कथा :
कर्मरूपी मल्ल को गिराने में वीराग्रणी और परीषह-उपसगों के जीतनेवाले श्री वीरप्रभु को मैं धैर्य-प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ॥1॥ असंख्यात द्वीप-समुद्रोंवाले इस मध्यलोक के मध्य में राजाओं में चक्रवर्ती के समान जम्बूवृक्ष से संयुक्त जम्बूद्वीप शोभित है ॥2॥ उस जम्बूद्वीप के मध्य में महान् उन्नत सुदर्शन नाम का मेरुपर्वत देवों के मध्य में तीर्थंकर के समान सर्व पर्वतों में शिरोमणि रूप से शोभित है ॥3॥ उस मेरुपर्वत के पूर्व दिशा-भाग में पूर्व विदेह नाम का एक उत्तम क्षेत्र श्री जिनेन्द्रदेवों से और धार्मिकजनों से रमणीय शोभित है ॥4॥ यतः उस क्षेत्र से अनन्त मुनिगण तप करके देह-रहित हो गये हैं, अतः वह क्षेत्र ‘विदेह' इस सार्थक नाम को धारण करता है ॥5॥ उस पूर्व विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित सीता नदी के उत्तर दिशावर्ती तटपर लक्ष्मी से शोभायमान एक पुष्कलावती नाम का देश है ॥6॥ उस देश में पुर, ग्राम और वनादि में सर्वत्र उन्नत ध्वजाओं से युक्त तीर्थंकरों के मन्दिर शोभायमान हैं, वैसे सुन्दर देवों के भवन भी नहीं हैं ॥7॥ उस देश में सर्वत्र चतुर्विध संघ से विभूषित तीर्थकर और गणधर देवादिक धर्म-प्रवर्तन के लिए विहार करते रहते हैं । उस देश में कोई भी पाखण्डी वेषधारी नहीं है ॥8॥ उस देश में अर्हन्त भगवन्त के मुखारविन्द से प्रकट हुआ अहिंसा लक्षण धर्म ही मुनि और श्रावकजनों के द्वारा नित्य प्रवर्तमान रहता है। इस के अतिरिक्त जीवों को बाधा पहुँचानेवाला और कोई धर्म वहाँ नहीं है ॥9॥ जहाँ के ज्ञानीजन नित्य ही ज्ञान की प्राप्ति और अज्ञान के नाश के लिए अंग और पूर्वगत शास्त्रों को पढ़ते हैं। वहाँपर कुशास्त्रों को कभी भी कोई व्यक्ति नहीं पढ़ता है ॥10॥ वहाँ की सर्व प्रजा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णवाली ही है । सारी प्रजा सुख-संयुक्त, निरन्तर धर्म-पालन में निरत और बहुत लक्ष्मी से सम्पन्न है । वहाँपर ब्राह्मण वर्ण नहीं है ॥11॥ उस देश में मनुष्य और देवों से पूजित असंख्य तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं ॥12॥ जिस विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के शरीर पाँच सौ धनुष उन्नत हैं, उन की आयु एक पूर्वकोटी वर्ष प्रमाण है और वहाँपर सदा चौथा काल ही रहता है ॥13॥ जहाँपर उत्पन्न हुए महामनुष्य तप के द्वारा स्वर्ग, मोक्ष और अहमिन्द्रपना ही सिद्ध करते हैं, वहाँ का और क्या अधिक वर्णन किया जा सकता है ॥14॥ उस पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नाम की नगरी है, जो कि बारह योजन लम्बी है, नौ योजन चौड़ी है, एक हजार चतुःपथों( चौराहों) से संयुक्त है, एक हजार द्वारों से विभूषित है, पाँच सौ छोटे द्वारोंवाली है, बारह हजार राजमार्गों से युक्त है, धार्मिक जनों से परिपूर्ण है और महापुण्य की कारणभूत है ॥15-16॥ यह पुण्डरोकिणी नगरी उस देश के मध्य में इस प्रकार से शोभित है, जैसे कि शरीर के मध्य में नाभि शोभती है । वह नगरी चैत्यालयों के ऊपर उड़नेवाली ध्वजाओं से मानो स्वर्गलोक को बुलाती हुई-सी जान पड़ती है ॥17॥ उस नगरी के बाहर मधुक नाम का एक रमणीक महावन है, जो शीतल छायावाले और फले-फूले हुए वृक्षों से युक्त तथा ध्यानस्थ मुनियों से भूषित है ॥18॥ उस वन में पुरूरवा नाम का भद्र प्रकृति का एक भीलों का स्वामी रहता था। उस की कालि का नाम की एक भद्र और कल्याणकारिणी प्रिया थी॥१९॥ किसी समय जिनदेव की वन्दना के लिए जाते हुए सागरसेन नामक एक मुनिराज उस वन में आये । वे मुनिराज धर्म के स्वामी किसी सार्थवाह के साथ आ रहे थे कि मार्ग में उस सार्थवाह को पापोदय से भीलोंने पकड़ लिया। अशुभ कर्म के उदय से क्या नहीं हो जाता है ॥20-21॥ सार्थवाह के साथ से बिछुड़कर और दिशा भूल जाने से ईर्यासमिति से इधर-उधर घूमते हुए धर्म में संलग्न उन मुनिराज को पुरूरवा भीलने दूर से देखा और उन्हें मृग समझकर बाण द्वारा मारने के लिए उद्यत हुआ। तभी पुण्योदय से उस की स्त्रीने शीघ्र ही यह कहकर उ से मारने से रो का कि 'अरे, ये तो संसार का अनुग्रह करनेवाले वनदेव विचर रहे हैं। हे नाथ, तुम्हें महापाप कर्म का कारणभूत यह निन्द्य कार्य नहीं करना चाहिए' ॥22-24॥ अपनी स्त्री के ये वचन सुननेसे, और काललब्धि के योग से प्रसन्नचित्त होकर वह उन मुनिराज के पास गया और अति हर्ष के साथ मस्तक से उन्हें नमस्कार किया ॥25॥ धर्मबुद्धि उन मुनिराजने अपनी दयालुता से उस भव्य से कहा'हे भद्र, मेरे उत्तम धर्म के प्रकट करनेवाले सारभूत वचन को सुनो ॥26॥ जिस धर्म के द्वारा तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाली लक्ष्मी प्राप्त होती है, जिस के द्वारा शत्रुचक्र का नाश करने वाला राज्य प्राप्त होता है और इन्द्रादि के सुख प्राप्त होते हैं, मनोवांछित भोगोपभोग की वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और सभी अभीष्ट सम्पदाएँ मिलती हैं, तथा जिस धर्म की प्राप्ति से सुख के देनेवाले स्वजन-परिजन आदि मिलते हैं, वह धर्म मद्य, मांस आदि के तथा पंच उदुम्बर फलों के भक्षण के त्याग से प्राप्त होता है। अतः हे भव्य, तू सम्यक्त्व के साथ, तथा अहिंसादि पाँच अणुव्रतों, सारभूत तीन गुणत्रतों और चार शिक्षाव्रतों के साथ उस धर्म को धारण कर । यह स्वर्ग के सुखों को देनेवाला एकदेशरूप धर्म गृहस्थों के द्वारा साधा जाता है ॥27-30॥ मुनिराज के इन वचनों से उस भिल्लराजने मद्य-मांसादि का भक्षण और जीवघात आदि का त्याग कर और परम श्रद्धा के साथ मुनिराज के चरण-कमलों को नमस्कार कर शुभ हृदयवाला होकर सम्यग्दर्शन के साथ श्रावक के बारह ही व्रतों को धर्म-प्राप्ति के लिए शीघ्र ग्रहण कर लिया॥३१-३२॥ जैसे ग्रीष्मऋत में प्यासा मनुष्य जल से परिपूर्ण सरोवर को पाकर अति प्रसन्न होता है, उसी प्रकार वह भील भी संसार के दुःखों से डरकर और जिनेश्वरोपदिष्ट सत्य धर्म को प्राप्त कर अतिहर्षित हुआ। जैसे शास्त्राभ्यास का इच्छुक मनुष्य विद्वानों से भरे हुए गुरुकुल को पाकर हर्षित होता है, अथवा जैसे रोगी मनुष्य रोग-नाशक औषधि को पाकर प्रमुदित होता है, अथवा जैसे दरिद्री पुरुष निधान को पाकर परमानन्द को प्राप्त होता है, उसी प्रकार अत्यन्त दुर्लभ धर्म के लाभ से वह भिल्लराज भी अत्यन्त सन्तोष को प्राप्त हुआ ॥33-35॥ तत्पश्चात् वह पुण्यात्मा भिल्लराज मुनिराज को उत्तम मार्ग दिखलाकर और उन्हें बार-बार नमस्कार करके हर्षित होता हुआ अपने स्थान को चला गया ॥36॥ उसने अपने जीवन-पर्यन्त उस सब व्रत-समुदाय को उत्तम प्रकार से पालन किया और अन्त में समाधि के साथ मरण कर व्रत-पालन से उत्पन्न हुए पुण्य के उदय से अनेक सुखों के भण्डार ऐसे सौधर्म नाम के महाकल्प में एक सागरोपम की आयु का धारक महद्धिक देव उत्पन्न हुआ ॥37-38॥ उपपादशय्या के शिलासम्पुटगर्भ में अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही नवयौवन अवस्था को प्राप्त कर और तत्क्ष ग प्राप्त हुए अवधिज्ञान से पूर्वभव में किये गये व्रतादि का फल जानकर और स्वर्ग-विमानादि की उत्कृष्ट लक्ष्मी को देखकर उसने धर्म में अपनी मति को और भी दृढ़ किया ॥39-40॥ तदनन्तर धर्म आदि की सिद्धि के लिए हर्षित होकर उसने अपने परिवार के साथ चैत्यालय में जाकर जिनेन्द्र देवों की प्रतिमाओं की जल को आदि लेकर फल पर्यन्त आठ भेदरूपउत्तम द्रव्यों से गीत, नृत्य, स्तवन आदि के साथ महापूजा की। पुनः चैत्यगुमों में स्थित तीर्थंकरों की मूर्तियों का पूजन करके वह अपने वाहनपर आरूढ़ होकर मेरुपर्वत और नन्दीश्वर आदि में गया और वहाँ की प्रतिमाओं का पूजन करके तथा विदेहादि क्षेत्रों में स्थित जिनेन्द्रदेव, केवलज्ञानी और गणधरादि महात्माओं का उच्च भक्ति के साथ महापूजन करके उसने उन सब को मस्तक से नमस्कार किया। तथा उन से समस्त तत्त्व आदि से गर्भित मुनि और श्रावकों के धर्म को सुनकर और बहुत-सा पुण्य उपार्जन करके वह अपने देवालय को चला गया ॥41-45॥ इस प्रकार वह अनेक प्रकार से पुण्य को उपार्जन करता हुआ और अपनी शुभ चेष्टा से अपनी देवियों के साथ देव-भवनों में तथा मेरुगिरि के वनों आदि में कोड़ा करता हुआ, उन के मनोहर गीत सुनता हुआ और दिव्य नारियों के नृत्य-शृंगार, रूप-सौन्दर्य और विलास को देखता हुआ तथा पूर्व पुण्योपार्जित नाना प्रकार के परम भोगों को भोगता हुआ वह स्वर्गीय सुख भोगने लगा। उसका शरीर सात हाथ उन्नत था, सप्त धातुओं से रहित और नेत्र-स्पन्दन आदि से रहित था। वह तीन ज्ञान का धारक, और अणिमादि आठ ऋद्धियों से विभूषित था। दिव्य देह का धारक था। इस प्रकार वह सुख-सागर में निमग्न रहता हुआ अपना काल बिताने लगा ॥46-49॥ इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड के मध्य में कोशल नाम का एक देश है, जो आर्यपुरुषों की मुक्ति का कारण है ॥50॥ जहाँपर उत्पन्न हुए कितने ही भव्य आर्य पुरुष सकल चारित्र के द्वारा मोक्ष को जाते हैं, कितने ही वेयक आदि विमानों में और स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनभक्त लोग श्रावक धर्म के द्वारा सौधर्म को आदि लेकर अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और इन्द्र-सम्पदा को प्राप्त करते हैं ॥51-52॥ कितने ही लोग सुपात्रदान के द्वारा भोगभूमि को जाते हैं और कितने ही पूर्व-विदेहादि में उत्पन्न होकर राज्यलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं ॥53॥ जिस आर्य क्षेत्र में केवली, ऋषि और मुनिजनादिक जगत्पूज्य पुरुष चतुर्विध संघ के साथ धर्म आदि की प्रवृत्ति के लिए सदा विहार करते रहते हैं ॥54॥ जहाँ पर ग्राम, पत्तन और पुरी आदिक उत्तुंग जिनालयों से शोभायमान हैं और जहाँ के वन फल-संयुक्त हैं और ध्यानारूढ योगिजनों से शोभित हैं ॥55॥ इत्यादि वर्णन से युक्त उस कोशल देश के मध्य में विनीता नाम की एक रमणीक पुरी है, जो विनीत जनों से परिपूर्ण है ॥56॥ जिस पुरी को आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की उत्पत्ति के समय देवोंने बनाया था। और जो उसके मध्य में स्थित दिव्य, स्वर्ण-रत्नमयी उत्तुंग चैत्यालय से शोभित है । तथा ऊँचे शाल आदिसे, गोपुर से और शत्रुओं के द्वारा अलंध्य लम्बी खाई एवं भवनों की पंक्तियों से शोभित है ॥57-58॥ वह पुरी नौ योजन चौड़ी है, और बारह योजन लम्बी है। अधिक क्या वर्णन कर, वह नगरी देवादिकों को भी अत्यन्त आनन्द करनेवाली है ॥59॥ वहाँ के निवासी लोग दानी, मृदुस्वभावी, दक्ष, पुण्यशील, शुभाशयी, आर्जव आदि गुण-सम्पन्न, रूप-लावण्य से भूषित, धार्मिक, उत्तम आचारवान्, सुखी, जिनभक्त, पूर्वोपार्जित महापुण्यशाली, अत्यधिक धनी और शुभ परिणामों के धारक हैं, वे वहाँ के ऊँचे-ऊँचे भवनों में इस प्रकार आनन्द से रहते हैं, जिस प्रकार कि देव लोग अपने विमानों में रहते हैं। वहाँ की स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान ही सैकड़ों गुणों से युक्त और देवियों के समान आभा की धारक हैं ॥60-62॥ मोक्ष की प्राप्ति के लिए देव लोग भी जिस नगरी में अवतार लेने की इच्छा करते हैं, उस स्वर्ग और मुक्ति की जननीस्वरूपा नगरी का और अधिक क्या वर्णन किया जावे ॥63॥ उस विनीता नगरी का अधिपति श्रीमान् भरत नरेश हुआ, जो चक्रवर्तियों में प्रथम था और आदि सृष्टि-विधाता वृषभदेव का ज्येष्ठ पुत्र था ॥64॥ जिस भरत चक्रवर्ती के चरणकमलों को अकम्पन आदि राजा लोग, नमि आदिक विद्याधर और मागध आदि देवगण नमस्कार करते हैं ॥65॥ षट्खण्ड के स्वामी, चरमशरीरी, धर्मात्मा, नवनिधि, चौदह रत्न और महादेवी आदि उत्तम लक्ष्मी से अलंकृत, तीन ज्ञान, बहत्तर कला, सर्व विद्याओं और विवेक आदि गुणों के सागर तथा रूपादि गुणसम्पदावाले उस भरत चक्रवर्ती के गुणों का वर्णन करने के लिए कौन पुरुष समर्थ है ॥66-67॥ उस पुण्यात्मा भरत के पुण्योदय से सुख की खानि, पुण्य-विभूषित और दिव्य लक्षणोंवाली धारिणी नाम की रानी थी ॥68॥ उन दोनों के वह पुरूरवा भील का जीव देव स्वर्ग से चयकर रूपादि गुणों से मण्डित मरीचि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥69॥ वह क्रम से अपने योग्य अन्न-पानादि से और भूषणों से वृद्धि को प्राप्त होकर, अनेक शास्त्रों को पढ़कर और अपने योग्य सम्पदा को प्राप्त करके पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म के उदय से अपने पितामह के साथ ही वनक्रीडा आदि के द्वारा नाना प्रकार के भोगों को भोगता रहा ॥70-71॥ किसी समय नीलांजना देवी के नृत्य देखने से वृषभदेव स्वामीने समस्त भोगोंमें, देह में और राज्य आदि में उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त होकर और पालकीपर बैठकर इन्द्रादि के साथ वन में जाकर और अन्तरंग-बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह को अपनी मुक्ति के लिए छोड़कर संयम को ग्रहण कर लिया ॥72-73॥ उस समय केवल स्वामि-भक्ति के लिए स्वामिभक्ति-परायण कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ मरीचिने भी शीघ्र द्रव्य संयम को ग्रहण कर लिया और नग्नवेष धारण करके वह मुग्ध बुद्धि शरीर में वृषभ स्वामी के समान हो गया।(किन्तु अन्तरंग में इस दीक्षा का कुछ भी रहस्य नहीं जानता था।) ॥74-75॥ भगवान् वृषभदेवने देह से ममता आदि छोड़कर और मेरु के समान अचल होकर कर्मशत्रुओं की सन्तान का नाश करने के लिए कर्मवैरी का घातक छह मास की अवधिवाला प्रतिमायोग मुक्तिप्राप्ति के लिए धारण कर लिया और आत्मसामर्थ्यवान् वे जगद्गुरु अपने भुजादण्डों को लम्बा करके ध्यान में अवस्थित हो गये ॥76-77॥ भगवान् वृषभदेव के साथ जो चार हजार राजा लोग दीक्षित हुए थे, वे कुछ दिन तक तो भगवान के समान ही कायोत्सर्ग से खड़े रहे और भूख-प्यास आदि सभी घोर परीषहों को सहन करते रहे। किन्तु आगे दीर्घकाल तक भगवान् के साथ उन्हें सहने में असमर्थ हो गये॥७८॥ वे सब तप के क्लेशभार से आक्रान्त हो गये, उन के मुख दीनता से परिपूर्ण हो गये, उन का धैर्य चला गया, तब वे अत्यन्त दीन वाणी से परस्पर में इस प्रकार वार्तालाप करने लगे - 'अहो, यह जगद्-भर्ता वाकाय और स्थिर चित्तवाला है, हम नहीं जानते हैं कि यह विश्व का स्वामी कितने समय तक इसी प्रकार से खड़ा रहेगा? अब तो हमारे प्राणों के रहने में सन्देह है ? अपने समान लोगों को इस प्रभु के साथ स्पर्धा करके क्या मरना है ?' इस प्रकार कहकर वे सब वेषधारी साधु भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करके वहाँ से चले । किन्तु भरतेश के भय से अपने घर जाने में असमर्थ होकर वहीं वन में ही पाप से स्वेच्छाचारी होकर वे दीन शठ फलों का भक्षण करने लगे और नदी आदि का जल पीना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया ॥79-83॥ पाप के उदय से अति घोर परीषहों के द्वारा पीड़ित हुआ मरीचि भी उन लोगों के साथ उन के समान ही क्रियाएँ करने के लिए प्रवृत्त हो गया ॥84॥ इन भ्रष्ट साधुओं को निन्द्य कर्म करते हुए देखकर वनदेवताने कहा-'अरे मूर्खों, तुम लोग हमारे शुभ वचन सुनो ॥85॥ इन नग्नवेष को धारण कर जो मूढजन ऐसा निन्द्य अशुभ और जीव-घातक कार्य करते हैं, वे उस पाप के फल से घोर नरक-सागर में पड़ते हैं ॥86॥ अरे वेषधारियो, गृहस्थ वेष में किया गया पाप तो जिनलिंग के धारण करने से छूट जाता है । किन्तु इस जिनलिंग में किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है। ( उसका छूटना बहुत कठिन है) ॥87॥ अतः जिनेश्वरदेव के इस जगत्पूज्य वेष को छोड़कर तुम लोग कोई अन्य वेष धारण करो। अन्यथा मैं तुम लोगों का निग्रह करूँगा' ॥88॥ इस प्रकार वनदेवता के वचन से भयभीत होकर विद्वत्पूज्य जिनवेष को छोड़कर तब उन लोगोंने जटा आदि को धारण करके नाना प्रकार के वेष ग्रहण कर लिये ॥89॥ मरीचिने भी तीव्र मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिनवेष को छोड़कर स्वयं ही परिव्राजक दीक्षा को धारण कर लिया ॥90॥ दीर्घ संसारी इस मरीचि के उस परिव्राजक दीक्षा के अनुरूप शास्त्र की रचना करने में शीघ्र ही शक्ति प्रकट हो गयी । अहो, जिस का जैसा भवितव्य होता है, वह क्या अन्यथा हो सकता है ॥91॥ अथानन्तर वे त्रिजगत्स्वामी ऋषभदेव( छह मास के योग पूर्ण होने के पश्चात्) एक हजार वर्ष तक मौन से सिंह के समान पृथ्वीपर विहार करके जिसमें दीक्षा ली थी, उसी पूर्व वन में आये और वहाँ पर उन्होंने शुक्लध्यानरूप खड्ग से घातिकर्म रूप शत्रुओं का घात करके जगत् का हितकारक केवलज्ञानरूप साम्राज्य प्राप्त किया और तीर्थराट् बन गये ॥92-93॥ उसी समय यक्षराज ने स्फुरायमान रत्न-सुवर्णादि से उन के दिव्य आस्थानमण्डल(समवसरण-सभा) की रचना की, जिसमें सर्व प्राणी यथास्थान बैठ सकें॥९४॥ इन्द्रादिक भी उत्कृष्ट विभूति, अपनी देवांगनाओं और वाहनों के साथ आये और दिव्य पूजन-सामग्री से उन्होंने प्रभु की भक्ति के साथ आठ प्रकार की पूजा की ॥95॥ भगवान् के मुख से बन्ध और मोक्ष का स्वरूप सुनकर उन पुरातन कच्छादिक भ्रष्ट साधुओं में से बहुत- से साधु पुनः परमार्थ रूप से निर्ग्रन्थ बन गये ॥96॥ दुर्बुद्धि मरीचि ने त्रिजगत्प्रभु से मुक्ति का परम सन्मार्ग रूप उपदेश सुन करके भी संसार के कारणभत अपने खोटे मत को नहीं छोडा ॥97॥ प्रत्यत मन में सोचने लगा कि जैसे इन पूज्य तीर्थनाथ ऋषभदेवने परिग्रहादि को त्यागने से तीन जगत् के जीवों को क्षोभित करनेवाली सामर्थ्य प्राप्त की है, उसी प्रकार मैं भी अपने द्वारा प्ररूपित इस अन्य मत को लोक में व्यवस्थित करके उसके निमित्त से महान् सामर्थ्यवाला होकर त्रिजगत् का गुरु हो सकता हूँ। मैं उस अवसर को पाने के लिए प्रतीक्षा करता हूँ। वह सामर्थ्य मुझे अवश्य प्राप्त होगी। इस प्रकार के मानकषाय के उदय से वह दुष्ट अपने खोटे मत से विरक्त नहीं हुआ ॥98-100॥ वह पापबुद्धि मूर्ख उसी तीन दण्डयुक्त वेष को धारण कर और हाथ में कमण्डलु लेकर कायक्लेश सहने में तत्पर रहने लगा ॥101॥ वह प्रातःकाल शीतल जल से स्नान करके कन्दमूलादि फलों को खा करके और बाहरी परिग्रह के त्याग से अपनी प्रख्याति करने लगा, तथा कपिल आदि अपने शिष्यों को इन्द्रजाल के समान अपने कल्पित निन्द्य मतान्तर को यथार्थ प्रतिपादन करता हुआ मिथ्या मार्ग के प्रवर्तन का अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमि में परिभ्रमण करता रहा । अन्त में भरतेश का वह पुत्र मरीचि यथाकाल मरण को प्राप्त होकर अज्ञान तप के प्रभाव से ब्रह्मकल्प में दश सागरोपम की आयु का धारक और अपने पुण्य के योग्य सुख-सम्पत्ति से युक्त देव हुआ ॥१०२-१०५॥ अहो, इस प्रकार के कुतप को करनेवाला व्यक्ति यदि स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ, तो जो लोग सुतप को करेंगे, उन के तप का क्या फल कहा जाये ? अर्थात वे तो और भी अधिक उत्तम फल को प्राप्त करेंगे ॥106॥ अथानन्तर इस भारतवर्ष में साकेतापुरी के भीतर कपिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उस की काली नाम की स्त्री थी ॥107॥ उन दोनों के वह देव स्वर्ग से चयकर जटिल नाम का पुत्र हुआ। वह कुमत में संलीन रहता था और वेद, स्मृति आदि शास्त्रों का विद्वान् था ॥108॥ पूर्व संस्कार के योग से वह पुनः परिव्राजक होकर कुमागे का प्रकाशन करता हुआ मूढजनों से वन्दनीय हुआ ॥109॥ पूर्वभव के समान इस भव में भी वह चिरकाल तक अपने मत का प्रचार करता और उ से पालन करता हुआ आयु के क्षय हो जानेपर मरकर उस अज्ञान तप के कष्ट-सहन के प्रभाव से पुनः सौधर्म नामक कल्प में देव उत्पन्न हुआ ॥110॥ वहाँ वह दो सागरोपम की आयु का धारक और अल्प ऋद्धि से संयुक्त हुआ। अहो, कुबुद्धियों का कुतप भी संसार में कभी निष्फल नहीं होता है ॥111॥ इस के पश्चात् इसी भारतवर्ष के स्थूणागार नाम के रमणीक नगर में एक भारद्वाज नाम का द्विज रहता था। उस की पुष्पदन्ता नाम की स्त्री थी ॥112॥ स्वर्ग से चयकर वह देव उन दोनों के पुष्पमित्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह कुमत से उत्पन्न कुशास्त्रों के अभ्यास में तत्पर रहता था ॥113॥ मिथ्यात्व कर्म के विपाक से वह पुनः मिथ्यामत से विमोहित होकर और उसी पुराने परिव्राजक वेष को स्वीकार करके प्रकृति आदि पूर्व प्ररूपित पचीस कुतत्त्वों को कुबुद्धिजनों के लिए स्वीकार कराता हुआ मन्द कषाय के योग से देवायु को बाँधकर मरा और सौधर्म कल्प में एक सागरोपम की आयु का धारक एवं अपने तप के योग्य सुख और लक्ष्मी आदि से मण्डित देव उत्पन्न हुआ ॥114-116॥ अनन्तर इसी भारत क्षेत्र में श्वेति का नाम के उत्तम नगर में अग्निभूति नाम का ब्राह्मण रहता था। उस की ब्राह्मणी का नाम गौतमी था ॥117॥ स्वर्ग से चयकर वह देव उन दोनों के अग्निसह नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पूर्वकृत मिथ्यात्व कर्म के उदय से अपने ही पूर्व प्रचारित एकान्त मत के शास्त्रों का ज्ञाता हुआ और पुनः पुरातन कर्म से परिव्राजक दीक्षा से दीक्षित होकर और पूर्व के समान ही काल बिताकर और अपनी आयु के अन्त में मरकर उस अज्ञान तपःक्लेश के प्रभाव से सनत्कुमार नाम के स्वर्ग में सात सागरोपम आयु का धारक सुखसम्पन्न देव हुआ ॥118-120॥ तत्पश्चात् इसी भारतवर्ष में रमणीक मन्दिर नाम के उत्तम पुर में गौतम नाम का एक विप्र रहता था। उस की कौशि की नाम की ब्राह्मणी प्रिया थी ॥121॥ उन दोनों के स्वर्ग से च्युत होकर वह देव अग्निमित्र नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह महा मिथ्यादृष्टि और कुशास्त्रों का पारगामी था। वह पुनः पूर्व भव के अभ्यासस पूर्व भववाली परिव्राजक दीक्षा को लेकर और शारीरिक क्लेशों को सहनकर अपनी आयु के क्षय होनेपर मरा और उस अज्ञान तप से माहेन्द्र नाम के स्वर्ग में अपने तप के अनुसार आयु, लक्ष्मी और देवी आदि से मण्डित देव उत्पन्न हुआ ॥122-124॥ तदनन्तर इसी भारतवर्ष के उसी पुरातन मन्दिर नाम के रमणीक नगर में सालंकायन नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उस की स्त्री का नाम मन्दिरा था। उन दोनों के वह देव माहेन्द्र स्वर्ग से चयकर भारद्वाज नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह सदा कुशास्त्रों के अभ्यास में तत्पर रहता था। पुनः उस कुज्ञान से उत्पन्न संवेग से उसने तीन दण्डों से मण्डित त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण कर और तप से देवायु को बाँधकर मरा और उसके फल से माहेन्द्र नाम के स्वर्ग में सात सागरोपम आयु का धारक और अपने तप से उपार्जित पुण्य के अनुसार सुख को भोगनेवाला देव उत्पन्न हुआ ॥125-128॥ तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर और कुमार्ग के प्रकट करने से उपार्जित महा पापकर्म के विपाक से निन्द्य सभी अधोगतियों में प्रवेश करके असंख्यात वर्ष प्रमाण चिरकालतक सुखों से दूर और दुःखों से भरपूर होकर परिभ्रमण करता हुआ दुष्कर्मों की शृंखला से वह सर्वदुःखों के निधानभूत त्रस-स्थावरयोनियों में वचनों के अगोचर नाना दुःखों से पीड़ित हो मिथ्यात्व के फल से महादुःख को भोगता रहा ॥129-131॥ आचार्य कहते हैं कि अग्नि में गिरना उत्तम है, हालाहल विष का पीना अच्छा है और समुद्र में डूबना श्रेष्ठ है, किन्तु मिथ्यात्व से युक्त जीवन अच्छा नहीं है ॥132॥ व्याघ्र, शत्रु, चोर, सर्प और विच्छू आदि प्राणापहारी दुष्ट प्राणियों का संगम उत्तम है, किन्तु मिथ्यादृष्टियों का संग कभी भी अच्छा नहीं है ॥133॥ यदि एक ओर सर्वपाप एकत्रित किये जावें और दूसरी ओर अकेला मिथ्यात्व रखा जाये, तो ज्ञानीजन उन का अन्तर मेरु और सरसों के दाने-जैसा कहते हैं। अर्थात् अकेला मिथ्यात्व पाप सुमेरु के समान भारी है और सर्व पाप सरसों के समान तुच्छ हैं ॥134॥ इसलिए दुःखों से डरनेवाले मनुष्यों को समस्त दुःखों के खानिस्वरूप मिथ्यात्व का सेवन प्राणान्त होनेपर भी कभी नहीं करना चाहिए ॥135॥ इस प्रकार मरीचि का जीव वह त्रिदण्डी कुपथ (मिथ्यामार्ग) प्रचार के विपाक से बिन्दु के समान अत्यल्प सुख को पाकर समुद्र के समान महान् दुःखों को असंख्यकाल तक कुयोनियों में भोगता रहा। ऐसा समझकर जो जीव तीन लोक में सुख के इच्छुक हैं, उन्हें मान, वचन, काय की त्रियोग शुद्धिपूर्वक सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके समस्त मिथ्यामार्ग को छोड़ देना चाहिए ॥136॥ वीर भगवान् अनन्त सुख के देनेवाले हैं और दुःखों को हरण करते हैं, अतः ज्ञानीजन वीर प्रभु का आश्रय लेते हैं। वीर प्रभु के द्वारा भवभय शीघ्र विनष्ट हो जाता है, इसलिए भक्ति के साथ वीरनाथ को नमस्कार हो। वीर भगवान के प्रसाद से ज्ञानी सन्तजनों को मुक्तिवधू प्राप्त होती है, वीरनाथ के गुण अक्षय हैं, अतः मैं वीरप्रभु में अपने मन को धारण करता हूँ। हे वीरनाथ, कर्म-शत्रुओं को जीतने के लिए मुझे शक्ति दो ॥137॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित इस वीर वर्धमान चरित्र में पुरूरवा आदि अनेक भवों का वर्णन करनेवाला यह दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥2॥ |