कथा :
तदनंतर घोर अंधकार से व्याप्त और बिजली की चमक से भीषण वर्षा काल, दुष्काल के समान जब क्रम-क्रम से व्यतीत हो गया तथा स्वच्छ शरद् ऋतु आ गयी तब राम ने वहाँ से प्रस्थान करने का विचार किया । उसी समय यक्षों का अधिपति आकर राम से कहता है कि हे देव ! हमारी जो कुछ त्रुटि रह गयी हो वह क्षमा कीजिए क्योंकि आप-जैसे महानुभावों के योग्य समस्त कार्य करने के लिए कौन समर्थ है ?॥1-3॥ यक्षाधिपति के ऐसा कहने पर राम ने भी उससे कहा कि आप भी अपनी समस्त परतंत्रता को क्षमा कीजिए अर्थात् आपको इतने समय तक मेरी इच्छानुसार जो प्रवृत्ति करनी पड़ी है उसके लिए क्षमा कीजिए॥4॥ राम के इस वचन से यक्षाधिप अत्यंत प्रसन्न हुआ । उसने बहुत काल तक वार्तालाप कर नमस्कार किया, राम के लिए स्वयं प्रभ नाम का अद्भुत हार दिया । लक्ष्मण के लिए उगते सूर्य के समान देदीप्यमान दो मणिमय कुंडल दिये, और सीता के लिए महामांगलिक देदीप्यमान चूड़ामणि तथा महाविनोद करने में समर्थ एवं इच्छानुसार शब्द करने वाली वीणा दी ॥5-7॥ तदनंतर जब वे इच्छानुसार वहाँ से चले गये तब यक्षराज ने कुछ शोकयुक्त हो अपनी नगरी संबंधी माया समेट ली ॥8॥ इधर राम भी कर्तव्य कार्य करने से हर्षित हो ऐसा मान रहे थे कि मानो मुझे उत्कृष्ट मोक्ष ही प्राप्त हो गया है॥ 9॥ अथानंतर स्वेच्छानुसार पृथिवी में विहार करते, नाना रस के स्वादिष्ट फल खाते, विचित्र कथाएं करते और देवों के समान रमण करते हुए वे तीनों, हाथी और सिंहों से व्याप्त महावन को पार कर मनुष्यों के द्वारा सेवित वैजयंतपुर के समीपवर्ती मैदान में पहुँचे ॥10-11॥ तदनंतर जब सूर्य अस्त हो गया, दिशाओं का समूह अंधकार से आवृत हो गया और आकाशरूपी आंगन नक्षत्रों के समूह से व्याप्त हो गया तब वे क्षुद्र मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाले पश्चिमोत्तर दिग्भाग में नगर के समीप हो किसी इच्छित स्थान में ठहर गये ॥12-13॥ अथानंतर इस नगर का राजा पृथिवीधर नाम से प्रसिद्ध था उसकी रानी का नाम इंद्राणी था जो कि स्त्रियों के योग्य समस्त गुणों से सहित थी ॥14॥ उन दोनों के वनमाला नाम की अत्यंत सुंदरी पुत्री थी, वनमाला बाल्य अवस्था से ही लक्ष्मण के गुण श्रवणकर उनमें अनुरक्त थी ॥15॥ इसके माता-पिता ने सुना कि राम अपने पिता दशरथ के दीक्षा लेने के समय कथित वचनों का पालन करने के लिए लक्ष्मण के साथ कहीं चले गये हैं तब उन्होंने इंद्रनगर के राजा के बालमित्र नामक अत्यंत योग्य सुंदर पुत्र के लिए वनमाला देने का निश्चय किया ॥16-17॥ जिसके हृदय में लक्ष्मण विद्यमान थे ऐसी वनमाला ने जब यह समाचार सुना तो वह विरह से भयभीत हो इस प्रकार चिंता करने लगी ॥18॥ कि वस्त्र से कंठ लपेट वृक्ष पर लटककर भले ही मर जाऊँगी परंतु अन्य पुरुष के साथ समागम को प्राप्त नहीं होऊंगी॥ 19॥ मैं किसी कार्य के बहाने सायंकाल के समय वन में जाकर आज ही निर्विघ्नरूप से मृत्यु प्राप्त करूंगी॥ 20॥ हे भगवन् सूर्य ! आप जाओ और रात्रि को जल्दी भेजो । मैं अतिशय दीन हो हाथ जोड़कर आपके चरणों में पड़ती हूँ । जाकर रात्रि से कहो कि तुम्हारी आकांक्षा करती हुई यह दुःखिनी दिन को वर्ष के समान समझती है इसलिए जल्दी जाओ ॥21-22॥ इस प्रकार विचार कर उपवास धारण करने वाली वह बाला, सूर्यास्त होने पर माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर उत्तम रथ पर सवार हो सखी जनों के साथ वैभव पूर्वक वन देवी की पूजा करने के लिए गयी ॥23-24॥ भाग्य की बात कि जिस रात्रि में तथा वन के जिस प्रदेश में राम, सीता और लक्ष्मण पहले से जाकर ठहरे थे उसी रात्रि में उसी स्थान पर वनमाला भी आ पहुंची । 25॥ वहाँ उसने वन देवता की पूजा की । तदनंतर जब सब लोग अपना-अपना कार्य पूरा कर निःशंक हो सो गये तब जिसके पैर रखने का भी शब्द नहीं हो रहा था ऐसी वनमाला वन की मृगी की नाईं उस शिविर से निकल निर्भय हो आगे चली ॥26-27॥ तत्पश्चात् वनमाला के शरीर से निकलने वाली अत्यंत मनोहर सुगंध को सूंघकर हर्षित हो लक्ष्मण इस प्रकार विचार करने लगे॥28॥कि यहाँ कोई ज्योति की रेखा के समान मूर्ति दिखाई पड़ती है, हो सकता है कि वह कोई उच्च कुलीन श्रेष्ठ कुमारी हो ॥29॥बहुत भारी शोक के भार से इसका मन पीड़ित हो रहा है और दुःख दूर करने का दूसरा उपाय नहीं देखती हुई यह बेचैन हो रही है ॥30॥ निश्चित ही यह मनचाही वस्तु के न मिलने से आत्मघात करना चाहती है अतः छिपकर इसकी चेष्टा देखता हूँ॥31॥ इस प्रकार विचारकर कौतुक-भरे लक्ष्मण चुपचाप वटवृक्ष के नीचे उस प्रकार खड़े हो गये जिस प्रकार कि कल्पवृक्ष के नीचे कोई देव खड़ा होता है ॥32॥ तदनंतर जिसकी चाल हंसों के समान थी, : जो स्तनों के भार से झु की हुई-सी जान पड़ती थी, जिसका मुख चंद्रमा के समान था तथा जिसका उदर अत्यंत कृश था ऐसी वनमाला भी उसी वृक्ष के नीचे पहुंची ॥33॥ उसे उस प्रकार की देख लक्ष्मण ने विचार किया कि इसके शब्दों से ठीक-ठीक मालूम तो करूं कि इसे किससे कार्य है ? ॥34॥ तदनंतर जल के समान स्वच्छ वर्ण वाले वस्त्र से फांसी बनाकर वह कन्या योगियों का भी मन हरण करने में समर्थ वाणी से इस प्रकार कहने लगी कि अहो, इस वृक्ष के निवासी देवताओ ! सुनिए, मैं आपके लिए नमस्कार करती हूँ, आप मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ॥35-36॥ कुमार लक्ष्मण इस वन में अवश्य ही विचरण करते होंगे सो उन्हें प्रयत्नपूर्वक देखकर आप लोग मेरी ओर से उनसे कहें ॥37॥ कि तुम्हारे विरह में कुमारी वनमाला अत्यंत दुखी होकर तथा तुम्हीं में मन लगाकर मृत्युलोक को प्राप्त हुई है ॥38॥ वटवृक्ष पर कपड़े से अपने आपको टाँग कर तुम्हारे निमित्त प्राण छोड़ती हुई उस कृशांगों को हमने देखा है ॥39॥ और यह कह गयी है कि हे नाथ ! यद्यपि मेरे इस जन्म में आपने समागम नहीं किया है तो अन्य जन्म में प्रसन्नता करने के योग्य हो ॥40॥ इतना कहकर वह ज्यों ही शाखा पर फांसी बांधती है त्यों ही घबड़ाये हुए लक्ष्मण ने उसका आलिंगन कर यह कहा कि हे मूर्खे ! यह कंठ तो मेरी भुजा के आलिंगन के योग्य है, हे सुमुखि ! तू इसमें यह वस्त्र की फाँसी क्यों सज़ा रही है ? ॥41-42॥ मैं वही लक्ष्मण हूँ, हे परमसुंदरि ! यह फाँसी छोड़ो, हे बालिके ! यदि तुझे विश्वास न हो तो जैसा सुन रखा हो वैसा देख लो॥ 43॥ इस प्रकार कहकर सांत्वना देने में निपुण लक्ष्मण ने जिस प्रकार कोई कमल से फेन को दूर करता है उसी प्रकार उसके हाथ से फांसी छीन ली ॥44॥ तदनंतर नेत्रों को चुराने वाले रूप से सुशोभित लक्ष्मण को मंथर दृष्टि से देखकर वह कन्या लज्जा से युक्त हो गयी॥ 45॥ नव समागम के कारण कुछ-कुछ काँपती हुई वनमाला परम आश्चर्य को प्राप्त हो इस प्रकार विचार करने लगी ॥46॥ कि क्या मेरे संदेश वचनों से परम दयालुता को प्राप्त हुई वनदेवियों ने ही मुझ पर यह प्रसन्नता की है ?॥47॥ जिन्होंने मेरे निकलते हुए प्राण रो के हैं ऐसे ये प्राणनाथ देवयोग से ही यहाँ आ पहुँचे हैं ॥48॥ इस प्रकार विचार करती और कुछ-कुछ पसीना को धारण करती हुई वनमाला लक्ष्मण का आलिंगन पाकर अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥49॥ तदनंतर इधर कोमल तथा महासुगंधित फूलों की उत्कृष्ट शय्यापर पड़े राम को जब निद्रा हटी तो उन्होंने लक्ष्मण को ओर दृष्टि डाली । लक्ष्मण को न देखकर वे उठे और सीता से पूछने लगे कि देवि ! यहाँ लक्ष्मण क्यों नहीं दिखाई देता ?॥50-51॥ सायंकाल के समय तो वह फूल तथा पत्तों से हमारी शय्या कर यहीं पास में सोया था पर अब यहाँ दिखाई नहीं दे रहा है ॥52॥ सीता ने उत्तर दिया कि हे नाथ! आवाज देकर बुलाइए । तब राम ने यथाक्रम से उच्च वाणी में इस प्रकार शब्द कहे कि हे लक्ष्मण ! तू कहाँ चला गया, आओ-आओ, हे तात ! हे बालक ! हे अनुज ! कहाँ हो, शीघ्र आवाज देओ ॥53-54॥ राम की आवाज सुन लक्ष्मण ने हड़बड़ाकर उत्तर दिया कि देव ! यह आता हूँ । इस प्रकार उत्तर देकर वे वनमाला के साथ अग्रज के समीप आ पहुँचे ॥55॥ उस समय स्पष्ट ही आधी रात थी, चंद्रमा का उदय हो चुका था और कुमुदों के गर्भ से मिलकर सुगंधित तथा शीतल वायु बह रही थी॥56॥ तदनंतर जिसने कमल के समान सुंदर हाथों से अंजलि बाँध रखी थी, वस्त्र से जिसका सर्व शरीर आवृत था, लज्जा से जिसका मुख नम्रीभूत हो रहा था, जो समस्त कर्तव्य को जानती थी तथा परम विनय को धारण कर रही थी ऐसी वनमाला ने आकर राम तथा सीता के चरणयुगल को नमस्कार किया॥ 57-58॥ तदनंतर लक्ष्मण को स्त्री सहित देख सीता ने कहा कि हे कुमार ! तुम ने तो चंद्रमा के साथ मित्रता कर ली ॥59॥राम ने सीता से कहा कि हे देवि ! तुम किस प्रकार जानती हो ? इसके उत्तर में सीता ने कहा कि हे देव ! मैं समान प्रवृत्त चेष्टा से जानती हूँ सुनिए॥ 60॥ जिस समय चंद्रमा चंद्रिका अर्थात् चांदनी के साथ आया उसी समय लक्ष्मण भी इस बाला के साथ आया है इससे स्पष्ट है कि इसकी चंद्रमा के साथ मित्रता है ॥61॥जैसा आप समझ रही हैं बात स्पष्ट ही ऐसी है इस प्रकार कहते हुए लक्ष्मण लज्जा से कुछ नतानन हो पास ही में बैठ गये॥ 62॥ इस तरह जिनके नेत्रकमल विकसित थे, जो आनंद से विभोर थे, जिनके मुखरूपी चंद्रमा अत्यंत प्रसन्न थे, जो सुशील थे, आश्चर्य से सहित थे, देवों के समान कांति के धारक थे तथा जिनकी निद्रा नष्ट हो गयी थी ऐसे वे सब, स्थान की अनुकूलता को प्राप्त मंद हास्य युक्त कथाएं करते हुए वहाँ सुख से विराजमान थे ॥63-64॥ यहाँ समय पर जब वनमाला की सखियाँ जागी तो शय्या को सूनी देख भयभीत हो गयीं ॥65॥ तदनंतर जिसके नेत्र आंसुओं से व्याप्त थे तथा जो वनमाला की खोज के लिए छटपटा रही थीं ऐसी उन सखियों की हाहाकार से योद्धा जाग उठे ॥66॥ तथा सब समाचार जानकर तैयार हो कुछ तो घोड़ों पर आरूढ़ हुए और कुछ भाले तथा धनुष हाथ में ले पैदल ही चलने के लिए तैयार हुए ॥67॥ इस प्रकार जिनके चित्त घबड़ा रहे थे, जो भय और प्रीति से युक्त थे तथा जो शीघ्र गति में वायु के बच्चों के समान जान पड़ते थे ऐसे योद्धा समस्त दिशाओं को आच्छादित कर दौड़े ॥68।। तदनंतर कितने ही योद्धाओं ने वनमाला के साथ बैठे हुए उन सबको देखा और देखकर शीघ्रगामी वाहनों से चलकर शेष जनों के लिए इसकी खबर दी ॥69॥ तदनंतर समस्त समाचार को ठीक-ठीक जानकर जो अत्यधिक हर्षित हो रहे थे ऐसे कुछ योद्धाओं ने पृथिवीधर राजा के लिए भाग्य वृद्धि की सूचना दी ॥70॥ उन्होंने कहा कि हे प्रभो! उपायारंभ से रहित होने पर भी आज आपके नगर में स्वयं ही महारत्नों का खजाना प्रकट हुआ है ॥71॥ आज आकाश से बिना मेघ के ही वर्षा पड़ी है तथा जोतना, बखेरना आदि क्रियाओं के बिना ही खेत से धान्य उत्पन्न हुआ है ॥72॥ आपका जामाता लक्ष्मण नगर के निकट ही वर्तमान है तथा प्राण छोड़ने की इच्छा करने वाली वनमाला के साथ उसका मिलाप हो गया है॥ 73॥ सीता सहित राम भी जो कि आपको अत्यंत प्रिय हैं इंद्राणी सहित इंद्र के समान यहीं सुशोभित हो रहे हैं ॥74 । इस प्रकार कहने वाले भृत्यों के प्रिय सूचक वचनों से जिसके हृदय में सुख का झरना फूट पड़ा था ऐसा राजा पृथिवी पर हर्षातिरेक से क्षण-भर के लिए मूर्च्छित हो गया ॥75॥ तदनंतर सचेत होने पर जो परम हर्ष को प्राप्त था तथा जिसका मुखरूपी चंद्रमा मंद मुसकान से धवल हो रहा था ऐसे राजा ने उन भृत्यों के लिए बहुत भारी धन दिया ॥76॥ वह विचार करने लगा कि अहो, मेरी पुत्री का बड़ा भाग्य है कि जिससे उसका यह अनिश्चित मनोरथ स्वयं ही पूर्ण हो गया ॥77॥ समस्त जीवों को धन, इष्ट का समागम तथा जो भी आत्म-सुख का कारण है वह सब पुण्य योग से प्राप्त होता है॥78॥जिसके बीच में सौ योजन का भी अंतर प्रसिद्ध है वह इष्ट वस्तु पुण्यात्मा जीवों को मुहूर्त मात्र में प्राप्त हो जाती है ॥79॥इसके विपरीत जो प्राणी पुण्य से रहित हैं वे निरंतर दुखी रहते हैं तथा उनके हाथ में आयी हुई भी इष्ट वस्तु दूर हो जाती है॥ 80॥ अटवियों के बीच में, पहाड़ की चोटी पर विषम मार्ग तथा समुद्र के मध्य में भी पुण्यशाली मनुष्यों को इष्ट समागम प्राप्त होते रहते हैं ॥81॥ इस प्रकार विचारकर उसने स्त्री को उठाया और उसके लिए हर्षातिरेक के कारण कष्ट से निकलने वाले वचनों के द्वारा सब समाचार कहा॥82॥ उस सुमुखी ने कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ इस आशंका से बार-बार पूछा और उत्पन्न हुए निश्चय से वह स्वसंवेद्य सुख को प्राप्त हुई॥ 83॥ तदनंतर जब स्त्री के ओठ के समान लाल-लाल कांति को धारण करने वाला सूर्य उदित हो रहा था तब प्रेम से भरा, सर्व बंधुजनों से सहित, परम कांति से युक्त और परम प्रिय समागम देखने के लिए उत्सुक राजा पृथिवीधर उत्तम हाथी पर सवार हो चला॥84-85॥ आठों पुत्रों से सहित वनमाला की माता भी मनोहर पालकी पर सवार हो पति के मार्ग में चली॥ 86॥इसके पीछे राजा की आज्ञानुसार सेवकों के द्वारा अत्यधिक हितकारी वस्त्र तथा गंध, माला आदि समस्त मनोहर पदार्थ ले जाये जा रहे थे॥87॥ । तदनंतर दूर से ही विकसित नेत्र कमलों के धारी राम को देखकर राजा पृथिवीधर हाथी से उतरकर आदर के साथ उनके पास पहुँचा॥88॥तत्पश्चात् विधि-विधान के वेत्ता तथा शुद्ध हृदय के धारक राजा ने बड़े प्रेम से राम-लक्ष्मण का आलिंगन कर उनसे तथा सीता से कुशल समाचार पूछा॥89॥ जिसके नेत्रों से स्नेह टपक रहा था तथा जो सब प्रकार का आचार जानने में निपुण थी ऐसी रानी ने भी राम-लक्ष्मण से कुशल पूछकर सीता का आलिंगन किया ॥90॥ उन सबने भी राजा-रानी का यथायोग्य सत्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि वे इस विषय में अतिशय निपुणता को प्राप्त थे ॥91॥ तदनंतर जो वीणा, बांसुरी, मृदंग आदि के शब्द से सहित था, जो क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र की तुलना धारण कर रहा था और जिसमें वंदीजनों के द्वारा उच्चारित विरुदावली का नाद गूंज रहा था ऐसा संगीत का शब्द होने लगा ॥92॥ जिसमें आये हुए समस्त इष्टजनों का सत्कार हो रहा था, तथा नृत्य करने वाले मनुष्यों के चरण निक्षेप से जिसमें भूतल कांप रहा था ऐसा वह महान् उत्सव संपन्न हुआ ॥93॥ तुरही के शब्द से जिनमें प्रतिध्वनि गूंज रही थी ऐसी दिशाएं हर्ष से ओत-प्रोत हो मानो परस्पर वार्तालाप ही कर रही थीं ॥94॥ अथानंतर धीरे-धीरे जब वह महोत्सव शांत हुआ तब उन्होंने स्नान, भोजन आदि शरीर संबंधी सब कार्य किये ॥15॥ तदनंतर जो हाथी-घोड़ों पर बैठे हुए सैकड़ों सामंतों से घिरे थे, मृग तुल्य पैदल सिपाहियों का बड़ा दल जिनके साथ था, उत्साह से भरा राजा पृथिवीधर जिनके आगे-आगे चल रहा था, चतुर वंदीजन जिनके आगे मंगल ध्वनि कर रहे थे, जिनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित थे, जो अमूल्य वस्त्र धारण किये हुए थे, जिनके शरीर हरिचंदन से लिप्त थे, जो उत्तम रथ पर सवार थे, जिनके नाना रत्नों की किरणों के संपर्क से इंद्रधनुष उठ रहे थे, चंद्र और सूर्य के समान जिनके आकार थे,, जिनके गुणों का वर्णन करना अशक्य था, सौधर्म तथा ऐशानेंद्र के समान जिनकी कांति थी, जो अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे, जिनके गले में वरमालाएँ पड़ी थी, सुगंधि के कारण जिनके आस-पास भ्रमरों ने मंडल बाँध रखे थे, जिनके मुख चंद्रमा के समान थे तथा जो विनीत आकार को धारण कर रहे थे ऐसे राम-लक्ष्मण ने नगर में प्रवेश किया ॥96-101॥ जिस प्रकार पहले, यक्ष के द्वारा निर्मित नगर में इच्छानुसार भोग भोगते हुए वे रमण करते थे उसी प्रकार राजा पृथिवीधर के नगर में भी वे इच्छानुसार उत्कृष्ट भोग भोगते हुए रमण करने लगे ॥102॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनके चित्त पुण्य से सुसंस्कृत हैं तथा जो सूर्य के समान दीप्ति के धारक हैं ऐसे मनुष्य सघन वनों में पहुंचकर भी सहसा उत्कृष्ट गुणों से युक्त पदार्थों को प्राप्त कर लेते हैं॥ 103 ॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में वनमाला का वर्णन करने वाला छत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥36॥ |