कथा :
मोहरूपी निद्रा के नाशक, विश्वतत्त्वों के प्रकाशक और भव्यजीवरूपी कमलों के प्रबोधक ऐसे ज्ञान-भास्कर श्री वीर स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥1॥ अथानन्तर दिव्यध्वनि के उपसंहार होने पर तथा मनुष्यों का कोलाहल शान्त होने पर महान विद्वान् एवं गुणवेत्ता सौधर्मेन्द्र ने तीन लोक के जीवों के मध्य में स्थित और समस्त प्राणियों के सम्बोधन करने में उद्यत श्री वीर भगवान को हर्ष से नमस्कार कर अपने गुणों की सिद्धि के लिए, बुद्धिमानों के उपकार के लिए और यहाँ पर धर्मतीर्थ-प्रवर्तनार्थ विहार करने के लिए जगत में सारभत, भव्यों का सम्बोधन करनेवाले गुणसमूह के कीर्तन से इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥2-4॥ हे देव, मैं केवल अपने मन-वचन-काय की शुद्धि के लिए तीन लोक के दक्ष पुरुषों के द्वारा पूज्य और अनन्त गुणों के सागर ऐसे आप की स्तुति करता हूँ। क्योंकि आप की स्तुति करनेवाले जीवों के पापमल के विनाश से सर्वप्रकार की शुद्धियाँ और तीन लोक की लक्ष्मी सुख आदिक सम्पदाएँ स्वयं ही प्रकट होते हैं। ऐसा निश्चय कर हे प्रभो, आप की स्तुति करने के लिए यह सर्व योग्य सामग्री पाकर विशिष्ट फल का इच्छुक कौन विद्वान आप की स्तुति नहीं करता ? अर्थात् सभी करते हैं ॥5-7॥ आप के स्तवन करने में स्तुति, स्तोता (स्तुति करनेवाला) महान स्तुत्य (स्तुति करने के योग्य पुरुष ) और स्तुति का फल; यह चार प्रकार की पापविनाशिनी उत्तम सामग्री ज्ञातव्य है ॥8। गुणों की राशिवाले अर्हन्तों के गुणों का जो विचारशील पुरुषों के द्वारा यथार्थरूप से कीर्तन किया जाता है, वह महाशुभ स्तुति कही जाती है ॥9॥ जो पक्षपात से रहित, गुण-अवगुणरूप तत्त्वों का वेत्ता, आगमज्ञ, कवीन्द्र, सम्यग्दृष्टि वाग्मी (गुणवर्णन करनेवाला ) पुरुष है, वह उत्तम स्तोता कहलाता है ॥10॥ जो अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त गुणों का समुद्र है, वीतराग है, जगत् का नाथ है, वह परम पुरुष ही सज्जनों का स्तुत्य माना गया है ॥11॥ स्तुति का साक्षात् फल स्तुति करनेवाले मनुष्यों को परम पुण्य का प्राप्त होना है और परम्परा फल क्रम से स्तुत्य देव से सर्व गुण-समूह का प्राप्त होना है ॥12॥ इस प्रकार यहाँ पर स्तुति की उत्तम सामग्री को पाकर हे देव, मैं आप की स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ। हे भगवन् , प्रसन्न दृष्टि से आप आज मुझे पवित्र करें ॥13॥ इस प्रकार प्रस्तावना करके इन्द्र स्तुति करना प्रारम्भ करता है । हे नाथ, आज आप के वचनरूप किरणों के द्वारा भव्यजीवों के अन्तरंग में स्थित और सूर्य के अगोचर ऐसा समस्त मिथ्यान्धकार नष्ट हो गया है ॥14॥ हे भगवन् , आप के वचनरूप तलवार के प्रहार से मोहरूपी शत्रु विनष्ट हो गया है, इसी से वह सकलगण-सहित आपको छोड़कर इन्द्रिय और मन के विषयों में निमग्न जड़ात्माओं के आश्रय को प्राप्त हुआ है ॥15॥ हे देव, आप के धर्मदेशनारूपी वज्र के प्रहार से आहत हुआ कामदेव आज अपने इन्द्रियचोरों के साथ मरण अवस्था को प्राप्त हुआ है ॥16॥ हे नाथ, आप के केवलज्ञानरूप चन्द्र के उदय से बुद्धिमानों को सम्यग्दर्शनादि रत्नों का दाता धर्मरूपी समुद्र वृद्धि को प्राप्त हुआ है ॥17॥ हे भगवन् , आज तीन लोक को दुःख देनेवाला भव्यों का पापरूपी शत्रु आप के धर्मोपदेशरूपी आयुध से क्षय को प्राप्त हुआ है ॥18॥ हे नाथ, आज आप से सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र आदि उत्तम लक्ष्मी को पाकरके कितने ही भव्यजीव अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए मुक्तिमार्ग पर चल रहे है ॥19॥ हे ईश, आप से रत्नत्रय और तपरूपी बाणों को पाकरके कितने ही भव्य आज मुक्ति पा ने के लिए चिरकाल से साथ में आये ( लगे) हुए कर्मरूपी शत्रुओं को मार रहे हैं ॥20॥ हे प्रभो, आप महान्-महान दाता हैं, क्योंकि तीन लोक के भव्य जीवों को प्रतिदिन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्मरूप उत्तम चिन्तामणिरत्न देते हैं ॥21॥ वे धर्मरत्न चिन्तित पदार्थों को देनेवाले हैं, सारभूत हैं, अनमोल हैं और सुख के सागर हैं। अतः लोक में आप के समान कौन महान दाता और महाधनी है ॥22॥ हे स्वामिन्, आज मोहनिद्रा से नष्ट चेतनाशक्तिवाला यह जगत् आप के ध्वनिरूप सूर्य के उदय से प्रबुद्ध होकर सोने से उठे हुए के समान प्रतीत हो रहा है ॥23॥ हे विभो, आप के प्रसाद से आप के चरणों का आश्रय लेनेवाले लोगोंमें से कितने ही स्वर्गको, कितने ही सर्वार्थसिद्धि को और कितने ही परम पद मोक्ष को जा रहे हैं ॥24॥ जिस प्रकार पशुओं और देवों के साथ यह सर्व चतुर्विध संघ आप की वाणी से कर्म सन्तान का घात करने के निश्चय से सजित हुआ है, उसी प्रकार आप के विहार से इस आर्यखण्ड में उत्पन्न हुए अन्य ज्ञानी जन भी सर्व तत्त्वों को जानकर अपने पापों के संचय का घात करेंगे अन्यजीव आप के तीर्थ विहार से कितने ही भव्य जीव तपरूप खड्ग के द्वारा संसार की स्थिति का घात कर उत्तम सुख के समुद्र ऐसे मोक्ष को प्राप्त होंगे ॥27॥ कितने ही योगीजन चारित्र धारण कर अहमिन्द्र पद को सिद्ध करेंगे और कितने ही जीव आप के सत्यधर्म के उपदेश से स्वर्ग को जायेंगे ॥28॥ हे ईश, इस लोक में आप के द्वारा उपदिष्ट सन्मार्ग को प्राप्त होकर मोही जीव अपने मोह-शत्रु का घात करेंगे और पापी जीव अपने पापशत्रु का विनाश करेंगे ॥29॥ हे नाथ, भव्यजीवों को मोक्षरूपी द्वीपान्तर ले जाने के लिए सार्थवाह के समान आप ही दक्ष हैं और इन्द्रिय-कषायरूपी अन्तरंग चोरों को मार ने के लिए आप ही महाभट हैं ॥30॥ अत एव हे देव, भव्यजीवों के अनुग्रह के लिए और मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के लिए धर्म का कारणभूत विहार कीजिए ॥31॥ हे भगवन, मिथ्यात्वरूपी दुर्भिक्ष से सूखनेवाले भव्यजीवरूपी धान्यों का धर्मरूप अमृत के सिंचन से स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए हे ईश, उद्धार कीजिए ॥32॥ हे देव, जगत् को सन्तापित करनेवाले, दुर्जय मोहशत्रु को पुण्यात्मा जनों के लिए धर्मोपदेशरूप बाणों की पंक्तियों से आज आप जीतें ॥33॥ क्योंकि देवों के द्वारा मस्तक पर धारण किया हुआ, मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार का नाशक, विजय के उद्यम का साधक यह धर्मचक्र सजा हुआ उपस्थित है ॥34॥ तथा हे नाथ, सन्मार्ग का उपदेश देने के लिए और कुमार्ग का निराकरण करने के लिए यह महान् काल आप के सम्मुख आया है ॥35॥ अतएव हे देव, इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ? अब आप विहार करके इस उत्तम आर्यखण्ड में स्थित भव्य जीवों को अपनी सद्वाणी से पवित्र कीजिए ॥36॥ क्योंकि किसी भी काल में आप के समान बुद्धिमानों के कुमार्गरूप घोर अन्धकार का नाशक और स्वर्ग-मोक्षक मार्ग का दर्शक अन्य कोई नहीं है ॥37॥ अतः हे देव, आप के लिए नमस्कार है, गुणों के समुद्र आपको नमस्कार है, अनन्तज्ञानी, अनन्त दर्शनी और अनन्त सुखी आपको मेरा नमस्कार है ॥38॥ अनन्त महावीर्यशाली और दिव्य सुमूर्ति आपको नमस्कार है, अद्भुत महालक्ष्मी से विभूषित होकरके भी महाविरागी आपको नमस्कार है ॥39॥ असंख्य देवांगनाओं से आवृत होने पर भी ब्रह्मचारी आपको नमस्कार है । मोहारि शत्रुओं के नाशक होने पर भी दयालु चित्तवाले आपको नमस्कार है ॥40॥ कर्मशत्रु के विजेता होने पर भी शान्तरूप आपको नमस्कार है, विश्व के नाथ और मुक्तिस्त्री के वल्लभ (प्रिय ) आपको नमस्कार है ॥41॥ हे सन्मति, आपको मेरा नमस्कार है, हे महावीर, आपको मेरा नमस्कार है और हे वीर प्रभो, हे देव, आत्म-सिद्धि के लिए आपको मेरा मस्तक झुकाकर नित्य नमस्कार है ॥42॥ हे देव, इस स्तवन, सद्भक्ति और नमस्कार के फल से आप हमें भव-भव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिपूर्वक अपने चरण-कमलों में एकमात्र भक्ति को ही दीजिए। हे भगवन् , हम इस के सिवाय और अधिक कुछ भी नहीं चाहते हैं। क्योंकि वह एक भक्ति ही हमारे इस लोक में और परलोक में निश्चय से तीन लोक में सारभूत सुखों को और मनोवांछित सर्व फलों को देगी॥४३-४५॥ इस प्रकार इन्द्र के निवेदन करने से भी पहले भगवान् जगत् के सम्बोधन करने के लिए उद्यत थे, किन्तु फिर भी इन्द्र की प्रार्थना से और तीर्थकर प्रकृति के विपाक से वे त्रिजगद्गुरु भव्य जीवों को समस्त दुर्मार्गों से हटाकर और भ्रमरहित मुक्तिमार्ग पर स्थापित करने के लिए उद्यत हुए ॥46-47॥ अथानन्तर देवों के द्वारा उत्तम चवरों से वीज्यमान, द्वादश गणों से आवृत, श्वेत तीन छत्रों से शोभित और उत्कृष्ट विभूति से विभूषित भगवान् ने करोड़ों बाजों के बजने पर संसार को सम्बोधन के लिए विहार करना प्रारम्भ किया ॥48-49॥ उस समय करोड़ों पटह (ढोल) और तूर्यों (तुरई) के बजने पर तथा चलते हुए देवों से तथा छत्र-ध्वजा आदि की पंक्तियों से आकाश व्याप्त हो गया ॥50॥ हे ईश, जगत् के जीवों के शत्रुभूत मोह को जीतनेवाले आप की जय हो, आप आनन्द को प्राप्त हों, इस प्रकार से जय, नन्द आदि शब्दों की तीन लोक में घोषणा करते हुए देवगण भगवान को सर्व ओर से घेरकर निकले ॥51॥ सुर और असुर देवगण जिन के अनुगामी हैं ऐसे श्री वीर जिनेन्द्र अनिच्छापूर्वक गति को प्राप्त होते हुए सूर्य के समान विहार करने लगे ॥52॥ विहार करते समय सर्वत्र भगवान् के अवस्थान से सवें दिशाओं में सौ योजन तक सभी ईति-भीतियों से रहित सुभिक्ष (सुकाल) रहना है ॥53॥ धर्मचक्र जिन के आगे चल रहा है, ऐसे वीर प्रभु ने संसार के भव्य जीवों के उपकार के लिए गगनांगण में चलते हुए अनेक देश, पर्वत और नगरादि में विहार किया ॥54॥ वीर प्रभु के साम्य भाव के प्रभाव से क्रूर जातिवाले सिंहादि के द्वारा मृगादि के कदाचित् भी बाधा और भयादि नहीं होता था ॥55॥ घातिकर्मों के विनाश से विशिष्ट नोकर्मरूप अहार से पुष्ट और अनन्त सुख के भोक्ता वीतरागी भगवान् के असाता कर्म के अति मन्द उदय होने से कवलाहाररूप भोजन नहीं होता है तथा इन्द्रादि से वेष्टित और अनन्तचतुष्टय के धारक भगवान के मनुष्यादि कृत उपसगे भी नहीं होता है ॥56-57॥ समवशरण में तथा विहार करते समय सर्वत्र होनेवाली व्याख्यानसभाओं में द्वादश गणों के द्वारा त्रिजगद्गुरु चारों दिशाओं में चार मुखवाले दिखाई देते हैं ॥58॥ दुष्ट घातिकर्मों के विनाश से केवलज्ञान-नेत्र वाले भगवान् के समस्त विद्याओं का विश्वार्थदर्शक स्वामित्व प्राप्त हो गया था ॥59॥ तीर्थंकर के दिव्यदेह की छाया नहीं पड़ती है, उनके नेत्रों की कभी भी पलकें नहीं झपकती हैं और न उस त्रिलोकीनाथ के नख और केशों की वृद्धि ही होती है ॥60॥ इस प्रकार अन्य साधारण जनों में नहीं पाये जानेवाले ये दशों दिव्य अतिशय चार घातिकर्मो के नाश से प्रभु के स्वयं ही प्रकट हो गये थे ॥61॥ तीर्थंकर प्रभु की भाषा सर्वार्ध-मागधी थी जो कि सर्वाङ्ग से उत्पन्न हुई ध्वनिस्वरूप थी। वह सर्व अक्षररूप दिव्य अंगवाली, समस्त अक्षरों की निरूपक, सर्व को आनन्द करनेवाली, पुरुषों के सर्व सन्देहों का नाश करनेवाली, दोनों प्रकार के धर्म और समस्त तत्त्वार्थ को प्रकट करनेवाली थी ॥62-63॥ सद्गुरु के प्रभाव से कृष्ण सर्प और नकुल आदि जाति स्वभाव के कारण वैर पाले जीवों के बन्धुओं के समान परम मित्रता हो जाती है ॥64॥ प्रभु के प्रभाव से सभी वृक्ष सर्व ऋतुओं के फल-पुष्पादि को प्रभु के उत्तम तपों का अति महान फल दिखलाते हए के समान फलने-फल ने लगे ॥65॥ इस धर्म सम्राट के सभामण्डल में ओर दर्पण के समान निर्मल दिव्य रत्नमयो हो गयी ॥66॥ जगत् को सम्बोधन करने में उद्यत और विहार करते हुए त्रिलोकीनाथ के सर्व ओर सर्व प्राणियों को सुख करनेवाला शीतल मन्द सुगन्धि वाला पवन बह ने लगता है ॥67॥ तीर्थंकर प्रभु के ध्यान-जनित महान् आनन्द से सर्वदा शोकमुक्त पुरुषों के भी धर्म और सुख का करनेवाला आनन्द प्राप्त होता है ॥68॥ पवनकुमारदेव त्रिजगद्गुरु के सभास्थान से एक योजन के अन्तर्गत भूमिभाग को तृण, कंटक और कीड़े आदि से रहित एवं मनोहर कर देते हैं ॥69॥ मेघकुमार नामक देव भक्ति से विद्युन्माला आदि से युक्त गन्धोदकमयी वर्षा जिनभगवान् के सर्व ओर करते हैं ॥70॥ प्रभु के गमन करते समय उनके चरण-कमलों के नीचे, आगे और पीछे सात-सात संख्या के प्रमाण-युक्त, दिव्य केसर और पत्रवाले सुवर्ण और रत्नमयी महा दीप्तिमान् कमलों को बिछाते हुए चलते हैं ॥71-72॥ भगवान के निकटवर्ती क्षेत्रों में संसार को तृप्त करनेवाले ब्रीहि आदि सर्व प्रकार के धान्य और सर्व ऋतुओं के फलों से नम्र वृक्ष देवों के द्वारा शोभा को प्राप्त होते हैं ॥73॥ कर्ममल से रहित जिनेन्द्र के सभास्थान में आकाश के साथ सर्व दिशाएँ देवों के द्वारा निर्मल होती हुई शोभित होती हैं, जो पाप से मुक्त हुई के समान प्रतीत होती हैं ॥74॥ तीर्थंकर प्रभु की विहारयात्रा में साथ चलने के लिए चतुर्णिकाय के देव इन्द्र के आदेश से परस् पर बुलाते हैं ॥75॥ तीर्थंकर प्रभु के चलते समय चमकते हुए रत्नों से निर्मित, दीप्तियुक्त, एक हजार आरेवाला, अन्धकार का नाशक और देवों से वेष्टित धर्मचक्र आगे-आगे चलता है ॥76॥ विश्व के मंगल करनेवाले भगवान के विहारकाल में देव लोग दर्पण आदि आठ मंगल द्रव्यरूप सम्पदा को हर्ष के साथ लेकर आगे-आगे चलते हैं ॥77॥ इन महान् चौदह अतिशयोंको, जो कि जगत् के अन्य सामान्य लोगों के लिए असाधारण हैं, महान् अतिशयशाली देव भक्ति से सम्पन्न करते हैं ॥78॥ इस प्रकार इन चौंतीस दिव्य अतिशयों से, आठ प्रातिहार्यों से, सद्ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय से एवं अन्य अनन्त दिव्य गुणों से अलंकृत वीरप्रभु ने अनेक देश-पुर-ग्राम-खेटों में क्रम से विहार करते हए, धर्मोपदेशरूपी अमृत के द्वारा सज्जनों को तृप्त करते, बहुतों को मुक्तिमार्ग में स्थापित करते, अनेकों का तत्व-दर्शनरूप वचनकिरणों से मिथ्याज्ञानरूप कुमार्ग के गाढ़ अन्धकार को हरते, मुक्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते, भव्य जीवों के लिए कल्पवृक्ष के समान सम्यक्त्व ज्ञान-चारित्र-तप और दीक्षारूपी मनोवांछित महामणियों को नित्य देते हुए चतुर्विध संघ और देवों से आवृत और धर्म के स्वामी ऐसे श्री वीरजिनेन्द्र राजगृह के बाहर स्थित विपुलाचल के उन्नत शिखर के ऊपर आये ॥79-84॥ वीर प्रभु का वनपाल के मुख से आगमन सुनकर राजा श्रेणिक ने भक्तिपूर्वक पुत्र स्त्रीबन्धु अनेक भव्यजनों के साथ आकर, हर्षित हो जगद्-गुरु को भक्ति से तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। तत्पश्चात् आत्म-शुद्धि के लिए भक्तिभार के वशंगत होकर आठ भेदरूप महाद्रव्यों से जिनेन्द्रदेवों की पूजा कर और पुनः नमस्कार कर अति भक्ति से उन की स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ ॥85-87॥ श्रेणिक ने कहा-हे नाथ, आज हम धन्य हैं, आज हमारा यह जीवन और मनुष्य जन्म पाना सफल हो गया, क्योंकि हमें आप-जैसे जगद्-गुरु प्राप्त हुए हैं ॥88॥ आप के चरण-कमलों के देखने से आज हमारे ये दोनों नेत्र सफल हो गये हैं, आप के चरण-कमलों को प्रणाम करने से हे देव, हमारा यह सिर सार्थक हो गया है। हे स्वामिन, आज आप के चरणों की पूजा से मेरे दोनों हाथ धन्य हो गये हैं, आपको दर्शन-यात्रा से हमारे दोनों पैर कृतकृत्य हो गये हैं और आप के स्तवन से हमारी वाणी सार्थक हो गयी है ॥89-90॥ आज मेरा मन आप का ध्यान करने और गुणों के चिन्तन से पवित्र हो गया, आप की सेवाशुश्रूषा से सारा शरीर पवित्र हो गया और हमारे पापरूपी शत्रु का नाश हो गया है ॥9॥ हे नाथ, आप जैसे जहाज को पाकरके यह अपार संसार-सागर चल्ल-भर जल के समान प्रतिभासित हो रहा है। इसलिए अब हमें क्या भय है ॥12॥ इस प्रकार जगत् के नाथ वीर प्रभु की स्तुति कर, पुनः हर्ष से संयुक्त हो नमस्कार कर उत्तम धर्म को सुनने के लिए मनुष्यों के कोठे में जा बैठा ॥93॥ वहाँ पर बैठे हुए राजा ने भक्ति से जगद्-गुरु की दिव्यध्वनि के द्वारा मुनि और गृहस्थों का धर्म, सर्व तत्त्व, जिनेन्द्रों के पुराण, पुण्य-पाप के फल, सुधर्म के क्षमादिक लक्षण, और अहिंसादि व्रतों को सुना ॥94-95॥ तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने श्रीगौतम प्रभु को नमस्कार कर पूछा-हे भगवन् , मेरे ऊपर दया करके मेरे पूर्वजन्मों को कहिए ॥16॥ श्रेणिक के प्रश्न को सुनकर परोपकारी श्री गौतमगणधर बोले-हे श्रीमन् , मैं तेरे तीन भव से सम्बन्ध रखनेवाले वृत्तान्त को कहता हूँ सो तू सुन ॥97॥ इसी जम्बूद्वीप में विन्ध्याचल पर कुटव नामक वन में एक खदिरसार नाम का भला भील रहता था ॥98॥ उस बुद्धिमान् ने किसी समय पुण्योदय से सर्व प्राणियों के हित करने में उद्यत समाधिगुप्त योगी को देखकर प्रणाम किया ॥99॥ उन्हों ने 'हे भद्र, तुझे धर्मलाभ हो' यह आशीर्वाद दिया। यह सुनकर उस भील ने मुनीश्वर से पूछा-हे नाथ, वह धर्म कैसा है, उस से प्राणियों का क्या कार्य सिद्ध होता है। उसका क्या कारण है और उस से इस लोक में क्या लाभ है, यह मुझे वतलाइए ॥100-101॥ उसके इन वचनों को सुनकर योगिराज ने कहाहे भव्य, मधु, मांस और मदिरा आदि के खान-पान का बुद्धिमानों के द्वारा त्याग किया जाना और जीव-हिंसा से दूर रहना धर्म है ॥102॥ उस धर्म के करने पर उत्तम पुण्य होता है, पुण्य से महान स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है। ऐसे धर्म का जो लाभ (प्राप्ति) यहाँ पर हो. वही धर्मलाभ कहा जाता है ॥103॥ यह सुनकर वह भील उन से इस प्रकार बोला-हे मुनिराज, मैं मांस-भक्षण और मदिरा-पान आदि का निश्चित रूप से त्याग करने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥104॥ तब उसका अभिप्राय जानकर मुनिराज ने उस भील से कहा-क्या तू ने पहले कभी काक का मांस खाया, अथवा नहीं, यह मुझे बता ॥105॥ यह सुनकर वह बोला-मैं ने कभी काक-मांस नहीं खाया है । तब योगी बोले-यदि ऐसी बात है तो हे भद्र, सुख प्राप्ति के लिए तू अब उसके खा ने के त्याग का नियम ग्रहण कर। क्योंकि नियम के बिना बुद्धिमानों को कभी पुण्य प्राप्त नहीं होता है ॥106-107॥ वह भील भी मुनिराज के यह वचन सुनकर सन्तुष्ट होकर बोला-'तब मुझे व्रत दीजिए', ऐसा कहकर और उन से काक-मांस नहीं खाने का शीघ्र व्रत लेकर और मुनि को नमस्कार कर अपने घर चला गया ॥108॥ अथानन्तर किसी समय पाप के उदय से उसके असाध्य रोग के उत्पन्न होने पर वैद्य ने उस रोग की शान्ति के लिए 'काक-मांस औषध है', ऐसा कहा ॥109॥ तब काक-मांस के खा ने के लिए स्वजनों से प्रेरित हुआ वह चतुर भील इस प्रकार बोला-अहो, कोटि भवों में बड़ी कठिनता से प्राप्त व्रत को छोड़कर जो अज्ञानी अपने प्राणों की रक्षा करते हैं, उस से धर्मात्माओं का क्या प्रयोजन साध्य है ? क्योंकि प्राण तो भव-भव में सुलभ हैं, किन्तु शुभवत पाना सुलभ नहीं है ॥110-111॥ इसलिए प्राणों का परित्याग करना उत्तम है, किन्तु व्रत-भंग करके जीवित रहना अच्छा नहीं है। व्रत की रक्षा करते हुए प्राण-त्याग से स्वर्ग प्राप्त होगा और व्रत-भंग करने से नरक प्राप्त होगा ॥112॥ ( इस प्रकार कहकर उस ने औषधरूप में भी काकमांस को खाना स्वीकार नहीं किया। रोग उत्तरोत्तर बढ़ ने लगा। यह समाचार उस की ससुराल पहुँचा।) तब उसके इस नियम को सुनकर सूरवीर नाम का उसका साला शोक से पीडित होकर अपने सारस पर से चला और मार्ग में आते हए उस ने महागहन वन के मध्य में स्थित वटवृक्ष के नीचे रोती हुई किसी देवी को देखकर पूछा-हे देवते, तू कौन है, और किस कारण से रो रही है ? यह सुनकर वह बोली-हे भद्र, तुम मेरे यह वचन सुनो॥११३-११५॥ मैं वनयक्षी हूँ और इस वन में रहती हूँ। पाप के उदय से तुम्हारा खदिरसार बहनोई व्याधि से पीड़ित है । वह मरकर काक-मांस की निवृत्ति से प्राप्त पुण्य के फल से मेरा पति होगा। किन्तु हे शठ, काक-मांस खिला ने के लिए जाते हुए तुम उसे नरक में भेजकर वृथा ही घोर दुःखों का भाजन बनाना चाहते हो। इस कारण शोक से आज मैं रोदन कर रही हूँ ॥116-118॥ उस की यह बात सुनकर वह बोला-हे देवि, तुम शोक को छोड़ो, मैं उसके नियम का कभी भी भंग नहीं करूंगा ॥119॥ इस प्रकार कहकर और उसे सन्तुष्ट कर वह शीघ्र उस बीमार खदिरसार के पास आया और उसके परिणामों की परीक्षा के लिए ये वचन बोला ॥120॥ हे मित्र, रोग के दूर करने के लिए तुम्हें यह काक-मांस उपयोग में लेना चाहिए। अरे, जीवन के रहने पर यह पुण्य तो फिर भी किया जा सकता है ॥121॥ अपने साले के यह वचन सुनकर वह बुद्धिमान खदिरसार बोला-हे मित्र, ये लोक-निन्द्य, नरक देनेवाले और. धर्म के नाशक वचन कहना उचित नहीं है ॥122॥ मेरी यह अन्तिम अवस्था आ गयी है, अतः इस समय तुम धर्म के कुछ अक्षर बोलो, जिस से कि परलोक में मेरी यह आत्मा सुखी होवे ॥123॥ उसका यह निश्चय जानकर तत्पश्चात् उस ने यक्षी का सर्व कथानक और उसके व्रत का फल अतिप्रीति से खदिरसार को बतलाया ॥124॥ उसके वचन सुनकर उस सुधी खदिरसार ने धर्म और धर्म के फल में संवेग को धारण कर और सर्व प्रकार के मांसादिक को छोड़कर अणुव्रतों को ग्रहण कर लिया ॥125॥ जीवन-काल के अन्त में प्राणों को समाधि से त्यागकर वह उसके फल से सौधर्म स्वर्ग में अनेक सुखों का भोक्ता महर्धिक देव हुआ ॥126॥ तत्पश्चात् अपने नगर को जाते हुए सूरवीर ने वन के उसी स्थान पर उस यक्षी को देखकर आश्चर्ययुक्त हृदय होकर उस से स्वयं ही पूछा-हे देवि, मेरा वह बहनोई क्या अब तेरा पति हुआ है, अथवा नहीं हुआ है ? वह बोली-वह मेरा पति नहीं हुआ, किन्तु सर्व व्रतों से उपार्जित पण्य से सौधर्म नाम के प्रथम स्वर्ग में हमारी व्यन्तरों की क्षुद्र जाति से पराङमुख, उत्कृष्ट जाति का महाऋद्धिधारी देव हुआ है ॥127-129॥ वहाँ पर वह स्वर्ग की लक्ष्मी को पाकर जिनेश्वर देव की पूजा को करता हुआ देवियों के समूह से उत्पन्न हुए परम सुख को भोग रहा है ॥130॥ यक्षी की यह बात सुनकर वह बुद्धिमान सूरवीर अपने हृदय में इस प्रकार विचारने लगा-अहो, व्रत को शीघ्र प्राप्त हुए उत्तम फल को देखो ॥131॥ जिस व्रत के द्वारा परलोक में ऐसी स्वर्ग-सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं, उस व्रत के बिना मनुष्य को काल की एक कला भी कभी बिताना योग्य नहीं है ॥132॥ ऐसा विचार कर और शीघ्र ही समाधिगुप्त मुनिराज के पास जाकर, उन्हें नमस्कार कर उस भव्य ने गृहस्थों के व्रतों को हर्ष के साथ ग्रहण कर लिये ॥133॥ खदिरसार का जीव वह देव दो सागरोपम काल तक वहाँ के महासुखों को भोगकर और स्वर्ग से च्युत होकर पुण्य के विपाक से कुणिक राजा और श्रीमती रानी के श्रेणिक नाम से प्रसिद्ध नृपोत्तम और भव्य जीवों की पंक्ति में- से मोक्ष जाने में अग्रसर पुत्र हआ है ॥134135॥ अपने पूर्वजन्म की इस कथा को सुनने से तत्त्वों में जिनेन्द्रदेव, जिनधर्म और जिनगुरु आदि में परम श्रद्धा को प्राप्त होकर उन्हें नमस्कार कर पुनः पूछा ॥136॥ हे देव, धर्मकार्य में मेरी भारी श्रद्धा है, किन्तु किस कारण से अभी तक मेरे कोई जरा-सा भी व्रत या गुण धारण करने का भाव नहीं हो रहा है ॥137॥ यह सुनकर गौतम गणधर ने कहा-हे सुधी, तीन मिथ्यात्वभाव के द्वारा आज से पूर्व ही तू ने इसी जीवन में हिंसादि पाँचों पापों के आचरणसे, बहुत आरम्भ और परिग्रहसे, अत्यन्त विषयासक्ति से और सत्य धर्म के विना बौद्धों की भकि से नरकायु को बाँध लिया है, अतः उस दोष से तेरे रंचमात्र भी व्रत का परिग्रह नहीं है। क्योंकि देवायु को बाँधनेवाले जीव ही मुनि और श्रावक के दो भेदरूप धर्म को स्वीकार करते हैं . ॥138-140॥ (अपने नरकायु का बन्ध सुनकर राजा श्रेणिक मन ही मन विचारनेलगा-अहो भगवान् , तब इस से मेरा कै से छुटकारा होगा? उसके मन की यह बात जानकर गौतम ने कहा-) संसार से उद्धार करनेवाला सम्यक्त्व है । वह दश प्रकार का है-१ आज्ञासम्यक्त्व, 2 मार्ग सम्यक्त्व, 3 उपदेशसम्यक्त्व, 4 सूत्रसम्यक्त्व, 5 बीजसम्यक्त्व, 6 संक्षेपसम्यक्त्व, 7 विस्तारसम्यक्त्व, 8 अर्थोत्पन्नसम्यक्त्व, 9 अवगाढ़सम्यक्त्व और 10 परमावगाढ़सम्यक्त्व । यह दश प्रकार का सम्यक्त्व मोक्षरूप प्रासाद में जाने के लिए प्रथम सोपान है ॥141-142॥ सर्वज्ञदेव की आज्ञा के निमित्त से जीवादि छह द्रव्यों में दृढ़ रुचि या श्रद्धा होती है, वह उत्तम आज्ञासम्यक्त्व है ॥143॥ यहाँ पर परिग्रह-रहित निश्चेल (वस्त्र-रहित दिगम्बर ) और पाणिपात्रभोजी साधु आदि के लक्षणवाले निर्ग्रन्थ धर्म को मोक्षमार्ग की जो दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह मार्ग सम्यक्त्व है ॥144॥ तिरेसठ शला का पुरुष आदि महामानवों के पुराणों को सुनने से जो आत्म-निश्चय या धर्म-श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह लोक में उपदेशनामक सम्यक्त्व है ॥145॥ आचारादि अंगों में कही तपश्चरणक्रिया के सुनने से ज्ञानियों को जो उस में रुचि उत्पन्न होती है, वह सूत्रसम्यक्त्व है ॥146॥ बीजपदों को ग्रहण करने से और उनके सूक्ष्म अर्थ के सुनने से भव्यजीवों के जो तत्त्वार्थ में रुचि उत्पन्न होती है, वह बीज सम्यक्त्व है ॥147॥ जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथन को सुनकर ही जो बुद्धिमानों के हृदय में श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सुखकारण संक्षेपसम्यक्त्व कहा जाता है ॥148॥ जीवादि पदार्थों के विस्तार-युक्त कथन को सुनकर प्रमाण और नयों के विस्तारद्वारा जो धर्म में निश्चय उत्पन्न होता है, वह विस्तार सम्यक्त्व है ॥149॥ द्वादशांगश्रुतरूप समुद्र का अवगाहन कर वचन-विस्तार को छोड़कर और अर्थमात्र को अवधारण कर जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अर्थसम्यक्त्व है ॥150॥ अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के रहस्य चिन्तन से क्षीणकषायी योगी के जो दृढ़ रुचि उत्पन्न होती है, वह अवगाढ़सम्यक्त्व है ॥151॥ तथा केवलज्ञान के द्वारा अवलोकित समस्त पदार्थों पर जो चरम सीमा को प्राप्त अत्यन्त दृढ़ रुचि उत्पन्न होती है वह परमावगाढ़ नाम का सम्यक्त्व है ॥152॥ इस प्रकार जिनेन्द्र देव ने तात्त्विक दृष्टि से सम्यक्त्व के दश भेद कहे हैं। हे राजन्, उन में से कितने भेद तेरे हैं ॥153॥ जगद्-वन्द्य दर्शनविशुद्धि आदि षोड़ा कारणोंमें से कुछ या सब कारणों से त्रिजगद्-गुरु श्री वर्धमानस्वामी के समीप जगत् में आश्चर्य का कारण तीर्थकर नामकर्म यहाँ पर निश्चय से बाँधकर जीवन के अन्त में पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से रत्नप्रभापृथिवीवाले नरक में जाओगे। वहाँ पर उपार्जित कर्मो का फल भोगकर आगामी चार काल-प्रमाण अर्थात् चौरासी हजार वर्षों के बाद वहाँ से निकलकर हे भव्य, तू महापद्मनाम का धर्मतीर्थ का प्रर्वतक, सज्जनों का क्षेम-कुशलकर्ता, आगामी उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर होगा, इस में कोई सन्देह नहीं है ॥154-157॥ हे राजन् , तुम निकटभव्य हो, अब इस अल्पकालिक संसार के परिभ्रमण से मत डरो। क्योंकि इस के भीतर परिभ्रमण करनेवाले प्राणी अनेक बार पहले नरक गये हैं ॥158॥ अपनी रत्नप्रभागत नरक की प्राप्ति की बात सुनकर विषाद को प्राप्त हुए श्रेणिक ने पुनः श्री गौतमगणधर को नमस्कार करके इस प्रकार पूछा ॥159॥ हे भगवन् , इस विशाल, पुण्यधामवाले मेरे नगर में मेरे विना क्या और कोई पुरुष अधोगति (नरक) को जायेगा, या नहीं ? श्रेणिक की बात सुनकर उसके अनुग्रह करने के लिए श्रीगौतम ने कहा-हे धीमन् , तेरे शोक को दूर करनेवाले मेरे यथार्थ वचन सुनो ॥160-161॥ इसी राजगृहनगर में भवस्थिति के वश से पूर्वभव में मनुष्यायु को बाँधकर नीचगोत्र के उदय से अत्यन्त नीच कुल में उत्पन्न हुआ कालशौकरिक नाम का कसाई रहता है । अब उसे सात भव-सम्बन्धी जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ है, अतः वह विचारनेलगा है कि यदि पुण्य-पाप के फर से जीवों का सम्बन्ध होता, तो मैं ने पुण्य के बिना यह मनुष्य जन्म कै से पा लिया? इसलिए न पुण्य है और न पाप है। किन्तु इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न हुआ वैषयिक सुख ही कल्याण-कारक है ॥162-164॥ ऐसा मानकर वह पापात्मा निःशंक होकर हिंसादि पाँचों पापों को और मांसादि के आहार को निश्चयतः करता है । इन पापों के फल से तथा बहुत आरम्भ और परिग्रह से उस ने नरकायु को बाँध लिया है । जीवन के अन्त में वह उक्त पापों के उदय से अन्तिम (सातवें ) नरक को जायेगा ॥165-166॥ तथा इसी नगर में शुभानामवाली एक ब्राह्मणपुत्री है, वह राग से अन्धी और मद से विह्वल है। तीव्र स्त्रीवेद के उदय से शील-रहित है, अर्थात् व्यभिचारिणी है, और विवेक-रहित है । वह गुणी, शीलवान् और सदाचारी पुरुषों को देखकर और सुनकर अत्यन्त कुपित होती है। उस ने भी इन्द्रिय विषय-सेवन की अतीव लम्पटता से नरकायु बाँध ली है। वह भी जीवन के अन्त में रौद्रध्यान से मरकर पाप के फल से निन्द्य और .सर्वदुःखों की खानिवाली तमःप्रभा नाम की छठी नरकभूमि जायेगी॥१६७-१६९॥ (यह सुनकर राजा श्रेणिक कुछ आश्वस्त हुए।) जब गौतमस्वामी नरक जानेवाले उक्त दोनों की बात कह चुके, तब अभयकुमार ने गणधरदेव को नमस्कार करके अपने पूर्वभवों को पूछा ॥170॥ उसके अनुग्रह की बुद्धि से गौतमस्वामी ने उस की भवावली को इस प्रकार से कहना प्रारम्भ किया-हे भद्र, इस भरत क्षेत्र में सुन्दरनाम का एक ब्राह्मणपुत्र था। वह तीन मूढ़ताओं से युक्त मिथ्यादृष्टि था। वह कुबुद्धि वेदों के अभ्यास के लिए एकबार जब अहंदास जैनी के साथ मार्ग में जा रहा था तब किसी स्थान पर पीपल के वृक्ष के नीचे रखी हुई पत्थरों की राशि को देखकर 'यह मेरा देव है' ऐसा कहकर और उस वृक्ष की तीन प्रदक्षिणा देकर उस ने उसे नमस्कार किया ॥171-173॥ उस की यह चेष्टा देखकर उसे समझा ने के लिए अर्हद्दास ने हँसकर और पैर से उसे मर्दन कर उसे तोड़ दिया ॥174। वहाँ से आगे जाने पर कपिरोमा ( करेंच ) नाम की वेलि के समूह को देखकर उस अहंदास श्रावक ने 'यह मेरा देव है ऐसा कहकर मायाचार से उसे नमस्कार किया ॥175। यह देखकर उस सुन्दर ब्राह्मण-पुत्र ने पहले की ईर्ष्या से उसे दोनों हाथों से उखाड़कर और उस की फलियों को मसलकर सारे शरीर में रगड़ डाला। उस की रगड़ से उसके सारे शरीर में असह्य वेदना हुई । उस से डरकर वह अर्हद्दास से बोला-अहो, तेरा देव सच्चा है । तब वह जैनी हँसकर उसके सम्बोधन के लिए बोला ॥176-177॥ अरे भद्र, ये वृक्ष पाप के उदय से यहाँ एकेन्द्रिय वनस्पति की पर्याय को प्राप्त हैं। ये किसी का निग्रह या अनुग्रह करने में असमर्थ हैं, ये कभी देव नहीं कहे जा सकते ॥178॥ किन्तु सच्चे देव तो तीर्थकर ही हैं, जो कि सांसारिक सुख और मुक्ति को देनेवाले हैं, तीन लोक के ज्ञान से युक्त हैं। वे ही पूजनीय देव हैं। उनके सिवा इस लोक में और कोई देव नहीं है ॥179॥ इत्यादि वचनों से अर्हदास ने उस ब्राह्मण-पुत्र की देव मूढ़ता को दूर किया। तत्पश्चात् क्रम से चलते हुए वे दोनों गंगा नदी के किनारे आ पहुँचे ॥180॥ तब उस मिथ्यादृष्टि ब्राह्मणपुत्र ने 'यह तीर्थजल निश्चय से पवित्र है, शुद्धि का कारण है' यह कहकर उसके जल से स्नान कर उस की वन्दना की ॥181॥ वहाँ पर उस श्रावकोत्तम अर्हद्दास ने भोजन किया और खाने का इच्छुक देखकर उस ब्राह्मणपुत्र को अपने खा ने से बचे हुए जूठे अन्न को गंगा के जल से मिश्रित कर उसे खा ने के लिए दिया । यह देखकर वह बोला कि इन जूठे अन्न को मैं कै से खा सकता हूँ ? तब उस को सन्मार्ग प्राप्त करा ने के लिए वह जैनी बोला-हे मित्र, गंगाजल से मिश्रित भी यह जूठा अन्न यदि निन्दनीय है तो गधे आदि से जूठा किया गया जल कै से शुद्ध और शुद्धि को देनेवाला हो सकता है ॥182-184॥ अतः न जल पवित्र है, न जलस्थान तीर्थ है और न उस में किया गया स्नान मनुष्यों की शुद्धि कर सकता है। किन्तु जल में स्नान करने से अनेक प्राणियों का नाश होता है, अतः वह केवल पाप का कारण ही है ॥185॥ यह शरीर स्वभाव से अशुचि का भण्डार है, किन्तु इस के भीतर विराजमान आत्मा शुद्ध है, निर्मल है। स्नान से पवित्रता नहीं आती है, इस कारण स्नान करना व्यर्थ ही पापों का उपार्जन करनेवाला है ॥186॥ मिथ्यात्व आदि भावमल से मलिन जीव यदि स्नान करने से शुद्ध होते होवे, तब तो नित्य ही जल में स्नान करनेवाले मगर-मच्छादि वन्दन करने के योग्य हैं, दयायुक्त मनुष्य नहीं ॥187। इसलिए हे भद्र, यह गंगा तीर्थ नहीं है, किन्तु अर्हन्तदेव ही तीर्थ हैं और उनका वचनरूप अमृत जल ही जीवों की शुद्धि करनेवाला और अन्तरंग मल का विनाशक है ॥188॥ इस प्रकार तीर्थादि के सूचक सम्बोधनात्मक वचनों से अहंद्दास ने हठात् उस की तीर्थमूढ़ता दूर की ॥189॥ वहीं कुछ दूर पर गंगा के किनारे ही पंचाग्नि के मध्य में बैठे किसी तापस को देखकर वह विप्रपुत्र बोला-देखो, मेरे मत में ऐसे-ऐ से बहुत- से तपस्वी हैं॥१९०॥ तब उस अहंदास ने उसके गर्व को दूर करने के लिए कौलिकशास्त्र के तपसम्बन्धी अनेक वचनों के द्वारा उस तापस के साथ सम्भाषण किया और अपनी प्रबल युक्तियों से उसे मद-रहित करके उस जैनी ने उस ब्राह्मणपुत्र से स्पष्ट कहा-हे भद्र, ये कुतपस्वी क्या सच्चा तप करने के लिए समर्थ हैं ? अर्थात् नहीं हैं । किन्तु इस भूतल पर सर्वज्ञदेव ही सच्चे महान् देव हैं, परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ साधु ही सच्चे साधु हैं और वे ही वन्दनीय हैं। मनुष्य को दयामयी धर्म ही सेवन करना चाहिए ॥191-193॥ जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्त ही सत्य है और वही विश्व की सर्व वस्तुओं का दर्शक है, जिनशासन ही वन्दन करने के योग्य है और हिंसादि पापों से रहित निर्दोष तप ही प्राणियों को शरण देनेवाला है ॥194॥ इसलिए हे मित्र, कुमार्ग को शत्रु के समान छोड़कर इन सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु और दयामयी धर्म का निश्चय करके सम्यग्दर्शन को ग्रहण करो। यह सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है और सर्व सुखों की खानि है ॥195॥ इस प्रकार उस अहंहास के सम्बोधक वचनों को सुनकर उस सुन्दर विप्रपुत्र ने हर्ष के साथ मिथ्यादर्शन को छोड़कर काललब्धि के प्रभाव से सत्यधर्म को ग्रहण कर लिया ॥196॥ तत्पश्चात् मित्रता को प्राप्त वे दोनों द्विज गहन अटवी के मध्य में जाते हुए पापोदय से दिग्मूढ़ता को प्राप्त हो गन्तव्य दिशा भूल गये ॥197॥ जीवन के उपाय से रहित निर्जन वन में एकमात्र जिनेन्द्रदेव और जिनधर्म को ही शरण जानकर उन दोनों उत्तम ज्ञानियों ने आहार-शरीर आदि का त्याग कर और उत्साह को धारण कर मुक्ति की सिद्धि के लिए संन्यास को ग्रहण कर लिया ॥198-199॥ तदनन्तर अति धैर्य के साथ क्षुधा तृषादि परीषहों को सहनकर और शुभध्यान से समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर वे दोनों ब्राह्मण इस व्रताचरण से उपार्जित पुण्य के द्वारा सौधर्मस्वर्ग में भारी ऋद्धि के धारक अनेक सुरों से पूजित एवं दिव्य सुखों के भोक्ता देव हुए ॥200-201॥ वहाँ पर पुण्योदय से देव-सम्बन्धी सुख को चिरकाल तक भोगकर वह सुन्दर ब्राह्मण का जीववाला देव वहाँ से चय कर यहाँ पर श्रेणिक राजा के ऐसे चतुर महाप्राज्ञ अभयकुमार नाम के पुत्र हुए हो । और शीघ्र ही तप से कर्मो का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त होओगे ॥202-203॥ अभयकुमार की इस पूर्वभवसम्बन्धी उत्तम कथा को सुनकर वैराग्य से परिपूर्ण हुए कितने ही लोगों ने तो संयम को ग्रहण किया और कितने ही मनुष्यों ने अपने हृदय में श्रावक धर्म और सम्यग्दर्शन को धारण किया ॥204॥ इस प्रकार गौतमस्वामी से धर्म और श्रुतरूप अमृत को पीकर अभयकुमार पुत्र के साथ श्रेणिक राजा भक्तिपूर्वक श्रीवीरजिन को और गौतम गणधर को नमस्कार कर अपने राजगृह नगर को चला गया ॥205॥ __ अथानन्तर वीर जिनेन्द्र के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति गौतम प्रथम गणधर थे। दूसरे वायुभूति, तीसरे अग्निभूति, चौथे सुधर्मा, पाँचवे मौर्य, छठे मौंड्य, ( मण्डिक ) सातवें पुत्र (?), आठवें मैत्रेय, नवें अकम्पन, दशवें अन्धवेल, और ग्यारहवें प्रभास गणधर हुए। ये वीर भगवान के सभी ग्यारह गणधर देव-पूजित और चार ज्ञान के धारक थे ॥206-207॥ भगवान महावीर के समवशरण में चतुर्दश पूर्व के अर्थ को धारण करनेवाले तीन सौ थे। नौ हजार नौ सौ चारित्र आचरण करने में उद्यत शिक्षक मुनि थे, तेरह सौ मुनि अवधिज्ञान से भूषित थे। उनके ही समान ज्ञानवाले सात सौ केवलज्ञानी थे । नौ सौ मुनि विक्रिया ऋद्धि से युक्त थे। पाँच सौ पूज्य मनःपर्ययज्ञानी थे, चार सौ अनुत्तरवादी थे। इस प्रकार ये सब मिलकर चौदह हजार साधु श्रीवर्धमानस्वामी के शिष्य परिवार में थे और ये सब रत्नत्रय से विभूषित थे ॥208-212॥ चन्दन आदिक छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं। वे सब उत्तम तप और मूलगुणों से युक्त थीं और भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करती थीं ॥213॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और गहस्थव्रतों से संयक्त एक लाख श्रावक थे और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। ये सभी जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों को पूजते थे ॥214॥ असंख्यात देव और देवियाँ भगवान् के पादारविन्दों की दिव्य स्तुति, नमस्कार, पूजा और करोड़ों प्रकार के उत्सवों से सेवा करते थे ॥215॥ सिंह-सर्पादि शान्तचित्त, व्रत-युक्त, भक्तिमान और भवभीरु संख्यात तिथंचों ने वीर भगवान् का आश्रय लिया था.॥२१६॥ भक्तिभार से व्याप्त इन बारह गणों से वेष्टित जगत् के नाथ श्रीवर्धमान तीर्थंकर देव तत्पश्चात् धीरे-धीरे विहार करते, नाना देश-पुर-ग्राम वासी जनों को सम्बोधते, धर्मोपदेश से मोक्षमार्ग में स्थिर करते हुए तथा अपनी वचन-किरणों से अज्ञानान्धकार का नाश कर और उत्तम मार्ग का प्रकाश कर छह दिन कम तीस वर्ष तक विहार करके क्रम से फल-पुष्पादि शोभित चम्पानगरी के उद्यान में आये ॥217-220॥ वहाँ पर दिव्यध्वनि को और योग को रोककर निष्क्रिय हो उन्हों ने मुक्ति-प्राप्ति के लिए अघाति कमौ का हनन करनेवाला प्रतिमायोग ग्रहण कर लिया ॥22॥। तत्पश्चात् उन्हों ने देवगति, पाँच शरीर, पाँच संघात नामकर्म, पाँच बन्धन, तीन अंगोपांग, छह संहनन, छह संस्थान, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दोनों विहायोगति, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश-कीर्ति, असातावेदनीय, नीचगोत्र और निर्माण नामकर्म इन बहत्तर संख्यावाली मुक्ति की बाधक प्रकृतियों को जिनोत्तम वर्धमान स्वामी ने योगशक्ति से अयोगिगुणस्थान में चढ़कर चौथे महाशुक्लध्यानरूप खड्ग से अपने शत्रुओं को सुभट के समान उस गुणस्थान के द्विचरम समय में एक साथ क्षय कर दिया ॥222228॥ तत्पश्चात् आदेयनाम, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यायु, पर्याप्तिनाम, त्रस, बादरनाम, सुभग, यशःकीर्ति, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और तीर्थकरनामकमे इन तेरह प्रकृतियों को वर्धमानतीर्थश्वर ने उसी शुक्ल ध्यान के द्वारा अयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय कर दिया ॥229-231॥ इस प्रकार शुभ कार्तिक मास की अमावस्या तिथि के दिन स्वाति नक्षत्र में श्रेष्ठ प्रभात समय समस्त कर्मशत्रुओं के तीनों शरीरों का विनाश कर उस निर्मल आत्मा ने ऊर्ध्वगति स्वभाव होने से ऊपर जाकर निर्वाण ( मोक्ष ) को प्राप्त किया ॥232-233॥ वहाँ पर क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणस्वरूप सिद्धपना को प्राप्त कर वे अमूर्त वर्धमान सिद्धपरमेष्ठी उपमा-रहित, विषयातीत, परद्रव्यों के सम्बन्ध से रहित, दुःखों से रहित, बाधाओं से रहित, क्रम से रहित, नित्य, स्वात्मीय, परम शुभ अनन्त सुख को भोग रहे हैं ॥234-235॥ संसार में नरपति, विद्याधरपति, देवपति, आर्य और म्लेच्छ मानव और अन्य भी तीन लोक के जीव जिस उत्तम सुख को वर्तमान में भोग रहे हैं, भूतकाल में उन्हों ने भोगा है और भविष्यकाल में वे भोगेंगे, वह सब यदि एकत्रित कर दिया जाये, तो उस से भी अनन्तगुणा वचन-अगोचर सुख मोक्ष में एक समय के भीतर भोगते हैं। ऐसा सर्वोत्कृष्ट सुख जगद्-वन्द्य वीर सिद्धप्रभु मोक्ष में निरन्तर अनन्त कालतक भोगते रहेंगे ॥236-238॥ अथानन्तर अपने-अपने पृथक् चिह्नों से भगवान् का निर्वाण जानकर समस्त चतुनिकाय के देवेन्द्रों ने अपने-अपने देव-परिवार के साथ परम विभूति से गीत-नृत्यमहोत्सव करते हुए आत्मसिद्धयर्थ अन्तिम निर्वाणकल्याणक की पूजा करने के लिए वहाँ पर आये ॥239-240॥ निर्वाण का साधक प्रभु का यह शरीर पवित्र है, ऐसा मानकर उन देवों ने चमकते हुए मणियोंवाली पालकी में बड़ी भारी विभूति के साथ उसे विराजमान किया ॥241॥ पुनः तीन जगत् में सारभूत सुगन्धी द्रव्य समूह से उस शरीर की पूजा कर भक्ति से रत्नमुकुटधारी मस्तक से उन्हों ने उसे नमस्कार किया ॥242॥ तत्पश्चात् अग्निकुमार देवेन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई अग्नि से वह शरीर गगनाङ्गण को सुगन्धित करता हुआ पर्यायान्तर ( भस्मभाव ) को प्राप्त हुआ ॥243॥ ___ तब इन्द्रादिक देवों ने 'यह हमारे भी शीघ्र निर्वाण का साधक हो इस प्रकार कहकर उस पवित्र भस्म को हाथ में ग्रहण करके पहले मस्तकपर, फिर नेत्रोंमें, फिर बाहुओंमें, फिर हृदय पर और फिर सर्वांगों में भक्तिपूर्वक मोक्षगति की प्रशंसा करते हुए लगाया ॥244-245॥ वहीं पर उस उत्तम पवित्र भमितल को उत्कृष्ट भक्ति से पजकर आगे धर्म की प्रवृत्ति के लिए उसे निर्वाणक्षेत्र संकल्पित किया ॥246॥ पुनः हर्ष से सन्तुष्ट हुए उन देवों ने एकत्रित होकर अपनी देवियों के साथ परम उत्सव पूर्वक आनन्द नाटक किया ॥247॥ तत्पश्चात् उत्तम शुक्लध्यान से घातिकर्मशत्रुओं के घात ने से उन श्री गौतम गणधर में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥248॥ वहाँ पर जाकर उन उत्तम देवेन्द्रों ने सर्व गण के साथ उनके योग्य भारी विभूति से इन्द्रभूति केवली के केवलज्ञान की पूजा की ॥249॥ इस प्रकार उत्तम चारित्र के योग से जो देव और मनुष्यगति में सारभूत महासुख को भोगकर और तीर्थ के नाथ होकर, नरपति; खगपति और सुरपतियों से पूजित हो और तत्पश्चात् सर्व कर्मो का नाश कर शिव-सदन को प्राप्त हुए, उन वीरनाथ की मैं सकलकीर्ति स्तुति करता हूँ ॥250॥ वीरजिन वीरजनों से पूजित हैं, गुणनिधि हैं, वीरजिन को वीरजन ही आश्रित होते हैं, वीर के द्वारा ही इस लोक में शिवसुख प्राप्त किया जाता है, अतः वीर के लिए मेरा नित्य नमस्कार है। वीर से परे दूसरा कोई भी पापकर्मो को जीत ने में समर्थ नहीं है, वीर का वीर्य परम श्रेष्ठ है, मैं वीर जिन में अपना मन लगाता हूँ, हे वीर, शत्रु को जीत ने में मुझे वीर करो ॥251॥ अन्तिम मंगल-कामना मैं ने चरित्र की रचना के बहा ने जो वीरप्रभु को मस्तक से नमस्कार किया है, भक्तिपूर्वक अपनी वाणी के द्वारा शक्ति के अनुसार उनके गुणों का वर्णन कर उन की प्रशंसा और स्तुति की है एवं शुभ भावों से बार-बार उन की पूजा की है, ऐसे वे श्रीवीर जिनेन्द्र मुझ लोभी को मुक्ति को प्राप्त करानेवाली और सम्यग्दर्शनादि तीन रत्नों से उत्पन्न होनेवाली सकल सामग्री को शीघ्र देवें ॥252॥ जिस वीरप्रभु ने बालकाल (कुमारावस्था) में भी मुक्ति को प्राप्ति के लिए रत्नत्रयजनित उत्तम संयम को ग्रहण किया, जिन्हों ने उत्तम शुक्लध्यानरूपी महान् खड्ग के द्वारा अति प्रचण्ड सर्व कर्मशत्रुओं को विनष्ट किया, वे वीर प्रभु मुझे इस लोक और परलोक में मुक्ति-दाता संयम और रत्नत्रय को देवें, तथा इन्द्रियरूपी चोरों के साथ मेरे सब कर्मशत्रुओं का मुक्ति पा ने के लिए शीघ्र विनाश करें ॥253॥ जिन्हों ने तीन लोक से स्तुति किये गये अनन्त निर्मल केवलज्ञानादि उत्तम गुण प्राप्त किये हैं, वे वीर प्रभु उन सब अपने गुणों को मुझे प्रदान करें। जिन वीर जिनेन्द्र ने मुक्तिरूपी कुमारी को विधिपूर्वक स्वीकार किया है, वे प्रभु वह अनन्त निर्मल मुक्तिलक्ष्मी सुख प्राप्ति के लिए मुझे देवें॥२५४॥ मुझ सकलकीर्ति ने यह ग्रन्थ कीति, पूजा के लाभ या किसी प्रकार के लोभ से नहीं रचा है और न कविप ने के अभिमान से ही रचा है, किन्तु इस की रचना परमार्थ बुद्धि से अपने और अन्य के उपकार के लिए तथा अपने कर्मो के विनाश के लिए की है ॥255॥ वीर जिनेन्द्र के कोटि-कोटि गुणों से निबद्ध यह पावन श्रेष्ठ चरित्र, जि से सकलकीर्ति गणी ने रचा है, उसे दोषों से रहित सुज्ञानी जन शुद्ध करें ॥256॥ इस शुभ ग्रन्थ में मेरे द्वारा प्रमादसे, अथवा अज्ञान से यदि कहीं कुछ अक्षरादि से रहित, या सन्धि-मात्रा से रहित अशुद्ध या असम्बद्ध लिखा गया हो, तो श्रुतवेत्ता ज्ञानी जन इस उत्तम चरित्र के जिन वाणी से उद्धार करने में मुझ तुच्छ बुद्धि का भारी साहस देखकर आप लोग मुझे क्षमा करें ॥257॥ जो निपुण बुद्धिवाले लोग इस शास्त्र को पढ़ते हैं और गुणियों के गुणानुराग से दूसरों को पढ़ाते हैं वे अपने विषय-कषायादि में विरतिभाव को प्राप्त होकर केवलज्ञानरूपी ज्ञानतीर्थ को शीघ्र प्राप्त करते हैं ॥258॥ जो भव्य श्रावकजन इस पवित्र ग्रन्थ को लिखते हैं और भूमण्डल पर प्रसार करने के लिए दूसरों से लिखाते हैं, वे अपने इस ज्ञानदान के द्वारा विश्व में उत्पन्न होनेवाले सुखों को प्राप्त कर निश्चय से केवलज्ञानी होते हैं ॥259॥ पर के उपकारक, सांसारिक लक्ष्मी, स्वर्गीय भोग और मुक्ति के प्रदाता, सभी तीर्थकर, अन्त-रहित उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त, उपमा से रहित और तीन लोक के चूड़ामणि, सभी सिद्ध भगवन्त, पंच आचारों में परायण, सभी आचार्य, उत्तम श्रुतवेत्ता, सभी उपाध्याय और आत्म-साधन के उद्योग से युक्त, सभी साधुजन आप लोगों का शुभ करनेवाला.मंगल करें ॥260॥ यह वीर जिनेन्द्रदेव का चरित गुणों का समुद्र है, धर्मरत्न आदि की खानि है, भव्यों को शरण देनेवाला है, इन्द्रादिकों के द्वारा पूज्य है, स्वर्ग और मोक्ष का मूल कारण है, एवं परम पवित्र है, वह काल के अन्त-पर्यन्त इस आर्यखण्ड में सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त हो ॥26॥ यह चरित्र सुन्दर अर्थ से संयुक्त है, धर्म का बीज है, इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति का उत्पादक है, सत्यार्थ गुणों से युक्त है, निर्मल है, राग के नाश का कारण है, कर्मों का विनाशक है, ज्ञान का मूल है, निर्मल मुनिजनों के गुणों से पवित्र है, और अतुल गुणों से गहन है ॥262॥ जिस वीर प्रभु ने स्वर्ग और शिवगति का देनेवाला, दोषों से रहित, गुणों का समुद्र, हिंसादि से दूरवर्ती परम अहिंसामयी धर्म के सारवाला यह धर्म गृहस्थ और मुनि के रूप से दो प्रकार का कहा है, जो आज भी गृहस्थ और मुनिजनों के द्वारा नित्य प्रवर्तमान है और आगे भी नियम से प्रवर्तमान रहेगा, वह परम सुख का करनेवाला जैनधर्म जब तक इस काल की अवधि हो, तब तक सदा प्रवर्तमान रहे । इस धर्म के उपदेष्टा, एवं मेरे द्वारा वन्दित और संस्तुत वे जिनेन्द्र देव मेरे संसार को हरें ॥263॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या, जिन वीरनाथ का मैं ने आश्रय लिया है, और इस ग्रन्थ में मैं ने जिन की स्तुति की है, वे कृपाकर शीघ्र ही अपने अद्भुत गुणों को मुक्ति और आत्मीय सुख की प्राप्ति के लिए मुझे देवें ॥264॥ श्री सन्मति के इस चरित्र के यत्न से गणना किये गये सर्वश्लोक तीन हजार पैंतीस हैं। अर्थात् मूल संस्कृतचरित्रं तीन हजार पैंतीस (3035) श्लोक प्रमाण है । इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित इस श्रीवीरवर्धमानचरित में श्रेणिक राजा, और अभयकुमार की भवावली तथा भगवान् के निर्वाण-गमन का वर्णन करनेवाला यह उन्नीसवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥19॥ |