कथा :
गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष । इस प्रकार पाँच कल्याणक जिनके हुए, जो नित्य और अनन्त गुणों के सागर और समस्त जगत के नाथ हैं । ऐसे महान वर्धमानस्वामी को मेरा नमस्कार है । तीन जगत की लक्ष्मी और सुख के खान धर्म को जिन्होंने प्रकाशित किया और जो आज भी चार प्रकार के संघों के द्वारा प्रवृत्तिरूप में आ रहा है एवं जो महान है । जिन्होंने अपने वचनरूपी किरणों से एकान्त मतों के अज्ञानरूपी जाल को हटाकर मुक्ति की प्राप्ति के लिये भव्य जीवों को मुक्ति का मार्ग दिखला दिया । जो प्रति समय वृद्धिंगत होने से देवों के द्वारा वर्धमान नाम को प्राप्त हुए एवं जिन्होंने अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने से वीर और महावीर, ये सार्थक नाम प्राप्त किये । सन्मार्ग का जनता को बोध कराने से जिन्होंने सन्मति नाम भी प्राप्त कर लिया । ऐसे धर्म साम्राज्य के चक्रवर्ती और तीन जगत से पूज्य श्री वर्धमान भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ । मैं उन आदिनाथ भगवान को भी नमस्कार करता हूँ जिन्होंने युग की आदि में मुग्धबुद्धि आर्यजनों को मोक्ष के लाभार्थ अपनी दिव्यध्वनि द्वारा स्वर्ग-मोक्ष के देनेवाले गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का उपदेश दिया और शुक्लध्यानरूपी तलवार से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय । इन चार घातिकर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । शेष अजितनाथादि पार्श्वनाथान्त 22 तीर्थंकरों के चरण-कमलों का भी उनके गुणों की प्राप्ति के लिये मैं ध्यान करता हूँ, जो सम्पूर्ण भव्य जीवों के हितार्थ सदैव उद्यत रहे हैं, तीन जगत के नाथ भी जिनकी पूजा और वंदना करते हैं, अनन्त गुणों के समुद्र हैं, सारे जगत के मंगल करनेवाले, लोकोत्तम एवं संसार से डरे हुए भव्य जीवों को शरण देनेवाले हैं । मैं उन सीमन्धरस्वामी आदि बीस तीर्थंकरों के चरण-कमल की अपने हृदय में स्थापना करता हूँ, जिन्होंने पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह में भव्य जीवों को मोक्ष सुख के लिये सन्मार्ग का उपदेश दिया एवं मनुष्यों तथा पशुओं तक को सम्बोधा । ये सीमन्धर आदि 20 तीर्थंकर अनन्त गुणों के समुद्र हैं, अन्य जिनेन्द्र देवाधिदेव भी जो भूत, वर्तमान और भविष्यकाल में हुए हैं और होंगे, उन सभी की मैं वन्दना और स्तुति, सार अर्थ की सिद्धि के लिये करता हूँ । मैं उन अनन्त सिद्ध परमेष्ठियों को मन-वचन-काय की विशुद्धता से नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने महान ध्यानरूपी तलवार से आठ कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर अष्ट गुणों से युक्त होकर मुक्ति-साम्राज्य प्राप्त किया, जिसको कि तीन लोक के स्वामी भी नमस्कार करते हैं और जो लोक के शिखर पर विराजते हैं । मैं उन आचार्य परमेष्ठियों की वन्दना करता हूँ, जो संसार-समुद्र में जहाज के समान हैं, छत्तीस गुणों से युक्त और जो स्वयं पंचविध आचार को आचरते एवं अपने शिष्यवर्ग पर अनुग्रहार्थ उनसे आचरण कराते हैं । उन आचार्य परमेष्ठियों की वन्दनादि से ही अपने आचार की विशुद्धि होती है । श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिये मैं उन रत्नत्रयरूप धन के धनी उपाध्याय परमेष्ठियों के चरण कमलों की स्तुति करता हूँ, जो निर्वाणरूपी द्वीप की यात्रा के लिये बुद्धिरूपी जहाज पर बैठकर अंगपूर्वादि स्वरूप शास्त्र समुद्र के पारगामी होते हैं और अन्य योगीजनों को भी उसके पार तक पहुँचा देते हैं । मैं सदैव अपने हित में लगे हुए उन समस्त साधु परमेष्ठियों को उन जैसे ही धैर्य की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ, जो महान कठोर तपस्या करते हैं, सदैव ध्यानाध्ययन में लीन रहते हुए मोक्ष लक्ष्मी की साधना में लगे रहते हैं, एवं जो पहाड़ों तथा उनकी गुफाओं या निर्जन वन में सिंह के समान निर्भय होकर रहते हैं । ये पाँचों परमेष्ठी जगत में विद्वानों द्वारा वन्दनीय और स्तवन किये जाते हैं । अत: जो कार्य मैंने प्रारम्भ किया है, उसमें मुझे अपने-अपने महान गुणों को प्रदान करें । महा कवि के गुणों से परिपूर्ण अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट इस प्रकार दोनों श्रुतज्ञानरूपी समुद्र के पारगामी श्री गौतमादि गणधरों का मैं उनकी सी बुद्धि की प्राप्ति के लिये ध्यान करता हूँ । जिनेन्द्र देवाधिदेव के मुखारविन्द में निवास करनेवाली, जगत की माता सम्पूर्ण चराचर पदार्थों को दिखलानेवाली, चारित्र के पालन कराने में प्रवीण भगवती सरस्वती की मैं स्तुति और वन्दना करता हूँ, जिसके महान प्रसाद से बुद्धि संस्कारयुक्त, निर्मल और कविता की रचना में समर्थ होती है । तीर्थंकर भगवान द्वारा कहे हुए अंग, पूर्व और प्रकीर्ण को जिन प्रत्येक बुद्धिधारी श्रुतकेवली गणधरों ने धारण कर अर्थरूप से कहे, उन सब गणधरों को मेरा नमस्कार है । महान धीर, महान रूपवान, महान वीर्य पराक्रम के धारी, महान वैश्य कुल में उत्पन्न, महान लक्ष्मी से विभूषित, महामान्य शूरवीर बड़े-बड़े उपसर्गों के विजयी, महामुनि सुकुमाल स्वामी को उनकी-सी शक्ति प्राप्त करने के लिये मैं स्तुति करता हूँ । इस प्रकार महान मंगल के चाहनेवाले मैंने संसार के मंगल करनेवाले देव, शास्त्र और गुरुओं की वन्दना तथा स्तुति की है, सो यह जो मैंने कार्य प्रारम्भ किया है, उसकी सिद्धि के लिये समस्त विघ्नों का नाश कर, पापनाशन और पुण्यलाभरूप मंगल करें । |