कथा :
समस्त विश्व के नाथ, अनन्त गुणों के सागर और धर्मचक्र के धारक ऐसे जिनराज श्री वीरस्वामी के लिए मैं मस्तक झकाकर नमस्कार करता हूँ ॥1॥ जिस प्रभु के अवतार लेने के पूर्व ही माता-पिता के महल में छह और नौ अर्थात् गर्भ में आने के पहले छह मास और गर्भकाल के नौ मास इस प्रकार पन्द्रह मास तक कुबेर ने रत्न आदि की वर्षा की ॥2॥ जन्ममहोत्सव के समय सुमेरुपर्वत पर जिन के अतिशय सुन्दर रूप को देखकर विस्मित हुए इन्द्र ने तृप्ति को नहीं पाकर अपने एक हजार नेत्र बनाये ॥3॥ जिन्होंने निरन्तर वर्धमान लक्ष्मी से, तीन जगत् में वर्धमान कीर्ति से और अपने वधमान गुणों से 'वर्धमान' यह सार्थक नाम इन्द्रों से प्राप्त किया। जो बाल-काल में ही संसार की सारभूत राज्यलक्ष्मी को जीर्ण तृणादि के समान छोड़कर और इन्द्रिय तथा कामरूपी शत्रुओं का विनाश कर तपश्चरण के लिए तपोवन को चले गये । जिन को अन्नदान देने के माहात्म्य से चन्दना नाम की राजपुत्री बन्धन-रहित होकर और पंचाश्चर्य प्राप्त कर तीन लोक में प्रसिद्ध हुई। जिन्होंने रुद्रकृत अनेक घोर उपसर्गों को जीतकर उसी के द्वारा 'महति-महावीर' नाम को प्राप्त किया। जिस महावीर्यशाली ने ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मों को शुक्लध्यानरूपी खड्ग से बहुत शीघ्र जीतकर मनुष्य और देवों से पूजित केवलज्ञान प्राप्त किया। जिन्होंने स्वर्ग और मुक्ति लक्ष्मी के सुखों को देनेवाला धर्म प्रकाशित किया, जो आज भी श्रावक और मुनिधर्म के रूप में दो प्रकार का प्रवर्त रहा है और आगे भी युग के अन्त तक स्थिर रहेगा। कर्मों के जीतने से जिन्होंने 'वीर' नाम प्राप्त किया, उपसर्गों को जीतने से जिन्होंने 'महावीर' नाम पाया और धर्मोपदेश देने से जिन्होंने 'सन्मति' नाम प्राप्त किया । इनको आदि लेकर परम अतिशयशाली समस्त अनन्त गुणों से जो परिपूर्ण हैं, ऐसे श्री वीरप्रभु की मैं उन गुणों की प्राप्ति के लिए अति प्रमोद से स्तुति करता हूँ ॥4-10॥ धर्मचक्र से अंकित, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, वृषभ(बैल) चिह्नवाले और धर्मात्माजनों को धर्म के दातार ऐसे श्री वृषभस्वामी को धर्म की प्राप्ति के लिए मैं वन्दना करता हूँ ॥11॥ जो अकेले होनेपर भी मोह, काम और इन्द्रिय आदि शत्रु-समुदाय से और अनेकों परीषहों से सम्मिलित होनेपर भी नहीं जीते जा सके, ऐसे श्री अजितनाथ की मैं हर्ष से स्तुति करता हूँ ॥12॥ जो तीन जगत् के भव्य जीवों के संसार के हरण करनेवाले हैं और सर्वसुखों के करनेवाले हैं, ऐसे सम्भवनाथ की मैं उन जैसी गति की प्राप्ति के लिए निरन्तर पूजा करता हूँ ॥13॥ जो ज्ञानानन्दमय हैं, अपनी दिव्य वाणी से सज्जनों को आनन्द करनेवाले हैं, ऐसे अभिनन्दन प्रभु की मैं आत्मोत्पन्न आनन्द की प्राप्ति के लिए सदा स्तुति करता हूँ ॥14॥ जो भव्य जीवों को सन्मति के देनेवाले हैं और देवों के भी देव हैं, ऐसे सुमति देव को मैं निर्मल सन्मति की सिद्धि के लिए मस्तक से नमस्कार करता हूँ ॥15॥ जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी और प्रातिहार्यादिरूप बहिरंगलक्ष्मी से अलंकृत हैं, जगत् के प्राणियों को सर्व प्रकार की लक्ष्मी के देनेवाले हैं और पद्म के समान कान्ति के धारक हैं, ऐसे पद्मप्रभ स्वामी को मैं उन की लक्ष्मी के पाने के लिए नमस्कार करता हूँ ॥16॥ जो सुबुद्धि के धारकजनों को अपना सामीप्य देनेवाले हैं, सर्वकर्म रहित हैं, अनन्त सुखी और अनन्त गुणशाली हैं, ऐसे सुपार्श्वनाथ के लिए नमस्कार है ॥17॥ जो धर्मरूप अमृत-बिन्दुओं से जगत् को आनन्दित करते हैं और अपनी ज्ञान-किरणों से जगत् के अज्ञानान्धकार को दूर करते हैं, ऐसे चन्द्रप्रभ स्वामी का मैं आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्तवन करता हूँ ॥18॥ जो कर्मों के हन्ता हैं और भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की विधि के उपदेष्टा हैं, ऐसे सुविधिनाथ की मैं स्वर्ग-मुक्ति के सुख आदि की प्राप्ति के लिए तथा कर्मों के विनाश के लिए सहर्षे पूजा करता हूँ ॥19॥ जो अपनी दिव्यध्वनिरूप अमृतपूर के द्वारा भव्य जीवों के पाप-आताप के विनाशक हैं, ऐसे शीतलनाथ को मैं अपने पाप-सन्ताप के दूर करने के लिए नमस्कार करता हूँ ॥20॥ जो तीन जगत् के सज्जनवृन्द को कल्याण के दाता हैं, कर्म-शत्रुओं के विजेता हैं और समस्त श्रेयों से संयुक्त हैं, ऐसे श्रेयान्स जिन को मेरा श्रेयःप्राप्ति के लिए नमस्कार हो ॥21॥ जो तीन जगत् के नाथ इन्द्रादिकों के द्वारा पूजित होनेपर भी कभी हर्षित नहीं होते और निन्दा किये जानेपर भी कभी जरा-सा भी द्वेष मन में नहीं लाते हैं ऐसे वासुपूज्य स्वामी का मैं आश्रय लेता हूँ ॥22॥ जिन के निर्मल वचन योगियों के अनादिकालीन कर्म-मल का नाश करते हैं वे निर्मलात्मा विमलनाथ मेरे द्वारा स्तुत होकर मेरे पापमल का नाश करें ॥23॥ जिस के अनन्त गुण समस्त लोक को पूरकर अहो देवेन्द्रों के हृदयों में संचरित हो रहे हैं ऐसे वन्द्य अनन्त देव हमें अपने गुणों को देवें ॥24॥ जिन के द्वारा प्ररूपित मुनि-श्रावकरूप दोनों प्रकार का धर्म सुज्ञानी जनों को स्वर्ग-मुक्ति के सुख का देनेवाला है, वे धर्मचक्र के स्वामी धर्मनाथ मेरे धर्म की प्राप्ति के लिए हों ॥25॥ जिन की वाणी से जीवों के असंख्य दुष्कर्मरूप शत्र और कषाय-इन्द्रियादिरूप उपद्रव शान्त हो जाते हैं, ऐसे शान्तिनाथ की मैं शान्ति-प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥26॥ जिन की दिव्य ध्वनि के द्वारा इस लोक में कुन्थु आदि छोटे-छोटे जन्तुओं की भी रक्षा सम्भव हुई, जो उन क्षुद्र प्राणियोंपर सदा सदय हैं, ऐसे कुन्थुकृपापरायण कुन्थुनाथ की मैं वन्दना करता हूँ ॥27॥ जिन के वचनरूप शस्त्राघात से दुर्धरकर्मरूप शत्रु अपनी इन्द्रियरूपी सेना के साथ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे अरनाथ मेरे अरियों के नाश के लिए सहायक हों ॥28॥ कर्मरूप मल्लों के विजेता, शरणार्थियों के त्राता और मोहशत्रु के भेत्ता मल्लिनाथ की मैं उन की शक्तिप्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥29॥ जो मुनि आदि चतुर्विध संघ के लिए निरन्तर व्रत आदि देते हैं, उन व्रत-परिपूर्ण मुनि सुव्रतनाथ को मैं सद्बतों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ॥30॥ जिन्होंने शत्रुओं को नमाया है, जो तीन जगत् के नाथों से वन्दित हैं और कर्मशत्रुओं की सन्तान के विनाशक हैं ऐसे नमीश्वर की मैं उन के गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥31॥ जिन्होंने मोहकर्म और इन्द्रिय-शत्रुओं के मुख का शीघ्र भंजन कर बाल-काल में ही दीक्षा ग्रहण की, ऐसे अद्भुत नेमिनाथ की मैं संयम की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥32॥ जिन से महामन्त्र पाकर नाग और नागिनी उसके फल से धरणेन्द्र और पद्मावती हुए, उन पाश्र्वनाथ की में अहर्निश स्तुति करता हूँ ॥33॥ जो कर्मों के जीतने में वीर हैं, धर्म का उपदेश देने में सन्मतिवाले हैं और उपसर्गरूप अग्नि-पात में भी महावीर हैं, ऐसे.श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥34॥ इस भरत क्षेत्र में ये चौबीस तीर्थकर तीर्थ-प्रवर्तन से प्रख्यात हैं, अतः शास्त्रारम्भ में सम्यक् प्रकार से मेरे द्वारा स्तुति किये गये ये सभी तीर्थंकर मेरे समस्त सत्कार्य की सिद्धि के लिए सहायक होवें ॥35॥ अतीत काल में जितने अनन्त तीर्थ कर हो गये हैं और वर्तमान काल में श्रीसीमन्धर स्वामी को आदि लेकर अढ़ाई द्वीप में जितने तीर्थंकर विद्यमान हैं, जो तीन जगत् के देवसमूह से पूजित हैं और धर्म साम्राज्य के नायक हैं, उन सब की में इस ग्रन्थ के आदि में स्तुति और वन्दना करता हूँ। वे मेरे विघ्नों के दूर करनेवाले होवें ॥36-37॥ जो तीन लोक के शिखरपर निवास करते हैं, कर्मरूप शरीर से रहित हैं, ज्ञानरूप शरीर के धारक हैं, उत्तम अष्ट सद्गुणों से संयुक्त हैं, अमृत हैं, मुमुक्षुजनों के द्वारा निरन्तर मन से ध्यान किये जाते हैं और सुख के भण्डार हैं, ऐसे उन समस्त अनन्त सिद्ध भगवन्तों को उन के गुणों की प्राप्ति के लिए और सिद्धि के लिए मैं स्मरण करता हूँ ॥38-39॥ चार ज्ञान के धारक, सात ऋद्धियों से विभूषित, परम कवीन्द्र वृषभसेन आदि समस्त गणधरों की मैं वन्दना करता हूँ ॥40॥ भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष चले जानेपर श्री गौतम, सुधर्मा और अन्तिम जम्बूस्वामी ये तीन केवली यहाँपर वासठ वर्ष तक धर्म का प्रवर्तन करते रहे, अतः उन के गुणों का इच्छुक मैं उन के चरण-कमलों की शरण को प्राप्त होता हूँ ॥41-42॥ नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु स्वामी ये पाँच मुनीश्वर सर्व अंग और पूर्वो के वेत्ता एवं तीन जगत् के हितकर्ता सौ वर्षों के अन्तरकाल में हुए, मैं ज्ञान प्राप्ति के लिए उन के चरणों की स्तुति करता हूँ ॥43-44॥ इन के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, जिनसेन, विजय, बुद्धिल, गंग और सुधर्म ये ग्यारह मुनिपुंगव एक सौ तेरासी वर्ष के भीतर दश पूर्व और ग्यारह अंग के धारक और धर्म के प्रकाशक हुए। मैं उन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रधारी मुनिराजों के चरण-कमलों को नमस्कार करता हूँ ॥45-47॥ इन के पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, द्रमसेन और कंस ये ग्यारह अंगों के वेत्ता मुनीश्वर दो सौ बीस वर्ष तक धर्म के प्रवर्तक हुए। मैं उन के चरण-कमलों की स्तुति करता हूँ ॥48-49॥ इन के पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, जयबाहु और लोहाचार्य ये चार तपोधन आद्य आचारांग के धारक यहाँपर उत्पन्न हुए ॥50॥ तत्पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहद्दत्त ये अंग-पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता आचार्य एक सौ अठारह वर्ष के भीतर यहाँ पर उत्पन्न हुए। उन सब निर्ग्रन्थ मुनिराजों की में स्तुति करता हूँ ॥50-52॥ तदनन्तर इस भरतक्षेत्र में काल के दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होनेपर भूतबली और पुष्पदन्त नाम के दो मुनिराज हुए। उन्होंने श्रुत-विनाश के भय से अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकों में लिखकर स्थापित किया और सर्व संघ के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उन की महापूजा की । वे दोनों मुनीश्वर धर्म की वृद्धि करनेवाले हैं, स्तुत्य हैं और वन्दनीय हैं, वे मुझे श्रुत की प्राप्ति करें ॥53-55॥ इन के पश्चात् कुन्दकुन्द आदि अन्य बहुत- से आचार्य और निर्ग्रन्थ कवीश्वर इस महीतलपर हुए हैं और जो पंच आचार आदि से भूषित हैं, वे सब आचार्य, तथा जिनवाणी के पठन-पाठन में निरत पाठक( उपाध्याय) मेरे द्वारा वन्दनीय और संस्तुत हैं, वे सब मुझे अपने-अपने गुणों को देवें ॥56-57॥ जो त्रिकालयोग से संयुक्त हैं, महातपों के करनेवाले हैं और जगत्पूज्य हैं, वे सर्व साधुजन मेरे उन-उन तपों की प्राप्ति के लिए सहायक होवें ॥58॥ जो भारती(सरस्वती) जगन्मान्य है और जिनेन्द्रदेव के मुख-कमल से निक है, वह कविता के रचने में और चारित्र के बढ़ाने में मेरी बुद्धि को दक्ष और शुद्ध करे ॥59॥ वह भारती ही मेरे लिए सदा वन्दनीय हैं और मेरे द्वारा नमस्कृत हैं, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आरम्भ किये गये इस ग्रन्थ की सिद्धि के लिए मेरी बुद्धि को परम शुद्ध और समस्त अर्थ को दिखानेवाली करे ॥60॥ इस प्रकार सद्-गुणशाली सुदेव, शास्त्र और गुरु को अपने इष्ट कार्य में आनेवाले अनिष्टों को दूर करने के लिए तथा मंगल की प्राप्ति के लिए नमस्कार करके अब वक्ता, श्रोता और कथा आदि का लक्षण कहता हूँ, जिस से कि स्व-पर का उपकारक यह ग्रन्थ इस लोक में परम प्रतिष्ठा को प्राप्त होवे ॥61-62॥ [वक्ता का लक्षण] - जो सर्व परिग्रह से रहित हों, ख्याति और पूजा से पराङ्मुख हों, अनेकान्त मत के धारक हों, सर्व सिद्धान्त के पारगामी हों, जगत् के अकारण बन्धु हों, भव्य प्राणियों के हित में उद्यत रहते हों, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से भूषित हों, साम्यभाव आदि गुणों के सागर हों, लोभ-रहित हों, अहंकार-विहीन हों, गुणी और धार्मिकजनों के साथ वात्सल्यभाव के धारक हों, जैनशासन के माहात्म्य-प्रकाशन में सदा तत्पर रहते हों, महाबुद्धिशाली हों, महान् विद्वान हों, ग्रन्थ आदि के रचने में समर्थ हों, प्रख्यात कीर्तिवाले हों, ज्ञानियों के द्वारा मान्य हों, सत्यवचनों से अलंकृत हों, तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक सारभूलगुणों से जो विभूषित हों, ऐसे जो आचार्य हैं, वे ही विद्वानों के द्वारा महान् उत्तम शास्त्रों के वक्ता माने गये जानना चाहिए। कारण ऐसे ही वक्ताओं के वचनों से दक्ष पुरुष धर्म को और तप को ग्रहण करते हैं क्योंकि उन के आचरण की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता मानी जाती है। अन्य शिथिलाचारी पुरुषों के वचन कोई नहीं मानता है। क्योंकि उन के विषय में लोग ऐसा कहते हैं कि यदि यह सत्य धर्म को जानता है, तो फिर स्वयं उसका आचरण क्यों नहीं करता है। ऐसा कहकर लोग शिथिलाचारी के कहे हुए धर्म को स्वीकार नहीं करते हैं। जो ज्ञानहीन वक्ता यहाँपर ज्ञान का लवमात्र पाकर उद्धत हुआ धर्म का प्रतिपादन करता है, उसके लिए लोग 'अरे, यह क्या जानता है', ऐसा कहकर उस की हँसी उड़ाते हैं ॥63-70॥ अतएव यहाँपर शास्त्रकर्ताओं और धर्मोपदेश करनेवाले वक्ताओं के ज्ञान और चारित्रात्मक दो परम गुण जानना चाहिए ॥71॥ [श्रोता का लक्षण] - जो सम्यग्दर्शन, शील और व्रत से संयुक्त हों, सिद्धान्त के सुनने के लिए उत्सुक हों, सुनकर उसके अवधारण करने में समर्थ हों, जिनदेव के शासन में निरत हों, अर्हन्तदेव के भक्त हों, सदाचारी हों, निर्ग्रन्थ गुरुओं के सेवक हों, विचार करने में चतुर हों, तत्त्व के स्वरूप-निर्णय में कसौटी के पाषाण के सदृश चतुर परीक्षक हों, और जो आचार्य के द्वारा कहे गये श्रुत का सम्यक् प्रकार से सार-असार विचार करके असार को तथा पहले से ग्रहण किये गये अतत्त्व को छोड़कर सारभूत सत्य को ग्रहण करनेवाले हों, और जो विवे की जन आचार्य के स्खलन (चूक) पर जरा भी नहीं हँसते हों, जो तोता, मिट्टी और हंस के क्षीर-नीर विवेक समान गुणों से युक्त हों और सर्व प्रकार के दोषों से दूर हों, इनको आदि लेकर अन्य अनेक उत्तम गुणों से युक्त जो ज्ञानी श्रोता होते हैं, वे ही शुभाशयवाले शास्त्रों के परम श्रोता जानना चाहिए ॥72-76॥ उत्तम कथा का स्वरूप-जिस कथा में जीव आदि समस्त तत्त्व सम्यक् प्रकार से निरूपण किये गये हों, जिसमें परमार्थ का वर्णन हो, संसार, भोग और शरीर गहादि में मुख्य रूप से संवेग(वैराग्य) का निरूपण हो, जिसमें दान, पूजा, तप, शील और व्रतादिकों का स्वरूप तथा उन के फलों का वर्णन हो, जिसमें बन्ध और मोक्ष आदि का तथा उन के कारणों का व्यक्त एवं विस्तृत वर्णन हो, जिस कथा में धर्म की मातास्वरूप प्राणिदया मुख्य रूप से कही गयी हो, सर्व प्रकार के परिग्रह के परित्याग से स्वर्ग और मोक्ष को जानेवाले बुद्धिमान पुरुष जिसमें वर्णित हों, जिसमें तिरेसठ शला का महापुरुषों की महाऋद्धि, उन के चरित, भवान्तर और सम्पदा का वर्णन किया गया हो, जिसमें विद्वानों के द्वारा अन्य अनेक पुण्य-विपाक कहे गये हों, ऐसी सभी सारभूत पुण्यदायिनी सच्ची धर्मकथाएँ जाननी चाहिए ॥77-81॥ जो पूर्वापर विरोध से रहित है, ऐसी जिनसूत्र से उत्पन्न हुई सत्कथाएँ ही श्रोताओं को सुननी चाहिए। किन्तु शृंगार आदि का वर्णन करनेवाली पापकारिणी अन्य कोई भी कथा कभी नहीं सुननी चाहिए ॥82॥ इस प्रकार उत्तम वक्ता, श्रोता और कथा का लक्षण पृथक्-पृथक् सम्यक् प्रकार से निरूपण करके अब मैं श्री वीरस्वामी का परम पावन, रमणीक और महापुण्य का कारणभूत पाप का नाशक चरित्र वक्ता और श्रोता आदि जनों के हित का उद्देश्य करके कहूँगा। जिस के सुनने से सभ्यजनों के अत्यन्त पुण्य का संचय होता है और पूर्वभव के पाप क्षय को प्राप्त होते हैं तथा महान संवेग बढ़ता है ॥83-85॥ इस प्रकार सकल सुयुक्तियों से परम गुणयुक्त अपने इष्ट देवों को प्रणाम करके और वक्ता आदि सभी का स्वरूप कहके, जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से उत्पन्न हुई, धर्म की खानिस्वरूप अन्तिम जिनपति महावीर स्वामी की सत्कथा को अपने कर्म-शत्रुओं के शान्त करने के लिए कहता हूँ ॥86॥ वीरजिनेन्द्र वीर मनुष्यों में अग्रणी हैं, गुणों के निधान हैं, वीर पुरुष ही वीर जिन के आश्रय को प्राप्त हुए हैं, वीर के द्वारा ही इस लोक में उत्तम वीर-वैभव प्राप्त होता है, ऐसे श्री वीरस्वामी को मेरा नमस्कार हो। वीर से सुबुद्धिशालियों के वीर-गुण प्राप्त होते हैं, वीर जिनेन्द्र के अनुचर भी वीर ही होते हैं, ऐसे वीरजिनेन्द्र में भक्ति को करनेवाले मेरे हे वीर, तू मुझे अपने अद्भुत गुणों को दे ॥87॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति विरचित श्रीवीर-वर्धमान-चरित में इष्टदेव को नमस्कार और वक्ता आदि के लक्षणों का वर्णन करनेवाला प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ॥1॥ |