+ महेंद्र का पुत्री के साथ समागम -
पचासवाँ पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर परम अभ्युदय को धारण करनेवाला हनुमान् आकाश में जाता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बहन सीता को लेने के लिए भामंडल ही जा रहा हो ॥1॥ मित्र श्रीराम की आज्ञा में प्रवृत्त, विनयवान्, उदाराशय एवं शुद्धभाव के धारक हनुमान् के हृदय में उस समय कोई अद्भुत आनंद छाया हुआ था ॥2॥ सूर्य के मार्ग में स्थित हनुमान् जब प्रौढ़ दृष्टि से दिङमंडल की ओर देखता था तब उसे दिङमंडल शरीर के अवयवों के समान जान पड़ता था॥ 3॥ लंका की ओर जाने के लिए इच्छुक हनुमान् की दृष्टि के सामने राजा महेंद्र का नगर आया जो इंद्र के नगर के समान जान पड़ता था ॥4॥ वह नगर पर्वत के शिखर पर स्थित था तथा वेदि का पर स्थित सफेद कमलों के समान आभा को धारण करनेवाले चंद्रतुल्य धवल भवनों के द्वारा दूर से ही प्रकाशित हो रहा था॥ 5॥ जिस प्रकार बालि के नगर में इंद्र को प्रीति नहीं हुई थी उसी प्रकार राजा महेंद्र के उस नगर में हनुमान् को कोई प्रीति उत्पन्न नहीं हुई अपितु उसे देखकर वह विचार करने लगा ॥6॥ कि यह पर्वत के शिखर पर राजा महेंद्र का नगर स्थित है जिसमें कि वह दुर्बुद्धि राजा महेंद्र निवास करता है॥7॥मेरे गर्भवास के समय दुःख से भरी मेरी माता इसके नगर आयी पर इस दुष्ट ने उसे निकाल दिया ॥8॥ तब मेरी माता निर्जन वन की उस गुफा में जिनमें कि पर्यंक योग से अमितगति नामा मुनि विराजमान थे― रहीं ! इसी गुफा में उन दयालु मुनिराज ने उत्तम वचनों के द्वारा उसे सांत्वना दी और बंधुजनों से रहित अकेली रहकर उसने मुझे जन्म दिया ॥9-10॥ इसी गुफा में माता को सिंह से उत्पन्न कष्ट प्राप्त हुआ था और इसी गुफा में उसे मुनिराज का सन्निधान प्राप्त हुआ था इसलिए यह गुफा मुझे अत्यंत प्रिय है॥ 11॥ जो मेरी शरणागत माता को निकालकर कृतकृत्य हुआ था उस महेंद्र को अब मैं कष्ट का बदला देकर क्या उसकी सेवा करूँ ॥12॥यह महेंद्र बड़ा अहंकारी है तथा मुझसे निरंतर द्वेष रखता है इसलिए इसका गर्व अवश्य ही दूर करता हूँ । 13॥ तदनंतर ऐसा विचार कर उसने घूमते हुए मेघसमूह के समान उच्च शब्द करने वाली दुंदुभियाँ, महाविकट शब्द करने वाली भेरियां और नगाड़े बजवाये ॥14॥ उत्कृष्ट चेष्टाओं को धारण करनेवाले योद्धाओं ने जगत् को कँपा देने वाले शंख फूंके तथा शस्त्रों को चमकाने वाले रणवीर योद्धाओं ने जोर से गर्जना की ॥15॥ पर बल को आया सुन, राजा महेंद्र सर्व सेना के साथ बाहर निकला और जिस प्रकार पर्वत, मेघसमूह को रोकता है उसी प्रकार उसने हनुमान् के दल को रो का ॥16॥ तदनंतर लगी हुई चोटों से अपनी सेना को नष्ट होती देख, छत्रधारी, तथा रथ पर बैठा हुआ राजा महेंद्र का पुत्र धनुष तानकर सामने आया ॥17॥ सो हनुमान् ने तीन बाण छोड़कर उसके लंबे धनुष को उस तरह छेद डाला जिस तरह कि मुनि तीन गुप्तियों के द्वारा उठते हुए मान को छेद डालते हैं ॥18॥ वह व्याकुल चित्त होकर जब तक दूसरा धनुष लेता है तब तक हनुमान् ने तीक्ष्ण बाण चलाकर उसके चंचल घोड़े रथ से छुड़ा दिये ॥19॥सो रथ से छूटे हुए वे चंचल घोड़े शीघ्र ही इधर-उधर इस प्रकार घूमने लगे जिस प्रकार कि विषयाभिलाषी मनुष्य की मन से छटी हई इंद्रियाँ इधर-उधर घूमने लगती हैं ॥20॥ अथानंतर महेंद्र का पुत्र घबडाकर उत्तम विमान पर आरूढ़ हुआ सो हनुमान् के वाणों से वह विमान भी उस तरह खंडित हो गया जिस तरह कि किसी दुर्बुद्धि का मत खंडित हो जाता है॥ 21॥ तदनंतर विद्या के बल से विकार को प्राप्त हुआ महेंद्र पुत्र पुनः हर्षित हो अलातचक्र के समान देदीप्यमान बाण, चक्र तथा कनक नामक शस्त्रों से युद्ध करने लगा ॥22॥ तब हनुमान् ने भी विद्या के द्वारा उस शस्त्र समूह को उस तरह रो का जिस तरह कि योगी आत्मध्यान के द्वारा परीषहों के समूह को रोकता है ॥23॥ तदनंतर जो निर्दयता के साथ शस्त्र छोड़ रहा था और प्रचंड अग्नि के समान सब ओर से आच्छादित कर रहा था ऐसे महेंद्र पुत्र को हनुमान ने उस तरह पकड़ लिया जिस तरह कि गरुड़ सर्प को पकड़ लेता है॥ 24॥ पुत्र को पकड़ा देख क्रोध से लाल होता हुआ महेंद्र रथ पर सवार हो हनुमान् के सम्मुख उस तरह आया जिस तरह कि सुग्रीव का रूप धारण करनेवाला कृत्रिम सुग्रीव राम के सम्मुख आया था ॥25॥

तदनंतर जिसका रथ सूर्य के समान देदीप्यमान था, जो सुंदर हार का धारक था, धनुर्धारी था, शूरों में श्रेष्ठ था तथा अतिशय देदीप्यमान था ऐसा हनुमान भी माता के पिता राजा महेंद्र के सम्मुख गया ॥26॥ तदनंतर वायु के वशीभूत दो मेघों में जिस प्रकार परस्पर टक्कर होती है उसी प्रकार उन दोनों में करोंत, खड̖ग तथा बाणों के द्वारा परस्पर एक दूसरे का घात करने वाला महायुद्ध हुआ ॥27॥ जो सिंहों के समान महाक्रोधी तथा उत्कट बल से सहित थे, जिनके नेत्र देदीप्यमान तिलगों के समान लाल थे, जो सर्पों के समान साँसें भर रहे थे― फुंकार रहे थे, जो एक दूसरे पर आक्षेप कर रहे थे, जिनके अहंकारपूर्ण हास्य का स्फुट शब्द हो रहा था, तेरी शूर-वीरता को धिक्कार है, अहो ! युद्ध करने चला है जो इस प्रकार के शब्द कह रहे थे, जो माया बल से सहित थे और जो अपने पक्ष के लोगों से कभी हाहाकार कराते थे तो कभी जय-जयकार कराते थे ऐसे हनुमान् तथा राजा महेंद्र दोनों ही चिरकाल तक परम युद्ध करते रहे ॥28-30॥ तदनंतर जो महाबलवान् था, विक्रियाशक्ति से संगत था और क्रोध से जिसके शरीर की शोभा देदीप्यमान हो रही थी ऐसा महेंद्र हनुमान् के ऊपर शस्त्रों का समूह छोड़ने लगा ॥31॥ भुषुंडो, परशु, बाण, शतघ्नी, मुद्गर, गदा, पहाड़ों के शिखर और सागौन तथा वट के वृक्ष उसने हनुमान् पर छोड़े॥32॥सो इनसे तथा नाना प्रकार के अन्य शस्त्रों के समूह से हनुमान उस तरह विचलित नहीं हुआ जिस प्रकार कि महामेघों के समूह से पर्वत विचलित नहीं होता है ॥33॥राजा महेंद्र की दिव्य माया से उत्पन्न शस्त्रों की उस वर्षा को पवन-पुत्र हनुमान् ने अपनी उल्का-विद्या के प्रभाव से चूर-चूर कर डाला॥34॥और उसी समय वेग से भरे, दिग्गजों के शुंडादंड के समान विशाल हाथों से युक्त तथा उत्तम बल को धारण करने वाले हनुमान् ने मातामह महेंद्र के रथ पर उछलकर उसे रोकने पर भी पकड़ लिया । शूरवीरों ने उसे साधुवाद दिया और वह पकड़े हुआ मातामह को लेकर अपने रथ पर आरूढ़ हो गया ॥35-36॥वहाँ जिसकी विक्रियाकृत लांगल और हाथों से उल्काएँ निकल रही थीं तथा जो परम अभ्युदय को धारण करने वाला था ऐसे दौहित्र-हनुमान् की वह महेंद्र सौम्यवाणी द्वारा स्तुति करने लगा ॥37॥ कि अहो वत्स ! तेरा यह उत्तम माहात्म्य यद्यपि मैंने पहले से सुन रखा था पर आज प्रत्यक्ष ही देख लिया ॥38॥विजयार्धपर्वत के ऊपर महाविद्याओं तथा शस्त्रों से आकुल इंद्र विद्याधर के युद्ध में भी जो किसी के द्वारा पराजित नहीं हुआ था तथा जो माहात्म्य से युक्त था ऐसा मेरा पुत्र प्रसन्नकीर्ति तुमसे पराजित हो बंधन को प्राप्त हुआ, यह बड़ा आश्चर्य है ॥39-40॥ अहो भद्र ! तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है, तुम्हारा धैर्य परम आश्चर्यकारी है, अहो तुम्हारा रूप अनुपम है और युद्ध की सामर्थ्य भी आश्चर्यकारी है ॥41॥ हे वत्स ! निश्चय को धारण करने वाले तुमने हमारे पुण्योदय से जन्म लेकर हमारा समस्त कुल प्रकाशमान किया है॥ 42॥ तू विनयादि गुणों से युक्त है, परमतेज की राशि है, कल्याण की मूर्ति है तथा कल्पवृक्ष के समान उदय को प्राप्त हुआ है ॥43॥ तू जगत् का गुरु है, बांधवजनों का आधार है और दुःखरूपी सूर्य से संतप्त समस्त मनुष्यों के लिए मेघ स्वरूप है꠰꠰॥44॥ इस प्रकार प्रशंसा कर स्नेह के कारण जिसके नेत्रों से अश्रु छलक रहे थे तथा जिसके हाथ हिल रहे थे, ऐसे मातामह महेंद्र ने उसका मस्तक सूंघा और रोमांचित हो उसका आलिंगन किया ॥45॥ वायुपुत्र-हनुमान् ने भी हाथ जोड़कर उन आर्य-मातामह को प्रणाम किया तथा क्षमा के प्रभाव से विनीतात्मा होकर वह क्षणभर में ऐसा हो गया मानो अन्यरूपता को ही प्राप्त हुआ हो ॥46॥उसने कहा कि हे आर्य ! मैंने लड़कपन के कारण आपके प्रति जो कुछ चेष्टा की है सो हे पूज्य ! मेरे इस समस्त अपराध को आप क्षमा करने के योग्य हैं ॥47॥

उसने रामचंद्र के आगमन को आदि लेकर अपने आगमन तक का समस्त वृत्तांत बड़े आदर के साथ प्रकट किया । 48॥उसने यह भी कहा कि हे आर्य ! मैं अत्यावश्यक कारण से त्रिकूटाचल को जाता हूँ तब तक तुम किष्किंधपुर जाओ और श्रीराम का काम करो ॥49॥ इतना कह हनुमान् आकाश में उड़कर शीघ्र त्रिकूटाचल की ओर सुखपूर्वक इस प्रकार गया जिस प्रकार कि देव स्वर्ग की ओर जाता है॥ 50॥ नीतिनिपुण तथा स्नेहपूर्ण राजा महेंद्रकेतु ने अपने प्रिय पुत्र प्रसन्नकीर्ति के साथ जाकर पुत्री-अंजना का सम्मान किया ॥51॥ अंजना सुंदरी, माता पिता के साथ समागम तथा भाई का दर्शन प्राप्त कर परम धैर्य को प्राप्त हुई ॥52॥ राजा महेंद्र को आया सुनकर किष्किंधा का पति सुग्रीव उसे लेने के लिए सम्मुख गया तथा विराधित आदि उत्तम संतोष को प्राप्त हुए ॥53॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि कृतकृत्य, सुचेता तथा उत्तम सुंदर तेज को धारण करने वाले पुण्यात्मा जीवों का पूर्वचरित ही ऐसा विशिष्ट होता है कि उन्नत गर्व से सुशोभित बलशाली मनुष्य उनके अधीन आज्ञाकारी होते हैं॥ 54॥ इसलिए हे भव्यजनो ! सब ओर से मन की रक्षा कर सदा उस शुभ कार्य में यत्न करो कि जिसका पुष्कल फल पाकर सूर्य के समान दीप्तता को प्राप्त होओ ॥55॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में महेंद्र का पुत्री के साथ समागम का वर्णन करनेवाला पचासवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥50॥