण मिल जाते हैं इसलिए तू भी उन्हें ले आ इस प्रकार वह बार-बार मुझ से कहती रहती है ॥181 ॥अथवा उसने मेरा यह बहुत भारी हित किया है कि हे देव ! पुण्योदय से मैं आपके दर्शन कर सका हूँ ॥182 ॥इस प्रकार उस पथिक को दुःखी देख दया से स्वयं दुःखी होते हुए राम ने उसके लिए अपना रत्नजटित स्वर्णसूत्र दे दिया ॥183॥

वह पथिक उसे लेकर तथा विश्वासपूर्वक उन्हें प्रणाम कर अपने घर वापस लौट गया और राजा के समान संपन्न हो गया ॥184॥

अथानंतर राम ने कहा कि हे लक्ष्मण ! यह ग्रीष्मकाल का सूर्य जब तक अत्यंत दुःसह अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक उठो इस नगर के समीपवर्ती प्रदेश में चलें । यह जान की प्यास से पीड़ित है इसलिए शीघ्र ही आहार की विधि मिलाओ॥185-186 ॥इस प्रकार कहने पर वे तीनों दशांगनगर के समीप चंद्रप्रभ भगवान् के उत्तम चैत्यालय में पहुँचे ॥187॥वहाँ जिनेंद्र देव को नमस्कार कर सीता सहित राम तो उसी चैत्यालय में सुख से ठहर गये और लक्ष्मण धनुष लेकर आहार प्राप्ति के लिए निकला ॥188॥जब वह राजा सिंहोदर की छावनी में प्रवेश करने लगा तब रक्षक पुरुषों ने जोर से ललकार कर उसे उस तरह रो का जिस तरह कि पर्वत वाय को रोक लेते हैं ॥189 ॥इन नीच कुली लोगों के साथ विरोध करने से मुझे क्या प्रयोजन है ऐसा विचारकर वह बुद्धिमान् लक्ष्मण नगर की ओर गया ॥190 ॥जब वह अनेक योद्धाओं के द्वारा सुरक्षित उस गोपुरु द्वार पर पहुंचा जिस पर कि साक्षात् वज्रकर्ण बड़े प्रयत्न से बैठा था ॥191 ॥तब उसके, भृत्यों ने कहा कि तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? और किसलिए आये हो ? इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि मैं बहुत दूर से अन्न प्राप्त करने की इच्छा से आया हूँ ॥192 ॥तदनंतर उस बालक को सुंदर देख आश्चर्यचकित हो वज्रकर्ण ने कहा कि आओ, शीघ्र प्रवेश करो ॥193 ॥तत्पश्चात् संतुष्ट होकर लक्ष्मण विनीत वेष में वज्रकर्ण के पास गया । वहाँ सब लोगों ने उसे बड़े आदर से देखा ॥194॥

वज्रकर्ण ने एक आप्त पुरुष से कहा कि जो अन्न मेरे लिए तैयार किया गया है यह इसे शीघ्र ही आदर के साथ खिलाओ ॥195 ॥यह सुन लक्ष्मण ने कहा कि मैं यहाँ भोजन नहीं करूँगा । पास ही मेरे गुरु अग्रज ठहरे हुए हैं पहले उन्हें भोजन कराऊँगा इसलिए मैं यह अन्न उनके पास ले जाता हूँ ॥196॥एवमस्तु― ऐसा ही हो कहकर राजा ने उसे उत्तमोत्तम व्यंजन और पेय पदार्थों से युक्त बहुत भारी अन्न दिला दिया ॥197॥ लक्ष्मण उसे लेकर दूने वेग से राम के पास गया । सबने उसे यथाक्रम से खाया और खाकर परम तृप्ति को प्राप्त हुए ॥198॥

तदनंतर राम ने संतुष्ट होकर कहा कि हे लक्ष्मण ! वज्र कर्ण की भद्रता देखो जो इसने परिचय के बिना ही यह किया है ॥199 ॥ऐसा सुंदर भोजन तो जमाई के लिए भी नहीं दिया जाता है । अहो ! पेय पदार्थों की शीतलता और व्यंजनों की मधुरता तो सर्वथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है ॥200॥ इस अमृत तुल्य अन्न के खाने से हमारा मार्ग से उत्पन्न हुआ गर्मी का समस्त श्रम एक साथ नष्ट हो गया है ॥201॥ जो कोमलता को धारण कर रहे हैं, जिनका एक-एक सीत अलग-अलग है, और जो सफेदी के कारण ऐसे जान पड़ते हैं मानो चंद्रमा के बिंब को चूर्ण कर ही बनाये गये हैं ऐसे ये धान के चावल हैं ॥202 ॥जो अत्यंत स्वच्छता से युक्त है तथा जो अपनी सुगंधि से भ्रमरों को आकृष्ट कर रहा है ऐसा यह पानक, जान पड़ता है चंद्रमा की किरणों को दुहकर ही बनाया गया है ॥203 ॥यह घी और दूध तो मानो कामधेनु के स्तन से ही । उत्पन्न हुआ है अन्यथा व्यंजनों में रसों की ऐसी व्यक्तता कठिन ही है ॥204॥ पथिक ने यह ठीक ही कहा था कि वह सत्पुरुष अणुव्रतों का धारी है अन्यथा अतिथियों का ऐसा सत्कार दूसरा कौन करता है ? ॥205॥ जो संसार को पीडा को नष्ट करने वाले जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है उनके सिवाय किसी दूसरे को नमस्कार नहीं करता ऐसा वह बुद्धिमान् शुद्ध आत्मा का धारक सुना जाता है ॥206 ॥ऐसे शील और गुणों से सहित होने पर भी यदि यह हम लोगों के आगे शत्रु से घिरा रहता है तो हमारा जीवन व्यर्थ है ॥207॥यह अपराध से रहित है, अपने आपको सदा साधुओं की सेवा में तत्पर रखता है तथा इसके समस्त सामंत अपने इस अद्वितीय स्वामी के अनुकूल हैं ॥208 ॥दुष्ट राजा सिंहोदर के द्वारा पीड़ित हुए इस वज्रकर्ण की रक्षा करने के लिए भरत भी समर्थ नहीं है क्योंकि वह अभी नवीन राजा है ॥209॥ इसलिए अन्य रक्षकों से रहित बुद्धिमान् की रक्षा शीघ्र ही करो, जाओ और सिंहोदर से कहो ॥210॥ यह कहना, यह कहना यह तुम्हें क्या शिक्षा दी जाये क्योंकि जिस प्रकार महामणि प्रभा के साथ उत्पन्न होता है उसी प्रकार तुम भी प्रज्ञा के साथ ही उत्पन्न हुए हो ॥211॥

अथानंतर अपने गुणों की प्रशंसा सुन जिसे लज्जा उत्पन्न हो रही थी ऐसा लक्ष्मण राम की आज्ञा शिरोधार्य कर जैसी आपकी आज्ञा यह कहकर तथा प्रणाम कर हर्षित होता हुआ चला । वह उस समय विनीत वेष को धारण कर रहा था, धनुष साथ में नहीं ले गया था, वेग से संपन्न था और पृथ्वी को कपाता हुआ जा रहा था । 212-213 ॥रक्षक पुरुषों ने देखकर उससे पूछा कि आप किसके आदमी हैं ? इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि मैं राजा भरत का आदमी हूँ और दूत के कार्य से आया हूँ ॥214॥ क्रम-क्रम से बहुत बड़ी छावनी को उलंघकर वह राजा के निवास स्थान में पहुंचा और द्वारपालों के द्वारा खबर देकर राजा सिंहोदर की सभा में प्रविष्ट हुआ ॥215॥ वहाँ जाकर राजा को तृण के समान तुच्छ समझते हुए उसने स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार कहा कि हे सिंहोदर ! तू मुझे बड़े भाई का संदेशवाहक समझ ॥216 ॥उत्तम गुणों को धारण करने वाले राजा भरत आपको इस प्रकार आज्ञा देते हैं कि इस निष्कारण वैर से क्या लाभ है ? ॥217॥

तदनंतर कठोर मन को धारण करने वाला सिंहोदर बोला कि हे दूत ! तू मेरी ओर से अयोध्या के राजा भरत से इस प्रकार कहो कि अविनीत सेवकों को विनय में लाने के लिए स्वामी प्रयत्न करते हैं इसमें क्या विरोध दिखाई देता है ? ॥218-219 ॥यह वज्रकर्ण दुष्ट है, मानी है, मायावी है, अत्यंत नीच है, क्रोधी है, क्षुद्र है, मित्र की निंदा करने में तत्पर है, आलस्य से युक्त है, मूढ़ है, वायु अथवा किसी पिशाच ने इसकी बुद्धि हर ली है, यह विनयाचार से रहित है, पंडितम्मन्य है, और दुष्ट चेष्टाओं से युक्त है । ये दोष इसे या तो दमन से छोड़ सकते हैं या मरण से; इसलिए इसका उपाय करता हूँ इस विषय में आप चुप बैठिए ॥220-222॥ तदनंतर लक्ष्मण ने कहा कि इस विषय में अधिक उत्तरों से क्या प्रयोजन है ? चूँकि यह सबका हित करता है अतः इसका यह सब अपराध क्षमा कर दिया जाये ॥223 ॥लक्ष्मण के इस प्रकार कहते ही जिसका क्रोध उबल पडा था, और जो संधि से विमुख था ऐसा सिंहोदर अपने सामंतों की ओर देख गरज कर बोला कि न केवल यह दुष्ट वज्रकर्ण ही मानी है किंतु उसके कार्य की इच्छा से आया हुआ यह दत भी वैसा ही मानी है ॥224-225 ॥अरे दूत ! जान पड़ता है तेरा यह शरीर पाषाण से ही बना है अयोध्यापति का यह दुष्ट भृत्य, रंचमात्र भी नम्रता को प्राप्त नहीं है― अर्थात् इसने बिल्कुल भी नमस्कार नहीं किया ॥226॥सचमुच ही उस देश के सब लोग तेरे ही जैसे हैं जिस प्रकार बटलोई के दो-चार सीथ जानने से सब सीथों का ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार तेरे द्वारा वहाँ के सब लोगों का परोक्षज्ञान हो रहा है ॥227 ॥।

सिंहोदर के इस प्रकार कहने पर कुछ क्रोध को प्राप्त हुआ लक्ष्मण बोला कि मैं साम्यभाव स्थापित करने के लिए यहाँ आया हूँ तुझे नमस्कार करने के लिए नहीं ॥228॥ सिंहोदर ! इस विषय में बहुत कहने से क्या ? संक्षेप से सुन, या तो तू संधि कर या आज ही मरण का आश्रय ले ॥229 ॥यह कहते ही समस्त सभा परम क्षोभ को प्राप्त हो गयी, नाना प्रकार के दुर्वचन बोलने लगी तथा नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगी ॥230॥ जिनके शरीर क्रोध से काँप रहे थे ऐसे कितने ही योधा छुरी खींचकर और कितने ही योधा तलवारें निकालकर उसका वध करने के लिए उद्यत हो गये ॥231 ॥जो वेग से हुंकार छोड़ रहे थे तथा जो परस्पर अत्यंत व्याकुल थे ऐसे उन योद्धाओं ने लक्ष्मण को चारों ओर से उस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मच्छर किसी पर्वत को घेर लेते हैं ॥232 ॥शीघ्रता से कार्य करने में निपुण धीर-वीर लक्ष्मण ने जो पास में नहीं आ पाये थे ऐसे उन योद्धाओं को चरणों की चपेट से विह्वल कर एक साथ दूर फेंक दिया ॥233 ॥शीघ्रता से घूमते हुए लक्ष्मण ने कितने ही लोगों को घुटनों से, कितने ही लोगों को कोहनी से, और कितने ही लोगों को मुठ्ठियों के प्रहार से शतखंड कर दिया अर्थात् एक-एक के सौ-सौ टुकड़े कर दिये ॥234॥ कितने ही लोगों के बाल खींचकर तथा पृथिवी पर पटककर उन्हें पैरों से चूर्ण कर डाला और कितने हो लोगों को कंधे के प्रहार से गिरा दिया ॥235 ॥कितने ही लोगों को परस्पर भिड़ाकर उनके शिर एक दूसरे के शिर की चोट से चूर्ण कर डाले और कितने ही लोगों को जंघा के प्रहार से मूर्च्छित कर दिया ॥236 ॥इस प्रकार महाबलवान् एक लक्ष्मण ने सिंहोदर की उस सभा को भयभीत कर विध्वस्त कर दिया ॥237॥

इस प्रकार सभा को विध्वस्त करता हुआ लक्ष्मण जब भवन से बाहर आंगण में निकला तब सैकड़ों अन्य योद्धाओं ने उसे घेर लिया ॥238॥तदनंतर युद्ध के लिए तैयार खड़े हुए सामंतों, हाथियों, घोड़ों और रथों के द्वारा उत्पन्न परस्पर की धक्काधूमी से बहुत भारी आकुलता उत्पन्न हो गयी ॥239॥हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले उन सामंतों के साथ वीर लक्ष्मण ऐसी चेष्टा करने लगा जैसी कि शृंगालों के साथ सिंह करता है ॥240॥ तदनंतर वर्षा ऋतु के मेघ के समान आकार को धारण करने वाले हाथी पर सवार होकर सिंहोदर स्वयं लक्ष्मण को रोकने के लिए उद्यत हुआ ॥241 ॥जो सामंत पहले दूर भाग गये थे वे सिंहोदर के रणाग्र में आते ही कुछ-कुछ धैर्य धारण कर फिर से वापस आ गये ॥242॥ जिस प्रकार मेघों के झुंड चंद्रमा को घेरते हैं उसी प्रकार उन सामंतों ने लक्ष्मण को घेरा परंतु जिस प्रकार तीव्र वायु रुई के ढेर को उड़ा देती है उसी प्रकार उसने उन सामंतों को उड़ा दिया-दूर भगा दिया ॥243 ॥जिन्होंने गालों पर हाथ लगा रखे थे, जो अत्यंत आकुलता को प्राप्त थीं, तथा जिनके नेत्र भय से चंचल हो रहे थे ऐसी उत्तम योद्धाओं की स्त्रियाँ परस्पर में कह रही थीं कि हे सखियो! इस महा भयंकर पुरुष को देखो । इस एक को बहुत से क्रूर सामंतों ने घेर रखा है यह अत्यंत अनुचित बात है ॥244-245॥ उन्हीं में कुछ स्त्रियां इस प्रकार कह रही थीं कि यद्यपि यह अकेला है फिर भी इसे कौन परिभूत कर सकता है ? देखो, इसने अनेक योद्धाओं को चपेट कर विह्वल कर दिया है ॥246॥

अथानंतर सामने सेना को इकट्ठी होती देख लक्ष्मण ने हंसकर हाथी बाँधने का एक बड़ा खंभा उखाड़ा ॥247॥और जिस प्रकार वन में जोरदार अग्नि वृद्धिंगत होती है उसी प्रकार सघन हुंकारों से भयंकरता को प्राप्त करता हुआ लक्ष्मण उस सेना पर वेग से टूट पडा ॥248॥दशांगपुरु का राजा वज्रकर्ण गोपुरु के अग्रभाग पर बैठा-बैठा इस दृश्य को देख आश्चर्य से चकित हो गया । जिनके नेत्र हर्ष से विकसित हो रहे थे ऐसे समीपवर्ती सामंतों ने उससे कहा कि हे नाथ ! देखो, परमतेज को धारण करने वाला यह कोई पुरुष सिंहोदर की सेना को नष्ट कर रहा है । उसने उसकी सेना के ध्वज, रथ तथा छत्र आदि सभी तोड़ डाले हैं ॥249-250॥ तलवारों और धनुषों की छाया के बीच खड़ा हुआ यह सिंहोदर, अत्यंत विह्वल हो भंवर में पड़े हुए के समान इधर-उधर घूम रहा है॥251॥ जिस प्रकार सिंह से भयभीत होकर मृग समूह इधर-उधर भागता फिरता है उसी प्रकार सिंहोदर की सेना इससे भयभीत होकर इधर-उधर भागती फिरती है ॥252॥ ये दूर खड़े हुए सामंत परस्पर कह रहे हैं कि कवच उतार दो, तलवार छोड़ दो, धनुष फेंक दो, घोड़ा छोड़ दो, हाथी से नीचे उतर जाओ, गदा गड्ढे में गिरा दो, ऊँचा शब्द मत करो, शस्त्रों का समूह देखकर यह अतिशय भयंकर पुरुष वेग से कहीं हमारे ऊपर न आ पड़े; इस स्थान से हट जाओ, अरे भट ! रास्ता दे, हाथी को यहाँ से दूर हटा, चुपचाप क्यों खड़ा है ? अरे दुष्ट सारथि ! देख, यह आया, यह आया, रथ छोड़, घोड़े जल्दी बढ़ा, मारे गये इसमें संशय नहीं, इत्यादि वार्तालाप करते हुए, संकट में पड़े कितने ही योद्धा, योद्धाओं का वेष छोड़कर नपुंसकों के समान एक ओर स्थित हैं ॥253-258॥क्या युद्ध में यह कोई देव क्रीड़ा कर रहा है अथवा विद्याधर, वायु नाम का कोई व्यक्ति संसार में प्रसिद्ध है सो क्या यह वही है ? यह अत्यंत तीक्ष्ण और बिजली के समान चंचल है ॥259-260॥ सेना को इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर के अब यह आगे क्या करेगा? हे नाथ ! इस प्रकार हमारा मन शं का को प्राप्त हो रहा है ॥261 ॥देखो, रोमांचकारी युद्ध में उछलकर भयभीत सिंहोदर को हाथी से खींचकर उसी के वस्त्र से गले में बाँध लिया है और यह बेल की तरह वश कर उसे आगे कर आश्चर्य से चकित होता हुआ आ रहा है ॥262-263 ॥इस प्रकार सामंतों के कहने पर वज्रकर्ण ने कहा कि हे मानवो! स्वस्थ होओ, देव शांति करेंगे, इस विषय में बहुत चिंता करने से क्या लाभ है ? ॥264॥महलों के शिखरों पर बैठी दशांगनगर की स्त्रियाँ परम आश्चर्य को प्राप्त हो परस्पर इस प्रकार कह रही थीं॥265 ॥कि हे साथी ! इस वीर की परम अद्भुत चेष्टा देखो जिसने अकेले ही इस राजा को वस्त्र से बाँध लिया ॥266 ॥धन्य इसकी कांति, धन्य इसका अतिशय पूर्ण तेज, और धन्य इसकी शक्ति । अहो! यह उत्तम पुरुष कौन होगा ? ॥267 । यह किस भाग्यशालिनी गुणवती स्त्री का पति है ? अथवा आगे होगा? यह समस्त पृथिवी का स्वामी है ॥268॥

अथानंतर वृद्ध और बालकों से सहित सिंहोदर को रानियाँ भय से अत्यंत विह्वल हो रोती हुई लक्ष्मण के चरणों में आ पड़ी ॥269 ॥वे बोली कि हे देव ! इसे छोड़ो, हमारे लिए पति की भिक्षा देओ, आज से यह आपका आज्ञाकारी भृत्य है॥270॥ लक्ष्मण ने कहा कि देखो यह सामने ऊँचा वृक्ष खंड है वहाँ ले जाकर इस दुराचारी को उस पर लटकाऊँगा ॥271॥ तदनंतर बहुत करुण रुदन करती तथा बार-बार हाथ जोड़ती हुई बोली कि हे देव ! यदि रुष्ट हो तो हम लोगों को मारो और इसे छोड़ दो ॥272॥प्रसन्नता करो, हग लोगों को पति का दुःख न दिखाओ । उत्तम पुरुष स्त्रियों पर दया करते ही हैं ॥273 ॥तब लक्ष्मण ने कहा कि अच्छा आगे चलकर छोड़ देंगे आप लोग स्वस्थता को प्राप्त होओ । इस प्रकार कहता हुआ लक्ष्मण उस चैत्यालय में गया जहाँ कि सीता सहित राम ठहरे हुए थे ॥274॥ वहाँ जाकर लक्ष्मण ने राम से कहा कि यह वज्रकर्ण का शत्रु हैं इसे मैं ले आया है । अब हे देव ! जो करना हो सो आज्ञा करो ॥275 ॥तब जिसका शरीर काँप रहा था ऐसा सिंहोदर हाथ जोड़ मस्तक से लगा राम के चरणकमलों में गिरा ॥276 ॥और बोला कि हे देव ! आप कौन हैं ? यह मैं नहीं जानता । आप कांतिमां हैं, उत्कृष्ट तेज से युक्त हैं और सुमेरु के समान स्थिर हैं ॥277॥ हे गंभीर पुरुषोत्तम ! आप मनुष्य रहो चाहे देव ! इस विषय में बहुत कहने से क्या ? मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ ॥278॥वज्रकर्ण आपको रुचता है सो वह यह राज्य ग्रहण करे मैं तो सदा आपके चरणों की शुश्रूषा ही करता रहूँगा ॥279 ॥सिंहोदर की स्त्रियाँ भी अत्यंत करुण विलाप करती हुई, राम के चरणों में प्रणाम कर बोली कि हमारे लिए पति की भिक्षा दीजिए ॥280॥ हे देवि ! तुम तो स्त्री हो अतः हे शोभने ! हम पर दया करो इस प्रकार कहकर वे सीता के चरणकमलों में भी पड़ी ॥281॥ तदनंतर वापिकाओं में स्थित हंसों को मेघध्वनि से होने वाला भय उत्पन्न करते हुए राम ने नीचा मुख कर बैठे हुए सिंहोदर से कहा ॥282॥ कि हे सुधी ! तुझे वज्रकर्ण जो कहे सो कर ! इसी तरह तेरा जीवन रह सकता है और दूसरा उपाय नहीं है ॥283 ॥तदनंतर जिसकी भाग्य-वृद्धि हो रही थी ऐसा वज्रकर्ण हित कारी पुरुषों के द्वारा बुलाया गया जो परिवार सहित उस चैत्यालय में आया ॥284॥ उसने हाथ जोड़ मस्तक से लगा जिनालय की तीन प्रदक्षिणाएँ दी फिर भक्ति से रोमांचित हो चंद्रप्रभ भगवान् को नमस्कार किया ॥285॥ तत्पश्चात् विधि-विधान के जानकार वज्रकर्ण ने विनयपूर्वक जाकर राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों की क्रम से स्तुति की और सीता से शरीर-संबंधी आरोग्य पूछा ॥286 ॥तदनंतर राम ने अत्यंत मधुर ध्वनि में उससे कहा कि हे भद्र ! आज तो तेरी कुशल से ही हम सबको कुशल है ॥287॥ इस प्रकार शुभ लीला के धारक राम और वज्रकर्ण के बीच जब तक यह वार्तालाप चलता है तब तक सुंदर वेष का धारक विद्युदंग सेना के साथ वहाँ आ पहुँचा ॥288 ॥क्रम के जानने में पंडित प्रतापी विद्युदंग राम-लक्ष्मण को प्रणाम कर वज्रकर्ण के पास आ बैठा ॥289॥उसी समय सभा में यह जोरदार शब्द गूंजने लगा कि यह बुद्धिमान् विद्युदंग वज्रकर्ण का परम मित्र है ॥290 ॥तदनंतर राम ने मंद हास्य से मुख को धवल कर वज्रकर्ण से कहा कि हे वज्रकर्ण ! तेरी यह दृष्टि अत्यंत श्रेष्ठ है ॥22 ॥जिस प्रकार मेरुपर्वत की चूलिका प्रलयकाल की वाय के आघात से कंपित नहीं होती, उसी प्रकार तेरी यह बुद्धि मिथ्या मतों से रंचमात्र भी कंपित नहीं हुई ॥292 ॥मुझे देखकर भी तेरा यह मस्तक नम्रीभूत नहीं हुआ सो तेरी यह चेष्टा अत्यंत मनोहर तथा शांत है ॥293॥ अथवा शुद्ध तत्त्व के जानकार पुरुष को क्या कठिन है ? खासकर धर्मानुरागी सम्यग्दृष्टि के मनुष्य को ॥294॥जिस उन्नत शिर से तीन लोक के द्वारा वंदनीय परम कल्याणस्वरूप जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार किया जाता है उसी शिर से दूसरे लोगों को कैसे प्रणाम किया जाये ? ॥295॥ मकरंद रस के आस्वादन में निपुण भौंरा उन्मत्त होने पर भी क्या गधे की पूंछ पर अपना स्थान जमाता है ? ॥296 ॥तुम बुद्धिमान हो, धन्य हो, निकट भव्यपना धारण कर रहे हो और चंद्रमा से भी अधिक धवल तुम्हारी कीर्ति संसार में भ्रमण कर रही है ॥297॥मुझे मालूम है कि यह विद्युदंग भी तुम्हारा मित्र है । सो यह भी भव्य है जो कि तुम्हारी सेवा करने के लिए उद्यत रहता है ॥298॥

अथानंतर यथार्थ गुणों के कथन से जो लज्जा को प्राप्त था तथा जिसका मुख कुछ नीचे को ओर झुक रहा था ऐसा वज्रकर्ण बोला कि हे देव ! यद्यपि आपको यहाँ रहते बहुत कष्ट हुआ है तो भी हे महाभाग ! आप मेरे परम बांधव हुए हैं ॥299-300 । इस समय मेरे जीवित रहते हुए मेरे इस नियम का पालन आपके ही प्रसाद से हुआ है और मेरे भाग्य से ही आप पुरुषोत्तम यहाँ पधारे हैं ॥301 ॥इस प्रकार कहते हुए बुद्धिमान् वज्रकर्ण से लक्ष्मण ने कहा कि जो तेरी अभिलाषा हो वह कह मैं शीघ्र ही पूर्ण कर दूं ॥302॥ यह सुनकर वज्रकर्ण ने कहा कि आप-जैसे अत्यंत दुर्लभ मित्र को पाकर इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है । अतः मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं जिनमत का धारक होने से यह नहीं चाहता हूँ कि तृण को भी पीड़ा हो । इसलिए यह मेरा स्वामी राजा सिंहोदर छोड़ दिया जाये ॥303-304 ॥वज्रकर्ण के इतना कहते ही लोगों के मुख से धन्य-धन्य शब्द निकल पड़ा । देखो यह भद्र पुरुष शत्रु के ऊपर भी शुभ बुद्धि धारण कर रहा है ॥305॥ अपकारी के ऊपर जो दया करता है वही सज्जन है । वैसे मध्यस्थ अथवा उपकार करने वाले पर किसे प्रेम उत्पन्न नहीं होता ॥306॥

तदनंतर ‘एवमस्तु’ कह लक्ष्मण ने हाथ मिलाकर तथा कभी शत्रुता नहीं करेंगे, इस प्रकार शपथ दिलवाकर दोनों की मित्रता करा दी ॥307॥ निर्मल बुद्धि के धारक सिंहोदर ने उज्जयिनी का आधा भाग तथा देश को उजाड़ करते समय जो कुछ पहले हरा था वह सब वज्रकर्ण के लिए दे दिया ॥308 ॥अपनी चतुरंग सेना, देश, गणि का तथा धन का भी उसने बराबर-बराबर आधा भाग कर दिया ॥309॥ जिनभक्ति के प्रसाद से अतिशय प्रसिद्ध विद्युदंग ने भी वह वेश्या, वह रत्नमयी कुंडल और सेनापति का पद प्राप्त किया ॥310॥ तदनंतर वज्रकर्ण ने राम-लक्ष्मण की परम पूजा कर शीघ्र हो अपनी आठ पुत्रियाँ बुलवायी ॥31 ॥चूंकि बड़े भाई राम स्त्री से सहित दिखाई देते थे इसलिए उसने उत्तम आभूषणों को धारण करने वाली तथा विनय से युक्त अपनी पुत्रियाँ लक्ष्मण को ब्याह दी ॥312 ॥इनके सिवाय सिंहोदर आदि राजाओं ने भी उत्तमोत्तम कन्याएँ दीं । इस तरह सब मिलाकर लक्ष्मण को तीन सौ कन्याएँ प्राप्त हुई ॥313॥ उन सबको खड़ी कर वज्रकर्ण ने सिंहोदर आदि राजाओं के साथ लक्ष्मण से कहा कि हे देव ! ये आपकी स्त्रियाँ हैं॥314॥

तदनंतर उसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि मैं जब तक अपने बाहुबल से अर्जित स्थान प्राप्त नहीं कर लेता हूँ तब तक स्त्री समागम नहीं करूँगा ॥315॥ राम ने भी उनसे इसी प्रकार कहा कि अभी हमारा कहीं निश्चित निवास नहीं है । स्वर्ग के समान भरत के राज्य में जो देश हैं उन सबको पार कर हम मलयगिरि अथवा दक्षिण समुद्र के पास अपना घर बनवावेंगे । वहाँ उत्कंठा से भरी अपनी माताओं को ले जाने से लिए एक बार हम अथवा लक्ष्मण अवश्य ही अयोध्या आवेंगे । हे राजाओ ! उसी समय आपको इन कन्याओं को ले आवेंगे । तुम्हीं कहो जिसके रहने का ठिकाना नहीं उसका स्त्री-संग्रह कैसा ? ॥316-319॥ इस प्रकार कहने पर वह कन्याओं का समूह तुषार वायु से आहत कमलवन के समान आकुल होता हुआ शोभित हुआ ॥320॥ कन्याएँ विचार करने लगी कि यदि हम पति के विरह में प्राण छोड़ देवेंगी तो फिर इसके साथ समागमरूपी रसायन को कैसे प्राप्त कर सकेंगी? ॥321॥और यदि प्राण धारण करती हैं तो लोग कपट मानते हैं तथा देदीप्यमान विरहानल से मन जलता है ॥322॥ अहो ! एक ओर तो बड़ी भारी ढालू चट्टान है और दूसरी ओर अत्यंत निर्दय व्याघ्र है । अतः अत्यंत दु:ख से भरी हुई हम किस आधार को प्राप्त हों ? ॥323 ॥अथवा इस समय हम समागम की अभिलाषारूपी विद्या से विरहरूपी व्याघ्र को कीलकर शरीर धारण करेंगी ॥324॥ इस प्रकार विचार करती हुई उन कन्याओं के साथ राजा लोग राम आदि का यथोचित सत्कार कर जैसे आये थे वैसे चले गये ॥325॥ जिनकी उत्तम चेष्टा थी, पितृ वर्ग जिनका निरंतर सत्कार करता था और जो नाना प्रकार के विनोद में आसक्त थीं ऐसी कन्याएं लक्ष्मण में मन लगाकर रह गयीं ॥326 ॥तदनंतर विद्युदंग ने भाई-बांधवों से सहित पिता को बड़े ठाट-बाट से अपने देश में बुलाया और पहुँचने पर उनके समागम का बहुत भारी उत्सव किया ॥327॥

अथानंतर बुद्धिमान् राम-लक्ष्मण सीता के साथ-साथ घनघोर आधी रात के समय भगवान् को नमस्कार कर चुपके-चुपके चैत्यालय से निकलकर इच्छानुसार पैदल चले गये ॥328॥ प्रभात होने पर चैत्यालय को शून्य देख सब लोग अपना-अपना कर्तव्य भूलकर शून्य हृदय हो गये ॥329॥सिंहोदर की वज्रकर्ण के साथ जो उत्तम प्रीति उत्पन्न हुई थी वह पारस्परिक सम्मान तथा आने जाने से वृद्धि को प्राप्त हुई ॥330॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि राम-लक्ष्मण-सीता को धीरे-धीरे उसकी इच्छानुसार चलाते हुए, विशाल सरोवरों से युक्त वनों के मध्य में ठहरते हुए, स्वादिष्ट फलों का इच्छित रस पीते हुए, तथा उत्तम वचन और सुंदर चेष्टाओं के साथ क्रीड़ा करते हुए, कूबर नामक उस देश में पहुंचे जो नाना प्रकार के भवनों के ऊँचे-ऊंचे शिखरों से सुंदर था, जिसकी वसुधा मनोहर उद्यानों से व्याप्त थी, जो मंदिरों के समूह से पवित्र था, स्वर्ग के समान कांति वाला था, जहाँ के नगरवासी लोग निरंतर होने वाले उत्सवों से उत्कृष्ट थे, जो श्रीमानों के शब्द से युक्त था तथा सूर्य के समान कांति और प्रसिद्धि से युक्त था ॥331-332॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य रचित पद्मचरित में वज्रकर्ण का वर्णन करने वाला तैंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥33॥