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बालक वर्धमान का जन्म

  कथा 

कथा :

पंचकल्याणकों के भोक्ता, तीन लोक की लक्ष्मी के दाता और संसारी जीवों के त्राता श्री वीरनाथ की मैं उन की शक्ति प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ ॥1॥

भगवान के गर्भ में आ ने के पश्चात् उन कुमारि का देवियों में से कितनी ही देवियाँ माता के आगे मंगल द्रव्यों को रखती थीं, कितनी ही देवियाँ माता को स्नान कराती थीं, कितनी ही ताम्बूल प्रदान करती थीं, कितनी ही रसोई के काम में लग गयीं, कितनी ही शय्या सजाने का काम करने लगीं, कोई पाद-प्रक्षालन कराती, कोई दिव्य आभूषण पहनाती, कोई माता के लिए कल्पलता के समान दिव्य मालाएँ बना के देती, कोई रेशमी वस्त्र पहन ने के लिए देती और कोई रत्नों के आभूषण लाकर देती थी ॥2-4॥

कितनी ही देवियाँ माता की शरीररक्षा के लिए हाथों में तलवार लिये खड़ी रहती और कितनी ही देवियाँ माता की इच्छा के अनुसार उन्हें अभीष्ट भोगादि की वस्तुएँ लाकर देती थीं ॥5॥

कितनी ही देवियाँ पुष्प-पराग से व्याप्त राजांगण को साफ करतीं और कितनी ही चन्दन के जल का छिड़काव करती थीं ॥6॥

कितनी ही देवियाँ रत्नों के चूर्ण से सांथिया आदि पूरती थीं, और कितनी ही कल्पवृक्षों के पुष्पों से ब ने फूल-गुच्छक भेंट करती थीं ॥7॥

कितनी ही देवियाँ आकाश में ऊँचे राजभवन के अग्रभाग पर रात के समय प्रकाशमान मणि-दीपक जलाती थीं जो कि सब ओर के अन्धकार का नाश करते थे। माता के गमन करते समय कितनी ही देवियाँ वस्त्रों को सँभालती थीं और उनके बैठते समय आसन-समर्पण करती थीं। माता के खड़े होने पर वे देवियाँ चारों ओर खड़ी होकर उन की सेवा करती थीं ॥8-9॥

वे देवियाँ कभी जलक्रीड़ाओं से, कभी वनक्रीड़ाओं से, कभी उसके गर्भस्थ पुत्र के गुणों से युक्त मधुर गीतोंसे, कभी नेत्र-प्रिय नृत्योंसे, कभी तीन प्रकार के बाजोंसे, कभी कथा-गोष्ठियों से और कभी दर्शनीय स्थलों को दिखा ने के द्वारा माता का मनोरंजन करती थीं ॥10-11॥

इन को आदि लेकर विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के अन्य दिव्य विनोदों के द्वारा वे जिन-माता को सर्व प्रकार से सुखी करती थीं ॥12॥

इस प्रकार उन दिक्कुमारी देवियों के द्वारा विधिपूर्वक उपासना की गयी सती जिन-माता ने उनके प्रभाव से व्याप्त होकर अनुपम शोभा को धारण किया ॥13॥

_ अथानन्तर नवम मास के समीप आने पर महागुणशालिनी, बुद्धि प्रकर्षधारिणी उस गर्भवती माता का मन देवियों ने गूढ़ अर्थ और गूढ़ क्रियापदवाले नाना प्रकार के मनोहर प्रश्नोंसे, प्रहेलि का (पहेलियाँ ) पूछकर, निरोष्ठय (ओठ से नहीं बोले जानेवाले वर्गों से युक्त) काव्य, और धार्मिक श्लोकों के द्वारा इस प्रकार से रंजायमान करना प्रारम्भ किया ॥14-15॥

देवियों ने पूछा-हे माता, बनाओ-नित्य ही कामिनी जनों में आसक्त होकरके भी विरक्त है, कामुक होकरके भी अकामुक है और इच्छा-सहित होकर भी इच्छा-रहित है ? ऐसा लोक में कौन श्रेष्ठ आत्मा है ? माता ने उनके इस प्रश्न का उत्तर इस प्रश्न में पठित 'परात्मा' पद से दिया। अर्थात जो परमात्मा होता है, वह मक्ति स्त्री में आसक्त होते हए भी सांसारिक स्त्रियों से विरक्त रहता है ॥16॥

पुनः देवियों ने पूछा-~जो अदृश्य होकरके भी दृश्य है, रत्न त्रय से भूषित होने पर भी त्रिशूलधारक नहीं है, प्रकृति से निर्मल और अव्यय होने पर भी देह की रचना का नाशक है, परन्तु वह महादेव नहीं है, ऐसा वह जीव अभी कहाँ रहता है ? इस का उत्तर इसी श्लोक-पठित 'देवोना' पद से माता ने दिया । अर्थात् वह देवरूपधारक मनुष्य तीर्थकर हैं ॥17॥

हे सुन्दरि, असंख्य नर और सुर-आराध्य, दृश्य, त्रिजगद्गुरु अनेक सारवान् गुण-युक्त तेरा पुत्र है। (यह निरौष्ठ्य काव्य है, क्योंकि इस इलोक में ओठ से बोले जानेवाला एक भी शब्द नहीं है) ॥18॥

जो नित्य-स्त्री-राग-रक्त है, अन्य स्त्रीसुख का त्यागी है, ऐसा जगत् का नाथ तेरा गुणाकर सुत हमारी रक्षा करे। ( इस पद्य में भी सभी निरौष्ठय अक्षर हैं ) ॥19॥

हे जगत्कल्याणकारिणि, मातः, त्रिजगत्पति को अपने दिव्य गर्भ में धारण करने से हर, हरि आदि सर्व देवों के मन की रक्षा करो। (इस श्लोक में 'अव' क्रिया छिपी होने से यह क्रियागत पद्य है)२०॥हे जगत-हितंकरि. अपने गर्भ से धर्म-तीर्थकर की उत्पत्ति करने के कारण तीर्थधारिणी तू देव, विद्याधर और भूमिगोचरी राजाओं का तीर्थस्थान बन ॥21॥

( इस पद्य में 'अट' यह क्रिया गुप्त है)(प्रश्न-) हे देवि ! इस लोक और परलोक में जीवों का हित करनेवाला कौन है ? ( उत्तर-) जो चेतन-धर्म तीर्थ का कर्ता है, वही अनन्त सुख के लिए तीन जगत् का हित करनेवाला है ॥22॥

(प्रश्न-) गुरुओं में सब से महान गुर कौन है ? ( उत्तर-) जो सर्व दिव्य अतिशयों से अनन्त गुणों से गरिष्ठ हैं, ऐसे जिनराज ही महान गुरु हैं ॥23॥

(प्रश्न-) इस लोक में किस के वचन प्रामाणिक हैं ? ( उत्तर-) जो सर्वज्ञ, जगत्-हितैषी, निर्दोष और वीतराग है, उसके ही वचन प्रामाणिक हैं, अन्य किसी के नहीं हैं ॥24॥

(प्रश्न-) जन्म-मरणरूप विष को दूर करनेवाली, अमृत के समान पीने योग्य क्या वस्तु है ? ( उत्तर-) जिनेन्द्रदेव के मुख से उत्पन्न हुआ ज्ञानामृत ही पीने के योग्य है । मिथ्याज्ञानियों के विषरूप वचन नहीं ॥25॥

(प्रश्न-) इस लोक में बुद्धिमानों को किस का ध्यान करना चाहिए ? (उत्तर-) पंच परमेष्ठियों का, जिनागम का, आत्मतत्त्व का और धर्मशक्लरूप ध्यानों का ध्यान करना चाहिए। अन्य किसी का नहीं ॥26॥

(प्रश्न-) शीघ्र क्या काम करना चाहिए ? ( उत्तर-) जिस से संसार का नाश हो, ऐसे अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र के पालने का काम करना चाहिए, अन्य काम नहीं ॥27॥

(प्रश्न-) इस संसार सज्जनों के साथ जानेवाला कौन है ? ( उत्तर-) पाप का नाशक, सर्वत्र आपदाओं में रक्षक ऐसा दयामयी धर्म बन्धु ही साथ जानेवाला है, अन्य कोई नहीं ॥28॥

(प्रश्न-) धर्म के करनेवाले कौन हैं ? ( उत्तर-) तप, रत्नत्रय, व्रत, शील और क्षमादि लक्षणवाले सर्व कार्य धर्म के करनेवाले हैं ॥29॥

( प्रश्न – ) इस लोक में धर्म का क्या फल है ? ( उत्तर- ) समस्त इन्द्रों की विभूति, तीर्थ करादि की लक्ष्मी और उत्तम सुख की प्राप्ति ही धर्म का उत्तम फल है ॥30॥

( प्रश्न-) धर्मात्माओं का क्या लक्षण हैं ? ( उत्तर-) उत्तम शान्त और अहंकार-रहित स्वभाव होना, तथा शुद्ध क्रियाओं के आचरण में नित्य तत् पर रहना ये धर्मात्मा के लक्षण हैं ॥31॥

( प्रश्न-) कौन से कार्य पाप के करनेवाले हैं ? ( उत्तर-) मिथ्यात्व आदिक, पंच इन्द्रियाँ, क्रोधादि कषाय, कुसंग और छह अनायतन ये सब पाप के करनेवाले हैं ॥32॥

न-) पाप का क्या फल है ? (उत्तर-) अप्रिय और दुख के कारण मिलाना, दुर्गति में रोग-क्लेशादि भोगना और निन्द्य पर्याय पाना ये सर्व ही पाप के फल हैं ॥33॥

(प्रश्न-) पापियों के लक्षण किस प्रकार के हैं ? (
उत्तर –
) तीव्र कषायी होना, पर-निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, रौद्र कार्य करना इत्यादि पापियों के लक्षण हैं ॥34॥

( प्रश्न- ) महालोभी कौन है ? ( उत्तर- ) जो बुद्धिमान् संसार में सदा एकमात्र धर्म का ही सेवन करता है, और निर्मल आचरणों से तथा दुष्कर तपोयोगों से मोक्ष की इच्छा करता है, वही महालोभी है ॥35॥

( प्रश्न- ) इस लोक में विवे की पुरुष कौन है ? ( उत्तर- ) जो मन में देवशास्त्र गुरु का और धमोदिक का निर्दोष विचार करता है, वह विवे की है । अन्य कोई नहीं ॥36॥

(प्रश्न-) धर्मात्मा कौन है ? ( उत्तर- ) जो सारभूत उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म से संयुक्त है, जिनआज्ञा का पालक है, बुद्धिमान , व्रती और ज्ञानी है, वही धर्मात्मा है। अन्य कोई नहीं ॥37॥

(प्रश्न-) परलोक में जाते समय उत्तम पाथेय ( मार्ग का भोजन ) क्या है ? ( उत्तर-) दान, पूजा, उपवासादिसे, तथा व्रत, शील संयमादि से उपार्जित निर्मल पुण्य ही परलोक का उत्तम थेय है ॥38॥

(प्रश्न-) इस संसार में किस का जन्म सफल है? ( उत्तर-) जिस ने मुक्तिश्री की सुखमयी मातास्वरूप उत्तम बोधि प्राप्त (भेदज्ञान) कर ली है, उसी का जन्म सफल है, अन्य किसी का नहीं ॥39॥

( प्रश्न- ) जगत् में सुखी कौन है ? ( उत्तर-) जो सर्व परिग्रह से रहित है, ज्ञान और ध्यान रूप अमृत का आस्वादन करनेवाला है, ऐसा वनवासी साधु संसार में सुखी है और कोई सुखी नहीं ॥40॥

(प्रश्न-) संसार में चिन्ता किस वस्तु की करना चाहिए ? ( उत्तर-) कर्म-शत्रुओं के विघात करने में, और मुक्ति लक्ष्मी के साधन में चिन्ता करना चाहिए । इन्द्रियादि के सुख में नहीं ॥41॥

( प्रश्न – ) महान् प्रयत्न कहाँ करना चाहिए ? ( उत्तर-) शिव देनेवाले रत्नत्रयधर्म में, तपःसाधन में और ज्ञानादि की प्राप्ति में प्रयत्न करना चाहिए । सांसारिक सम्पदाओं के पा ने में नहीं ॥42॥

( प्रश्न-) मनुष्यों का परम मित्र कौन है ? (
उत्तर –
) जो आग्रहपूर्वक धर्म को, तप, दान और व्रतादि को करावें और दुराचार को छुड़ावे ॥43॥

( प्रश्न –) संसार में विषम शत्रु कौन है ? (उत्तर-) जो आत्महितकारक तप, दीक्षा और व्रतादि को ग्रहण न करने देवे, वह कुबुद्धि अपना और दूसरों का परम शत्रु है ॥44॥

( प्रश्न- ) प्रशंसा करने के योग्य क्या कार्य है ? ( उत्तर-) जो अल्प धन से युक्त होने पर भी उत्तम क्षेत्र में महान् दान दे और दुर्बल अंग होने पर भी निर्दोष उत्तम तपश्चरण करे, उसके ये दोनों कार्य प्रशंसनीय हैं ॥45॥

(प्रश्न-) तुम्हारे समान और दूसरी महादेवी कौन है ? (उत्तर-) जो जगत् के गुरु और धर्म के कर्ता महान् देव को उत्पन्न करती है, वह मेरे समान है, दूसरी कोई नहीं है, ॥46॥

( प्रश्न-) पाण्डित्य क्या है ? ( उत्तर- ) जो शास्त्रों को जानकर जरा-सा भी दुराचरण और दुरभिमान नहीं करता, तथा पाप की कारणभूत अन्य क्रियादि को नहीं करना ही पाण्डित्य है ॥47॥

(प्रश्न- ) मूर्खता क्या है ? ( उत्तर-) हितकारक ज्ञान को पाकरके भी निष्पाप धर्म, क्रिया और आचार को नहीं करना ही मूर्खता है।॥४८॥

(प्रश्न-) दुर्धर चोर कौन से हैं ? ( उत्तर-) जीवों के धर्मरूप रत्न के चुरानेवाले, पाप-कारक, और सर्व अनर्थ विधायक इन्द्रिय-विषय ही दुर्धर चोर हैं ॥49॥

( प्रश्न- ) इस जगत् में शूर-वीर कौन हैं ? ( उत्तर- ) जो धैर्यरूपी तलवार के द्वारा परीषह रूपी महान् सुभटोंको, कपायरूप अरियों को और काल-मोहादि शत्रुओं को जीतते हैं, वे ही पुरुष शूरवीर हैं ॥50॥

(प्रश्न-) देव कौन है ? (उत्तर-) जो सर्व वस्तुओं का ज्ञाता है, अठारह दोषों से रहित है, अनन्त गुणों का सागर है और धर्म तीर्थ का कर्ता है, वहीं देव है। दूसरा नहीं ॥51॥

(प्रश्न-) महान् गुरु कौन है ? (उत्तर-) जो अन्तरंग-बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित है, जगत् के भव्य जीवों के हित करने में उद्यत है, और मोक्ष का इच्छुक है, वही सच्चा गुरू है और कोई नहीं ॥52॥

इस प्रकार से उन देवियों के द्वारा पूछे गये शुभ-कारक प्रश्नों का उत्तम स्पष्ट उत्तर सर्ववेत्ता गर्भस्थ तीर्थंकरके माहात्म्य से उस माता ने दिया ॥53॥

यद्यपि माता प्रियकारिणी स्वभाव से ही निर्मल बुद्धिवाली थी, तो भी अपने उदर में त्रिज्ञानी सूर्यरूप जिनदेव को धारण करने से विशिष्ट ज्ञान में उस की बुद्धि और भी अधिक निपुण हो गयी ॥54॥

गर्भस्थ पुत्र ने अपनी माता को जरा-सी भी पीड़ा नहीं दी। शुक्ति के भीतर स्थित जलबिन्दु क्या कभी कुछ विकार करता है? नहीं करता ॥55॥

माता का त्रिबली से सुन्दर कृश उदर ज्यों का त्यों रहा और गर्भ बढ़ता रहा । यह प्रभाव गर्भस्थ महान् आत्मा का था ॥56॥

गर्भ में स्थित उस पुरुषरत्न से वह माता इस प्रकार से शोभा को प्राप्त हुई, जैसे कि महाकान्ति से युक्त दूसरी रत्नगर्भा पृथ्वी ही हो ॥57॥

यदि शकेन्द्र के द्वारा भेजी गयी इन्द्राणी अप्सराओं के साथ हर्ष से उस प्रियकारिणी देवी की सेवा करती थी, तो उस की महिमा का और अधिक क्या वर्णन किया जा सकता है ॥58॥

इस प्रकार के परम उत्साह-पूर्ण सैकड़ों महोत्सवों के साथ गर्भकाल के नौ मास पूर्ण होने पर चैत्र मास के शुभोदयवाले शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी के दिन 'अर्यमा' नामक योग में शुभ लग्नादि के समय सुख से पुत्र को पैदा किया ॥59-60॥

वह पुत्र प्रकाशमान शरीर की कान्ति से अन्धकार को नाश करनेवाला, दिव्य देह का धारक, जगत्-हितैपी, तीन ज्ञान से भूषित देदीप्यमान और धर्मतीर्थ का कर्ता था ॥61॥

उस समय इस पुत्र के जन्म होने के माहात्म्य से सर्व दिशाएँ निर्मल हो गयीं और आकाश में मन्द सुगन्धित पवन चलने लगा ॥62॥

स्वर्ग के कल्पवृक्षों ने खिले हुए फूलों की वर्षा की, और चारों जाति के देवेन्द्रों के आसन काँप ने लगे ॥63॥

स्वर्गलोक में विना बजाये ही गम्भीर ध्वनि करनेवाले घण्टा आदि प्रमुख बाजे बज ने लगे, मानो वे प्रभु के जन्मोत्सव की ही बाट जोह रहे हों ॥14॥

शेष तीन जाति के देवों के यहाँ सिंह, शंख और भेरी के शब्द उस समय अपने आप ही अन्य आश्चर्यो के साथ होने लगे ॥65॥

इन सब चिह्नों से देवों के साथ इन्द्रों ने तीर्थंकर देव का जन्म जानकर सब देवों ने भगवान् के जन्मकल्याणक करने का विचार किया ॥66॥

तभी इन्द्र की आज्ञा से देव-सेना महाध्वनि करती हुई महासमुद्र की तरंगों के समान क्रमशः स्वर्ग से निकली ॥67। हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पयादे और बैल यह सात प्रकार की देवों की सेना निकली ॥68॥

तभी सौधर्म स्वर्ग का स्वामी ऐरावत नाम के देव गजराज पर इन्द्राणी के साथ बैठकर देवों से घिरा हुआ स्वर्ग से चला ॥6॥

तत्पश्चात् सामानिक आदि समस्त देवगण अपनी-अपनी विभूति के साथ धर्म में उद्यत होकर और इन्द्र को घेरकर चले ॥70॥

उस समय दुन्दुभियों की महाध्वनि से तथा देवों के जय-जयकार से सातों प्रकार की सेनाओं में फैलता हुआ महान शब्द हुआ ॥71॥

उस समय हर्षित होते हुए कितने ही देव हँस रहे थे, कितने ही कूद रहे थे, कितने ही नाच रहे थे, कितने ही हाथों से तालियाँ बजा रहे थे, कितने ही आगे दौड़ रहे थे और कितने ही देव गा रहे थे ॥72॥

तब वे देव अपने-अपने छत्रोंसे, ध्वजाओं के समूहोंसे, विमानोंसे, वाहनों से और बाजों से गगनांगण को व्याप्त करते हुए भूतल पर उतरे और परम विभूति के साथ अपनीअपनी देवांगनाओं से घिरे हुए वे चतुर्निकाय के देवेन्द्र क्रम से उस उत्तम कुण्डपुर पहुंचे ॥73-74॥

उस समय नगर का मध्य और ऊर्ध्व भाग देव देवियों के द्वारा सर्व ओर से घिर गया, तथा शक्र आदि इन्द्रों के द्वारा राजा का आँगन व्याप्त हो गया ॥75॥

तत्पश्चात् शची शीघ्र प्रकाशमान प्रसूतिगृह में प्रवेश करके, दिव्य देह के धारक बालक के साथ जिन-माता को देखकर, बार-बार उन की प्रदक्षिणा करके मस्तक से जगद्-गुरु को नमस्कार करके और जिनमाता के आगे खड़ी होकर गुणों के द्वारा उन की इस प्रकार स्तुति करने लगी ॥76-77 । हे देवि, त्रिजगत्पति को जन्म देने से तुम सर्व लोक की माता हो, महादेव स्वरूप पुत्र के उत्पन्न करने से तुम ही महादेवी हो, संसार के प्रिय पुत्र की उत्पत्ति से तुम ने अपना 'प्रियकारिणी' यह नाम आज सार्थक कर दिया है, संसार में तुम्हारे समान और कोई स्त्री नहीं है ॥78-79॥

इस प्रकार से जिनमाता की स्तुति कर गुप्त देहवाली उस इन्द्राणी ने उन्हें मायारूप निद्रा से युक्त करके और उनके समीप दूसरा मायामयी बालक रखकर, अपनी कान्ति से दशों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले बालजिनेन्द्र को हर्ष के साथ दोनों हाथों से उठाकर, उनके शरीर का आलिंगन कर और बार-बार मुख चुम्बन कर, दिव्यरूप-जनित अलौकिक रूप सम्पदा को निर्निमेष दृष्टि से देखती वह परम प्रीति को प्राप्त हुई ॥80-82॥

उस समय वह इन्द्राणी भगवान् के शरीर की कान्ति और तेज से युक्त बालसूर्य के साथ आकाश में जाती हुई इस प्रकार से शोभा को प्राप्त हुई, जैसे कि उदित होते हुए सूर्य के साथ पूर्व दिशा शोभती है ॥83॥

उस समय जगत् में मंगल करनेवाली दिक्कुमारी देवियाँ छत्र, ध्वजा, भृङ्गार, कलश, सुप्रतिष्ठक (स्वस्तिक), चमर, दर्पण और ताल ( पंखा) इन आठ मंगल वस्तुओं को अपने हाथों में लेकर इन्द्राणी के आगे चली ॥84-85॥

इस प्रकार संसार में आनन्द करनेवाले बाल जिन को लाकर इन्द्राणी ने हर्ष के साथ देवेन्द्र के करतल में दिया ॥86॥

उन बाल जिन के रूप, सौन्दर्य, कान्ति और शुभ लक्षणों के देखने से परम प्रमोद को प्राप्त होकर वह जिनदेव की स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ ॥87॥

हे देव, तुम हमारे परम आनन्द को करने के लिए तथा लोक में सर्व पदार्थों को दिखा ने के लिए बालचन्द्र के समान उदित हुए हो ॥88॥

हे ज्ञानवान, तुम जगत् के नाथ हो, महापुरुषों के भी महान गुरु हो, जगत्पतियों के भी पति हो, और धर्मतीर्थ के विधाता हो ॥89॥

हे देव, मुनीन्द्रगण आपको केवलज्ञानरूप सूर्य का उदयाचल, भव्यजीवों का रक्षक और मुक्तिरमा का भार मानते हैं ॥90॥

इस मिथ्याज्ञानरूप अन्ध कूप में पड़े हुए बहुत से भव्य जीवों को धर्मरूप हस्तावलम्बन देकरके आप उनका उद्धार करोगे ॥91॥

इस संसार में कितने ही बुद्धिमान लोग आप की दिव्यवाणी से अपने मोहादि कर्म शत्रुओं का नाशकर मोक्षरूप परम स्थान को प्राप्त करेंगे और कितने ही स्वर्गादि को जायेंगे ॥22॥

हे देव, आप तीर्थंकर के उदय होने से तीन लोक में सन्तजनों को आज परम आनन्द हो रहा है, क्योंकि आप धर्म-प्रवृत्ति के कारण हैं ॥93॥

अतएव हे देव, हम मस्तक नमाकर आपको नकस्कार करते हैं और हर्ष से आप की सेवा, भक्ति एवं आज्ञा को धारण करते हैं। हम अन्य देव की सेवा-भक्ति कभी नहीं करते हैं ॥14॥

इस प्रकार वह देवेन्द्र स्तुति करके हाथी पर बैठकर और उस जगन्नाथ को अपनी गोद में विराजमान कर सुमेरु पर चलने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाकर घुमाया ॥95॥

उस समय सब देवों ने 'हे प्रभो, आप की जय हो, आप आनन्द को प्राप्त हों, वृद्धि को प्राप्त हों इस प्रकार उच्चस्बर से जय-जयनाद किया। उन की इस कलकल ध्वनि से सर्व दिशाओं के अन्तराल व्याप्त हो गये ॥96॥

अथानन्तर प्रमोद से व्याप्त शरीरवाले वे देव जय-जय शब्द उच्चारण करते हुए इन्द्र के साथ आकाश की ओर उड़ चले ॥97॥

उस समय अत्यन्त हर्ष को प्राप्त अप्सराएँ तीन प्रकार के बाजों के साथ लीलापूर्वक आकाश में प्रभु के आगे गमन करती हुई ही नाच कर रही थीं ॥98॥

दिव्य कण्ठवाले गन्धर्व देव अपनी वीणा के साथ जन्माभिषेक सम्बन्धी सुन्दर गीत अनेक प्रकार से गा रहे थे ॥29॥

उस समय देव-दुन्दुभियाँ स्वर्गलोक के स्पर्श से सर्व दिशाओं को बधिर करने वाले मधुर, अद्भुत नाना प्रकार के शब्दों को करने लगीं ॥

किन्नरों के साथ किन्नरी देवियों ने हर्ष से सारभूत जिनेन्द्र-गुणों से परिपूर्ण मनोहर गीतों का गाना प्रारम्भ किया ॥100-101॥

उस समय सुर और असुरों ने अपनी-अपनी देवियों के साथ भगवान के दिव्य रूपवाले शरीर को देखते हुए अनिमेष नेत्रों का फल प्राप्त किया ॥102॥

सौधर्म इन्द्र की गोद में विराजमान जगद्-गुरु के शिर पर चन्द्र के समान शुभ्र छत्र को स्वयं ईशानेन्द्र ने लगाया ॥103॥

सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र क्षीरसागर की तरंगों के समान उज्ज्वल चमर हर्ष से ढोरते हुए उस धर्म के स्वामी की सेवा करने लगे ॥104॥

उस समय की जिनेश्वर देव की परम विभूति को देखकर कितने ही देवों ने इन्द्र को प्रमाणता का आश्रय लेकर अपने हृदय में सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया ॥105॥

वे देव-नायक ज्योतिष्पटल का उल्लंघन कर और अपने शरीर के आभूषणों की किरणों से आकाश में इन्द्रधनुष की शोभा को विस्तारते, तथा सैकड़ों प्रकार के महोत्सव करते हुए क्रम से परम विभूति के साथ महान् उन्नत महामेरु पर पहुँचे ॥106-107॥

उस सुमेरु पर्वत की ऊँचाई इस भूमितल से एक हजार योजन कम एक लाख योजन है। भूमि में उसका स्कन्द एक हजार योजन का है ॥108॥

उस सुमेरुपर्वत के भूमितल पर भद्रशाल नामक प्रथम वन तीन कोट और ध्वजाओं से भूषित चार महान चैत्यालयों से शोभायमान है ॥109॥

ये चैत्यालय पूर्व-पश्चिम दिशा में एक सौ योजन लम्बे, उत्तर-दक्षिण दिशा में पचास योजन चौड़े और उन दोनों के आधे अर्थात् पिचहत्तर योजन ऊँचे हैं, तथा रत्नों के उपकरणों से युक्त हैं ॥110॥

पृथ्वी से अर्थात् भद्रशाल वन से दो हजार कोश अर्थात् पाँच सौ योजन ऊपर जाकर सुमेरु की प्रथम मेखला (कटनी) दसरा सन्दर वन है ॥111॥

यह वन भी अनेक प्रकार के वृक्षोंसे, कट प्रासादों से तथा सुवर्ण-रत्नमय दिव्य उत्तम चार चैत्यालयों से शोभित है ॥112॥

इस से ऊपर साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर तीसरा महा रमणीक सौमनस नाम का वन है। यह भी सर्व ऋतुओं के फल देनेवाले वृक्षों से और एक सौ आठ-आठ प्रतिमाओं से युक्त चार श्रीजिनालयों से संयुक्त है, शेष कथन नन्दन वन के समान समझना चाहिए ॥113-114॥

इस से ऊपर छत्तीस हजार योजन जाकर सुमेरु के मस्तक पर चौथा उत्तम पाण्डुकवन शोभित है ॥115॥

वह केशों के समान वृक्ष समूहों से, चार उत्तुंग चैत्यालयों से, पाण्डुकशिला और सिंहासनादि से अत्यन्त सुन्दर है ॥116॥

उस पाण्डुक वन के मध्य में मुकुटश्री के समान उत्तम चूलि का शोभित है। वह चालीस योजन ऊँची है, स्वर्ग के अधोभाग को स्पर्श करती है और स्थिर है ॥117॥

सुमेरु की ईशान दिशा में एक विशाल पाण्डुक शिला है, जो सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी है, तथा आठ योजन ऊँची है, क्षीरसागर के जल से प्रक्षालि कारण पवित्र अंगवाली है, अर्ध-चन्द्र के समान आकारवाली है, जो कि ईषत्प्राग्भार पृथ्वी के समान शोभती है ॥118-119॥

वह छत्र, चामर, शृंगार, स्वस्तिक, दर्पण, कलश, ध्वजा और ताल इन अष्ट मंगल द्रव्यों को धारण करती है ॥120॥

उस पाण्डुक शिला के मध्य में वैडूर्यमणि के समान वर्णवाला सिंहासन है, जो चौथाई कोश ऊँचा, चौथाई कोश लम्बा और उसके आधे प्रमाण चौड़ा है। तीर्थंकरों के जन्माभिषेकों से पवित्र है, मणियों के तेज से ने के शोभित है। वह सुमेरु के दूसरे शिखर के समान मालूम पड़ता है ॥121-122॥

उस सिंहासन की दक्षिण दिशा में सौधर्मेन्द्र के खड़े होने का और उत्तर दिशा में ईशानेन्द्र के खड़े होने का एकएक सुन्दर सिंहासन है ॥123॥

देवों के स्वामी सौधर्मेन्द्र ने उपर्युक्त तीन सिंहासनों में से बीच के सिहासन के ऊपर भारी विभूतिसे, महान् उत्सवों के द्वारा देवों के साथ लाकर, देव और चारणऋद्धिवालों से सेवित उस गिरिराज सुमेरु की प्रदक्षिणा देकर जन्माभिषेक की सिद्धि के लिए तीर्थंकर भगवान को पूर्वमुख विराजमान किया ॥124-125॥

इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य-परिपाक से समस्त देव और उनके स्वामी इन्द्रों ने परम विभूति के साथ अन्तिम श्री वर्धमान जिनराज को वहाँ पर स्थापित किया । ऐसा मानकर भव्यजन सोलह कारण भावनाओं से निर्मल पुण्य की आराधना करें ॥126॥

यह उत्कृष्ट पुण्य तीर्थंकरादि के वैभव का जनक है, ज्ञानी जन पुण्य का आश्रय लेते हैं, पुण्य से ही यह जगत् पवित्र होता है, उत्तम क्रियाएँ पुण्य के लिए होती हैं, पुण्य से अतिरिक्त और कोई वस्तु सुखकारक नहीं है, पुण्य का मूल कारण व्रत है, पुण्य से प्राणियों के अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इसलिए हे पुण्य, तू मुझे पवित्र कर ॥127॥

वीरजिन वीर ज्ञानीजनों के द्वारा संस्तुत और पूजित हैं, उत्तम वीर पुरुष वीर जिन का आश्रय लेते हैं, वीर के द्वारा शीघ्र ही उत्तम गुण-समुदाय प्राप्त होता है, इसलिए वीरनाथ को भक्ति से नमस्कार है। वीर से भिन्न और कोई मनुष्य कामशत्रु का नाशक नहीं है, वीर जिनेन्द्र के गुण दिव्य हैं, वीरनाथ में विधिपूर्वक स्थित मुझे हे वीर भगवन , कर्म-विजय के लिए वीर करो ॥128॥

इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति विरचित श्रीवीरवर्धमानचरित में प्रियकारिणी के प्रज्ञा प्रकर्ष, तीर्थकर का जन्म और सुमेरु पर ले जाने का वर्णन करनेवाला आठवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥8॥