कथा :
मुक्ति के भर्ता, अज्ञानरूप अन्धकार के हर्ता, विश्व के प्रकाशक, समवशरण के मध्य में विराजमान और धर्मोपदेश देने में उद्यत ऐसे श्री वीर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ इस के पश्चात् भगवान ने कहा-हे धीमन् गौतम, तुम सर्व गणों के साथ सुनो। मैं मोक्ष का मार्ग कहता हूँ, जिस से कि ज्ञानी जन मोक्ष को जाते हैं इस में कोई संशय नहीं है ॥2॥ तत्त्वार्थ का जो शंकादि दोषों से रहित और निःशंकादि गुणों से युक्त श्रद्धान है, मोक्ष का अंगस्वरूप व्यवहार सम्यग्दर्शन है ॥3॥ इस संसार में अर्हन्तों से अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ देव नहीं है, निर्ग्रन्थ गुरुओं से बढ़कर कोई उत्तम गुरु नहीं है, अहिंसादि पंच महाव्रतों से बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है ॥4॥ जैनशासन से भिन्न कोई उत्कृष्ट शासन नहीं है, द्वादश अंगों और चतुर्दश पूर्वो से बढ़कर अन्य कोई विश्वप्रकाशक ज्ञान नहीं है ॥5॥ रत्नत्रय से अन्य कोई दूसरा मुक्ति का मार्ग नहीं है, पंच परमेष्ठियों से अन्य कोई दूसरा भव्य जीवों का हितकर्ता नहीं है ॥6॥ पात्रदान से परे कोई दूसरा कल्याणकारक दान नहीं है, सुधर्म से अतिरिक्त अन्य कोई पर जन्म में साथ जानेवाला पाथेय ( मार्ग-भोजन, कलेवा ) नहीं है ॥7॥ केवलज्ञान के कारणभूत आत्मध्यान से बढ़कर कोई दूसरा ध्यान नहीं है, धर्मात्माओं के साथ स्नेह के समान धर्म और सुख को देनेवाला अन्य कोई स्नेह नहीं है ॥8॥ द्वादश तपों से अन्य, पापों का क्षय करनेवाला अन्य कोई तप नहीं है, पंचनमस्कारमहामन्त्र से भिन्न स्वर्ग और मोक्ष को देनेवाला अन्य कोई मित्र नहीं है ॥9॥ कर्म और इन्द्रियों के सिवाय इस लोक और परलोक में अति दुःखों को देनेवाला और कोई शत्रु नहीं है। इत्यादि सकल कार्यों को हे गौतम, तुम सम्यग्दर्शन का मूलकारण जानो ॥10॥ यह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का बीज है, मोक्ष का प्रथम सोपान (सीढ़ी) है और व्रतादि का परम अधिष्ठान है, ऐसा तू जान ॥11॥ हे गौतम, सम्यग्दर्शन के विना जीवों का ज्ञान तो अज्ञान है, चारित्र कुचारित्र है और समस्त तप निष्फल है ॥12॥ ऐसा जानकर निःशंकादि गुणों के द्वारा शं का और मूढ़तादि मलों को दूर कर सम्यक्त्व को चन्द्रमा के समान निर्मल और दृढ़ करना चाहिए ॥13॥ तत्त्वार्थों का जो सन्त पुरुषों के विपरीतप ने से रहित यथार्थरूप से ज्ञान होता है, वह व्यवहार सम्यग्ज्ञान है ॥14॥ ज्ञान के द्वारा ही सर्व धर्म-अधर्म, हित-अहित, बन्ध-मोक्ष ज्ञात होते हैं, एवं देव, गुरु और धर्मादि की परीक्षा जानी जाती है ॥15॥ ज्ञान-हीन व्यक्ति हेयउपादेय, गुण-अवगुण, कर्तव्य-अकर्तव्य और तत्त्वों के विवेक को अन्धे के समान कभी नहीं जानता है ॥16॥ ऐसा जानकर स्वर्ग और मुक्ति के सुखों के अभिलाषी तुम सब लोग मोक्ष की सिद्धि के लिए जिनागमश्रुत का अभ्यास करो ॥17॥ हिंसादि पाँचों पापों का समस्त रूपसे, अर्थात् कृत कारित और अनुमोदनासे, सर्वदा के लिए त्रियोग की शुद्धि पूर्वक तीन गुप्ति और पंच समिति के परिपालन के साथ त्याग करना व्यवहारचारित्र है, यह मुक्ति ( सांसारिक भोगसुख ) और मुक्ति का कारण है, इ से ही कर्मों के आस्रव का रोकनेवाला और सारभूत सुख का देनेवाला जानना चाहिए ॥18-19॥ औरों की तो बात ही क्या है, तीर्थकर भी चारित्र के विना शरीर को कष्ट देनेवाले कोटि-कोटि तपों के द्वारा कर्मों का संवर नहीं कर सकते हैं ॥20॥ संवर के विना मुक्ति कै से प्राप्त हो सकती है और कर्मों से मुक्त हुए विना जीवों को शाश्वत स्थायी परम सुख कै से प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥21॥ . सम्यग्दर्शन और तीन झान से विभूषित एवं देवेन्द्रों से पूजित भी चारित्र-हीन तीर्थंकर देव अहो मुक्तिस्त्री के मुख-कमल को नहीं देख सकते हैं ॥ 22 ॥ चिरकाल का दीक्षित, अनेक शास्त्रों का वेत्ता भी ज्येष्ठ मुनि चारित्र के विना दन्त-हीन हाथी के समान शोभा को नहीं पाता है ॥ 23 ॥ ऐसा जानकर ज्ञानियों को चन्द्र के समान. निर्मल (निर्दोष) चारित्र धारण करना चाहिए और उपसर्ग-परीषहों के आ ने पर स्वप्न में भी उसे नहीं छोड़ना चाहिए ॥24॥ यह व्यवहार रत्नत्रय तीर्थंकर आदि शुभपद देनेवाले शुभकर्म का साक्षात् कारण है और निश्चय रत्नत्रय का साधक है ॥25॥ यह व्यवहाररत्नत्रय सर्वार्थसिद्धि तक के महासुख सन्त जनों को प्रदान करता है, उपमा-रहित है, जगत्पूज्य है और भव्यों का परम हितकारी है ॥26॥ अनन्त गुणों के सागर ऐसे अपने आत्मा का जो भीतर श्रद्धान किया जाता है, वह निर्विकल्प निश्चय सम्यक्त्व है॥२७॥ स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपने ही परमात्मा का जो अपने भीतर परिज्ञान है, वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है ॥28॥ अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकार के संकल्पों को त्याग कर जो अपनी आत्मा के स्वरूप में विचरण करना, वह ज्ञानियों का निश्चय सम्यक चारित्र है ॥29॥ यह निश्चय रत्नत्रय सर्व बाह्य चिन्ताओं से रहित और निर्विकल्प है तथा उसी भव में सज्जनों को साक्षात् मोक्ष का देनेवाला है ॥30॥ निश्चय और व्यवहाररूप यह दोनों प्रकार का मोक्षमार्ग मुक्तिस्त्री का जनक है, महान् है। अतः मोक्ष के इच्छुक भव्यों को मोक्ष की आशा छोड़कर निरन्तर उसे सेवन करना चाहिए ॥31॥ इस भूतल पर भूतकाल में जो भव्य जीव मोक्ष गये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं, और आगे जायेंगे, इस द्विविध रत्नत्रय को प्रतिपालन करके ही जायेंगे, अन्य प्रकार से कभी कोई मोक्ष नहीं जा सकता ॥32॥ मुक्ति का नित्य फल अनन्त महान् सुख है। वह परम सुख सम्यक्त्व आदि आठ परम गणों के साथ प्राप्त होता है ॥33॥ जो संसार-समुद्र से उद्धार कर सेवन करनेवाले पुरुष को तीन लोक के अग्रिम मुक्तिराज्य में स्वयं स्थापित करे, वह स्वर्ग और मुक्ति के सुखों को देनेवाला धर्म दो प्रकार का कहा गया है-पहला श्रावकों का धर्म जो पालन करने में सुगम है और दूसरा मुनियों का धर्म जो पालन करने में कठिन है ॥34-35॥ इन में श्रावक धर्म ग्यारह प्रतिमारूप है। जो सातों व्यसनों के त्यागी हैं, आठ मूलगुणों से युक्त हैं और निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक हैं, वे जीव दर्शन नाम की प्रतिमा के धारी हैं ॥36॥ जो इस लोक में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत इन बारह व्रतों को धारण करते हैं वे श्रावक दूसरी व्रतप्रतिमा के धारी हैं ॥37॥ मन वचन काय से और कृत कारित आदि से त्रस प्राणियों का रक्षण यत्न से किया जाता है, वह प्रथम अहिंसाणुव्रत है ॥38॥ यह अहिंसाणुव्रत सर्व व्रतों का मूल है, विश्व के प्राणियों का रक्षक है, गुणों का निधान है और धर्म का बीज है, ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है ॥39॥ जो निन्दित असत्य वचन को छोड़कर धर्म के निधानस्वरूप हितकारी सारभूत सत्य वचन बोले जाते हैं वह दूसरा सत्याणुव्रत है ॥40॥ सत्य वचन से कला विवेक और चातुर्य आदि गुणों के साथ बुद्धिमानों के कीर्ति और सरस्वती प्रकट होती है ॥41॥ जो ग्रामादिक में पतित, नष्ट या कहीं पर स्थापित परधन को ग्रहण नहीं करता वह तीसरा अचौर्याणुव्रत है ॥42॥ परधन के अपहरण करनेवालों को इस लोक में ही चोरी के पाप से वध-बन्धनादि दण्ड प्राप्त होते हैं और परलोक में अनेक बार नरक के दुःख प्राप्त होते हैं ॥43॥ सर्पिणियों के समान समझकर जो अन्य सर्व स्त्रियों का त्याग कर अपनी स्त्री सन्तोष धारण किया जाता है वह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत माना गया है ॥44॥ क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य, दासी-दास, चतुष्पद, पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भांड ये दश प्रकार के परिग्रह होते हैं। ज्ञानी जनों के द्वारा लोभ और आशारूप पाप के विनाश के लिए जो इन दशों प्रकार के परिग्रहों की संख्या स्वीकार की जाती है वह पाँचवाँ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है॥४५-४६॥ परिग्रह के परिमाण से सज्जनों की आशाएँ और लोभादिक विलीन हो जाते हैं, तथा इसी लोक में सन्तोष धर्म के प्रभाव से अनेक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं ॥47॥ योजन और ग्रामसीमा आदि के द्वारा दशों दिशा में गमनादि की जो मर्यादा की जाती है वह दिग्वत नाम का पहला गुणव्रत है ॥48॥ बिना प्रयोजन के जो अनेक प्रकार के पापारम्भों का त्याग किया जाता है, वह अनर्थदण्डविरति नाम का दूसरा गुणत्रत है॥४९॥ उस पापकारी अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और निन्दनीय प्रमादचर्या ॥50॥ पाँच इन्द्रियरूप शत्रुओं के जीत ने के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं का प्रमाण किया जाता है, वह भोगोपभोगपरिमाण नाम का तीसरा गुणव्रत है ॥51॥ अनन्त जीवकायिक अदरक आदि कन्द, मूली आदि मूल, कीड़ों से युक्त फलादिक, कुसुम ( फूल ), अथाना (अचार-मुरब्बा) आदिक अभक्ष्य हैं। ये सब पाप-भीरु व्रती जनों के द्वारा पाप की हानि और व्रत की वृद्धि के लिए विष और विष्टा के समान छोड़ ने के योग्य हैं ॥52-53॥ दिग्वत की सीमा के अन्तर्गत प्रतिदिन गमनागमनादि की घर, बाजार, गली, मोहल्ला आदि की सीमा द्वारा नियम ग्रहण किया है वह देशावकाशिक नाम का पहला शिक्षाबत है॥५४॥ दुयोन और दुर्लेश्या को छोड़कर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार सामायिक पालन किया जाता है, वह सामायिक नाम का दूसरा शिक्षाव्रत है ॥55॥ प्रत्येक मास की अष्टमी और चतुर्दशी के दिन सर्व गृहारम्भों को छोड़कर नियम से जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास नाम का तीसरा शिक्षाबत है ॥56॥ मुनियों के लिए प्रतिदिन विधिपूर्वक भक्ति से जो निर्दोष दान दिया जाता है, वह अतिथिसंविभाग नाम का चौथा शिक्षाव्रत है ॥5॥ जो पुरुष त्रियोग की शुद्धि द्वारा अतिचारों से रहित इन बारह व्रतों को पालते हैं, उनके यह श्रेष्ठ दूसरी व्रतप्रतिमा होती है ॥58। इस प्रतिमाधारी व्रती श्रावकों को उत्तम पदों की प्राप्ति के लिए जीवन के अन्त में आहार और कषायादि का त्याग और मुनियों के सकल संयम को धारण करना चाहिए ॥5॥ सामायिक नाम की तीसरी और प्रोषधोपवास नाम की चौथी शुभप्रतिमा है। ( दूसरी प्रतिमा में बताये गये सामायिक और प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत को निरतिचार नियमपूर्वक पालन करने पर ही उन्हें प्रतिमा संज्ञा प्राप्त होती है )॥60। जीव-दया के लिए जो सचेतन सर्व फल, जल, बीज और सचित्त पत्र-पुष्पादि का त्याग किया जाता है, वह पाँचवीं सचित्तत्याग प्रतिमा है ॥61॥ मुक्ति की प्राप्ति के लिए जो रात्रि में सदा चारों प्रकार के आहार का और दिन में मैथुन-सेवन का त्याग किया जाता है, वह श्रेष्ठ रात्रिभुक्तित्याग अथवा दिवा मैथुन त्याग नामवाली छठी प्रतिमा है ॥62॥ जो ज्ञानीजन इस जीवन में त्रियोग की शुद्धि से इन छह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, सन्तों के द्वारा वे ग्यारह प्रतिमाधारियों में जघन्य श्रावक मा ने गये हैं। ये सब स्वर्गगामी होते हैं ॥63॥ मन वचन काय से सर्व स्त्रियों को माता के समान मानकर जो ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है, वह सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है ॥64॥ वाणिज्य, कृषि आदि सभी गृहारम्भ निन्द्य और पाप के समुद्र हैं। पाप-भीरु जनों के द्वारा उनका जो त्याग किया जाता है, वह आरम्भ त्याग नाम की आठवीं श्रेष्ठ प्रतिमा है ॥65॥ एक मात्र वस्त्र के विना पापकारी समस्त परिग्रहों का जो त्रियोगशुद्धि से त्याग किया जाता है, वह सज्जनों की परिग्रहत्याग नामवाली नवमी प्रतिमा है ॥66॥ जो रागभाव से दूर रहकर इन नौ प्रतिमाओं का पालन करते हैं, उन्हें जिनराजों ने मध्यम श्रावक कहा है। वे देवों से पूजे जाते हैं ॥67। घर के आरम्भ में, विवाहादिमें, अपने आहार-पानादि में और धन के उपार्जन में अनुमति देने का त्याग किया जाता है, वह अनुमतित्याग नाम की दसवीं प्रतिमा है ॥68॥ जो कृत-कारितादि दोष-जनित सदोष सर्व अन्न को अभक्ष्य के समान त्याग कर भिक्षा से भोजन करते हैं, वह अन्तिम (ग्यारहवीं ) उत्कृष्ट उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है ॥69॥ जो सर्व प्रयत्न के साथ इन सर्व प्रतिमाओं को धारण करते हैं, वे जगत्पूजित विरागी सन्त उत्कृष्ट श्रावक हैं ॥70॥ जो व्रती पुरुष निरन्तर इस श्रावकधर्म का पालन करते हैं, वे यथायोग्य सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होकर उत्तम सुखों को प्राप्त करते हैं ॥71॥ इस भूतल पर सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव इस श्रावकधर्म के द्वारा तीन लोक में उत्पन्न सुखों को भोग कर क्रम से मोक्ष को जाते है ॥72॥ इस प्रकार गृहस्थधर्म के वर्णन-द्वारा सरागी श्रावकों को हर्ष उत्पन्न करके तत्पश्चात उन वीर प्रभू ने साधुओं की प्रीति के लिए उनका मनिधर्म निश्चय रूप से कहा ॥73॥ अहिंसादि सारभूत पंच महाव्रत, ईर्या भाषा एषणा आदि पाँच शुभ समितियाँ, पाँचों इन्द्रिय-विषयों का निरोध, केशलुंच, समता-वन्दनादि छह आवश्यक देवों के द्वारा पूज्य अचेलकपना ( नग्नता), स्नान-त्याग, भूमि-शयन, अदन्तधावन, राग से दूर रहते हुए खड़ेखड़े भोजन करना और एक बार ही खाना, ये योगियों के धर्म के अट्ठाईस मूलगुण हैं। ये निश्चयधम के मूल स्वरूप हैं । इन को सदा धारण करना चाहिए। ये लोक में लक्ष्मी और सुख देनेवाले गुण प्राणों का अन्त होने पर भी नहीं छोड़ना चाहिए ॥74-77॥ बाईस प्रकार की परीषहों का जीतना, आतापन आदि अनेक योगों का धारण करना, अनेक प्रकार के उपवास करना, मौन-धारण करना इत्यादि मुनियों के उत्तर गुण हैं ॥7॥ आदि में मुनिजन सम्यक् प्रकार से क्रम का उल्लंघन नहीं करके इन अट्ठाईस मूलगुणों का पालन कर तत्पश्चात् उत्तरगुण समूह का पालन करें ॥79॥ उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव, उत्तम सत्य शौच, दो प्रकार का संयम, दो प्रकार का तप, उत्तम त्याग, आकिंचन्य और महान् ब्रह्मचर्य ये मुनियों के धर्म के दश लक्षण हैं, और सर्वधर्म के निधान हैं ॥80-81॥ सर्व मूल और उत्तर गुणों से और क्षमादिदशलक्षणों से सन्तों को उसी भव में मोक्ष देनेवाला परमधर्म होता है ॥82॥ इस मुनिधर्म से योगीन्द्रजन सर्वार्थसिद्धि तक के तथा तीर्थंकरादि पद-जनित सुखों को भोग कर सदा मोक्ष को जाते रहते हैं ॥83॥ इस लोक में सर्वत्र धर्म के सदृश न कोई बन्धु है, न स्वामी है, न हितकारक है, न पाप-विनाशक है और न सर्व अभ्युदय-सुखों का साधक है ॥84॥ इस प्रकार वीर जिनेन्द्र ने श्रावक-मुनिधर्म का उपदेश देकर काल का स्वरूप इस प्रकार से कहना प्रारम्भ किया-इस मनुष्य लोक में भरतक्षेत्र स्थित आर्य खण्ड में प्रवर्तमान उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नाम के दो काल कहे गये हैं। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में भी दोनों काल प्रवर्तते हैं। इन में उत्सर्पिणी काल दश कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण होता है। प्राणियों के तुल्य आमलकेनात्र कल्पद्रुभोगभागिनाम् ॥10॥ रूप बल आयु शरीर और सुख के उत्सर्पण (वृद्धि) होने से ज्ञानियों ने इ से उत्सर्पिणी काल कहा है ॥85-86॥ जिस काल में जीवों के रूप बल आयु शरीर और सुखादि का अवसर्पण (क्रमशः ह्रास) होता है, उसे अवसर्पिणीकाल कहा जाता है । यह उत्सर्पिणी से विपरीत होती है। इन दोनों के पृथक्-पृथक् छह काल-विभाग कहे गये हैं ॥87॥ उनमें से अवसर्पिणी का पहला काल सुषम-सुषमा नामवाला है, इस का समय चार कोड़ाकोंडी सागर प्रमाण है ॥88॥ इस काल के आदि में उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष तीन पल्य की आयुवाले, तीन कोश के ऊँचे और उदय होते हुए सूर्य के समान आभावाले होते हैं ॥88-89॥ तीन दिन के बीत ने पर बदरी फल ( बेर ) के प्रमाणवाला उनका दिव्य आहार होता है और ये सब नीहार ( मल-मूत्रादि) से रहित होते हैं ॥90॥ उस काल में यहाँ पर मद्यांग, सूर्यांग, विभूषांग, मालांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, वस्त्रांग और भाजनांग ये दश जाति के कल्पवृक्ष होते हैं। वे महाविभूति के साथ दिये गये उत्तम पात्रदान के फल से पुण्यशाली उन आर्य जनों को संकल्पित भोग-सम्पदाएँ देते हैं ॥91-92॥ वे आर्य अपने आर्य ( उत्तम ) स्वभाव से जन्म के साथ ही उत्पन्न हुई स्त्री के साथ निरन्तर भोगों को भोगकर मरण को प्राप्त हो वे सभी देवलोक को जाते हैं ॥13॥ यह उत्कृष्ट भोगभूमि समस्त सुखों को देनेवाली जाननी चाहिए। वहाँ पर क्रूर स्वभावी पंचेन्द्रिय और विकलत्रय तिर्यंच नहीं होते हैं ॥94॥ तत्पश्चात् मध्यम भोग से यक्त दसरा सषमा नाम का काल प्रवत्त होता है। उसका प्रमाण तीन कोडाकोडी सागरोपम है ॥95॥ उसके आदि में मनुष्य दो पल्योपमकाल तक जीवित रहनेवाले, दो कोश की ऊँचाईवाले शरीर के धारक और पूर्ण चन्द्र के समान कान्तिमान् होते हैं ॥16॥ वे भोगभूमियाँ दो दिन के पश्चात् अक्षफल ( बहेड़ा) प्रमाणवाले, तृप्तिकारक दिव्य आहार को करते हैं ॥97॥ तत्पश्चात् सुषमदुपमा नामवाला, दो कोडाकोड़ी सागर के प्रमाणवाला जघन्य भोगभूमि से युक्त तीसरा काल प्रवृत्त होता है ॥98॥ उसके आदि में मनुष्य एक पल्य की अखण्ड आयु के धारक, शुभ, एक कोश ऊँचे उत्तम देहवाले और प्रियंगु के समान कान्ति के धारक होते हैं ।99॥ कल्पवृक्षों के द्वारा दिये गये भोगों के भोगनेवाले उन मनुष्यों का एक दिन के अन्तर से आँवले के तुल्य प्रमाणवाला तृप्तिकारक दिव्य आहार होता है ॥10॥ तत्पश्चात् दुषमसुषमा नाम का कर्मभूमिज धर्म से युक्त तिरेसठ शला का पुरुषों को जन्म देनेवाला चौथा काल प्रवृत्त होता है ॥101॥ इस की जिनागम में बयालीस हजार वर्षों से कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम स्थिति कही गयी है ॥102॥ इस के आदि में मनुष्य एक पूर्व कोटी वर्पजीवी, पाँच सौ धनुष ऊँचे और पाँचों वर्गों की प्रभा से युक्त होते हैं ॥103॥ वे मनुष्य प्रतिदिन एक बार उत्तम आहार करते हैं। इस काल में ये शला का पुरुष उत्पन्न हुए हैं ॥104॥ भावार्थ-चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र ये तिरेसठ शला का अर्थात् गण्य-मान्य पुरुष हुए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं। श्री ऋषभ, अजित, शम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान् , वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रतनाथ, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान ये चौबीस तीर्थकर इस युग में हुए हैं। ये सभी तीन लोक के स्वामियों द्वारा वन्दनीय हैं ॥105-108॥ भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर, सुभूम, महापद्म, हरिषेण, जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती जानना चाहिए ॥109110॥ विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, पद्म और राम ये नौ बलभद्र हुए हैं॥१११॥ त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम,पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त,लक्ष्मण और कृष्ण ये नौ वासुदेव (नारायण) हुए हैं। ये सभी तीन खण्ड के स्वामी, धीरवीर और स्वभाव से ही अतिरौद्र चित्त होते हैं ॥112-113॥ अश्वग्रीव, तारक, मेरक, निशुम्भ, कैटभारि, मधुसूदन, बलिहन्ता, रावण और जरासन्ध ये नौ वासुदेवों के प्रतिपक्षी अर्थात् प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) हुए हैं। ये सभी वासुदेव के समान ही ऋद्धि के भागी होते हैं ॥114-115 । नराधिप, विद्याधराधिप और देवों से नमस्कृत चरण कमलवाले इन पूज्य तिरेसठ शला का महापुरुषों के सर्व भवान्तर, चरित, ऋद्धि, आयु, वल, सौख्य और भावी सब गतियों को श्री वीर जिनेश ने दिव्यध्वनि के द्वारा विस्तार से स्वयं ही गणाधीश गौतम और सर्व गणों को शिव-प्राप्ति के लिए कहा ॥116-118॥ अथानन्तर दुःखों से भरा हुआ दुःषम नाम का पंचम काल होगा। उसका काल-प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है ॥119॥ उसके प्रारम्भ में मनुष्य एक सौ बीस वर्ष की आयु के धारक और सात हाथ के ऊँचे होंगे। इस काल के मनुष्य मन्द बुद्धि से युक्त रूक्ष देहवाले और सुखों से रहित होंगे ॥120॥ वे दुःखी लोग प्रतिदिन अनेक बार आहार करेंगे और कुटिल चित्त होंगे। पुनः उनका शरीर, आयु, बुद्धि और बल आदिक क्रम से हीन होता जायेगा ॥121॥ तत्पश्चात् दुःषमदुःषमा नाम का अति दुःखदायी छठा काल आयेगा। उसका कालप्रमाण पंचम काल के समान इक्कीस हजार वर्ष है। उस समय धर्मादि नहीं रहेगा ॥122॥ इस काल के आदि में मनष्यों के देह दो हाथ ऊँचे और धूम्रवर्ण के होंगे। वे मनुष्य कुरूपी, नग्न, स्वेच्छाहारी और बीस वर्ष की आयु के धारक होंगे ॥123॥ इस काल के अन्त में मनुष्य एक हाथ ऊँचे, पशु के समान आहार-विहार करनेवाले, उत्कृष्ट, सोलह वर्ष की आयु के धारक, निन्दनीय और दुर्गतिगामी होंगे ॥124॥ जिस प्रकार से यह अवसर्पिणी काल क्रम से आयु, बल, शरीर आदि की हानि से संयुक्त है, उसी प्रकार से उत्सर्पिणीकाल उन सब की वृद्धि से संयुक्त जिनराजों ने कहा है ॥125॥ तदनन्तर वीरप्रमु ने लोक का वर्णन करते हुए कहा-इस लोक का अधोभाग वेत्रासन के आकारवाला है, मध्य में झल्लरी के समान है और ऊपर मृदंग के सदृश है । यह सदा जीवादि छह द्रव्यों से भरपूर है ॥126॥ ( इस लोक के अधोभाग में नरक हैं, ऊर्ध्वभाग में स्वर्ग हैं और मध्यभाग में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। ) इत्यादि प्रकार से सत्यार्थवादी जिनराज श्री वर्धमान स्वामी ने अनेक संस्थानवाले और स्वर्ग-नरकादि विषयवाले तीन लोक का स्वरूप कहा ॥127॥ इस विषय में अधिक कहने से क्या, इस तीन लोक के मध्य में त्रिकाल-विषयक और केवलज्ञानगोचर जित ने कुछ भी शुभ-अशुभ पदार्थ भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान में विद्य हैं और भविष्य में होंगे, उन सर्व पदार्थी को अलोकाकाश के साथ वीर जिनेन्द्र ने द्वादशांगगत अर्थ के साथ श्री गौतम के प्रति सर्व भव्य जीवों के हितार्थ और धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए उपदेश दिया ॥128-130॥ इस प्रकार श्री वीरजिन के मुख चन्द्र से उत्पन्न हुए वचनरूप अमृत को पीकर और अपने मिथ्यात्वरूपी हलाहल विष को शीघ्र नाश कर श्री गौतम काललब्धि से हर्ष के साथ सम्यग्दर्शन इत्यादि चिन्तनात्प्राप्य परमानन्दमुल्बणम् । धर्मे धर्मफलादौ च स वैराग्यपुरस्सरम् ॥146॥ पूर्वक संसार, शरीर, लक्ष्मी और इन्द्रिय-भोगादि में संवेग को प्राप्त होकर अपने हृदय में इस प्रकार विचार करने लगे ॥131-132॥ अहो, यह मिथ्यात्वमार्ग समस्त पापों का आकर है, अशुभ है और निन्दनीय है। मुझ मूढ़-हृदय ने चिरकाल से इ से वृथा सेवन किया है ॥133॥ इस लोक में जैसे कोई अज्ञानी माला के भ्रम से सुख-प्राप्ति के लिए काले साँप को ग्रहण करे, उसी के समान मैं ने धर्मबुद्धि से यह महान् मिथ्यात्व पाप हृदय में धारण किया ॥134॥ धूर्त जनों से प्ररूपित इस मिथ्यात्वमार्ग के द्वारा मिथ्यात्व को प्राप्त हुए असंख्यात मूर्ख प्राणी धोर नरक में ले जाये जा रहे हैं ॥135॥ जैसे मदिरापान से उन्मत्त विकल पुरुष विष्टा से भरी गली में पड़ते हैं, अरे, उसी प्रकार मिथ्यात्व से विमोहित मिथ्यादृष्टि जीव अशुभ कुमार्ग में पड़ते हैं ॥136॥ अहो, जैसे चलते हुए अन्धों का कूप आदि निम्न स्थान में पतन होता है उसी प्रकार मिथ्यामार्गगामियों का नरकादि अन्धकूप में पतन होता है ॥137॥ (भगवान् के उपदेश से प्रबोध पाकर अब ) मैं मानता हूँ कि यह मिथ्यात्वरूप कुमार्ग अत्यन्त विषम है और दुर्जनों को नरक के मार्ग पर ले जाने के लिए सार्थवाह के सदृश है। यह शठ पुरुषों से समादत है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और दश धर्मादि राजाओं का शत्रु है, प्राणिय को खा ने के लिए अजगर साँप है और महापापों का आकर है ॥138-139॥ जिस प्रकार गाय के सींग से दूध, बहुत भी जल के मन्थन से घी, दुर्व्यसन-सेवन से यश, कृपणता से ख्याति, और खोटे व्यापारादि कार्यों से धन नहीं प्राप्त होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व-सेवन से कभी भी जड़ात्मा पुरुषों को इस लोक में न शुभ वस्तु मिल सकती है, न सुख मिल सकता है और न सद्गति प्राप्त हो सकती है ॥140-141॥ अहो, मिथ्यात्व के आचरण से तो धर्म-विमुख मिथ्यादृष्टि जीव निश्चय से केवल अगम्य घोर नरक को ही आते हैं ॥142॥ ऐसा समझकर बुद्धिमानों को धर्म की प्राप्ति और स्वर्ग-मोक्ष की सिद्धि के लिए सब से पहले मिथ्यात्वरूपी वैरी को दृग्विशुद्धिरूप तलवार के द्वारा शीघ्र मार देना चाहिए ॥143॥ । - अहो, आज मैं धन्य हूँ, मेरा यह सारा जीवन सफल हो गया है, क्योंकि अति पुण्य से आज मैं ने जगद्-गुरु श्री जिनदेव को पाया है ॥144॥ इन के द्वारा प्रणीत (उपदिष्ट) यह मार्ग और यह धर्म अनमोल है, और सुख का भण्डार है । आज इन के वचनरूप किरणों से दर्शनमोहरूप महान्धकार नष्ट हो गया है ॥145॥ इत्यादि रूप से धर्म और धर्म का फल चिन्तन करने से अति उत्कृष्ट परम आनन्द को प्राप्त हुआ वह ब्राह्मणों का नेता गौतम वैराग्यपूर्वक मोहादि शत्रुओं के साथ मिथ्यात्वरूपी वैरी की सन्तान को मार ने और मुक्ति पा ने के लिए दीक्षा ले ने को उद्यत हुआ ॥146-147॥ तत्पश्चात् निश्चय से तत्त्व के प्रबोध को प्राप्त उस गौतम ने अपने दोनों भाइयों के तथा पाँच सौ छात्रों के साथ चौदह अन्तरंग और दश बाह्य परिग्रह को छोड़कर त्रियोग शुद्धिपूर्वक परम भक्ति से जगत्-पूज्य जिनमुद्रा को तत्काल ग्रहण कर लिया ॥148-150॥ उसी समय भगवान् की वाणी से प्रबोध को प्राप्त हुई कितनी ही राजकुमारियाँ और अन्य बहुत-सी उत्तम स्त्रियाँ आत्मसिद्धि के लिए आर्यि का बन गयीं ॥151॥ उसी समय श्री जिनेन्द्र के वचनों से प्रबुद्ध हुए कितने ही उत्तम मनुष्यों ने और कितनी ही उत्तम स्त्रियों ने श्रावकों के सर्वव्रतों को ग्रहण किया ॥152॥ उसी समय कितने ही सिंह, सर्प आदि उत्तम पशुओं ने अपनी क्रूरता को छोड़कर और भगवान् के वचनों का लाभ पाकर श्रावक के व्रतों को स्वीकार किया ॥153॥ तभी चतुर्णिकाय के कितने ही देवों ने और कितनी ही देवियों ने तथा अनेक मनुष्यों और पशुओं ने भगवान् के वचनामृत पान से मिथ्यात्वरूपी हालाहल विष को दूरकर काललब्धि से शिव-प्राप्ति के लिए शीघ्र ही अनमोल सम्यग्दर्शनरूपी निर्मल हार को अपने हृदयों में धारण किया ॥154-155॥ व्रतादि के पालन करने में असमर्थ कितने ही लोग दान-पूजा-प्रतिष्ठा आदि करने के लिए शीघ्र उद्यत हुए ॥156॥ कितने ही लोगों ने अपनी सर्व शक्ति के अनुसार प्रयत्नपूर्वक व्रत-नियमादि ग्रहण कर उन कठिन आतापनादि योगों में अशक्त होने से कर्मशत्रु के विनाश के लिए उन सर्व उत्तम कार्यों में त्रियोगशुद्धिपूर्वक भक्ति से संसार को नाश करनेवाली भावना की ॥157-158॥ उसी समय सौधर्मेन्द्र ने द्वादश गणों के स्वामीपद को प्राप्त हुए गौतम गणधर के अतिभक्ति से दिव्य पूजन-द्रव्यों के द्वारा त्रिलोक-नमस्कृत चरणकमलों को पूजकर, नमस्कार कर और दिव्य गुणों के द्वारा स्तुति करके सब ससुरुषों के मध्य में 'ये इन्द्रभूति स्वामी है' ऐसा कहकर उनका इन्द्रभूति यह दूसरा नाम रखा ॥159-160॥ जिन-दीक्षा ग्रहण करने पर श्री गौतम गणधर को परिणामों की अत्यन्त विशुद्धि से तत्काल सातों ही महाऋद्धियाँ प्रकट हो गयीं ॥161॥ हे भव्यजनो, सन्तों के मन की शुद्धि ही इस लोक में सर्व अभीष्ट फलों को देनेवाली है और इसी मन की शुद्धि से आधे क्षण में केवलज्ञान सम्पदा प्राप्त हो जाती है ॥162॥ श्री वर्धमान जिन के तत्त्वोपदेश से सर्व अंगश्रुत के बीज पद इन्द्रभूति गौतम गणधर के हृदय में श्रावण कृष्णपक्ष के आदि दिन अर्थात् प्रतिपदा के पूर्वाह्नकाल में योगशुद्धि के द्वारा अर्थरूप से परिणत हो गये ॥163-164॥ तत्पश्चात् उसी दिन के पश्चिम भाग में श्रुतज्ञानावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से प्रकट हुई बुद्धि के द्वारा सभी (चौदह ) पूर्व अर्थरूप से परिणत हो गये ॥165॥ भावार्थ-श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्वाह्नकाल में तो गौतम अंगश्रुत के वेत्ता हुए और अपराह्नकाल में चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता ब ने । इस के पश्चात् सर्व अंग-पूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञान के धारी गौतम गणधर ने अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा और विशाल बुद्धि के द्वारा समस्त अंगों की उत्कृष्ट रचना समस्त भव्यजीवों के उपकार की सिद्धि के लिए पूर्व रात्रि में सुभक्ति से की। और रात्रि के पश्चिम भाग में पद, वस्तु, प्राभृत आदि के द्वारा सर्व पूर्वो की शुभ रचना पद-ग्रन्थादिरूप से धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए की ॥166-168॥ इस प्रकार धर्म के परिपाक से देवों से पूज्य श्री गौतम गणधर सर्वसाधु समूह के प्रमुख हुए और सकलश्रुत के विधाता ब ने । ऐसा समझकर हे ज्ञानी जनो, स्वाभीष्ट कार्य सिद्धि के लिए तुम लोग हृदय की शुद्धि के साथ उत्तम धर्म का पालन करो ॥169॥ जो स्वयं धर्ममय हुए, जिन्हों ने जगत् के सुख के लिए सन्तों को धर्म का उपदेश दिया, जो धर्म के द्वारा ही पापों के जीतनेवाले हुए, जिन्हों ने धर्म के लिए लोक में विहार किया, धर्म से शिवपद को प्राप्त हुए, अपनी वाणी से धर्म का मार्ग प्रकट किया और धर्म में मन लगाया, वे श्री वीरजिनेन्द्र मुझे अपना धर्म देवें ॥170॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्ति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरित में भगवान् के धर्मोपदेश का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥18॥ |