कथा :
अथानंतर जब हनुमान् विमान में बैठकर आकाश में बहुत ऊँचे जा रहा था तब उत्तम गुणों से युक्त दधिमुख नामक द्वीप बीच में पड़ा ॥1॥ उस दधिमुख द्वीप में एक दधिमुख नाम का नगर था जो दही के समान सफेद महलों से सुशोभित तथा लंबायमान स्वर्ण के सुंदर तोरणों से युक्त था ॥2॥ नवीन मेघ के समान श्याम तथा पुष्पों से उज्ज्वल उद्यानों से उसके प्रदेश ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रों से सहित आकाश के प्रदेश ही हों ॥3॥ उस नगर में जहाँ-तहाँ स्फटिक के समान स्वच्छ जल से भरी, सीढ़ियों से सुशोभित एवं कमल तथा उत्पल आदि से आच्छादित वापिकाएँ सुशोभित थीं ॥4॥ नगर से दूर चलकर एक महाभयंकर वन मिला जो बड़े-बड़े तृणों, लताओं, बेलों, वृक्षों और काँटों से व्याप्त था ॥5॥ वह वन सूखे वृक्षों से घिरा था, भयंकर जंगली पशुओं के शब्द से शब्दायमान था, भयंकर था, अत्यंत कठोर था, प्रचंड वायु से चंचल था, गिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षों के समूह से युक्त था, महाभय उत्पन्न करनेवाला था, अत्यंत खारे जल के सरोवरों से सहित था, कंक, गृद्ध आदि पक्षियों से सेवित था तथा मनुष्यों से रहित था । गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस वन में दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आठ दिन का कठिन योग लेकर विराजमान थे । उनकी भुजाएँ नीचे को ओर लटक रही थीं ॥6-8॥ उन मुनियों से पावकोश दूरी पर तीन कन्याएँ, जिनके नेत्र अत्यंत मनोहर थे, जो शुक्ल वस्त्र से सहित थीं, जटाएं धारण कर रही थीं, शुद्ध हृदय से युक्त थीं, तीन लोक की मानो शोभा थीं । और नूतन आभूषण स्वरूप थीं, विधिपूर्वक घोर तप कर रही थीं ॥9-10॥ तदनंतर हनुमान् ने देखा कि दोनों मुनि महा अग्नि से ग्रस्त हो रहे हैं और वृक्ष युगल के समान निश्चल खड़े हैं ॥11 ॥जिनका व्रत समाप्त नहीं हुआ था तथा जो लावण्य से युक्त थी ऐसी वे तीनों कन्याएँ भी निकलते हुए अत्यधिक धूम से स्पृष्ट हो रही थीं ॥12॥ उन्हें देख हनुमान् के हृदय में उन सबके प्रति बड़ी आस्था उत्पन्न हुई । तदनंतर जो योग अर्थात् ध्यान से युक्त थे, मोक्ष को इच्छा से सहित थे, जिन्होंने रागादि परिग्रह की इच्छा छोड़ दी थी, वस्त्र तथा आभूषण दूर कर दिये थे, भुजाएँ नीचे की ओर लट का रखी थीं, जिनके मुख की आकृति अत्यंत शांत थी, युगप्रमाण दूरी पर जिनकी दृष्टि पड़ रही थी, जो प्रतिमा योग से विराजमान थे, जीवन और मरण की आकांक्षा से रहित थे, निष्पाप थे, शांतचित्त थे, इष्ट-अनिष्ट समागम में मध्यस्थ थे, तथा पाषाण और कांचन में जो समभाव रखते थे ऐसे उन दोनों मुनियों को अत्यंत निकटवर्ती बड़ी भारी दावानल से आक्रांत देख, हे राजन् ! हनुमान् वात्सल्यभाव प्रकट करने के लिए उद्यत हुआ ॥13-16॥ भक्ति से भरे हनुमान् ने शीघ्रता से समुद्र का जल खींच, मेघ हाथ में धारण किया और आकाश में ऊँचे जाकर अत्यधिक वर्षा की ॥17॥ उस बरसे हुए जलप्रवाह से वह दावाग्नि उस प्रकार शांत हो गयी जिस प्रकार कि उत्पन्न हुआ महाक्रोध, मुनि के क्षमाभाव से शांत हो जाता है ॥18॥ भक्ति से भरा हनुमान् जब तक नाना प्रकार को पुष्पादि सामग्री से उन दोनों मुनियों की पूजा करता है तब तक जिनके मनोरथ सिद्ध हो गये थे ऐसी वे तीनों मनोहर कन्याएँ मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा देकर उसके पास आ गयीं ॥19-20॥ उन्होंने ध्यान में तत्पर दोनों मुनियों को हनुमान् के साथ-साथ विनयपूर्वक नमस्कार किया तथा हनुमान की इस प्रकार प्रशंसा की कि अहो ! तुम्हारी जिनेंद्रदेव में बड़ी भक्ति है जो शीघ्रता से कहीं अन्यत्र जाते हुए तुमने मुनियों के आश्रय से हम सबकी रक्षा की ॥21-22 ॥हमारे निमित्त से यह महाउपद्रव उत्पन्न हुआ था सो मुनियों को रंच मात्र भी प्राप्त नहीं हो पाया । अहो ! हमारी भवितव्यता धन्य है ॥23॥ अथानंतर पवित्र हृदय के धारक हनुमान् ने उनसे इस प्रकार पूछा कि इस अत्यंत भयंकर निर्जन वन में आप लोग कौन हैं ? ॥24 ॥तदनंतर उन कन्याओं में जो ज्येष्ठ कन्या थी वह कहने लगी कि हम तीनों दधिमुख नगर के राजा गंधर्व की अमरानामक रानी की पुत्रियां हैं ॥25 ॥इनमें प्रथम कन्या चंद्रलेखा, दूसरी विद्युत्प्रभा और तीसरी तरंगमाला है । हम सभी अपने समस्त कुल के लिए अत्यंत प्यारी हैं ॥26 ॥इस संसार में अपने कूलरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान, विजयार्ध आदि स्थानों में उत्पन्न हुए जितने कुछ विद्याधर कुमार हैं वे सब हम लोगों के अत्यंत इच्छुक हो कहीं भी सुख नहीं पा रहे हैं । उन कुमारों में अंगारक नामक दुष्ट कुमार विशेष रूप से संताप को धारण कर रहा है ॥27-28॥ किसी एक दिन हमारे पिता ने अष्टांग निमित्त के ज्ञाता मुनिराज से पूछा कि हे भगवन् ! मेरी पुत्रियाँ किन स्थानों में जावेंगी ॥29॥ इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा था कि जो युद्ध में साहसगति की मारेगा वह कुछ ही दिनों में इनका भर्ता होगा ॥30 ॥तदनंतर अमोघ वचन के धारक मुनिराज का वह वचन सुन हमारे पिता मुख को मंद हास्य से युक्त करते हुए विचार करने लगे कि॥31॥संसार में इंद्र के समान ऐसा कौन पुरुष होगा जो विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में श्रेष्ठ साहसगति को मार सकेगा॥32॥अथवा मुनि के वचन कभी मिथ्या नहीं होते यह विचारकर माता-पिता आदि आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥33 ॥चिरकाल तक याचना करनेपर भी जब अंगारक हम लोगों को नहीं पा सका तब वह हम लोगों को दुःख देने वाले कारणों की चिंता में निमग्न हो गया ॥34॥ उस समय से लेकर हम लोगों का यही एक मनोरथ रहता है कि हम साहसगति को नष्ट करने वाले उस वीर को कब देखेंगी॥35॥हम तीनों कन्याएँ मनोनुगामिनी नामक उत्तम विद्या सिद्ध करने के लिए कठोर वृक्षों से युक्त इस वन में आयी थीं ॥36 ॥यहाँ रहते हुए हम लोगों का यह बा दिन है और इन दोनों मुनियों को आये हुए आज आठवाँ दिवस है ॥37॥ तदनंतर उस दुष्ट अंगारकेतु ने हम लोगों को यहाँ देखा और उक्त पूर्वोक्त संस्कार के कारण वह क्रोध से परिपूर्ण हो गया ॥38 । तत्पश्चात् हम लोगों का वध करने के लिए उसने उसी क्षण दशों दिशाओं को धूम तथा अंगार की वर्षा करने वाली अग्नि से पिंजर वर्ण-पीत वर्ण कर दिया ॥39॥ जो विद्या छह वर्ष से भी अधिक समय में बड़ी कठिनाई से सिद्ध होती है वह विद्या उपसर्ग का निमित्त पाकर आज ही सिद्ध हो गयी॥40॥हे महाभाग ! यदि इस आपत्ति के समय आप यहाँ नहीं होते तो निश्चित हो हम सब दोनों मुनियों के साथ-साथ वन में जल जातीं ॥41॥ तदनंतर हनुमान् ने ‘ठीक है’ ‘ठीक है’ इस तरह मंदहास पूर्वक कहा कि आप लोगों का श्रम प्रशंसनीय है तथा निश्चित हो फल से युक्त है ॥42 ॥अहो ! तुम सबकी बुद्धि निर्मल है । अहो! तुम सबका मनोरथ योग्य स्थान में लगा । अहो ! तुम्हारी उत्तम होनहार थी जिससे यह विद्या सिद्ध को ॥43॥ तत्पश्चात् हनुमान् ने राम के आगमन को आदि लेकर अपने यहाँ आने तक का समस्त वृत्तांत ज्यों का त्यों विस्तार के साथ क्रमपूर्वक कहा ॥44 ॥तदनंतर समाचार सुनकर महातेजस्वी गंधर्व राजा अपनी अमरा नाम की रानी और अनुचरों के साथ वहाँ आ पहुँचा ॥45॥ इस प्रकार क्षण-भर में वह समस्त वन देवागमन के समान विद्याधरों का समागम होने से नंदन वन के समान हो गया ॥46॥ तदनंतर राजा गंधर्व पुत्रियों को साथ ले बड़े वैभव से किष्किंधपुर गया और वहाँ राम की आज्ञा में रहकर प्रीति को प्राप्त हुआ ॥47 ॥उसने असीम सौभाग्य की धारक तथा परम विभूति से युक्त तीनों उत्कृष्ट कन्याएँ शांत चेष्टा के धारक राम के लिए समर्पित की ॥48॥ सो राम इन कन्याओं से तथा अन्य विभूतियों से यद्यपि सेव्यमान रहते थे तथापि सीता को न देखते हुए वे दशों दिशाओं को शून्य मानते ॥49॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि समस्त भूमि गुणों से सहित, शुभ चेष्टाओं के धारक तथा अतिशय सुंदर मनुष्यों से अलंकृत रहे तो भी मन में वास करनेवाले मनुष्य के बिना वह भूमि गहन वन की तुल्यता धारण करती है ॥50॥ पूर्वोपार्जित तथा तीव्र रूप से बंध को प्राप्त हुए उत्कट कर्म से यह जीव परम रति को प्राप्त होता है और उस रति के कारण यह समस्त संसार अपने अधीन रहता है तथा कर्मरूपी सूर्य से प्रकाशमान होता है ॥51॥ इस प्रकार आप नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में राम को गंधर्व कन्याओं की प्राप्ति का वर्णन करनेवाला इक्यावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥5॥ |