कथा :
अथानंतर जिनकी शरीर-स्थिति के समस्त साधन देवोपनीत थे, ऐसे सीता सहित राम लक्ष्मण रमण करते हुए वन को उन भूमियों में आये जो नाना प्रकार के वृक्षों से सहित थी, जिन में नाना फूलों को सुगंधि फैल रही थी, जो लतामंडपों से सहित थीं तथा मृगगण जिन में सुख से निवास करते थे ॥1-2॥ कहीं राम, मूंग के समान कांति वाले पल्लव को तोड़कर तथा उसका कर्णाभरण बनाकर यह ठीक रहेगा इस प्रकार कहते हुए सीता के कान में पहिनाते थे, तो कहीं किसी वृक्ष पर लटकती लता पर सीता को बैठाकर बगल में दोनों ओर खड़े हो राम-लक्ष्मण उसे झूला झुलाते थे ॥3-4॥ कहीं सघन पत्तों वाले द्रुम-खंड में बैठकर मनोहर-मनोहर कथाओं से उसका मनोविनोद करते थे ॥5॥ कहीं सीता राम से कहती थी कि यह मनोहर लता देखो, कहीं कहती थी कि यह मनोहर पल्लव देखो और कहीं कहती थी कि यह मनोहर वृक्ष देखो ॥6॥ कहीं मुख की सुगंधि के लोभी भ्रमरों के समूह सीता को पीड़ित करते थे, सो ये दोनों भाई बड़ी कठिनाई से उसकी रक्षा करते थे ॥7॥ जिस प्रकार देव स्वर्ग के वनों में विहार करते हैं उसी प्रकार शुभ चेष्टाओं के धारक दोनों भाई सीता को साथ लिये नाना प्रकार के वनों में धीरे-धीरे विहार करते थे ॥8॥ नाना मनुष्यों से उपभोग्य देशों में दृष्टि डालते हुए वे धीर-वीर क्रम से वंशस्थाति नामक नगर में पहुंचे ॥9॥ सीता के साथ भ्रमण करते हुए उन पूण्यानुगामी महापुरुषों को यद्यपि बहुत काल हो गया था तो भी उतना बड़ा काल उन्हें अंशमात्र भी दुःख देने वाला नहीं हुआ था ॥10॥ उस नगर के समीप ही उन्होंने वंशधर नाम का पर्वत देखा जो बाँसों के समूह से अत्यंत व्याप्त था, पृथिवी को भेदकर ही मानो ऊपर उठा था, ऊँचे-ऊंचे शिखरों की कांति से जो मानो सदा संध्या को धारण कर रहा था और निर्झरनों के छींटों से ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो ॥11-12 ॥उन्होंने यह भी देखा कि प्रजा के लोग नगर से निकल-निकलकर कहीं अन्यत्र जा रहे हैं । तब राम ने किसी एक मनुष्य से पूछा कि हे भद्र! यह बहुत भारी भय किस कारण से है ? ॥13 ॥इसके उत्तर में उस मनुष्य ने कहा कि इस पर्वत के शिखर पर रात्रि के समय शब्द उठते हुए आज तीसरा दिन है ॥14 ॥जो शब्द पर्वत पर होता है वह हमने पहले कभी नहीं सुना, उसकी प्रतिध्वनि सर्वत्र गूंज उठती है तथा वह अत्यंत भयंकर है । किस व्यक्ति का शब्द है ? यह बहुविज्ञानी वृद्ध लोग भी नहीं जानते हैं ॥15॥ इस शब्द से मानो समस्त पृथिवी हिल उठती है, दशों दिशाएँ मानो शब्द करने लगती हैं, सरोवर मानो इधर-उधर फिरने लगते हैं और वृक्ष मानो उखड़ने लगते हैं ॥16॥ रौद्रता में नरक के शब्द की तुलना करनेवाले इस भारी शब्द से समस्त लोगों के कान ऐसे फटे पड़ते हैं मानो लोहे के घनों से ही ताड़ित होते हों ꠰꠰17॥जान पड़ता है कि रात्रि के समय हम लोगों का वध करने के लिए उद्यत हुआ यह कोई लोक का कंटक क्रीड़ा करता फिरता है ॥18 । ये लोग उस शब्द के भय से रात्रि प्रारंभ होते ही भाग जाते हैं और प्रभात होने पर पुनः वापिस आ जाते हैं॥19॥यहाँ से कुछ अधिक एक योजन चलकर यह शब्द इतना हल का हो जाता है कि लोग परस्पर का वार्तालाप सुन सकते हैं तथा कुछ आराम प्राप्त कर सकते हैं ॥20॥ यह सुनकर सीता ने राम-लक्ष्मण से कहा कि जहाँ ये सब लोग जा रहे हैं वहाँ हम लोग भी चलें ॥21॥ नीतिशास्त्र के ज्ञाता पुरुष देश काल को समझकर पुरुषार्थ करते हैं, इसलिए कभी आपत्ति नहीं आती ॥22॥ राम-लक्ष्मण ने घबड़ायी हुई सीता से हँसकर कहा कि तुझे बहुत भय लग रहा है इसलिए जहाँ ये लोग जाते हैं वहाँ तू भी चली जा ॥23 ॥प्रभात होने पर इन लोगों के साथ हम दोनों को खोजती हुई निर्भय हो इस पर्वत के समीप आ जाना ॥24॥इस मनोहर पर्वत पर यह अत्यंत भयंकर शब्द किसका होता है ꠰ यह आज हम देखेंगे ऐसा निश्चय किया है ॥25॥ ये दीन लोग बाल-बच्चों से व्याकुल तथा पशुओं से सहित हैं, इसलिए ये तो भयभीत होंगे ही इनका भला कौन कर सकता है ? ॥26॥ तब जैसे ज्वर चढ़ रहा हो ऐसी कांपती हुई आवाज में सीता ने कहा कि हमेशा आप लोगों की हठ केंकड़े की पकड़ के समान विलक्षण ही है उसे दूर करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥27॥ ऐसा कहती हुई वह राम के पीछे और लक्ष्मण के आगे खड़ी हो चलने लगी ॥28 ।꠰ जिसके चरणकमल खेदखिन्न हो गये थे, ऐसी सीता पहाड़ पर चढ़ती हुई इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो मेघ के शिखर पर चंद्रमा की निर्मल रेखा ही है ॥29॥राम और लक्ष्मण के बीच में खड़ी सीता चंद्रकांतमणि और नीलमणि के मध्य में स्थित स्फटिकमणि की शलाका के समान पर्वत का आभूषण हो रही थी ॥30॥जहाँ कहीं सीता को गोल चट्टानों से नीचे गिरने का भय होता था वहाँ वे दोनों उसे ऊपर उठाकर ले जाते थे और जहाँ गिरने का भय नहीं होता था वहाँ निश्चिंततापूर्वक हाथ का सहारा देकर ले जाते थे ॥31॥ इस प्रकार ऊंची-नीची चट्टानों का समूह पार कर भय से रहित राम-लक्ष्मण सीता के साथ पर्वत के चौड़े शिखर पर जा पहुँचे ॥32॥ अथानंतर उन्होंने ऊपर जाकर ऐसे दो मुनि देखे जो उत्तमध्यान में आरूढ़ थे, जिनकी लंबी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, जो अत्यंत दुःसाध्य चतुर्मुखी प्रतिमा को सिद्ध कर रहे थे, परम तेज से युक्त थे, समुद्र के समान गंभीर थे पर्वत के समान स्थिर थे, शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानने वाले थे, मोह से रहित थे, दिगंबर-मुद्रा को धारण करने वाले थे, कांति के सागर थे, नूतन तारुण्य से युक्त थे, उत्तम आकार के धारक थे और आगमोक्त आचरण करने वाले थे ॥33-35॥आश्चर्य को प्राप्त हुए वे तीनों अशुभ कर्मों के आश्रय का परित्याग कर इस प्रकार विचार करने लगे कि संसार में प्राणियों की समस्त चेष्टाएँ निःसार तथा दुःख के कारण हैं ॥36 ॥मित्र, धन, स्त्री, पुत्र, और भाई-बंधु आदि सभी सुख-दुःख रूप हैं, एक धर्म ही सुख का कारण है ॥37॥ तदनंतर जो भक्ति से युक्त थे, जिन्होंने हाथ जोड़कर मस्तक पर लगा रक्खे थे, जो परम संतोष को धारण कर रहे थे, और विनय से जिनके शरीर नम्रीभूत हो रहे थे, ऐसे वे तीनों उक्त मुनिराजों के पास गये ॥38॥ दर्शन करते ही उन्होंने, जो अत्यंत भयंकर थे, इधर-उधर चल रहे थे विकट शब्द कर रहे थे मसले हुए अंजन के समान कांति वाले थे, तथा जिनकी जीभें लपलपा रही थीं ऐसे साँपों से और जिन्होंने अपनी पूंछ ऊपर उठा रक्खी थी, जो अत्यंत भयंकर थे, रात-दिन एक-दूसरे से सटकर चल रहे थे, नाना रंग के थे, एवं बहुत मोटे थे, ऐसे बिच्छुओं से उन दोनों मुनियों को घिरा देखा ॥39-40॥ उक्त प्रकार के मुनियों को देख, राम भी लक्ष्मण के साथ सहसा भय को प्राप्त हुए तथा क्षणभर के लिए निश्चल रह गये ॥41॥ सीता भयभीत हो पति से लिपट गयी, तब राम ने क्षण एक में भय छोड़कर सीता से कहा कि डरो मत ॥42॥ तदनंतर राम-लक्ष्मण ने धीरे-धीरे पास जाकर जो दूर हटाने पर भी बार-बार वहीं लौटकर आते थे ऐसे सांप, बिच्छुओं को धनुष के अग्रभाग से दूर किया ॥43॥ अथानंतर भक्ति से भरी सीता ने निर्झर के जल से देर तक उन मुनियों के पैर धोकर मनोहर गंध से लिप्त किये ॥44॥ तथा जीवन को सुगंधित कर रहे थे एवं लक्ष्मण ने जो तोड़कर दिये थे, ऐसे निकटवर्ती लताओं के फूलों से उनकी खूब पूजा की ॥45॥ तदनंतर अंजलिरूपी कमल को बोड़ियों से जिनके ललाट शोभायमान थे तथा जो विधि-विधान के जानने में निपुण थे ऐसे उन सबने भक्तिपूर्वक मुनिराज को वंदना की ॥46 ॥अत्यंत उत्तम तथा मधुर अक्षरों में गाते हुए राम ने मनोहर स्त्री के समान वाणी को गोद में रखकर बजाया ॥47॥ इनके साथ ही लक्ष्मण ने भी बड़े आदर से तत्त्वपूर्ण गान गाया । उस समय लक्ष्मण, लक्ष्मीरूपी लता से आलिंगित वृक्ष के समान जान पडते थे और उनका मधुर शब्द कोयल की मीठी तान के समान मालूम होता था ॥48॥ वे गा रहे थे कि जो महायोग के स्वामी हैं, धीर-वीर हैं तथा उत्तम चेष्टाओं से सहित हैं, उत्तम भाग्य के धारक जिन मुनियों ने उपमा से रहित, अखंडित, तथा तीन लोक में प्रसिद्ध ‘अर्हत्’ यह उत्तम अक्षर प्राप्त कर लिया हैं । जिन्होंने ध्यानरूपी दंड के द्वारा महामोहरूपी शिलातल को तोड़ दिया है और जो धर्मानुष्ठान-धर्माचरण से रहित विश्व को दोन समझते हैं ऐसे साधु देवों के द्वारा भी मन से, शिर से तथा वचन से वंदनीय हैं ॥49-51॥ मान की विधि को जानने वाले राम-लक्ष्मण जव इस प्रकार के अक्षर गा रहे थे तब तिर्यंचों के भी चित्त कोमलता को प्राप्त हो गये थे ॥52॥ तदनंतर जो समस्त सुंदर नृत्यों के लक्षण जानती थी, मनोहर वेषभूषा से युक्त थी, हार माला आदि से अलंकृत थी, परमलीला से सहित थी, स्पष्टरूप से अभिनय दिखला रही थी, जिसकी बहुरूपी लताओं का भार अत्यंत सुंदर था, जो हाव-भाव आदि के दिखलाने में निपुण थी, लय बदलने के समय जिसके सुंदर स्तनों का मंडल कुछ ऊपर उठकर कंपित हो रहा था, जिसके चरण-कमलों का विन्यास शब्द रहित था; जिसकी एक जांच चल रही थी । जिसके शरीर की समस्त चेष्टाएँ संगीत शास्त्र के अनुरूप थीं, तथा जो भक्ति से प्रेरित थी, ऐसी सीता ने उस प्रकार नृत्य किया जिस प्रकार कि जिनेंद्र के जन्माभिषेक के समय सुमेरु पर श्रीदेवी ने किया था ॥53-56 ॥तदनंतर उपसर्ग से त्रस्त होकर ही मानो जब सूर्य अस्त हो गया और उसी के पीछे चंचल तेज को धारण करने वाली संध्या भी जब चली गयी तब नक्षत्र मंडल के प्रकाश को नष्ट करने वाला तथा नील मेघ के समान आभा वाला सघन अंधकार समस्त दिशाओं को व्याप्त करता हुआ उदित हुआ ॥57-58॥ उसी समय किसी का ऐसा विचित्र शब्द सुनाई दिया जो दिशाओं में परम क्षोभ उत्पन्न करने वाला था तथा जो आकाश को भेदन करता हुआ-सा जान पड़ता था ॥59॥ जिसके अग्रभाग में बिजलीरूपी ज्वाला प्रकाशमान थी, ऐसी लंबी धन-घटा से आकाश व्याप्त हो गया और लोक ऐसा जान पड़ने लगा मानो भय से व्याकुल हो कहीं चला ही गया हो ॥60॥ जिनके आकार अत्यंत भय उत्पन्न करने वाले थे तथा जिनके मुख दाढ़ों की पंक्ति से कुटिल थे, ऐसे भूतों के झुंड महा भयंकर अट्टहास करने लगे ॥61॥ राक्षस नीरस शब्द करने लगे, अमंगलरूप शृंगालियां अग्नि उगलती हुई शब्द करने लगी, सैकड़ों कलेवर भयंकर नृत्य करने लगे, ॥62॥मेघ, दुर्गंधित खून की बड़ी मोटी बूंदों से सहित मस्तक, वक्षःस्थल, भुजा तथा जंघा आदि अवयवों की वर्षा करने लगे ॥63॥जो हाथ में तलवार लिये थी जिसका शरीर अत्यंत क्रूर था, जिसके स्तन हिल रहे थे, जिसके ओठ अत्यंत लंबे थे, जो नग्न थी, जिसकी हड्डियों का समूह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था, जिसकी फूटी आंखें मांसखंड के समान थी, जिसने नरमुंड का सेहरा पहिन रखा था, जिसकी जीभ ऊपर की ओर उठकर ललाट का स्पर्श कर रही थी तथा जो मांस और रुधिर की वर्षा कर रही थी ऐसी डाकिनी दिखाई देने लगी ॥64-65॥ जिनके मुख सिंह तथा व्याघ्र के समान थे, जिनके नेत्र तपे हुए लोह चक्र के सदृश थे, जिनके हाथ में शूल विद्यमान थे, जो ओंठ को डस रहे थे, जिनके ललाट भौंहों से कुटिल थे, जिनकी आवाज अत्यंत कठोर थी, तथा जो नृत्य कर रहे थे ऐसे राक्षसों से भरा हुआ वहाँ का भूतल क्षोभ को प्राप्त हो गया और पर्वत की चट्टानें हिल उठीं ॥66-67॥ यह सब हो रहा था परंतु उन महामुनियों को इस व्यर्थ की चेष्टा का कुछ भी भान नहीं था, उस समय उनका ज्ञानोपयोग अंतरंग में शुक्लध्यान मय हो रहा था अथवा उन महामुनियों का ज्ञान कर्मों का क्षय करने वाले शुक्लध्यान से तन्मय हो रहा था ॥68॥अच्छे-अच्छे पुरुषों को भय उत्पन्न करने वाला ऐसा वृत्तांत देख सीता नृत्य छोड़ कांपती हुई पति से लिपट गयी ॥69 ॥तब राम ने कहा कि हे देवि ! हे शुभ मान से ! भयभीत मत हो ! सब प्रकार का भय दूर करने वाले मुनियों के चरणों का आश्रय ले बैठ जाओ ॥70॥यह कहकर राम ने सीता को मुनिराज के चरणों के समीप बैठाया और स्वयं लक्ष्मण कुमार के साथ, युद्ध के लिए तैयार हो गये ॥71 ॥तदनंतर सजल मेघ के समान गरजने वाले एवं महा कांति के धारक राम लक्ष्मण ने अपने-अपने धनुष टंकोरे सो ऐसा जान पड़ा मानो वज्र ही छोड़ रहे हों ॥72॥ तदनंतर ये बलभद्र और नारायण हैं ऐसा जानकर वह अग्निप्रभ देव घबड़ाकर तिरोहित हो गया ॥73॥ उस ज्योतिषी देव के चले जाने पर उसकी सबको सब चेष्टाएँ तत्काल विलीन हो गयीं और आकाश निर्मल हो गया ॥74॥ अथानंतर परम हित की इच्छा करने वाले राम-लक्ष्मण के द्वारा प्रतिहारी का कार्य संपन्न होने पर अर्थात् उपसर्ग दूर किये जाने पर दोनों मुनियों की क्षणभर में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥75 ॥तदनंतर नाना प्रकार के वाहनों पर बैठे, हर्ष से भरे तथा तप के फल की प्रशंसा करते हुए चारों निकाय के देव आ पहुँचे ॥76॥ वहाँ विधिपूर्वक प्रणाम कर तथा केवल जान की पूजा कर सब देव लोग हाथ जोड़े हुए यथास्थान बैठ गये ॥77॥ उस समय केवलज्ञान को उत्पत्ति से खिचे हुए देवों का समागम होने से रात-दिन रूप काल भेद से रहित हो गया अर्थात् वहाँ रात दिन का व्यवहार समाप्त हो गया ॥78॥ भूमिगोचरी मनुष्य तथा विद्यारूपी महाबल को धारण करने वाले विद्याधर-सभी लोग केवलियों की पूजा कर यथायोग्य स्थान पर बैठ गये ॥79॥ प्रसन्न चित्त के धारक राम-लक्ष्मण भी सीता के साथ शीघ्र ही केवलियों की पूजा कर यथास्थान बैठ गये ॥80॥ अथानंतर तत्क्षण उत्पन्न हुए परमोत्तम सिंहासनों पर विराजमान केवलज्ञानी महा मुनियों को नमस्कार कर राम ने हाथ जोड़ इस प्रकार पूछा ॥81॥ कि हे भगवन् ! रात्रि के समय आप दोनों अथवा अपने ही ऊपर यह उपसर्ग किसने किया था और आप दोनों में परस्पर अति स्नेह किस कारण हुआ ? ॥82॥ यद्यपि दोनों महामुनि त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को एक साथ जानते थे, तो भी साम्यपरिणाम को प्राप्त हुए दोनों महामुनि दिव्य ध्वनि में क्रम से बोले ॥83 ॥उन्होंने कहा कि-पद्मिनी नामा नगरी में राजा विजयपर्वत रहता था । गुणरूपी धान्य की उत्पत्ति के लिए उत्तम क्षेत्र के समान उसकी धारिणी नाम की स्त्री थी ॥84॥राजा विजयपर्वत के एक अमृत स्वर नाम का दूत था जो शास्त्रज्ञान में निपुण था, राजकर्तव्य में कुशल था, लोकव्यवहार का ज्ञाता तथा गुणों में स्नेह करने वाला था ॥85॥ उसकी उपयोगा नाम को स्त्री थी और उसके उदर से उत्पन्न हुए उदित तथा मुदित नाम के दो पुत्र थे । ये दोनों ही पुत्र व्यवहार में अत्यंत कुशल थे ॥86॥ किसी समय राजा ने अमृतस्वर को दूत संबंधी कार्य से बाहर भेजा, सो स्वामी के काय में अत्यंत अनुरक्त बुद्धि को धारण करने वाला अमृतस्वर प्रवास के लिए गया॥87॥ उसके साथ उसी के भोजन से जीवित रहने वाला वसुभूति नाम का मित्र भी गया । वसुभूति अत्यंत दुष्ट चित्त का था तथा अमृतस्वर की स्त्री में आसक्त था ॥88॥ वह सोते हुए अमृतस्वर को तलवार से मारकर नगरी में वापिस लौट आया और आकर उसने लोगों को बताया कि अमृतस्वर ने मुझे लौटा दिया है ॥89 ॥अमृतस्वर की स्त्री उपयोगा ने वसुभूति से कहा कि हमारे दोनों पुत्रों को भी मार डालो जिससे फिर हम दोनों निश्चिंतता से रह सकेंगे । सास का यह कहना उसकी बहने जान लिया इसलिए उसने यह सब समाचार शीघ्र ही उदित के लिए बता दिया, यथार्थ में वह बहू सास का वसुभूति के साथ संगम है यह पहले से जानती थी ॥90-91॥ वसुभूति को खास स्त्री उसको इस रतिक्रिया से सदा ईर्ष्या रखती थी तथा उसका चित्त अत्यंत व्याकुल रहता था इसलिए उसने यह समाचार उदित की स्त्री से कहा था ॥92॥ उदित को भी पहले से कुछ-कुछ संदेह था और मुदित भी इस बात को पहले से जानता था फिर वसुभूति के पास तलवार देखने से सब बात स्पष्ट हो गयो ॥93॥ तदनंतर क्रोध से युक्त होकर उदित ने उसे मार डाला जिससे क्रूरकर्म में तत्पर रहने वाला वह कुब्राह्मण मलेच्छ पर्याय को प्राप्त हुआ ॥94॥ अथानंतर किसी समय मुनिसंघ के स्वामी मतिवर्धन नामक महातपस्वी आचार्य पृथिवी पर विहार करते हुए पद्मिनी नगरी आये ॥95॥ उसी समय धर्मध्यान में तत्पर रहने वाली, अतिशय श्रेष्ठ और आर्यिकाओं के संघ की रक्षा करने वाली अनुद्धरा नाम की गणिनी भी विद्यमान थीं ॥96॥ चतुर्विध संघ से सहित मतिवर्धन आचार्य वहाँ आकर उत्तम भूमि से युक्त वसंततिलक नामक उद्यान में ठहर गये ॥97॥ तदनंतर उद्यान की रक्षा करने वाले किंकर अत्यंत व्यग्र हो राजा के पास पहुंचे और पृथ्वी पर हाथ रखकर इस प्रकार प्रार्थना करने लगे कि हे नाथ ! आगे तो बड़ी ऊंची ढालू चट्टान है और पीछे व्याघ्र है बताइए हम किसको शरण में जावें । हमारा तो सब प्रकार से विनाश उपस्थित हुआ है ॥98-99॥भले आदमियो ! क्या ? क्या ?, क्या कह रहे हो इस प्रकार राजा के कहने पर किंकरों ने कहा कि हे नाथ ! मुनियों का एक संघ उद्यान की भूमि में आकर ठहर गया है ॥100॥ यदि इस संघ को हम मना करते हैं तो निश्चित ही शाप को प्राप्त होते हैं और यदि नहीं मना करते हैं तो आपको क्रोध उत्पन्न होता है, इस प्रकार हम लोगों पर बड़ा संकट आ पड़ा है ॥101 ॥हे राजन् ! आपके प्रसाद से हम लोगों ने वह उद्यान कल्पवृक्षों के उद्यान के समान बना रखा है, उसमें साधारण-पामर मनुष्य प्रवेश नहीं कर सकते ॥102॥ जो तप के तेज से अत्यंत दुर्गम हैं ऐसे निर्ग्रंथ मुनियों को देव भी रोकने में समर्थ नहीं हैं फिर हमारे-जैसे मनुष्यों की बात ही क्या है ? ॥103॥ तदनंतर ‘भयभीत मत होओ’ इस प्रकार किंकरों को सांत्वना देकर बहुत भारी आश्चर्य से युक्त हुआ राजा उद्यान की ओर चला ॥104॥ जो बहुत भारी संपदा से युक्त था, बंदीजन जिसकी स्तुति करते जाते थे, तथा जो अतिशय प्रतापी था, ऐसा राजा चलकर उद्यान भूमि में पहुँचा ॥105॥ वहाँ जाकर उसने महाभाग्यवान मुनियों के दर्शन किये । वे मुनि वन की धूलि से व्याप्त थे, मुक्ति के योग्य क्रियाओं में तत्पर थे तथा अत्यंत प्रशांत चित्त थे ॥106॥ उनमें से कितने ही मुनि दोनों भुजाओं को नीचे की ओर लटकाकर प्रतिमा के समान अवस्थित थे, तथा वेला-तेला आदि कठिन उपवासों से उनके शरीर शुष्क हो रहे थे ॥107॥ कितने ही स्वाध्याय में तत्पर हो भ्रमरों के समान मधुर ध्वनि से गुनगुना रहे थे और कितने ही स्वाध्याय में चित्त लगाकर पद्मासन से विराजमान थे ॥108 । इस प्रकार के मुनियों को देखकर राजा का गर्वरूपी अंकुर भग्न हो गया तथा उसने हाथी से नीचे उतरकर मुनियों को नमस्कार किया । राजा का नाम विजयपर्वत था ॥109॥ भोगों में समीचीन बुद्धि को धारण करने वाला राजा क्रम-क्रम से सब मुनियों को नमस्कार करता हुआ आचार्य के पास पहुंचा और उनके चरणों में प्रणाम कर इस प्रकार बोला कि हे नरश्रेष्ठ ! तुम्हारी शुभ लक्षणों से युक्त जैसी दीप्ति है वैसे भोग आपके चरणतल में स्थित क्यों नहीं हैं ?॥110-111॥ आचार्य ने उत्तर दिया कि तेरे शरीर में यह क्या बुद्धि है ? तेरी वह बुद्धि शरीर को स्थिर समझने वाली है सो झूठी है और संसार को बढ़ाने वाली है ॥112॥ निश्चय से यह जीवन हस्ति शिशु के कानों के समान चंचल है तथा मनुष्य का यह जीतव्य केले के सार की सदृशता धारण करता है ॥113॥ यह ऐश्वर्य और बंधुजनों का समागम स्वप्न के समान है, ऐसा जानकर इसमें क्या रति करना है ? इन ऐश्वर्य आदि का ज्यों-ज्यों विचार करो त्यों-त्यों ये अत्यंत दुःखदायी ही मालूम होते हैं ॥114॥ जो नरक के समान है, अत्यंत भयंकर है, दुर्गंधि से भरा है, कीड़ों से युक्त है, रक्त तथा कफ आदि का मानो सरोवर है, जहाँ अत्यंत अशुचि पदार्थों की कीच मच रही है तथा जो अत्यंत संकीर्ण है ऐसे गर्भ में इस जीवने अनेकों बार निवास किया है, फिर भी महामोहरूपी अंधकार से आवृत हुआ यह प्राणी उससे भयभीत नहीं होता ॥115-116॥ जो सर्व प्रकार के अशुचि पदार्थों का भांडार है, क्षण-भर में नष्ट हो जाने वाला है, जिसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता, जो कृतघ्न है, मोह से पूरित है, नसों के समूह से वेष्टित है, अत्यंत पतली चर्म से घिरा है, अनेक रोगों से खंडित है, और बुढ़ापा के आगमन से निंदित है, ऐसे इस शरीर को धिक्कार है ॥117-118॥ जो मनुष्य ऐसे शरीर में धैर्य धारण करते हैं, चैतन्य अर्थात् विचारा विचार की शक्ति से रहित उन मनुष्यों का कल्याण कैसे हो सकता है ? ॥119॥ यह आत्मारूपी बनजारा परलोक के लिए प्रस्थान कर रहा है, सो लोगों को जबरदस्ती लूटने वाले ये इंद्रियरूपी चोर उसे रोककर बैठे हैं ॥120॥ यह जीवरूपी राजा कुबुद्धिरूपी स्त्री से घिरकर क्रीड़ा कर रहा है और मृत्यु उसे अचानक ही दुःखी करना चाहती है ॥121॥ विषयों के मार्ग में मदोन्मत्त हाथी के समान दौड़ता हुआ यह मन ज्ञानरूपी अंकुश को धारण करने वाले वैराग्यरूपी बलवान् पुरुष के द्वारा ही रो का जा सकता है ॥122॥ जो शरीररूपी धान्य में उत्तम लोभ को धारण कर रहे हैं तथा जो महामोहरूपी वेग को धारण कर लंबी चौकड़ी भर रहे हैं ऐसे ये इंद्रियरूपी घोड़े शरीररूपी रथ को कुमार्ग में गिरा देते हैं, इसलिए मनरूपी लगाम को अत्यंत दृढ़ करो ॥123-124॥ भक्ति पूर्वक जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करो और निरंतर उन्हीं का स्मरण करो जिससे निश्चयपूर्वक संसार-सागर को पार कर सको ॥125॥ तप और संयमरूपी शस्त्रों के द्वारा मोहशत्रुरूपी कंटक को नष्ट कर मोक्षरूपी नगर को प्राप्त करो तथा निर्भय होकर वहाँ का राज्य करी ॥126॥ इस प्रकार जैनाचार्य का व्याख्यान सुनकर उत्तम बुद्धि को धारण करने वाला राजा विजयपर्वत विशाल वैभव का परित्यागकर श्रेष्ठ मुनि हो गया ॥127॥ दूत के पुत्र दोनों भाई उदित और मुदित भक्तिपूर्वक जिनवाणी सुनकर दीक्षित हो गये और उत्तम तप को धारण करते हुए एक साथ पृथिवी पर विहार करने लगे ॥128 ॥निर्वाण क्षेत्र की वंदना की अभिलाषा रखते हुए वे सम्मेदाचल को जा रहे थे, सो किसी तरह मार्ग भूलकर एक महाअटवी में जा पहुंचे ॥129॥ वसुभूति का जीव मरकर उसी अटवी में पुष्ट म्लेच्छ हुआ था, सो उसने देखते ही अत्यंत ऋद्ध होकर कठोर वाणी से उन्हें बुलाया ॥130॥ उसे मारने के लिए उत्सुक देख बड़े भाई उदित ने मुदित से कहा कि हे भाई ! भयभीत मत हो, इस समय समाधि धारण करो, चित्त स्थिर करो ॥131 ॥दुष्ट आकृति को धारण करने वाला या म्लेच्छ हम दोनों को मारने के लिए तत्पर दिखाई देता है सो हम लोगों ने चिरकाल के अभ्यास से जिस क्षमा को समृद्ध बनाया है आज उसकी परीक्षा का अवसर है॥132॥ मुदित ने बड़े भाई को उत्तर दिया कि जिनेंद्र भगवान् के वचनों में स्थिर रहने वाले हम लोगों को भय किस बात का है ? निश्चय से हम लोगों ने भी इसका वध किया होगा॥133॥ इस प्रकार वार्तालाप करते हुए दोनों भाई विचार पूर्वक खड़े हो गये और शरीर आदि से ममता छोड़ प्रतिमा योग को प्राप्त हुए ॥134॥ तदनंतर मारने की इच्छा रखता हुआ वह भील उनके पास आया परंतु देवयोग से भीलों के सेनापति ने उसे देख लिया जिसे मना कर दिया ॥135॥ यह सुन, राम ने केवली से पूछा कि भील इन्हें क्यों मारना चाहता था और सेनापति ने किस कारण से छुड़ाकर इनकी रक्षा की ॥136॥ तब केवली भगवान् के मुख से इस प्रकार की दिव्य ध्वनि प्रकट हुई कि भवांतर में यक्षस्थान नामक नगर में सुरप और कर्षक नाम के दो भाई रहते थे ॥137॥ एक दिन एक शिकारी किसी पक्षी को पकड़कर उस गांव में आया सो दया से युक्त होकर सुरप और कर्षक ने मूल्य देकर उसे छुड़ा दिया ॥138॥ तदनंतर वह पक्षी मरकर मलेच्छ राजा हुआ और सुरप तथा कर्षक मरकर उदित तथा मुदित हुए ॥139॥चूंकि पक्षी अवस्था में इन दोनों ने पहले इसकी रक्षा की थी इसलिए पक्षी ने भी सेनापति होकर इन दोनों मुनियों की रक्षा की 140॥ शिकारी का जीव मरकर कर्मयोग से उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर वसुभूति नाम का ब्राह्मण हुआ ॥141 ॥यह जीव पूर्वभव में जैसा करता है इस भव में उसके अनुरूप ही उत्पन्न होता है । संसारी प्राणियों की ऐसी ही दशा है ॥142॥यहाँ निरर्थक शुक्रादि निर्मित शास्त्रों के पढ़ने से क्या होता है ? सुख के कारणभूत एक पुण्य का ही संचय करना चाहिए ॥143॥ पुण्य के प्रभाव से उपसर्ग से निकले हुए दोनों मुनियों ने निर्वाण क्षेत्र-सम्मेदाचल पहुंचकर जिनवंदना की ॥144 ।꠰ इस प्रकार अनेक उत्तमोत्तम स्थानों में भ्रमण करत था चिरकाल तक रत्नत्रय की आराधना कर मरकर दोनों मुनि स्वर्ग गये ॥145॥ और वसुभूति अनेक खोटा योनियों में भ्रमण कर बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव को प्राप्त हुआ, सो वहाँ उसने तापस के व्रत धारण किये॥146॥ तदनंतर दुःखदायी बालतप कर वह मरा और अग्निकेतु नाम का दुष्ट ज्योतिषी देव हुआ ॥147॥ तदनंतर इसी भरतक्षेत्र में एक अरिष्टपुर नामा नगर है जहाँ प्रियव्रत नाम का महा भोगवान् राजा राज्य करता था ॥148॥ उसकी स्त्रियों के गुणों से सहित दो महादेवियाँ थीं एक कांचनाभा और दूसरी पद्मावती ॥149॥ उदित और मुदित के जीव स्वर्ग से चयकर रानी पद्मावती के रत्नरथ और विचित्ररथ नाम के सुंदर पत्र हुए ॥150॥वसुभूति का जीव जो ज्योतिषी देव हुआ था वह प्रियव्रत राजा की दूसरी महादेवी कांचनाभा के अनुंधर नाम का पुत्र हुआ । पृथिवी पर आये हुए तीनों पुत्र अपने गुणों से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ॥151॥ राजा प्रियव्रत पुत्रों के ऊपर राज्य छोड़ जिनालय में छह दिन की उत्तम सल्लेखना धारण कर स्वर्ग गया ॥152॥ अथानंतर एक राजा की पुत्री श्रीप्रभा जो कि यथार्थ में श्रीप्रभा अर्थात् लक्ष्मी के समान प्रभा की धारक थी, रत्नरथ ने उससे विवाह कर लिया । इसी पुत्री को कांचनाभा का पुत्र अनुंधर भी चाहता था । वह द्वेष रखकर उसकी भूमि को उजाड़ करने के लिए उद्यत हो गया ॥153-154॥ तब रत्नरथ और विचित्ररथ ने उसे युद्ध में जीतकर तथा पांच प्रकार के दंड देकर देश से निकाल दिया ॥155 ॥अनुंधर इस अपमान से तथा पूर्वभव संबंधी बर से कुपित होकर जटा और बल्कल को धारण करने वाला विषवृक्ष के समान तापसी हो गया ॥15॥ इधर रत्नरथ और विचित्ररथ दोनों भाई चिरकाल तक राज्य भोगकर प्रबोध को प्राप्त हुए सो दीक्षा ले उत्तम तप धारण कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए ॥157॥ महातेज को धारण करने वाले दोनों भाई वहाँ देवों के योग्य उत्तम सुख भोगकर वहाँ से च्युत हुए और सिद्धार्थनगर के राजा क्षेमंकर की विमला नामक महादेवी के दो सुंदर पुत्र हुए । प्रथम पुत्र का नाम देशभूषण और दूसरे पुत्र का नाम कुलभूषण था ॥158-159॥ विद्या उपार्जन करने की योग्य अवस्था में वर्तमान दोनों भाई घर पर क्रीड़ा करते रहते थे । एक दिन भ्रमण करता हुआ एक सागरसेन नाम का महाविद्वान् वहाँ आया, सो राजा ने उसे रख लिया । उत्कृष्ट विनय से युक्त दोनों भाइयों ने उस विद्वान् के पास समस्त कलाएं सीखी ॥160-161॥दोनों पुत्रों का विद्या में इतना चित्त लगा कि वे अपने परिवार के लोगों को भी नहीं जानते थे । यथार्थ में उनका संपूर्ण चित्त विद्या और विद्यालय में ही लगा रहता था ॥162॥उपाध्याय चिरकाल के बाद पुत्रों को निपुण बनाकर पिता के पास ले गया सो पिता ने पुत्रों को योग्य देख उपाध्याय का यथायोग्य सम्मान किया ॥163॥तदनंतर पिता ने हम दोनों के विवाह के लिए राज-कन्याएं बुलवायी हैं यह समाचार उनके कर्ण मार्ग तक पहुंचा ॥164॥ तदनंतर परम कांति से युक्त दोनों भाई एक दिन नगर के बाहर जाने के लिए उद्यत हुए सो उन्होंने झरोखे में बैठी नगर की शोभा स्वरूप एक कन्या देखी॥165॥ उस कन्या का समागम प्राप्त करने के लिए दोनों ही भाइयों ने अपने मन में परस्पर एक दूसरे के वध करने का विचार किया । तदनंतर वंदी के मुख से उसी समय यह शब्द निकला ॥166॥कि विमला देवी के साथ वह राजा क्षेमंकर सदा जयवंत रहे जिसके कि देवों के समान ये दो पुत्र हैं ॥167॥तथा झरोखे में बैठी यह कमलोत्सवा नाम की कन्या भी धन्य है जिसके कि सुंदर गुणों से उत्कट ये दो भाई हैं ॥168॥तदनंतर वंदी के कहने से यह हमारी बहन है ऐसा जानकर परम वैराग्य को प्राप्त हुए दोनों भाई इस प्रकार विचार करने लगे कि ॥169॥ अहो ! हम लोगो के द्वारा इच्छित इस भारी पाप को धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है । अहो! मोह की दारुणता देखो कि जिससे हमने बहन ही की इच्छा की ॥170॥ हम लोग तो प्रमाद से ही ऐसा विचार कर दुःखी हो रहे हैं फिर जो जान बूझकर सदा ऐसा कार्य करते हैं उनका तो बहुत भारी साहस ही कहना चाहिए ॥171॥ अहो ! दुःख से भरा यह संसार बिलकुल ही असार है जिसमें पापी मनुष्यों के ऐसे विचार उत्पन्न होते हैं ॥172 ॥किसी पाप के उदय से सहसा कार्य करने वाला प्राणी नरक जा सकता है, पर हम लोग तो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को पाकर भी नरक जाना चाहते हैं, यह बड़ा आश्चर्य है ॥173 ॥ऐसा विचारकर दु:ख से मूर्च्छित माता और स्नेह से आकुल पिता को छोड़कर दोनों ने दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली ॥174॥उत्तम तपरूपी धन को धारण करने वाले दोनों मुनियों ने आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त कर जगत् के नाना तीर्थ क्षेत्रों में विहार किया ॥175 ॥राजा क्षेमंकर उस शोकाग्नि से दग्ध होकर एक साथ समस्त आहार छोड़ मृत्यु को प्राप्त हुआ ॥176 ॥राजा क्षेमंकर पहले कहे हुए भव से ही लेकर हम दोनों का पिता होता आया है इसलिए हम दोनों के प्रति उसका निरंतर भारी स्नेह रहता था ॥177॥ अब वह मरकर भवनवासी देवों में सुपर्ण कुमार जाति के देवों का अधिपति, प्रसिद्ध, सुंदर, अद्भुत-पराक्रम का धारी महालोचन नाम का देव हुआ है ॥178॥ वह बली अपने आसन के कंपित होने से क्षुभित हो अवधिज्ञान के द्वारा सब जानकर यहाँ आया है तथा व्यंतर देवों की सभा में बैठा है ॥179 ॥उधर तपस्वियों का आचार पालन करने में तत्पर अनुंधर, शिष्य समूह के साथ विहार करता हुआ कौमुदी नगरी में आया॥180॥ वहाँ का राजा सुमुख था और रतवती उसकी स्त्री थी जो सैकड़ों स्त्रियों में प्रधान तथा परम सुंदरी थी ॥181 ॥उसी राजा के उत्तम चेष्टा को धारण करने वाली एक मदना नाम की विलासिनी ( वेश्या ) स्त्री थी, जो ऐसी जान पड़ती थी मानो संसार को जीतकर कामदेव के द्वारा प्राप्त की हुई पता का ही हो ॥182॥ उस मदना ने साधुदत्त मुनि के पास सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था जिसे पाकर वह अन्य धर्मो को तृण के समान तुच्छ मानती थी ॥183 ॥अथानंतर किसी दिन राजा ने मदना के सामने कहा कि अहो! यह तापस महातपों का स्थान है ॥184॥ यह सुन मदना ने कहा कि हे नाथ ! इन मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी तथा लोगों को ठगने वाले लोगों का तप कैसा ? ॥185॥ यह सुन राजा उसके लिए क्रुद्ध हुआ पर उसने फिर कहा कि हे नाथ ! क्रोध मत कीजिए तथा इसे मेरे चरणों में वर्तमान देखिए ॥186॥ यह कहकर तथा घर जाकर उसने अपनी नागदत्ता नाम की सुंदरी पुत्री को सिखाकर उस तापस के आश्रम में भेजा ॥187॥ सुंदर हाव भाव और उत्तम वेष-भूषा को धारण करने वाली नागदत्ता देवकन्या के समान जान पड़ती थी । वह एकांत में योग लेकर बैठे हुए उस तापस के पास जाकर खड़ी हो गयी ॥188॥ हवा से हिलते हुए वस्त्र के बहाने उसने कामदेव के अंतःपुर के समान, सौंदर्यरस से भरे अपने ऊरू दिखाये ॥189॥ समाधान के बहाने केशर के द्रव से पीले तथा कामदेव के गंडस्थल की तुलना धारण करने वाले दोनों स्तन प्रकट किये ॥190॥ पुष्प ग्रहण के बहाने नीवी ढीली कर जघन स्थान दिखाया, देदीप्यमान नाभिमंडल और सुंदर बगलें भी दिखलायी ॥191॥ उस तापस के नेत्र और मन अज्ञानपूर्ण योग का भेदन कर उस नागदत्ता के उन-उन प्रदेशों पर पड़ने लगे तथा वहीं बंधन से युक्त हो गये ।꠰192॥ तदनंतर काम के बाणों से ताड़ित तपस्वी अत्यंत व्याकुल होता हुआ उठकर उसके पास गया और धीरे से उससे पूछने लगा कि हे बाले ! तू कौन है ? और यहाँ कहाँ आयी है ? ॥193॥ इस संध्या के समय छोटे-मोटे प्राणी भी अपने घर रहते हैं फिर तू तो अत्यंत सुकुमार है ॥194॥ नागदत्ता मधुर वर्णों से उसका हृदयस्थल भेदती, लीला पूर्वक भुजलता को मुख की और ऊपर उठाती, चंचल नील कमल के समान कांति के धारक नेत्रों को धारण करती, कुछ-कुछ दीनता को प्राप्त होती तथा अधरोष्ठ को बार-बार हिलाती हुई बोली ॥195-196॥ कि हे नाथ ! हे दया के आधार! हे शरणागत वत्सल! सुनिए, आज मेरो माता ने मुझे अपराध के बिना ही घर से निकाल दिया है ॥197॥ सो हे नाथ ! अब मैं गेरुआ वस्त्र धारण कर आपकी इस वृत्ति का आचरण करूंगी, आप अनुमति देकर मुझ पर प्रसाद कीजिए ॥198॥ रात-दिन आपकी सेवा करने से मेरा यह लोक तथा परलोक दोनों ही सुधर जावेंगे ॥199॥ धर्म, अर्थ और काम में ऐसा कौन पदार्थ है जो आपके पास प्राप्त न हो सके, आप समस्त मनोरथों के भांडार हैं । पुण्य से ही आपके दर्शन हुए हैं ॥200 । इस प्रकार कहने पर उसका मन वशीभूत जान काम से जलता हुआ तापस व्याकुल होता हुआ इस प्रकार बोला ॥201॥ कि हे भद्रे ! प्रसाद करने के लिए मैं कौन होता हूँ ? हे उत्तम ! तुम्हीं मुझ पर प्रसाद करो, स्वीकृत करो, मैं जीवन-पर्यंत तुम्हारी भक्ति करूंगा ॥202॥ ऐसा कहकर उसने आलिंगन करने के लिए शीघ्र ही अपनी भुजा पसारी तब आदर के साथ उसे हाथ से रोकती हुई कन्या ने कहा ॥203 ॥कि यह करना उचित नहीं है, मैं कुमारी कन्या हूँ जिसका तोरण दिखाई दे रहा है, ऐसे इस घर में जाकर मेरी माता से पूछो ॥204 ॥आपकी बुद्धि के समान वह परम दया से युक्त है, उसे प्रसन्न करो, वह अवश्य ही मुझे तुम्हारे लिए दे देगी ॥205 ॥इस प्रकार नागदत्ता के कहने पर वह सूर्यास्त के अनंतर अटपटे पैर रखता हुआ उसके साथ वेश्या के घर गया ॥206 ॥जिसके समस्त इंद्रियों के विषय काम से आकृष्ट हो चुके थे, ऐसा वह तापस वारी (बंधन) में प्रवेश करने वाले हाथी के समान कुछ भी उपाय नहीं जानता था ॥207॥सो ठीक ही है, क्योंकि काम से ग्रस्त मनुष्य न सुनता है, न सूंघता है, न देखता है, न दूसरे का स्पर्श जानता है, न डरता है और न लज्जित ही होता है ॥208 । जिस प्रकार अंधा मनुष्य साँपों से भरे कुएं में गिरकर कष्ट और संताप को प्राप्त होता है उसी प्रकार यह कामी मनुष्य मोहवश कष्ट और संताप को प्राप्त होता है, यह आश्चर्य की बात है ॥209 ॥तदनंतर वह तापस वेश्या के चरणों में शिर झुकाकर कन्या की याचना करता है और उसी समय पूर्व संकेतानुसार राजा प्रवेश करता है॥210॥ राजा ने उसे बंधवाकर रात्रि-भर रखा और सवेरे छान-बीनकर सबके समक्ष उसका परम तिरस्कार किया ॥211 ॥तदनंतर अपमान से जला तापस परम दुःख को धारण करता हुआ पृथ्वी पर भ्रमण करता रहा और अंत में मरकर दुःखदायी योनियों में भटकता रहा ॥212 ॥तदनंतर कर्मो के प्रभाव से मनुष्य भव को प्राप्त हुआ सो दरिद्रतारूपी कीचड़ में निमग्न तथा लोगों के आदर से रहित नीच कुल में उत्पन्न हुआ ॥213॥ जब वह गर्भ में था तभी कलह के समय क्रूर वचन कहने वाली स्त्री से उद्विग्न होकर इसका पिता परदेश चला गया था ॥214॥ तथा जब वह बालक ही था तभी म्लेच्छों के द्वारा देश पर आक्रमण होने से इसकी माता मर गयी । इस तरह सर्व बंधुओं से रहित होकर वह परम दुःख को प्राप्त होता रहा ॥215 ॥तदनंतर तापस होकर तथा कठिन बालतप कर ज्योतिष लोक में अग्निप्रभ नामक देव हुआ ॥216॥ अथानंतर एक समय धर्म की चिंता में जिसका मन लग रहा था ऐसे शिष्य ने देवों के द्वारा सेवित अनंतवीर्य नामा केवली से पूछा कि हे नाथ ! मुनिसुव्रत भगवान के इस तीर्थ में आपके समान ऐसा दूसरा कौन भव्य होगा जो संसार समुद्र से पार होने का कारण होगा ॥217-218॥ तब अनंतवीर्य केवली ने उत्तर दिया कि मेरे मोक्ष चले जाने के बाद मुनियों की इस भूमि में एक देशभूषण और दूसरा कुलभूषण इस प्रकार दो केवली होंगे । ये जगत् के सारभूत तथा केवलज्ञान और दर्शन के धारक होंगे । इनका आश्रय लेकर भव्यजीव संसार-सागर से पार होंगे ॥219-220॥ वह अग्निप्रभदेव केवली के मुख से यह सुनकर तथा उन्हीं के कथन का ध्यान करता हुआ अपने स्थानपर चला गया ॥221 ॥एक दिन अवधिज्ञान से वह हम दोनों मुनियों को इस पर्वतपर विद्यमान जानकर मैं अनंतवीर्य सर्वज्ञ के वचन मिथ्या करता हूँ इस प्रकार कहकर तीन मोहरो मोहित होता हुआ पूर्व वैर के कारण परम उपद्रव करने के लिए यहाँ आया ॥222-223॥ सो चरमशरीरी आपको देखकर तथा इंद्र के क्रोध से भयभीत हो शीघ्र ही तिरोधान को प्राप्त हुआ अर्थात् भाग गया ॥224॥ तुम बलभद्र हो और लक्ष्मण नारायण सो इसके साथ तुमने हमारा उपसर्ग दूर किया अतः घातिया कर्मों का क्षय होनेपर हमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ॥225 ॥इस प्रकार वैर करने वाले प्राणियों की गति-आगति को सुनकर हे प्राणियो ! परस्पर का वैर छोड़ स्वस्थ होओ अर्थात् आत्मस्वरूप में लीन होओ ॥226॥इस प्रकार केवली भगवान् के द्वारा उच्चरित महापवित्र वचन सुनकर संसार के दुःखों से भयभीत हुए सुर और असुरों ने उन्हें बार-बार नमस्कार किया ॥227।। इतने में ही परमऐश्वर्य को प्राप्त सुवर्ण कुमारों के पति ने हाथ जोड़कर मस्तक से लगा केवली भगवान् के चरणकमल में नमस्कार कर देदीप्यमान मणिमय कुंडलों के धारक राम से कहा । उस समय वह गरुडेंद्र राम की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि डाल रहा था तथा प्रेम से उसका मन संतुष्ट हो रहा था ॥228-229॥ उसने कहा कि चूंकि तुमने हमारे पुत्रों की परम सेवा की है इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूँ तुम्हें जो वस्तु रुचती हो वह मांग लो ॥230॥ राम क्षण-भर चिंता करते हुए चुपचाप बैठे रहे । तदनंतर बोले कि हे देव ! यदि प्रसन्न हो तो आपत्ति के समय हम लोगों का स्मरण रखना ॥231॥ साधुसेवा के प्रसाद से ही यह प्राप्त हुआ कि आप-जैसे सत्पुरुषों के साथ मिलाप हुआ तथा संसार के द्वार से निकलने का मार्ग मिला ॥232 ॥‘ऐसा ही हो’ इस प्रकार गरुडेंद्र के कहने पर देवों ने शंख फूंके तथा अनेक प्रकार के वादित्रों के साथ मेघों के समान शब्द करने वाली भेरियाँ बजायीं ॥233॥ मुनियों के पूर्वभव सुनकर परम संवेग को प्रात हुए कितने ही लोगों ने दीक्षा धारण कर ली और कितने ही लोग अणुव्रतों के धारी हुए ॥234॥ जगत् के द्वारा पूजनीय तथा संसार के समस्त दुःखरूपी मल के समागम से राहत देशभूषण, कुलभूषण केवली उत्तम गुणा से युक्त ग्राम, पूर, पर्वत तथा मटंब आदि रमणीय स्थानों में विहारकर धर्म का उपदेश देने लगे ॥235॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जो देशभूषण, कुलभूषण, महामुनियों के इस अतिशय पवित्र चरित्र को उत्तम भावों से युक्त हो सुनते हैं तथा कथन कर दूसरों को सुनाते हैं वे सूर्य के समान देदीप्यमान होकर शीघ्र ही पापों का त्याग करते हैं ॥236॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में देशभूषण, कुलभूषण केवली का व्याख्यान करने वाला उनतालीसवां पर्व समाप्त हुआ ॥39॥ |