कथा :
हे मृग! तेरी सुवास से, वन हुआ चकचूर ।
हे आत्मन् ! तू इस देह में रहकर भी देह से भिन्न एक आत्मा है। तेरा असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र है। तेरे एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत गुण भरे हुए हैं। तू ज्ञान का भंडार है, सुख का खजाना है, आनंद का सागर है, उसमें डूबकी लगा। तू पंचेन्द्रियों के अनंत बाधा सहित एवं अनंत आपत्तियों के मूलभूत इन विषयों में सुख की कल्पना कर रहा है, परन्तु जरा सोच तो सही कि इस चतुर्गति रूप संसार में अनंत काल से भ्रमते-भ्रमते तूने इन्हें कब नहीं भोगा है ? इनके भोग कौन से शेष रहे हैं, जो तूने नहीं भोगे हों ? परन्तु आजतक क्या कभी एक क्षण के लिये भी इनसे सुख-शांति पाई है ?कस्तूरी तुझ पास में, क्या ढूँढ़त है दूर ॥ हे भव्य ! पराधीनता में कहीं भी, किसी को भी सुख की गंध नहीं मिली है। यदि इन्द्रिय-विषयों में सुख होता तो श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ और श्री अरनाथ भगवान तो चक्रवर्ती, कामदेव, और तीर्थंकर तीन-तीन पदवी के धारक थे, उन्हें कौन-सी कमी थी? फिर भी उन्होंने इन्द्रिय विषयों को एवं राज्यवैभव को गले हुए तृण के समान छोड़कर आत्मा के सच्चे अतीन्द्रिय सुख को अपनाया। इस शरीर रूपी कारागृह में फंसे हुए प्राणियों ने इसके नव मलद्वारों से मल का ही सजन कर मल का ही संचय किया है। यह देह मल से ही निर्मित है। उसके भोगों में सुख कहाँ से आयेगा? नव मल द्वार बहें घिनकारी, नाम लिये घिन आवें ।
यह शरीर तो अपवित्रता की मूर्ति है और भगवान आत्मा तो सदा पवित्रता की मूर्ति है। यह देह तो रोगों का भंडार है और भगवान आत्मा तो सदा ज्ञान-आनंद का निकेतन है। यह देह तो कागज की झोपड़ी के समान क्षण में उड़ जाने वाली है और भगवान आत्मा तो शाश्वत चेतन-बिम्ब है। इसलिए हे सज्जन! तू चेत! चेत!! और सावधान हो !!!हे जीव! तूने अनेकों बार स्वर्ग-नरक के वासों को प्राप्त किया। और नरकों में दस हजार वर्ष से लेकर, कम्रशः तेतीस सागरोपम की स्थिति को प्राप्त करके अनेकों बार वहाँ जन्म-मरण किये। वहाँ भूमिकृत एवं अन्य नारकियों द्वारा दिये गये अगणित दुःख भोगे। इसीतरह एकेन्द्रिय में एक स्वांस में अठारह बार जन्म-मरण के अपरंपार अकथित दुःख भोगे। अब तो इस भव-भ्रमण से विराम ले! यह काया दुःख की ढेरी है। ये इन्द्रिय के कल्पनाजन्य सुख नरक-निगोद के अनंतं दु:खों के कारण हैं। हे बुध! तू ही विचार कि थोड़े दुःख के बदले में मिलनेवाला अनंत सुख श्रेष्ठ है या थोड़े से कल्पित सुखों के बदले में मिलने वाला अनंत दुःख श्रेष्ठ है ? नाम सुख अनंत दुःख, प्रेम वहाँ विचित्रता ।
हे वत्स! ऐसा सुख सदा ही त्यागने योग्य है कि जिसके पीछे अनंत दुःख भरा हो। शाश्वत सुखमयी ज्ञायक ही तुम्हारा पद है। हे भाई! ये काम-भोग तो ऐसे हैं, जिनकी श्रेष्ठजन - साधुजन स्वप्न में भी इच्छा नहीं करते। भोगीजन भी उन्हें भोगने पर स्वत: ही ग्लानि का अनुभव करते हैं। भोगने की बुद्धि भी स्वयं मोहांधरूप है। जिसे शुद्ध ज्ञानानंदमय आत्मा नहीं सुहाता, वह मग्नतापूर्वक भोगों में प्रवर्तता है, परन्तु हे भाई! वह तेरा पद नहीं है। वह तो अपद है, अपद है। इसलिए इस चैतन्यामृत का पान करने यहाँ आ ! यही तेरा पद है! पद है!!नाम दुःख अनंत सुख, वहाँ रही न मित्रता ॥ इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह शिख आदरौ ।
इतना कहकर भावदेव मुनिराज तो वन में चले गये, परन्तु यहाँ मुनिराज के मुखारविंद से धर्मामृत का पान कर भवदेव ब्राह्मण के अन्दर संसार, देह, भोगों के प्रति कुछ विरक्ति के भाव जागृत हो उठे। उसने सकल संयम धारण करने की भावना होने पर भी उसी दिन विवाह होने से अपने को महाव्रतों को धारण करने में असमर्थ जान कर अणुव्रत ही अंगीकार कर लिये। परम सुख दाता जिनमार्ग को पाकर उसके हृदय में मुनिराज को आहारदान देने की भावना जाग उठी। उसने आहारदान देने की विधि ज्ञात की और अतिथिसंविभाग की भावना से आहारदान के समय अपने द्वार पर द्वारापेक्षण कर मुनिराज के आगमन की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि संयम हेतु आहारचर्या के लिये मुनिराज नगर में आते दिखे। मुनिराज को आते देख वह नवधाभक्तिपूर्वक बोला - "हे स्वामिन् ! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु! अत्र, अत्र, अत्र ! तिष्ठो, तिष्ठो, तिष्ठो! मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि ! आहार-जल शुद्ध है!" - इसप्रकार मुनिराज को पड़गाहन कर गृह-प्रवेश कराया, उच्च आसन दिया एवं पाद-प्रक्षालन तथा पूजन करके आहारदान दिया। पुण्योदय से उसे आहारदान का लाभ प्राप्त हो गया। भवदेव श्रावक के हर्ष का अब कोई पार न रहा। सिद्ध-सदृश यतीश्वर को पाकर वह अपने को कृतार्थ समझने लगा और आनंद-विभोर हो स्तुति करने लगा -जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ ॥ धन्य मुनिराज हमारे हैं, अहो! मुनिराज हमारे हैं ॥टेक॥
आहार लेकर श्री भावदेव मुनिराज ने वन की ओर गमन किया जहाँ उनके गुरुवर श्री सौधर्माचार्यजी विराज रहे थे। ईर्यासमितिपूर्वक योगीराज गमन कर रहे हैं, उनकी विनय करने की भावना से भरे हृदय वाले अनेक नगरवासियों के साथ भवदेव श्रावक श्री गुरुवर को वन तक पहुँचाने के भाव से उनके पीछे-पीछे चल रहा है। कुछ व्यक्ति तो थोड़ी दूर जाकर मुनिराज को नमस्कार कर वापिस अपने-अपने घर को लौट आये, मगर भवदेव सोचता था कि मुनिराज आज्ञा देंगे, तभी मैं जाऊँगा। मुनिराज तो कुछ भी बोले बिना आनंद की धुन में झूलते-झूलते आगे बढ़ते ही जा रहे थे। भवदेव सोचने लगा - "अब हम नगर से बहुत दूर आ गये हैं, इसलिए भाई को बचपन के खेलने-कूदने के स्थलों की याद दिलाऊँ, शायद इससे वे मुझे वापिस लौटने की आज्ञा दे दें।"धन्य मुनिराज का चिंतन, धन्य मुनिराज का घोलन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज की थिरता ॥१॥ धन्य मुनिराज का मंथन, धन्य मुनिराज का जीवन । धन्य मुनिराज की विभुता, धन्य मुनिराज की प्रभुता ॥२॥ भवदेव बोला - "हे प्रभो! हम दोनों बचपन में यहाँ क्रीड़ा करने आया करते थे। यह क्रीड़ा-स्थल अपने नगर से कितनी दूर है? यह उद्यान भी कितनी दूर है, जिसमें हम गेंद खेला करते थे? यहाँ अपने नगर का कमलों से सुशोभित सरोवर है, जहाँ हम स्नान किया करते थे। यहाँ हम दोनों मोर की ध्वनि सुनने बैठा करते थे।" इत्यादि अनेक प्रसंगों की याद दिलाते हुए वह चल तो रहा था मुनिराज के साथ, मगर अपने हाथ में बँधी कंकण की गाँठ को देख-देखकर उसका मन अन्दर ही अन्दर आकुलित हो रहा था। उसके पैर मूर्छित मनुष्य की तरह लड़खड़ाते हुए पड़ रहे थे, उसके नेत्रों में पत्नी की ही छवि दिख रही थी और नवीन वधू नागवसु की याद से उसका मुखकमल भी मुरझाया जैसा हो गया था। दूसरी ओर उसके मन में अनंत सुखमय वीतरागी संतों का मार्ग भी भा तो रहा ही था, उसका मन बारंबार इन्द्रियसुख से विलक्षण अतीन्द्रिय सुख का प्रचुर स्वसंवेदन करने के लिए प्रेरित हो रहा था। एक ओर सांसारिक दुःखों की भयंकर गहरी खाई तो दूसरी ओर सादि अनंत काल के लिए आत्मिक अनंत आनंद दिख रहा था। अरे! "किसे अपनाऊँ - किसे न अपनाऊँ ? मैं तो सुख का मार्ग ही अपनाऊँगा।" - इसप्रकार विचारमग्न भवदेव दुविधा में झूल रहा था - "अरे रे! वह नागवस्तु क्या सोचेगी? उसके ऊपर क्या बीत रही होगी? क्या एक निरपराधी के साथ ऐसा करना अनुचित नहीं होगा? क्या मैं पामर नहीं माना जाऊँगा? क्या मैं लोक में हँसी का पात्र नहीं होऊँगा?..... नहीं, नहीं लोक संज्ञा से लोकाग्र में नहीं जाया जा सकता। एक बार पत्नी और परिवारजन भले ही दु:खी हो लें, समाज कुछ भी कहे, मगर समझदारों का विवेक तो हमेशा हित-गवेषणा में तत्पर रहता है। मैं तो जैनेश्वरी दीक्षा ही अंगीकार करूँगा।" इसप्रकार के द्वन्दों में झूलता हुआ भवदेव, मुनिराज के साथ पूज्य गुरुवर श्री सौधर्माचार्य के निकट पहुँच गया। गुरुराज को नमस्कार कर वहीं दोनों जन विनयपूर्वक बैठ गये। संघस्थ मुनिवर वृन्दों ने श्री भावदेव मुनिराज को कहा - "हे महाभाग्य ! तुम धन्य हो, जो इस निकट भव्यात्मा को यहाँ इस समय लेकर आये हो। आप दोनों मोक्षमागी आत्मा हो। आप दोनों के कंधों पर ही धर्म का स्यन्दन (रथ) चलेगा।" वन में विराजमान मोक्ष मंडली एवं वहाँ के शांत वातावरण को देख भवदेव मन ही मन विचारने लगा - "मैं परमपवित्र इस संयम को धारण करूँ या पुनः घर जाकर नवीन वधू को संबोध कर वापिस आकर जिनदीक्षा लूँ।" संशय के हिंडोले में झूलता हुआ भवदेव का मन एक क्षण भी स्थिर न रह सका। वह विचारता है - "अभी मेरे मन में संशय है, अतः मैं दिगंबर वेष कैसे धर सकूँगा? और मेरा मन भी कामरूपी सर्प से डसा हुआ है। मेरे जैसा दीन पुरुष इस महान पद को कैसे धारण कर सकेगा? लेकिन यदि मैं गुरु-वाक्य को शिरोधार्य न करूँ तो मेरे बड़े भ्राता को बहुत ही ठेस पहुँचेगी।" इसतरह उसने अनेक प्रकार के विकल्पजालों में फंसे हुए अपने मन को कुछ स्थिर करके सोचा तो अंततोगत्वा उसे परमसुखदायनी, आनंदप्रदायनी जैनेश्वरी दीक्षा ही श्रेष्ठ भासित हुई। फिर भी उसके मन में यह भाव भी आया कि कुछ समय यहाँ रहकर बाद में अवसर पाकर मैं अपने घर को लौट जाऊँगा। पुन: उसका मन पलटा - "अरे! मुझे ऐसा करना योग्य नहीं। मैं अभी ही जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करूँगा।" |