कथा :
अथानंतर देवों के समान शोभा को धारण करने वाले वे तीनों, नंदनवन के समान सुंदर वन में सुख से विहार करते हुए एक ऐसे अत्यंत उज्ज्वल देश में पहुँचे, जिसके मध्य में प्रसिद्ध जल को बहाने वाली, पक्षी समूह से शब्दायमानतापी नाम की प्रसिद्ध नदी सुशोभित है ॥1-2॥ वहाँ के निर्जल वन में जब सीता अत्यंत थक गयी तब राम से बोली कि नाथ ! मेरा कंठ बिल्कुल सूख गया है ॥3 ॥जिस प्रकार सैकड़ों जन्म धारण करने से खेद को प्राप्त हुआ भव्य, अरहंत भगवान् के दर्शन चाहता है उसी प्रकार तीव्र पिपासा से आकुलित हुई मैं जल चाहती हूँ ॥4॥ इतना कहकर वह रोकने पर भी एक उत्तम वृक्ष के नीचे बैठ गयी । राम ने कहा कि हे देवि ! हे शुभे ! विषाद को प्राप्त मत होओ ॥5॥ यह पास ही बड़े-बड़े महलों से युक्त बड़ा भारी ग्राम दिखाई दे रहा है, उठो, शीघ्र ही चलें, वहीं शीतल पानी पीना ॥6॥ इस प्रकार कहने पर धीरे-धीरे चलती हुई सीता के साथ चलकर वे दोनों, जहाँ अनेक धनिक कुटुंब रहते थे, ऐसे अरुण ग्राम में पहुँचे॥7॥वहाँ प्रतिदिन होम करने वाला एक कपिल नाम का ब्राह्मण रहता था सो वे दोनों यथाक्रम से प्राप्त हुए, उसी के घर उतरे॥8॥ यहाँ यज्ञ-शाला में क्षण-भर विश्राम कर सीता ने उसकी ब्राह्मणी के द्वारा दिया शीतल जल पिया ॥9॥ वे सब वहाँ ठहर ही रहे थे कि इतने में बेल पीपल और पलाश की लकड़ियों का भार लिये ब्राह्मण जंगल से वापस आ पहुंचा ॥10॥ निरंतर क्रोध करने वाले उस ब्राह्मण का मन दावानल के समान था, वचन कालकूट के समान थे, और मुख उल्लू के सदृश था ॥11 ॥वह हाथ में कमंडलु लिये था, उसने शिर पर बड़ी चोटी रख छोड़ी थी, मुख पर लंबी-चौड़ी दाढ़ी बढ़ा ली थी और कंधे पर यज्ञोपवीत का सूत्र धारण किया था, इन सब चीजों से वह अत्यंत कुटिल वेष को धारण कर रहा था तथा उच्छवृत्ति से अपनी जीविका चलाता था ॥12॥ उन्हें देखते ही उसका क्रोध उमड़ पड़ा, उसका मुख भौंहों से अत्यंत कुटिल हो गया और वह ब्राह्मणी से इस प्रकार बोला, मानो तीक्ष्ण वचनों से उसे छील ही रहा हो ॥13॥उसने कहा कि हे पापिनि ! तूने इन्हें यहाँ प्रवेश क्यों दिया है ? अरी दुष्टे ! मैं आज तुझे पशु से भी अधिक दुःसह बंधन में डालता हूँ ॥14॥ देख, जिनका शरीर धलि से धूसर हो रहा है, ऐसे ये निर्लज्ज, पापी, ढीठ व्यक्ति मेरी यज्ञशाला को दूषित कर रहे हैं ॥15॥ तदनंतर सीता ने राम से कहा कि हे आर्यपुत्र ! इस कुकर्मा तथा अतिशय अपशब्द कहने वाले इस ब्राह्मण का यह अधम स्थान छोड़ो ॥16 ॥फूलों और फलों से आच्छादित वृक्षों तथा कमल आदि से युक्त अत्यंत निर्मल सरोवरों से सुशोभित वन में स्वेच्छा से साथ-साथ क्रीड़ा करने वाले हरिणों के साथ निवास करना अच्छा, जहाँ इस प्रकार के अत्यंत कठोर शब्द सुनाई नहीं पड़ते ॥17-18 ॥हे राघव ! स्वर्ग के समान आभा वाले इस अतिशय सुंदर देश में समस्त लोग निष्ठुर हैं और खासकर ग्रामवासी तो अत्यंत निष्ठुर हैं ही ॥19॥ ब्राह्मण के रूक्ष वचनों से क्षोभ को प्राप्त हुआ समस्त गाँव उनका देवतुल्य रूप देखकर वहाँ आ गया ॥20॥ गाँव के लोगों ने कहा कि हे ब्राह्मण ! यदि ये पथिक तेरे मकान में एक ओर क्षण-भर के लिए ठहर जाते हैं तो क्या दोष उत्पन्न कर देंगे? ये सब बड़े विनयी जान पड़ते हैं ॥21॥उसने क्रोध से लाल होकर सब लोगो को डाँटते हुए, राम-लक्ष्मण से कहा कि तुम लोग अपवित्र हो, अतः मेरे घर से निकलो । ब्राह्मण का राम-लक्ष्मण के प्रति रोष दिखाना ऐसा ही था जैसा कि कोई एक कुत्ता दो हाथियों के प्रति रोष दिखाता है उन्हें देखकर भोंकता है । तदनंतर उसके इस प्रकार के वचन संबंधी आघात से लक्ष्मण को क्रोध आ गया । वे रुधिर के समान लाल-लाल नेत्रों के धारक तथा अमांगलिक अपशब्द बकने वाले उस नीच ब्राह्मण को ऊर्ध्वपाद और अधोनीव कर घुमाकर ज्यों ही पृथिवी पर पछाड़ने के लिए उद्यत हुए त्यों ही करुणा के धारी राम ने उन्हें यह कहते हुए रो का ॥22-25 ॥कि हे लक्ष्मण ! तुम इस बेचारे दोन प्राणी पर यह क्या करने जा रहे हो? यह तो जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है, इसके मारने से क्या लाभ है ? ॥26 ॥जब तक यह निष्प्राण नहीं होता है तब तक इस क्षुद्र को शीघ्र ही छोड़ दो । इसके मरने पर केवल अपयश ही प्राप्त होगा ॥27॥ मुनि, ब्राह्मण, गाय, पशु, स्त्री, बालक और वृद्ध ये सदोष होने पर भी शूरवीरों के द्वारा बध्य नहीं हैं, ऐसा कहा गया है ॥28॥ इतना कहकर राम ने उसे छुड़ाया और लक्ष्मण को आगे कर वे सीता सहित उस ब्राह्मण की कुटिया से बाहर निकल आये ॥29॥ जो दुर्वचन सुनने का कारण है मन में विकार उत्पन्न करने वाला है और महापुरुष जिसे दूर से ही छोड़ देते हैं ऐसी नीच मनुष्यों की संगति को धिक्कार है ॥30॥ शीतऋतु के समय दुर्गम वन में वृक्ष के नीचे बैठा रहना अच्छा है, समस्त परिग्रह छोड़कर संसार में भ्रमण करते रहना अच्छा है और आहार छोड़कर सुखपूर्वक मर जाना अच्छा है परंतु तिरस्कार के साथ दूसरे के घर में एक क्षण भी रहना अच्छा नहीं है ॥31-32॥ हम नदियों के तटों और पर्वतों की अतिशय मनोहर गुफाओं में रहेंगे परंतु अब फिर दुर्जनों के घर में प्रवेश नहीं करेंगे इस प्रकार दुर्जन संसर्ग की निंदा करते तथा परम अभिमान को धारण करते हुए राम ने गाँव से निकलकर वन का मार्ग लिया॥33-34॥ तदनंतर समस्त आकाश को नीला करता और तीव्र गर्जना के समूह से गुफाओं को प्रति ध्वनित करता हुआ वर्षा काल आया ॥35॥ उस समय ग्रह और नक्षत्रों के पटल को सब ओर से छिपाकर कड़कती हुई बिजली के प्रकाश के बहाने आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो ॥36॥ ग्रीष्म काल के भयंकर विस्तार को दूर हटाकर मेघ गरज रहा था और बिजलीरूपी अंगुली के द्वारा ऐसा जान पड़ता था मानो प्रवासी मनुष्यों को डांट ही दिखा रहा हो ॥37॥ धाराओं के द्वारा आकाश को अंधकारयुक्त करता हुआ श्यामल मेघ, सीता का अभिषेक करने के लिए उस तरह तैयार हुआ जिस तरह हाथी लक्ष्मी का अभिषेक करने के लिए तैयार होता है ॥38॥ तदनंतर वे भोगते हुए एक निकटवर्ती ऐसे विशाल वटवृक्ष के नीचे पहुंचे कि जिसका स्कंध धर के समान सुरक्षित था तथा जो अत्यंत ऊँचा था ॥39।। अथानंतर उनके तेज से अभिभूत हुआ इभकर्ण नाम का यक्ष, विंध्याचल के वन में रहने वाले अपने स्वामी के पास जाकर तथा नमस्कार कर इस प्रकार बोला कि हे नाथ ! स्वर्ग से आकर कोई ऐसे तीन महानुभाव मेरे घर में ठहरे हैं जिन्होंने अपने तज से अभिभूत कर मुझे शीघ्र ही घर के बाहर कर दिया है ॥40-41 ॥इभकर्ण के वचन सुनकर मंद हास्य करता हुआ यक्षराज, अपनी स्त्रियों के साथ लीलापूर्वक उस वटवृक्ष के पास जाने के लिए चला ॥42॥ यक्षों का वह अधिपति महावैभव से युक्त था, रम्य वनों में क्रीड़ा करता आ रहा था और पूतन नाम से सहित था ॥43॥ यक्षराज ने अत्यंत सुंदर रूप के धारक राम-लक्ष्मण को दूर से हो देख अवधिज्ञान जोड़कर जान लिया कि ये बलभद्र और नारायण हैं ॥44॥ तदनंतर उनके प्रभाव एवं बहुत भारी वात्सल्य से उसने उनके लिए क्षण-भर में एक सुंदर नगरी की रचना कर दी ॥45॥ तत्पश्चात् वे वहाँ सुख से सोये और प्रातःकाल अतिशय मनोहर संगीत के शब्द से प्रबोध को प्राप्त हुए ॥46॥ उन्होंने अपने आपको रत्नों से सुशोभित शय्यापर अवस्थित देखा, अनेक खंड का अत्यंत मणीय उज्ज्वल महल देखा, आदर के साथ शरीर की सेवा करने में व्यग्र सेवकों का समूह देखा और महाशब्द, प्राकार तथा गोपुरों से शोभित नगर देखा ॥47-48॥ सहसा इस नगर को दिखने पर उन महानुभावों का मन आश्चर्य को प्राप्त नहीं हुआ सो ठीक ही है क्योंकि यह सब चमत्कार क्षुद्र चेष्टा थी ॥49॥ सुंदर चेष्टाओं को धारण करने वाले राम, सीता और लक्ष्मण समस्त वस्तुओं से युक्त हो देवों के समान भोग भोगते हुए उस नगरी में सुख से रहने लगे ॥50॥ चूंकि वह नगरी यक्षराज ने राम के लिए बनायी थी इसलिए महीतल पर रामपुरी इसी नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुई ॥51॥ द्वारपाल, भट, शूरवीर, मंत्री, घोड़े, हाथी तथा नाना प्रकार के नगरवासी जिस प्रकार अयोध्या में थे उसी प्रकार इस रामपुरी में भी थे ॥52॥ तदनंतर राजा श्रेणिकने गौतम स्वामी से पूछा कि हे नाथ ! राम-लक्ष्मण के साथ उस प्रकार व्यवहार करने वाले उस कपिल ब्राह्मण का क्या हाल हुआ? सो कहिए ॥53॥ तब गौतम स्वामी बोले कि हे श्रेणिक ! सुन, वह ब्राह्मण प्रभात काल उठकर तथा हँसिया हाथ में लेकर वन की ओर चला ॥54॥ वह इंधन आदि की प्राप्ति के लिए इधर-उधर घूम रहा था कि अकस्मात् ही दृष्टि ऊपर उठाने पर उसने एक विशाल नगरी देखी । देखकर उसका मुख आश्चर्य से चकित हो गया ॥55॥ वह नगरी सफेद तथा अन्य रंगों की अनेक पताकाओं और शरद्ऋतु के मेघों के समान अतिशय देदीप्यमान भवनों से सुशोभित थी ॥56॥ नगरी के मध्य में सफेद कमलरूपी छत्र से सहित एक बड़ा भवन था जो ऐसा जान पड़ता था मानो कैलास का बच्चा ही हो ॥57 ॥यह सब देख, वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि क्या यह स्वर्ग है ? अथवा मृगों से सेवित वही अटवी है ? जिसमें मैं ईंधन तथा कुशा आदि के लिए निरंतर दुःखपूर्वक भटकता रहता था ॥58॥यह नगरी ऊँचे-ऊँचे शिखरों की माला से शोभायमान, तथा रत्नमयी पर्वतों के समान दिखने वाले भवनों से अकस्मात् ही सुशोभित हो रही है ॥59 ॥यहाँ कमल आदि से आच्छादित जो ये मनोहर सरोवर दिखाई दे रहे हैं वे मैंने पहले कभी नहीं देखे ॥60॥ यहाँ मनुष्यों के द्वारा सेवित सुरम्य उद्यान और बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से युक्त मंदिर दिखाई पड़ते हैं ॥61॥इस नगर की निकटवर्ती भूमि, हाथियों, घोड़ों, गायों और भैंसों से संकीर्ण तथा घंटा आदि के शब्दों से पूर्ण है ॥62॥ क्या यह नगरी यहाँ स्वर्ग से अवतीर्ण हुई है ? अथवा किसी पुण्यात्मा के प्रभाव से पाताल से निकली है ॥63 ॥क्या मैं ऐसा स्वप्न देख रहा हूँ ? अथवा यह किसी की माया है ? या गंधर्व का नगर है ? अथवा मैं स्वयं पित्त से व्याकुलित हो गया हूँ ? ॥64॥ अथवा क्या मेरा निकट काल में मरण होने वाला है सो उसका चिह्न प्रकट हुआ है ? इस प्रकार विचार करता हआ वह ब्राह्मण अत्यधिक विवाद को प्राप्त हुआ ॥65॥ उसी समय उसे नान धारण करने वाली एक स्त्री दिखी सो उसके पास जाकर उसने पूछा कि हे भद्रे ! यह किसकी नगरी है ? ॥66॥ उसने कहा कि यह राम की नगरी है, क्या तुम ने कभी सुना नहीं ? उन राम की कि लक्ष्मण जिनके भाई हैं और सीता जिनकी प्राणप्रिया है ॥67 ॥हे ब्राह्मण ! नगरी के बीच में जो यह शरद् ऋतु के मेष के समान कांतिवाला बड़ा भवन देख रहे हो इसी में वे पुरुषोत्तम रहते हैं ॥68॥जिनका दर्शन अत्यंत दुर्लभ है, ऐसे इन पुरुषोत्तम ने मन वांछित द्रव्य देकर सभी दरिद्र मनुष्यों को राजा के समान बना दिया है ॥69 ॥ब्राह्मण ने कहा कि हे सुंदरि! मैं किस उपाय से राम के दर्शन कर सकता हूँ ? मैं तुम से सद्भाव से पूछ रहा हूँ अतः बतलाने के योग्य हो ॥70॥ इतना कहकर उस ब्राह्मण ने ईंधन का भार पृथिवी पर रख दिया और स्वयं हाथ जोड़कर उस स्त्री के चरणों में गिर पड़ा, सो ठीक ही है क्योंकि वह स्त्री किसका मन नहीं हरती थी ?॥71 ॥। तदनंतर दया से आकृष्ट हुई उस सुमाया नाम की यक्षी ने ब्राह्मण से कहा कि तूने यह बड़ा साहस किया है ॥72॥ तू इस नगरी को समीपवर्ती भूमि में कैसे आ गया ? यदि भयंकर पहरेदार तुझे देख लेते तो तू अवश्य ही नष्ट हो जाता ॥73॥ इस नगरी के तीन द्वारों में तो देवों को भी प्रवेश करना कठिन है क्योंकि वे सदा सिंह, हाथी और शार्दूल के समान मुख वाले तेजस्वी, वीर तथा कठोर नियंत्रण रखने वाले रक्षकों से अशून्य रहते हैं । इन रक्षकों के द्वारा डरवाये हुए मनुष्य निःसंदेह मरण को प्राप्त हो जाते हैं ॥74-75 ॥इनके सिवाय जो वह पूर्व द्वार तथा उसके बाहर समीप ही बने हुए बगला के पंख के समान कांति वाले सफेद-सफेद भवन तू देख रहा है वे मणिमय तोरणों से रमणीय तथा नाना ध्वजाओं की पंक्ति से सुशोभित जिन-मंदिर हैं । उनमें इंद्रों के द्वारा वंदनीय अरहंत भगवान् की प्रतिमाएं हैं जो मनुष्य सामायिक कर तथा ‘अर्हंत् सिद्धेभ्यो नमः’ अर्थात् अरहंत तथा सिद्धों को नमस्कार हो इस प्रकार कहता हुआ भाव पूर्वक उन प्रतिमाओं का स्तवन पढ़ता है तथा निर्ग्रंथ गुरु का उपदेश पाकर सम्यग्दर्शन धारण करता है वही उस पूर्व द्वार में प्रवेश करता है । इसके विपरीत जो मनुष्य प्रतिमाओं को नमस्कार नहीं करता है वह मारा जाता है ॥76-79 ॥जो मनुष्य अणुव्रत का धारी तथा गुण और शील से अलंकृत होता है, राम उसे बड़ी प्रसन्नता से इच्छित वस्तु देकर संतुष्ट करते हैं ॥80॥ तदनंतर उसके अमृत तुल्य वचन सुनकर तथा धन प्राप्ति का उपाय प्राप्त कर वह ब्राह्मण परम हर्ष को प्राप्त हुआ ॥81 ॥उसका समस्त शरीर रोमांचों से सुशोभित हो गया तथा उसका हृदय अत्यंत अद्भुत भावों से युक्त हो गया । वह उस स्त्री को नमस्कार कर तथा बार-बार उसकी स्तुति कर चारित्र पालन करने में शूर-वीर मुनिराज के पास गया और अंजलि बाँध शिर से प्रणाम कर उसने उनसे अणुव्रत धारण करने वालों की क्रिया पूछी ॥82-83॥तदनंतर उस चतुर बुद्धिमान ब्राह्मण ने मुनिराज के द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म अंगीकृत किया तथा अनुयोगों का स्वरूप सुना ॥84॥ पहले तो वह ब्राह्मण धन के लोभ से अभिभूत होकर धर्मश्रवण करना चाहता था पर अब वास्तविक धर्म ग्रहण करने के भाव को प्राप्त हो गया ॥85॥मुनिराज से धर्म का स्वरूप जानकर जिसका हृदय अत्यंत शुद्ध हो गया था, ऐसा वह ब्राह्मण बोला कि हे नाथ ! आज आपके उपदेश से तो मेरे नेत्र खुल गये हैं ॥86॥ जिस प्रकार प्यास से पीड़ित मनुष्य को उत्तम जल मिल जाये, आश्रय की इच्छा करने वाले पुरुष को छाया मिल जाये, भूख से पीड़ित मनुष्य को मिष्ठान्न मिल जाये, रोगी के लिए उत्तम औषधि मिल जाये, कुमार्ग में भट के हुए को इच्छित स्थान पर भेजने वाला मार्ग मिल जाये, और बड़ी व्याकुलता से समुद्र में डूबने वालों को जहाज मिल जाये, उसी प्रकार आपके प्रसाद से सर्व दुःखों को नष्ट करने वाला यह जैन शासन मुझे प्राप्त हुआ है । यह जैन शासन नीच मनुष्यों के लिए सर्वथा दुर्लभ है ॥87-89॥ चूंकि आपने यह ऐसा जिन प्रदर्शित मार्ग मुझे दिखलाया है इसलिए तीन लोक में भी आपके समान मेरा हितकारी नहीं है ॥90 । इस प्रकार कहकर तथा अंजलि बद्ध शिर से मुनिराज के चरणों में नमस्कार कर प्रदक्षिणा देता हुआ वह ब्राह्मण अपने घर चला गया ॥21॥ तदनंतर जिसके नेत्र कमल के समान विकसित हो रहे थे तथा जो अत्यंत हर्ष से युक्त था ऐसा वह ब्राह्मण घर जाकर अपनी स्त्री से बोला कि हे प्रिये ! आज मैंने गुरु से परम आश्चर्य सुना है ॥92 ॥ऐसा परम आश्चर्य कि जिसे तेरे पिता ने, पिता के पिता ने अथवा बहुत कहने से क्या तेरे गोत्र भरने नहीं सुना होगा ॥93 ॥हे ब्राह्मणि ! वन में जाकर जो अद्भुत बात मैंने देखी थी अब वह गुरु के उपदेश से आश्चर्य करने वालो नहीं रही ॥94॥ ब्राह्मणी ने कहा कि हे ब्राह्मण ! तुम ने क्या-क्या देखा है और क्या-क्या सुना है ? सो कहो । ब्राह्मणी के इस प्रकार कहने पर ब्राह्मण बोला कि हे प्रिये ! मैं हर्ष के कारण कहने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥95॥ तदनंतर कौतुक से भरी ब्राह्मणी ने जब आदर के साथ बार-बार पूछा तब वह विप्र बोला कि हे आर्ये ! जो आश्चर्य मैंने सुना है वह सुन ॥96।। मैं लकड़ियाँ लाने के लिए जंगल गया था सो उसके समीप ही जहाँ सघन वन था वहाँ एक मनोहर नगरी दिखी ॥97 ॥मैंने उस नगरी के पास एक आभूषणों से विभूषित स्त्री देखी । जान पड़ता है कि मनोहर भाषण करने वाली वह कोई देवी होगी ॥98 ॥मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि यह रामपुरी नाम की नगरी है, यहाँ राजा रामचंद्र श्रावकों के लिए बहुत भारी धन देते हैं ॥19 ॥तदनंतर मैंने मुनिराज के पास जाकर जिनेंद्र भगवान् के वचन सुने उससे मेरी आत्मा जो कि मिथ्या दर्शन से संतप्त थी अत्यंत संतुष्ट हो गयी ॥100 ॥मुक्ति के आलिंगन की लालसा रखने वाले बुद्धिमान् मुनि जिस धर्म का आश्रय ले समस्त परिग्रह का त्यागकर तप करते हैं वह अरहंत का धर्म मैंने प्राप्त कर लिया । वह धर्म तीनों लोकों को महानिधि है इससे बहिर्भूत जो अन्यवादी हैं वे व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं ॥101-102॥ तदनंतर उस धर्मात्मा ने मुनिराज से जैसा वास्तविक धर्म सुना था वह सब शुद्ध हृदय से उसने ब्राह्मणी के लिए कह दिया॥103 ॥उसे सुन सुशर्मा ब्राह्मणी ब्राह्मण से बोली कि मैंने भी तुम्हारे प्रसाद से जिनेंद्र प्रतिपादित धर्म प्राप्त कर लिया है ॥104॥ मेरा यह भाग्य का योग तो देखो कि जो मोहवश विषफल की इच्छा कर रहे थे तथा जिसे तद्विषयक रंचमात्र भी इच्छा नहीं थी ऐसे तुम ने अर्हंत का नामरूपी रसायन प्राप्त कर लिया ॥105 ॥जिस प्रकार किसी मूर्ख के हाथ में मणि आ जाये और वह तिरस्कार कर उसे दूर कर दे उसी प्रकार मुझ मूर्ख के गृहांगण में साधु आये और मैंने उनका अपमानकर उन्हें दूर कर दिया ॥106 ॥उस दिन आहार के समय उपवास से खिन्न दिगंबर मुनि घर आये सो उन्हें हटाकर मैंने दूसरे साधु का मार्ग देखा ॥107॥ जिन्हें इंद्र भी नमस्कार करता है ऐसे अर्हंत को छोड़कर मैंने ज्योतिषी तथा व्यंतरादिक देवों को शिर झुका-झुकाकर नमस्कार किया ॥108॥ अर्हंत भगवान् का धर्मरूपी रसायन अहिंसा से निर्मल तथा सारभूत है सो उसे छोड़कर मैंने अज्ञान वश विषम विष का भक्षण किया है ॥109॥ बडे खेद की बात है कि मैंने मनुष्य द्वीप को पाकर द्वारा परीक्षित धर्मरूपी रत्न तो छोड़ दिया और उसके बदले बहेड़ा अंगीकार किया ॥110 ॥जो इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्त हैं, रात दिन इच्छानुसार खाते हैं, व्रत रहित हैं तथा शील से शून्य हैं, ऐसे साधुओं के लिए मैंने जो कुछ दिया वह सब निष्फल गया ॥111 ॥जो दुर्बुद्धि मनुष्य आहार के समय आये हुए अतिथि का अपनी सामर्थ्य के अनुसार सन्मान नहीं करता है― उसे आहार आदि नहीं देता है उसके धर्म नहीं है ॥112॥ जिसने उत्सव को तिथि का परित्याग कर दिया है, जो सर्व प्रकार के परिग्रह से बिलकुल निःस्पृह है तथा घर से रहित है ऐसा साधु ही अतिथि कहलाता है ॥113 ॥जिनके हाथ में न भोजन है न जो अपने पास परिग्रह रखते हैं तथा जो हस्तरूपी पात्र में भोजन करते हैं ऐसे निर्ग्रंथ साधु ही संसार-समुद्र से पार करते हैं ॥114॥जो अपने शरीर में भी निःस्पृह हैं तथा जो कभी बाह्य विषयों में नहीं लुभाते और मुक्ति के लक्षण अर्थात् चिह्न स्वरूप दिगंबर मुद्रा से विभूषित रहते हैं उन्हें निर्ग्रंथ जानना चाहिए ॥115 ॥इस प्रकार जिसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ था तथा जो मिथ्या दर्शनरूपी मल से रहित थी ऐसी सुशर्मा नाम की ब्राह्मणी पति के साथ बुध ग्रह के साथ भरणी नक्षत्र के समान सुशोभित हो रही थी ॥116॥ तदनंतर उस ब्राह्मण ने हर्ष से ब्राह्मणी को उन्हीं गुरु के पादमूल में ले जाकर तथा आदर सहित नमस्कार कर अणुव्रत ग्रहण कराया ॥117 ॥जो पहले आशीविष सांप के समान अत्यंत उग्र थे ऐसे ब्राह्मणों के कुल, कपिल को जिनशासन में अनुरक्त जानकर शांतिभाव को प्राप्त हो गये ॥118॥उनमें जो सुबुद्धि थे वे मुनिसुव्रत भगवान् का अत्यंत सुदृढ़ मत प्राप्त कर श्रावक हो गये तथा इस प्रकार बोले कि हम लोग कर्मों के भार से वजनदार थे, अहंकार से हमारे मस्तक ऊपर उठ रहे थे और हम निरंतर प्रमाद से युक्त रहते थे परंतु अब जिन धर्म के प्रसाद से भयंकर नरक में नहीं जावेंगे॥119-120 ॥इस जिन शासन को हमने सैकड़ों जन्मों में भी नहीं जाना, न प्राप्त किया किंतु आज अतिशय निर्मल यह जिनशासन रूपी ब्रह्म बड़े कष्ट से प्राप्त किया है ॥121॥अब हम मनरूपी होता के साथ मिलकर भावरूपी घी के साथ अपनी कर्मरूपी समिधाओं को ध्यानरूपी देदीप्यमान अग्नि में होमेंगे ॥122॥इस प्रकार मन को स्थिर कर संवेग से भरे हुए कितने ही ब्राह्मण सर्व परिग्रह से विरक्त हो उत्तम मुनि हो गये ॥123॥ परंतु कपिल श्रावक धर्म में आसक्त रहकर ही उत्तम आचरण करता था । एक दिन वह उत्तम अभिप्राय रखने वाली ब्राह्मणी से बोला ॥124 ॥कि हे प्रिये ! आज हम लोग, अतिशय बलवान्, विशुद्ध चेष्टा के धारक तथा कमल के समान नेत्रों से युक्त उन श्रीराम के दर्शन करने के लिए राम पुरी क्यों नहीं चलें ? ॥125 ॥वे भव्य जीवों पर अनुकंपा करने वाले हैं तथा जो निरंतर आशा में तत्पर रहता है, जिसका मन निरंतर धनोपार्जन के उपाय जुटाने में ही लगा रहता है, जो दरिद्रतारूपी समुद्र में मग्न है, और पेट भरना भी जिसे कठिन है ऐसे दरिद्र मनुष्य का वे उद्धार करते हैं, इस प्रकार आनंद दायिनी उनकी निर्मल कीर्ति सर्वत्र फैल रही है । ॥126-127॥ हे प्रिये ! उठो, यह फूलों का पिटारा तुम ले लो और मैं इस सूकुमार बच्चे को कंधे पर रख लेता हूँ ॥128॥ इस प्रकार कहकर तथा वैसा ही कर हर्ष से भरे दोनों दंपती जाने के लिए तत्पर हुए । अपनी शक्ति के अनुसार वे निर्मल वेष से विभूषित थे ॥129॥जब वे चले तो उनके मार्ग में उग्र सर्प फण तानकर खड़े हो गये तथा जिनके मुख डाँढों से विकराल थे और जो जोर-जोर से हंस रहे थे ऐसे वेताल मार्ग में आड़े आ गये ॥130 ॥परंतु इन सब भयंकर वस्तुओं को देखकर भी उनके हृदय निष्कंप रहे । वे निश्चल चित्त होकर यही स्तुति पढ़ते जाते थे कि ॥131॥ जो त्रिलोक द्वारा वंदनीय हैं, जो भयंकर संसाररूपी कर्दम से पार हो चुके हैं तथा जो उत्कृष्ट मोक्ष प्रदान करने वाले हैं ऐसे जिनेंद्र भगवान् को मन, वचन, काय से सदा नमस्कार हो ॥132॥इस प्रकार स्तुति करते हुए उन दोनों की जिनभक्ति को जानकर यक्ष शांत हो गये और वे रामपुरी के जिनालय में पहुंच गये ॥133॥ तदनंतर भगवान् की वसतिका के लिए नमस्कार हो यह कहकर दोनों ने हाथ जोड़े और प्रदक्षिणा देकर दोनों ही यह स्तुति पढ़ने लगे ॥134॥ हे नाथ ! महादुर्गति के दुःख देने वाले लौकिक मार्ग को छोड़कर हम चिरकाल के बाद आपकी शरण में आये हैं ॥135॥उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के वर्तमान तथा भूत-भविष्यत् संबंधी तीर्थंकरों की चौबीसी को हम नमस्कार करते हैं । पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में जो तीर्थंकर हैं, हो चुके हैं अथवा होंगे उन सबको हम मन, वचन, काय से नमस्कार करते हैं ॥136-137॥ जो संसार समुद्र से स्वयं पार हुए हैं तथा जिन्होंने दूसरों को पार किया है ऐसे समस्त क्षेत्रों संबंधी तीर्थंकरों को हम त्रिकाल नमस्कार करते हैं ॥138॥उन मुनि सुव्रत भगवान् को नमस्कार हो जिनका निर्मल शासन तीनों लोकों में प्रकाशमान हो रहा है ॥139॥इस प्रकार स्तुति कर घुटनों और मस्तक से पृथिवीतल का स्पर्श करते हुए उन्होंने जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार किया । उस समय भक्ति के कारण उन दोनों के शरीर में रोमांच उठ रहे थे ॥140॥ तदनंतर वंदना का कार्य पूर्ण कर चुकने के बाद शांत तथा मधुर भाषी रक्षकों ने जिसे आज्ञा दे दी थी ऐसा कपिल ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ राम के दर्शन करने के लिए चला ॥141॥ वह, राजमार्ग में पर्वतों के समान ऊँचे, निर्मल कांति के धारक, तथा दिव्य स्त्रियों से भरे जो महल मिलते थे उन्हें अपनी स्त्री के लिए दिखाता जाता था ॥142॥उसने स्त्री से कहा कि हे भद्रे ! कुंद के समान उज्ज्वल तथा सर्व मनोरथों को पूर्ण करने वाले गुणों से सहित, भवनों से जिनकी यह स्वर्ग तुल्य नगरी सुशोभित हो रही है उन मनोहर राम का यह भवन समीपवर्ती अन्य महलों से घिरा कैसा सुंदर जान पड़ता है ? ॥143-144॥ इस प्रकार कहते हुए उस अतिशय हर्षित ब्राह्मण ने राम के भवन में प्रवेश किया । वहाँ वह दूर से ही लक्ष्मण को देखकर अत्यंत आकुलता को प्राप्त हुआ ॥145॥ उसके शरीर में कंपकंपी छूटने लगी । वह विचार करने लगा कि नीलकमल से समान प्रभा वाला यह वही पुरुष है जिसने उस समय मुझ मूर्ख को नाना प्रकार के वध से दुःखी किया था ॥146 ॥उसकी बोलती बंद हो गयी । वह मन ही मन अपनी जिह्वा से कहने लगा हे महादुष्टे ! हे पापे ! उस समय तो तूने कानों के लिए अत्यंत दुःखदायी वचन कहे अब चुप क्यों है ? बाहर निकल ॥147॥वह मन ही मन विचार करने लगा कि क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किस बिल में घुस जाऊँ ? आज मुझ शरण हीन का यहाँ कौन शरण होगा ? ॥148 ॥यदि मुझे मालूम होता कि यह यहाँ ठहरा है तो मैं उत्तरदिशा को लांघकर देश त्याग ही कर देता ॥149 ॥इस प्रकार उद्वेग को प्राप्त हुआ वह ब्राह्मण, ब्राह्मणी को छोड़ भागने के लिए तैयार हुआ ही था कि लक्ष्मण ने उसे देख लिया ॥150 ॥हँसकर लक्ष्मण ने कहा कि यह ब्राह्मण कहाँ से आया है ? जान पड़ता है कि इसका पोषण वन में ही हुआ है, यह इस तरह आकुलता को क्यों प्राप्त हुआ है ? ॥151 ॥सांत्वना देकर उस ब्राह्मण को शीघ्र ही लाओ हम इसकी चेष्टा को देखेंगे तथा सुनेंगे कि यह क्या कहता है ? ॥152॥ नहीं डरना चाहिए, नहीं डरना चाहिए, लौटो, इस प्रकार कहने पर वह सांत्वना को प्राप्त कर लड़खड़ाते पैरों वापस लौटा ॥153॥ तदनंतर श्वेत वस्त्र को धारण करने वाला वह ब्राह्मण पास जाकर निर्भय हो राम-लक्ष्मण के सम्मुख गया तथा अंजलि में पुष्प रखकर उनके सामने खड़ा हो स्वस्ति शब्द का उच्चारण करने लगा ॥154॥ तदनंतर जो प्राप्त हुए आसन पर बैठा था और पास ही जिसकी स्त्री बैठी थी ऐसा वह ब्राह्मण स्तवन करने में समर्थ ऋचाओं के द्वारा राम-लक्ष्मण को स्तुति करने लगा ॥155॥ स्तुति के बाद राम ने कहा कि हे ब्राह्मण ! उस समय हम लोगों का वैसा तिरस्कार कर अब इस समय आकर पूजा क्यों कर रहे हो सो तो बताओ ॥156॥ ब्राह्मण ने कहा, हे देव ! मैंने नहीं जाना था कि आप प्रच्छन्न महेश्वर हो इसीलिए भस्म से आच्छादित अग्नि के समान मोह वह मुझ से आपका अनादर हो गया ॥157॥ हे जगन्नाथ ! चराचर विश्व की यही रीति है कि शीत ऋतु में सूर्य के समान धनवान् की ही सदा पूजा होती है ॥158॥ यद्यपि इस समय में जानता हूँ कि आप वही हैं अन्य नहीं फिर भी आपकी पूजा हो रही है सो हे पद्म ! यहाँ यथार्थ में धन की ही पूजा हो रही है आपकी नहीं ॥159॥ हे देव ! लोग निरंतर धनवान् मनुष्य का ही सन्मान करते हैं और जिसके साथ मित्रता का प्रयोजन जाता रहा है ऐसे धनहीन मनुष्य को छोड़ देते हैं ॥160॥ जिसके पास धन है उसके मित्र हैं, जिसके पास धन है उसके बांधव हैं, जिसके पास धन है लोक में वह पुरुष है और जिसके पास धन है वह पंडित है ॥161 ॥जब मनुष्य धन रहित हो जाता है तब उसका न कोई मित्र रहता है न भाई । पर वही मनुष्य जन-धन सहित हो जाता है तो अन्य लोग भी उसके आत्मीय बन जाते हैं ॥162 ॥धन वही है जो धर्म से सहित है, धर्म वही है जो दया से सहित है और निर्मल दया वही हैं जिसमें मांस नहीं खाया जाता ॥163 ॥मांस भोजन से दूर रहने वाले समस्त प्राणियों के अन्य त्याग चूंकि मूल से सहित रहते हैं इसलिए ही उनकी प्रशंसा होती है ॥164 ॥हे राजन् ! यह मनुष्य लोक विचित्र है इसमें मेरे जैसे लोगों को तो कोई जानता ही नहीं है ॥165 ॥अथवा आपकी बात जाने दीजिए आप जैसे लोग जिनकी वंदना करते हैं वे साधु भी मूर्ख पुरुषों से पराभव प्राप्त करते हैं ॥166 ॥क्या आप नहीं जानते कि पहले एक ऐसे सनत्कुमार चक्रवर्ती हो गये हैं जिनका रूप देखने के लिए बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले देव आये थे परंतु वे भी मुनिपद धारणकर पराभव को प्राप्त हुए । आचार-शास्त्र के जानने में निपुण वे मुनिराज भ्रमण करते रहे परंतु उन्हें कहीं भिक्षा नहीं मिली ॥167-168॥ फिर अन्य समय विजयपुर नगर में वनस्पति से आजीविका करने वाली एक स्त्री ने आहार देकर उन्हें संतुष्ट किया और पंचाश्चर्यरूपी गुणों का ऐश्वर्य प्राप्त किया ॥169॥जिनकी भुजा बाजूबंद से विभूषित थी ऐसे सुभूम ने चक्रवर्ती होकर अपना वलयविभूषित हाथ बेर के लिए बढ़ाया परंतु यह दरिद्र है यह समझकर उनके लिए किसी ने एक बेर भी नहीं दिया सो ठीक ही है क्योंकि विशेष को नहीं जानने वाला मनुष्य किसी विशेष को कब प्राप्त हुआ है ? ॥170-171 ॥यह अथवा और कोई सभी लोग, स्वकृत कर्म को भोगने वाले मनुष्यों से विवश हैं । जिस मनुष्य का जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ उसकी अर्चा नहीं होती॥172 ॥मुझ मंदभाग्य ने उस समय आपकी आतिथ्य क्रिया क्यों नहीं की? यह विचारकर आज भी मेरा मन अत्यंत संताप को प्राप्त है ॥173 ॥आपके अतिशय सुंदर रूप को देखने वाला मनुष्य ही अत्यंत आश्चर्य को प्राप्त नहीं होता किंतु आपके प्रति अत्यंत क्रोध प्रकट करने वाला पुरुष भी ऐसा कौन है जो अत्यंत आश्चर्य को प्राप्त नहीं हुआ हो ॥174॥ इस प्रकार कहकर वह कपिल ब्राह्मण शोकाक्रांत हो रोने लगा, तब राम ने शुभ वचनों से उसे सांत्वना दी और सीता ने उसकी स्त्री सुशर्मा को समझाया ॥175 ॥तदनंतर राम की आज्ञा से किंकरों ने भार्या सहित कपिल श्रावक को सुवर्ण घटों में रखे हुए जल से प्रीतिपूर्वक स्नान कराया ॥176॥ उत्कृष्ट भोजन कराया और वस्त्र तथा रत्नों से उसे अलंकृत किया । तदनंतर वह बहुत भारी धन लेकर अपने घर वापस गया ॥177 ॥यद्यपि वह बुद्धिमान् ब्राह्मण, लोगों को आश्चर्य में डालने वाले तथा सर्व प्रकार के उपकरणों से युक्त भोगोपभोग के पदार्थों को प्राप्त हुआ था, तो भी चूंकि वह सम्मानरूपी बाणों से विद्ध था, गुणरूपी महासर्पो से डसा गया था और सेवा शुश्रूषा के कारण उसकी आत्मा दब रही थी, इसलिए वह संतोष को प्राप्त नहीं होता था । भावार्थ― राम ने तिरस्कार के बदले उसका सत्कार किया था अपने अनेक गणों से उसे वशीभूत किया था और स्नान, भोजन, पान आदि सेवा-शुश्रूषा से उसे सुखी किया था इसलिए वह रात दिन इसी शोक में पड़ा रहता था कि देखो कहां तो मैं दुष्ट कि जिसने इन्हें एक रात घर भी नहीं ठहरने दिया और कहाँ ये महापुरुष जिन्होंने इस प्रकार हमारा उपकार किया ? ॥178-179॥ वह विचार करने लगा कि मैं पहले जिस गांव में इतना अधिक दरिद्र था कि कंधे पर लकड़ियों का गट्टा रखकर भूखा-प्यासा दुर्बल शरीर इधर-उधर भटकता था आज उसी गांव में मैं राम के प्रसाद से यक्षराज के समान हो गया हूँ तथा सब चिंता और दुःखों से छूट गया हूँ ॥180-181 ॥पहले मेरा जो घर जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गया था, अनेक छिद्रों से जर्जर था, काक आदि पक्षियों की अशुचि से लिप्त था तथा जिसमें कभी गोबर भी नहीं लगता था, वही घर आज श्रीराम के प्रसाद से अनेक गायों से व्याप्त है, नाना महलों से संकीर्ण तथा प्राकार-कोट से घिरा हुआ है ॥182-183 ॥हाय, बड़े खेद की बात है कि मैंने कमल के समान नेत्रों के धारक तथा चंद्रतुल्य मुख से सुशोभित, घर आये हुए उन दोनों भाइयों का अपराध के बिना ही तिरस्कार किया॥184॥ग्रीष्मऋतु के आताप से जिनके शरीर संतप्त हो रहे थे ऐसे दोनों भाई देवी अर्थात् सीता के साथ घर से बाहर निकले, वह मेरे हृदय में सदा शल्य की तरह गड़ा हुआ चंचल हो उठता है ॥185 ॥निःसंदेह मेरे दुःख का अंत तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि मैं घर छोड़कर निरारंभ ही दीक्षा नहीं ले लेता हूँ ॥186 ॥तदनंतर कपिल के वैराग्य का समाचार जानकर इसके घबड़ाये हुए दीन-हीन भाई-बंधु, सुशर्मा ब्राह्मणी के साथ अश्रुधारा बहाने लगे ॥187॥ मोक्ष प्राप्त करने में उत्सुक कपिल, अपने परिजन को शोकरूपी सागर में निमग्न देख निरपेक्ष बुद्धि से बोला कि हे मानवो ! बड़े-बड़े मनोरथों से युक्त कुटुंबीजनों के विचित्र स्नेह से मोहित हुआ यह प्राणी निरंतर जलता रहता है, यह क्या तुम नहीं जानते ? ॥188-189 ॥इस प्रकार संवेग को प्राप्त हुआ कपिल ब्राह्मण दुःख से मूर्च्छित स्त्री तथा बहुत दुःख का अनुभव करने वाले बंधुजनों को छोड़कर, अठारह हजार सफेद गायें, रत्नों से परिपूर्ण तथा दास-दासियों से युक्त भवन, पुत्र और समस्त धन सुशर्मा ब्राह्मणी के लिए सौंपकर आरंभ रहित दिगंबर साधु हो गया ॥190-192॥ सह्यानंदमति के शिष्य तथा गुण और शील के महासागर अतिशय तपस्वी मुनि, उसके गुरु हुए थे अर्थात् उनके पास उसने दीक्षा ली थी ॥193॥ तदनंतर जो निर्मल चारित्ररूपी कांवर को धारण करते थे, जिनका मन सदा परमार्थ में लगा रहता था, और जिनका शरीर निर्ग्रंथ व्रतरूपी लक्ष्मी से आलिंगित था ऐसे महातपस्वी कपिल मुनिराज पृथिवी पर विहार करने लगे ॥194॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य अहंकार रहित हो कपिल की इस कथा को पढ़ता अथवा सुनता है वह सूर्य के समान देदीप्यमान होता हुआ एक हजार उपवास का फल प्राप्त करता है ॥195॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य रचित पद्मचरित में कपिल का वर्णन करने वाला पैंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥34॥ |