+ मोक्षसाधिका नागवसु आर्यिका द्वारा भवदेव मुनि को संबोधन -
मोक्षसाधिका नागवसु आर्यिका द्वारा भवदेव मुनि को संबोधन

  कथा 

कथा :


कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान्
भवभ्रमणकारणं स्मरशरन्निदग्धं मुहुः ।
स्वभावनियतं सुखे विधिवशादनासादितं
भजत्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः ॥
हे यति! जो चित्त भव-भ्रमण का कारण है और बार-बार कामबाण की अग्नि से दग्ध है - ऐसे कषायक्लेश से रंगे हुए चित्त को तू अत्यन्त (पूर्णतः) छोड़ और जो विधिवशात् अप्राप्त है - ऐसे निर्मल स्वभाव-नियत सुख को तू प्रबल संसार की भीति से डरकर भज ।

तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् ।
परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्वत कलिहतोऽसौ जड़मतिः ॥
इस लोक में तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राणप्यारी है, वह योग्य तपश्चर्या इन्द्रों को भी सतत वंदनीय है। उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसारजनित सुख में रमता है, वह जड़मति, अरे रे! कलि से घायल हुआ है।

आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं
ध्यानध्येयप्रमुखसुतपः कल्पनामात्ररम्यम् ।
बुद्ध्वा धीमान् सहज परमानन्दपीयूषपूरे
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।
हे बुद्धिमान ! आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है। ध्यान, ध्येय आदि के विकल्पवाला शुभ तप भी कल्पनामात्र रम्य है - ऐसा जानकर धीमान् सहज परमानंदरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए ऐसे एक सहज परमात्मा का आश्रय करते हैं।

शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि ।
स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ॥
हे श्रमण! तीन शल्यों का परित्याग करके, निःशल्य परमात्मा में स्थित रहकर, विद्वान को सदा शुद्ध आत्मा को स्फुटरूप (प्रगटरूप) से भाना चाहिए।

हे महाराज! आप पूज्य हो, धीर हो, वीर हो, निर्ग्रन्थ हो, वीतरागी हो, महान बुद्धिमान हो, धन्य हो, जो तीन लोक में महादुर्लभ ऐसा चारित्रधर्म आपने अंगीकार किया है। ये महाव्रत स्वयं महान हैं। इसे महापुरुष ही धारण करते हैं और इनका फल भी महान है। इन्द्रों से भी पूज्य और मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर समान परमपवित्र साधुपद में आप तिष्ठ रहे हो। यह साम्यधर्म मोह-क्षोभ रहित आत्मा का अत्यंत निर्विकारी चैतन्य परिणाम है, यही चारित्र एवं धर्म है और यही सर्व अनुपम गुणों एवं लोकोत्तर सुखों का निधान है।

हे महाप्रज्ञ! आप वास्तव में अति महान हो, जो कि आपने देवों को भी दुर्लभ ऐसे विपुल भोगों को पाकर भी तत्काल उनसे विरक्त हो योग धारण कर लिया।

दिखते हैं जो जग-भोग रंग-रँगीले,
ऊपर मीठे अन्दर हैं जहरीले ।
पुनि-पुनि भोगों में जलना क्या?
बिन ज्ञान जिया तो जीना क्या?
हे नाथ! ये भोग हलाहल विष समान तत्क्षण प्राणों को हरने वाले हैं और भावि अनंत दुःखों के दाता हैं। अनंत भवों में ये महा हिंसाकारक भोग कितने बार नहीं भोगे, जो आज उन्हीं की पुनः इच्छा करते हो? जरा विचारो! आप तो बारह प्रकार के अव्रत के पूर्ण त्यागी हो, अहिंसा महाव्रत और ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारी हो। ऐसा, कौन मूर्ख है जो अमृत को छोड़कर विष की इच्छा करेगा? स्वर्ण को त्यागकर पत्थर को ग्रहण करेगा? ऐसा कौन अधम है जो स्वर्ग व मोक्ष को छोड़कर नरक जायेगा? तथा ऐसी जिनेश्वरी दीक्षा को छोड़कर इन्द्रियों के भोगों की कामना करेगा?"

इत्यादि अनेक तरह के बोधप्रद वचनों से श्री आर्यिकाजी ने उन्हें संबोधित किया। पुनः आर्यिकाजी भवदेव मुनि की भोगों की भावना को निर्मूल करने हेतु अपने शरीर की दुर्दशा का वर्णन करती हैं - "हे श्रमण! आपने जिस नागवसु के विषय में भोगों की वांछा युक्त भावों से प्रश्न किया, वह नागवसु आपके सामने मैं ही बैठी हूँ। आप देख लो! मैं आपके भोगने योग्य नहीं हूँ। मेरा यह शरीर कृमियों से पूर्ण भरा है। नव द्वारों से मल बह रहा है तथा महा अपवित्र मेरा यह शरीर है। मुख से अपवित्र लार बह रही है। सिर खरबूजे के समान हो गया है। वचन अस्पष्ट एवं लड़खड़ाते हुए निकलते हैं और स्वर भी भयानक निकलता है। दोनों कपोलों में गड्ढे पड़ गये हैं, आँखें कूप के समान भीतर ही भीतर घुस गई हैं। भुजाओं का माँस सूख गया है। सम्पूर्ण शरीर में मात्र चमड़ा और हड्डियाँ ही दिख रही हैं। अधिक क्या कहूँ? ऐसे कुत्सित शरीर को धरने वाली मैं आपके सामने बैठी हूँ। मैं सर्व कामेच्छा से रहित हूँ। श्राविका के व्रतों में मैं मेरु-समान अचल हूँ। हे धीर! यह बड़े ही शर्म की बात है और आपका बड़ा दुर्भाग्य है, जो आपने बारंबार मेरा स्मरण करके शल्य सहित इतना काल वृथा ही गंवाया। धिक्कार है! ऐसी विषयाभिलाशा को! धिकार है ! धिकार है !!

हे मुने! वास्तव में इस स्त्री-शरीररूपी कुटी में कोई भी पदार्थ सुन्दर नहीं है। इसलिए अपने मन को शीघ्र ही संसार, देह, भोगों से पूर्ण विरक्त करके, निःशल्य होकर स्वरूप में विश्रांति रूप निर्विकार चैतन्य का प्रतपन रूपी तप का साधन करो। जिससे स्वर्ग व मोक्षसुख प्राप्त होते हैं। अनेक दुःखदायी सुखाभासों को देने वाले इन विषय-भोगों में इस जन्म को व्यर्थ क्यों खोना? क्या कभी अग्नि ईंधन से तृप्त हुई है? इस जीव ने अनंत भवों मे अनंत बार स्त्री आदि के अपार भोगों को भोगा है और कई बार जूठन के समान छोड़ा है। हे वीर! भोगों में अनुराग करने से आपको क्या मिलेगा? केवल दुःख ही दुःख मिलेगा।"

धर्मरत्न श्री आर्यिकाजी के धर्मरसपूर्ण वचनों को सुनकर भवदेव मुनि महाराज का मन स्त्री आदि के भोगों से पूर्णत: विरक्त हो गया। वे मन ही मन अति लज्जित हो अपने को धिक्कारने लगे। मुनिराज प्रतिबुद्ध होकर आर्यिकाजी की बारंबार प्रशंसा करने लगे । "मैं भवदेव आपके वचनों के श्रवण से अग्निपाक संयोग सुवर्ण के समान निर्मल हो गया हूँ। हे आर्ये! आप धन्य हो। मुझ जैसे अधम के उद्धार में आप नौका समान हो। आपने मुझे मोह से भरे अगाध जलराशि में से एवं सैकड़ों आवर्तों व भ्रमरों में डूबते हुए संसार-सागर से बचा लिया है। आपका अनंत उपकार है।" - इतना कहकर मुनि भवदेवजी उठकर वन की ओर विहार कर गये।