कथा :
आचार्यवर का भवताप-नाशक और अनंत-सुखदायक उपदेश श्रवण कर भावदेव ब्राह्मण का हृदय भव और भव के भावों से काँप उठा। उसके हृदय में संसार, देह, भागों के प्रति उदासीनता छा गई। मन-मयूर तो वैराग्यरस में हिलोरें लेने लगा। अब उसे एक क्षण भी इस संसार में नहीं रुचता था। वह अविलंब श्री सौधर्माचार्य गुरुवर के निकट जाकर विनय से हाथ जोड़कर मस्तक नवाकर प्रार्थना करने लगा . "हे गुरुवर! मुझे परम आनंददायिनी भगवती जिनदीक्षा देकर अनुगृहीत कीजिए। हे स्वामिन् ! मैं भवसमुद्र में डूब रहा हूँ, रत्नत्रय का दान देकर आप मेरी रक्षा कीजिए। अब मुझे मोक्ष का आनंदमयी अविनाशी सुख चाहिए। इन सुखाभासों में कभी सच्चे सुख की परछाई भी मुझे नहीं मिली। इसलिए हे प्रभो! मैं सर्व परिग्रह एवं सर्व सावध का त्याग करके आकिंचन्यत्व प्राप्त करना चाहता हैं। इसमें ही मुझे सच्चा सुख भासित हो रहा है।" भावदेव ब्राह्मण के भावों को देखकर एवं शांति की पिपासा भरे वचनों को सुनकर श्री सौधर्माचार्य गुरुवर ने उसे जाति, कुल आदि से पात्र जानकर अतीन्द्रिय आनंद देनेवाली और संसार-दुखों से मुक्ति प्रदान करनेवाली जैनेश्वरी दीक्षा देकर अनुगृहीत किया। श्री भावदेव मुनिराज मुक्ति की संगिनी जिनदीक्षा को प्राप्त कर अतीन्द्रिय आनंद का रसास्वादन करने लगे। शरीर होने पर भी अशरीरी दशा को साधने लगे। सिद्ध प्रभु से बातें करने लगे। आ हा हा! चलते-फिरते सिद्ध के समान उनमें तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप अकषायरस आनंदरस- वैराग्यरस उछलने लगा। स्वभाव की साधना देख विभाव एवं कर्मबंधनों ने अस्ताचल की राह ग्रहण कर ली। जिस समय हो आत्मदृष्टि कर्म थर-थर काँपते हैं ।
संयम की संभाल करते हुए योगीराज श्री भावदेवजी इस पृथ्वीतल पर ईर्यासमिति पूर्वक, गुणों के निधान गुरुवर के साथ ही विहार करने लगे। सुख-दुःख के प्रसंगों में समताभावपूर्वक कभी आत्मध्यान, तो कभी स्वाध्याय में रत हो विचरण करने लगे। नि:संगी आत्मा की निःशल्य हो सम्यक् प्रकार से आराधना करने लगे, संतों की अंतर्बाह्य सहज दशा को निम्न प्रकार से कहा जा सकता है।स्वभाव की एकाग्रता लख छोड़ खुद ही भागते हैं । विषयसुख विरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ता:
जो विषयसुख से विरक्त हैं, शुद्ध तत्त्व में अनुरक्त हैं, तप में लीन जिनका चित्त है, शास्त्रसमूह में जो मत्त हैं, गुणरूपी मणियों के समुदाय से युक्त हैं और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं, वे मुक्तिसुन्दरी के वल्लभ क्यों न होंगे? अवश्य ही होंगे।तपसि निरतचित्ता: शास्त्रसंघातमत्ताः । गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेतेः ॥ गुणनिधि गुरुवर के उपदेश से निज परम-ब्रह्म भगवान आत्मा को देखकर भावदेव महाराज को अन्दर में ध्रुवधाम ध्येय की धुन लग गई। उस धुन ही धुन में वे उग्र तप तपने लगे। पश्चात् सविकल्प दशा में आकर वे विचारते हैं कि - स्वाध्यायध्यानमैकाग्रयं ध्यायन्निह निरंतरम् ।
मैं धन्य हूँ, कृतार्थ हूँ, भाग्यवान हूँ, अवश्य ही मैं भवसागर से तिरनेवाला हूँ, जो मैंने इस उत्तम जैनधर्म का लाभ प्राप्त किया है ।शब्दब्रह्ममयं तत्वमभ्यसन् विनयानतः ॥ अनेक वन, उपवन, पर्वतों में संयम की साधना करते हुए एवं धर्मामृत की वर्षा करते हुए श्री सौधर्माचार्यजी संघ सहित विहार करते-करते कुछ समय बाद वर्धमानपुर (श्री भावदेव मुनिराज के नगर) में पुनः पधारे। स्व-पर के हित में तत्पर, शांत, प्रशांत रस में तल्लीन भावदेव मुनिराज को वहाँ अपने गृहस्थदशा के छोटे भाई भवदेव को संबोधित कर कल्याण मार्ग में लगाने का विचार आया। भवदेव ब्राह्मण उस नगर का प्रसिद्ध ख्याति-प्राप्त व्यक्ति था, परन्तु विषयों की आँधी उस पर अपना रंग जमाये हुई थी। लेकिन हठग्राही, एकांतमतों के शास्त्रों में पारंगत, आत्महितकारी यथार्थ बोध से विमुख भवदेव की भव्यता का पाक अर्थात् यथार्थ बोध प्राप्ति की काललब्धि भी अब अति ही निकट आ गई थी। भवि भागन वच जोगे वसाय,
"नगर के वन में श्री सौधर्माचार्य संघ सहित पधारे हुए हैं" - यह समाचार वायुवेग के समान सारी वर्धमानपुरी में फैल गया। इसलिये चारों ओर से नर-नारियों का समुदाय मुनिवरों के दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। भवदेव को भी यह शुभ समाचार ज्ञात हुआ कि मुनिवर-वृन्दों के संघ में मेरे बड़े भ्राता श्री भावदेव मुनिराज भी पधारे हुए हैं। अपने भाई एवं गुरुजनों के दर्शनों की अति तीव्र भावना होने पर भी वह स्वयं के विवाह कार्य में व्यस्त होने से वहाँ नहीं जा पाया, परन्तु जैसे वीरप्रभु को सिंह के भव में उसे संबोधन करने हेतु आकाशमार्ग से दो चारणऋद्धिधारी मुनिवरों का आगमन हुआ था, उसीतरह भवदेव के साथ भी ऐसा बनाव बना कि - श्री भावदेव मुनिराज चर्या हेतु नगर में पधारे, उसीसमय भवदेव को उनके दर्शन का लाभ अनायास ही प्राप्त हो गया।तुम ध्वनि है सुनि विभ्रम नसाय। भवदेव तो आश्चर्यचकित हो मुनिवर की प्रशांत रस झरती वीतरागी मुद्रा को निर्निमेष देखता ही रहा। यद्यपि उसके हृदय में जो जिनधर्म के प्रति अप्रीति के भाव थे, तथापि वे सभी ऐसे पलायमान हो गये जैसे शीतल वायु (बरसाती हवा) के सम्पर्क से नमक पानी का रूप धारण कर बह जाया करता है। वह सोचता है कि “यह कोई चमत्कार है या मेरी दृष्टि में कुछ हो गया है, जो ये नग्न पुरुष इतने आनंदमय सौम्य मुद्रावंत दिखाई दे रहे हैं, जिनके वदन पर वस्त्र का एक ताना-बाना भी नहीं, पास में रंचमात्र भी धन-वैभव नहीं, उन वनखंडों के वासियों में यह शांति कहाँ से आ रही है ? भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी, उपसर्ग, परीषहों की बाधाओं के मध्य यह कमल कैसे खिल रहा है? पंच इन्द्रियों के भोग-उपभोगों के साधनों के अभाव में ये सुख की अनुभूति कैसी? व्रत, उपासना, नीरस आहार आदि से इस वदन में कुंदन समान चमक कैसे आई ?" इत्यादि अनेक प्रकार के विचारों से ग्रसित मन को उसने सत्यता की खोज के लिए बाध्य कर ही दिया। सत्य के उस खोजी को अनेक प्रकार की ऊहा-पोह के बाद सत्यता का रहस्य हाथ लग ही गया। वह सत्यता थी जिनशासन एवं वीतरागभाव की। जिनशासन की यथार्थता का रहस्य पाकर वह मन ही मन अति प्रसन्न हो मुनिराज के चरणारविन्दों में नतमस्तक हो समीप में ही बैठ गया। ज्ञानपयोनिधि मुनिराज श्री भावदेव ने उसके अन्तर की भावनाओं को, उसकी उदासीनता गर्भित प्रसन्नता को भाँप लिया। उसकी पात्रता मुनिराज के ख्याल में आ गई, इसलिए उनके मन में उस परम सुखदायक आर्हत धर्म का उपदेश देने का भाव उदित हो गया। |