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श्रेणिक को समवशरण के समाचार

  कथा 

कथा :

अनेक राजागणों से पूज्य ऐसे महाराजा श्रेणिक अपनी राजसभा में सिंहासन पर आसीन हैं। जैसे सुमेरु पर्वत से बहने वाले झरने सूर्य की किरणों से चमचमाते हैं, वैसे ही राजा श्रेणिक के दोनों ओर दुरनेवाले चमर चमचमा रहे हैं। तथा चंद्रमंडल समान सिर पर छत्र शोभ रहा है।

इसी मंगलमयी बेला में राजगृही नगरी के विपुलाचलपर्वत को महामंगलमयी श्री वीरप्रभु के समवशरण ने पवित्र किया। इन्द्र ने भी प्रमुदित चित्त से द्वादश सभाओं की रत्नमयी रचना कराके अपने को कृतार्थ अनुभव किया। विपुलाचल पर्वत के उद्यानों में छहों ऋतुओं के फलफूल प्रगट होकर मानो प्रभु की पवित्रता का अभिनन्दन कर रहे हैं ।

तभी वनपाल ने उद्यान में प्रवेश किया, वहाँ कोयल की कूक सुनकर वह आश्चर्यचकित हो गया, वृक्षों की ओर देखते ही उसका विस्मय दुगुना हो गया। बिना ऋतुओं के समस्त फलफूलों को देखकर किसे आश्चर्य नहीं होगा? तब फिर वह पर्वत की ओर देखता है तो उसे भव्य समवशरण एवं उसके मध्य विराजमान भगवान दिखे उसने तत्काल हाथ जोड़कर नमस्कार किया और शीघ्र ही श्रेष्ठतम फलों को चुनकर महाराजाधिराज श्रेणिक की सेवा में प्रस्तुत हुआ तथा राजा को प्रणाम कर सभी सुन्दर फलों को समर्पित करता हुआ खड़ा हो गया।

महाराज श्रेणिक ने वनपाल से समस्त ऋतुओ के सुन्दर-सुन्दर फलों को पाकर आश्चर्य व्यक्त किया तथा उसके प्रस्तुत होने का कारण पूछा?

तब वनपाल हाथ जोड़कर रहने लगा - "हे राजन् ! मैं एक आनंदमयी समाचार सुनाने प्रस्तुत हुआ हूँ। वह समाचार यह है कि मैंने अपने ही नेत्रों से प्रत्यक्ष एक आश्चर्यकारी दृश्य देखा है, जिसका पूर्ण वर्णन तो मैं नहीं कर सकता हूँ, फिर भी कुछ वर्णन अवश्य करता हूँ। हे महाराज ! अनेक प्रकार से विपुलता को प्राप्त इस विपुलाचल पर्वत पर मंगलमयी देशना बरसाता हुआ श्री वीरप्रभु का समवशरण रचा हुआ है, जिसकी शोभा अद्भुत है। उसमें स्वर्गलोक के देवगण भी नतमस्तक हो, भक्तिविभोर हो प्रभु की सेवा-उपासना में मग्न हैं ।"

वनपाल से आनंदमयी समाचार सुनकर राजा अति ही आनंदित हुआ। सिंहासन से उठकर सात कदम आगे चलकर प्रभु को परोक्ष नमस्कार किया तथा उसने उसी समय तत्काल ही भेरी बजवाकर समस्त नगरवासियों को उत्साह सहित श्रीमजिनेन्द्र महावीर प्रभु के दर्शनार्थ चलने का समाचार कहला दिया।

श्री वीर प्रभु के विपुलाचल पर पधारने का संदेश शीघ्र ही सुगंधित वायु की भाँति सम्पूर्ण नगर में फैल गया। सभी नर-नारी शीघ्र ही स्वच्छ वस्त्रों को धारण कर हाथों में उत्तम-उत्तम द्रव्यों की थालियाँ लेकर पुलकित वदन चल दिये। भगवान के समवशरण के प्रताप से इस नगर में कोई रोगी नहीं रहा, कोई दीन-हीन और दरिद्री नहीं रहा, दुर्भिक्ष तो न जाने कहाँ चला गया। भूमि स्वर्ग-समान, कंकड़-कंटक रहित हो गई। मंद सुगंधित वायु चलने लगी।

महाराजा श्रेणिक भी समस्त इष्टजनों, श्रेष्ठजनों एवं नगरजनों के साथ श्रेष्ठ हाथी पर आसीन हो दल-बल सहित श्री वीर प्रभु के दर्शनार्थ विपुलाचल की ओर चल रहे हैं, परन्तु वे आज अत्यंत आश्चर्यचकित हैं, उन्हें ऐसा लग रहा है कि मानो उन्होंने नगर एवं उपवन प्रथम बार ही देखा हो। वे बारंबार विस्मय पूर्वक महावत से पूछते हैं - “हे महावत! तुम कौन से नगर में ले चल रहे हो? इस नगर को तो मैंने कभी देखा ही नहीं, इतनी सुगंधित वायु किस उपवन से आ रही है? यह पथ स्फटिकमणि के समान स्वच्छ क्यों दिख रहा है? ये पक्षीगण प्रमुदित हो मधुर स्वर से गायन क्यों कर रहे हैं? ये मयूरगण असमय में ही आनंद-विभोर हो नृत्य क्यों कर रहे हैं? अहो! यह कोयल की मीठी मधुर कूक कहाँ से आ रही है? अरे! अरे! महावत! देखो तो आम्रवृक्ष पीठे, स्वादिष्ट एवं लोचनानंद आमों के गुच्छों से शोभ रहे हैं, अरे, चारों ओर छहों ऋतुओं के फल-फूल ? ये बिना ऋतु के ऋतुराज वसंत कैसे आ गए ?"

सभी नगरवासी भी आश्चर्यचकित हैं, परन्तु राजा के साथ-साथ सभी चल रहे हैं। महावत भी सोचता है - "अरे! मैं कहीं अन्य रास्ते पर तो नहीं आ गया हूँ? यह सब क्या है? ऐसा तो मैंने भी कभी नहीं देखा।"

महावत चारों ओर अच्छी तरह देखता है, फिर उसे ऐसा निर्णय होता है - "नहीं, नहीं, यही सत्य मार्ग है।"

फिर महावत राजा को कहता है - "हे राजन् ! यह वही नगर एवं उपवन है, जहाँ आप प्रतिदिन आया करते हैं। आज ये नगर एवं उपवन भी श्री वीरप्रभु की केवल्य-लक्ष्मी का आनंद से स्वागत कर रहे हैं, इसलिए ही मनमोहक हरियाली फल-फूल एवं सभी पक्षीगण एकत्रित हुए हैं।"

वन में से वनराज सिंह, वाघ, हाथी, घोड़ा, सियार, चीता, वानर आदि और कूकर, बिल्ली, चूहा, सर्प, अजगर आदि सभी जाति विरोधी और अविरोधी थलचर पशु भी वैर-विरोध छोड़कर शांतभाव से प्रभु के दर्शनार्थ चले आ रहे हैं। काग, चिड़िया, मोर, कबूतर, तीता आदि सभी नभचर पक्षी भी आनंद से उड़ते हुए प्रभु के दर्शनार्थ आ रहे हैं। सभी प्राणी अत्यंत हर्षायमान हैं। प्रभु का कैवल्य सभी जीवों को निज कैवल्य प्रगटाने के लिए प्रेरणा दे रहा है।

मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः।
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः॥
हे समस्त लोक के प्राणियों! तुम विभ्रमरूपी पर्दे को समूलतः चीरकर फेंक दो और यह जो शांतरस से लबालब भरा ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा है, उसमें अच्छी तरह सभी एकसाथ ही आकर अन्तर्मग्न हो जाओ अर्थात् अब बाहर आना ही नहीं।"

मानो यही बात दुन्दुभिवाद्य नाम का प्रतिहार्य भी कह रहा है - "हे जीवो! मोह रहित होकर जिनेन्द्र प्रभु की शरण में जाओ।"

भव्य जीवों को ऐसा उपदेश देने के लिए ही मानो देवों का दुन्दुभी बाजा गंभीर शब्द करता है। दुन्दुभी बाजे के गंभीर नाद की प्रेरणा से आकर्षित होकर राजा श्रेणिक आदि भी सभी जन प्रभु के दर्शनार्थ समवशरण में पहुँच चुके हैं। सभी ने हाथ जोड़कर, मस्तक नवाकर, भक्तिभाव से प्रभु को नमस्कार किया। तीन प्रदक्षिणा देकर सभी स्तुति कर रहे हैं -

नाथ चिद्रूप दिखावे रे, परम ध्रुव ध्येय सिखावे रे॥टेक॥
चेतनबिम्ब जिनेश्वर स्वामी, ध्यानमयी अविकारा ।
दर्पण सम चेतन पर्यय गुण, द्रव्य दिखावनहारा ॥
इसके बाद सभी ने अपने-अपने स्थान पर बैठकर प्रभु की दिव्यध्यनि श्रवण की। फिर श्रेणिक राजा ने हाथ जोड़कर विनय सहित गौतम स्वामी से कुछ प्रश्न पूछे - "हे गुरुवर! सात तत्त्वों का क्या स्वरूप है? धर्म किसे कहते हैं? उस धर्म की प्राप्ति का क्या उपाय है?"

तब चार ज्ञान से सुशोभित, अनेक ऋद्धियों के अधिपति एवं क्षमा, शांति, ज्ञान, वैराग्य आदि गुणों के धारक श्री गौतम गणधरदेव ने राजा के प्रश्नों के उत्तर स्वरूप जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का वर्णन किया - "हे भव्योत्तम! तत्त्व सात होते हैं, जिनके नाम इसप्रकार हैं जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व, आस्रव तत्त्व, बंध तत्त्व, संवर तत्त्व, निर्जरा तत्त्व और मोक्ष तत्त्व। इनका स्वरूप क्रमश: इसप्रकार जानना चाहिये -

जीव तत्त्व :- छह द्रव्यों के समुदाय स्वरूप इस लोक में जो ज्ञान-दर्शन चेतना लक्षण से लक्षित है, वह जीव तत्त्व है। वह सदा सत्स्वरूप असंख्यातप्रदेशी अनादि-अनंत एवं अनंतगुणों का धारक है। वह परमार्थ से चैतन्य, सुख, सत्ता और अवबोध प्राणों से जीता है और व्यवहार से पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास - इन दस प्राणों से जीता है, इसे आत्मा भी कहते हैं। हे श्रेणिक ! ऐसे निजात्मा का ही आश्रय लेना योग्य है।

अजीव तत्त्व :- जिसमें ज्ञान-दर्शनादि गुण नहीं पाये जाते, जो सदा पूरन-गलन स्वभाव वाला तथा जिसमें स्पर्श, रस, गंध, और वर्ण पाये जाते हैं - ऐसा यह पुद्गल द्रव्य अजीव है और इसके अलावा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल - ये भी अचेतन एवं अमूर्तिक होने से अजीव तत्त्व में ही गर्भित है ।

आस्रव-बन्ध तत्त्व :- अपने आत्मस्वभाव को भूलकर जीव ने जो अनादि से मोह-राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुच्या एवं वेदादि के विकारी भाव किये हैं और अभी भी कर रहा है, वही आम्रव तत्त्व है तथा इन विकारी भावों को अच्छा मानकर उन्हें ही पोषता है, उनमें ही हितबुद्धि करता है - यही बन्ध तत्त्व है। ये ही जीव को दुःखरूप हैं और भावी दुःख के कारण हैं, इसलिए बुधजन इन्हें छोड़ देते हैं।

संवर-निर्जरा-मोक्ष तत्त्व :- जो जीव अपने ज्ञायक स्वभाव को जानकर, विकारी भावों को छोड़कर अपने में रमता है - स्थित होता है, उसे जो आंशिक वीतरागी भाव उत्पन्न होता है, वही संवर तत्त्व है और उत्पन्न हुए वीतरागी भावों में शुद्धि की वृद्धि होना ही निर्जरा तत्त्व है और निजात्मा में पूर्ण रमना अर्थात् पूर्ण शुद्धता का प्रगट होना एवं सम्पूर्ण अशुद्धता का नाश होना ही मोक्ष तत्त्व है ।

इन तत्त्वों का भाव सहित श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। कहा भी है -

तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।
जो जीव इसप्रकार के श्रद्धान-ज्ञान-सहित व्रत-तप अर्थात् निजस्वरूप में विश्रांतिरूप तपादि करता है, वही सम्यक्चारित्र है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है और यही धर्म है जो कि मोह-क्षोभ-विहीन निज आत्मा का परिणाम है। इसी मोक्षमार्ग पर चलकर अनंत जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है। तीनकाल और तीनलोक में यही एकमात्र उपाय है"।

इस प्रकार श्री गौतमस्वामी द्वारा तत्त्वों का एवं मोक्षमार्ग आदि धर्म का स्वरूप समझकर श्रेणिक राजा अति प्रसन्न हुए। इतने में ही आकाश से अद्भुत तेजयुक्त कोई पदार्थ नीचे उतरता हुआ दिखाई पड़ा। वह ऐसा चमक रहा था, मानो सूर्यबिम्ब ही अपना दूसरा रूप बनाकर पृथ्वीतल पर श्री वीतराग प्रभु के दर्शन के लिये आ रहा हो। सभी उस तेज को देख तो रहे हैं, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे हैं, इसलिए उसी के संबंध में सभी जन आपस में एक-दूसरे से पूछने लगे - "ये क्या है ? ये क्या है?"

इसीप्रकार का प्रश्न श्रेणिक राजा के अन्दर भी उत्पन्न होने से वे अपनी जिज्ञासा शांत करने हेतु हाथ जोड़कर विनयसहित श्री गौतमस्वामी गुरुवर से पूछने लगे - “हे गुरुवर! यह तेज किस चीज का है, जो आकाश मार्ग से गमन करता हुआ पृथ्वीतल पर आ रहा है? इसके अकस्मात् आने का क्या कारण है?"

गुरूवर बोले - "हे राजन! यह तेज महाऋद्धिधारी विद्युन्माली नाम के देव का है। धर्म में अनुराग होने से यह अपनी चारों देवियों सहित श्री वीरप्रभु की वंदना के लिए पृथ्वीतल पर चला आ रहा है। यह भव्यात्मा आज से सातवें दिन स्वर्ग से चयकर मानवपर्याय को धारण करेगा तथा इसी मनुष्यपर्याय में अपनी आराधना को पूर्ण करके मोक्षसुख को प्राप्त करेगा।

श्री गौतमस्वामी के मुख से उस तेजमयी देव का स्वरूप जानकर श्रेणिक राजा का हृदय एक ओर तो उस आराधक की बात सुनकर प्रभुदित हो उठा, दूसरी ओर देवों की अंतिम छह माह में क्या स्थिति होती है, उस बात को याद करके स्तब्ध हो गया। कुछ विचार करने के बाद राजा ने अंजुली जोड़कर पूछा - "हे गुरुवर! कुछ समय पूर्व ही मैंने शास्त्र में पढ़ा था कि देवों की मृत्यु के छह माह पूर्व उनकी माला मुरझा जाती है, शरीर कांतिहीन हो जाता है, कल्पवृक्षों की ज्योति मंद हो जाती है; परन्तु हे नाथ! इस देव के तो ये कुछ चिह्न दिखाई ही नहीं देते। इसका क्या कारण है?"

श्रेणिक राजा के अन्दर उत्पन्न हए संशयरूपी अंधकार को नष्ट करनेवाली सहज ही श्री वीर प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी - "हे भव्य ! इस देव का वृत्तांत जगत को आश्चर्यकारी एवं वैराग्योत्पादक है। यह देव इसके बाद मनुष्यपर्याय को धारण करके केवलज्ञान लेकर अंतिम केवली बनकर मुक्त दशा को प्राप्त करेगा।"

श्रेणिक - "हे प्रभो! अद्भुत दैदीप्यमान तेज के धारी इस पवित्रात्मा देव की पूर्व भवों की साधना-आराधना का वृत्तांत सुनने की मुझे जिज्ञासा उत्पन्न हुई है। उसे बताकर हम पर उपकार कीजिए।"

तब वीरप्रभु की दिव्यध्वनि खिरी -