कथा :
महान संवेग से भूषित, मुक्तिरमा के सुख में आसक्त, काम-जनित सुख में विरक्त ऐसे वीर-शिरोमणि श्री वीर-जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥1॥ अथानन्तर सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट नामवाले, ब्रह्मलोक निवासी, लौकान्तिक नामधारी, सौम्यमूर्ति, पूर्वभव में सम्पूर्ण श्रुत और वैराग्यभावना के अभ्यासी, सर्वपूर्वो के वेत्ता, जन्मजात ब्रह्मचारी, एकभवावतारी, निर्मल चित्तधारी, इन्द्र और देवों के द्वारा वन्द्य, एवं अभिनिष्क्रमण कल्याणक में तीर्थंकरों को सम्बोधन करनेवाले देवर्षि जब अपने अवधिज्ञान से भगवान् महावीर के चित्त को विरक्त जाना, तब वे स्वर्ग से उतरकर इस भूतल पर जगद्गुरु के समीप आये और कर्म-शत्रुओं के घात करने के लिए उद्यत्त श्री महावीर प्रभु को मस्तक से नमस्कार कर तथा स्वग में उत्पन्न हुए महान् द्रव्यों से परम भक्ति के साथ पूजकर विरक्ति-वर्धक वाक्यवाली अर्थपूर्ण स्तुतियों के द्वारा अत्यन्त प्रमोद के साथ उन महाबुद्धिशाली देवर्षियों ने इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥2-8॥ हे देव, आप तीनों लोकों के नाथ हैं, गुरुओं के महागुरु हैं, ज्ञानियों के महागुरु हैं, प्रबोध देनेवालों के महाप्रबोधक है, अतः आप हमारे द्वारा प्रबोध ने के योग्य नहीं हैं, आप तो स्वयंबुद्ध हैं, समस्त तत्त्वार्थ के वेत्ता हैं, और हमारे-जैसे लोगों के तथा समस्त भव्यजीवों के प्रबोधक हैं, इस में कोई सन्देह नहीं है ॥9-10॥ जैसे प्रबोधित ( प्रज्वलित ) प्रदीप घटपटादि पदार्थो को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप भी समस्त जीव-अजीवादि पदार्थों को संसार में प्रकाशित करेंगे ॥11॥ किन्तु हे देव, आपको सम्बोधन करने का यह हमारा नियोग है, इसलिए वह आज स्तुति के छल से हमें वाचाल कर रहा है ॥12॥ यतः आप तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक हैं, और हेय-उपादेय आदि सर्वतत्त्वों के ज्ञायक हैं, अतः आपको शिक्षा देने के लिए कौन समर्थ है ? क्या दीपक सूर्य को प्रकाश दिखा सकता है ॥13॥ हे देव, मोह-शत्रु के विजय का उद्योग करने के इच्छुक आप ने यह जगत् के सन्तजनों के लिए उत्तम बन्धु-कर्तव्य पालन करने का विचार किया है ॥14॥ हे प्रभो, आप से अति दुर्लभ धर्मपोत को पाकरके कितने ही भव्य जीव इस दुस्तर संसार-सागर के पार उतरेंगे, कितने ही जीव आप के धर्मोपदेश से रत्नत्रय को पाकर उसके फल से अति उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धि को जायेंगे ॥15-16॥ कितने ही जीव आप की वचन-किरणों से मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार-पुंज का विनाश कर और समस्त तत्त्वार्थ को जाकर शिवरमा का मुख देखेंगे॥१७॥ संसार में सुधीजनों को आप से समस्त अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होगी और हे स्वामिन् , वे स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख को प्राप्त करेंगे, इस में कोई सन्देह नहीं है ॥18॥ हे प्रभो, मोहरूपी कीचड़ में निमग्न पुरुषों को धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर आप निश्चय से उन्हें हस्तावलम्बन देंगे ॥19॥ आप के वाक्यरूपी मेघ से अद्भुत वैराग्यरूपी वज्र पाकरके पण्डित लोग महान मोहरूपी पर्वत के सैकड़ों खण्ड करके चूर्ण कर देंगे ॥20॥ आप के तत्त्वोपदेहा से पापीजन अपने पापों को और कामीजन अपने काम-शत्रु को मारेंगे, इस में कोई संशय नहीं है ॥21॥ हे नाथ, कितने ही आप के भक्तजन आप के चरण-कमलों की सेवा करके और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि कारणों को स्वीकार करके आप के समान होंगे ॥22॥ हे प्रभो, जगत् का अकल्याण करनेवाले मोह और इन्द्रिय शत्रुओं का समूह आपको संवेगरूप खड्ग धारण किये हुए देखकर अपने मरण आदि की शं का से कम्पित हो रहा है ॥23॥ क्योंकि हे सुभटोत्तम भगवन् , आप अपने और दूसरों के दुःसह परीषह भटरूप दुर्जय शत्रुओं को क्रीडामात्र से जीत ने के लिए समर्थ हैं ।24॥ अतएव हे धीर-वीर प्रभो, मोह और इन्द्रिय शत्रुओं के जीत ने के लिए, घातिकर्मो के नाश करने के लिए तथा संसार के भव्य जीवों के उपकार करने के लिए आप उद्योग कीजिए॥२५॥ हे भगवन्, यतः आप के सम्मुख यह उत्तम अवसर तप करने के लिए, कौं को नाश करने के लिए और भव्यजीवों को शिवालय ले जाने के लिए उपस्थित हुआ है, अनः हे स्वामिन् , आप के लिए नमस्कार है, आप गुणों के समुद्र हैं, अतः आपको नमस्कार है, हे जगत्-हितकारिन , मुक्तिकान्ता की प्राप्ति के लिए आप उद्यत हुए हैं, अतः आपको नमस्कार है ॥26-27॥ आप अपने शरीर में और इन्द्रिय-भोगों के सुखादि में निःस्पृह हैं, अतः आप के लिए नमस्कार है। आप मुक्तिस्त्री के सुख साध ने में सस्पृह हैं, इसलिए आपको नमस्कार है ॥28॥ आप अद्भुत वीर्यशाली हैं, कुमारकाल से ही ब्रह्मचारी हैं, लौकिक साम्राज्य लक्ष्मी से विरक्त हैं और शाश्वत मोक्षलक्ष्मी में अनुरक्त हैं, अतः आपको नमस्कार है ॥29॥ हे गुरुओं के गुरु, आपको नमस्कार है, हे योगियों के पूज्य, आपको नमस्कार है, हे समस्त विश्व के मित्र, आपको नमस्कार है और हे स्वयं बोधि को प्राप्त हुए भगवन् , आपको नमस्कार है ॥30॥ हे महादातः, इस स्तवन के फलस्वरूप आप इस जन्म में और परजन्मजन्मान्तरों में भी तप और चारित्र की सिद्धि के लिए अपने गुणों के साथ हे नाथ, हमें भी बालकाल में मोहरूपी शत्रु को विनाश करनेवाली सम्पूर्ण शक्ति दीजिए ॥31-32॥ इस प्रकार वे देवर्षि लौकान्तिक देव तीन लोक के ज्ञानियों से पजित जगन्नाथ वीर प्रभु की स्तुति करके, अपनी इष्ट प्रार्थना करके, अपना नियोग पूरा करके, नमस्कार, स्तुति और पूजन से परम पुण्य उपार्जन करके और भगवान् के चरण-कमलों को बार-बार नमस्कार करके स्वर्गलोक चले गये ॥33-34॥ ___ उन लौकान्तिक देवों के जाते ही चारों जाति के सभी देवगण घण्टानाद आदि चिह्नों से भगवान का संयमोत्सव जानकर अपनी-अपनी देवियों के साथ अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर भक्ति के साथ सैकड़ों महोत्सवों को करते हुए उस कुण्डपुर नगर को आये और उसके वनों को और सर्व मार्गी को अवरुद्ध कर वे देव सैनिक अपनी देवियों और अपने वाहनों के साथ हर्पित हो आकाश में ठहर गये ॥35-37॥ सर्वप्रथम उन सब देवों ने मुक्ति के भर्तार उन वीर प्रभु को सिंहासन पर विराजमान करके क्षीरसागर के जल से भरे हुए महाउन्नत कलशों के द्वारा परम उत्सवसे, गीत नृत्य-वादित्र आदिसे, तथा जय-जयनाद के कोलाहल पूर्ण शब्दों के साथ उनका अभिषेक किया ॥38-39॥ पुनः त्रिजगत् के भूषणस्वरूप उन वीर प्रभु को उन्हों ने दिव्य वस्त्र, आभूषण, और मलयाचल पर उत्पन्न हुई पुष्पमालाओं से आभूषित किया ॥40॥ तत्पश्चात् उन वीर प्रभु ने महामोह से व्याप्त चित्तवाली अपनी माताको, दक्ष पिता को और अन्य बन्धु जनों को वैराग्य-उत्पादक मधुर वचनों के द्वारा और सैकड़ों प्रकार के उपदेशी वाक्यों से अलग-अलग सम्बोधित करते हुए महाकष्ट से उन्हें अपनी दीक्षा के लिए समझाया ॥41-42॥ तत्पश्चात् देवेन्द्र-रचित, चन्द्रप्रभा नाम की देदीप्यमान दिव्य पालकी पर संयमरूपी लक्ष्मी के सुख प्राप्त करने के लिए उत्सुक, और इन्द्र के द्वारा दिया गया है हाथ का सहारा जिन को ऐसे श्री वीर जिनदेव राज्यलक्ष्मी के साथ सब बन्धुजनों को छोड़कर दीक्षा में प्रतिज्ञाबद्ध के समान चढ़े ॥43.44॥ उस समय समस्त आभूषणों की विभूति से युक्त और देवों से आवृत वे जगत् के नाथ महावीर प्रभु उस पालकी पर विराजमान होकर ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो तपोलक्ष्मी को वर ने के लिए जानेवाले उत्तम वर ही हों ॥45॥ सर्व प्रथम उस पालकी को राजाओं ने सात पद तक उठाया, तत्पश्चात् सात पद तक विद्याधरों ने उठाया और उसके पश्चात् धर्मानुराग के रस से परिपूरित वे सभी देवगण उस पालकी को अपने कन्धों पर आरोपण करके बड़ी विभूति के साथ शीघ्र आकाश में उड़कर ले चले ॥46-47॥ अहो, उस प्रभु के महा. माहात्म्य का क्या अलग वर्णन किया जा सकता है, जिस की कि पालकी को उठानेवाले लोकनायक इन्द्रादिक हों॥४८॥ उस समय देवों ने आकाश से फूलों की वर्षा की और वायुकुमार देवों ने गंगा के जलकणों से युक्त सुरभित समीर प्रवाहित की ॥49॥ उस समय देव वन्दीजनों ने भगवान् के अभिनिष्क्रमण कल्याणक सम्बन्धी मंगल पाठ पढ़े, और देवों ने अनेक प्रयाणभेरियों को बजाया ॥50॥ 'जगत्पति के मोहादि शत्रुओं को जीत ने के उद्योग का यह समय है' इस प्रकार से इन्द्र की आज्ञा से उस समय देवों ने उच्च स्वर से घोषणा की ॥51॥ उस समय स्वामी के आगे हर्षित हुए सुरासुरों ने 'हे ईश, तुम्हारी जय हो, नन्दो, व?,' इत्यादि शब्दों को बोलते हुए आकाश को अवरुद्ध कर महान् कोलाहल किया ॥52॥ उस समय देवेन्द्रों के कोटिकोटि बाजे आकाश को व्याप्त करते हुए बज ने लगे और नाना प्रकार के हाव-भावों के साथ देव नर्तकियाँ नृत्य करने लगीं। किन्नरियाँ अति मधुर स्वर से प्रभु के मोहशत्रु के विजय को प्रकट करनेवाले अनेक प्रकार के सुखद यशोगीत गा ने लगीं ॥53-54॥ उस समय प्रमोद के भार से भरे हुए देवगण इधर से उधर दौड़ रहे थे, और कोटि-कोटि ध्वजा-छत्रादि से आकाश को आच्छादित करते हुए चल रहे थे, ॥55॥ प्रभु के आगे कमलों को हाथ में लिये हुए लक्ष्मीदेवी मंगल द्रव्यों को धारण करनेवाली दिक्कमारियों के साथ-साथ आगे चल रही थी॥५६॥ देवेन्द्रों के द्वारा जिन के ऊपर चँवर ढोरे जा रहे हैं और मस्तक पर श्वेत छत्र लगाया गया है, भीतरी जो सर्व ओर से देवेन्द्रों के द्वारा समावृत है, जो स्वर्ग से लाये गये मालाओं और वस्त्राभूषणों से मण्डित हैं और इस प्रकार जिन का माहात्म्य सर्व ओर प्रकट हो रहा है, ऐसे वे वीर भगवान जब नगर से वन को जा रहे थे, तब पुरवासियों ने यह कहते हुए उनका अभिनन्दन किया-हे जगद्-गुरो, आप शत्रुओं को जीतें, सिद्धि प्राप्ति के लिए कर्तव्य कार्य को करें, आप का मार्ग सुखमय हो, आप कोटि-कोटि कल्याणों को प्राप्त हो ॥57-59॥ साम्राज्य सुख और स्त्रीभोग को भोगे बिना ही तपोवन को जाते हुए वीर भगवान को देखकर कितने ही विचक्षण पुरुष परस् पर में इस प्रकार से वार्तालाप करने लगे-अहो, देखो, यह महान् आश्चर्य की बात है कि यह जिनराज कुमारावस्था में ही कामरूपी शत्रु को मारकर तपोवन को जा रहे हैं ॥60-61॥ उन की इस बात को सुनकर दूसरे लोग कहने लगे-अरे, इस लोक में मोह, इन्द्रिय-भोग और कामशत्रु को मार ने के लिए यह वीर प्रभु ही समर्थ है, और दूसरा कदाचित् भी समर्थ नहीं है ॥62॥ उन की यह बात सुनकर कितने ही सूक्ष्म बुद्धिशाली पुरुष बोले-अरे, बाहरी और । शत्र को नाश करनेवाले वैराग्य का यह सब माहात्म्य है ॥63॥ जिस से कि ऐसे स्वर्गीय भोग, और त्रिजगत् की सर्व सम्पदा को भी छोड़ ने के लिए और पंचेन्द्रियरूपी चोरों को मार ने के लिए ये समर्थ हो रहे हैं ॥64॥ यह परम वैराग्य का ही प्रभाव है कि ये चक्रवर्ती की सम्पदा को विरक्त होकर तृण के समान छोड़ रहे हैं। अन्यथा रागी और दरिद्रता से युक्त पुरुष तो अपनी जीर्ण पर्णकुटीर को भी छोड़ ने के लिए समर्थ नहीं होता है ॥65॥ उन की यह बात सुनकर दूसरे लोग कहने लगे-अहो, तुम्हारा कहना सत्य है, क्योंकि वैराग्य के बिना इन का ऐसा निःस्पृह मन कै से हो सकता है॥६६॥ इत्यादि वचनालापों के द्वारा कितने ही लोग उनका स्तबन कर रहे थे, कितने ही पुरवासी लोग उन्हें प्रणाम कर रहे थे और कितने ही लोग अति कौतुक से उन्हें देख रहे थे ॥67। इस प्रकार लोगों के द्वारा पद-पद पर अनेक प्रकार के वचनालापों से प्रशंसा किये जानेवाले वे तीन जगत् के नाथ नगर के अन्त में पहुँचे ॥6॥ __इस प्रकार अपने पुत्र वीर कुमार के घर से चले जाने पर जिन-माता त्रिशला आन्तरिक शोक से आहत होकर दावाग्नि से जली हुई वेलि के समान होती हुई और पुत्र-वियोग की अग्नि से पीड़ित सिद्धार्थ पिता भी आर्तचित्त होकर बन्धुजनों के साथ दुःख से रोते और भारी विलाप करते हुए पुत्र के पीछे-पीछे घर से निकले ॥69-70॥ हाय पुत्र, आज तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? हे मुक्ति में अनुरक्त, हे मेरे हृदय के प्यारे. अब मैं तुम्हें अपने नेत्रों से कब देखूगी ।71॥ जब मैं तेरे वियोग को क्षणमात्र भी सहन करने को समर्थ नहीं हूँ, तब तेरे बिना मैं चिरकाल तक कै से जीवित रह सकूँगी ॥72॥ हे पुत्र, तुम अति कोमल शरीरवाले हो, फिर इन दुर्जय परीपद और अनेक प्रकार के घोर उपसर्गों को कै से जीतोगे ? इन दुर्दमनीय इन्द्रियरूपी हाथियोंको, त्रैलोक्यविजयी इस कामदेवको, और इन कषायरूपी शत्रुओं को किस धैर्य से घात करोगे ॥73-75॥ हाय पुत्र, तुम अभी बालक हो, फिर इस दुष्कर भयकारी वन में और क्रूर मांस-भक्षी निहादि से भरे हुए गुफा आदि में कै से रहोगे ॥75॥ इस प्रकार से विलाप करती और भगवान के पीछे-पीछे गिरती-पड़ती जाती हुई उस त्रिशला माता को उसके महत्तर पुरुषों ने आकर और आगे जाने से रोककर दिव्य वाणी से इस प्रकार कहा-हे देवि, क्या तुम इस जगद्-गुरु के इस चरित्र को नहीं जानती हो ? तेरा यह पुत्र तीन लोक का स्वामी है और अद्भुत पराक्रमी है ॥76-77॥ यह तीर्थंकर हैं, यह आत्मवेत्ता पहले संसारसागर में पतन से अपना उद्धार करके पीछे बहुत- से भव्य जीवों का निश्चय से उद्धार करंगे ॥78॥ जैसे दुर्जय सिंह कभी भी पाशों से बँधा हुआ नहीं रह सकता है, उसी प्रकार हे देवि, तुम्हारा यह पुत्र भी मोह आदि के बन्धनों से बँधा हुआ घर में कै से रह सकता है अर्थात् नहीं रह सकता है ॥72॥ इन का संसार अति निकट आ गया है, यह जगत् के उद्धार करने में समर्थ तुम्हारा पुत्र दीन जन के समान इस अशुभ घर में कै से प्रीति कर सकता है ॥80॥ यह तुम्हारा पुत्र तीन ज्ञानरूप नेत्रों का धारक है, संसार का ज्ञाता है, संसार से विरक्त चित्तवाला है। फिर यह किस कारण से मूढजन के समान इस मोहरूप अन्धकूप में गिरेगा ॥81॥ ऐसा जानकर हे महाचतुर माता, पाप का आकर ( खानि ) इस शोक को छोड़ो और घर जाकर तथा इस तीन जगत् को अनित्य जानकर धर्म का आचरण करो ॥82॥ क्योंकि इष्ट जनों के वियोग से मूर्ख लोग ही शोक को करते हैं। किन्तु जो चतुर पुरुष होते हैं, वे संवेग से सर्व अनिष्ठों के विघातक धर्म का पालन करते हैं ॥83॥ इत्यादि प्रकार के उद्बोधक और श्रवणीय महत्तरों के वचनों को सुनकर प्रबुद्ध बुद्धि वह देवी विवेकरूपी किरणों से अपने मन के शोकरूपी अन्धकार को शीघ्र दूर कर अपने हृदय में धर्म को धारण कर संवेग से व्याप्त शरीरवाली वह माता बन्धुजनों और सेवकों के साथ अपने राजमन्दिर को वापस लौट आयी ॥84-85॥ तदनन्तर यथोक्त मांगलिक आयोजनों से मनुष्यों के नेत्रगोचर आकाश में न अतिदूर, न अतिसमीप जाते हुए वीर जिनेन्द्र संयम की प्राप्ति के लिए देवों के साथ ज्ञातृखण्ड नामक महावन में पहुँचे, जो कि उत्तम छायावाला, फल-युक्त, रमणीय और ध्यान-अध्ययन की वृद्धि करनेवाला था ॥86-87॥ उस वन में देवों के द्वारा पहले ही निर्माण किये गये एक गोल चन्द्रकान्तमयी पवित्र शिलापट्ट पर वीर भगवान् पालकी से उतरकर जा विराजे । वह शिलापट्ट वृक्षों के समूह की छाया से शीतल था, घि से हुए चन्दन के रस से जिस पर छींटे दिये गये थे, सांथिया आदि मंगल-चिह्नों से जो मण्डित था, इन्द्राणी के हाथों रत्नों के चूर्ण से जिस पर नन्द्यावर्त आदि बनाये गये थे, जिस के ऊपर चित्र-विचित्र वस्त्रों का मण्डप शोभायमान था और जो ध्वजा-पंक्तियों से आकाश को व्याप्त कर रहा था, जिस के सर्व ओर दिशाओं में धूप का सुगन्धित धुआँ फैल रहा था और जिस के चारों ओर मंगलद्रव्य रखे हुए थे ॥88-90॥ वीर कार्य करने में जिन का मन संलग्न है, जो शरीरादिक में आकांक्षा-रहित हैं और मोक्ष के साधन में आकांक्षा-युक्त हैं, ऐसे श्री वीरप्रभु जन-संक्षोभ ( कोलाहल ) के शान्त हो जाने पर उस शिलापट्ट के ऊपर उत्तर दिशा की ओर मुख करके विराजमान हुए। उस समय वे शत्रु-मित्रादि सर्व प्राणियों पर परम समता भाव की भावना कर रहे थे ॥91-92॥ तभी उन्हों ने क्षेत्र-वास्तु आदि दशों प्रकार के चेतन-अचेतन परिग्रहों को तथा अति दाख से छोड़े जानेवाले मिथः आदि चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रहों को एवं वस्त्र, आभूषण और माला आदि की शरीरादि में निःस्पृह और स्वात्मीय सुख में सस्पृह होते हुए मोह के नाश करने के लिए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सर्वदा के लिए परित्याग कर दिया ॥93-94॥ तत्पश्चात् पद्मासन से बैठकर तथा सिद्धों को नमस्कार कर मोह-पाश के समान अपने केश-समूह को पाँच मुट्ठियों से उखाड़कर फेक दिया और मन-वचन-काय के द्वारा सर्व सावधों ( हिंसादि पापों ) का परित्याग कर सर्व गुणों के आद्यस्वरूप सारभूत अट्ठाईस परम मूल गुणोंको, आतापन आदि योगों से उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के उत्तर गुणोंको, पंच महाव्रतोंको, पंच समितियों को और तीनों गुप्तियों को वीर जिनराज ने स्वीकार करके सर्वत्र समताभाव को प्राप्त होकर सर्व दोषों से रहित और सर्व गुणों का आकर ऐसा सामायिक नाम का सारभूत संयम अंगीकार किया ॥95-98॥ इस प्रकार मार्गशीर्षमास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन अपराह्नकाल में उत्तरा और हस्त नक्षत्र के मध्यभाग में चन्द्रमा के आश्रित होने पर उत्तम मुहूर्त में वीरप्रभु ने अकेले ही मुक्तिकान्ता की परम सखी और अतिदुर्लभ ऐसी जैनी दीक्षा को मुक्ति-प्राप्ति के लिए धारण किया ॥99-100॥ भगवान् के मस्तक पर चिरकाल तक निवास करने से केशों को अति पवित्र मानकर देवेन्द्र ने उन्हें स्वयं उठाकर हर्ष से उन की पूजा कर और प्रकाशमान रत्नों की पिटारी में रखकर तथा उसे दिव्य वस्त्र से ढककर देवों के साथ रमणीक महोत्सव करते हुए उस रत्नपिटारी को पवित्र क्षीरसागर के स्वभावतः पवित्र जल में परम विभूति से बहु सम्मान्य पुण्य की प्राप्ति के लिए निक्षेपण किया ॥101-103॥ अहो, यदि जिनेश्वर के आश्रय से ये काले अचेतन बालों का समूह पूजा को प्राप्त हुआ, तो सचेतन पुरुषों को उन से क्या इष्ट साधन नहीं होगा? अर्थात जिनेश्वर के आश्रय से मनुष्यों को सभी इष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होंगी ॥104॥ जिस प्रकार इस लोक में यक्ष देव जिनदेव में चरण-कमलों के आश्रय से सम्मान को पाते हैं, उसी प्रकार अर्हन्त देव का आश्रय लेनेवाले नीचजन भी दुर्लभ पूजा को प्राप्त करते हैं ॥105॥ उस समय सन्तप्त सुवर्ण कान्तिवाले शरीर के धारक यथा जातरूपवाले वीर भगवान् नैसर्गिक कान्ति और दीप्ति आदि के द्वारा तेजोराशि के समान शोभित हुए ॥106॥ तव परम सन्तोष को प्राप्त हुए देवेन्द्रों ने हर्ष से उनके गुण-ग्रामों द्वारा श्री वीर परमेष्टी की इस प्रकार उच्च स्वर से स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥107॥ हे देव, इस संसार में तुम ही परमात्मा हो, तुम ही तीनों जगत् के महान गुरु हो, तुम ही गुणों के सागर हो, जगन्नाथ हो, शत्रुओं के जीतनेवाले हो और अति निर्मल हो ॥108॥ हे देव, आप के जो गणनातीत ( असंख्यात) गुण हैं, वे अद्भत हैं, संसार में वे असाधारण हैं, उन की स्तुति करने के लिए श्री गणधर देवादि भी अशक्य हैं, तो फिर अल्प बुद्धि से युक्त हमारे-जैसे लोगों के द्वारा उन की कै से स्तुति की जा सकती है, यह समझकर हमारा मन आप की स्तुति करने में झूला के समान झों के खा रहा है ॥109-110॥ तथापि हे ईश, आप के ऊपर हमारी जो एक निश्चल भक्ति है, वही हमें आप की स्तुति करने के लिए हठात् वाचालित कर रही है ॥111॥ हे योगीश, बाह्य और आन्तरिक मरण के विनाश से आप की यह निर्मल गुणों की राशि आज मेघ-रहित सूर्य को किरणों के समान प्रकाशमान हो रही है ॥112॥ हे भगवन , आदि और अन्त में दुःखों से मिश्रित, चंचल विषय-जनित सुख को छोड़कर स्वात्मज उत्कृष्ट सुख की इच्छा करनेवाले आप के निःस्पृहपना कहाँ सम्भव है ॥113॥ अत्यन्त दर्गन्धियुक्त स्त्रियों के खोटे शरीर में राग को छोड़कर मुक्तिरमणी में महाराग को करनेवाले आप के राग-रहित ( वीतराग ) कै से माना जाये ॥114॥ हेय और उपादेय को स्पष्ट जानकर हेय को छोड़कर उपादेय निज आनन्द को स्वीकार करनेवाले आप के हे नाथ, समभावना कहाँ है ॥115॥ रत्न नामधारी पत्थरों को छोड़कर सम्यग्दर्शनादि अमूल्य महामणियों को ग्रहण करने वाले आप के हे देव, लोभ-मुक्ति कै से मानी जाये ॥116॥ क्षण- भंगुर, और पाप-वर्धक इस लौकिक राज्य को छोड़कर नित्य और अनुपम तीन जगत् के साम्राज्य की इच्छा करनेवाले आप का मन निःस्पृह कै से माना जा सकता है ॥117॥ हे जगत्प्रभो, लौकिक चंचल लक्ष्मी को छोड़कर सर्वोत्कृष्ट लोकाग्रनिवासिनी मुक्ति लक्ष्मी को चाहनेवाले आप के संसार में आशारहितपना कै से सम्भव है ॥118॥ कामदेवरूपी शत्र को ब्रह्मचर्यरूप बाणों के द्वारा मार देने से रति और प्रीति को विधवा बनानेवाले आप के हृदय में हे देव, दया कहाँ है ॥119॥ ध्यानरूपी महावाणों के द्वारा समस्त कर्मशत्रओं की सन्तान का मोह-भूपति के साथ विनाश करनेवाले आप के हृदय में हे नाथ, करुणा कहाँ है ॥120॥ अपने थोड़े- से बन्धुओं को छोड़कर अपने गणों के द्वारा सारे जगत के जीवों के साथ परम बन्धता को करनेवाले आप के हे देव. बन्धवियुक्तता कै से सम्भव है ॥121॥ हे दक्ष, सर्पफणा के सदृश विषयुक्त भोगों को छोड़ करके शुक्लध्यानरूपी अमृतपान को करते हुए आप के प्रोषधव्रत कै से सम्भव है ॥122॥ पुण्यधारा के समान जगत के सन्तापों को शान्त करनेवाली, पवित्र और विद्वत्पूजित आप की यह महादीक्षा हम सब लोगों को पवित्र करे ॥123॥ तीनों लोकों को पवित्र करने में समर्थ ऐसी शुद्ध दीक्षा को मन-वचन-काय की शुद्धि से धारण करनेवाले और मुक्ति के इच्छुक आप के लिए नमस्कार है ॥124॥ शारीरिक सुखादि में निःस्पृह और शिवमार्ग में सस्पृह, तपःश्री से संयुक्त और द्विविध परिग्रह के त्यागी हे भगवन् , आपको नमस्कार है ॥125॥ अनमोल सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय आभूषणों से भूषित हे ईश, निभूषण आत्मस्वरूपवाले तुम्हारे लिए हमारा नमस्कार है ॥126॥ समस्त प्रकार के वस्त्रों के त्यागी और दिशारूप अम्बर ( वस्त्र ) के धारक, तथा महान ऐश्वर्य के साधन में उद्यत चित्तवाले आप के लिए नमस्कार है ॥127॥ सर्वसंग से विमुक्त, गुण सम्पदा से युक्त, मुक्ति के महाकान्त हे जिनेश्वर,आप के लिए नमस्कार है ॥128॥ अतीन्द्रिय सुख से युक्त चित्तवाले, विरागी, उपवासी और शुक्लध्यानामृतभोजी आप के लिए हे नाथ, नमस्कार है ॥129॥ हे पूज्य, आज के दीक्षित, चार ज्ञानरूप नेत्र के धारक, स्वयंबुद्ध, तीर्थ के स्वामी और उत्तम बालब्रह्मचारी, समस्त इन्द्रियसुखों से विमुख, चैतन्य आत्मा के सम्मुख, निश्चिन्त और मुक्ति प्राप्ति में चिन्ता करनेवाले, आप के लिए नमस्कार है ॥130-131॥ कर्म शत्रुओं की सन्तान का घात करनेवाले, गुणों के सागर, उत्तमक्षमादि दश लक्षण धर्म के धारण करनेवाले, आपको नमस्कार है ॥132॥ हे पूज्य, हे जगढ़ाशाप्रपूरक, इस स्तवन के द्वारा हम आप से किसी सांसारिक लक्ष्मी की प्रार्थना नहीं करते हैं। किन्तु हे देव, बालप ने में भी तपोदीक्षाविधायिनी अपनी इस शक्ति को अपने गुणों के साथ मुक्ति के लिए भव-भव में हमें दीजिए ॥133-234॥ ___ इस प्रकार वे देवों के स्वामी वीर प्रभु को स्तुति करके, पूजा करके और बार-बार नमस्कार करके नमन, पूजन और स्तवनादि के द्वारा बहुत प्रकार का पुण्य उपार्जन करके कर्तव्य काय को पूर्ण करनेवाले, धर्म में संलग्न चित्तवाले, और भगवान के दीक्षा-कल्याणक की कथा में निरत वे सभी इन्द्र देवों के साथ अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥135-136॥ अथानन्तर वे वीर प्रभु निश्चल अंग होकर, कर्मशत्रुओं का विनाशक, योग-निरोधक ध्यान को धारण करके पाषाण में उत्कीर्ण मूर्ति के समान ध्यानस्थ हो गये ॥137॥ उसी समय ही उस ध्यानयोग के द्वारा वीर प्रभु के उत्कृष्ट चतुर्थ मनःपर्यय ज्ञान प्रकट हुआ जो कि निश्चय से केवलज्ञान की प्राप्ति का सूचक है ॥138॥ । इस प्रकार विकारों से रहित जिस वीर प्रभु ने बालकाल में ही विरक्त होकर मनुष्य और देवगति में उत्पन्न हुई राज्य और भोग आदि की लक्ष्मी को निश्चय से तृण के समान छोड़कर शीघ्र ही दीक्षा को ग्रहण किया उस वीरनाथ की मैं अनुपम गुणों के कीर्तन द्वारा स्तुति करता हूँ॥१३९॥ वीर प्रभु वीर जनों में अग्रणी हैं, गुणों के निधान हैं, ऐसे वीरनाथ को वीर पुरुष ही आश्रित होते हैं, वीर के द्वारा शीघ्र ही उत्तम सुख प्राप्त होता है, ऐसे वीर प्रभु के लिए भक्ति से मेरा नमस्कार है। इस संसार में वीरनाथ से भिन्न और कोई पुरुष नहीं है, उस वीर के गुण भी वीर ही हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्र में मैं अपना प्रतिदिन ध्यान लगाता हूँ, हे वीर प्रभो, मुझे वीर करो ॥140॥ इति श्री भट्टारक सकलकीतिविरचित श्री वीरवर्धमान चरित में भगवान् की दीक्षा कल्याणक का वर्णन करनेवाला बारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥12॥ |