कथा :
जिनका प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी किरणों का मण्डल त्रिभुवनरूप भवन में फैला हआ है, जो नौ केवल-लब्धि आदि अनंत गणों के साथ आरंभ हुए दिव्यदेह के धारी हैं, जो अजर हैं, अमर हैं, अयोनि-सम्भव हैं, अदग्ध हैं, अछेद्य हैं, अव्यक्त हैं, निरंजन हैं, निरामय हैं, अनवद्य हैं, जो तोष गुण (राग) से रहित होकर भी सेवकजनों के लिये कल्पवृक्ष के समान हैं, जिनने साध्य की सिद्धि कर ली है, संसार-सागर से जो उत्तीर्ण हुए हैं, जिनने जीतने योग्य सभी को जीत लिया होने से जितजेय हैं, जिनके हाथ-पैर आदि अर्थात् पूर्णत: सुखामृत में जो डूबे हुए हैं, जिनके वचन-किरणों से मोक्षमार्ग मुखरित हो रहा है, जो अठारह हजार शीत के गुणों के स्वामी होने से शैलेशीनाथ हैं, जो अक्षय गुणनिधि हैं - ऐसे श्री वीर प्रभु को एवं समस्त पंच परमेष्ठी भगवंतों को नमस्कार करके पूर्वाचार्यों के अनुसार इस हुण्डावसर्पिणी काल के अंतिम अनुबद्ध केवली श्री जम्बूस्वामी के पावन चरित्र को मैं कहूँगा। जिनका देह कामदेव के रूप से सुशोभित है, जिनका वक्षःस्थल पद्मा अर्थात् लक्ष्मी से युक्त है, प्रफुल्लित कमल के समान जिनका मुख है, विशाल एवं गंभीर नेत्रों से जो शोभित हैं, असाधारण प्रज्ञा के जो धनी हैं, सम्पूर्ण विद्याओं के जो निलय हैं, वज्रमयी अंग के जो धारक हैं, पुण्य की जो मूर्ति हैं, पवित्रता जिनका जीवन है, शांति जिनकी राह है, अहिंसा के जो पुजारी हैं, अनेकांतमयी वाणी जिनका वचन-श्रृंगार है, चक्रवर्ती के समान आज्ञा की प्रभुता जिनको वर्तती है, अनेक गुणों से जो अलंकृत हैं, चार-चार देवांगनाओं जैसी सुन्दर गुणवती कामनियों के द्वारा वाचनिक एवं शारीरिक कामोत्पादक चेष्टाओं की बौछारें पड़ने पर भी जो रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए - "धन्य-धन्य वे सूर साहसी, मन सुमेर जिनका नहीं काँपे", निज शुद्धात्मा जिनका ध्येय है और मोक्ष जिनका साध्य है, . ऐसे श्री जम्बूस्वामी का चरित्र कहने में यद्यपि महा मुनीन्द्र ही समर्थ हैं तो भी आचार्य परम्परा के उपदेश से आये हुए इस महान चरित्र को मेरे जैसे क्षुद्र प्राणी भी रच रहे हैं, इसका मूल कारण है कि मेरा मन बारंबार इसके लिये प्रेरित कर रहा है। यह साहस तो ऐसा है, जैसे मदोन्मत्त हाथियों के द्वारा संचलित मार्ग में भय के भंडार हिरण भी चले जाते हैं तथा जिनके आगे अजेय योद्धा चल रहे हों, उनके साथ साधारण योद्धा भी प्रवेश कर जाते हैं। इसीप्रकार सूर्य को दीपक दिखाने जैसा मेरा यह साहस है। विशिष्ट पुरुषों के चितवन से मन तत्काल वैराग्य की प्रेरणा पाता है और सातिशय पुण्य का संचय करता है। आचार्यों ने कहा भी है कि मन की शोभा वैरागी रस से है, बुद्धि की शोभा हितार्थ के अवधारण में है, मस्तक की शोभा नव देवों को नमस्कार करने में है, नेत्रों की शोभा शांत-प्रशांत वीतरागरस झरती मुखमुद्रा के निहारने में है, कान की शोभा वीतरागमयी गुणों के श्रवण करने में है, घ्राण की शोभा आत्मिक सुख-शांतिदायक स्वास-प्रस्वास के लेने में है, जिह्वा की पवित्रता आत्मा-परमात्मा के गुणस्तवन में है, हृदय की शोभा अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में हित का मार्ग चुनने में है, भुजाओं की शोभा शांतरस गर्भित वीररस में है, हस्तयुगल की शोभा पात्रदान देने में, जगत के जीवों को अभयदान देने में और वीतरागता के पोषक वचनों को लिखने आदि में है, उदर की गंभीरता आत्महितकारक गुणों को संग्रहीत करने में है, पीठ की शोभा प्रतिकूलता के समूह में भी धर्म के मार्ग में सुमेरुसमान दृढ़ - अचल रहने में है। जीवों की यह जड़मय देह रोगों से ग्रसित है, समस्त अशुचिता की खान है, कागज की झोपड़ी के समान क्षण में उड़ जानेवाली होने से अनित्य है और प्रतिसमय मृत्यु के सन्मुख अग्रसर है, परन्तु महापुरुषों का ज्ञानानंदमयी विग्रह (देह) होने से शाश्वत एवं अक्षय है, समस्त पवित्रताओं से निर्मित है, चैतन्यमयी गुणों का निकेतन है, उसकी उपासना जो भव्योत्तम करते हैं, वे अल्पकाल में गुणनिधान अशरीरी सिद्धत्वपने को प्राप्त होते हैं। पंचम परम पारिणामिक भाव को भजकर, पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके, पंचेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके, पंच परावर्तन का अभाव करके, पंचमगति को प्राप्त श्री जम्बूस्वामी का यह उत्तम चरित्र है। इस उत्तम कथा के सुनने से या पढ़ने से मनुष्यों को जो सुख उत्पन्न होता है, वही बुद्धिमान मनुष्यों का स्वार्थ - आत्मप्रयोजन है तथा यही सातिशय पुण्य उपार्जन का कारण है। श्री वर्धमान जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि में आया हुआ, श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर के द्वारा प्रतिपादित किया गया तथा सुधर्माचार्य आदि आचार्य परम्परा से चला आया यह चरित्र है। इसे ही आगम के आधार से पांडे श्री राजमलजी ने संस्कृत पद्य में रचा, उसका हिन्दी अनुवाद ब्र. शीतलप्रसादजी कृत है, उसी के आधार से प्रस्तुत चरित्र रचा जा रहा है। (अपने कथानायक श्री जम्बूस्वामी का भूतकाल यहीं से प्रारंभ होता है। इसे पढ़ते ही हम यह महसूस करेंगे कि धर्मात्माओं के साथ धर्म की शीतल छाया में पनपने वाला पुण्य भी अपनी छटा बिखेरता ही रहता है, क्योंकि पुण्य और पवित्रता का अपूर्व संगम स्थान धर्मात्मा ही हुआ करते हैं। जिस प्रकार युद्धक्षेत्र में लक्ष्मण को शक्ति लग जाने से वे निस्चेत हो गये थे, उस समय विशल्या के प्रवेश होते ही मूर्छा आदि संकटों ने अस्ताचल की राह ग्रहण कर ली थी। उसी प्रकार भावी धर्मात्माओं के अवतरित होने के पहले ही पाप एवं द:ख-दारिद्रय भी अस्ताचल की ओर गमन करने लग जाते हैं। चलिये, हम उस नगरी एवं नगरवासियों के पुण्य की छटा का अवलोकन करें।) |