+ जितपद्मा -
अड़तीसवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर न्याय के वेत्ता श्रीराम ने अतिवीर्य के पुत्र विजयरथ का उसके पिता के पद पर अभिषेक किया ॥1॥ उसने अपना सब धन दिखाया और माता अरविंदा की पुत्री अपनी रत्न माला नामक बहन लक्ष्मण के लिए देनी कही सो राम ने उसे एवमस्तु कहकर स्वीकृत किया । रत्नमाला को पा, मानो लक्ष्मी ही गोद में आयी है, यह जानकर लक्ष्मण अधिक प्रसन्न हुए ॥2-3॥ तदनंतर लक्ष्मण आदि से सहित राम, जिनेंद्र भगवान् की आश्चर्य दायिनी पूजा कर राजा पृथ्वीधर के विजयपुर नगर वापस आये ॥4॥ नर्तकी के पकड़ने के कारण राजा अतिवीर्य ने दीक्षा धारण की है यह सुनकर शत्रुघ्न हास्य करने लगा सो भरत ने मना कर कहा ॥5॥ कि हे भद्र ! जो कष्टकारी विषयों को छोड़कर परम शांति को प्राप्त हुआ है ऐसा अतिवीर्य महा धन्य है । उसकी तू क्या हंसी करता है ? ॥6॥ जो देवों के लिए भी दुर्लभ है ऐसा तप का प्रभाव देख । जो हमारा शत्रु था अब मुनि होनेपर वह हमारे नमस्कार करने योग्य गुरु हो गया ॥7॥ इस प्रकार अतिवीर्य को प्रशंसा करता हुआ भरत जब तक बैठा था तब तक अनेक सामंतों के साथ विजयरथ वहाँ आ पहुँच वह भरत को प्रणाम कर उत्तम वार्ता करता हआ क्षण भर बैठा । तदनंतर उसने रतिमाला की बड़ी बहन विजयसुंदरी नाम की शुभ कन्या जो कि नाना अलंकारों को धारण कर रही थी भरत के लिए समर्पित की । साथ ही बड़ी प्रसन्न दृष्टि से बहुत भारी खजाना और उत्तम सेना भी प्रदान की ॥9-10॥ तदनंतर उस अद्वितीय कन्या को पाकर भरत बहुत प्रसन्न हुआ । उसने विजयरथ की इच्छानुकूल सब कार्य स्वीकृत किया सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों को यही रीति है ॥11॥

अथानंतर जिसका मन कौतुक और उत्कंठा से व्याप्त था ऐसा भरत महावेगशाली घोड़ों से अतिवीर्य मुनिराज के दर्शन करने के लिए चला ॥12॥ वह उत्तम भावना से सहित था तथा पूछता जाता था कि वे महामुनि कहाँ हैं ? और सेवक कहते जाते थे कि ये आगे विराजमान हैं ॥13।।

तदनंतर जो ऊंचे-नीचे पाषाणों के समूह से अत्यंत दुर्गम था, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त था, फूलों की सुगंधि से सुवासित था, और जंगली जानवरों से युक्त था ऐसे जानकार सेवकों के द्वारा बताये हुए पर्वत पर भरत चढ़ा और घोड़े से उतरकर विनीत वेष से शोभित होता हुआ अतिवीर्य मुनिराज के दर्शन के लिए चला । ॥14-15॥ वे मुनिराज हर्ष-विषाद से रहित थे, शांत इंद्रियों के धारक थे, विभु थे, शिलातल पर विराजमान थे, एक सिंह के समान निर्भय थे, घोर तप में स्थित थे, शुभ ध्यान में लीन थे और मुनिपने की लक्ष्मी से देदीप्यमान थे॥16-17 ॥मुनिराज के दर्शन कर सब लोगों के नेत्र विकसित हो गये और सबके शरीर में हर्ष से रोमांच निकल आये । सभी ने परम आश्चर्य को प्राप्त हो अंजलि जोड़कर उन्हें नमस्कार किया ॥18 । जिसे मुनि बहुत प्रिय थे ऐसे भरत ने उन मुनिराज की बड़ी भारी पूजा की, चरणों में प्रणाम किया और फिर भक्ति से नत शरीर होकर इस प्रकार कहा कि हे नाथ ! जिसने यह जिनेंद्र-प्रतिपादित कठिन दीक्षा धारण की है ऐसे एक आप ही शूरवीर हो तथा आप ही परमार्थ के जानने वाले हो ।।19-20॥ विशुद्ध कूल में उत्पन्न तथा संसार के सार को जानने वाले महापुरुषों की ऐसी ही चेष्टा होती है ॥21 ॥मनुष्य लोक पाकर जिस फल की इच्छा की जाती है हे साधो! वह फल आपने पा लिया पर हम अत्यंत दु:खी हैं ॥22 ॥हे नाथ ! हम लोगों से आपके विषय में जो कुछ अनिष्ट-पापरूप चेष्टा हुई है उसे क्षमा कीजिए । आप कृतकृत्य हैं, अतिशय पूज्यता को प्राप्त हुए आपके लिए हमारा नमस्कार है ॥23 ॥इस प्रकार महामुनिराज अतिवीर्य से कहकर तथा अंजलि सहित प्रदक्षिणा देकर उन्हीं से संबंध रखने वाली कथा करता हुआ भरत पर्वत से नीचे उतरा ॥24॥ तदनंतर हजारों सामंत जिसके साथ थे तथा जो विभवरूपी समुद्र के बीच में गमन कर रहा था ऐसा भरत हस्तिनी के पृष्ठ पर सवार हो अयोध्या के लिए वापस चला ॥25 ॥बड़ी भारी सेना और सामंतों के बीच में स्थित भरत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अन्य द्वीपों के मध्य में स्थित जंबूद्वीप ही हो ॥26 ॥भरत प्रसन्न चित्त से इस प्रकार विचार करता जाता था कि जिन्होंने अपने जीवन का भी लोभ छोड़कर हमारा इष्ट किया ऐसी लोगों को अनुरंजित करने वाली वे नर्तकियाँ कहां गयी होंगी? ॥27॥ राजा अतिवीर्य के सामने हमारी परम स्तुति कर उन नर्तकियों ने जो काम किया । अहो ! वह बड़े आश्चर्य की बात है ॥28॥ अथवा समस्त संसार में स्त्रियों की ऐसी शक्ति कहाँ है ? निश्चय से यह कार्य जिनशासन को देवियों ने किया है । तदनंतर जो नाना प्रकार के धान्य से युक्त पृथिवी को देख रहा था, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में व्याप्त थी, जो परम प्रभाव को धारण कर रहा था और जो उत्कृष्ट अभ्युदय से युक्त था ऐसे भरत ने शत्रुघ्न के साथ अयोध्या में प्रवेश किया ॥29-31 ॥वहाँ विजयसुंदरी के साथ प्रीति को धारण करता हुआ भरत सुलोचना सहित मेघस्वर (जयकुमार) के समान सुख से रहने लगा ॥32॥

अथानंतर सब लोगों को आनंद उत्पन्न करते हुए राम-लक्ष्मण कुछ समय तक तो राजा पृथिवीधर के नगर में रहे फिर जानकी के साथ सलाह कर आगे का कार्य निश्चित करते हुए इच्छित स्थान पर जाने के लिए उद्यत हुए ॥33-34॥ तदनंतर जो सुंदर लक्षणों से युक्त थी और आंसुओं से भीगे चंचल कनीनिका वाले नेत्र धारण कर रही थी ऐसी वनमाला लक्ष्मण से बोली कि हे प्रिय ! यदि मुझ मंदभाग्या को तुम्हें अवश्य ही छोड़ना था तो पहले ही मरने से क्यों बचाया था सो कहो ॥35-36 ॥तब लक्ष्मण ने कहा कि हे भद्रे ! हे प्रिये ! हे वरानने! विषाद को प्राप्त मत होओ । मैं बहुत ही थोड़े समय बाद फिर आ जाऊँगा ॥37 ॥हे उत्तम विलासों को धारण करने वाली प्रिये ! यदि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास वापस न आऊँ तो सम्यग्दर्शन से हीन मनुष्य जिस गति को प्राप्त होते हैं उसी गति को प्राप्त होऊं ॥38॥ हे प्रिये ! यदि मैं तुम्हारे पास न आऊँ तो साधुओं की निंदा करनेवाले अहंकारी मनुष्यों के पाप से लिप्त होऊँ ॥39॥ हे प्राणवल्लभे ! हमें पिता के वचन की रक्षा करनी है और बिना कुछ विचार किये दक्षिण समुद्र के तट जाना है ॥40॥ वहाँ मलयाचल की उपत्यका में जाकर उत्तम भवन बनाऊंगा और फिर तुम्हें ले जाऊँगा । हे सुंदर जाँघों वाली प्रिये ! तब तक धैर्य धारण करो ॥41 ॥इस प्रकार उत्तम शब्दों से युक्त शपथों के द्वारा वनमाला को शांत कर लक्ष्मण राम के पास जा पहुंचे ॥42॥

तदनंतर जब सब लोग सो गये तब किसी के बिना जाने ही राम लक्ष्मण और सीता के साथ नगर से निकलकर आगे के लिए चल पड़े ॥43॥ जब प्रभात हुआ तब नगर को उनसे रहित देख समस्त जन परम शोक को प्राप्त हुए तथा बड़े कष्ट से शरीर को धारण कर सके ॥44॥ वनमाला भी घर को लक्ष्मण से रहित देख बहुत शोक को प्राप्त हुई तथा लक्ष्मण के द्वारा की हुई शपथों का आश्रय ले जीवित रही ॥45॥ तदनंतर महान् धैर्य के धारक राम-लक्ष्मण पृथ्वी पर विहार करते हुए परम आनंद को प्राप्त हुए । उन्हें देख लोगों को आश्चर्य उत्पन्न होता था ॥46 ॥वे तरुण स्त्री लताओं के मन और नेत्ररूपी पल्लवों को कामरूपी तुषार से जलाते हुए धीरे-धीरे विहार करते थे ॥47॥ हे सखि ! इन दोनों ने किस पुण्यात्मा का कुल अलंकृत किया है ? वह कौनसी भाग्यशालिनी माता है जिसने इन दोनों को जन्म दिया है ? ॥48॥ यह स्त्री धन्य है जो इनके साथ पृथ्वी पर विहार कर रही है । यदि ऐसा रूप देवों का होता है तो निश्चित ही ये देव हैं ॥49॥ ये सुंदर पुरुष कहाँ से आये हैं ? कहाँ जा रहे हैं ? और क्या करना चाहते हैं इनको यह ऐसी रचना कैसे हो गयी ? ॥50॥ जिनके नेत्रकमल के समान तथा मुख चंद्रमा के तुल्य है ऐसे दो पुरुष एक स्त्री के साथ इस मार्ग से जा रहे थे सो हे सखियो ! तुमने देखे ॥51॥ हे मुग्धे ! ये अतिशय सुशोभित व्यक्ति मनुष्य हों अथवा देव, तू निर्लज्ज होकर शोक किसलिए धारण कर रही है ? ॥52॥ अयि मूर्खे ! ऐसे मनुष्यों का रूप बहुत भारी पुण्य के बिना चिरकाल तक देखने को प्राप्त नहीं होता ॥53 ॥इसलिए लौट जा, स्वस्थ हो, नीचे खिसके हुए वस्त्र को संभाल और अत्यधिक पसारे हुए नेत्रों को खेद मत प्राप्त करा ॥54॥अरी बाले ! नेत्र और मन को चुराने वाले इन कठोर पुरुषों के देखने से क्या प्रयोजन है ? धीरज धर ॥55 ॥इस प्रकार स्त्री जनों को वार्तालाप करने में तत्पर करते हुए शुद्ध चित्त के धारक वे दोनों स्वेच्छा से विहार कर रहे थे ॥56॥ इस प्रकार नाना देशों से व्याप्त पृथिवी में विहार करते हुए वे क्षेमांजलि नाम के परम सुंदर नगर में पहुंचे ॥57 ॥उस नगर के निकट ही वे मेघ समूह के समान सुंदर एक उद्यान में सुख पूर्वक इस प्रकार ठहर गये जिस प्रकार कि सौमनस वन में देव ठहर जाते हैं ॥58॥ वहाँ लक्ष्मण के द्वारा तैयार किया उत्तम भोजन ग्रहण कर राम ने सीता के साथ दाखों का मधुर पेय दिया ॥59 ।।

तदनंतर बड़े-बड़े महलरूपी पर्वतों की पंक्तियों से जिनके नेत्र हरे गये थे ऐसे लक्ष्मण विनयपूर्वक राम से आज्ञा प्राप्त कर इच्छानुसार क्षेमांजलि नगर देखने के लिए चले । उस समय वे उत्तम मालाएँ और पीत वस्त्र धारण किये हुए थे तथा सुंदर विलास से सहित थे ॥60-61 ॥नाना लताओं से आलिंगित उत्तमोत्तम वनों, स्वच्छ जल से भरी तथा शुक्ल मेघों के समान उज्ज्वल तटों से शोभित नदियों, नाना प्रकार की धातुओं से रंग-बिरंगे क्रीड़ा-पर्वतों, ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर, कुओं, वापिकाओं, सभाओं, पानीयशालाओं और अनेक प्रकार के मनुष्यों को देखते हुए उन्होंने नाना प्रकार के व्यापार-कार्यों से युक्त नगरी में बड़ी धीरता से प्रवेश किया । लोग उन्हें बड़े आश्चर्य से देख रहे थे ॥62-64॥ जब ये नगर के प्रधान मार्ग में पहुँचे तब उन्होंने किसी नगरवासी से निश्चिंतता पूर्वक कहा हुआ यह शब्द सुना ॥65॥ वह किसी से कह रहा था कि अरे सुनो-सुनो, संसार में ऐसा कौन शूरवीर पुरुष है जो राजा के हाथ से छोड़ी हुई शक्ति को सहकर जितपद्मा कन्या को ग्रहण करेगा? ॥66॥यदि राजा यह भी कहे कि मैं स्वर्ग का राज्य देता हूँ तो भी शक्ति से संबंध रखने वाली इस कथा से क्या प्रयोजन है ? ॥67॥यदि कोई शक्ति झेलने के लिए सम्मुख हुआ और प्राणों से रहित हो गया तो यह कन्या और स्वर्ग का राज्य उसका क्या कर लेगा ? ॥68॥ संसार में समस्त वस्तुओं से जीवन ही प्यारा है और उसी के लिए अन्य सब प्रयत्न है यह कौन नहीं जानता है ? ॥69 ।।

अथानंतर इस प्रकार के शब्द सुनकर लक्ष्मण ने कौतुकवश किसी मनुष्य से पूछा कि हे भद्र ! यह जितपद्मा कौन है ! जिसके लिए लोग इस प्रकार वार्ता कर रहे हैं ॥70 ॥इसके उत्तर में उस मनुष्य ने कहा कि जिसकी कीर्ति समस्त संसार में व्याप्त है तथा जो अपने आपको अति पंडित मानती है ऐसी इस कालकन्या को क्या तुम नहीं जानते ? ॥71 ॥यह इस नगर के राजा शत्रुंदमन को कनकाभा रानी से उत्पन्न गुणवती पुत्री है ॥72 ॥चूंकि इसने मुख को कांति से कमल को अथवा सर्व शरीर से लक्ष्मी को जीत लिया है इसलिए यह जितपद्मा कहलाती है ॥73 ॥नवयौवन से संपन्न तथा कलारूपी अलंकारों को धारण करने वाली यह कन्या पुंवेदधारी देवों से भी द्वेष करती है फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ꠰꠰74॥ जो शब्द व्याकरण को दृष्टि से पुर्लिंग होता है यह उसका भी उच्चारण नहीं करती है । इसका जितना भी व्यवहार है वह सब पुरुषों के प्रयोजन से रहित है ॥75 ॥सामने जो कैलास पर्वत के समान बड़ा भवन देख रहे हो उसी में यह सैकड़ों प्रकार की सेवाओं से लालित होती हुई रहती है ॥76॥जो मनुष्य इसके पिता के हाथ से छोड़ी हुई शक्ति को सहन करेगा उसे ही यह वरेगी ऐसी कठिन प्रतिज्ञा इसने ले रखी है ॥77॥

यह सुनकर लक्ष्मण क्रोध, गर्व और आश्चर्य से युक्त हो विचार करने लगे कि वह कन्या कैसी होगी जो इस प्रकार की चेष्टा करती है ॥78 ॥दुष्ट चेष्टा से युक्त तथा गर्व से भरी इस कन्या को देखूं तो सही । अहो! इसने यह बड़ा कठोर अभिप्राय कर रखा है ॥79॥इस प्रकार विचार करते हुए लक्ष्मण महावृषभ की नाईं सुंदर चाल से चलकर मनोहर राजमार्ग में आगे बढ़े । वहाँ वे विमान के समान आभा वाले तथा चंद्रमा के समान धवल उत्तमोत्तम भवनों, मेघों के समान हाथियों, चंचल चमरों से सुशोभित घोड़ों, छपरियों और नृत्यशालाओं को धीमी दृष्टि से देखते जाते थे ॥80-81 ॥तदनंतर जो नाना प्रकार के नियूहों से युक्त था, रंग बिरंगी ध्वजाओं से सुशोभित था, तथा जो सफ़ेद मेघावली के समान था ऐसे राजा शत्रुंदम के महल पर पहुँचे ॥42॥ महल का द्वार सैकड़ों देदीप्यमान बेलबूटों से सहित था, ऊँचे प्राकार से युक्त था, और इंद्रधनुष के समान रंग-बिरंगे तोरणों से सुशोभित था ॥83॥ तदनंतर जो शस्त्रधारी पहरेदारों के समूह से आवृत था, नाना प्रकार के उपहारों से युक्त था और जहाँ बाहर निकलते तथा भीतर प्रवेश करते हुए सामंतों की बड़ी भीड़ लग रही थी ऐसे द्वार में लक्ष्मण प्रवेश करने लगे तो द्वारपाल ने सौम्यवाणी से कहा कि हे भद्र ! तू कौन है जो बिना आज्ञा ही राजमहल में प्रवेश कर रहा है ॥84-85॥ तब लक्ष्मण ने कहा कि मैं राजा के दर्शन करना चाहता हूँ सो राजा को खबर दे दो । यह सुन अपने स्थान पर दूसरे को नियुक्त कर द्वारपाल ने भीतर जाकर राजा से निवेदन किया कि ।।86॥ हे महाराज ! जो आपके दर्शन करना चाहता है, जिसकी प्रभा नील कमल के समान है, जिसके नेत्र कमलों के समान सुशोभित हैं तथा जो अत्यंत सौम्य है ऐसा एक शोभा संपन्न पुरुष द्वार पर खड़ा है ॥87 ॥मंत्री के मुख की ओर देख राजा ने कहा कि प्रवेश करे । तदनंतर द्वारपाल के कहने पर लक्ष्मण ने भीतर प्रवेश किया ॥88॥ यद्यपि वह सभा गंभीर थी तो भी जिस प्रकार चंद्रमा को देखकर समुद्र क्षोभ को प्राप्त होता है उसी प्रकार वह सभा भी सुंदर आकार के धारक लक्ष्मण को देखकर क्षोभ को प्राप्त हो गयी ॥89 ॥प्रणाम रहित, विशाल कंधों के धारक तथा अतिशय देदीप्यमान लक्ष्मण को देखकर जिसका हृदय कुछ-कुछ विकृत हो रहा था ऐसे राजा शत्रुंदम ने पूछा कि तू कहाँ से आया है ? कौन है ? और किस लिए आया है ? इसके उत्तर में वर्षा ऋतु के मेघ के समान गंभीर ध्वनि को धारण करने वाले लक्ष्मण ने कहा ॥90-91॥ कि मैं राजा भरत का सेवक हूँ, पृथ्वी पर घूमने में निपुण हूँ, सब विषयों का पंडित हूँ और तुम्हारी पुत्री का मान भंग करने के लिए आया हूँ ।।92॥ जिसके मान रूपी सींग अभग्न हैं ऐसी जो दुष्ट कन्यारूपी मरकनी गाय तुमने पाल रक्खी है वह सब लोगों को दुःख देने वाली है ॥93॥ राजा शत्रुंदम ने कहा कि जो मेरे द्वारा छोड़ी हुई शक्ति को सहन करने में समर्थ है ऐसा वह कौन पुरुष है जो जितपद्मा का मान खंडित करने वाला हो ॥94॥ लक्ष्मण ने कहा कि मैं एक शक्ति को क्या ग्रहण करूँ ? तू पूरी सामर्थ्य के साथ मुझ पर पांच शक्तियां छोड़ ॥95॥ यहाँ जब तक दोनों अहंकारियों के बीच इस प्रकार का विवाद चल रहा था वहाँ तब तक राजमहल के सधन झरोखे स्त्रियों के मुखों से आच्छादित हो गये 196॥ जितपद्मा भी लक्ष्मण को देख मोहित हो गयी और पुरुषों के साथ द्वेष को छोड़कर छपरी पर आ बैठी तथा इशारा देकर लक्ष्मण को मना करने लगी ॥97॥तब हर्ष से भरे लक्ष्मण ने भयभीत तथा हाथ जोड़कर बैठी हुई जितपद्मा को इशारा देकर जताया कि भय मत करो ॥98॥और राजा से कहा कि अरे कातर ! अब भी क्या प्रतीक्षा कर रहा है ? शत्रुंदम नाम रखे फिरता है शक्ति छोड़ और पराक्रम दिखा ॥99॥ इस प्रकार कहने पर राजा ने कुपित हो अच्छी तरह कमर कसी और जलती हुई अग्नि के समान एक शक्ति उठायी ॥100॥ तदनंतर यदि मरना ही चाहता है तो ले झेल यह कहकर भौंह को धारण करने वाले विधि-विधान के ज्ञाता राजा ने आलीढ़ आसन से खड़ा होकर वह गदा छोड़ दी ॥101॥लक्ष्मण ने बिना किसी यत्न के ही दाहिने हाथ से वह शक्ति पकड़ ली सो ठीक ही है क्योंकि बटेर के पकड़ने में गरुड़ का कौन-सा बड़ा मान होता है ? ॥102॥ दूसरी शक्ति दूसरे हाथ से तथा तीसरी चौथी शक्ति दोनों बगलों में धारण कर पुलकते हुए लक्ष्मण उनसे चार दाँतों को धारण करने वाले ऐरावत हाथी के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥103॥अथानंतर अत्यंत कुपित सांप को फण की नाईं जो पाँचवीं शक्ति आयी उसे लक्ष्मण ने दाँतों के अग्रभाग से उस प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार कि मृगराज मांस की डली को पकड़ रखता है ॥104॥ तदनंतर आकाश में खड़े देवों के समूह पुष्प बरसाने लगे, नृत्य करने लगे तथा हर्ष से शब्द करते हुए दुंदुभि बाजे बनाने लगे ॥105॥

अथानंतर शत्रुंदम ! अब तू मेरी शक्ति झेल इस प्रकार लक्ष्मण के कहने पर सब लोग अत्यंत भय को प्राप्त हुए ॥106॥ राजा शत्रुंदम लक्ष्मण को अक्षत शरीर देख विस्मय में पड़ गया और लज्जा से उसका मुख नीचा हो गया ॥107॥ तदनंतर मंद मुसकान की छाया से जिसका मुख नीचे की ओर हो रहा था ऐसा जितपद्मा रूप तथा आचरण से खिंचकर लक्ष्मण के पास आयी ॥108॥ शक्तियों को धारण करने वाले लक्ष्मण के पास वह कृशांगी, इस तरह अत्यंत सुशोभित हो रही थी जिस तरह कि वज्र के धारक इंद्र के पास खड़ी नतमुखी इंद्राणी सुशोभित होती है ॥109॥ लक्ष्मण का जो हृदय बड़े-बड़े संग्रामों में भी कभी कंपित नहीं हुआ था वह जितपद्मा के नूतन समागम से कंपित हो गया ॥110॥ तदनंतर लज्जा के भार से जिसके नेत्र नीचे हो रहे थे ऐसी जितपद्मा ने पिता तथा अन्य अनेक राजाओं के सामने लज्जा छोड़कर लक्ष्मण का वरण किया ॥111॥ तत्काल ही विनय से जिसका शरीर नम्रीभूत हो रहा था ऐसे लक्ष्मण ने राजा से कहा कि हे माम ! लड़कपन के कारण मैंने जो खोटी चेष्टा की है उसे आप क्षमा करने के योग्य हैं ॥112 ॥बालकों के विपरीत कार्य अथवा विरुद्ध वचनों से आप जैसे महागंभीर पुरुष विकार भाव को प्राप्त नहीं होते ॥113॥

तदनंतर हर्ष और संभ्रम से सहित राजा शत्रुंदम ने भी हाथी की सूंड के समान लंबी तथा सुपुष्ट भुजाओं से लक्ष्मण का आलिंगन किया ॥114॥ और कहा कि हे भद्र ! जिस मैंने भयंकर युद्धों में मदस्रावी कुपित हाथियों को क्षणभर में जीता था वह मैं आज तुम्हारे द्वारा जीता गया ॥115॥ जिसने गोल काली चट्टानों वाले पर्वत के समान कांति के धारक बड़े-बड़े जंगली हाथियों को मदरहित किया था वह मैं आज मानो अन्य ही हो गया हूँ ॥116॥ धन्य तुम्हारी अनुद्धतता और धन्य तुम्हारी अद्भुत विनय । अहो शोभनीक ! तुम्हारे गुण तुम्हारे अनुरूप ही हैं ॥117 ।꠰ इस प्रकार सभा में बैठा राजा शत्रुंदम जब लक्ष्मण के गुणों का वर्णन कर रहा था तब लक्ष्मण लज्जा के कारण ऐसे हो गये मानो क्षणभर के लिए कहीं चले ही गये हों ॥118॥

अथानंतर राजा की आज्ञा से मेघसमूह की गर्जना के समान विशाल शब्द करने वाली भेरियां बजायी गयीं और हाथियों की चिंघाड़ का संशय उत्पन्न करने वाले शंख फूंके गये ॥119॥ इच्छानुसार धन दिया जाने लगा और समस्त नगर को क्षोभित करने में समर्थ बहुत भारी आनंद प्रवृत्त हुआ ॥120॥ तदनंतर राजा ने लक्ष्मण से कहा कि हे श्रेष्ठ पुरुष ! मैं तुम्हारे साथ पुत्री का पाणिग्रहण देखना चाहता हूँ ॥121॥ इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि इस नगर के निकटवर्ती प्रदेश में मेरे बड़े भाई विराजमान हैं सो उनसे पूछो वही ठीक जानते हैं ॥122॥ तब लक्ष्मण सहित जितपद्मा को रथ पर बैठाकर स्त्रियों तथा भाई-बंधुओं से सहित राजा शत्रुंदम बड़े आदर के साथ राम के समीप चला ॥123 ॥तदनंतर क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र को गर्जना के समान जोरदार शब्द सुनकर और उठे हुए विशाल धूलिपटल को देखकर घुटनों पर बार-बार हाथ रखती हुई सीता बड़े कष्ट से उठी और घबड़ाकर स्खलित वाणी में राम से बोली कि हे राघव ! जान पड़ता है लक्ष्मण ने कोई उद्धत चेष्टा की है । यह दिशा अत्यंत आकुल दिखाई देती है इसलिए सावधान होओ और जो कुछ करना हो सो करो ॥124-126 ॥तब सीता का आलिंगन कर हे देवि ! भयभीत मत होओ यह कहते तथा शीघ्र ही धनुष पर दृष्टि डालते हुए राम उठे ॥127 ॥इतने में ही उन्होंने विशाल नर-समूह के आगे उच्च स्वर से मंगल गीत गाने वाली स्त्रियों का समूह देखा ॥128 ॥वह स्त्रियों का समूह जब क्रम-क्रम से पास आया तब सुंदर स्त्रियों के शरीर से उत्पन्न होने वाले मनोहर हाव-भाव दिखाई दिये ॥129॥ तदनंतर जिनके नूपुरों की जोरदार झनकार फैल रही थी ऐसी स्त्रियों के समूह को नृत्य करता देख राम निश्चिंत हो सीता के साथ पुनः बैठ गये ॥130॥

अथानंतर जिनके हाथों में मंगल द्रव्य थे, जो सब प्रकार के अलंकारों से अलंकृत थीं, अतिशय मनोहर थीं और जिनके नेत्र मद से फूल रहे थे ऐसी स्त्रियाँ राम के पास आयीं ॥111 ॥कमल के समान मुख को धारण करने वाले लक्ष्मण जितपद्मा के साथ रथ से उतरकर शीघ्र ही राम के चरणों में जा पड़े ॥132 ॥तदनंतर राम और सीता को प्रणाम कर लजाते हुए लक्ष्मण राम से कुछ दूर हटकर विनयपूर्वक बैठ गये ॥133॥ शत्रुंदम आदि राजा भी क्रम-क्रम से राम तथा सीता को नमस्कार कर यथा स्थान बैठ गये ॥134 ॥कुशल समाचार पूछकर सब वार्तालाप करते हुए सुख से बैठे तथा राजाओं ने आनंद-नृत्य किया ॥135॥ तदनंतर परम संपदा से युक्त तथा हर्ष से भरे राम लक्ष्मण और सीता ने रथ पर सवार हो नगर में प्रवेश किया ॥136 ॥वहाँ राजमहल में पहुंचे । वह राजमहल एक सरोवर के समान जान पड़ता था क्योंकि सौंदर्य रूपी केशर से युक्त स्त्रियों रूपी नील कमलों से वह व्याप्त था और शब्द करते हुए आभूषण रूपी पक्षियों से युक्त था ॥137॥ सत्यव्रत रूपी सिंह की गर्जना के भय से जिनके चित्त अत्यंत संकुचित रहते थे, जो कुमार लक्ष्मी से सहित थे, राजा शत्रुंदम जिनको इच्छानुसार सब सेवा करता था, जो महा सुख से सहित थे तथा जो समस्त लोगों के चित्त को आनंद देने वाले थे ऐसे नर श्रेष्ठ राम लक्ष्मण उस राजमहल में कुछ समय तक सुख से रहे ॥138-139।।

तदनंतर राम अर्ध रात्रि के समय सीता के साथ इच्छानुसार राजमहल से बाहर निकल पड़े और लक्ष्मण भी वनमाला के समान विरह से भयभीत अतिशय दुःखी जितपद्मा को प्रिय वचनों द्वारा आदरपूर्वक सांत्वना दे राम के साथ चले । इन सबके जाने से नगरवासियों का धैर्य जाता रहा ॥140-141॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिन्होंने जंमांतर में बहुत भारी पुण्य का संचय किया है ऐसे सर्व प्राणियों को प्रिय पुरुष, नाना प्रकार के उत्तम कार्य करते हुए जिस-जिस देश में जाते हैं उसी-उसी देश में उन्हें बिना किसी चिंता के समस्त इंद्रियों के सुख देने में निपुण मधुर आहार आदि की सब ऐसी अनुपम विधि मिलती है कि लोक में जो दूसरों के लिए दुर्लभ रहती है ॥142॥ मुझे इन लोगों से प्रयोजन नहीं है । ये दुष्ट नाश को प्राप्त हों, इस प्रकार भोगों से अतिशय द्वेष रखने वाला पुरुष यद्यपि सर्वदा इन भोगों की निंदा करता है और इन्हें छोड़कर पर्वत के शिखर पर भी चला जाता है तो भी अपनी कांति से सूर्य को जीतने वाला पुण्यात्मा पुरुष समस्त गुणों की प्राप्ति कराने में समर्थ इन भोगों के साथ सदा समागम को प्राप्त होता है अर्थात् पुण्यात्मा मनुष्य को इच्छा न रहते हुए भी सब प्रकार की सुख सामग्री सर्वत्र मिलती है ॥143॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में जितपद्मा का वर्णन करने वाला अड़तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥38॥