+ प्रथमं सर्ग -
प्रथमं सर्ग

  कथा 

कथा :

इस प्रकार अपने तथा अन्य भव्य जीवों के अनिष्ट की शान्ति, इष्ट की प्राप्ति और शुभ कल्याण के लाभार्थ देव, शास्त्र और गुरु की वन्दना और स्तुति करके अनेक गुणों के समुद्र श्री सुकुमार (सुकुमाल) स्वामी के पवित्र चरित्र को मैं कहूँगा । ये सुकुमाल महामुनि वैश्यकुलरूपी आकाश में सूर्य के समान प्रकाश करने वाले हुए हैं, जो फूल के समान अत्यन्त कोमल शरीरवाले सार्थक सुकुमार नाम के होते हुए भी महान घोर उपसर्गों से वज्र के समान अभेद्य और कठोर थे । जैसे इन्द्र दिव्य भोगों का भोक्ता होता है, उसी प्रकार ये सुख समुद्र में मग्न होते हुए भी सम्पूर्ण क्षुधादि परीषहों के योगी के समान विजेता थे । तप के प्रभाव से जिन्होंने सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्ग विमान को प्राप्त किया, उन सुकुमालस्वामी का मैं चरित्र कहूँगा । इसी चरित्र से श्री सूर्यमित्र महामुनि ने जो सिद्धान्त ग्रन्थों का पठनादि किया, उसका फल भी कहूँगा । इसी चरित्र के अन्तर्गत अग्निभूति आदि योगी महात्माओं की भी बहुत सी उत्तम कथाँए आवेंगी, जिन्हें भी मैं कहूँगा ।

इस प्रकार अनेक महापुरुषों के सच्चरित्रों से भरे हुए इस सुकुमाल चरित्र के पढ़ने और सुनने से हृदय में संवेगादि भावों की वृद्धि होगी । श्रुताभ्यास आदि की भावना और प्रवृत्ति होगी । तब सुन्दर कृतियों से राग-द्वेषादि दोष नष्ट हो जाँएगे; इसलिए प्रत्येक अपने हित चाहनेवाले मनुष्य का कर्तव्य है कि मुझ द्वारा कहे हुए इस चरित्र को अवश्यमेव सुनें ।

(अथ कथा प्रारम्भ)

देवों तथा उत्तमोत्तम मनुष्यों से परिपूर्ण, एक लाख योजन विस्तारवाला, लवणसमुद्र से वेष्टित, असंख्य द्वीप राशि के मध्यवर्ती जम्बूवृक्ष से चिह्नित; नदी, पर्वत, देश, नगर, ग्राम आदि से सुशोभित, राजाओं के समूह में चक्रवर्ती के समान जम्बूद्वीप है । इस जम्बूद्वीप में एक लाख योजन ऊँचा, समस्त मेरुओं (पर्वतों) में सुन्दर, अनेक जिनमन्दिरों से सुशोभित सुदर्शन मेरु है । यह मेरु अनेक देवों, अप्सराओं, विद्याधरों और ध्यानस्थ चारणऋद्धिधारी मुनियों से शोभायमान है और ऐसा लगता है जैसे देवों में इन्द्र लगे । इस सुदर्शन मेरु के दक्षिण दिशा भाग में पाँच सौ छब्बीस योजन और छह अंश विस्तारवाला, विद्याधरों देवों तथा भूमिगोचरी राजाओं से वेष्टित धर्म और चारित्र की खान, धर्मात्मा और धर्मायतनों से पूर्ण भरतक्षेत्र शोभायमान है । इसी भरतक्षेत्र के मध्य भाग में आर्य-खण्ड है, जो अरहन्त भगवान, चक्रवर्तियों आदि से सुशोभित, स्वर्ग और मोक्ष को साधन करनेवाले महात्माओं के निमित्तकारणस्वरूप, एक असाधारण धर्म की खान के समान, धर्म प्रवृत्ति से विभूषित और आर्य लोगों का निवास स्थान है । इसी आर्यखण्ड के नाभि के समान मध्य में नगर, पत्तन, खेट, पर्वत, ग्राम और वनोपवन आदि से पूरित, दानी, धर्मात्मा, चतुर, विद्वान सब प्रकार के श्रावक, मुनिराज आदि सज्ज्नों से परिपूर्ण अंग नामक देश सुशोभित हो रहा है । उस अंग देश में धर्मात्मा विद्वानों द्वारा सुशोभित, ऊँचे-ऊँचे कोट प्रतोली, खाई आदि से अयोध्याय के समान दानवीरों, योद्धाओं, जिनमें बड़े-बड़े महोत्सव हों, ऐसे जिनमंदिरों से सुसज्ज्ति चम्पा नामक नगरी है ।

इस चम्पानगरी की जनता के पुण्य से प्रतापवान, धर्मात्मा, विवेकी, चतुर और सच्चरित्र चन्द्रवाहन नामक राजा था, जिसके प्राणों से भी प्यारी, समस्त पुण्यशाली लक्षणों से सुशोभित, लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ लक्ष्मीमती नामक रानी थी । इस राजा के यहाँ नागशर्मा नामक पुरोहित था, जो कुशास्त्रों का ज्ञाता, क्रूर हृदय, जैनधर्म का द्रोही, महान मिथ्यादृष्टि था, जिसके रूपवती त्रिदेवी नामक स्त्री थी और इनके लक्ष्मी के समान सुन्दर नागश्री नामक पुत्री हुई । यह नागश्री विवेक, रूप और सुन्दरता, ज्ञान विज्ञान आदि गुणों से संयुक्त थी, जो देव कन्या के समान सुशोभित होती थी ।

एक दिन यह नागश्री अनेक ब्राह्मण कन्याओं के साथ क्रीड़ा करती हुई नगर के बाहरवाले उद्यान में बने हुए नाग मन्दिर में मूढ़ बुद्धि से पुण्य-लाभ की कामना करती हुई नागों को पूजने चली गयी । उस उद्यान में उस नागश्री ने किसी पूर्व में बाँधे पुण्यकर्म के फल से पुण्य कर्म के कारण अनेक ऋद्धिधारी, विद्वान, महाज्ञानरूपी समुद्र के पारगामी, संसारी जीवों के कल्याण में तत्पर, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तपरूप धनवाले, ध्यान और अध्ययन में लीन, प्रासुक (निर्जीव) स्थान पर बैठे हुए ऐसे सूर्यमित्र और अग्निभूति नाम के दो मुनिराजों को देखा । यह नागपूजा का कार्य समाप्त कर मुनि महाराजों के पास आ उनके चरण कमलों को भोलेपन से ही सिर से प्रणाम कर उनके निकट आ बैठी । श्री सूर्यमित्र मुनिराज ने अपने ज्ञान से उस नागश्री के पूर्व जन्म के वृत्तान्त एवं होनेवाली सद्गति को जानकर उसको सम्बोधन करने के लिये कहा -

हे पुत्री! स्वर्ग के कारणभूत गृहस्थ धर्म को तू धारण कर, जिससे कि तू इस भव में भी सुख पावेगी और परलोक में भी तेरे महान अभ्युदय होगा क्योंकि धर्म से ही तीन लोक के सारे सुख मिलते हैं और धर्मात्माओं के सैंकड़ों मनोरथ अपने आप ही सिद्ध हो जाते हैं । मद्य, माँस, मधु और पाँच उदम्बर फलों के त्याग से; जुआ, चोरी आदि सात व्यसनों के छोड़ने से; अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहप्रमाणाणुव्रत । इस प्रकार इन पाँच अणुव्रतों के धारण करने से गृहस्थ का धर्म बनता है । व्रती धर्मात्मा मरकर स्वर्ग में ही जाता है और अव्रती हिंसादि महापापों से नरकगति या पशुगति में रुलता है । इसलिए जो प्राणी अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे अव्रती न रहकर, दुराचारों को छोड़कर उक्त व्रत ग्रहण करें । श्रेष्ठ आचरण का नाम ही वास्तव में धर्म है ।

सूर्यमित्र मुनि महाराज के मुँह से यह उपदेश सुन नागश्री बोली कि हे स्वामिन्! वे कौन से व्रत हैं, जिन्हें सुख चाहने वाले मानव पालते हैं? नागश्री का यह वाक्य सुनकर वे मुनिराज बोले कि हे पुत्री! तेरे कल्याण के लिये मैं उन व्रतों का स्वरूप बतलाता हूँ, जिसे तू सुन ।

पहला अहिंसाणुव्रत तो यह है कि जितने भी त्रस जीव हैं, उनको अपने ही समान समझ, उनकी मन-वचन-काय से रक्षा करना । यह व्रत जगत का हित करनेवाला, अपने कल्याण का साधन, कीर्तिकारी, सम्पूर्ण व्रतों का मूल, समस्त श्रेष्ठ क्रियाओं का आचरण करानेवाला और संपूर्ण जीवों को अभयदान देनेवाला है, जिसे तू ग्रहण कर । इस व्रत की रक्षा के लिये मदिरा, माँस, शहद और पाँच उदम्बर फलों को विष के समान समझकर बुद्धिमानों को छोड़ देना चाहिए । जो मनुष्य मदिरा आदि के सेवन में लम्पटी हैं, उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि नष्ट हो जाने पर जीवों की रक्षा का विचार ही नहीं रहता ।

जुआ खेलना, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्या सेवन, परस्त्री सेवन, माँस भक्षण और मदिरापान ये सात व्यसन भी पापों की खान और नरक का दरवाजा दिखलाने वाले हैं, इसलिए इनका भी बुद्धिमानों को त्याग कर देना चाहिए । व्यसनी लोगों के दया, सत्य आदि गुण कहाँ से आवें और दया सत्यादि के बिना व्रत और धर्म भी कहाँ से आवें? अहिंसा अणुव्रत की रक्षा के लिये चाहे प्राण ही क्यों न निकल जावें, किन्तु धर्मात्माओं को जगत में निन्दनीय रात्रि भोजन कभी न करना चाहिए । जो रात्रि को भोजन करते हैं, वे नियम से त्रस जीवों का भक्षण करेंगे तो माँस भक्षण नाम का पाप लगेगा । त्रस जीवों की हिंसा के बिना माँस बनता ही नहीं । श्रृंगवेरादि (नीम के फूल आदि) तथा कन्दमूलादि अनन्त जीवों से व्याप्त होते हैं; इसलिए दयालु प्राणी इन पदार्थों का सेवन औषधि में भी न करे और न इनसे बनी औषधियाँ ही सेवन करनी चाहिए । दया धर्म की प्राप्ति के लिये आचार मुरब्बे, बेर आदि फल, तथा लूनिया घी (मक्खन) जिसमें कि ढेरों कीड़े रहते हैं, नहीं खाना चाहिए । बिना छना हुआ जल कभी न पीना चाहिए क्योंकि अनछने पानी में स्थूल और सूक्ष्म जीव भरे रहते हैं । अनछना पानी पीना अशुभ करनेवाला है । इस प्रकार अन्य भी और फल जिनमें कि जीवराशि रहती है, कभी नहीं खाना चाहिए, तभी सबसे पहला अहिंसाणुव्रत पलता है ।

सदैव सत्य, हित, मधुर प्रामाणिक और धर्म का बढ़ानेवाला वचन ही बोलना चाहिए । जिसकी भले आदमी निन्दा करें और असत्य हो, ऐसा वचन कभी नहीं बोलना चाहिए । सत्य वचन बोलने से ही धर्म और यश रहता है, लक्ष्मी बनी रहती है । वचन की सत्यता और प्रामाणिकता से ही विवेक और बुद्धि रहती है । मिथ्याभाषणरूप पाप के फल से कुमरण, मूर्खता, अपयश, अविश्वास, जिह्वाच्छेद सरीखे अशुभफल असत्य भाषियों को मिलते हैं ।

अचौर्य व्रत की रक्षा के लिये बिना दिये हुए, पड़े हुए, किसी के द्वारा खोये या भूले हुए परधन को सर्प के समान भयंकर समझकर नहीं लेना चाहिए । दूसरे के धन के अपहरण से मार, बन्धन आदि अशुभ फल इस लोक में और परलोक में दुर्गतियाँ प्राप्त होती हैं ।

अपनी स्त्री के अलावा अन्य स्त्रियों को मन-वचन-काय की शुद्धि से माता-बहन के समान समझना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । व्यभिचारी लोग वध, बन्ध, त्रास, धनक्षय आदि दु:खों को यहाँ भी सहते हैं और अन्त में सातवें नरक तक जाते हैं ।

क्षेत्र आदि दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण, परिग्रहप्रमाण व्रत की रक्षा के लिये करना चाहिए । परिग्रह के प्रमाण से ही लोभरूपी शत्रु पर विजय प्राप्त होती है ।

हे पुत्री! ये पाँच अणुव्रत दोनों लोकों के लिये कल्याणकारी हैं, इनसे यहाँ सुख और परलोक में स्वर्गादि सुख मिलता है, इसलिए तू इन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर । ये पाँच अणुव्रत सुख और गुणों के निधान हैं, इनको श्रेष्ठ आचरण के द्वारा जो पालते हैं, वे अच्युत स्वर्ग तक के सुख भोगकर मानवगति को प्राप्तकर रत्नत्रय धारी हो मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार जान तथा मानकर स्वर्ग-मोक्ष सुख के करनेवाले जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे इन सारभूत व्रतों को पालना चाहिए । ये व्रत ही तीन लोक में सुख के दाता और धर्मरूप वृक्ष के मूल हैं । अपना हित चाहनेवाले प्राणियों को चाहिए कि चंचल और प्रतिसमय घटनेवाली आयु में एक क्षण भी इन व्रतों के बिना न जाने देवें ।