कथा :
सर्व प्रकार के परिप्रह से रहित, बाधाओं से रहित, मुक्तिकान्ता के सुख पा ने के लिए उत्सुक और ध्यानावस्थित श्री महावीर को मैं वीर-जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए वन्दन, करता हूँ ॥1॥ अथानन्तर यह महावीर स्वामी छहमासी उपवास आदि तपों के करने में अतीव समर्थ थे, तो भी अन्य मुनियों को उत्तम चर्यामार्ग बतला ने के लिए पारणा के दिन धृति और धैर्य से बलशाली, शरीर-भोगादि में अत्यन्त निःस्पृह उन योगीन्द्र महावीर ने शरीर स्थिति में बुद्धि की अर्थात् गोचरी के लिए उद्यत हुए ॥2-3॥ तब प्रयत्न के साथ उत्तम ईर्यापथ पर दृष्टि रखकर 'यह निधन है, और यह धनी है' ऐसा मन में जरा भी चिन्तवन नहीं करते, संसार, शरीर और भोग इन तीनों में संवेग भाते, उत्तम दानियों को सन्तोष करते, कृत, कारित, उद्दिष्ट आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार का स्वयं अन्वेषण करते, न अति मन्द और न अति शीघ्र पादविन्यास रखते वे दयाई चित्त महावीर प्रभु क्रम से विचरते हुए कूल नामक रमणीक पुर में पहुँचे ॥4-6॥ वहाँ पर कूल नामक धर्मबुद्धि राजा ने सर्व पात्रों में श्रेष्ठ वीर जिन को देखकर दुष्प्राप्य निधान को पा ने के समान हृदय में परम आनन्द मानकर उन्हें तीन प्रदक्षिणा देकर और शीघ्र पंच अंगों को भूमि पर रखते हुए नमस्कार करके 'हे भगवन, तिष्ठ तिष्ठ' ऐसा कहकर अतिहर्षित होते हुए उन्हें पडिगाहा ॥7-8॥ तत्पश्चात् उस राजा ने भगवान को प्रासुक, श्रेष्ठ उच्चस्थान पर बैठाकर शुद्ध जल से उनके चरण कमलों को प्रक्षालन करके उस जल को पवित्र मानकर उसे मस्तक पर लगाया और भक्तिभार से आठ द्रव्यों के द्वारा उन की पूजा की उन्हें नमस्कार किया ॥9-10॥ पुनः उस ने 'हे भगवन् , आप के पदार्पण से मैं पवित्र हो गया हूँ,' मेरा यह गार्हस्थ्य जीवन सफल हो गया है, पात्र के लाभ से मैं धन्य हूँ, इस प्रकार विचार करते हुए अपनी मनःशुद्धि की ॥11॥ पुनः उस ने 'हे देव, मैं धन्य हूँ, हे नाथ, आज आप ने मझे पवित्र कर दिया और आप के आगमन से यह घर पवित्र हो गया ऐसा कहकर उस ने अपनी वचनशुद्धि की ॥12॥ आज मेरा शरीर आप के चरण-स्पर्श से पवित्र हो गया, पात्रदान से मेरे ये दोनों श्रेष्ठ हाथ सफल हो रहे हैं, ऐसा मानकर उस राजा ने कायशुद्धि की ॥13॥ पुनः उस ने यह कहते हुए आहारशुद्धि प्रकट की कि यह भोजन कृत आदि दोषों से रहित है, प्रासुक अन्न से निष्पन्न हुआ है, सार, योग्य और निर्मल है ॥14॥ इस प्रकार उत्तम पुण्य के उपार्जन के कारणभूत इन नव प्रकार के भक्तिभेदों के द्वारा राजा ने उस समय महान् पुण्य का उपार्जन किया ॥15॥ मेरे भाग्य से आज यहाँ पर यह अत्यन्त दुर्लभ सम्पूर्ण पात्र दान का सुअवसर प्राप्त हुआ है, जो कि अन्यत्र कदाचित सम्भव नहीं, ऐसा विचार कर उस राजा ने दान देने में परम श्रद्धा प्रकट की ॥16॥ अपनी शक्ति को प्रकट करके वह पात्रदान में उद्यत हुआ । मुक्ति के लिए दान देने के भाव से उस ने लौकिक लक्ष्मी, रत्नवृष्टि और कीर्ति आदि की इच्छा को छोड़ दिया ॥17॥ उस समय धर्म-सिद्धि के लिए अन्य समस्त कार्यों को छोड़कर शुश्रूषा, आज्ञा-पालन, पुण्य-राग आदि के द्वारा वह उत्तम राजा भगवान् की भक्ति में तत् पर हुआ ॥18॥ यह आहार प्रासुक है, यह उत्तम दान-वेला है, इस विधि से मुझे दान देना चाहिए, इस प्रकार के आहारदान देने के ज्ञान को वह राजा प्राप्त हुआ ॥19॥ संयमी साधु अनेक उपवास-जनित क्लेश को कै से सहन करते हैं? इस प्रकार विचार कर उस राजा ने परम क्षमा के साथ कृपा को धारण किया ॥20॥ इस प्रकार गृहस्थों के महाफल-कारक इन उत्तम सात दातार के गुणों को उस विद्वान् राजा ने अंगीकार किया ॥21॥ तत्पश्चात् उस राजा ने वीर प्रभु-जैसे उत्तम सुपात्र के लिए दाताजनों के हितार्थ मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक विधि से भक्ति के साथ उत्तम, प्रासुक, मधुर, सरस, निर्दोष, तप की वृद्धि करनेवाला और क्षुधा-तृषा का विनाशक क्षीरान का उत्कृष्ट दान दिया ॥22-23॥ उस समय उस दान से सन्तुष्ट हुए देवों ने पुण्ययोग से राजा के अंगण में अन्धकार-नाशक अनमोल करोड़ों मणियों की स्थूल, अखण्ड. सघन. धारा-समहोंसे. फलों की सगन्धि से मिश्रित जलवर्षा के साथ आकाश से भारी रत्नवर्षा की ॥24-25॥ उस समय दाता के महापुण्य यश की घोषणा करते हुए अनेक दुन्दुभियों का शब्द आकाश में व्याप्त हो गया ॥26॥ अहो, दाता को संसार-समुद्र से तारनेवाले यह जिनेन्द्र परम पात्र हैं, और यह महान् दाता धन्य है, कि जिस के घर जिनराज पधारे हैं ॥27॥ यह परमदान पुरुषों को स्वर्ग और मोक्ष का कारण है, इस प्रकार देवों ने जय-जयकार की घोषणा के साथ सद् वचन कहे ॥28॥ अहो, जैसे इस भूतल पर पात्रदान से अनमोल रत्नों की कोटियाँ प्राप्त होती हैं और उत्तम निर्मल कीर्ति आदि प्राप्त होती है, उसी प्रकार परलोक में भी स्वर्ग और भोगभूमि आदि में निश्चय से अनेक अनमोल महाभोगादि सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥29-30॥ उस समय रत्नों की राशियों से सारे राजांगण को पूरित देखकर कितने ही निपुण पुरुष परस् पर में इस प्रकार कहने लगे ॥31॥ अहो, दान का उत्कृष्ट फल यहीं पर ही देखो कि आज यह राजभवन रत्नों की वर्षा से परिपूर्ण हो रहा है ॥32॥ इस बात को सुनकर अन्य ज्ञानीजन बोलेअरे, यह कितना-सा दान का फल है ? दान से तो स्वर्ग और मोक्ष के परम सुखादिक प्राप्त होते हैं ॥33॥ उनके ये वचन सुनकर और दान के प्रत्यक्ष फल को देखकर कितने ही पुरुषों ने स्वर्गलक्ष्मी के भोगों को देनेवाले पात्रदान में अपनी बुद्धि को किया। अर्थात् पात्रदान देने का निश्चय किया ॥34॥ उस समय श्रीवर्धमान तीर्थश रागादि को दूर से ही छोड़कर वीतराग हृदय से अवस्थित रहते हुए शरीर की स्थिति के लिए पाणिपात्र द्वारा आहार को ग्रहण कर और दान के फल से राजा को और उसके घर को पवित्र करके वन को चले गये ॥35-36॥ इस उत्तम दान से राजा ने भी अपना जन्म, अपना गृहाश्रम और महापुण्यकारी अपना धन सफल माना ॥37॥ उसके हान की अनुमोदना से अन्य बहुत से दानियों ने दाता और पात्र के स्तवन, गुण-गान आदि के द्वारा राजा के समान ही पुण्य का उपार्जन किया ॥38॥ अथानन्तर वीर जिनेश नाना ग्राम, पुर, अटवी और अनेक देशों में वायु के समान निर्ममत्व होकर प्रयत्न के साथ ( जीव रक्षा करते ) और नित्य विहार करते हुए विचर ने लगे ॥39॥ वे वीर जिन ध्यानादि की सिद्धि के लिए भयंकर गिरि-गुफा, दुर्ग, श्मशान आदि में और निर्जन वन-प्रदेशों में सिंह के समान ए का की रात्रि में निवास करते थे ॥40॥ वे जिनदेव वेलातेला को आदि लेकर छह मास तक के उपवासों को करने लगे। कभी पारणा के दिन अवमोदर्य ( ऊनोदर ) तप करते, कभी अलाभ परीषह को जीत ने के लिए चतुष्पथ आदि की प्रतिज्ञा करके अद्भत वृत्तिपरिसंख्यान तप को करते, कभी निर्विकृति आदि की प्रतिज्ञा करके रसपरित्याग तप को करते और कभी ध्यान के लिए वनादि निर्जन प्रदेशों में विविक्तशयनासन तप को करते थे ॥41-43॥ वे वीरजिन वर्षाकाल में झंझावात आदि से व्याप्त वृक्ष के मूल में धैर्यरूप कम्बल से वेष्टित होकर निवास करते, कभी शीतकाल में चौराहों पर और नदी के किनारे ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा शीत पुंज को ध्वस्त करते हुए निवास करते थे, जिस शीतकाल में कि प्रचण्ड शीत के द्वारा वृक्षों के समूह जल जाते थे ॥44-45॥ उष्णकाल में वीर प्रभु सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से सन्तप्त पर्वत के शिखर पर अवस्थित शिलातल पर ध्यानामृतरूप जल से सिंचित रहकर ठहरते थे॥४६॥ इस प्रकार शारीरिक सुख को दूर करने के लिए वीर-जिनेन्द्र कायक्लेश तप को धारण करते थे। इन उपयुक्त छहों प्रकार के सुदुःसह बाह्य तपों को वीर प्रभु ने किया ॥47॥ वीर जिनेन्द्र सदा प्रमाद-रहित होकर इन्द्रियों को जीतते थे, अतः प्रायश्चित्त ले ने की उन्हें कभी आवश्यकता नहीं थी। वे मन को सर्व प्रकार के संकल्प-विकल्पों से रहित करके और कायोत्सर्ग करके सर्वकर्मरूप वन को जला ने के लिए अग्नि के समान अपनी आत्मा का सर्वत्र ध्यान करते थे। इस प्रकार कर्म शत्रु के विघात के लिए परम आनन्द का कारणभूत सर्व प्रकार का अभ्यन्तर तप आत्मध्यान के योग से और समस्त आस्रवों के निरोध से उनके सदा होता रहता था ॥48-50। इस प्रकार वीर भगवान् ने अपने वीर्य को प्रकट करके प्रयत्नपूर्वक बारहों ही उत्तम तपों को चिरकाल तक तपा ॥5॥ उत्तम क्षमागुण के द्वारा वे वीर भगवान् पृथिवी के समान सदा अकम्प रहते थे। और प्रसन्न स्वभाव के द्वारा वे सदा स्वच्छ जल के समान निर्मल चित्त रहते थे ॥52॥ दुष्कर्म रूप वन को जला ने में वे जलती हुई अग्नि के समान थे, कषाय और इन्द्रिय-शत्रुओं को घात करने में वे दुर्जय शत्रु के तुल्य थे ॥53॥ वे भगवान् धर्मबुद्धि से सदा परमधर्म का आचरण करते थे और इस लोक तथा परलोक में सुख के सागर ऐसे क्षमादि दश लक्षणधर्म को धारण करते थे ॥54॥ वे अतुल पराक्रमी वीर प्रभु अपनी शक्ति से क्षुधा-तृषादि-जनित सर्वघोर परीषहों को तथा वन में होनेवाले सभी उपद्रवों को सहन करते थे ॥55॥ वे दप्रभु भावनाओं के साथ, अतीचार-रहित पाँचों ही महाव्रतों को परम केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए पालन करते थे ॥56॥ वे कर्म-पाश की विनाशक पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठों प्रवचन-माताओं का सदा ही हर्ष से आश्रय ले रहे थे ॥57 । वे महाबुद्धिमान् वीर भगवान् समस्त उत्तर गुणों के साथ सर्व मूलगुणों को अप्रमादी होकर पालन करते थे और स्वप्न में भी कभी मलों ( अतीचारों) को पास नहीं आ ने देते थे ॥58॥ इत्यादि परम आचार से अलंकृत वीर जिनेन्द्र पृथ्वी पर विहार करते हुए उज्जयिनी के अतिमुक्तक नाम के श्मशान में आये ॥59॥ उस रौद्र श्मशान में वीर जिनेश शिव-प्राप्ति के लिए काय का त्याग कर और प्रतिमायोग को धारण कर पर्वत के समान अचल होकर ध्यानस्थ हो गये ॥60॥ परम आत्मध्यान में संलीन, मेरु शिखर के समान स्थिर जिनराज को देखकर अधोगामी और पापबुद्धिवालों-स्थाणु नामक अन्तिम रुद्र ने दुष्टता के कारण उनके धैर्य के सामर्थ्य की परीक्षा के लिए पाप के उदय से उसी क्षण उनके ऊपर उपसर्ग करने का विचार किया ॥61-62॥ तब वह अपनी विद्या से अनेक प्रकार के विशाल वेताल रूपों को बनाकर जिनदेव को ध्यान से चला ने के लिए उद्यत हुआ ॥63॥ उन भयानक रूपादि के द्वारा, तर्जना करनेसे, खोटी दृष्टि से देखनेसे, अट्टहासोंसे, घोर ध्वनि करनेसे, विविध प्रकार से लययुक्त नृत्योंसे, फाड़े हुए मुखोंसे, तीक्ष्ण शस्त्र और मांस को लिये हुए हाथों से उस रात्रि में उस ने जगद्-गुरु के ध्यान को नष्ट करनेवाला अति दुष्कर उपसर्ग किया ॥64-65॥ उस उपद्रब के समय वीर जिनेन्द्र मेरु शिखर के समान अचल रहे और उसके उन करोड़ों उपद्रवों के द्वारा ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए ॥66॥ तब उस पापी शठ रुद्र ने श्री जिनराज को अविचल जानकर अपनी विक्रिया से बनाये हुए बड़े-बड़े फणावाले साँपोंसे, सिंहोंसे, हाथियोंसे, प्रचण्ड वायु से और जलती हुई ज्वालाओंसे, इसी प्रकार के अन्य भयंकर रूपों से और दुष्ट वाक्यों से कायरों को भयभीत करनेवाला महाघोर उपसर्ग श्री वर्धमान जिनेन्द्र के ऊपर किया ॥67-68॥ तो भी वीर जिनदेन अपने ध्यानावस्थित स्वरूप से रंचमात्र भी चल-विचल नहीं हुए। किन्तु निज आत्मा के ध्यान का आलम्बन करके सुमेरु के समान अचल ब ने रहे ॥69॥ तब पाप-उपार्जन करने में अति पण्डित वह ढाष्ट रुद्र धीरता युक्त महावीर को जानकर अनेक प्रकार के परीषह और उपसर्गों को करने लगा ॥70॥ उस ने अपनी विक्रिया से भीलों की विकराल सेना बनायी, जिन के हाथों में भयानक शस्त्र थे, जो दुःसह और अनेक प्रकार के भयावह आकारोंकों धारण किये हुए थे, और कायरजनों को डरानेवाले थे। उनके द्वारा उस रुद्र ने भगवान के ऊपर घोर उपद्रव कराये। किन्तु उनके द्वारा सर्व ओर से वेष्टित भी जगत्पति वीरनाथ मन से जरा भी क्लेश को नहीं प्राप्त हुए किन्तु सुमेरु के समान स्थिर ब ने रहे।७१-७२॥ आचार्य कहते है कि अहो, संसार में देवयोग से कचित् कदाचित् पर्वतमाला भले ही चलायमान हो जाये. किन्तु योगियों का चित्त घोर उपद्रवों के द्वारा ध्यान से कभी विचलित नहीं होता है ॥73॥ इस लोक में वे पुरुष ही धन्य हैं, जिन का ध्यान में स्थित मन सैकड़ों-हजारों उपसर्गों के द्वारा भी रंचमात्र विकार को नहीं प्राप्त होता है ॥74॥ तब वह रुद्र महावीर को अत्यन्त अचलाकार जान करके लज्जा को प्राप्त होता हुआ इस प्रकार से उन की स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ ॥75॥ हे देव, आप ही इस लोक में परम वीर्यशाली हैं, जगद्-गुरु हैं, वीर पुरुषों में अग्रणी हैं, महान् वीर हैं, महाध्यानी हैं, महान तपस्वी हैं, महातेजस्वी हैं, जगत् के नाथ हैं, समस्त परीषहों के विजेता हैं, वायु के समान निःसंग हैं, धीर-वीर हैं और कुलाचल के समान अचल हैं ॥76-77। आप क्षमा से पृथ्वी के समान हैं, दक्ष हैं, सागर के समान गम्भीर हैं, स्वच्छ जल के समान प्रसन्न आत्मा हैं, और कर्मरूप वन को जला ने के लिए अग्नि के समान हैं ॥7॥ आप तीनों लोकों में अपने गुणों से बढ़ रहे है, अतः आप ही यथाथे में वधेमान है, उत्तम बुद्धि को धारण करते हैं, अतः आप 'सन्मति' इस सार्थक नामवाले हैं, आप ही परमात्मा हैं और महाबली हैं ॥78-79॥ हे पूज्य स्वामिन् , अविचल देह के धारण करनेवाले आप के लिए मेरा नमस्कार है, नित्य प्रतिमायोगशाली आप परमात्मा के लिए मेरा नमस्कार है ॥80॥ इस प्रकार वर्धमान जिन की स्तुति करके और बार-बार उनके चरण-कमलों को नमस्कार करके 'महतिमहावीर' इस नाम को रखकर मत्सर-रहित होकर अपनी उमा कान्ता के साथ आनन्द-निर्भर हो नृत्य करके चारित्र से चलायमान हुआ वह रुद्र अपने स्थान को चला गया ॥81-82॥ आचार्य कहते हैं कि अहो, दुर्जन पुरुष भी महापुरुषों के योग-जनित महान् साहस को देख करके जब सन्तुष्ट होते हैं, तब भूतल पर सज्जनों की तो कथा ही क्या है ? अर्थात् वे तो और भी अधिक सन्तोष को प्राप्त होते हैं ॥8॥ अथानन्तर चेटक राजा की वनक्रीड़ा में आसक्त, चन्दना नाम की सती पुत्री को देखकर कोई कामातुर और पाप-परायण विद्याधर किसी उपाय से उसे शीघ्र ले उड़ा और आकाश मार्ग से जाते हुए उस ने अपनी भार्या के भय से पीछे किसी महाअटवी में उसे छोड़ दिया ॥84-85॥ तब वह महासती अपने पापकर्मोदय को जानकर पंचनमस्कार मन्त्र को जपती हुई उसी अटवी में धर्मध्यान में तत् पर होकर रह ने लगी ॥86॥ वहाँ पर किसी भीलों के राजा ने उसे देखकर धन-प्राप्ति की इच्छा से ले जाकर वृषभसेन नाम के वैश्यपति को सौंप दी ॥87॥ सभदा नाम की उस सेठ की स्त्री ने उस की रूप-सम्पदा को देखकर 'यह मेरी सौत बनेगी' ऐसी शं का को मन में धारण किया ॥88॥ तब उस ने उसके रूपसौन्दर्य की हानि के लिए ( उसके केश मुँड़ा दिये और ) साँकल से बाँधकर ( उसे एक कालकोठरी में बन्द कर दिया।) तथा आरनाल ( कांजी ) से मिश्रित कोदों का भात मिट्टी के सिकोरे में रखकर उसे नित्य खा ने को देने लगी। ऐसी अवस्था में भी उस सती ने अपनी धर्मभावना को नहीं छोड़ा ॥89-90॥ किसी एक दिन उन महावीर प्रभु ने राग से रहित होकर शरीर-स्थिति के लिए वत्सदेश की इस कौशाम्बीपुरी में प्रवेश किया ॥91॥ उन उत्तमपात्र महावीर प्रभु को देखकर चन्दना के भाव दान देने के हुए। पुण्योदय से उसके बन्धन तत्काल टूट गये। सिर काले भौंरों के समान केशभारसे, और शरीर माला-आभूषणों से युक्त हो गया। तब उस ने साम ने जाकर और उन्हें नमस्कार कर सन्मति प्रभु को पडिगाह लिया ॥92-93॥ उसके शील के माहात्म्य से कोदों का भात शालि चावलों का हो गया और वह मिट्टी का सिकोरा विशाल सुवर्णपात्र बन गया ॥94॥ आचार्य कहते हैं कि अहो, यह पुण्य कर्म पुरुषों को समस्त अघटित और दूरवर्ती भी अभीष्ट मनोरथों को स्वयमेव घटित कर देता है, इस में कोई संशय नहीं है ॥95॥ तब उस चन्दना सती ने परम भक्ति के साथ नव प्रकार के पुण्यों से युक्त होकर अर्थात् नवधा भक्तिपूर्वक विधि से हर्षित होते हुए श्री महावीर प्रभु को वह उत्तम अन्नदान दिया ॥96॥ इस महान दान के प्रभाव से उसी समय उपार्जित पुण्य के द्वारा वह पंचाश्चर्यों को प्राप्त हुई और तभी बन्धुओं के साथ उसका संयोग भी हो गया। अहो, पुण्य से क्या नहीं प्राप्त होता है ॥97॥ उस चन्दना का सुदान के प्रभाव से चन्द्रमा के समान निर्मल यश जगत् में व्याप्त हो गया और इष्ट बन्धुजनों और इष्ट वस्तुओं का भी संगम हो गया ॥98॥ अथानन्तर वर्धमान भगवान् भी महीतल पर विहार करते हुए मौन धारण कर छद्मस्थभाव के साथ क्रम से बारह वर्ष बिताकर जृम्भि का ग्राम के बाहर स्थित मनोहर वन के मध्य में ऋजुकूलानदी के किनारे महारत्नशिलातल पर शालवृक्ष के नीचे प्रतिमायोग को धारण कर, बेला का नियम लेकर ज्ञान की सिद्धि के लिए ध्यानावस्थित हुए ॥99-101॥ उस समय अट्ठारह हजार शीलों के समूहरूप कवच को धारण कर, चौरासी लाख उत्तम सद्-गुणरूप भूषणों से भूषित होकर, महाव्रतादि अनुप्रेक्षाभावनारूप वस्त्र से मण्डित होकर, संवेगरूपी गजेन्द्र पर आरूढ़ होकर, चारित्ररूपी रणभूमि में अवस्थित होकर, रत्नत्रयरूप महाबाणों को और तपरूप धनुष को हाथ में लेकर, ज्ञान-दर्शन के द्वारा सन्धान को साधकर, गुप्ति आदि सेना से वेष्टित होकर, इसी प्रकार की अन्य सर्व सामग्री से अलंकृत हो वे महासुभट महावीर प्रभु अति रौद्र कर्म-शत्रुओं को शीघ्र विनाश करने के लिए उद्यत हुए ॥102-105॥ उस समय उन्हों ने सर्वप्रथम मोक्षप्राप्ति के लिए सिद्धों के गुणों के इच्छुक होकर कर्म-शत्रुओं के हनन करनेवाले निष्कल परमात्मा सिद्धों के क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त महावीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाध इन आठ उत्तम महागुणों का ध्यान करना प्रारम्भ किया। जो जीव सिद्धों के उक्त गुणों को प्राप्त करने के इच्छुक हैं, उन्हें नित्य ही उक्त गुणों का ध्यान करना चाहिए ॥106-108॥ पुनः महाबुद्धिशाली महावीर ने निर्मल चित्त से आज्ञाविचय आदि परम उत्कृष्ट धर्मध्यान के भेदों का चिन्तन करना प्रारम्भ किया ॥109॥ उस समय उनके आद्य अनन्तानुबन्धी चार कषाय, दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियाँ, तिर्यगायु, देवायु और नरकायु ये दश प्रकृतिरूप कर्मशत्रु डर करके ही मानो बिना प्रयत्न के स्वयं ही शीघ्र विनाश को प्राप्त हो गये। जब कि वीरजिन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थान में विराजमान थे ॥110-111॥ उक्त दश कर्मप्रकृतियों के जीत ने से विजय को प्राप्त वे महावीर भगवान् उत्तम सुभट के समान अत्यन्त पवित्र शुक्लध्यानरूप महान आयुध को धारण कर शेष कर्मशत्रुओं को हनन करने के लिए उद्यत होते हुए मोक्ष-महल में पहुँच ने के लिए नसैनी स्वरूप क्षपकश्रेणी पर शीघ्र चढ़े ॥112-113॥ क्षपकश्रेणी पर चढ़ते ही वीर जिन ने स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन अरिसंचयस्वरूप सोलह अशुभ दुष्ट प्रकृतियों को अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान के प्रथम भाग में स्थित रहते हुए उत्तम सुभट के समान प्रथम शुक्लध्यानरूपी खड्ग के द्वारा एक साथ ही स्वयं नाश कर दिया ॥114-117॥ पुनः उन्हों ने इसी नवम गुणस्थान के द्वितीय भाग में चारित्र की घात करनेवाली दूसरी अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और तीसरी प्रत्याख्यानावरण चतुष्क इन आठ कषायों को विनष्ट किया। पुनः तीसरे भाग में नपुंसकवेदको, चौथे भाग में स्त्रीवेदको, पाँचवें भाग में हास्यादि छह नोकपायोंको, छठे भाग में पुरुषवेदको, सातवें भाग में संज्वलन क्रोधको, आठव भाग में संज्वलन मान को और नवे भाग में संज्वलन माया को उन समर्थ आत्मस्वरूप के धारक वीर प्रभ ने उसी प्रथम शक्लध्यानरूप : द्वारा विनष्ट किया ॥118-120॥ तत्पश्चात् कर्म शत्रुओं की उक्त सन्तान के विनाश करने से बलवान् वीरजिन ने परम विजयभूमि के समान दशम गुणस्थान को प्राप्त होकर सूक्ष्म साम्पराय संयमी होते हुए संज्वलन सूक्ष्म लोभ का भी विनाश कर चौथे संयम के द्वारा वे क्षीणकषायी हो गये ॥121-122॥ इस प्रकार अद्भुत पराक्रमशाली वीरजिन कर्मों के स्वामी प्रबल मोह महाशत्रु का उस की सेना के साथ विनाश कर शूराप्रणी के समान शोभा को प्राप्त हुए ॥123॥ इस के पश्चात् वे जिनराज क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान में चढ़कर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य को प्राप्त करने के लिए उद्यत हुए ॥124॥ तब उन्हों ने इस बारहवे गुणस्थान के चरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो कर्मप्रकृतियों का द्वितीय शुक्लध्यान से क्षय किया ॥125॥ पुनः ज्ञान के ऊपर वस्त्र के समान आवरण डालनेवाली पाँचों ज्ञानावरण प्रकृतियोंको, चक्षुदर्शनावरणादि शेष चार दर्शनावरण प्रकृतियों को और पाँचों अन्तरायों को इन चौदह कर्मप्रकृतियों को बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा तीन जगत् के गुरु महावीर प्रभु ने एक साथ विनष्ट किया और इस प्रकार तिरेसठ कर्मप्रकृतियों का विनाश करके लोकालोक के तत्त्वों का प्रकाशक, अनन्त महिमा से युक्त, और मुक्तिरूप साम्राज्य की प्राप्ति का कारण अनन्त केवलज्ञान वैशाख मास की शुक्लपक्ष की दशमी के अपराह्न काल में हस्त और उत्तरा नक्षत्र के मध्य में शुभचन्द्रयोग के समय शुभलग्न योगादि के होने पर उन्हों ने प्राप्त किया ॥126-130॥ उसी समय मोक्ष को देनेवाला क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात संयम, अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदशन, उत्तम अनन्त दान लाभ भोग उपभोग और अनन्तवीर्य इन उपमारहित नव केवललब्धियों को जिनों में अग्रणी वीरप्रभ ने स्वीकार किया ॥131-132॥। इस प्रकार चारित्र के प्रभाव से भगवान के कर्मशत्रुओं के जीत लेने पर आकाश में उसी समय देवसमूह के द्वारा जय-जयकार शब्द व्याप्त हो गया। तथा देवदुन्दुभियों के शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया। भगवान् की दर्शन-यात्रार्थ आनेवाले भुवनपति-देवों के विमानों से आकाश आच्छादित हो गया ॥133॥ केवललक्ष्मी के प्रभाव से आकाश से सघन पुष्पवृष्टि होने लगी और देवेन्द्रों ने आकर उन श्रीपति महावीर जिनेन्द्र को अनुपम परम भक्ति से नमस्कार किया । उस समय आठों ही दिशाएँ मल-विकार से रहित (निर्मल) हो गयीं और आकाश भी निर्मल हो गया ॥134॥ उस समय मृदु शीतल समीर मन्द-मन्द बह ने लगी और सभी देवेन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए। तभी यक्षराज ने आकर अनन्त गुणों के निधान श्रीवर्धमान जिनेन्द्र की भक्ति से शीघ्र समवसरण विभूति की रचना की ॥135॥ इस प्रकार यहाँ पर जिन्हों ने खोटे धातिया कर्मशत्रुओं को मार करके अनुपम, अनन्त क्षायिक गुण-समूह के साथ कैवल्यराज्य-लक्ष्मी को प्राप्त किया, जो संसार के समस्त सज्जनों को अतुल आनन्द के विस्तारनेवाले हैं, भव्य जनों में अद्वितीय चूडामणिरत्न के समान हैं, तीनों लोकों के तार ने में एक मात्र कुशल हैं, ऐसे श्रीवीरजिनेन्द्र की मैं उन की विभूति पा ने के लिए स्तुति करता हूँ ॥136॥ इति श्रीभट्टारक सकलकीतिविरचित श्रीवीरवर्धमानचरित में केवलज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन करनेवाला तेरहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥13॥ |