कथा :
समस्त विघ्न-समूह के विनाशक, तीन जगत् के स्वामियों से सेवित और पंचकल्याणकों के नायक श्री पार्श्वनाथ तीर्थश की मैं वन्दना करता हूँ ॥1॥ अथानन्तर इसी भारतवर्ष में विदेह नामक एक विशाल देश है, जो श्रेष्ठ धर्म और मुनीश्वरों के संघ आदि से विदेहक्षेत्र के समान शोभायमान है ॥2॥ अहो, वहाँ के कितने ही मुनिराज शुद्ध चारित्र से देह-रहित (मुक्त) होते हैं, इस कारण से वह देश 'विदेह' इस सार्थक नाम को धारण करता है ॥3॥ वहाँ के कितने मनुष्य दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं के द्वारा उत्तम तीर्थंकर नामकर्म को बाँधते हैं और कितने ही पंच अनुत्तर विमानों में जाकर अहमिन्द्रपद प्राप्त करते हैं ॥4॥ कितने ही भव्य जीव उच्च भक्ति के साथ पात्र के लिए दान देकर भोगभूमि को जाते हैं और कितने ही जिन-पूजन के प्रभाव से इन्द्रों का स्थान प्राप्त करते हैं ॥5॥ जिस देश में तीर्थंकर और सामान्य-केवलियों की देव, मनुष्य, विद्याधरों से वन्द्य निर्वाणभूमियाँ पद-पद पर दृष्टिगोचर होती हैं ॥6॥ जहाँ के वन और पर्वतादिक ध्यान-स्थित योगियों के द्वारा शोभित हैं और जहाँ के नगर-ग्रामादिक उत्तुंग जिनमन्दिरों से निरन्तर शोभा पा रहे हैं ॥7॥ जहाँ पर ग्राम, पुर, खेट, मटम्ब आदि और वन-प्रदेश उन्नत और उत्तम जिनालयों से पुण्य की खानि के समान शोभित हैं ॥8॥ जहाँ पर धर्म की प्रवृत्ति के लिए केवलज्ञानी भगवन्त, गणधर और मुनिराजों के समूह चारों प्रकार के संघों के साथ विहार करते रहते हैं ॥9॥ इत्यादि वर्णन से संयुक्त उस देश के भीतर नाभि के समान मध्यभाग में कुण्डपुर नामक महान नगर विराजमान है ॥10॥ जो सुरक्षक उत्तुंग गोपुरों से, कोट और खाई से शत्रुओं द्वारा अलंध्य है, अतः साकेतपुर (अयोध्यानगर) के समान अयोध्या है ॥11॥ जहाँ पर केवली और तीर्थंकरों के कल्याणकों के लिए, तथा तीर्थयात्रादि के लिए समागत देवों द्वारा सदा परम उत्सव होता रहता है ॥12॥ जहाँ पर उन्नत सुवर्ण-रत्नमयी उत्तम जिनालय शोभायमान है, जो ज्ञानीजनों के द्वारा सेव्यमान हैं अतः वे अद्भुत धर्म के समुद्र के समान प्रतीत होते हैं ॥13॥ वे जिनालय जय, नन्द आदि शब्दों से, स्तवन आदि से, गीत, वाद्य, नृत्यादि से, दिव्य मणिमयी जिनबिम्बों से और उत्तम दिव्य, हेम-रचित उपकरणों से युक्त हैं और उनमें मनुष्य-युगल (स्त्री-पुरुषों के जोड़े) पूजन के लिए सदा आते-जाते रहते हैं, जो अपने गुणों के द्वारा दिव्य रूपवाले देव-युगल के समान शोभित होते हैं ॥14-15॥ जहाँ के बुद्धिमान् दानी पुरुष भक्ति-भार से युक्त होकर पात्रदान के लिए नित्य अपने घर का द्वार बार-बार देखते रहते हैं ॥16॥ कितने ही पुरुष सुपात्रदान से देवों द्वारा पूजा को प्राप्त होते हैं और उनके द्वारा की गयी रत्नवृष्टि को देखकर कितने ही दूसरे लोग दान देने के लिए तत्पर होते हैं ॥17॥ जो नगर ऊँचे प्रासादों के अग्रभाग पर लगी हुई ध्वजारूपी हाथों से उच्चतर पद की प्राप्ति के लिए देवेन्द्रों को बुलाता हुआ-सा शोभता है ॥18॥ उस नगर के ऊँचे भवनों में दातार, धार्मिक, शूरवीर, व्रत-शील-गुणों के धारक, जिनेन्द्र देव और सद्-गुरुओं की भक्ति, सेवा और पूजा में तत्पर, नीति-मार्ग-निरत, चतुर, इस लोक और पर लोक के हित-साधने में उद्यत, धर्मात्मा, सदाचारी, धनी, सुखी, ज्ञानी, और दिव्यरूपवाले मनुष्य तथा उनके समान गुणवाली स्त्रियाँ रहती हैं, वे स्त्री-पुरुष देव-देवियों के समान पुण्यशाली प्रतीत होते हैं ॥19-22॥ उस कुण्डपुर के स्वामी श्रीमान् सिद्धार्थ नामवाले महीपाल थे, जो काश्यपगोत्री, हरिवंशरूप गगन के सूर्य, तीन ज्ञान के धारक, बुद्धिमान, नीतिमार्ग के प्रवर्तक, जिनभक्त, महादानी, दिव्य लक्षणों से संयुक्त, धर्मकार्यों में अग्रणी, धीर वीर, सम्यग्दृष्टि, सज्जनवत्सल, कला विज्ञान चातुर्य विवेक आदि गुणों के आश्रय, व्रत शील शुभध्यान भावनादि में परायण, राजाओं में प्रमुख थे और जिनके चरण विद्याधर, भूमिगोचरी और देवेन्द्रों के द्वारा सेवित थे ॥23-25॥ वे पुण्यात्मा सिद्धार्थ नरेन्द्र दीप्ति, कान्ति, प्रताप आदि से, दिव्यरूप वस्त्रों से, उत्कृष्ट वेष-भूषा से और सारभूत धर्ममूलक सर्वप्रवृत्तियों से समस्त राजाओं के मध्य में इस प्रकार शोभायमान थे, जैसे कि अतिपुण्य बुद्धिवाला देवेन्द्र देवों के मध्य में शोभा पाता है ॥26-27॥ उस सिद्धार्थ नरेश की रानी 'प्रियकारिणी' इस उत्तम नामवाली महादेवी थी। जो अपने अनुपम गुण-समूह से जगत् की पुण्यकारिणी थी ॥28॥ वह अपनी कान्ति से चन्द्रमा की कला के समान जगत् को आनन्द देनेवाली थी। कला विज्ञान चातुर्य के द्वारा सरस्वती के समान सर्वजनों को प्रिय थी, अपने चरणकमलों से जल में उत्पन्न होनेवाले कमलों को जीतती थी, नखरूप चन्द्र की किरणों से शोभित थी, मणिमयी नूपुरों की झंकारों से सर्व दिशाओं को व्याप्त करती थी ॥29-30॥ केले के गर्भ-सदृश कोमल जंघावली, मनोहर, दो सुन्दर जानुओं से युक्त, दो उदार ऊरुओं से भूषित, कामदेव के निवास-स्थानवाले स्त्री-चिह्न से भूषित, कांचीदाम (करधनी) और दिव्य वस्त्रों से परिष्कृत कमरवाली, मध्य में कृश और ऊपर पुष्ट शरीरवाली, गम्भीर नाभिवाली, कृशोदरी, मणियों के हार आदि से भूषित अंगवाली, उन्नत सुन्दर स्तनों की धारक, अशोक की पत्रकान्ति को जीतनेवाले कोमल हाथों से युक्त, कण्ठ के आभूषणों से शोभित, उत्तम कण्ठ-स्वर से कोकिल की बोली को जीतनेवाली, महाकान्ति, कलकलालाप और दीप्ति से प्रकाशित उत्तम मुखवाली, कानों के आभूषण युक्त सुन्दर आकारवाले कानों से अलंकृत, अष्टमी के चन्द्रसमान ललाटवाली, दिव्य नासिकावाली, सुन्दर भोंहें, नीलकेश और पुष्पमाला से युक्त मस्तकवाली, अत्यन्त रूप-सौन्दर्य, लावण्य और उत्तम विद्याओं को धारण करनेवाली वह सती प्रियकारिणी, मानो तीन लोक में सारभूत परमाणुओं से निर्मित प्रतीत होती थी। इन उक्त गुणों को आदि लेकर अन्य समस्त स्त्री-लक्षणों के समूह से तथा असाधारण गुणों के पुंज से वह लोक में शची के समान शोभती थी ॥३१-३८॥ वह गुणरूप रत्नों की खानि थी, समस्त सम्पदाओं की निधान थी और श्रुतदेवी के समान अनेक शास्त्र-समुद्र की पारंगत थी। वह अपने भर्तार को प्राणों से भी अधिक प्यारी थी और इन्द्र के इन्द्राणी के समय परम प्रेम की भूमिका थी ॥39-40॥ महापुण्य के परिपाक से महान् उदय को प्राप्त वे दम्पती राजा-रानी महान् भोगोपभोग को भोगते हुए आनन्द से रहते थे ॥41॥ अथानन्तर सौधर्मस्वर्ग के इन्द्र ने उक्त अच्युतेन्द्र की छह मास प्रमाण शेष आयु को जानकर कुबेर के प्रति इस प्रकार कहा - हे धनद, इस भरतक्षेत्र में सिद्धार्थ राजा के राजमन्दिर में अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमान स्वामी अवतार लेंगे, अतः तुम जा करके उनके भवन में रत्नों की वर्षा करो, तथा पुण्य-प्राप्ति के लिए स्व-पर को सुख करनेवाले शेष आश्चर्यों को भी करो ॥42-44॥ वह यक्षेश अमरेन्द्र के इस आदेश को शिरोधार्य कर द्विगुण हर्षित होता हुआ महीतल पर आया ॥45॥ तत्पश्चात् उस यक्षेश ने सिद्धार्थ राजा के भवन में प्रतिदिन मणिसुवर्ण बरसाते हुए हर्ष से रत्नवृष्टि आरम्भ कर दी ॥46॥ ऐरावत हाथी की सूंड़ के समान आकारवाली नाना रत्नमयी वह धारा आकाश से गिरती हुई ऐसी शोभती थी, मानो पुण्यरूपी कल्पवृक्ष से लक्ष्मी ही आ रही हो ॥47॥ गगनांगण से गिरती हुई वह देदीप्यमान हिरण्यमयी वृष्टि इस प्रकार शोभा दे रही थी, मानो त्रिजगद्-गुरु के माता-पिता को सेवा करने के लिए ज्योतिर्मय नक्षत्रमाला ही आ रही हो ॥48॥ गर्भाधान से पूर्व छह मास तक सिद्धार्थ नरेश के मन्दिर में कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए पुष्पों के और सुगन्धित जलवर्षा के साथ, तथा बहुमूल्यवाले मणियों और सुवर्णों के द्वारा श्री जिनेश्वरदेव की विभूति से सेवा करने के लिए प्रतिदिन महारत्नवृष्टि करने लगा ॥49-50॥ उस समय कान्तिमान माणिक्य और सुवर्ण की राशियों से परिपूर्ण राजमन्दिर मणियों की रमणीक किरण-समूह से प्रकाशमान ग्रहचक्र के समान शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥51॥ उस समय कितने ही विचक्षण पुरुष उत्तम मणि-सुवर्णादि से व्याप्त राजभवन और आँगन को देखकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे ॥52॥ अहो, त्रिजगद्-गुरु के इस असीम माहात्म्य को देखो कि यक्षराज ने इस राजा का मन्दिर रत्नों से पूर दिया है ॥53॥ उनकी यह बात सुनकर दूसरे लोग बोले - अहो, यह कोई अद्भुत बात नहीं है, क्योंकि तीर्थंकर के माता-पिता की सेवा को देव भक्ति से करते हैं ॥54॥ उनकी यह बात सनकर अन्य पुरुष इस प्रकार बोले - अहो, यह सब धर्म का प्रकृष्ट फल है जो होनेवाले तीर्थंकर पुत्र के सम्बन्ध से यह भारी रत्नवर्षा हो रही है ॥55॥ क्योंकि धर्म के प्रभाव से तीन लोक-द्वारा पूजित तीर्थंकर पद की कल्याणरूप सम्पदावाले पुत्र उत्पन्न होते हैं और दुःख से प्राप्त होनेवाली वस्तुएँ भी सुख से अनायास प्राप्त हो जाती हैं ॥56॥ तब दूसरे लोग इस प्रकार बोले - अहो, यह वचन सत्य है, क्योंकि धर्म के बिना पुत्र आदि अभीष्ट सम्पदाएँ नहीं प्राप्त होती हैं ॥57॥ इसलिए सुख के इच्छुक मनुष्यों को नित्य ही प्रयत्न पूर्वक धर्म करना चाहिए। वह अहिंसा लक्षण धर्भ निर्मल अणुव्रत और महावत के भेद से दो प्रकार का है ॥58॥ इसके पश्चात् किसी दिन वह स्वस्थ महादेवी प्रियकारिणी राजमन्दिर के भीतर कोमल शय्या पर रात्रि के अन्तिम शुभ प्रहर में अति सुख से सो रही थी, तब उसने पुण्य-परिपाक से जगत् के हित करनेवाले, और तीर्थंकर के सर्व अभ्युदय के सूचक ये वक्ष्यमाण सोलह स्वप्न देखे ॥59-60॥ उसने आदि में तीन स्थानों से मद झरते हुए श्वेत मदोन्मत्त गजेन्द्र को देखा। तत्पश्चात् गम्भीरध्वनि करनेवाले दीप्तियुक्त चन्द्र समान उज्ज्वल वृषभराज को देखा ॥61॥ तदनन्तर कान्तियुक्त, लाल कन्धेवाला विशाल देह का धारक मृगराज को देखा । पुनः कमलासन पर बैठी हुई लक्ष्मी को देव हस्तियों के द्वारा सुवर्णकलशों से स्नान कराते हुए देखा ॥62॥ पुनः उसने दिव्य सुगन्धि से उन्मत्त भौंरों को आकृष्ट करनेवाली दो मालाएँ देखीं। पुनः अन्धकार को नाश करनेवाला, ताराओं के साथ सम्पूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा देखा ॥63॥ पुनः अन्धकार को सर्वथा नाश करनेवाला ऐसा उदयाचल से उदित होता हुआ सूर्य देखा । इसके पश्चात् कमलों से ढंके हुए मुखवाले दो सुवर्णमयी कलश देखे ॥64॥ तदनन्तर कुमुदों और कमलों के संचयवाले सरोवर में क्रीड़ा करती दो मछलियाँ देखीं। पुनः जिसमें कमल-पराग तैर रहा है ऐसा जल-पूर्ण दिव्य सरोवर देखा ॥65॥ पुनः उसने गन्भीर ध्वनि करता हुआ उमड़ता समुद्र देखा। पुनः स्फुरायमान मणिमय उत्तुंग दिव्य सिंहासन देखा ॥66॥ पुनः हर्षित होती हुई रानी ने बहुमूल्य रत्नों से प्रकाशमान देवविमान देखा। पुनः भूमि को भेदकर निकलता हुआ देदीप्यमान धरणेन्द्र का विमान देखा ॥67॥ अपनी किरणों से आकाश को प्रकाशित करनेवाली रत्नराशि देखी। सबसे अन्त में उस जिनमाता ने प्रदीप्त निर्धूम अग्नि देखी ॥68॥ इन स्वप्नों के अन्त में प्रमोद संयुक्त माता ने पुत्र के आगमन का सूचक, उन्नत गजराज को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा ॥69॥ तत्पश्चात् प्रातःकालीन बाजों की अद्भुत ध्वनि चारों ओर फैल गयी और उस माता को जगाने के लिए सुन्दर कण्ठवाले तथा अस्खलित वाणीवाले वन्दीजन उत्तम मंगल गीत आदि को गाते हुए इस प्रकार स्तुति करने लगे - हे देवि, जगने का समय तेरे सम्मुख आकर उपस्थित हुआ है, अतः शय्या को छोड़ो और अपने योग्य शुभ कार्यों को करो जिससे कि तुम जगत् में सारभूत सब कल्याणों को पाओगी ॥70-72॥ प्रभातकाल में समता-सहित चित्तवाले कितने ही श्रावक सामायिक को करते हैं, जो कि कर्मरूपी वन को जलाने के लिए अग्नि के समान है ॥73॥ कितने ही मनुष्य शय्या से उठकर सर्व-विघ्न-विनाशक, लक्ष्मी और सुख के भण्डार पंचपरमेष्ठियों के नमस्कार-मन्त्र का जाप करते हैं ॥७४॥ कितने ही तत्त्वों के ज्ञाता महाबुद्धिमान् लोग मन को रोककर कर्म का नाशक और सुख का सागर धर्मध्यान करते हैं ॥75॥ कितने ही धीर पुरुष मुक्ति प्राप्ति के लिए शरीर का त्याग कर कर्म-नाशक एवं स्वर्ग-मोक्ष सुख का साधक कायोत्सर्ग करते हैं ॥76॥ इत्यादि शुभ कार्यों के द्वारा चतुर लोग अब इस प्रभातकाल में अपने हित के लिए धर्मध्यान के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं ॥77॥ जिस प्रकार जिन देवरूपी सूर्य के उदय होने पर कुमतिरूपी खद्योत (जुगनूँ) प्रभा-हीन हो जाते हैं, उसी प्रकार इस समय सूर्य के उदय होने पर ये चन्द्रमा और तारागण प्रभा-हीन हो रहे हैं ॥78॥ जिस प्रकार अर्हन्तरूपी भानु के उदय होने पर कुलिंगीरूपी चोरों का समूह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस समय सूर्य के उदय होने पर चोर भयभीत होकर विनष्ट हो रहे हैं ॥72॥ जिस प्रकार जिनेन्द्ररूपी सूर्य अपनी दिव्यध्वनि रूपी किरणों से अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करता है, उसी प्रकार यह सूर्य भी अपनी किरणों के द्वारा रात्रि के अन्धकार का नाश कर रहा है ॥80॥ जिस प्रकार तीर्थंकर भगवान् अपने शुद्ध वचन-किरणों के द्वारा सन्मार्ग और जीवादि पदार्थों को प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार यह सूर्य भी अपनी किरणों से सांसारिक पदार्थों को प्रकाशित कर रहा है ॥81॥ जिस प्रकार अर्हन्तदेव के वचन-किरणों के समूह से भव्य जीवों के हृदय-कमल विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य की किरणों से ये कमल भी विकसित हो रहे हैं ॥82॥ जिस प्रकार अर्हन्तदेव के दिव्य वचन-किरणों से पापियों के हृदय-कुमुद म्लान हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य की किरण-समूह से कुमुद म्लान हो रहे हैं ॥83॥ हे देवि, अब यह सर्व सुख-कारक प्रातःकाल हो रहा है, जो कि सर्व अभ्युदय के साधक धर्मध्यान के योग्य है ॥84॥ अतः हे पुण्यशालिनि, शीघ्र शय्या को छोड़कर सामायिक, जिनस्तव आदि के द्वारा पुण्य कार्य करो और शत कल्याणभागिनी होवो ॥85॥ इस प्रकार उन बन्दीजनों के सारभूत, कानों को सुखदायी, मंगल गीतों के द्वारा बजते हुए बाजों के साथ वह रानी जाग गयी ॥8॥ तब स्वप्नों के देखने से उत्पन्न हुए आनन्द से जिसका हृदय परिपूर्ण है, ऐसी उस देवी ने शय्या से उठकर पुण्यवर्धिनी और सर्वमंगलकारिणी नित्य क्रियाओं को एकाग्रचित्त से मुक्ति के लिए सामायिक, जिनस्तुति आदि के साथ किया ॥87-88॥ तत्पश्चात् स्नान करके और वस्त्राभूषण धारण करके वह कितने ही स्वजनों के साथ राजा की सभा में गयी ॥89॥ राजा ने अपनी प्रिया को आती हुई देखकर स्नेह के साथ मधुर वचन बोलकर हर्ष से उसे अपना आधा आसन दिया ॥90॥ तब सिंहासन पर सुख से बैठकर इस रानी ने अपने मुख पर प्रमोद धारणकर मनोहर वाणी द्वारा अपने स्वामी से इस प्रकार निवेदन किया ॥21॥ हे देव, आज रात्रि के अन्तिम पहर में सुख से सोते हुए मैंने अद्भुत पुण्य के कारण ये सोलह स्वप्न देखे हैं ॥92॥ ऐसा कहकर उसने हाथी को आदि लेकर अग्नि पर्यन्त महा आश्चर्य करनेवाले उन उत्तम स्वप्नों को निवेदन किया और बोली - हे नाथ, इन स्वप्नों का भिन्न-भिन्न फल मुझे बताइए ॥93॥ रानी का यह कथन सुनकर तीन ज्ञान के धारक सिद्धार्थ ने कहा - हे सुन्दरि, तुम एकाग्रचित्त से सुनो, मैं इनका उत्तम फल कहता हूँ ॥94॥ हे उत्तम प्रिये, हाथी के देखने से तेरे तीर्थनाथ पुत्र होगा। बैल के देखने से वह जगत् में श्रेष्ठ और महान् धर्मरूप रथ का प्रवर्तक होगा ॥95॥ सिंह के देखने से वह कर्मरूपी गज-समुदाय का घातक अनन्त वीर्यशाली होगा। लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु की शिखरपर देवेन्द्रों द्वारा जन्माभिषेक को प्राप्त होगा ॥96॥ मालाओं के देखने से वह सुगन्धित देहवाला और सद्धर्मज्ञानरूप तीर्थ का प्रवर्तक होगा। पूर्णचन्द्र के देखने से वह श्रेष्ठ धर्मरूप अमृत का बरसानेवाला और ज्ञानियों को आनन्द करनेवाला होगा ॥97॥ सूर्य के देखने से अज्ञानरूपी अन्धकार का नाशक भास्वर कान्ति का धारक होगा। कलश-युगल के देखने से वह अनेक निधियों का स्वामी और ज्ञान-ध्यानरूपी अमृत से परिपूर्ण घटवाला होगा ॥98॥ मत्स्य-युगल के देखने से वह सर्व सुखों का करनेवाला, महासुखी होगा। सरोवर के देखने से वह दिव्य लक्षणों और व्यंजनों से शोभित शरीरवाला होगा ॥99॥ समुद्र के देखने से वह केवलज्ञानी और नव-केवललब्धियों वाला होगा। सिंहासन के देखने से वह साम्राज्य पद के योग्य जगद्-गुरु होगा ॥100॥ स्वर्गविमान के देखने से वह स्वर्ग से अवतरित होगा। नागेन्द्र-भवन के देखने से वह अवधिज्ञानरूप नेत्र का धारक होगा ॥101॥ रत्नराशि के देखने से वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों का भण्डार होगा। और अग्नि के देखने से वह कर्मरूप काष्ठ को भस्म करेगा ॥102॥ मुख में प्रवेश करते हुए गजेन्द्र के देखने से आपके निर्मल गर्भ में अन्तिम तीर्थकर गजेन्द्र के आकार को धारण करके अवतरित होगा ॥103॥ इस प्रकार इन स्वप्नों का उत्तम फल सुनने से वह सती रोमांचित शरीर होती हुई पुत्र को प्राप्त हुए के समान अत्यन्त सन्तुष्ट हुई ॥104॥ इसी समय सौधर्म सुरेन्द्र के आदेश से पद्म आदि सरोवरों में रहनेवाली श्री आदि छहों देवियाँ वहाँ आयीं ॥105॥ उन्होंने स्वर्ग से लाये हुए दिव्य पवित्र द्रव्यों से पुण्य प्राप्ति के निमित्त तीर्थंकर की उत्पत्ति के लिए उस प्रियकारिणी के गर्भ का शोधन किया ॥106॥ पुनः समीप में रहकर और उसकी सेवा में तत्पर होकर उन सभी देवियों ने जिन माता में ये अपने-अपने गुण स्थापित किये ॥107॥ माता के शरीर में श्री देवी ने अपनी शोभा को, ह्री देवी ने अपनी लज्जा को, धृति देवी ने महान् धैर्य को, कीर्तिदेवी ने स्तुति को, बुद्धिदेवी ने बोधि को और लक्ष्मी देवी ने अपने वैभव को धारण किया ॥108॥ वह देवी स्वभाव से ही निर्मल थी; पुनः उन देवियों के द्वारा विशुद्ध किये जाने पर स्वच्छ स्फटिकमणि निर्मित शरीर के समान अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुई ॥109॥ उसी समय आषाढ़मास के शुक्लपक्ष के पवित्र षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शुभ लग्नादिक होने पर वह धर्मात्मा देवेन्द्र धर्मध्यान के साथ अच्युत स्वर्ग से च्युत होकर पुण्योदय से प्रियकारिणी के पवित्र गर्भ में अवतरित हुआ ॥110-111॥ उसके गर्भधारण के माहात्म्य से स्वर्गलोक में घण्टाओं का भारी शब्द हुआ और इन्द्रों के आसन कम्पित हुए ॥112॥ ज्योतिष्क देवों के स्थानों में स्वयमेव ही सिंहनाद हुआ । भवनवासियों के भवनों में शंखध्वनि होने लगी ॥113॥ व्यन्तरों के घरों में अति गम्भीर भेरियों का शब्द हुआ। उस समय सर्व ही स्थानों में इसी प्रकार के अनेक आश्चर्य हुए ॥114॥ इत्यादि नाना प्रकार के आश्चर्यों को देखने से चतुर्णिकाय के देवों ने श्री तीर्थंकर देव के गर्भावतार को जाना ॥115॥ तब वे सभी देवेन्द्र अपनी-अपनी विभूति के साथ अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ हो उत्तम धर्म के करने में उद्यत हुए अपने शरीर के आभूषणों के तेज से दशों दिशाओं को उद्योतित करते, ध्वजा, छत्र, विमानादि से गगनाङ्गण को आच्छादित करते और जय-जय नाद करते और बाजों को बजाते हुए अपनी स्त्रियों और अपने देव-परिवार के साथ भगवान् के गर्भकल्याण की सिद्धि के लिए उस उत्तम कुण्डपुर नगर आये ॥116-118॥ उस समय अनेक विमानों से, अप्सराओं से और देव-सैनिकों से वह कुण्डपुर सर्व ओर से व्याप्त होकर अमरपुर के समान शोभित होने लगा ॥119॥ इन्द्रों ने तीर्थंकर भगवान के माता-पिता को भक्ति से सिंहासन पर बैठाकर चमकते हुए सुवर्ण कलशों द्वारा परम उत्सव के साथ अभिषेक करके, दिव्य वस्त्र, आभूषण और मालाओं से सर्व देवों के साथ पूजा करके उन्होंने गर्भ के भीतर विराजमान जिनदेव का स्मरण कर और तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया ॥120-121॥ इस प्रकार गर्भकल्याणक करके और जगद्-गुरु की माता की सेवा में अनेक दिक्कुमारियों को नियुक्त करके तथा परम पुण्य उपार्जन करके वह आदि कल्प का स्वामी सौधर्मेन्द्र उत्तम चेष्टावाले देवों के साथ हर्षित होता हुआ देवलोक को चला गया ॥122-123॥ इस प्रकार उत्तम आचरण किये गये धर्म के प्रभाव से मनुष्य और स्वर्गलोक में अनुपम सारभूत सुखों को भोगकर तीर्थंकर देव ने अवतार लिया। ऐसा समझकर सुख के इच्छुक जन शिवगति के सुखों की सिद्धि के लिए जिन-भाषित निर्मल चारित्र धर्म का आश्रय लेवें ॥124॥ धर्म अधर्म का हर्ता है और सुधर्म का जनक है, अतः सुधर्म के जानकार उस धर्म का आश्रय लेते हैं। धर्म के द्वारा ही निश्चय से जिन पद प्राप्त होता है, अतः मुक्ति प्राप्ति के अर्थ धर्म के लिए नमस्कार है। जगत् में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सुखकारी नहीं हैं, धर्म का कारण चारित्र-आचरण है, अतः धर्म में स्थिति करनेवाले मुझे हे धर्म, तुम कर्मों से मुक्त करो ॥१२५॥ वीर भगवान् वीरों में ज्ञानियों के अग्रणी हैं, अतः पण्डित लोग शत्रुओं के जीतनेवाले वीर भगवान् का आश्रय लेते हैं, वीर के द्वारा ही सन्तपुरुषों का शत्रु-समूह विघटित होता है, अतः सिद्धि-प्राप्ति के अर्थ वीर प्रभु के लिए नमस्कार है। इस लोक में वीर से अतिरिक्त और कोई सुभट शत्रुओं का नाश करने में समर्थ नहीं है, वीर प्रभु के गुण नित्य हैं, मैं वीर भगवान् में अपने अति वीर मन को धारण करता हूँ, हे वीर भगवन् , मुझे वीर बनाओ ॥१२६॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित श्री-वीरवर्धमान चरित में भगवान् के गर्भावतार का वर्णन करनेवाला सप्तम अधिकार समाप्त हुआ ॥7॥ |