+ शांतिजिनालय -
सड़सठवां पर्व

  कथा 

कथा :

अथानंतर राक्षसों का अधीश्वर रावण अपने दूत के वचन सुनकर क्षणभर मंत्र के जानकार मंत्रियों के साथ मंत्रणा करता रहा । तदनंतर कुंडलों के आलोक से देदीप्यमान गंडस्थल को हथेली पर रख अधोमुख बैठ इस प्रकार चिंता करने लगा कि ॥1-2॥ यदि हस्तिसमूह के संघट्ट से युक्त युद्ध में शत्रुओं को जीतता हूँ तो ऐसा करने से कुमारों की हानि दिखाई देती है॥ 3॥ इसलिए जब शत्रु समूह सो जावे तब अज्ञातरूप से धावा देकर कुमारों को वापिस ले आऊँ ? अथवा क्या करूँ ? क्या करने से कल्याण होगा ? ॥4॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! इस प्रकार विचार करते हुए उसे यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि उसका हृदय प्रसन्न हो गया ॥5॥ उसने विचार किया कि मैं बहुरूपिणी नाम से प्रसिद्ध वह विद्या सिद्ध करता हूँ कि जिसमें सदा तत्पर रहने वाले देव भी विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ॥6॥ ऐसा विचार कर उसने शीघ्र ही किंकरों को बुला आदेश दिया कि शांति जिनालय की उत्तम तोरण आदि से सजावट करो ॥7॥तथा सब प्रकार के उपकरणों से युक्त सर्व मंदिरों में जिनभगवान् की पूजा करो । किंकरों को ऐसा आदेश दे उसने पूजा की व्यवस्था का सब भार उत्तम चित्त की धारक मंदोदरी के ऊपर रक्खा॥8।।

गौतम स्वामी कहते हैं कि वह सुर और असुरों द्वारा वंदित बीसवें मुनिसुव्रत भगवान का महाभ्युदयकारी समय था । उस समय लंबे-चौड़े समस्त भरतक्षेत्र में यह पृथ्वी अर्हंत भवान् की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी॥ 6-10॥ देश के अधिपति राजाओं तथा गाँवों का उपभोग करने वाले सेठों के द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिन-मंदिर खड़े किये गये थे ॥11॥ वे मंदिर, समीचीन धर्म के पक्ष की रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी, भक्ति युक्त शासन देवों से अधिष्ठित थे ॥12॥ देशवासी लोग सदा वैभव के साथ जिनमें अभिषेक तथा पूजन करते थे और भव्यजीव सदा जिनकी आराधना करते थे, ऐसे वे जिनालय स्वर्ग के विमानों के समान सुशोभित होते थे ॥13॥ हे राजन् ! उस समय पर्वत-पर्वत पर, अतिशय सुंदर गाँव-गाँव में, वन-वन में पत्तन-पत्तन में, महल-महल में, नगर-नगर में, संगम-संगम में, तथा मनोहर और सुंदर चौराहे-चौराहे पर महाशोभा से युक्त जिनमंदिर बने हुए थे॥ 14-15॥ वे मंदिर शरद्ऋतु के चंद्रमा के समान कांति से युक्त थे, संगीत की ध्वनि से मनोहर थे, तथा नाना वादित्रों के शब्द से उनमें क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द हो रहे थे॥ 16॥ वे मंदिर तीनों संध्याओं में वंदना के लिए उद्यत साधुओं के समूह से व्याप्त रहते थे, गंभीर थे, नाना आचार्यों से सहित थे और विविध प्रकार के पुष्पों के उपहार से सुशोभित थे ॥17॥ परमविभूति से युक्त थे, नाना रंग के मणियों की कांति से जगमगा रहे थे, अत्यंत विस्तृत थे, ऊँचे थे और बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सहित थे ॥18 ꠰। उन मंदिरों में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी छत्रत्रय चमरादि परिवार से सहित पाँच वर्ण की जिनप्रतिमाएँ अत्यंत सुशोभित थीं॥ 19 ।꠰ विद्याधरों के नगर में स्थान-स्थान पर बने हुए अत्यंत सुंदर जिनमंदिरों के शिखरों से विजयार्ध पर्वत उत्कृष्ट हो रहा था ॥20॥ इस प्रकार यह समस्त संसार बाग-बगीचों से सुशोभित, नाना रत्नमयी, शुभ और सुंदर जिनमंदिरों से व्याप्त हुआ अत्यधिक सुशोभित था ॥21॥ इंद्र के नगर के समान वह लंका भी भीतर और बाहर बने हुए पापापहारी जिनमंदिरों से अत्यंत मनोहर थी॥ 22॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि वर्षाऋतु के मेघसमूह के समान जिसकी कांति थी, हाथी की सूँड़ के समान जिसकी लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, पूर्णचंद्र के समान जिसका मुख था, दुपहरिया के फूल के समान जिसके लाल-लाल ओंठ थे, जो स्वयं सुंदर था, जिसके बड़े-बड़े नेत्र थे, जिसकी चेष्टाएँ स्त्रियों के मन को आकृष्ट करने वाली थीं, लक्ष्मीधर-लक्ष्मण के समान जिसका आकार था और जो दिव्यरूप से सहित था, ऐसा दशानन, कमलिनियों के साथ सूर्य के समान अपनी अठारह हजार स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था ॥23-25॥ जिस पर सब लोगों के नेत्र लग रहे थे, जो अन्य महलों की पंक्ति से घिरा था, नाना रत्नों से निर्मित था और चैत्यालयों से सुशोभित था, ऐसे दशानन के घर में सुवर्णमयी हजारों खंभों से सुशोभित, विस्तृत, मध्य में स्थित, देदीप्यमान और अतिशय ऊँचा वह शांति जिनालय था कि जिसमें शांति जिनेंद्र विराजमान थे ॥26॥

गौतम स्वामी कहते हैं कि उत्तम भाग्यशाली मनुष्य, धर्म में दृढ़ बुद्धि लगाकर तथा संसार के सब पदार्थों को अस्थिर जानकर जगत् में उन जिनेंद्र भगवान के कांति संपन्न, उत्तम मंदिर बनवाते हैं जो सबके द्वारा वंदनीय हैं तथा इंद्र के मुकुटों के शिखर में लगे रत्नों की देदीप्यमान किरणों के समूह से जिनके चरण नखों की कांति अत्यधिक वृद्धिंगत होती रहती है ॥27॥ बुद्धिमान् मनुष्य कहते हैं कि प्राप्त हुए विशाल धन का फल पुण्य की प्राप्ति करना है और इस समस्त संसार में एक जैनधर्म ही उत्कृष्ट पदार्थ है, यही इष्ट पदार्थ को सूर्य के समान प्रकाशित करने वाला है ॥28॥

इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में शांतिजिनालय का वर्णन करने वाला सड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ॥17॥