कथा :
भवदेव मुनि महाराज जंगल की ओर चलते-चलते विचार करते जा रहे हैं कि - अब हम सहज भये न रुलेंगे ।
शल्य रहित होकर मुनिराज ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए अपने गुरुवर के निकट वन में गये। जैसे - चिरकाल से समुद्र के आवर्तों में फँसा हुआ जहाज आवर्त से छूटकर अपने स्थान को पहुँचे। गुरुराज को नमस्कार करके भवदेव मुनि ने अपने योग्य स्थान में बैठकर गुरुवर के समक्ष अपना सम्पूर्ण वृत्तांत जो कुछ भी बीता था, सब कछ निश्छल भाव से कह दिया। तथा अन्त में कहा - "हे गुरुवर! मुझे शुद्ध कर अपने चरणों की शरण दीजिए।"बहु विधि रास रचाये अबलौं, अब नहीं वेष धरेंगे ॥टेक॥ मोह महादुख कारण जानो, इनको न लेश रखेंगे । भोगादिक विषय विष जाने, इनको वमन करेंगे ॥1॥ जग जो कहो तो कह लो भैया, चिंता नाहीं करेंगे । मुनिपद धार रहें वन मांही, काहू से नाहीं डरेंगे ॥२॥ अब हम आप सौं आपमें बसके, जग सौं मौन रहेंगे । हम गुपचुप अब निज में निज लख, और कछु न चहेंगे ॥३॥ निज आतम में मगन सु होकर, अष्ट कर्म को दहेंगे । निज प्रभुता ही लखते-लखते, शाश्वत प्रभुता लहेंगे ॥४॥ अपनी सहजता निरखी निरखी, निज दृग काहे न उमगेंगे । ये जग छुटो, करम भी टूटे, सिद्धशिला पे रहेंगे ॥५॥ पूज्य गुरुवर ने भवदेव द्वारा निश्छल भाव से कहे गये दोषों को जानकर उसके दंडस्वरूप भवदेव की दीक्षा छेदकर पुन: दीक्षा देकर संयम धारण कराया। दोषों का प्रायश्चित भवदेव मुनिराज ने सहर्ष स्वीकार किया। वे संघस्थ सभी साधुओं को नमस्कार करके, निःशल्य हो, परमपवित्र शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके कर्मों को जीतनेवाले भावलिंगी संत हो विचारने लगे भवभोगपराङ्मुख हे यते पदमिदं भवहेतु विनाशनम् ।
निज-आत्मा में लीन बुद्धिवाले तथा भव और भोग से पराङ्मुख हुए हे यति! तुम भवहेतु का विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पद को भजो! अध्रुव वस्तु की चिन्ता से तुम्हें क्या प्रयोजन है ? भज निजात्मनिमग्नमते पुनस्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया ॥ समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवर्जितम् ।
जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु-रोगादि रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसार को मैं समरस (समताभार) द्वारा सदा पूजता हूँ।सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये । आ हा हा.....! अब भवदेव मुनिराज निरंतर अपने समयसार स्वरूप (निजात्मा) को भजने लगे। ज्ञान-ध्यान एवं उग्र-उग्र तपों में संलग्न हो अपने बड़े गुरुजनों के समान तप करने लगे। शुभ-अशुभ से जो रोककर, निज-आत्म को आत्मा ही से।
निजस्वरूपस्थ श्री भवदेव मुनिराज को अब एकमात्र मोक्ष की ही भावना शेष रह गई है और सभी प्रकार की इच्छाएँ विलय को प्राप्त हो गई हैं। वे अब क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, शत्रु, मित्र, स्वर्ण, पाषाण, हानि, लाभ, निन्दा, प्रशंसा आदि सभी में समभाव के धारी हो गये।दर्शन अवरु ज्ञान हि ठहर, परद्रव्य इच्छा परिहरे ॥ जो सर्वसंग विमुक्त ध्यावे, आत्म से आत्मा ही को । नहिं कर्म अरु नोकर्म चेतक, चेतता एकत्व को ॥ वह आत्म ध्याता, ज्ञान-दर्शनमय अनन्यमयी हुआ । बस अल्पकाल जु कर्म से, परिमोक्ष पावे आत्म का ॥ निज स्वरूप की आराधना करते-करते अब जीवन के कुछ ही क्षण शेष रहे थे कि महान कुशल बुद्धि के धारक भावदेव और भवदेव दोनों तपोधनों ने उस शेष समय में आत्मतल्लीनतारूप परम समाधिमरण को स्वीकार कर प्रतिमायोग धारण पर विपुलाचल पर्वत कर पंडितमरण द्वारा इस नश्वर काया का त्याग कर सानत्कुमार नामक तीसरे स्वर्ग में सात सागर की आयुवाली देव पर्याय को प्राप्त किया। अहो! ऐसी आत्माराधनापूर्वक पंडितमरण करने वाले युगल तपोधनों की जय हो !! जय हो !!! |