कथा :
अथानंतर फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पौर्णमासी पर्यंत नंदीश्वर अष्टाह्निक महोत्सव आया ॥1॥ उस नंदीश्वर महोत्सव के आने पर दोनों पक्ष की सेनाओं के लोग परम हर्ष से युक्त होते हुए नियम ग्रहण करने में तत्पर हुए ॥2॥ सब सैनिक मन में ऐसा विचार करने लगे कि ये आठ दिन तीनों लोकों में अत्यंत पवित्र हैं ॥3॥ इन दिनों में हम न युद्ध करेंगे और न कोई दूसरी प्रकार की हिंसा करेंगे, किंतु आत्म-कल्याण में तत्पर रहते हुए यथाशक्ति भगवान् जिनेंद्र की पूजा करेंगे ॥4॥ इन दिनों में देव भी भोगादि से रहित हो जाते हैं तथा इंद्रों के साथ जिनेंद्रदेव की पूजा करने में तत्पर रहते हैं ॥5॥ भक्त देव, क्षीरसमुद्र के जल से भरे तथा कमलों से सुशोभित स्वर्णमयी कलशों से श्रीजिनेंद्र का अभिषेक करते हैं ॥6॥ अन्य लोगों को भी चाहिए कि वे भक्तिभाव से युक्त हो कलश न हों तो पत्तों आदि के बने दोनों से भी जिनेंद्रदेव की अनुपम प्रतिमाओं का अभिषेक करें ॥7॥ इंद्र नंदीश्वर द्वीप जाकर भक्तिपूर्वक जिनेंद्रदेव की पूजा करते हैं, तो क्या यहाँ रहने वाले क्षुद्र मनुष्यों के द्वारा जिनेंद्र पूजनीय नहीं हैं ? ॥8॥ देव रत्न तथा स्वर्णमय कमलों से जिनेंद्रदेव की पूजा करते हैं तो पृथ्वी पर स्थित निर्धन मनुष्यों को अन्य कुछ न हो तो मनरूपी कलिका द्वारा भी उनकी पूजा करना चाहिए ॥6॥ इस प्रकार ध्यान को प्राप्त हुए मनुष्यों ने बड़े उत्साह के साथ मनोहर लंका द्वीप में जो मंदिर थे उन्हें पताका आदि से अलंकृत किया ॥10॥ एक से एक बढ़कर सभाएँ, प्याऊ, मंच, पट्टशालाएँ, मनोहर नाट्यशालाएँ तथा बड़ी-बड़ी वापिकाएँ बनाई गई ॥11॥ जो उत्तमोत्तम सीढ़ियों से सहित थे तथा जिनके तटों पर वस्त्रादि से निर्मित जिनमंदिर शोभा पा रहे थे, ऐसे कमलों से मनोहर अनेक सरोवर सुशोभित हो रहे थे ॥12॥ जिनालय, स्वर्णादि की पराग से निर्मित नाना प्रकार के मंडलादि से अलंकृत एवं वस्त्र तथा कदली आदि से सुशोभित उत्तम द्वारों से शोभा पा रहे थे ॥13॥ जो घी, दूध आदि से भरे हुए थे, जिनके मुख पर कमल ढके हुए थे, जिनके कंठ में मोतियों की मालाएँ लटक रही थीं, जो रत्नों की किरणों से सुशोभित थे, जो नाना प्रकार के बेलबूटों से देदीप्यमान थे तथा जो जिन-प्रतिमाओं के अभिषेक के लिए इकट्ठे किये गये थे ऐसे सैकड़ों हजारों कलश गृहस्थों के घरों में दिखायी देते थे ॥14-15॥ मंदिरों में सुगंधि के कारण जिन पर भ्रमरों के समूह मँडरा रहे थे, ऐसे नंदन-वन में उत्पन्न हुए कर्णिकार, अतिमुक्तक, कदंब, सहकार, चंपक, पारिजातक, तथा मंदार आदि के फूलों से निर्मित अत्यंत उज्ज्वल मालाएँ सुशोभित हो रही थीं ॥16-17॥ स्वर्ण चाँदी तथा मणिरत्न आदि से निर्मित कमलों के द्वारा श्रीजिनेंद्रदेव की उत्कृष्ट पूजा की गई थी ॥18॥ उत्तमोत्तम नगाड़े, तुरही, मृदंग, शंख तथा काहल आदि वादित्रों से मंदिरों में शीघ्र ही विशाल शब्द होने लगा ॥19॥ जिनका पारस्परिक वैरभाव शांत हो गया था और जो महान् आनंद से मिल रहे थे, ऐसे लंका निवासियों ने जिनेंद्रदेव की परम महिमा प्रकट की ॥20॥ जिस प्रकार नंदीश्वरद्वीप में जिन-बिंब की अर्चा करने में उद्यत देव बड़ी विभूति प्रकट करते हैं उसी प्रकार भक्ति में तत्पर विद्याधर राजाओं ने बड़ी विभूति प्रकट की थीं ॥22॥ विशाल प्रताप के धारक रावण ने भी श्रीशांतिजिनालय में जाकर पवित्र हो पहले जिस प्रकार बलिराजा ने की थी, उस प्रकार भक्ति से श्री जिनेंद्रदेव की मनोहर अर्चा की ॥22॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो योग्य वैभव से युक्त हैं तथा उत्तम भक्ति के भार को धारण करने वाले हैं ऐसे श्रीजिनेंद्रदेव की पूजा करने वाले पुरुषों के पुण्य-समूह का निरूपण करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥23॥ ऐसे जीव देवों की संपदा का उपभोग कर तथा चक्रवर्ती के भोगों का सुयोग पाकर और अंत में सूर्य से भी अधिक जिनेंद्र प्रणीत तपश्चरण कर श्रेष्ठ मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥24॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में फाल्गुन मास की अष्टाह्निकाओं की महिमा का निरूपण करने वाला अड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥68॥ |