कथा :
अथानंतर जो फल और फूलों के भार से नत हो रहा था, जहाँ भ्रमरों के समूह गूंज रहे थे और जहाँ मत्त कोकिलाएँ शब्द कर रही थीं ऐसे अत्यंत सुंदर वन में राम तो सुख से विराजमान थे और लक्ष्मण पानी लेने के लिए समीपवर्ती सरोवर में गये ॥1-2॥ इसी अवसर में जो अत्यंत सुंदर रूप से सहित था, जिसके विभ्रम नेत्रों को चुराने वाले थे, जो एक होने पर भी सर्व लोगों के हृदय में एक साथ निवास करता था महाविनय संपन्न था । कांतिरूपी निर्झर के उत्पन्न होने के लिए पर्वत स्वरूप था, उत्तम हाथी पर सवार था । मनोहर पैदल सैनिकों के बीच चल रहा था, जिसका मन क्रीड़ा करने में लीन था । जिसका कल्याणमाला नाम था तथा जो उस नगर का स्वामी था, ऐसा एक पुरुष उसी सरोवर में क्रीड़ा करने के लिए आया ॥3-5॥ सो उस महासरोवर के तट पर विद्यमान, नील कमलों के समूह के समान श्याम और सुंदर लक्षणों से युक्त लक्ष्मण को देख वह मनुष्य कामबाण से ताड़ित होकर अत्यंत आकुल हो गया । फलस्वरूप उसने अपने एक आदमी से कहा कि इस पुरुष को ले आओ ॥6-7॥ वह चतुर मनुष्य जाकर तथा हाथ जोड़कर लक्ष्मण से इस प्रकार बोला कि आइए, यह राजकुमार प्रसन्नता से आपके साथ मिलना चाहता है॥8॥क्या दोष है इस प्रकार विचारकर परम कौतुक को धारण करते हुए लक्ष्मण सुंदर लीला से उसके पास गये॥ 9॥ तदनंतर वह राजकुमार हाथी से उतरकर तथा कमल के समान कोमल हाथ से लक्ष्मण को पकड़ अपने वस्त्र निर्मित तंबू में भीतर चला गया ॥10॥ वहाँ अत्यंत विश्वस्त हो एक ही आसन पर लक्ष्मण के साथ सुख से बैठा । कुछ समय बाद उसने लक्ष्मण से पूछा कि हे सखे ! तुम कौन हो? और कहाँ से आये हो ? ॥11॥ लक्ष्मण ने कहा कि मेरे वियोग से मेरे बड़े भाई दुःखी होंगे इसलिए मैं पहले उनके पास भोजन ले जाता हूँ पश्चात् तुम्हारे लिए सब समाचार कहूँगा ॥12॥ अथानंतर शालि के चावलों का भात, दाल, ताजा घृत, पुए, घेवर, नाना प्रकार के व्यंजन, दूध, दही, अनेक प्रकार के पानक, शक्कर और खांड के लड्डू, पूड़ियां, कचौड़ियाँ, साधारण पूड़ियां गडमिश्रित पूड़ियाँ, वस्त्र, अलंकार, मालाएं, लेपन आदि की सामग्री, नाना प्रकार के बर्तन और हाथ धोने का सामान, यह सब सामग्री निकटवर्ती शीघ्रगामी पुरुष भेजकर उसने अपने पास मंगवा ली ॥13-16॥ तदनंतर उसकी आज्ञा पाकर अंतरंग द्वारपाल वहाँ गया जहाँ सीता सहित राम विराजमान थे, सो उन्हें प्रणाम कर वह इस प्रकार बोला॥17॥कि हे देव! उस तंबू में आपके भाई विराजमान हैं वहीं इस नगर का राजा भी विद्यमान है सो वह आदर के साथ प्रार्थना करता है कि चूंकि इस तंबू को छाया शीतल तथा मन को हरण करने वाली है इसलिए प्रसन्न होइए और इतना मार्ग स्वेच्छा से चलकर आप यहाँ पधारिए ॥18-19॥प्रतिहारी के इतना कहने पर मत्त हाथी की शोभा को धारण करते हुए रामचंद्र सीता के साथ कल पड़े उस सर ऐसे जान पड़ते थे मानो चांदनी के सहित चंद्रमा ही हों ॥20॥ राम को दूर से ही आते देख राजकुमार ने लक्ष्मण के साथ खड़े होकर तथा कुछ आगे जाकर उनका स्वागत किया ॥21॥ राम सीता के साथ अत्यंत उत्कृष्ट आसन पर विराजमान हुए तथा राजकुमार के द्वारा प्रदत्त अर्घ दान आदि सम्मान को प्राप्त हुए॥ 22॥ तदनंतर इच्छानुसार स्नान, भोजन आदि समस्त कार्य समाप्त होने पर राजकुमार ने अन्य सब लोगों को दूर कर दिया । वहाँ राम, लक्ष्मण, सीता तीन और चौथा राजकुमार ये ही चार व्यक्ति रह गये॥ 23॥ मेरे पिता के पास से दूत आया है ऐसा कहता हुआ वह राजकुमार प्रयत्नपूर्वक सजाये हुए एक दूसरे कमरे में गया । वहाँ उसने नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले अनेक योद्धाओं को द्वार पर नियुक्त कर यह आदेश दिया कि यहाँ जो कोई प्रवेश करेगा वह मेरे द्वारा वध्य होगा ॥24-25॥ तदनंतर यथार्थ भाव के प्रकट करने में जो लज्जा थी उसे दूर कर उस सुचेता ने राम, लक्ष्मण और सीता के साम ने बीच का आवरण फाड़ डाला॥26॥ तत्पश्चात् आवरण के दूर होते ही ऐसा लगने लगा मानो स्वर्ग से ही कोई उत्तम कन्या नोचे आकर पड़ी है । अथवा पाताल से ही निकली है । उस कन्या का मुख लज्जा के कारण कुछ नम्रीभूत हो रहा था॥ 27॥ उसकी कांति से लिप्त हुआ कपड़े का तंबू ऐसा दिखने लगा मानो उसमें आग ही लग गयी हो तथा लज्जा से युक्त मंद मुसकान की किरणों से लिप्त होने पर ऐसा जान पड़ने लगा मानो उसमें चंद्रमा का ही प्रकाश फैल गया हो ॥28॥ उसे देख, चतुर हंसों ने चिरकाल तक भयभीत हो अपने नेत्र संकुचित कर लिये । वह कन्या ऐसी जान पड़ती थी मानो कमल को छोड़कर साक्षात् लक्ष्मी ही वहाँ आ बैठी हो ॥29॥ उसकी कांति से वह घर ऐसा मालूम होता था मानो सौंदर्य के सागर में उसने तैरना ही शुरू किया हो अथवा रत्नों और स्वर्ण की पराग से मानो आच्छादित ही किया गया हो॥30॥उसके स्तनों से ऐसा जान पड़ता था मानो कांतिरूपी जल के कल्लोल ही निकल रहे हों और त्रिबलि से शोभित मध्यभाग में ऐसा लगता था मानो तरंगें ही उठ रही हों ॥31॥ जिस प्रकार मेध के पतले आवरण को लाँघकर चंद्रमा का प्रकाश बाहर फूट पड़ता है उसी प्रकार लहँगा को भेदकर उसके नितंबस्थल का सघन तेज बाहर फूट पड़ा था ॥32॥ वह घर, एक मेघ के समान जान पड़ता था और उसमें बैठी हुई वह कन्या बिजली के समान प्रतिभासित होती थी । ऐसा लगता था कि लोक में चंचलता के कारण बिजली के यश में जो मल चिरकाल से लगा हुआ था उसने उसे बिलकुल ही धो डाला था ॥33॥ वह स्वर्ण निर्मित की तरह देदीप्यमान नितंब स्थल से उत्पन्न महानीलमणि के समान श्याम, अत्यंत चिकनी एवं पतली रोमरा जिसे सुशोभित थी ॥34॥ तदनंतर जिसने सहसा पुरुष का वेष छोड़ दिया था तथा जिसके नेत्र अत्यंत सुंदर थे, ऐसी वह कन्या सीता के पास आ बैठी जिससे वह उस प्रकार सुशोभित होने लगी जिस प्रकार की लज्जा से रति की श्री सुशोभित होती है॥ 35॥लक्ष्मण उसके पास ही बैठे थे, सो काम से युक्त हो किसी अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त हुए । उस समय उनके चंचल नेत्र धीरे-धीरे चल रहे थे ॥36॥ तदनंतर निर्मल बुद्धि से युक्त राम ने उससे इस प्रकार कहा कि हे कन्ये ! विविध वेष को धारण करने वाली त कौन है ? जो इस तरह क्रीड़ा करती है ? ॥37॥ उसके उत्तर में मधुर भाषण करने वाली कन्या ने वस्त्र से शरीर ढंककर कहा कि हे देव ! सद्भाव को सूचित करने वाला मेरा वृत्तांत सुनिए ॥38।। इस नगर का स्वामी ‘बालिखिल्य’ इस नाम से प्रसिद्ध है जो अतिशय बुद्धिमान्, मुनियों के समान निरंतर सदाचार का पालन करने वाला और लोगों के साथ स्नेह करने वाला है॥ 39॥ उसकी प्रिया का नाम पृथिवी है । जिस समय पृथिवी गर्भाधान को प्राप्त हुई उसी समय राजा बालखिल्य का म्लेच्छ राजा के साथ युद्ध हुआ, सो युद्ध में म्लेच्छ राजा ने उसे पकड़ लिया ॥40॥ राजा सिंहोदर बालखिल्य के स्वामी हैं सो उन्होंने कहा कि बालखिल्य की रानी गर्भवती है यदि उसके गर्भ में पुत्र होगा तो राज्य करेगा॥41॥ तदनंतर दुर्भाग्य से पुत्र न होकर मैं पापिनी पुत्री उत्पन्न हुई परंतु वसुबुद्धि मंत्री ने राज्य की आकांक्षा से सिंहोदर के लिए पुत्र उत्पन्न होने की खबर दी॥ 42॥ माता ने मेरा कल्याणमाला यह अर्थहीन नाम रखा, सो ठीक ही है क्योंकि लोग प्रायः मंगलमय व्यवहार में ही प्रवृत्त होते हैं॥ 43॥ अब तक मंत्री और मेरी भाता ही जानती है कि यह कन्या है दूसरा नहीं । आज पुण्योदय से आप लोगों के दर्शन हुए ॥44॥ बंदीगृह के निवास को प्राप्त हुए हमारे पिता बहुत कष्ट में हैं । सिंहोदर भी उन्हें छुड़ाने के लिए समर्थ नहीं है ॥45॥ इस देश में जो कुछ धन उत्पन्न होता है वह सब दुगं की रक्षा करने वाले म्लेच्छ राजा के लिए भेज दिया जाता है॥46॥वियोगरूपी अग्नि से अत्यंत संताप को प्राप्त हुई मेरी माता सूखकर कला मात्र से अवशिष्ट चंद्रमा के समान कांतिहीन हो गयी है॥ 47॥ इतना कहकर दुःख के समान भार से जिसका समस्त शरीर पीड़ित हो रहा था ऐसी वह कल्याणमाला शीघ्र ही कांति रहित हो गयी तथा गला फाड़कर रोने लगी ॥48॥ तदनंतर राम ने अत्यंत मधुर शब्दों में उसे सांत्वना दी; सीता ने गोद में बैठाकर उसका मुँह धोया और लक्ष्मण ने कहा कि हे सुंदरि ! शोक छोड़ो, इसी वेष से राज्य करो, तुम उचित कार्य कर रही हो॥ 49-50॥ हे शुभे ! हे कल्याणरूपिणी ! धैर्य के साथ कुछ दिन तक प्रतीक्षा करो । मेरे लिए म्लेच्छराज का पकड़ना कौनसी बात है ? तुम शीघ्र ही अपने पिता को छूटा देखोगी॥51॥ इस प्रकार कहने पर उसे इतना संतोष हुआ मानो पिता छूट ही गया हो । उस कन्या के समस्त अंग हर्ष से उल्लसित हो उठे और वह कांति से भर गयी ॥52॥ तदनंतर उस मनोहरवन में नाना प्रकार का वार्तालाप करते हुए वे सब तीन दिन तक देवों के समान स्वतंत्र हो सुख से रहे ॥53॥ तत्पश्चात् रात्रि के समय जब सब लोग सो गये तब सीता सहित राम-लक्ष्मण छिद्र पाकर वन के उस तंबू से बाहर निकल गये ॥54॥ जागने पर जब कन्या ने उन्हें नहीं देखा तब उसका मन बहुत ही व्याकुल हुआ । वह हाहाकार करती हुई परम शोक को प्राप्त हुई ॥55॥ वह मनस्विनी मन ही मन यह कह रही थी कि हे महापुरुष ! मेरा मन चुराकर तथा मुझे सोती छोड़ क्या तुम्हें जाना उचित था ? तुम बड़े निर्दय हो ॥56॥ अंत में बड़े दुःख से शोक को रोककर तथा उत्तम हाथी पर सवार हो उसने कूबर नगर में प्रवेश किया और वहाँ पहले के समान दीन हृदय से वह निवास करने लगी ॥57॥ अथानंतर कल्याणमाला के रूप और विनय से जिनके चित्त हरे हो गये थे ऐसे राम, सीता तथा लक्ष्मण क्रम-क्रम से नर्मदा नदी को प्राप्त हुए ॥58॥क्रीड़ा करते हुए उस नदी को पार कर तथा अनेक सुंदर देशों को उल्लंघन कर वे विंध्याचल को महाअटवी में पहुँचे ॥59॥ वे बड़ी भारी सेना के संचार से खुदे हुए मार्ग से जा रहे थे, इसलिए मार्ग में चलने वाले ग्वालों तथा हल वाहकों ने उन्हें रो का कि इस मार्ग से आगे न जाओ पर वे रु के नहीं ॥60॥ बहुत भारी सुगंधि से भरा हुआ यह वन कहीं तो लताओं से आलिंगित सागौन आदि के वृक्षों से नंदनवन के समान अत्यंत सुशोभित है और कहीं दावानल के कारण समीप स्थित वृक्षों के जल जाने से कुपुत्र के द्वारा कलंकित गोत्र के समान सुशोभित नहीं है, इस प्रकार कहते हुए वे आगे बढ़ रहे थे ॥61-62॥ कुछ आगे बढ़ने पर सीता ने कहा कि देखो, कनेर वन के बीच में बायीं ओर कंटीले वृक्ष की चोटी पर बैठा कौआ बार-बार क्रूर शब्द कर रहा है सो शीघ्र ही कलह होने वाली है यह कह रहा है और इधर क्षीर वृक्ष पर बैठा दूसरा कौआ हम लोगों की विजय होगी यह सूचित कर रहा है ॥63-64॥इसलिए आप लोग मुहूर्त मात्र प्रतीक्षा कर लें क्योंकि कलहांतर जय प्राप्त करना भी मेरे मन में बहुत अच्छा नहीं जंचता ॥65॥ तदनंतर क्षण-भर विलंब कर वे पुनः आगे गये तो कुछ ही अंतर पर वही निमित्त फिर हुआ॥ 66॥ यद्यपि सीता कह रही थी फिर भी उसका कहा अनसुना कर राम-लक्ष्मण आगे बढ़ते गये । कुछ दूरी पर उन्हें म्लेच्छों की सेना मिली, सो उत्तम धनुष के धारक तथा निर्भय राम-लक्ष्मण को आते देख वह सेना भयभीत हो क्षण-भर में भाग गयी ॥67-68॥ तदनंतर भागती सेना से समाचार जानकर दूसरे म्लेच्छ तैयार हो साम ने आये परंतु वर्षाकालीन मेघ के समान श्याम लक्ष्मण ने उन्हें हँसते-हँसते पराजित कर दिया ॥69॥ तदनंतर जो अत्यंत भयभीत थे, जिन्होंने धनुष छोड़ दिये थे और जो जोर से चिल्ला रहे थे ऐसे उन म्लेच्छों ने जाकर अपने स्वामी से निवेदन किया ॥70॥ तब परम क्रोध और भयंकर धनुष को धारण करता हआ म्लेच्छों का स्वामी निकला । बड़ी भारी सेना उसके साथ थी और वह शस्त्ररूपी अंधकार से आच्छादित था ॥72॥ वे म्लेच्छ पृथिवी पर काकोनद इस नाम से प्रसिद्ध थे, अत्यंत भयंकर थे, सब जंतुओं का मांस खाने वाले थे और राजाओं के द्वारा भी दूर्जेय थे ॥72॥ जब लक्ष्मण ने देखा कि आगे की दिशा मेघसमूह के समान श्यामवर्ण म्लेच्छों से आच्छादित हो रही है तब उन्होंने कुछ कुपित हो धनुष की डोरी चढ़ा ली॥73॥और उस प्रकार से उसका आस्फालन किया कि समस्त वन काँप उठा तथा जंगली जानवरों को कँपकँपी उत्पन्न करने वाला ज्वर उत्पन्न हो गया॥74॥लक्ष्मण को डोरी पर बाण चढ़ाते देख जिनका चित्त भयभीत हो गया था ऐसे वे म्लेच्छ नेत्रहीन के समान चक्राकार घूम ने लगे ॥75॥ तदनंतर अत्यंत भय से भरा म्लेच्छों का स्वामी रथ से उतरकर हाथ जोड़ता हुआ इनके पास आया और प्रणाम कर बोला कि एक कौशांबी नाम की प्रसिद्ध नगरी है, निरंतर अग्नि में होम करने वाला विश्वानल नाम का पवित्र ब्राह्मण उसका स्वामी है । विश्वानल की स्त्री का नाम प्रतिसंध्या है । मैं उन्हीं दोनों का पुत्र हूँ, रौद्रभूति नाम से प्रसिद्ध हूँ, शस्त्र तथा जुए के कला का पारगामी हूँ ॥76-78॥ मैं बाल्य अवस्था से ही निरंतर खोटे कार्य करने में निपुण था । किसी समय चोरी के अपराध में पकड़ा गया और मुझे शूली पर चढ़ाने का निश्चय किया गया ॥72॥ शूली का नाम सुनते ही मेरा शरीर काँप उठा तव विश्वास रखने वाले एक भले धनिक ने जमानत देकर मुझे छुड़वा दिया । तदनंतर देश छोड़कर मैं यहाँ आ गया॥ 80॥ कर्मो के प्रभाव से इन काकोनद म्लेच्छों की स्वामिता को प्राप्त हो गया हूँ तथा सदाचार से भ्रष्ट हो पशुओं के समान यहाँ रहता हूँ ॥81॥ इतने समय तक बड़ी-बड़ी सेनाओं से युक्त राजा भी जिसके दृष्टिगोचर होने के लिए समर्थ नहीं हो सके उस मुझको आपने दृष्टिमात्र से ही दीन कर दिया । मैं धन्य हूँ जिससे पुरुषों में उत्तम आप महानुभावों के दर्शन किये ॥82-83॥ हे नाथ ! आज्ञा दीजिए मैं क्या योग्य सेवा करूं ? क्या पवित्र करने में निपुण आपकी पादुकाएँ शिर पर धारण करूं ? ॥84॥ यह विंध्याचल निधियों तथा उत्तमोत्तम सैकड़ों स्त्रियों से परिपूर्ण है इसलिए हे देव ! मुझसे किसी अच्छे भारी राजस्व की इच्छा प्रकट करो॥ 85॥ इतना कहकर प्रणाम करता हुआ वह पुनः परम पीड़ा को प्राप्त हुआ और विह्वल हो कटे वृक्ष के समान भूमि पर गिर पड़ा ॥86॥ तदनंतर जो वीर जनों के लिए दयारूपी लता से आलिंगित कल्पवृक्ष के समान थे ऐसे राम दुःखमय अवस्था को प्राप्त हुए मलेच्छ राजा से इस प्रकार बोले कि हे सुबुद्धि ! उठ-उठ, डर मत, बालिखिल्य को बंधन रहित कर तथा उत्तम सम्मान को प्राप्त कराकर शीघ्र ही यहाँ ला॥87-88॥उसी का इष्ट मंत्री हो सज्जनों की संगति कर और म्लेच्छों की संगति छोड़, देश का हितकारी हो॥ 89॥ यदि तू यह सब काम ठीक-ठीक करता है तो उससे तुझे शांति प्राप्त होगी अन्यथा आज ही मारा जायेगा ॥90॥ हे प्रभो ! ऐसा ही करता हूँ इस प्रकार कहकर उसने बड़े आदर से राम को प्रणाम किया और विनय के साथ जाकर महारथ के पुत्र बालिखिल्य को छोड़ दिया ॥9॥ तदनंतर जिसे तेल-उबटन लगाकर अच्छी तरह स्नान कराया गया था और भोजन कराकर जिसे अलंकारों से अलंकृत किया गया था ऐसे बालिखिल्य को रथ पर बैठाकर वह राम के पास ले जाने के लिए उद्यत हुआ॥ 92॥ जो इस तरह आदर के साथ लाया जा रहा था ऐसा बालिखिल्य परम आश्चर्य को प्राप्त हुआ और मन ही मन सोचता जाता था कि प्राय: अब मेरी अवस्था इससे भी गहन होगी॥ 13॥ कहाँ तो यह कुकर्म करने वाला अत्यंत निर्दय महावैरी म्लेच्छ ? और कहाँ यह भारी सम्मान ? जान पड़ता है कि आज प्राण नहीं बचेंगे ॥24॥ इस प्रकार बालिखिल्य दीन चित्त होकर जा रहा था कि सहसा राम-लक्ष्मण को देखकर वह परम संतोष को प्राप्त हुआ । उसने रथ से उतरकर नमस्कार करते हुए कहा कि हे नाथ ! मेरे पुण्योदय से अतिशय सुंदर रूप को धारण करने वाले आप दोनों महानुभाव पधारे हैं इसीलिए मैं बंधन से मुक्त हुआ हूँ ॥95-96॥ राम-लक्ष्मण ने उससे कहा कि शीघ्र ही अपने घर जाओ और इष्टजनों के साथ समागम प्राप्त करो । वहाँ पहुंचने पर तुम हम लोगों को जान सकोगे । इस प्रकार कहने पर बुद्धिमान् बालिखिल्य अपने घर चला गया॥ 97॥ तदनंतर विश्वानल के पुत्र रौद्रभूति को बालिखिल्य का निश्चल मित्र बनाकर अतिशय कुशल राम-लक्ष्मण सीता के साथ अपने इष्ट स्थान को चले गये॥ 98॥ बांधवजनों की चेष्टा का स्मरण करता हुआ बालिखिल्य, रौद्रभूति के साथ जब अपने नगर की समीपवर्ती भूमि में पहुँचा तब निकट वर्ती पिता को परम विभूति से युक्त कर पुत्री कल्याणमालिनी संतुष्ट हो उसका सत्कार करने के लिए नगर से बाहर निकली॥ 99-100॥ तदनंतर नमस्कार करती हुई पुत्री को पहचानकर राजा बालिखिल्य ने उसका मस्तक सूंघा फिर अपने रथ पर बैठाकर कूबर नगर में प्रवेश किया॥ 10॥ बालिखिल्य की रानी पृथिवी के शरीर में हर्षातिरेक से रोमांच निकल आये और वह कांतिरूपी सागर में वर्तमान अपने पुराने शरीर को क्षण-भर में पुनः प्राप्त हो गयी ॥102॥ सिंहोदर आदि समस्त राजा कल्याण माला के गुणों से परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥103॥ रौद्रभूति ने चिरकाल तक चोरी में तत्पर रहकर नाना देशों में उत्पन्न जो विविध प्रकार का विशाल धन इकट्ठा किया था वह सब बालिखिल्य के घर में प्रविष्ट हुआ ॥104॥ जब म्लेच्छों की सुदुर्गम भूमि को वश करने वाला रौद्रभूति बालिखिल्य का आज्ञाकारी हो गया तब शंका को प्राप्त हुआ सिंहोदर भी सम्मान सहित उसके साथ बहुत स्नेह करने लगा ॥105॥ इस प्रकार महारथी बालिखिल्य राम-लक्ष्मण के प्रसाद से परमविभूति को पाकर अपनी प्राणप्रिया से इस तरह सुशोभित होने लगा जिस तरह कि शरद्ऋतु से सूर्य सुशोभित होता है ॥106॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में बालिखिल्य का वर्णन करने वाला चौंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥34॥ |