कथा :
धन-धान्य एवं सुवर्णादि से पूर्ण इस मगधदेश में पूर्वकाल में एक वर्धमान नाम का नगर था, जो वन, उपवन, कोट एवं खाइयों से युक्त और अत्यन्त शोभनीय था। उसी नगर में वेदों के ज्ञाता अनेक ब्राह्मण लोग रहते थे, जो पुण्य-प्राप्ति हेतु यज्ञ में पशु आदि की बलि चढ़ाते थे। उन्हीं में एक आर्यवसु नाम का ब्राह्मण भी था, वह भी धर्म-कर्म में प्रवीण था। उसकी सोमशर्मा नाम की पत्नी थी, जो सीता के समान सुशील एवं पतिव्रता थी। उसके भावदेव और भवदेव नाम के दो पुत्र थे, जो चन्द्र-सूर्य के समान शोभते थे। जाति से ब्राह्मण होने के कारण उन्होंने वेद, शास्त्र, व्याकरण, वैद्यक, तर्क, छन्द, ज्योतिष, संगीत, काव्य-अलंकार आदि विद्याओं में कुशलता प्राप्त कर ली थी। दोनों ही भाई ज्ञान-विज्ञान एवं वाद-विवाद में अति प्रवीण थे और जैसे पुण्य के साथ इन्द्रिय सुख का प्रेम होता है, वैसे ही दोनों आपस में प्रीतिवंत थे । दोनों ही सुखपूर्वक वृद्धिंगत होते-होते कुमार अवस्था को प्राप्त हुए ही थे कि पापोदय से उनके पिता को कुष्ट रोग हो गया। उसके आँख, नाक आदि अंग-उपांग गलने लगे, जिससे वह दुःख में अति व्याकुल हो गया था। अरे, रे! प्राणियों को अज्ञान के समान और कोई दूसरा दुःख नहीं है। ज्ञान-नेत्र बन्द होने से उसने पशुबलि आदि विवेकहीन कार्यों में पंचेन्द्रिय जीवों को वचनातीत दुःख दिये थे, उनका फल तत्काल ही वह भोगने लगा। किसी भी इन्द्रिय का विषय-सेवन अच्छा नहीं। जब न्याय-नीति से प्राप्त उचित भोग आदि कार्य भी पापबंध के कारण होते हैं, तब भला पापों में मस्त होकर किये गये अनुचित कार्य कहाँतक अच्छे हो सकते हैं? इसलिये ज्ञानियों ने इन्द्रिय-विषयों को संसारस्वरूप तथा दुःखदायक जानकर विषतुल्य त्याग ही दिये। ये त्यागने योग्य ही हैं। आत्मा का आनंद निर्विकारी है, मोक्षसुख दायक हैं, इसलिए हे भव्य ! उसी धर्मामृत का पान करो। यह मनुष्य रत्न बार-बार मिलना मुश्किल है। मनुष्यभव को हारने का कभी विचार भी नहीं करना चाहिए। इतना होने पर भी अज्ञान-अंधकार से ग्रसित वह ब्राह्मण वेदना से छुटकारा पाने से लिए नित्य ही अपना मरण चाहने लगा, मगर आयु पूर्ण हुए बिना मरण कैसे हो सकता है? मरण न होने से वह कीट-पतंग के समान स्वयं अग्नि की चिता में गिरकर भस्म हो गया। पति-वियोग से पीड़ित उसकी पत्नी सोमशर्मा भी उसी चिता में जलकर भस्म हो गई। माता-पिता से रहित वे दोनों भाई महादु:खी हो गये। उन दोनों बालकों के ऊपर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा, वे शोक से संतापित हो करुणा-उत्पादक विलाप करने लगे, तब उन्हें उनके परिवारजनों ने संबोधन कर धीरज बँधाया, जिससे वे दोनों कुछ सावधान हुए। उसके बाद उन्होंने अपने माता-पिता के उस कुल में जो-जो संध्या तर्पण आदि क्रिया-कर्म होते, उन्हें किया। पश्चात् अपने गृहकार्य आदि में लग गये तथा इसीप्रकार संसारिक कार्यों में लगे उनको बहुत दिन बीत गये। उनके महाभाग्य से उसी नगर के वन में एक वीतरागी संत श्री सौधर्माचार्य योगिराज पधारे, जो साक्षात् धर्म की मूर्ति ही थे। वे रत्नत्रय के धारी, बाह्याभ्यंतर सभी प्रकार के परिग्रह के त्यागी, जन्मे हुए बालकवत् नग्न दिगम्बर रूप के धारी एवं व्रत-समितियों में पूर्ण निर्दोष आचरणवंत थे। वे दया, क्षमा, शांति आदि गुणों से विभूषित थे। वे एकांत मतों के खण्डन करनेवाले एवं स्याद्वाद विद्या के धारी थे। वे उपसर्ग-परीषहों पर जय प्राप्त करनेवाले एवं तपरूपी धन से अलंकृत थे। ऐसे अनेक गुण युक्त वे आचार्य आठ मुनियों के संघ सहित वन में आ विराजमान हुए। अहो! मुनिराजों का स्वरूप कितना अलौकिक है। वीतरागी संतों का स्वरूप ऐसा ही होता है। वहाँ पूज्यवर सौधर्माचार्यजी का जगतजन को हितकर, वैराग्यवर्द्धक और आनंदमयी धर्मोपदेश हो रहा है। "चलूँ, मैं भी धर्मामृत का पान करूँ" - इस प्रकार विचार करके भावदेव ब्राह्मण वन के लिए चल दिया तथा शीघ्र ही वन में पहुँच कर आचार्यदेव को नमस्कार कर वहीं बैठ गया। |