कथा :
जिस प्रभु के अनन्त गुण विना किसी रुकावट के तीनों लोकों में व्याप्त होकर देवेन्द्रों के हृदय में विचर रहे हैं, वे मेरे द्वारा स्तुति किये गये वीतरागदेव मेरे गुणों की प्राप्ति के लिए हों ॥1॥ अथानन्तर इस भारतवर्ष के मगधदेश में राजगृह नाम के नगर में शाण्डिलि नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उस की प्रिया का नाम पाराशरी था। उन दोनों के संसार-परिभ्रमण से थका हुआ वह मरीचि का अतिदुःखी जीव स्थावर नाम का पुत्र हुआ। बड़े होनेपर वह वेद-वेदाङ्ग का पारगामी हो गया ॥2-3॥ वहाँ पर भी अपने पूर्व मिथ्यात्व के संस्कार से उसने सहर्ष परिव्राजक दीक्षा ग्रहण कर ली और कायक्लेश में परायण होकर नाना प्रकार के खोटे तप करने लगा। उस कायक्लेश के परिपाक से आयु के अन्त में मरकर वह माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागरोपम आयु का धारक और अल्प लक्ष्मी के सख का भोगनेवाला देव हआ ॥४-५॥ तत्पश्चात् इसी मगध देश में और इसी राजगृहनगर में विश्वभूति नाम का राजा राज्य करता था। उस की जैनी नाम की वल्लभा रानी थी। उन दोनों के वह देवस्वर्ग से आकर विश्वनन्दी नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह प्रसिद्ध पुरुषार्थवाला, दक्ष एवं पवित्र लक्षणों से भूषित था ॥6-7॥ विश्वभूति महीपति के अतिप्यारा विशाखभूति नाम का छोटा भाई था। उस की लक्ष्मणा नाम की प्रिया थी ॥8॥ उन दोनों के कुबुद्धिवाला विशाखनन्द नाम का एक पुत्र हुआ। ये सब पूर्व पुण्य के उदय से सुखपूर्वक रहते थे ॥9॥ किसी अन्य दिन शरऋतु के मेघ का विनाश देखकर वह निर्मल बुद्धिवाला विश्वभूति राजा संसार, देह और भोगों से विरक्त होकर इस प्रकार विचारने लगा-अहो, जैसे यह मेघ एक क्षण में देखते-देखते विनष्ट हो गया, उसी प्रकार मेरे यह यौवन, और आयु आदिक भी विनाश को प्राप्त हो जायँगे, इस में कोई सन्देह नहीं है ॥10-11॥ अतः जबतक यह यौवन, आयु, बल और इन्द्रियादिक सामग्री क्षीण नहीं होती है, तबतक मुक्ति के साधन में निर्मल तपश्चरण करना चाहिए ॥12॥ इत्यादि चिन्तवन से राजा संसार, शरीर, भोग और लक्ष्मी आदि के विषय में दुगुने संवेग को प्राप्त होकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत हो गया ॥13॥ उस उत्तम राजाने उसी समय अपने छोटे भाई को अतिस्नेह से विधिपूर्वक राज्य दिया और अपने पुत्र को युवराज पद दिया ॥14॥ पुनः जगद्-वन्द्य श्री श्रीधर नाम के मुनिराज के समीप जाकर और उन्हें मस्तक से नमस्कार कर राजाने बाहरी और भीतरी सर्व परिग्रह को छोड़कर मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक देव-दुर्लभ संयम, मुक्ति के लिए राग को दूर करनेवाले तीनसौ राजाओं के साथ, धारण कर लिया ॥15-16॥ तत्पश्चात् वह संयमी ध्यानरूपी खड्ग से मोह, इन्द्रिय आदि शत्रुओं का विनाश कर कर्म-घातक उप-महाउप्र तपश्चरण करने के लिए उद्यत हुआ ॥17॥ इधर किसी समय विश्वनन्दी अपने मनोहर उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ लीलापूर्वक क्रीड़ा करता हुआ स्थित था ॥18॥ उसे और उसके रमणीक उद्यान को देखकर उस उद्यान के मोह से मोहित होकर विशाखनन्दने अपने पिता के पास जाकर यह कहा - हे तात, विश्वनन्दी का उद्यान मुझे दो । अन्यथा मैं निश्चय से विदेश-गमन कर जाऊँगा ॥19-20॥ उसकी यह बात सनकर राजा विशाखभति ने मोह से प्रेरित होकर कहा - हे पुत्र, मैं शीघ्र ही किसी उपाय से यह उद्यान तुझे दूंगा। अभी तू ठहर जा ॥21॥ इसके पश्चात् किसी दूसरे दिन राजा ने किसी छल-प्रपंच से विश्वनन्दी को बुलाकर कहा - हे भद्र, तुम यह राज्यभार ग्रहण करो, मैं सीमावर्ती राजा के ऊपर उससे उत्पन्न हुए क्षोभ की शान्ति के लिए तथा अपने देश की सुख प्राप्ति के लिए जाता हूँ ॥22-23॥ अपने काका की यह बात सुनकर विश्वनन्दी कुमार ने कहा - हे पूज्य, आप सुख से रहिए। मैं आप की आज्ञा से जाकर उस शत्रु को आप का दास बनाता हूँ ॥24॥ इस प्रकार से प्रार्थना कर और उसकी आज्ञा लेकर अपनी सेना के साथ शत्रु को जीतने के लिए महाबली विश्वनन्दी वहाँ से चला गया ॥25॥ उसके चले जानेपर राजा विशाखभूति ने वह उद्यान अपने विशाखनन्द पुत्र के लिए दे दिया। आचार्य कहते हैं कि ऐसे मोह को धिकार है कि जिस से प्रेरित होकर मनुष्य ऐसे पाप कार्य को करता है ॥26॥ तत्पश्चात् त्पश्चात वनपाल के द्वारा भेजे गये गप्पचर से राजा की यह प्रवंचना जानकर महाधीर विश्वनन्दी अपने हृदय में इस प्रकार सोचने लगा - अहो, देखो इस मेरे काका ने मुझे शत्रुओं के प्रति भेजकर स्नेह, राज्य और शरीर की नाश करनेवाली ऐसी कुटिलता मेरे साथ की है ॥27-28॥ अथवा मोही जनों के लिए तीन लोक में ऐसा कौनसा अकृत्य है जि से वे न करें। मोहान्ध होकर मनुष्य इस लोक और परलोक में विनाशकारी कर्म को करता है ॥29॥ ऐसा विचार कर और शत्रुओं को जीतकर अपने वन का अपहरण करनेवाले को मारने के लिए वह अतिबली विश्वनन्दी कुमार रोष से शीघ्र ही अपने वन में आया ॥30॥ उसके भय से डरकर वह विशाखनन्द एक विशाल कपित्थ (कैंथ) के वृक्ष को काँटों की वारी से घेरकर उसके मध्य भाग में जाकर अवस्थित हो गया ॥31॥ तब अद्भुत पराक्रमी उस विश्वनन्दी कुमारने उस वृक्ष को जड़मूल से उखाड़कर उससे अपने शत्रु को मारने के लिए उ से भयभीत करता हुआ उसके पीछे दौड़ा ॥32॥ तब वह कायर विशाखनन्द शीघ्र वहाँ से भागकर एक शिलास्तम्भ की आड में जाकर छिप गया । अहो, इस संसार में अन्यायकारियों की जीत कहाँ सम्भव है ॥33॥ तब उस बली विश्वनन्दी ने अपने मुष्टि-प्रहार से उस स्तम्भ को तत्क्षण शतखण्ड कर दिया। अरे, बलवान् आत्माओं के लिए क्या अशक्य है ॥34॥ तब वहाँ से भागते हुए दीनमुख अपने अपकारी को देखकर और करुणा-पूरित चित्त होकर वह विश्वनन्दी इस प्रकार से विचारने लगा-अहो, इस मोह को धिक्कार हो, जिस से प्रेरित होकर यह जीव कायरता को प्राप्त अपने ही बन्धुओं को वध-बन्धनादिरूप दण्ड देता है ॥35-36॥ दुःखों से उत्पन्न होनेवाले और आगामी भवमै दुःखों के कारणभूत इन भोगे गये नाना प्रकार के भोगों से यह आत्मा कभी भी तृप्ति को नहीं प्राप्त होता है। अतः ऐसे इन दुष्ट भोगों से सन्त जनों का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ॥37॥ स्त्री के शरीर-मन्थन से उत्पन्न हुए ये भोग मनस्वीजनों के मान का नाश करनेवाले हैं और संसार के समस्त दुःखों के निधानभूत हैं, इन की क्या मानी जन इच्छा करते हैं ॥38॥ ऐसा विचार कर और उ से बुलाकर वह उद्यान उ से ही देकर और सब राज्यलक्ष्मी छोड़कर वह शीघ्र ही सम्भूतगुरु के समीप गया और मुनिराज के चरणों को मस्तक से नमस्कार कर तथा सर्व परिग्रहों को छोडकर एवं देह. भोग, संसार आदि सभी में वैराग्य को प्राप्त होकर विश्वनन्दीने तप को ग्रहण कर लिया ॥39-40॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि अहो, लोक में नीच पुरुषों के द्वारा किया गया महान् अपकार भी कभी सज्जनों के भारी उपकार के लिए हो जाता है । जैसे कि वैद्य के द्वारा शस्त्रचिकित्सा से रोगी का उपकार होता है ॥41॥ इस घटना के पश्चात् विशाखभूतिने भी भारी पश्चात्ताप को प्राप्त होकर, अपनी अनेक प्रकार से निन्दा करके शीघ्र संसार, राज्यलक्ष्मी, और शरीर-भोग आदि में वैराग्य को प्राप्त होकर उक्त मुनीश्वर के समीर जाकर मन-वचन-काय से सर्व परिग्रहों को छोड़कर प्रायश्चित्त के समान दीक्षा को ग्रहण कर लिया ॥42-43॥ इस के पश्चात् चिरकाल तक अपनी शक्ति के अनुसार अतिनिर्मल घोरतर तप कर और मरण-समय विधिपूर्वक उत्कृष्ट संन्यास को धारण करके उसके फल से वह अति धर्मात्मा विशाखभूति संयमी महाशुक्र नाम के कल्प में महर्द्धिक देव उत्पन्न हुआ ॥44-45॥ इधर विश्वनन्दी मुनि भी पक्ष-मास आदि के तपों के करने से अतिकृश शरीर एवं निर्बल होकर नानादेश, ग्राम, वनादिक में विहार करते ओठ, मुख और शरीर के सूख जानेपर भी ईर्यापथपर दृष्टि रखे हुए अपने शरीर की स्थिति के लिए मथुरापुरी में प्रविष्ट हुए। उस समय निन्द्य दुर्व्यसनों के सेवन से राज्यभ्रष्ट हुआ और किसी अन्य राजा का दूत बनकर मथुरापुरी में आकर किसी वेश्या के भवन के अग्रभागपर बैठा हुआ वह कुबुद्धि विशाखनन्द सद्यःप्रसूता गाय के सींग के आघात से अतिकृशदेह और क्षीणपराक्रम दुर्बल उन विश्वनन्दी मुनि को गिरता हुआ देखकर हास्यपूर्वक अपना घात करनेवाले दुवचन इस प्रकार बोला ॥46-50॥ हे मुने, शिलास्तम्भ आदि को भग्न करनेवाला तुम्हारा वह पराक्रम कहाँ गया ? तुम्हारा वह पहलेवाला दर्प और शौर्य कहाँ गया ? सो मुझे बताओ। आज तो तुम शक्ति से अतिदूर और अत्यन्त दुबैल दिखते हो ? तुम्हारा यह शरीर मल से व्याप्त और अतिशीत से दग्ध मुर्दे आदि के समान दिखाई दे रहा है ॥51-52॥ इस प्रकार के उसके दुर्वचन सुनकर क्रोध और मान कषाय के उदय से यह मुनि कोप से रक्तनेत्र होकर मन में बोला-अरे दुष्ट, मेरे तप के माहात्म्य से तू इस प्रहास्य का स्वमूल-नाशक महान् कटुक फल पायेगा, इस में कोई सन्देह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान उसके विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तप से अन्त में संन्यास के साथ मरा और उस तप के फल से वह उसी स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ, जहाँपर कि विशाखति सन्मुनिराज का जीव सुख में मग्न देव था ॥53-56॥ वहाँ पर उन उत्तम दोनों देवों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी, दोनों सप्तधातु-रहित दीप्त दिव्य देह के धारक थे और दोनों ही सदा विमानस्थ तथा मेरुपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप आदि में स्थित श्रीजिनेन्द्र देवों की प्रतिमाओं के पूजन में तत्पर एवं तीर्थंकरोंक पंचकल्याणकों के करने में उद्यत रहते थे। वे सहजात दिव्य वस्त्र, आभूषण, माला और विक्रिया ऋद्धि आदि से भूषित, सर्व प्रकार की असाता से रहित और सौन्दर्ययुक्त थे। तथा अपने पूर्वभक् के तपश्चरण से उपार्जित नाना प्रकार के भोगों को आनन्दपूर्वक अपनी देवियों के साथ भोगते हुए पुण्यकर्म के विपाक से सदा सुखसागर में मग्न रहने लगे ॥57-60॥ अथानन्तर इस आदिम जम्बूद्वीप में शुभ सुरम्य देश के पोदनपुर नाम के नगर में प्रजापति नाम का राजा राज्य करता था। पुण्योदय से उस की जयावती नाम की एक सुन्दर रानी थी । उन के विशाखभूति राजा का जीव वह देव स्वर्ग से चय कर विजय नाम का पुत्र हुआ ॥61-62॥ उसी राजा की दूसरी रानी मृगावती के विश्वनन्दी का जीव वह देव चय कर त्रिपृष्ठ नाम का महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ ॥63॥ इन में से विजय का शरीर चन्द्रवर्ण और त्रिपृष्ट का शरीर नीलवर्ण का था। दोनों दीप्ति, कान्ति और कला से संयुक्त थे। दोनों न्यायमार्ग में निरत, दक्ष, प्रतापयुक्त, शास्त्रज्ञानवाले थे। खेचर, भूचर और देवों के स्वामियों द्वारा उन के चरणकमलों की सेवा की जाती थी। दोनों महाविभव से सम्पन्न, दिव्य आभरणों से मण्डित क्रम से यौवन अवस्था को प्राप्त होकर लक्ष्मी के क्रीडागृह की उपमा को धारण करते थे। पूर्वोपार्जित महापुण्य के परिपाक से परम उदय को प्राप्त, दिव्य भोगोपभोगों से युक्त, दानादिगुणशाली वे दोनों भाई चन्द्रमा और सूर्य के समान मालूम पड़ते थे। वे दोनों इस अवसर्पिणीकाल के आध बलभद्र और वासुदेव थे । अर्थात् विजय प्रथम बलभद्र और त्रिपृष्ठ प्रथम नारायण थे ॥64-67॥ अथानन्तर इस भारतवर्ष के विजयाध पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलकापुर नाम के नगर में मयूरग्रीव नाम का राजा राज्य करता था। उस की रानी नीलांजना थी। वह विशाखनन्द चिरकाल तक संसार-सागर में परिभ्रमण कर पुण्य के विपाक से स्वर्ग में गया और फिर वहाँ से चय कर उक्त राजा-रानी के अश्वग्रीव नाम का बुद्धिमान, त्रिखण्ड की लक्ष्मी से मण्डित, देवों से सेव्य, प्रतापी, भोग में तत्पर अर्धचक्री(प्रतिनारायण) पुत्र उत्पन्न हुआ ॥68-70॥ उसी विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में रथनूपुरचक्रवाल नाम की उत्तम नगरी थी। उसका स्वामी पुण्योदय से ज्वलनजटी नाम का अनेक विद्याओं से विभूषित, अति पुण्यात्मा और चरमशरीरी विद्याधर था ॥71-72॥ उसी ही विजयार्धपर्वतपर द्युतिलक नाम के महारमणीकपुर में चन्द्राभ नाम का एक विद्याधरों का स्वामी रहता था। उस की सुभद्रा नाम की प्रिया थी। उन के वायुवेगा नाम की रूप-कान्तिशालिनी पुत्री हुई। यौवन को प्राप्त होने पर ज्वलनजटी ने उसके साथ विवाह किया । उन के गुणों से सूर्य के समान अर्ककीति नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और स्वयंप्रभा नाम की दिव्यरूपवाली शुभलक्षणा पुत्री भी उत्पन्न हुई ॥73-75॥ एक बार धर्म में तत्पर वह स्वयंप्रभा जब अपने पिता को गन्धोदक और पुष्पमाला दे रही थी, तब सर्वाङ्गयौवनवती अपनी पुत्री को देख कर उस विद्याधरों के स्वामी ज्वलनजटी ने संभिन्नश्रोता नामवाले ज्योतिषी को बुलाकर पूछा कि कौन पुण्यवान् मेरी इस पुत्री का स्वामी होगा ? उसके प्रश्न के उत्तर में उसने कहा - हे राजन् , आप की पुत्री प्रथम अर्धचक्री त्रिपृष्ठ नारायण की यह महादेवी(पट्टरानी) होगी और उसके द्वारा दिये गये इस विजयाध पर्वत की दोनों श्रेणियों के विद्याधरों के चक्रवर्तीपने को तुम प्राप्त करोगे। मेरी यह शास्त्रोक्त बात अन्यथा नहीं हो सकती है ॥76-79॥ इस प्रकार उस ज्योतिषी के द्वारा कहे गये वाक्यपर निश्चय करके ज्वलनजटी राजाने उत्तम शास्त्रज्ञान से युक्त भक्ति-तत्पर इन्द्र नाम के मन्त्री को बुलाकर पत्र-सहित भेंट के साथ उ से पोदनपुर भेजा। वह आकाशमार्ग से शीघ्र ही वहाँ के पुष्पकरण्डक वन में पहुँचा ॥80-81॥ त्रिपृष्ठ ज्योतिषी के मुख से पहले ही उसके आगमन को जानकर स्वयं ही हर्ष से उसके सम्मुख जाकर बहुत सम्मान के साथ उस दूत को राजसभा में लिवा लाया । वह दूत भी श्रेष्ठ बहुमूल्य मणिनिर्मित, अनेक नृपवेष्टित सिंहासन पर बैठे हुए पोदनाधिपति को मस्तक से नमस्कार करके और पत्र-सहित भेंट उन्हें देकर यथास्थान बैठ गया ॥82-84॥ पोदनेश्वरने लिफाफे के ऊपर की मोहर को खोलकर उसके भीतर रखे हुए पत्र को पसारकर बाँचा, जिसमें कि इस प्रकार कार्य की सूचना थी ॥85॥ यहाँ रथनपुर नामक नगर से विद्याधरों का स्वामी, पुण्यबुद्धि, विनयावनत,न्यायमार्गरत, दक्ष, नमिवंशरूप गगन का सूर्य श्रीमान् ज्वलनजटी नाम का राजा आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से उत्पन्न बाहुबली के वंश में पैदा हुए पोदनापुर के स्वामी श्री प्रजापति महीपाल को स्नेह से मस्तक द्वारा नमस्कार कर वह प्रजानाथ से इस प्रकार सविनय निवेदन करता है कि हम लोगों का वैवाहिक सम्बन्ध( आप का हमारे साथ) अथवा हमारा आप के साथ अभी तक नहीं हुआ है, किन्तु हमारा आप का परम्परागत सम्बन्ध है। हम दोनों का वंश विशुद्ध है, अतः इस विषय में कोई परीक्षण नहीं करना चाहिए | मेरी पुत्री स्वयंप्रभा जो मानो साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान है, वह मेरे पूज्य भागिनेय (भानेज) त्रिपृष्ठ की परम रति को विस्तारित करे। अर्थात् मेरी पुत्री आप के पुत्र की प्रिया होवे ॥86-91॥ प्रजापति राजा अपने उस बन्धु की इस कही गयी बात को सुनकर हर्ष से बोला - 'जो बात उन्हें इष्ट है, वह मुझे भी इष्ट है।' ऐसा कहकर उस समागत मन्त्री को सन्तुष्ट किया ॥12॥ तथा सम्मान-दानादि के द्वारा राजा से बिदा पाकर वह मन्त्री(दूत) शीघ्र ही अपने स्वामी के पास पहुँचा और कार्य की सिद्धि को निवेदन किया ॥13॥ तत्पश्चात् अर्ककीर्ति पुत्र के साथ विद्याधरों के स्वामी ज्वलनजटी ने शीघ्र ही स्वयम्प्रभा पुत्री को लाकर हर्ष से विवाह विधि के साथ स्वयं ही प्रीतिपूर्वक त्रिपृष्ठ के लिए दी। वह कन्या मानो आगे होनेवाली उत्तम राज्यलक्ष्मी के ही समान थी । अहो, पुण्य के उदय से मनुष्यों को कौन सी दुर्लभ वस्तु नहीं प्राप्त होती है ॥94-95॥ पुनः विद्याधरेश ज्वलनजटी ने अपने जामाता के लिए सिंहवाहिनी और गरुडवाहिनी ये दो विद्याएँ यथोक्त विधि से दी ॥96॥ गुप्तचर के मुख से उन दोनों के सम्पन्न हुए विवाह आदि की बात के श्रवणरूप अग्नि से प्रज्वलित हुआ वह नरपति अश्वग्रीव शीघ्र ही विद्याधरों से और सेना से संयुक्त होकर तथा चक्ररत्न आ द से अलंकृत होकर युद्ध के लिए रथनूपुर के पर्वतपर आया ॥97-98॥ उसके आगमन को सुनकर चतुरंगिणी सेना से युक्त हो अपने भाई विजय के साथ त्रिपृष्ठ पहले से ही वहाँपर आकर ठहर गया ॥99॥ तत्पश्चात् उस अद्भत युद्ध में भावी चक्रवर्ती त्रिपृष्ठने विद्योपनत मायावी एवं अन्य शस्त्रास्त्रों के द्वारा अतिपराक्रम से अश्वग्रीव को जीत लिया। तब आसन्नमृत्यु उस अश्वग्रीवने पाप के उदय से क्रोधित हो चक्ररत्न को निष्ठुरतापूर्वक त्रिपृष्ठ के ऊपर चलाया। वह चक्ररत्न त्रिपृष्ट की प्रदक्षिणा देकर उसके पुण्योदय से उस की दाहिनी भुजापर आकर विराजमान हो गया। तब त्रिपृष्ठने तीनखण्ड की लक्ष्मी को वश में करनेवाले और शत्रुओं के लिए भयंकर उस चक्र को शीघ्र लेकर निष्ठुर हृदय हो के क्रोध से अपने शत्रु को लक्ष्य करके फें का । रौद्रपरिणामी कुबुद्धि अश्वग्रीव भी उस चक्र के द्वारा मरण को प्राप्त होकर तथा बहुत आरम्भ-परिग्रहादि के द्वारा पूर्व में नरकायु के बाँधने के महा अशुभ पापोदय से समस्त दुःखों की खानिभूत, सुख से दूर, घृणास्पद, सातवें नरक को प्राप्त हुआ ॥100-105॥ - इस के पश्चात् उस अश्वग्रीव के जीतने से जगद्-व्याप्त यश और ख्याति को प्राप्त कर चक्ररत्न के द्वारा तीनखण्डों में रहनेवाले सर्व राजाओंको, विद्याधरेशों को और व्यन्तरों के अधिपति मागध आदि देवों को अपने बल से वश में करके और उन से कन्यारत्न आदि विषयक सार पदार्थो को लेकर, तथा विजयाध पर्वत की दोनों श्रेणियों के आधिपत्यपर रथनूपुर के नरेश को नियुक्त कर, षडङ्गसेना से वेष्टित, बड़े भाई विजय के साथ दिग्विजय सिद्ध करके वह बहुपुण्यशाली श्रीमान् त्रिपृष्ठनारायण लीलापूर्वक लक्ष्मी-शोभा आदि से मण्डित अपने दिव्यपुर में प्रविष्ट हुआ ॥106-109॥ पूर्वोपार्जित पुण्य के परिपाक से सुदर्शनचक्र आदि सप्त रत्नों से अलंकृत, देव, विद्याधर और सोलह हजार राजाओं से नमस्कृत, और सोलह हजार राजपुत्रियों के साथ निरन्तर एकमात्र नाना प्रकार के भोगों को वह आदि वासुदेव त्रिपृष्ठ भोगने लगा ॥110-111॥ मरण-पर्यन्त वह अतिगृद्धि से भोगों को भोगता हुआ, चारित्र के अंदा से भी दूर रहता हुआ, और धर्म, दान, पूजनादि के नाममात्र को भी छोड़कर विषयों में अति आसक्त रहा । इस कारण और बहुत आरम्भ परिग्रहसे, तथा खोटी लेश्या से नरकायु को बाँधकर वह पापबुद्धि रौद्रध्यान से प्राणों को छोड़कर धर्म के बिना पाप के भार से सातवें नरक-सागर में गया ॥112-114॥ वहाँ अति बीभत्स, अति घृणास्पद उत्पत्तिस्थान में अधोमुख हुए उसका जन्म हुआ। दो घड़ी में ही पूर्ण शरीर को प्राप्त कर एक हजार बिच्छुओं के काटने से भी अधिक वेदना देनेवाली नरक-भूमिपर दारुण शब्द करता हुआ गिरा। पुनः वहाँ से एक सौ बीस कोश ऊपर उछलकर वज्रमय कंटकों से व्याप्त नरक की महा दुःखदायी भूमिपर वह गिरा ॥115-117॥ तब वहाँ वह दीनात्मा त्रिपृष्ठ का जीव मारने के लिए उद्धत नारकियों को तथा समस्त असाता की खानिरूप उस क्षेत्र को देखकर इस प्रकार चिन्तवन करने लगा ॥118॥ अहो, सर्वदुःखों की कारणभूत यह कौन-सी निन्द्य भूमि है. ? यहाँपर वेदना देने में अतिकुशल महाभयानक ये रौद्रस्वभावी नारकी कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? सुख से दूर, अकेला मैं यहाँ कहाँ से आ गया हूँ ? अथवा किस दुष्कर्म से मैं इस अतिभयावने स्थानपर लाया गया हूँ ? इत्यादि चिन्तवन करने से शीघ्र प्राप्त हुए विभंगावधिज्ञान से अपने को नरक में पतित हुआ जानकर वह इस प्रकार से विलाप करने लगा ॥119-121॥ अहो, मैंने पूर्वभव में अनेक बार जीवराशियों का संहार किया, असत्य और कटुक-निन्द्य आदि वचन बोले, परायी लक्ष्मी, स्त्री और अन्य वस्तुओं को मैंने बलात्कार से सेवन किया, लोभग्रस्त होकर मुझ पापीने धनादि का संग्रह किया, अखाद्य वस्तुओं को खाया, असेवनीय पदार्थों का सेवन किया और निश्चय से पाँचों इन्द्रियों के वश होकर मैंने अपेय मदिरा आदि का पान किया ॥122-124॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या, मुझ पापात्माने पूर्व भव में अपना ही घात करनेवाले सर्व पापों को किया। किन्तु स्वर्ग और मुक्ति को देनेवाला परम धर्म नहीं किया और न सुखदायी व्रतों को ही रंचमात्र पालन किया। न तप का अनुष्ठान ही किया और न कभी पात्रों को दान ही दिया । न जिनदेवादि की पूजा ही की और न कोई दूसरा शुभ काम ही किया । इसलिए यहाँपर उन महा पापाचरणवाले समस्त कार्यों के विपाक से यह महातीव्र वेदना मेरे सामने उपस्थित हुई है ॥125-128॥ अतएव अब मैं कहाँ जाऊँ, किसे पूछूं और किससे कहूँ ? मैं किसकी शरण जाऊँ ? यहाँ पर कौन मेरा रक्षक होगा ? इत्यादि विचार से उत्पन्न हुए दुरुत्तर पश्चात्तापों से जिस का हृदय जल रहा है ऐसा वह त्रिपृष्ठ का जीव अति दुःख भोगता हुआ अवस्थित था, तभी पूर्व में उत्पन्न हुए पापी नारकी लोग उसके समीप तत्क्षण आकर इस नवीन नारकी को मुद्गर आदि के प्रहारों से मारने लगे ॥129-131॥ कितने ही दुष्ट नारकी उसके नेत्र उखाड़ने लगे, कितने ही उसके सर्व अंग का विदारण करने लगे और कितने ही उसकी आँतों की आवली को बाहर निकालने लगे। कितने ही निर्दयी नारकी उसका क्वाथ (काढ़ा) बनाने लगे, कितने ही शस्त्रों के द्वारा उसके शरीर को तिल समान खण्ड-खण्ड करने लगे। कितने ही नारकी उसके सर्व अंग और उपांगों को काटने लगे। कितनोंने आकर चिल्लाते हुए उ से उठाकर तप्त तेल के कड़ाह में पकाने के लिए डाल दिया। इस से उसका सर्वांग जल गया और वह अत्यन्त दाह से पीड़ित होकर वहाँ से निकल कर शान्ति पाने के लिए वैतरणी के जल में जाकर डूबा। उसके अत्यन्त खारे, दुर्गन्धित पानी की लहरों आदि से पीड़ित होकर विश्राम पाने के लिए वह अतिदुष्कर असिपत्रवन में गया ॥132-136॥ वायु के वेग से गिरे हुए उस वन के वृक्षों के तलवार की धार के समान तीक्ष्ण पत्तों से उसका शरीर छिन्नभिन्न होकर निश्चयतः अति भयानक हो गया ॥137॥ तब अति खण्डित शरीरवाला वह दीन नारकी सर्व दुःखों के समुद्र में डुब की लगाता हुआ उस दुःख की शान्ति के लिए पर्वत के मध्यभाग में प्रविष्ट हुआ। वहाँपर भी पापी क्रूर नारकी विक्रिया के बल से व्याघ्र, सिंह, रीछ आदि के रूप बनाकर उ से खाने लगे। इनको आदि लेकरके अनेक प्रकार के कवि के वचन-अगोचर, उपमा-रहित दुःखों को वह नारकी पाप के विपाक से निरन्तर भोगने लगा ॥138-140॥ सभी समुद्रों के जल-पान से भी नहीं शान्त होनेवाली प्यास से पीड़ित रहते हुए भी उ से कभी एक बिन्दु जल पीने के लिए नहीं मिला । संसार के समस्त अन्न के भक्षण से भी नहीं शान्त होनेवाली भूख से पीड़ित होनेपर भी कभी तिल-प्रमाण भी आहार खाने के लिए नहीं मिला ॥141-142॥ उन नरकों में शीत वेदना इतनी अधिक है कि यदि एक लाख योजन के प्रमाणवाला लोहे का गोला किसी के द्वारा वहाँ डाल दिया जाये तो वह वहाँ के अति शीत तुषार से अहो शीघ्र ही शतधा खण्ड-खण्ड हो जाये ॥143॥ इन दुःखों को आदि लेकर उन नारकियों के परस्पर में दिये गये शारीरिक, वाचनिक और मानसिक दुःखों को तथा क्षेत्र-जनित असह्य महादुःखों को वह रौद्रबुद्धि नारकी पापकर्म के विपाक से निरन्तर भोगने लगा। वहाँपर त्रिपृष्ठ के जीव उस नारकी की आयु तेतीस सागरोपम थी, कृष्ण लेश्या थी और वह सदा दुःखों से सन्तप्त रहता था ॥144-145॥ |