कथा :
अथानंतर जो शांति का कारण था, कैलास के शिखर के समान जान पड़ता था, शरद्ऋतु के मेघमंडल की उपमा धारण करता था, स्वयं देदीप्यमान था, दिव्य अर्थात् मनोहर था, महलों की पंक्ति से घिरा था और जंबूद्वीप के मध्य में स्थित महामेरु के समान खड़ा था― ऐसा श्रीशांतिजिनेंद्र के मंदिर में, विद्यासाधन की इच्छा से युक्त रावण ने दृढ़ निश्चय के साथ प्रवेश कर श्रीजिनेंद्रदेव की परम अद्भुत पूजा की ॥1-3॥ जो उत्कृष्ट कांति से खड़े हुए इंद्र के समान जान पड़ता था ऐसे शांत चित्त दशानन ने वादित्रसहित अभिषेकों, अत्यंत मनोहर मालाओं, धूपों, नैवेद्य के उपहारों और उत्तमवर्ण के विलेपनों से श्रीशांतिनाथ जिनेंद्र की पूजा की ॥4-5॥ जिसके बंधे हुए केश चूडामणि से सुशोभित थे तथा उन पर मुकुट लगा हुआ था, जो महाकांतिमान था, शुक्ल वस्त्र को धारण कर रहा था, जिसकी मोटी-मोटी उत्तम भुजाएँ बाजूबंदों से अलंकृत थीं, जो हाथ जोड़े हुए था, और घुटनों के समागम से जो पृथ्वी को पीड़ा पहुँचा रहा था ऐसे दशानन ने मन, वचन, काय से श्रीशांतिनाथ भगवान् को प्रणाम किया ॥6-7॥ तदनंतर जो निर्मल पृथ्वीतल में पुष्पराग मणि से निर्मित फर्श पर श्रीशांतिनाथ भगवान के सामने बैठा था, जो हाथों के मध्य में स्फटिकमणि से निर्मित अक्षमाला को धारण कर रहा था, और इसीलिए बलाकाओं को पंक्ति से युक्त नील मेघों के समूह के समान जान पड़ता था, जो एकाग्र ध्यान से युक्त था, जिसने अपने नेत्र नासा के अग्रभाग पर लगा रक्खे थे, तथा जो अत्यंत धीर था ऐसे रावण ने विद्या का सिद्ध करना प्रारंभ किया ॥-10॥ अथानंतर जिसे स्वामी ने पहले ही आज्ञा दे रक्खी थी ऐसी प्रियकारिणी मंदोदरी ने यमदंड नामक मंत्री को आदेश दिया कि जगह-जगह ऐसी घोषणा दिलाई जावे कि जिससे लोग सब ओर नियम-आखड़ियों में तत्पर और उत्तम दया से युक्त होवें ॥11-12॥ अन्य सब कार्य छोड़कर जिनचंद्र की पूजा की जावे और मत्सर भाव को दूर कर याचकों के लिए इच्छानुसार धन दिया जावे ॥13॥ जब तक जगत् के स्वामी-दशानन का यह योग समाप्त नहीं होता है तब तक सब लोग श्रद्धा में तत्पर एवं संयमी होकर रहें ॥14॥ यदि किसी नीच मनुष्य की ओर से अत्यधिक तिरस्कार भी होवे तो भी महाबलवान् पुरुषों को उसे निश्चितरूप से सह लेना चाहिये ॥15॥ इन दिनों में जो भी पुरुष क्रोध से विकार दिखावेगा वह पिता भी हो, फिर शेष की तो बात ही क्या है ? मेरा वध्य होगा ॥16॥ जो मनुष्य इस आदेश का पालन नहीं करेगा वह बोधि और समाधि से युक्त होने पर भी अनंतसंसार को ही प्राप्त होगा― उससे छूटकर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा ॥17॥ तदनंतर जैसी आपकी आज्ञा हो इस प्रकार शीघ्रता से कहकर तथा हर्षपूर्वक मंदोदरी की आज्ञा शिरोधार्य कर यमदंड मंत्री ने घोषणा कराई और सब लोगों ने संशय से रहित हो घोषणा के अनुसार ही सब कार्य किये ॥18॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि सूर्य के समान कांति वाले उत्तमोत्तम महलों के भीतर विद्यमान तथा निर्मल और उन्नत भावों को धारण करने वाली लंका की समस्त प्रजा, अन्य सब कार्य छोड़ जिनेंद्रदेव की पूजा करने में ही लीन हो गई ॥16॥ इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लोगों के नियम करने का वर्णन करने वाला उनहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥69॥ |