कथा :
मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओं के हन्ता, संसार से भव्य प्राणियों के त्राता, और ज्ञान एवं धर्मतीर्थ के कर्ता श्रीवीर भगवान इन गुणों की प्राप्ति के लिए मेरे सहायक हों ॥1॥ अथानन्तर एक बार भव्यजनों से घिरा हुआ वह बुद्धिमान् नन्द राजा धर्म-प्राप्ति के निमित्त से प्रोष्ठिल नामक योगिराज की वन्दना के लिए भक्ति के साथ गया ॥2॥ वहाँ पर दिव्य अष्ट द्रव्यों से भक्ति पूर्वक मुनीश्वर की पूजा करके और मस्तक से नमस्कार करके धर्म-श्रवण करने के लिए उन के चरणों के समीप बैठ गया ॥3॥ तब परोपकारी उन मुनिराजने राजा के हितार्थ दश लक्षण रूप उत्तम भेदों के द्वारा निर्दोष धर्म को उत्तम वाणी से इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया ॥4॥ हे धीमन् राजन्, दुष्टजनों के द्वारा उपद्रव करने पर भी धर्म का नाश करनेवाला क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और उत्तम क्षमा से युक्त धमे धारण करना चाहिए ॥5॥ चतुर जनों को धर्म के लिए मन वचन काय की कोमलता से मार्दव भाव रखना चाहिए और धर्म के नाशक भोगों की कठोरता नहीं रखना चाहिए ॥6॥ सरल मन वचन काय से धर्म का अंग आर्जव भाव धारण करना चाहिए और धर्मविनाशिनी कुटिलता यहाँ कभी भी नहीं करनी चाहिए ॥7॥ धर्मोजनों को धर्म की सिद्धि के लिए धर्म और वैराग्य के कारणभूत सत्य वचन बोलना चाहिए और धर्मनाशक असत्य नहीं बोलना चाहिए ॥8॥ इन्द्रियों के विषयादि वस्तु-समुदाय में लोलुपता रूप लोभ-शत्रु को नाश कर निर्लोभरूप धर्म का अंग शौचधर्म धारण करना चाहिए। जल की शुद्धि शौचधर्म नहीं है ॥9॥ छह काय के जीवों की दया करके और इन्द्रिय-मन का निग्रह करके धर्म की सिद्धि के लिए संयम धारण करना चाहिए और असंयम से बचना चाहिए ॥10॥ ज्ञानीजनों को धम की सिद्धि करनेवाले बारह भेदरूप तप अपनी शक्ति के अनुसार धर्म-सिद्धि के लिए करना चाहिए ॥11॥ परिग्रह का परित्याग कर ज्ञान और संयम को उत्पन्न करनेवाला धर्मप्रद और गुणों का भण्डार ऐसा पवित्र दान धर्म के हेतु देना चाहिए ॥12॥ कायोत्सर्गपूर्वक शरीर से ममता त्याग कर त्रियोगों से अचिन्त्य सुखाकर और धर्म का बीज आकिंचन्य उत्तम धर्म की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान करना चाहिए ॥13॥ धर्मार्थीजनों को सर्व स्त्रियाँ अपनी माता के समान समझकर धर्म के कारणभूत परम ब्रह्मचर्य हर्ष से सेवन करना चाहिए ॥14॥ जो मोक्षाभिलाषी लोग इन सारभूत दश लक्षणों के द्वारा मुनि-सम्बन्धी और मुक्तिदाता इस परम धर्म को करते हैं, वे इस तीन जगत् में उसके फल से समस्त अभ्युदय-सुखों को प्राप्त कर शीघ्र ही नियमतः मुक्ति के वल्लभ होते हैं ॥15-16॥ बुद्धिमानों के इस धर्म का साक्षात् आचरण तो दूर रहे, किन्तु जो धर्म के नाम मात्र को भी धारण करता है, वह भी कभी दुःखी नहीं होता ॥17॥ इस प्रकार से धर्म का माहात्म्य विचार कर, तथा संसार, शरीर-भोग आदि वस्तुओं को क्षणभंगुर और निःसार जानकर विवेकियों को चाहिए कि वे संसार, शरीर और भोगों को छोड़कर, तथा मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओं का नाश कर, शिव-प्राप्ति के लिए पूर्ण शक्ति से शीघ्र धर्म साधन करें ॥18-19॥ इस प्रकार मुनिराज-भाषित धर्म को सुनकर और संसार-शरीर भोगों से निर्वेद को प्राप्त होकर वह आत्महितैषी राजा अपने निर्मल चित्त में इस प्रकार विचारने लगा ॥20॥ अहो, अनन्त दुःखों की सन्तान को देनेवाला यह अनादि अनन्त संसार सज्जन पुरुषों की प्रीति के लिए कैसे हो सकता है ॥2॥ यदि यह संसार दुष्ट और समस्त दुःखों से भरपूर न होता, तो सुखशाली तीर्थकरादि महापुरुषोंने मुक्ति-प्राप्ति के लिए इसे कैसे छोड़ा ॥22॥ जिस शरीर रूपी कुटीर में क्षुधा, तृषा, काम-क्रोध आदि अग्नियाँ निरन्तर प्रज्वलित रहती हैं, उस शरीर में बुद्धिमानों की प्रीति कैसे सम्भव है ॥23॥ जिस शरीर में धर्मादिरूप धन को चुरानेवाले सभी इन्द्रियचोर रहते हैं उस शरीर में कौन बुद्धिमान रहने की इच्छा करता है ॥24॥ जो भोग दुःखपूर्वक उत्पन्न होते हैं, अन्त में अतिदःख एवं दाह को बढाते हैं, पराधीन हैं और चंचल हैं, उन्हें कौन ज्ञानी पुरुष सेवन करता है ॥25॥ जो भोग स्त्री और अपने शरीर के संघटन से उत्पन्न होते हैं, दुःखकारक हैं और महापुरुषों के द्वारा त्याज्य हैं, वे क्या क्षुद्रजनों के द्वारा सेव्य और सुखकारक हो सकते हैं ? कभी नहीं ॥26॥ भोगों के कारणों में और उन के सुखों में निर्मल बुद्धि से जिस-जिस वस्तु का विचार करते हैं, वह-वह वस्तु अत्यन्त घृणा पैदा करती है, कोई भी शुभ प्रतीत नहीं होती है ॥27॥ इत्यादि चिन्तवन से दुगुने वैराग्य को प्राप्त होकर राजा ने उन्हीं योगिराज को गुरु बनाकर, दोनों प्रकार के परिग्रहों को छोड़कर अनन्त संसार-सन्तान के नाशक सिद्धि का कारण ऐसा मुनियों का सकल संयम परम शुद्धि से ग्रहण कर लिया ॥28-29॥ गुरु के उपदेश रूप जहाज से वह नन्द मुनि निःप्रमाद और उत्तम बुद्धि के द्वारा शीघ्र ही ग्यारह अंगरूप श्रुतसागर के पार को प्राप्त हो गया ॥30॥ पुनः उसने अपने पराक्रम को प्रकट करके कर्मों का नाशक बारह प्रकार का परम तप अपनी शक्ति के अनुसार करना प्रारम्भ किया ॥31॥ वे नन्दमुनि सर्व इन्द्रियों का शोषक, कर्म-पर्वत के भेदन के लिए वज्रतुल्य, ऐसे अनशन तप को पक्ष, मास आदि से लेकर छह मास तक की मर्यादापूर्वक करने लगे ॥32॥ कभी निद्रा के पापनाश करने के लिए एक ग्रास आदि से लेकर अनेक भेदरूप अवमोदर्य तप को वे आत्मलक्षी नन्दमुनि करने लगे ॥33॥ आशा का क्षय करनेवाले वृत्तिपरिसंख्यान तप को एक, दो, चार आदि घरोंतक जाने का नियम कर आहार-लाभ के लिए करने लगे ॥34॥ वे जितेन्द्रिय मुनिराज अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिए कभी-कभी निर्विकार वृत्ति से कांजिक अन्न को लेकर रसपरित्याग तप करते थे ॥35॥ वे स्त्री-नपुंसक आदि से रहित, गिरि-गुफा, वन आदि में ध्यान और स्वाध्याय को करनेवाले विविक्त शयनासन तप को करते थे ॥36॥ वे वर्षाकाल में झंझावात और महावृष्टि से व्याप्त वृक्ष के मूल में धैर्य रूप कम्बल ओढ़कर बैठते थे ॥37॥ तुषार से व्याप्त, अतिशीतल हेमन्त ऋतु में वे मुनिराज जले हुए वृक्ष के समान होकर चौराहोंपर अथवा नदी के किनारे कायोत्सर्ग करते थे ॥38॥ ग्रीष्मकाल में सूर्य की किरणों के पुंज से सन्तप्त पर्वत के शिखरपर स्थित शिलातल पर ध्यानामृतरस के आस्वादी वे मुनिराज सूर्य के सम्मुख बैठते थे ॥39॥ इनको आदि लेकर नाना प्रकार के योगों के द्वारा वे धीर-वीर मुनिराज काय और इन्द्रिय सुख के नाश करने के लिए निरन्तर कायक्लेश नामक तप को करते थे ॥40॥ इस प्रकार यह बाह्य छह भेदरूप तप मनुष्यों के प्रत्यक्ष है और आभ्यन्तर तप की वृद्धि करनेवाला है। अतः वे मनिराज अन्तरंगतपों की वृद्धि के लिए बाहा तप और चैतन्य गुणों को प्राप्ति के लिए अन्तरंग तप करने लगे ॥41॥ अन्तरंग तपों में प्रथम तप प्रायश्चित्त है, यह स्वीकृत व्रतों की शुद्धि करता है । अतः निःप्रमाद होकर वे आत्म-शुद्धि के लिए आलोचनादि दश भेदों के द्वारा प्रायश्चित्त तप निरन्तर करने लगे ॥42॥ वे मुनिराज दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और इनको धारण करनेवाले पूज्य योगियों का सर्व अर्थ की सिद्धि करनेवाला विनय आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए करने लगे ॥43॥ वे आचार्य, उपाध्याय से लेकर मनोज्ञ पर्यन्त दश प्रकार के जगत्-पूज्य पुरुषों की वैयावृत्य शुश्रूषा करके और आज्ञा-पालनादि के द्वारा करने लगे ॥44॥ वे मन और इन्द्रिय दमन के लिए योगों को वश में करनेवाला अंग-पूर्वो का पाँच भेदरूप स्वाध्याय प्रमाद-रहित होकर के करने लगे ॥45॥ वे ज्ञानी मुनिराज शरीरादि में ममत्व त्याग कर कर्मरूप वन को जलाने के लिए अग्नि समान व्युत्सर्ग तप निर्ममत्वरूप सुख की प्राप्ति के लिए निरन्तर करने लगे ॥46॥ वे बुद्धिमान् मुनिराज अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगजनित, रोग-जनित और निदानरूप चारों प्रकार के महानिन्द्य तिर्यम्गति को करनेवाले और संक्लिष्ट चित्त से उत्पन्न होनेवाले आर्तध्यान को कभी स्वप्न में भी आश्रय नहीं करते थे, किन्तु धर्म और शक्लध्यान में ही अपना चित्त संलग्न रखते थे ॥47-48॥ वे जीवहिंसा, अनृत (असत्य), चोरी और परिग्रह के संरक्षण करनेवाले जीवों को आनन्द उत्पन्न करनेवाला, रौद्रकर्म के अभिप्राय से उत्पन्न होनेवाला, नरकमार्ग के फल को देनेवाला चारों प्रकार का निन्द्य रौद्रध्यान अपने धर्मध्यान से उज्ज्वल चित्त में कभी भी रंचमात्र नहीं रखते थे ॥49-50॥ वे नन्दमुनिराज उत्तम तत्त्वों के चिन्तवन आदि शुद्ध अभिप्राय से उत्पन्न होनेवाले, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयरूप चारों प्रकार के धर्मध्यान को जो कि स्वर्ग के उत्तम फलों को देनेवाला है, सभी अवस्थाओं में सर्वत्र एकाग्रचित्त से ध्याते थे ॥51-52॥ वे बुद्धिमान मुनिराज पृथक्त्व वितर्कसवीचार, एकत्व वितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और शेषक्रिया निवृत्तिरूप चारों प्रकार के महान् शुक्लध्यानको, जो कि साक्षात् मोक्ष का दाता है, वन आदि एकान्त स्थानों में ध्याते थे ॥53-54॥ इस प्रकार बारह भेदरूप महातपोंको, जो कि कर्म और इन्द्रिय आदि शत्रुओं के घातने में वज्र के समान हैं, संसार की समस्त ऋद्धि और सुख के बीजस्वरूप है, केवलज्ञान के उत्पादक है और अभीष्ट अर्थक करनेवाले हैं, सदा सर्वशक्ति से आचरण करते थे ॥55-56॥ इन दुष्कर तपों से उन मुनिराज के सुख की खानिरूप अनेक प्रकार की दिव्य शारीरिक महाऋद्धियाँ प्रकट हो गयीं और बीज, बुद्धि आदि अनेक ज्ञानऋद्धियाँ भी उन्हें प्राप्त हुई ॥57॥ वे मुनिराज सर्व प्राणियों पर धर्म की मातृस्वरूप मैत्री भावना, गुणशाली मुनीन्द्रों के ऊपर धर्माकर प्रमोद भाव, रोग-क्लेश-युक्त प्राणियों पर धर्म का मूल कृपाभाव और मिथ्या दृष्टि एवं विपरीत बुद्धिवालोंपर सुख का सागर माध्यस्थ्य भाव रखते थे ॥58-59॥ इन चारों भावनाओं में तल्लीन हृदयवाले उन मुनिराज के स्वप्न में भी राग-द्वेष भाव स्थिति करने के लिए कभी समर्थ नहीं हुए ॥60॥ वे मुनिराज तीर्थकर की विभूति को देनेवाली इन वक्ष्यमाण सोलह उत्तम भावनाओं की तीर्थंकरों के गुणों में समर्पित चित्त होकर निरन्तर मन वचन काय की शुद्धि से भावना करने लगे ॥61॥ उनमें सबसे पहले सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए उसके पचीस दोषों को दूर कर निश्शंकित आदि आठ महान गुणों को उन्होंने स्वीकार किया ॥62॥ उन्होंने जिन-भाषित धर्म के करनेवाले सूक्ष्म तत्त्वों के विचारने में 'प्रामाणिक पुरुष के वचन अन्यथा नहीं हो सकते' ऐसा निश्चय करके सर्व प्रकार की शं का को छोड़कर निश्शंकित गुण को धारण किया ॥63॥ उन्होंने तप के द्वारा इस लोक में तथा परलोक में स्वर्गों के भोग, लक्ष्मी, सुख आदि में जो कि अन्त में नरक-निवास के दाता हैं, आकांक्षा का त्याग कर निःकांक्षित अंग को धारण किया ॥64॥ मल और शारीरिक मैल आदि से जिन का शरीर व्याप्त है ऐसे गुणशाली योगियों में मन वचन काय से ग्लानि का त्याग करके निर्विचिकित्सा अंग को धारण किया ॥६५॥ उन मुनिराज ने देव, शास्त्र, गुरु और धर्म आदि की ज्ञाननेत्र से परीक्षा कर तीनों प्रकार की मूढ़ताओं का त्याग कर अमूढत्व गुण को स्वीकार किया ॥66॥ निर्दोष जैन शासन में अज्ञानी और असमर्थ पुरुषों के द्वारा प्राप्त हुए दोषों को आच्छादन करके उपगूहन गुण का पालन किया ॥67॥ सम्यग्दर्शन, तप, चारित्र आदि को अंगीकार करके उससे चलायमान हुए जीवों को उपदेश आदि के द्वारा उन्हीं गुणों में पुनः स्थिर करके स्थितीकरण अंग का आचरण किया ॥68॥ अपने शरीर आदि में वे मुनिराज स्नेह-रहित थे, फिर भी सद्यःप्रसूता गौ जैसे अपने बछड़ेपर अत्यन्त स्नेह करती है, उसी प्रकार उन्होंने साधर्मी जनों में अति स्नेह करके वात्सल्यगुण का पालन किया ॥69॥ उन मुनिराज ने इस संसार में फैले हुए मिथ्यात्वरूप अन्धकार को अपने तप और ज्ञान की किरणों से नाश करके और जैन शासन का प्रकाश करके धर्म की प्रभावना की ॥7॥ उन संयमी मुनिराज ने इन उपर्युक्त आठ गुणों के द्वारा अपने सम्यग्दर्शन को सबल करके और उसके द्वारा कर्मरूप शत्रुओं को विनष्ट किया; जैसे कि राजा अपने राज्य के अंगों को पुष्ट करके शत्रुओं को नष्ट करता है ॥7॥ उन्होंने देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और अन्य मतों से उत्पन्न हुई पाखण्डमूढ़ता को जो कि पाप की खानि हैं और धर्म की घातक हैं, सर्वथा छोड़ दिया था |72॥ उन्होंने सज्जाति, सुकुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और अनेक प्रकार शिल्पकलाचातुर्यरूप आठों मदों को जो कि कुमाग में ले जानेवाले हैं, सर्वथा छोड़ दिया था। यद्यपि वे स्वयं सजाति, सुकुल आदि सद्-गुणों से युक्त थे, तथापि इस समस्त जगत् को अनित्य जानकर उक्त जाति-कुलादिक का उन्होंने कभी अहंकार नहीं किया ॥73-74॥ उन्होंने मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र और इन के धारक कुमार्गगामी जड़(मूर्ख), सेवक इन छहों प्रकार के नरक ले जाने वाले अनायतनों को त्रियोग से त्याग कर दिया था ॥75॥ निःशंकित आदि गुणों से विपरीत और अहितकारी शंका आदि अशुभ दोष हैं, उनको उन्होंने सर्वथा दूर कर दिया था ॥76॥ उन मुनिराज ने सम्यग्दर्शन के इन पचीस मलों को ज्ञानरूपी जल से धोकर और सम्यग्दर्शन को निर्मल करके उस की परम विशुद्धि की ॥77॥ संवेग, संसार-शरीर और भोग इन तीनों से विरक्तिरूप निर्वद, निन्दा, गहण, सर्वत्र उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा इन सारभूत आठ गुणों से अलंकृत उन मुनिराजने तीर्थकरपद के प्रथम सोपानस्वरूप दर्शनविशुद्धि में अपने-आप को अवस्थित किया ॥78-79॥ वे मुनिराज दर्शन ज्ञान चारित्र और उपचार विनय, तथा इन के धारण करनेवाले अधिक गुणशाली मुनियों की त्रियोग की शुद्धिपूर्वक विनय करते थे ॥80॥ उन्होंने अतीचारों से पराङ्मुख रहते हुए अठारह हजार शीलों को और व्रतों को यत्न के साथ नित्य पालन किया ॥81॥ अज्ञान का घात करनेवाले अंग और पूर्वरूपादि रूप श्रुतज्ञान का वे निरन्तर पठन करते थे और पाप-शान्ति के लिए प्रमाद-रहित होकर शिष्यों को पढ़ाते थे ॥82॥ वे मुनिराज सर्व अनर्थों के करनेवाले शरीर, भोग और संसार के कारणभूत पदार्थों में मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओं का नाशक परम संवेग की भावना करते थे ॥83॥ वे योगियों के लिए ज्ञानदान, प्राणियों के लिए अभयदान सब के लिए सुखकारक धर्म का उपदेश सदा देते थे ॥84॥ जिन का पहले वर्णन किया गया है, जो दुष्कर्म और इन्द्रियरूप शत्रुओं का नाशक है ऐसे बारह प्रकार के निर्दोष तपों को अपनी शक्ति के अनुसार सदा आचरण करते थे ॥85॥ वे रोग आदि के द्वारा असमाधि को प्राप्त साधुओं की सेवा-शुश्रुषा और उपदेश आदि से चारित्र की रक्षक साधु समाधि को सदा करते थे ॥86॥ वे आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, तपस्वी, ग्लान (रोगी) गण, गुरुकुल, संघ और मनोज्ञ इन दश प्रकार के महात्मा पुरुषों की मुक्तिप्राप्ति के लिए स्वपर-गुणकारक यथायोग्य वैयावृत्त्य करते थे ॥87-88॥ वे मुनिराज धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के देनेवाले अर्हन्तों की मन, वचन, काय के द्वारा सदा उत्कृष्ट भक्ति करते थे ॥89॥ गण द्वारा पूज्य, पंचाचार-परायण और छत्तीस गुण-धारक आचार्यों की रत्नत्रयदायिनी भक्ति को वे सदा करते थे ॥90॥ अज्ञानान्धकार के नाशक, विश्व के प्रकाशक ऐसे बहुश्रतवन्त मुनिराजों की ज्ञान की खानिरूप भक्ति करते थे ॥91॥ वे एकान्त अन्धतम के नाशक. समस्त तत्व से परिपर्ण, जैन प्रवचन की और जिनवाणी माता की परम भक्ति करते थे ॥92॥ वे मुनिराज समता स्तुति त्रिकाल वन्दना सत्प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक जो कि सिद्धान्त के बीजभूत हैं, और नियम से पाप के नाशक हैं, उन्हें यथाकाल-यथासमय नियम से करते थे ॥93-94॥ वे चिद्-अचित् के भेदविज्ञान से, तपोयोग से और उत्कृष्ट आचरणों से सदा जीवों का हित करनेवाली सारभूत जैनमार्ग की प्रभावना करते थे ॥95॥ वे सम्यग्ज्ञानी पुरुषों का नियम से सम्मान करके पूर्णधर्म को देनेवाले प्रवचन का वात्सल्य करते थे ॥96॥ इस प्रकार तीर्थंकर की सद्-विभूति को देनेवाली इन सोलह कारण भावनाओं की शुद्ध मन वचन काय से प्रतिदिन भावना करके उसके फल द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का शीघ्र बन्ध किया। यह तीर्थंकर नामकर्म अनन्त महिमा से संयुक्त है और तीन लोक में क्षोभ का कारण है ॥97-98॥ जिस तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से इन्द्रों के सिंहासन प्रकम्पित होते हैं और मुक्ति लक्ष्मी स्वयं आकर के सन्तों का आलिंगन करती है ॥99॥ इस प्रकार मरण-पर्यन्त निर्दोष संयम का पालन कर और अपनी अल्पायु को जानकर उन्होंने आहार और शारीरिक क्रियाओं को छोड़कर त्रिजगत् के सुख देनेवाले और व्रतों को सफल करनेवाले संन्यास को उन्होंने मोक्ष और समाधि की प्राप्ति के लिए परम विशुद्धि के साथ धारण कर लिया ॥100-101॥ तत्पश्चात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की शुद्धि करनेवाली मुक्तिरमा की मातृस्वरूपा चारों आराधनाओं का परम यत्न से आराधन कर, मन को विकल्पों से रहित कर, तथा शुद्ध आत्मा में अपने को स्थापित कर उन बुद्धिमान नन्दमुनिराज ने समस्त प्राणियों की रक्षा करनेवाले अपने प्राणों को समाधिपूर्वक छोड़ा ॥102-103॥ तत्पश्चात् वे मुनिराज उस समाधि-योग के फल से अनेक प्रकार की विभूति के समुद्र ऐसे सोलहवें अच्युतकल्प में देवों से पूजित अच्युतेन्द्र उत्पन्न हुए ॥104॥ वहाँ पर यह अच्युतेन्द्र अन्तर्मुहूर्त में सहज उत्पन्न हुए दिव्य माल्य, आभूषण, वस्त्र और यौवनावस्था से भूषित उत्तम शरीर को पाकर, रत्नमयी उपपाद शिला के अन्तःस्थित कोमलशय्या से उठकर तथा वहाँ की सभी रमणीय अद्भुत वस्तुओं को देखकर स्वर्ग की ऋद्धि, देवियाँ और विमान आदि के देखने से हृदय में आश्चर्यमुक्त होकर धीरे से सोकर उठते हुए राजकुमार के सदृश वह इन्द्र अपने मन में इस प्रकार चिन्तवन करने लगा ॥105-107॥ अहो, मैं पुण्यात्मा कौन हूँ, सुखों का भण्डार यह कौन देश है, ये वत्सल, दक्ष, विनय से परिपूर्ण देव कौन है ? दिव्य लक्ष्मी और रूप की खानि ये सुन्दर देवियाँ कौन हैं ? ये आकाश में अधर रहनेवाली रत्नमय भवनों की पंक्तियाँ किनकी हैं ? यह देव-रक्षित, मनोज्ञ सात प्रकार की यह सेना किसकी है ? यह परम उन्नत देदीप्यमान सभामण्डप किसका है, यह दिव्य रत्नमय उत्तुंग सिंहासन किसका है ? ये दूसरी अनुपम नाना प्रकार की बहुत-सी विभूतियाँ किसकी हैं ? किस कारण से ये सभी अतिसुन्दर विनीत जन मुझे देखकर अति आनन्दित हो रहे हैं ? ॥108-112॥ अथवा पूर्वोपार्जित किस अद्भुत पुण्यकर्म के द्वारा मैं इस समस्त ऋद्धियों से परिपूर्ण मन्दिरवाले देश में लाया गया हूँ ॥113॥ इत्यादि प्रकार से चिन्तवन करनेवाले उस देवेन्द्र के जबतक हृदय में सन्देह का नाश करनेवाला निश्चय नहीं हो रहा था, तभी उसके कुशल विद्वान् सचिव अवधिज्ञानरूप नेत्र से उसके अभिप्राय को जानकर और उसके चरणों को नमस्कार कर अपने दोनों हाथों को जोड़कर मस्तकपर रखते हुए हर्ष से दिव्य वाणी द्वारा उसका सन्देह दर करने के लिए उससे बोले ॥114-116॥ हे देवेन्द्र, हे स्वामिन् , निर्मल दृष्टि से हम लोगोंपर प्रसन्न होइए, और नमस्कार करते हुए आप के पूर्वापर अर्थ-सम्बन्ध के सूचक हमारे वाक्य सुनिए ॥117॥ हे नाथ, आज हम लोग धन्य हैं, आज हमारा जीवन सफल हो गया, क्योंकि आज आपने अपने जन्म से यहाँपर हम लोगों को पवित्र किया है ॥118॥ यह सर्व ऋद्धियोंवाला सागर अच्युत नामक महान् स्वर्ग है जो कि समस्त कल्पों के मस्तक पर चूड़ामणि रत्न के समान शोभित हो रहा है ॥119॥ यहाँ पर मनोवांछित भोग और वचनों के अगोचर सुख प्राप्त हैं। जो वस्तु तीनों लोकों में दुर्लभ है, वह सब यहाँ उत्पन्न होनेवालों को सुलभ है ॥120॥ यहाँ पर स्वभाव से ही सभी गाय कामधेनु हैं, सभी पेड़ कल्पवृक्ष हैं, और सभी रत्न चिन्तामणि हैं ॥121॥ यहाँ पर दुःख की कारणभूत ऋतुएँ कभी नहीं होती हैं। किन्तु सर्वसुखदायक साम्यता को प्राप्त एक-सा ही काल रहता है॥१२२॥ यहाँ पर कभी भी दिन-रात का विभाग नहीं होता। किन्तु दिन की शोभा और सुख का करनेवाला एकमात्र रत्नों का प्रकाश रहता है ॥123॥ यहाँ पर दीन, दुःखी, रोगी, अभागी, कान्तिहीन, पापी और गुण-रहित कोई भी जीव स्वप्न में भी नहीं दिखाई देता है ॥124॥ यहाँ पर जिनमन्दिरों में सदा ही श्री जिनेन्द्रदेवों की महापूजा होती रहती है और नृत्य-संगीत आदि से प्रतिदिन महान् उत्सव होता रहता है ॥125॥ यहाँ पर असंख्यात और संख्यात योजन विस्तारवाले श्रेणीबद्ध देव-विमान हैं, जिन की संख्या एक सौ उनसठ है और वे सभी सुख के सागर हैं ॥126॥ उन के मध्य में अन्य एकसौ तेईस प्रकीर्णक विमान हैं । ये सब दिव्य हैं। इस अच्युत कल्प में छह इन्द्रक विमान हैं ॥127॥ ये दश हजार की संख्यावाले सामानिक देव हैं । आज्ञा के बिना शेष सब महाभोगों में ये आप के समान ही महाऋद्धिवाले हैं ॥128॥ ये तीस संख्यावाले देवों में उत्तम त्रायस्त्रिंश देव हैं। ये आप के पुत्र के समान हैं और इन का हृदय आप के प्रति स्नेह से भरा हुआ है ॥129॥ ये चालीस हजार आत्मरक्षक देव हैं, जो आप के अंग-रक्षकों के समान हैं और केवल वैभव के लिए ही हैं ॥130॥ ये एक सौ पचीस देव आप की अन्तःपरिषद् के सदस्य हैं। ये दो सौ पचास देव मध्यम परिषद् के सभासद् है और ये पाँच सौ देव बाहरी परिषद् के पारिषद हैं। ये सभी देव आप की आज्ञाकारी है। ये चार लोकपाल हैं जो आप की अपनी-अपनी दिशा का लोक से अन्ततक पालन करते है ॥131-132॥ इन लोकपालों में से प्रत्येक की बत्तीस-बत्तीस देवियाँ हैं, जो सुख भोगादि की खानि हैं ॥133॥ ये रूप-लावण्य से भूषित आप की आठ महादेवियाँ हैं, जो आप की आज्ञाकारिणी और आप के राग में रंजित हृदयवाली हैं ॥134॥ इन प्रत्येक महादेवी के परिवार में ढाई-ढाई सौ देवियाँ हैं जो तीन ज्ञान और विक्रिया ऋद्धि से युक्त हैं ॥135॥ ये तिरसठ वल्लभि का देवियाँ हैं जो कि उत्तम भारी रूप-सम्पदा से युक्त हैं, आप के चित्त को हरनेवाली हैं ॥136॥ हे नाथ, ये सब मिलाकर दो हजार इकहत्तर परम देवियाँ आप को समर्पित हैं ॥137॥ ये आप की एक-एक महादेवी दश लाख चौबीस हजार स्त्रियों के दिव्यरूप विक्रिया से बना सकती हैं ॥138॥ हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, बैल, गन्धर्व और देवनर्त की वाली ये सात प्रकार की आप की उत्तम सेना है ॥139॥ एक-एक जाति की सेना की पृथक्-पृथक् सात-सात कक्षाएँ हैं । प्रत्येक कक्षा(पलटन) के अलग-अलग सेना महत्तर( सेनापति) देव हैं ॥140॥ हाथियों की पहली कक्षा में बीस हजार हाथी हैं। शेष कक्षाओं में इस से दूनी-दूनी संख्या है । इसी प्रकार हे देवेन्द्र, आप की आज्ञा-परायण घोड़े आदि छहों सेनाओं के प्रत्येक कक्षा की संख्या जानिए ॥141-142॥ एक-एक देवी की अप्सराओं की तीन-तीन सभाएँ हैं, जो कि गीत, नृत्य, कला, ज्ञान-विज्ञानादि गुणों से सम्पन्न हैं ॥143॥ महादेवी की प्रथम अन्तःपरिषद् में पचीस देवियाँ हैं, दूसरी मध्यम परिषद्। पचास देवियाँ हैं और तीसरी बाहरी परिषद् में सौ देवियाँ हैं ॥144॥ हे नाथ, ये सब दिव्य विभूति और अन्य अनेक प्रकार की सम्पदा आप के अद्भुत पुण्य से आप के सम्मुख उपस्थित हैं ॥145॥ हे नाथ, आज आप अपने पुण्य से इस समस्त स्वर्ग के राज्य के स्वामी हो और इस समस्त अनुपम विभूति को ग्रहण करो ॥146॥ इस प्रकार से उस सचिव देव के वचनों को सुन करके और तत्काल उत्पन्न हुए अवधिज्ञान से पूर्वभव के वृत्तान्त को जानकर धर्म में तत्पर होता हुआ वह बुद्धिमान् अच्युतेन्द्र साक्षात् पुण्य के फल को देखकर पूर्वभव-सूचक यह वचन बोला ॥147-148॥ अहो, मैंने पूर्वभव में सर्व प्रकार का निर्दोष घोर तप किया है, कायरजनों को भय देनेवाले शुभ ध्यान, अध्ययन और योगादि किये हैं, जगत्पूज्य पंचपरमेष्ठी की आराधना की है, विशुद्ध भावना के साथ परम रत्नत्रयधर्म को धारण किया है, इन्द्रियों के विषयरूप वन को जलाया है, कामदेव रूप शत्रु को मारा है, कषायरूप शत्रुओं का दमन किया है, सभी परीषहों को जीता है और पूर्ण सामर्थ्य से मैंने पहले क्षमादि दश लक्षणवाले धर्म का परिपालन किया है उसीने मुझे यहाँ इस पदपर स्थापित किया है ॥149-152॥ अथवा उपमा-रहित और सर्वसुखदायक यह समस्त स्वर्ग का विशाल साम्राज्य धर्म का ही फल है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥153॥ अतः तीनों लोकों में कहींपर भी धर्म के समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है। धर्म ही संसार-समुद्र से पार उतारनेवाला रक्षक है और धर्म ही सब अर्थ का साधक है ॥154॥ धर्म ही जीवों का सहगामी है, धर्म ही पापरूप शत्रु का नाशक है, धर्म ही स्वर्ग-मुक्ति का दाता है और धर्म ही समस्त सुखों की खानि है। ऐसा समझकर सुख के इच्छुक ज्ञानी जनों को चाहिए कि वे सभी अवस्थाओं में सदा ही निर्मल आचरणों से परम धर्म का पालन करें ॥155-156॥ अहो, जिस चारित्र से उस लोक में और इस लोक में यह सब महान् वैभव प्राप्त होता है उस चारित्र धर्म को पालन करने के लिए आज मैं क्या करूँ ॥157॥ अथवा धर्म आदि की सिद्धि के लिए एक दर्शनविशुद्धि ही मेरे यहाँ पर होवे, तथा श्री जिननाथों की भक्ति और उन की मूर्तियों का परम पूजन ही करूं ? ऐसा कहकर और स्नान-वापिका में स्नान करके देवांगनाओं से घिरा हुआ वह अच्युतेन्द्र धर्मोपार्जन के लिए अपने अकृत्रिम जिनालय में गया ॥158-159॥ वहाँ पर उसने भक्ति-भाव से नम्रीभूत होकर अर्हन्तों के प्रतिबिम्बों का नमस्कारपूर्वक महापूजन संकल्पमात्र से उत्पन्न हए जलादि-फल पर्यन्त आठ प्रकार के दिव्य दव्यों से गीत. नत्य, वाद्य. स्तवनादि के द्वारा की ॥160-161॥ तत्पश्चात् चैत्य वृक्षों के नीचे विराजमान जिनप्रतिमाओं को पूजकर वह देवेन्द्र भक्ति के साथ तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक और देवलोक में स्थित कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना के लिए गया और तीर्थंकर गणधर आदि मुनीश्वरों को नमस्कार-पूजन कर और उन से धर्म-तत्त्व को सुनकर उसने महान् धर्म उपार्जन किया ॥162-163॥ तत्पश्चात् वहाँ से वापस अपने स्थान पर आकर अपने पुण्य से उत्पन्न और देवों द्वारा समर्पित नाना प्रकार की सर्व विभूति को उसने स्वीकार किया ॥164॥ वह इन्द्र तीन हाथ उन्नत अति दिव्य देह का धारक, नेत्रों को अतिप्रिय, स्वेद-धातु आदि सर्व मलों से रहित और नेत्र-टिमकार से रहित था ॥165॥ छठी पृथिवी तक के तीन प्रकार के रूपी द्रव्यों को अपने अवधि-ज्ञान से जानता हुआ वह देव अवधिज्ञान प्रमाण क्षेत्र में विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से गमनागमन करने में समर्थ था, बाईस सागर प्रमाण आयु थीं और सब उत्तम आभरणों से भूषित था ॥166-167॥ बाईस हजार वर्ष बीतनेपर सर्वांग को तृप्त करनेवाला अमृतमय दिव्य आहार मन से ग्रहण करता था ॥168॥ ग्यारह मास बीतनेपर दिमण्डल को सुरभित करनेवाला सुगन्धिवाला दिव्य उच्छ्वास नाममात्र को लेता था ॥169॥ भक्ति से भरा हुआ वह अच्युतेन्द्र तीर्थंकरों के पंच कल्याणकोंको, एवं शेष केवलियों के ज्ञान-निर्वाण इन दो कल्याणकों को निरन्तर करता हुआ महापूजनादि के महोत्सवों द्वारा अपने धर्म को बढ़ाता था, सर्व देवों से पूजित हैं चरण-कमल जिस के ऐसा धर्म-कार्य में अग्रणी वह महान देवेन्द्र अपनी महादेवियों के साथ कोटि प्रकार के क्रीड़ा-कौतूहलादि से खेलता मनःप्रवीचारजनित अनुपम महान् सुख को भोगता था ॥170-172॥ इस प्रकार सर्वदेवों से नमस्कृत अच्युत स्वर्ग का स्वामी वह देवेन्द्र वहाँपर परम आनन्दरूप सुख-सागर के मध्य में निमग्न रहने लगा ॥173॥ इस प्रकार धर्म के फल से वह देवेन्द्र सर्ववैभवों से परिपूर्ण स्वर्ग के उत्तम राज्य को प्राप्त कर सारभूत दिव्य महाभोगों को भोगने लगा। ऐसा जानकर सुचतुर पुरुष शम, दम और योग से एक धर्म को ही निरन्तर पालन करें ॥174॥ साथियों के साथ मेरे द्वारा धर्म आचरण किया गया, मैं धर्म को नित्य करता हूँ, धर्म के द्वारा मैं अनुपम चारित्र का पालन करता हूँ, धर्म के लिए मस्तक नवाकर नमस्कार है, मैं धर्म से भिन्न किसी अन्य वस्तु का आश्रय नहीं लेता हूँ, मोक्ष की प्राप्ति के लिए मैं धर्म के मार्ग का सेवन करता हूँ, धर्म में अपने मन को लगानेवाले मेरे हृदय में हे धर्म, तुम निरन्तर विराजमान रहो ॥175॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीतिविरचित श्री-वीरवर्धमानचरित में नन्दराजा के तप का, अच्युतेन्द्र की उत्पत्ति और वहाँ को विभूति का वर्णन करनेवाला छठा अधिकार समाप्त हुआ ॥6॥ |