कथा :
अथानन्तर जिनेन्द्रदेव के जन्म महोत्सव को देखने के इच्छुक धमोद्यत वे सर्वदेव उस पाण्डुक शिला को सर्व ओर से घेरकर यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये ॥11॥ भगवान् के जन्मकल्याणक की सम्पदा को देखने के इच्छावाले दिग्पाल अपने-अपने निकायों (जाति-परिवारों) के साथ अपने-अपने दिग्भाग में हर्षपूर्वक बैठे ॥2॥ वहाँ पर देवों ने एक विशाल मण्डप बनाया, जहाँ पर समस्त देवगण परस् पर बिना किसी बाधा के सुखपूर्वक बैठे ॥3॥ उस मण्डप में कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए फूलों की मालाएँ लटकायी गयीं, उन पर गुंजार करते हुए भौरे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानो जिनेन्द्रदेव के गुण ही गा रहे हों ॥4॥ वहाँ पर सुन्दर कण्ठवाले किन्नर और किन्नरियों ने जिनदेव के जन्मकल्याणक-सम्बन्धी गुणों के द्वारा दिव्य गीत गाना प्रारम्भ किया ॥5॥ देव-नर्तकियों ने अनेक रस-भाव से युक्त नृत्य करना प्रारम्भ किया। देवों के नाना प्रकार के बाजे बज ने लगे, शान्ति-पुष्टि आदि की इच्छा से देवा ने अनेक प्रकार के पुष्प, अक्षत-मुक्ता आदि फेंकना प्रारम्भ किया, सुगन्धित धूप-पुंज उड़ाया गया और देवों ने जय, नन्द' आदि शब्दों को उचारण करते हुए कलकल नाइ किया। 6-7॥ तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्र ने प्रस्तावना विधि करके भगवान के प्रथमाभिषेक के लिए कलशों का उद्धार किया ॥8॥ कलशोद्वार के मन्त्र को जाननेवाले ईशानेन्द्र ने भी आनन्द के साथ मोती, माला और चन्दन से चर्चित जल से भरे हुए कलश को हाथ में लिया ॥2॥ उस समय शेष सभी कल्पों के इन्द्र आनन्दपूर्वक जय-जय शब्द उच्चारण करते हुए यथायोग्य परिचर्या के द्वारा परिचारकप ने को प्राप्त हुए ।॥10॥ धर्मराग के रस से परिपूर्ण इन्द्राणी आदि देवियाँ मंगल द्रव्यों से मण्डित होकर परिचारिकाएँ बनकर परिचर्या करने लगीं ॥11॥ 'स्वयम्भू भगवान् का देह स्वभाव से ही क्षीर रक्त वर्णवाला होने से पवित्र है' अतः इ से क्षीरसागर के जल से अतिरिक्त अन्य जल स्पर्श करने के लिए योग्य नहीं है। ऐसा निश्चय करके देवों की श्रेणी (पंक्ति ) क्षीरसागर और सुमेरुपर्वत के बीच में जल ला ने के लिए हर्ष के साथ खड़ी हो गयी ॥12-13॥ जिन कलशों से जल लाया जा रहा था वे चमकते हुए स्वर्ण निर्मित थे, मोतियों की माला आदि से अलंकृत थे, आठ योजन ऊँचे ( मध्य में चार योजन चौड़े ) और मुख में एक योजन विस्तृत थे ॥14॥ उन एक हजार कलशों को लेकर जिनेश्वर का अभिषेक करने के लिए सौधर्मेन्द्र ने दिव्य आभूषणों से मण्डित अपनी एक हजार भुजाएँ बनायीं ॥15॥ उस समय वह आभूषणवाले तथा हजार कलशों से युक्त हाथों के द्वारा अपने तेज से भाजनाङ्ग जाति के कल्पवृक्ष के समान शोभित हुआ ॥16॥ सौधर्मेन्द्र ने तीन बार जय-जय शब्द को बोलकर भगवान के मस्तक पर पहली महान जलधारा छोड़ी ॥17॥ उस समय भारी कल-कल शब्द हुआ, असंख्य देवों ने 'भगवान , आप की जय हो, आप पवित्र हो' इत्यादि प्रकार के मनोहर वाक्य उच्चारण किये ॥18। इसी प्रकार शेष सर्व देवेन्द्रों ने भी एक साथ उन महाकुम्भों के द्वारा स्वर्गङ्गा के पूर के सदृश जल धारा छोड़ी ॥19॥ ऐसी विशाल जलधाराएँ जिस पर्वत के शिखर पर छोड़ी जावें तो उसके प्रहार से वह पर्वत तत्काल नियम से शत खण्ड हो जाय ॥20॥ किन्तु अप्रमाण महावीर्यशाली श्री जिनेश्वर देव ने अपने मस्तक पर गिरती हुई उन जलधाराओं को फूलों के समान समझा ॥21॥ उस समय अति दूर तक ऊपर उछलते हुए जल के छींटे ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो जिनेन्द्र के शरीर के स्पर्शमात्र से पाप-मुक्त होकर ऊपर को जा रहे हैं ॥22॥ प्रभु के स्नान जल के कितने ही तिरछे फैलते हुए कण दिग्वधुओं के मुखमण्डन में मुक्ताफलों की कान्ति को विस्तार रहे थे ॥23॥ अभिषेक का जल-पूर सुमेरु के वनमध्यभाग में नाना प्रकार के आकारवाला होकर गिरीन्द्र ( सुमेरु ) को आप्लावित करता हुआ सा शोभित हो रहा था ॥24॥ भगवान के अभिषेक किये हुए जल से व्याप्त होने के कारण डूबे हुए वृक्षोंवाला वह पाण्डुकवन निरन्तर जलवृष्टि से दूसरे क्षीरसागर के समान शोभित हो रहा था ॥25॥ इत्यादि अनेक प्रकार के दिव्य परम सैकड़ों महोत्सवोंसे, दीप-धूपादि से की गयी पूजाओंसे, कोटि-कोटि गीत नृत्य और बाजों के द्वारा उत्कृष्ट सामग्री के साथ उन स्वर्ग के स्वामी इन्द्रों ने अपने आत्म-कल्याण के लिए भगवान् का शुद्ध जल से अभिषेक किया ॥26-28॥ पुनः सौधर्मेन्द्र ने गन्धोदक की वन्दना के लिए परम विभूति और महान उत्सवों के साथ सुगन्धी द्रव्यों के सम्मिश्रण से सुगन्धित जल से भरे हुए, मणि और सुवर्ण से निर्मित गन्धोदकवाले महाकुम्भों से भी तीर्थकर देव का अभिषेक किया ॥29-30॥ जगद्गुरु के शरीर पर गिरती हुई वह अनेक वर्णवाली जलधारा उनके शरीर के स्पर्शमात्र से अत्यन्त पवित्र हुई के समान शोभा को धारण कर रही थी ॥31॥ जगत् के जीवों की सर्व आशाओं को पूर्ण करनेवाली, पुण्यविधायिनी पुण्यधारा के समान वह जलधारा हमलोगों को शिवलक्ष्मी देवे ॥32॥ जलधारा पुण्यात्रवधारा के समान सर्व मनोरथों को पूर्ण करती है, वह हमारे भी समस्त अभीष्ट सम्पदा की सिद्धि करे ॥33॥ जो तीक्ष्ण खड्गधारा के समान सज्जनों के विध्न जाल का नाश करती है, वह जलधारा हमारे शिव-साधन में आनेवाले विघ्नों का नाश करे ॥34॥ जो जलधारा अमृतधारा के समान जीवों की समस्त वेदनाओं को नष्ट करती है, वह हमारे मोक्षमार्ग में मल उत्पन्न करनेवाली वेदना का नाश करे ॥35॥ जो जलधारा श्रीमान वीरनाथ को प्राप्त होकर अति पवित्रता को प्राप्त हुई है, वह हमारे मन के दुष्कर्मों से हमें पवित्र करे ॥36॥ इस प्रकार उन देवेन्द्रों ने प्रभु का सुगन्धित जल से अभिषेक करके सज्जनों के विघ्नों की शान्ति के लिए उच्चस्वर से शान्ति की घोषणा की, अर्थात् शान्ति पाठ पढ़ा ॥37॥ उन देवों ने अपनी शरीर की शुद्धि के लिए स्वर्ग की भेंट समझकर हर्ष के साथ उस उत्तम गन्धोदक को अपने मस्तक पर और सर्वांग में लगाया ॥38॥ सुगन्धित जल से अभिषेक होने के अन्त में जयजय आदि शब्दों को उच्चारण करते हुए उन देवों ने हर्ष के साथ उस चूर्ण-युक्त सुगन्धित जल से परस् पर सिंचन किया अर्थात् आपस में उस सुगन्धित जल के छींटे डाले ॥39॥ इस प्रकार अभिषेक के समाप्त होने पर शरीरमज्जनरूप सक्रिया करके उन देवेन्द्रों ने देवों और मनुष्यों से पूजित प्रभु की महाभक्ति के साथ, जिन की सुगन्ध सर्व ओर फैल रही है ऐसे दिव्य सुगन्ध द्रव्योंसे, मुक्ताफलमयी अक्षतोंसे, कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए पुष्पों की माला आदिसे, अमृतपिण्डमय नैवेद्य पुंजसे, मणिमय दीपोंसे, महान् धूपसे, कल्पवृक्षों के फल-समूहसे, मन्त्रों से पवित्रित हायों से और पुष्पांजलियों की वर्षा से पजा की ॥40-42॥ इस प्रकार अनिष्टों का विनाश करनेवाली पूजाओं को करके, तथा शान्ति-पौष्टिकादि कार्यों को करके उन देवेन्द्रों ने जन्माभिषेक को सम्पन्न किया ॥43॥ पुनः अपनी-अपनी इन्द्राणियों के साथ इन्द्रोंने, तथा अपनी देवियों के साथ सब देवों ने अत्यन्त प्रमुदित होते हुए तीन प्रदक्षिणाएँ देकर जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया ॥44॥ उस समय देवों ने गन्धोदक के साथ पुष्पों की वर्षा की, और मन्द शीतल पवन चलने लगा ॥45॥ जिस के जन्माभिषेक का स्नानपीठ समेकपर्वत हो. इन्द्र अभिषेक करनेवालाहो. क्षीरसागर के जल से भरे हए उत्तम कलश हों. सर्वदेवियाँ नृत्यकारिणी हों, क्षीरसागर द्रोणी ( जलपात्र ) हो और देव किंकर हों, उसका वर्णन करने के लिए कौन दक्ष पुरुष समर्थ है ? कोई भी नहीं ॥46-47॥ अभिषेक का कार्य समाप्त होने पर आश्चर्य को प्राप्त इन्द्राणी ने त्रिजगद्-गुरु का शृङ्गार करना प्रारम्भ किया ॥48॥ सर्वप्रथम उस ने भगवान के जलाभिपिक्त शरीर के शिर, नेत्र और मुख आदि पर लगे हुए जलकणों को निर्मल वस्त्र से पोंछा ॥49॥ तत्पश्चात् स्वभाव से ही दिव्य सुगन्ध से युक्त भगवान के उत्तम शरीर पर भक्ति के द्वारा गीले सुगन्धित द्रव्यों का लेप किया ॥50॥ पुनः तीन जगत् के तिलक स्वरूप प्रभु के अनुपम ललाट पर केवल भक्ति के राग से प्रेरित होकर देदीप्यमान तिलक किया ॥51॥ पुनः जगत के चूड़ामणि प्रभु के मस्तक पर मन्दार पुष्पों की माला और मुचुट के साथ परम प्रदीप्त चूडामणि रत्न वाँधा ॥52॥ तत्पश्चात् विश्व के नेत्ररूप प्रभु के स्वभाव से ही अति कृष्ण नेत्रों में अञ्जन-संस्कार किया, यह उस ने अपने आचार पालन के लिए किया ॥53॥ पुनः त्रिजगत्पति के अबिद्ध छिद्र वाले दोनों कानों में प्रकाशमान रत्न जटित कुण्डलों को पहिना कर परम शोभा की ॥54॥ तत्पश्चात् उस इन्द्राणी ने प्रभु के कण्ठ को मणिहारसे, बाहु-युगल को केयूर, कटक और अंगद आभूपों से तथा अंगुलियों को मुद्रिकाओं से शोभित किया ॥55॥ तदनन्तर उस ने प्रभु की कमर में छोटी-छोटी घण्टियों से विराजित अपने प्रकाश से दिशाओं के मुख को व्याप्त करने के लिए देदीप्यमान मणिमयी कांचीदाम (करधनी ) पहनायी ॥56॥ पुनः प्रभु के दोनों चरणों में मणिमयी गोमुखवाले प्रकाशमान कड़े पहिनाये, जो कि ऐसे प्रतीत होते थे मानो सरस्वती देवी आदर से उनके चरणों की सेवा ही कर रही हो ॥57॥ इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा पहिनाये गये असाधारण दिव्य परम आभूषणों से तथा स्वभाव-जनित कान्ति, तेज, लक्षण और गुणों से युक्त वे भगवान् ऐसे शोभित हुए, मानो लक्ष्मी के पुंज ही हों, अथवा तेजों के निधान हों, अथवा सौन्दर्य के समूह हों, अथवा सद्-गुणों के सागर ही हों, अथवा भाग्यों के निवास हों, अथवा यशों की उज्ज्वल राशि हों। इस प्रकार स्वभाव से ही सुन्दर और निर्मल प्रभु का शरीर उक्त आभूषणों से और भी अधिक शोभायमान हो गया ॥58-60॥ इस प्रकार आभषणों से भषित और इन्द्र की गोद में विराजमान उन भगवान की रूपसम्पदा को देखती हुई ची स्वयं ही आश्चर्य को प्राप्त हुई ॥61॥ उस समय सर्वांगशोभित प्रभु की परम अनुपम शोभा को दो नेत्रों से देखने पर तृप्त नहीं होते हुए आश्चर्य युक्त हृदयवाले इन्द्र ने और भी अधिक दृढ़ता से देखने के लिए निमेष रहित एक हजार नेत्र बनाये ॥62-63॥ उस समय सभी देवों और देवियों ने प्रभु के शरीर की भारी रूप सम्पदा को परम प्रीति के साथ निर्निमेप दिव्य नेत्रों से देखा ॥64॥ तदनन्तर परम प्रमोद को प्राप्त हुए वे महाबुद्धिशाली इन्द्रगण तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य से उत्पन्न हुए गुणों के द्वारा इस प्रकार स्तुति करने के लिए उद्यत हुए ॥65॥ हे देव, आप स्नान के विना ही जन्मजात परम अतिशयों के द्वारा पवित्र शरीरवाले हैं, आज केवल अपने पापों के नाश करने के लिए हम ने भक्ति से आपको स्नान कराया है ॥66॥ हे तीन लोक के आभूपण स्वरूप भगवन् , आप स्वभाव से ही विना आभूपणों के अति सुन्दर हो, हम ने तो केवल सुख की प्राप्ति के लिए प्रीति से आपको आभषणों से मण्डित किया है ॥67॥ हे प्रभो. आप के महाग गणों की राशि सर्वविश्व को पूर करके आज इन्द्रों के हृदय में भी संचार कर रही है ॥68॥ हे देव, कल्याण के इच्छुक लोग आप से कल्याण को प्राप्त होंगे और मोहीजन आप की वाणी से अपने मोहशत्रु का नाश करेंगे ॥69॥ रत्नत्रय धन के धारण करनेवाले भव्य जीव आप के द्वारा उपदिष्ट महातीर्थरूप जहाज से इस अनन्त संसार सागर के पार उतरंगे ॥70॥ हे नाथ, आप की वचन किरणों से भव्यात्माओं का मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार शीघ्र विनाश को प्राप्त होगा, इस में कोई संशय नहीं है ॥71॥ हे ईश, मोक्ष प्राप्त करनेवाले अमूल्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि रूप रत्न देने के लिए आप से प्रकट हुए हैं, इसलिए आप सज्जनों के महान् दाता हो ॥72॥ हे स्वामिन, आप यहाँ पर केवल अपनी मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही नहीं उत्पन्न हुए हैं, किन्तु ज्ञानियों को भी मार्ग दिखाकर उन की स्वर्ग और मुक्ति की सिद्धि के लिए उत्पन्न हुए हैं ॥73॥ हे महाभाग, मुक्तिरामा आप में आसक्त हो रही है और तीन जगत् के भव्य जीव भी आप के गुणों से अनुरंजित हृदयवाले होकर आप से परम स्नेह रखते हैं ॥74॥ अहो भगवन् , ज्ञानी लोग आपको मोहमल्ल का विजेता, शरणार्थियों को मोहान्धकूप में गिर ने से बचानेवाला रक्षक, कमशत्रुओ का नाशक, भव्य सार्थवाहो को शाश्वत मुक्तिमाग में ले जानेवाला नेता और धमतीर्थ का कर्ता तीर्थकर मानते हैं ॥75-76॥ हे नाथ, आज आप के जन्माभिषेक से हम लोग पवित्र हुए हैं, और आप के गुणों का स्मरण करने से हमारा मन निर्मल हुआ है । आप की शुभ स्तुति करने से हमारे वचन सफल हुए हैं और हे गुणसागर, आप की सेवा से सब अंगों के साथ हमारा शरीर पवित्र हुआ है ॥77-78॥ हे ईश, शुद्ध खानि से उत्पन्न हुआ मणि जैसे संस्कार के योग से और भी अधिक चमक ने लगता है, उसी प्रकार स्नान आदि के संस्कार को प्राप्त होकर आप और भी अधिक शोभायमान हो रहे है ॥79॥ हे नाथ, आप तीन जगत के स्वामियों के स्वामी हैं, संसार में समस्त विश्वपतियों के आप महान पति हैं, और संसार के अकारण बन्धु हैं ॥80॥ अतः हे देव, परम आनन्द के देनेवाले आप के लिए नमस्कार है, ज्ञानरूप तीन नेत्रों के धारक आप के लिए नमस्कार है, परमात्मस्वरूप आप के लिए नमस्कार है, तीर्थ के प्रवर्तन करनेवाले आपको नमस्कार है, सद्गुणों के सागर आपको नमस्कार है, प्रस्वेद मल आदि से रहित अत्यन्त दिव्यदेहवाले आपको नमस्कार है, कर्मशत्रुओं का नाश करनेवाले आपको नमस्कार है, पाँचों इन्द्रियों को और मोह को जीतनेवाले आपको नमस्कार हे, पंचकल्याणकों के भोगनेवाले आपको नमस्कार है, स्वभाव से पवित्र और भुक्ति-(स्वर्गीय सुख) मुक्ति के देनेवाले आपको नमस्कार है, महामहिमा को प्राप्त आपको नमस्कार है, अकारण बन्धु आपको नमस्कार है, मुक्तिरामा के भर्तार आपको नमस्कार है । विश्व के प्रकाश करनेवाले आपको नमस्कार है, त्रिजगत् के स्वामी आपको नमस्कार है और सज्जनों के महागुरु आपको नमस्कार है ॥81-85॥ हे देव, यहाँ पर इस प्रकार हर्ष से आप की स्तुति करके हम तीन लोक के सर्व साम्राज्य को ले ने की आशा नहीं करते हैं, किन्तु जगत् का हित करनेवाली, अपने समान ही पूर्ण सर्वसामग्री कृपाकरके हमें दीजिए, क्योंकि संसार में आप के समान और कोई दाता नहीं है ॥86-87॥ इस प्रकार से इष्ट्र प्रार्थना करके इन्दों ने लोकव्यवहार की प्रसिद्धि के लिए सार्थक और सारभत ये दो नाम रखे। कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करने हेतु ये महावीर हैं और निरन्तर बढ़नेवाले गुणों के आश्रय से ये श्रीवर्धमान हैं ॥88-89॥ इस प्रकार दो नाम रखकर दिव्यरूपधारी जिनेश्वर को ऐरावत गज के कन्धे पर विराजमान करके पूर्व के समान ही अत्यन्त महोत्सव और भारी विभूति के साथ 'जय, नन्द' आदि शब्दों को उच्चारण करते हुए वे देवेन्द्र शेष कार्यों को सम्पन्न करने के लिए वापस कुण्डपुर आये ॥90-91॥ वहाँ आकर नगर को, आकाश को और वनों को सर्व ओर से घेरकर सर्व देव-सेनाएँ और चारों जाति के देव-देवियाँ यथास्थान ठहर गये ॥92॥ तत्पश्चात् कुछ देवों के साथ उस देवराज ने देवों के देव श्रीजिनेन्द्रदेव को लेकर शोभासम्पन्न राजभवन में प्रवेश किया ॥93॥ वहाँ राजभवन के अंगण (चौक ) में सौधर्मेन्द्र ने रमणीक मणिमयी सिंहासन पर गुणकान्ति आदि से अशिशु ( शैशवावस्था से रहित ) किन्तु वय से शिशु जिनेन्द्र को विराजमान किया ॥94॥ तब बन्धुजनों के साथ हर्षित मुख सिद्धार्थ राजा ने अति प्रीति से आँखें फैलाकर अद्भुत कान्तिवाले बाल जिनदेव को देखा ॥95॥ इन्द्राणी के द्वारा जगायी गयी प्रियकारिणी रानी ने सर्व आभूषणों से भूषित समुत्पन्न तेजपुंज के समान अपने पुत्र को अति हर्ष के साथ देखा ॥96॥ उस समय जगत्पति श्रीवर्धमान स्वामी के माता-पिता इन्द्राणी के साथ सौधर्मेन्द्र को देखकर परिपूर्ण मनोरथ हो अत्यन्त सन्तोष को प्राप्त हुए ॥९७॥ तत्पश्चात् सौधर्मेन्द्र ने स्वर्गलोक में उत्पन्न नाना प्रकार के मणिमयी वस्त्राभूषणों से और दिव्य पुष्पमालाओं से उन जगत्पूज्य माता-पिता की पूजा कर देवों के साथ प्रसन्न होते हुए उन की इस प्रकार से प्रशंसा करने लगा-आप दोनों ही लोक के गुरु हैं, क्योंकि आप त्रिजगत्-पिता के माता-पिता हैं, त्रिजगत्पति के उत्पन्न करने से आप लोग ही त्रिजगन्मान्य स्वामी हैं, संसार के उपकारी तीर्थेश पुत्र के उत्पन्न करने के निमित्त से कल्याणभागी आप दोनों ही विश्व के उपकारी हैं ॥98-101॥ आज आप का यह भवन जिनमन्दिर के समान हमारे लिए आराध्य है। हमारे परमगुरु के आश्रय से आप दोनों ही हमारे लिए माननीय और पूज्य हैं ॥102॥ इस प्रकार देवों का स्वामी सौधर्मेन्द्र ने माता-पिता की स्तुति करके और उनके हाथ में भगवान को समर्पण कर मेरु पर हुई जन्माभिषेक की सुन्दर वार्ता को हर्ष के साथ कहता हुआ कुछ क्षण खड़ा रहा ॥103॥ जन्माभिषेक की सारी बात सुनकर आश्चर्य-युक्त हो वे दोनों भाग्यशाली माता-पिता अत्यन्त प्रमोद को प्राप्त हुए ॥104॥ तत्पश्चात् माता-पिता ने सौधर्मेन्द्र की अनुमति लेकर बन्धुजनों के साथ अपने पुत्र का जन्ममहोत्सव किया ॥105॥ सब से प्रथम उन्हों ने और राजाओं ने श्रीजिनालय में जाकर सर्व कल्याण की साधक श्री जिनप्रतिमाओं की महापूजा भारी विभूति के साथ की ॥106॥ उसके बाद सिद्धार्थराजा ने अपने परिजनोंको, नौकरोंको, दीन, अनाथ और बन्दीजनों को यथायोग्य अनेक प्रकार का दान दिया ॥107॥ उस समय तोरण द्वारोंसे, वन्दनवारोंसे, ऊँची ध्वजापंक्तियोंसे, गीतोंसे, नृत्योंसे, बाजों से और सैकड़ों प्रकार के महोत्सवों से वह नगर स्वर्गपुर के समान और राज-भवन स्वर्ग-धाम के समान शोभा को प्राप्त हो रहा था। सभी स्वजन और प्रजाजन अत्यन्त प्रमुदित हुए ॥108-109॥ उस जन्ममहोत्सव के द्वारा आनन्द से परिपूर्ण समस्त बन्धुजनों को और पुरवासियों को देखकर सौधर्मेन्द्र अपना प्रमोद प्रकाशित कर श्रीजगद्-गुरु की आराधना करने को अपनी देवियों के साथ धर्म अर्थ कामरूप त्रिवर्ग फल का साधक दिव्य आनन्द नाटक करने के लिए उद्यत हुआ ॥110-111॥ नृत्य के प्रारम्भ में गन्धर्व देवों ने अपने-अपने वीणादि बाजों के साथ मनोहर सद्-गीत-गान करना प्रारम्भ किया ॥112॥ उस समय श्री महावीर पुत्र को गोद में बैठाये हुए सिद्धार्थ राजा तथा अपनी-अपनी रानियों के अन्य राजा लोग और उल्लास को प्राप्त अन्य दर्शकगण उस आनन्द नाटक को देखने के लिए यथास्थान बैठ गये ॥113॥ उस सौधर्मेन्द्र ने सब से पहले नयनों को आनन्दित करनेवाला, कल्याणमयी जन्माभिषेक-सम्बन्धी दृश्य का अवतार किया। अर्थात् सुमेरु पर किये गये जन्म कल्याणक का दृश्य दिखाया ॥114॥ पुनः जिनेन्द्रदेव के पूर्वभव-सम्बन्धी अवतारों का अधिकार लेकर इन्द्र ने बहरूपक अन्य नाटक किया ॥115॥ उल्लासयक्त, दीप्ति-भार से परिपूर्णउत्कृष्ट नाटक को करता हुआ वह इन्द्र उस समय दिव्य आभूषण और मालाओं के द्वारा कल्पवृक्ष के समान शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥116॥ लय-युक्त पादविक्षेपों के द्वारा, रंगभूमि की चारों ओर से प्रदक्षिणा करता हुआ वह इन्द्र ऐसा मालूम होता था मानो इस भूतल को नाप ही रहा हो ॥117॥ पुष्पांजलि बिखेरकर ताण्डवनृत्य करते हुए इन्द्र के ऊपर उस की भक्ति करनेवाले देवों ने हर्षित होकर पुष्पों की वर्षा की ॥118॥ उस समय ताण्डव नृत्य के योग्य करोड़ों बाजे बज रहे थे, वीणाओं ने मधुर झंकार किया और सुरीली आवाजवाली अनेक बाँसुरियाँ बज रही थीं ॥119॥ किन्नरी देवियाँ श्री जिनेन्द्र देव के गुणसमूह से युक्त उत्तम कल्याण-कारक सुन्दर गीतों को गा रही थीं ॥120॥ इस प्रकार अनुक्रम से महान् पवित्र पूर्व रंग करके उस इन्द्र ने मणिमयी आभूषणों से भूषित एक हजार उत्कृष्ट भुजाएँ बनाकर, हस्तांगुलि-संचालन और अंग-विक्षेपों के द्वारा अद्भुत रस को दिखलाते हुए दिव्य ताण्डव नृत्य किया ॥121-122॥ राजादि सभी दर्शकों को सुख उत्पन्न करते हुए, अपने पापों के विनाश के लिए विक्रिया ऋद्धि से पाद, कमर, कण्ठ और हाथों से अनेक प्रकार के अंग-संचालन द्वारा सहस्र भुजावाले उस सौधर्मेन्द्र के नृत्य करते समय उसके पाद विन्यासों से पृथ्वी फूटती हुई-सी चलायमान प्रतीत हो रही थी ॥123-124॥ चंचल वस्त्र और आभूषणवाला वह इन्द्र किये गये करविक्षेपों के द्वारा ताराओं के चारों ओर घूमता हुआ कल्पवृक्ष के समान नृत्य कर रहा था ॥125॥ नृत्य करते हुए वह इन्द्र क्षणभर में एक रूप और क्षण-भर में दिव्य अनेक रूपवाला हो जाता था । क्षण-भर में अत्यन्त सूक्ष्म शरीरवाला और क्षण-भर में महाउन्नत सर्वव्यापक देहवाला हो जाता था ॥123॥ क्षण-भर में समीप आ जाता और झण-भर में दूर चला ज क्षण-भर में आकाश में और क्षण-भर में भूमि पर आ जाता था। क्षण-भर में दो हाथवाला हो जाता और क्षण-भर में अनेक हाथोंवाला हो जाता था ॥127॥ इस प्रकार अत्यन्त हर्ष से विक्रिया-जनित अपनी सामर्थ्य को प्रकट करते हुए इन्द्र ने इन्द्रजाल के समान उस समय आनन्द नाटक दिखाया ॥128॥ तत्पश्चात् इन्द्र की भुजाओं पर खड़ी होकर मुसकराते हुए अप्सराओं ने अपनी भ्रूलताओं को मटकाते और करविक्षेप करते हुए नृत्य करना प्रारम्भ किया ॥129॥ कितनी ही देवियाँ वर्धमान लय के साथ, कितनी ही ताण्डव नृत्य के साथ और कितनी ही अनेक प्रकार के अभिनयों के साथ नाच ने लगीं ॥130॥ कितनी ही देवियाँ ऐरावत हाथी का और कितनी ही इन्द्र का रूप धारण कर दिव्य नियन्त्रित प्रवेश और निष्क्रमण के द्वारा नृत्य करने लगीं ॥131॥ उस समय इन्द्र के भुजासमूह पर नृत्य करती हुई वे देवियाँ ऐसी शोभित हो रही थीं मानो कल्प-वृक्ष की शाखाओं पर फैली हुई कल्पलताएँ ही हों ॥132॥ कितनी ही देवियाँ शक्र के हाथ की अंगुलियों पर अपने शुभ चरणों को रखकर लीलापूर्वक सूचीनाट्य (सूई की नोकों पर किया जानेवाला नृत्य ) को करती हुई के समान नाच ने लगीं ॥133॥ कितनी ही देवियाँ इन्द्र की दिव्य हस्तांगुलियों के अग्र भाग पर अपनी-अपनी नाभि को रखकर इस प्रकार परिभ्रमण कर रही थीं, मानो बाँस की लकड़ी पर चढ़कर और उसके अग्र भाग पर अपनी नाभि को रखकर घूम रही हों ॥134॥ कितनी ही देवियाँ इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर नृत्य करती हुई तथा मनुष्यों को नेत्रों के कटाक्ष से ठगती हुई संचार कर रही थीं ॥135॥ वह इन्द्र नृत्य करती हुई उन देवियों को कभी ऊपर आकाश में उछालकर नृत्य करता हुआ दिखाता था, कभी उन्हें क्षण-भर में अदृश्य कर देता था और कभी क्षणभर में दृष्टिगोचर कर देता था ॥136॥ कभी उन्हें अपनी भुजाओं के जाल में गुप्त रूप से इधर-उधर संचार कराता हुआ वह इन्द्र उस समय लोक में महान् इन्द्रजालिक की उपमा को धारण कर रहा था ॥137॥ नृत्य करते हुए इन्द्र के प्रत्येक अंग में जो रमणीक कला-कौशल होता था, वह उन सभी देवियों में विभक्त हुए के समान प्रतीत होता था ॥138॥ इत्यादि विक्रियाजनित विविध दिव्य नृत्यों के द्वारा, बहुत प्रकार के आकारवाले हाव-भाव-विलासों के द्वारा आदर से देवियों के साथ दर्शनीय आनन्द नाटक करके इन्द्र ने माता-पिता और दर्शक आदिकों को परम सुख उत्पन्न किया ॥139-140॥ तदनन्तर मुक्ति-प्राप्त्यर्थ जिनेन्द्रदेव की शुश्रूषा और भक्ति के लिए अनेक देवियों को धायरूप से और भगवान् के वय के अनुरूप वेष आदि के करनेवाले देवकुमारों को इन्द्र ने नियुक्त किया । पुनः शुभचेष्टावाले देवों के साथ महान् पुण्य को उपार्जन करके वे सब देवगण अपनेअपने स्वर्ग को चले गये ॥141-142॥ इस प्रकार पुण्य के परिपाक से तीर्थंकर देव ने इन्द्रों के द्वारा समस्त वैभव से परिपूर्ण सारभूत जन्मकल्याणक के महोत्सव को प्राप्त किया । अतः ऐसा जानकर चतुर पुरुष उत्तम और गुणों के कारणभूत एक धर्म को ही परम यत्न के साथ सदा सेवन करें ॥143॥ धर्म इन्द्र और नरेन्द्र के सुख का जनक है, धर्म सर्व गुणों का निधान है, धर्म विश्वभर के प्राणियों का हितकारक है, अशुभ का संहारक है और शिवलक्ष्मी का कर्ता है। धर्म संसार के दुःखों का अन्त करनेवाला है, धर्म असामान्य पिता, माता और मित्र है। इसलिए हे ज्ञानी जनो, इस धर्म का ही सदा पालन करो। अन्य असत्कल्पनाओं से क्या लाभ है ॥144॥ जो श्रीवीरप्रभु प्राणियों के पितामह हैं, दुःखों के हरण करनेवाले हैं, धर्मतीर्थ के कर्ता हैं, सर्वज्ञ हैं, गुणों के सागर हैं, अत्यन्त निर्मल हैं, विश्व के अद्वितीय चूड़ामणिरत्न हैं, कल्याण आदि सुखों के भण्डार हैं, उपमा रहित हैं, कर्म-शत्रुओं के विध्वंसक हैं, और तीन लोक के ज्ञानी पुरुषों के द्वारा एवं मेरे द्वारा वन्दनीय और पूज्य हैं, वे मेरे उक्त विभूति के लिए सहायक होवें ॥145॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरित में भगवान् के जन्माभिषेक का वर्णन करनेवाला नवम अधिकार समाप्त हुआ ॥9॥ |