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आर्यिका नागवसु द्वारा भवदेव का स्थितिकरण

  कथा 

कथा :

वे आहार-चर्या को निकलने के पहले जब जिन-मंदिर में जिनेन्द्रदेव के दर्शन करने को गईं तो ज्ञात हुआ कि कोई मुनिराज यहाँ पधारे हुए हैं। मुनिराज को चर्या हेतु निकल जाने के बाद वह स्वयं भी चर्या को निकलीं। आहार-चर्या करने के बाद मुनिराज पुन: जिन-मंदिर में पधारे, तब श्री नागवसु आर्यिकाजी अपनी गणीजी सहित उनके दर्शनार्थ पधारी। आर्यिका-संघ ने मुनिराज को नमस्कार करते हुए रत्नत्रय की कुशलता पूछी। मुनिराज ने भी आर्यिका-व्रतों की कुशलता पूछी।

कुछ देर बाद विषय-वासना से डसे चित्त-युक्त भवदेव मुनि समभाव से आर्यिकाजी की ओर देखते हुए पूछते हैं - "हे आर्या ! इस नगर में आर्यवसु ब्राह्मण के दो विद्वान एवं सर्वमान्य प्रसिद्ध पुत्र थे। उनमें से बड़े का नाम भावदेव एवं छोटे का नाम भवदेव था। वे वेद-पारगामी और वक्ता भी थे। हे पवित्रे! क्या आप उन्हें जानती हैं ? उनकी दशा अब कैसी है? वे किसतरह रहते हैं?"

सुचरित्रवती एवं निर्विकार भाव को रखने वाली आर्यिकाजी प्रश्न सुनते ही सोचने लगीं - "अरे! मुनिराज को तो ज्ञान-वैराग्यवर्द्धक कुछ कहना या पूछना योग्य होता है, उसके बदले में ऐसा अयोग्य प्रश्न! अवश्य ही मुनिराज के अन्दर कुछ दूसरा ही कारण लगता है ।

फिर भी आर्यिकाजी ने शांतभाव से उत्तर देते हुए कहा - "हे महाराज! उन दोनों ब्राह्मण पुत्रों का महान पुण्योदय होने से उनने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। वे मंगलमयी आत्माराधना में संलग्न हैं।"

आर्यिकाजी के वचन सुनकर आतुरचित्त भवदेव मुनि पुन: प्रश्न करने लगे, मानो वे अपने अन्दर छिपे हुए खोटे अभिप्राय को ही उगल रहे हों - "हे आर्या! भवदेव के मुनि हो जाने के बाद उसकी नव-विवाहिता नागवसु पत्नी अब किस तरह रहती है?"

बुद्धिमान आर्यिकाजी ने उसके विकार युक्त अभिप्राय को, उसके भययुक्त मन को तथा काँपते हुए शरीर को देखा तो वे विचारने लगीं - "अरे, रे! यह मुनिपद धारण करके भी कैसा मति-विमोहित हो कामाध हो रहा है? यह निश्चित ही दुस्सह कामभाव से पीड़ित हुआ होने से कांच-खंड के लिये रत्न को खो बैठा है। इसलिए धर्म से विचलित होने वालों को धर्मामृत-पान द्वारा पुन: स्थितिकरण कराना मेरा कर्तव्य है।"

व्रत, शील एवं चारित्र को दृढ़ता से पालती हुई आर्यिकाजी विनय से मस्तक झुकाकर सरस्वती के समान सुखकारी वचनों से उन्हें संबोधने लगीं।