कथा :
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय; इस प्रकार इन चार घातिकर्मों के घाती श्री अरहन्त भगवान, आठों कर्मों से रहित सिद्ध भगवान तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय के धारक सम्पूर्ण साधुओं को, जो मंगलकारी हैं, मैं नमस्कार करता हूँ । घोर उपसर्गों के जीतनेवाले सुकुमाल स्वामी के माहात्म्य से स्वर्गलोक में देवों और इन्द्र के आसन कम्पायमान हो गये । जब इन्द्र और देवों ने उस महामुनि सुकुमाल का कालज्ञान किया तो आश्चर्य सहित हो हर्षपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे । अहो! गुणों की खान, धीर-वीर, तीन लोक से वन्दनीय, ज्ञानी, भव्य जीवों में अग्रसर, पूजनीय श्री सुकुमाल स्वामी महामुनि महान धैर्यशाली हैं, जिन्होंने इतने कोमल शरीर होते हुए भी इतना कठिन और घोर उपसर्ग सहन किया । इस प्रकार उस धीर-वीर की स्तुति कर स्त्रियों तथा वाहनों तथा अपने देवों सहित इन्द्र श्री सुकुमाल स्वामी की पूजा के लिये आये । जिस समय देव और इन्द्र आये, देव दुंदुभियाँ बजीं, जय जय नन्द नन्द आदि शब्दों से आकाश गुंजायमान हो गया । इस प्रकार बड़े हर्ष के साथ वे पृथ्वीतल पर आये । इन्द्रों ने आकर महाविभूति और भक्ति से दिव्य सामग्री द्वारा श्री सुकुमाल स्वामी के शरीर की पूजा की, जब देवों तथा इन्द्रों द्वारा जय-जय आदि शब्द और नाना प्रकार के वादित्रों के शब्द सुने, तब सुकुमाल स्वामी की माता यशोभद्रा तथा बन्धुओं आदि ने यह जाना कि यह उस सुकुमाल योगिराज ने तप ग्रहण करके समाधिमरण किया और सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की । वे माता आदि जो सुकुमाल स्वामी के वियोग से आर्तध्यान और रुदन कर रहे थे, उसे छोड़ आनन्दपूर्वक उन सुकुमाल स्वामी की स्तुति करने लगे । अहो, यह सुकुमाल अत्यन्त धर्मात्मा था, जिसने ऐसी-ऐसी सम्पदायें भोगीं और अचानक ही इस प्रकार के तप को ग्रहण कर लिया तथा वन में महान घोर उपसर्ग तीन दिन तक सहन कर उस पर विजय पा सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्गधाम प्राप्त किया । इस प्रकार स्तुति कर समस्त नगरवासी सज्ज्न पुरुषों को बुलाया और सुकुमाल स्वामी की माता यशोभद्रा उस वन में पहुँची, जहाँ उनका समाधिमरण हुआ था । राजा आदि भी वहाँ पहुँच गये । माता यशोभद्रा श्री सुकुमालजी के आधे खाये हुए शरीर को देखकर अन्तरंग में शोक से व्याकुल हो वे दु:ख से विउील हो हलन-चलन रहित मूर्च्छित हो गयी । श्री सुकुमालजी के शरीर को देखने पर समस्त प्रियजन और भाईबन्धु आदि दु:ख से हा हा कार करते हुए रोने लगे । सुकुमाल स्वामी के धीरज को देखकर समस्त नगर निवासी तथा राजा आदि हृदय में महान आश्चर्य करते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे । श्री सुकुमालजी की माता यशोभद्रा को जब चेतना हुई तो उसने अपने विवेक से शोक को दूर कर श्रेष्ठ वचनों द्वारा समस्त बन्धुजनों को आश्वासन देकर कहने लगी । संसार में ऐसे भी महान सत्पुरुष हैं, जो ऐसे उत्कृष्ट भेागों को लात मारकर तपस्या में लीन होते हैं और उस तपस्या में घोर उपसर्गों को सहन करते हुए समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धि जैसे महान सुख के स्थान के सुखों को भोगते हैं । ऐसी प्राणी धन्य हैं । इस प्रकार यशोभद्रा सेठानी ने श्री सुकुमाल स्वामी की स्तुति कर श्री सुकुमाल स्वामी के शरीर का अन्तिम संस्कार किया और राजा तथा बन्धुजनादि के साथ उस जिनालय को गयी, जहाँ वे यशोभद्र मुनि महाराज विराजमान थे । जिनालय में स्थित मुनि महाराज के दर्शन कर वह कुछ हृदय में हँसी और जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं को नमस्कार कर पूजा करती हुई हर्षपूर्वक मुनि महाराज श्री यशोभद्र स्वामी से पूछा कि । स्वामिन्! श्री सुकुमाल पर जो मेरा इतना अधिक स्नेह था, इसका क्या कारण है, सो कृपा करके मुझे बतलाइये । इस प्रश्न को सुनकर श्री यशोभद्र मुनिराज ने सबकी मनुष्य भव से लेकर अच्युतस्वर्ग तक जाने की तथा फिर मनुष्य पर्याय धारण करने आदि की समस्त पुरानी कथा अपने महान ज्ञान से कही । जो इस प्रकार है । जो पहले नागशर्मा नामक ब्राह्मण था, वह धर्म के प्रसाद से अच्युत स्वर्ग में जाकर और वहाँ से आकर सुरेन्द्रदत्त नामक सेठ हुआ, जो महान धर्मात्मा, महान धनी और संसार से विरक्त हो गया । सुरेन्द्रदत्त के पिता का नाम इन्द्रदत्त और माता का नाम गुणवती था । इन दोनों के यह सुरेन्द्रदत्त श्रेष्ठ पुत्र हुआ था-जो तुम्हारा पति था । जो चन्द्रवाहन राजा था । वह तो तपोबल से आरण स्वर्ग में देव हुआ । और आरण स्वर्ग से आकर मैं यशोभद्र नामक ऐसा जो तुम्हारे समक्ष हूँ । हुआ हूँ । मेरे पिता का नाम सर्वयश और माता का नाम यशोमती था । मैं बाल्यकाल से संसार के विषयभोगों से उदासीन रहा और मुझमें आश्चर्यकारक विरक्त बुद्धि थी; इसलिए मैंने जिनदीक्षा धारण कर ली और तपोबल से मुझे अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गये । जो त्रिदेवी ब्राह्मणी थी, वह तपोबल से अच्युत स्वर्ग में चली गयी । वहाँ से आकर तू यशोभद्रा हो गयी । जो मेरी बहन थी, जो सम्यग्दर्शन के अभाव से अपने पुत्र सुकुमाल में तेरा महान स्नेह और मोह था । नागश्री का जीव अच्युत स्वर्ग में पद्मनाभदेव हो गया था, जो वहाँ से आकर तेरा पुत्र जगत् विख्यात महान पुण्यशाली परम धर्मात्मा सुकुमाल हुआ । जो सुबल राजा था, वह तपोबल से आरण स्वर्ग में गया था सो वहाँ से आकर यह वृषभांक राजा हुआ है । जो अतिबल राजा था, वह तपोबल से आरण स्वर्ग में गया और वहाँ से आकर इसी राजा वृषभांक के कनकध्वज नामक पुत्र हुआ है । इस प्रकार श्री यशोभद्र योगिराज के मुखरूप चन्द्रमा से निकले हुए श्रेष्ठ वचनरूपी अमृत को पीकर मोहरूपी विष को श्री सुकुमाल की माता यशोभद्रा ने वृषभांक राजा आदि के साथ ही उगल दिया और संसार की लक्ष्मी तथा गृह कुटुम्बादि से महान संवेग धारण कर अपनी मोह की निन्दा करती हुई यशोभद्रा भी तप ग्रहण करने को तैयार हो गयी और सुकुमालजी की बत्तीस स्त्रियों में से जो चार स्त्रियाँ गर्भवती थीं, उनको अपनी गृह सम्पदा देकर बाकी 28 सुकुमालजी की स्त्रियों तथा बहुत बन्धुओं के साथ अन्तरंग -बहिरंग परिग्रह का त्याग कर मुक्ति के निमित्त दीक्षा ग्रहण कर ली । श्री वृषभांक राजा ने भी श्री यशोभद्र मुनि महाराज से अपनी समस्त भवावली को सुनकर संसार के विषय भोगों से विरक्त हो अपने छोटे पुत्र को राज्य का भार सौंप अपने पुत्र कनकध्वज तथा अनेक राजपुत्रों के साथ समस्त सम्पदा का त्याग कर दश प्रकार के बाह्य और चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रह को छोड़ मुक्ति की मातास्वरूप जिनदीक्षा को मन-वचन-काय की विशुद्धि से धारण कर लिया । इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे सब तत्त्ववेत्ता परम तपश्चरण के साथ-साथ श्रुताभ्यास और ध्यान में लवलीन हो गये । वे पर्वतों, निर्जन वनों, नगरों, ग्रामों आदि में विहार करते हुए मोक्ष के मार्ग को तय करने में तत्पर हो गये । चार ज्ञान के धारक यशोभद्र मुनिराज, सुरेन्द्रदत्त योगिराज, महायोगी वृषभांक और योगीश्वर कनकध्वज, ये चारों चरम शरीरी थे, सो शुक्लध्यानरूपी खड्ग से समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को बलपूर्वक नष्ट कर इन्द्रादि द्वारा पूजा संस्कार को प्राप्त हो, सम्यक्त्वादि आठ गुणों को पाकर अनन्त सुख से भरे हुए अनुपम मोक्ष को प्राप्त हुए । शेष जो अन्य मुनिराज थे, वे सब अपने-अपने तपश्चरण के अनुसार सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक योग्य-योग्य पदों को प्राप्त हुए । कितनी ही स्त्रियों ने जो आर्यिका पद धारण किया था, सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त महर्द्धिक देव पद को प्राप्त किया । वे सब महिलाएँ समस्त रूपवती थीं किन्तु तपश्चरण में लवलीन हो गयीं और तपोबल से इन सुखों की प्राप्ति की । सुकुमाल स्वामी का जीव पुण्य और तप के फल से सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्ग मे उपपाद शिला के मध्य रत्न के पर्यंक में अहमिन्द्र हुआ, जिसने अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण नवयौवन को प्राप्त किया । दिव्य आभूषण, उत्तमोत्तम दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, और अद्भुत कान्ति से विभूषित हो गया । वह महर्धिक अहमिन्द्र शय्यातल से उठकर पुण्य की मूर्तियाँ अन्य अहमिन्द्रों को अपने नेत्रों से देख अवधिज्ञान के प्रभाव से यह जान लिया कि यह सब महान तप का फल है । अवधिज्ञान से अपनी समस्त पुरानी भवावलि का भी उनको ज्ञान हो गया । उस सुकुमाल स्वामी के जीव अहमिन्द्र ने निश्चय किया कि यह सब धर्म का फल है, इसलिए धर्म में उन्होंने अपनी निष्ठा और भी दृढ़ कर ली और सबसे पहले उस अत्यन्त पुण्यवान अहमिन्द्रदेव ने धर्म की सिद्धि और वृद्धि के लिये रत्नमयी ऊँचे जिनालयों में जाकर महान तेजोमयी जिनबिम्बों की अष्टविध द्रव्यों से भक्तिपूर्वक पूजा की । भगवान की उत्तमोत्तम गुणपूर्ण स्तोत्रों से स्तुति की । दिव्य पूजाद्रव्य चढ़ाये । इस प्रकार अन्य अहमिन्द्रों के साथ उस पुण्यवान चतुर अहमिन्द्र ने परम पुण्य का उपार्जन किया । इस प्रकार सबसे पहले जिनेन्द्र देवाधिदेव की पूजा करके उसने अपना स्थान और पूर्व पुण्य के प्रताप से उपार्जित उत्तमविमानादि समस्त सम्पदाएँ स्वीकार की । सुकुमाल स्वामी का जीव यह महर्धिक अहमिन्द्र अपने स्थान पर रहता हुआ भी समस्त तीन लोकवर्ती जिन प्रतिमाओं, जिनमंदिरों को अपने अवधिज्ञान से जानकर नमस्कार करता रहता था । जब-जब भगवान के गर्भ-जन्मादि कल्याणक होते थे, तब-तब अपने स्थान पर रहता हुआ भी सदैव भगवान को नमस्कार करके स्तुति और भक्ति करता रहता था । जब केवली भगवान को केवलज्ञान तथा निर्वाण की प्राप्ति होती थी, तब-तब यह उनकी सदैव नमस्कार पूर्वक स्तुति भक्ति करता था । कितने ही अहमिन्द्र तो बिना बुलाये ही आ जाते थे और कितने ही बुलाने पर । उन सबके साथ यह महर्धिक देव सदैव धर्मचर्चा करता रहता था । इस प्रकार सुकुमाल स्वामी का जीव यह महर्धिक देव सर्वार्थसिद्धि में पुण्यबल से प्रवीचार रहित परम सुख भोगता था । स्फटिक रत्नमयी महलों में, विमान में, पर्वतों और वनों में अन्य अहमिन्द्रों के साथ अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करता रहता था । उसके स्वभाव से ही सुन्दर अपने विशद रमणीक स्थान में जैसी प्रीति होती थी, वैसी दूसरी जगह कहीं भी नहीं होती थी । क्योंकि स्वर्गालय के समान और सुन्दर स्थान ही दूसरा कौन है? इसीलिए अहमिन्द्रदेव अपने स्थान को छोड़कर अन्यत्र दूसरे स्थान पर कहीं भी नहीं जाते । वहाँ जितने भी अहमिन्द्र होते हैं, उन सबके समान विभूति, ऋद्धि और सम्पदा होती है । वहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं है । सभी का मान और पद समान होता है । उनके लेश्या, ज्ञान, महासौख्य और भोगोपभोग सम्पदाएँ समान होती हैं । उन सब अहमिन्द्रों में परस्पर स्नेह होता है, उन सभी के रागभाव मन्द होता है, ध्यान सदैव उनके शुभ ही रहता है । ईर्ष्या, मद और विकारभावों से रहित और स्वच्छ हृदय के धारी महान निपुण होते हैं । समान धर्म के फल से उन सबका रूप भी समान ही होता है । 'अहं इन्द्र:!' इस शब्द का अर्थ है कि 'मैं इन्द्र हूँ' । इसी प्रकार समस्त महर्धिक देव वहाँ 'अहमिन्द्र' अर्थात् 'मैं इन्द्र हूँ' । मुझसे दूसरा कोई इन्द्र नहीं है; इस प्रकार सभी अपने मन में महान सुख का अनुभव करते हुए अपनी उन्नति का प्रमाण लगाते हैं । स्वर्गों में जो-जो देवांगनाओं के सम्बन्ध से सुख होता है, उससे असंख्यगुणा बाधा तथा उपमारहित, कामज्वर से रहित अहमिन्द्रों को पद-पद पर होता रहता है । अहमिन्द्रों को आत्मजनित और प्रवीचार रहित सुख होता है । तीन लोक में पुण्य के प्रताप से जो और जितना सर्वोत्कृष्ट सुख होता है, वह सब अहमिन्द्रों को प्राप्त हो जाता है, उस सुख में दु:ख का लेश भी नहीं है । इस प्रकार समस्त दिव्य लक्षणों से युक्त वह सुकुमाल स्वामी का जीव अत्यन्त धर्मात्मा और उत्कृष्ट सुखों में मग्न अहमिन्द्र तेतीस सागर तक अहमिन्द्र पद के सुखों को भोगता रहा । तेतीस हजार वर्ष बीत जाने के बाद सम्पूर्ण शरीर को आनन्ददायक दिव्य आहार वह करता था जो केवल मानसिक और अमृतमय होता था । तेतीस पक्ष (पन्द्रह दिन का एक पक्ष) बीत जाने पर उनके श्वास आता था । उसी समय वह अहमिन्द्र सम्पूर्ण तीन लोकवर्ती मूर्तिमान पदार्थों को अपने अवधिज्ञान से जान लेता था, अपनी अवधि के क्षेत्र तक अहमिन्द्रों के विक्रियाऋद्धि होती है । अहमिन्द्रों के उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है और वे सदैव धर्मध्यान में ही तत्पर रहते हैं । उनका शरीर सप्त धातु, मल-पसीना आदि शारीरिक मलों से रहित होता है । एक हाथ ऊँचा उनका शरीर होता है । नेत्र वे टिमकारते नहीं । अब वह सुकुमाल स्वामी का जीव महर्धिक अहमिन्द्र वहाँ से यहाँ आकर श्रेष्ठ कुल में मनुष्य जन्म लेकर तप और रत्नत्रय के आचरण से अवश्यमेव मोक्ष जावेगा । वह सुख के समुद्र में मग्न, अनिष्टसंयोग , और इष्टवियोग से रहित समस्त सुखों से युक्त सर्वार्थसिद्धि में विराजमान है । इस प्रकार तप चारित्र के प्रभाव से अनुपम सुखों से पूर्ण, दु:ख नाम से भी रहित, समस्त विकारों से रहित सुखों को वह अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धि में भोग रहा है । बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे भी सुख की प्राप्ति के लिये आचरण शुद्धिरूप धर्म की साधना करें । चारित्र ही अनन्त गुणों का देनेवाला है । चारित्र का ही योगिजन आश्रय लेते हैं, चारित्र से ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए चारित्र को नमस्कार है । चारित्र के अतिरिक्त कल्याण का करनेवाला अन्य कोई नहीं है । चारित्र का मूल है उत्तम कृति, इसलिए मैं चारित्र में ही अपना चित्त लगाता हूँ और भावना करता हूँ कि । हे चारित्र! मेरे तू पूर्ण हो । धर्म से श्री सुकुमालजी ने अत्यन्त उत्तम विभूति और अत्यंत रूप लक्ष्मी प्राप्त की । धर्म से ही अद्भुत संयम प्राप्त किया और अपना धर्म समझकर ही घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त की । धर्म से ही मुक्ति की दूसरे भव में ही देनेवाली अनुपम सर्वार्थसिद्धि का लाभ हुआ । इसलिए हे बुद्धिमान पुरुषों! सदैव यत्नपूर्वक धर्म साधन करते रहो । धर्म के बिना यहाँ ऐसी सम्पदाएँ कैसे प्राप्त हों? धर्म के बिना इन्द्रियजनित महान सुख भी कैसे मिले? धर्म के बिना समस्त लोक की सारभूत वस्तुएँ कैसे मिलें? धर्म के बिना आश्चर्यकारक विश्व की मान्यता कैसे प्राप्त हो? धर्म के बिना अत्यन्त सुन्दर नारियाँ कैसे प्राप्त हों? धर्म के बिना मनोवांछित कार्यों की सिद्धि कैसे हो? धर्म के बिना आत्मा और मन की विशुद्धि कैसे हो? धर्म के बिना शास्त्रज्ञान भी कैसे हो? धर्म के बिना उत्तम धर्म का लाभ भी कैसे हो? धर्म के बिना उत्तम संयम की प्राप्ति कैसे हो? धर्म के बिना शत्रुओं पर विजय लाभ कैसे हो? धर्म के बिना उत्तम-उत्तम पद कैसे मिलें? यह जानकर भो विद्वज्ज्नों! संसार दु:खों का घात करनेवाले, सम्पूर्ण अर्थ की सिद्धियों को देनेवाले परमार्थभूत अतुल जिनधर्म की साधना करो । अन्तिम प्रशस्ति सुकुमार (सुकुमाल) नामक अत्यन्त धीर-वीर महान मुनिराज हुए हैं । मैंने उनका यह चरित्र क्या बनाया है किन्तु चरित्र की रचना के भाव से उनकी वन्दना और स्तुति ही मैंने की है । वे श्री सुकुमाल मुनिराज, सम्पूर्ण उपद्रवों के करनेवाले ज्ञानावरणादि चार घाती कर्मरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में अद्भुत शक्ति देवें, मेरे कर्मों का नाश करें, मुझे समाधिमरण की शक्ति दें और अपने समस्त गुण मुझे भी प्रदान करें । मुझ भट्टारक सकलकीर्ति आचार्य द्वारा इस सुकुमाल चरित्र की जो रचना हुई है, उसे सम्पूर्ण दोषों से रहित ज्ञानीजन और यतीन्द्र कोई अशुद्धि रह गयी हो तो उसे शुद्ध कर लें क्योंकि मैं थोड़े से शास्त्र का ही जाननेवाला हूँ । अक्षर, स्वर, व्यंजन, मात्रा तथा पद आदि की मन-वचन-काय के योग के चलायमान हो जाने से भूल हो गई हो तो हे जिनवाणी! मुझे क्षमा करना । जो मुनि यह चरित्र पढ़ते हैं, जो वीतरागता से पूर्ण, सुख की खान हैं, वे शिव लाभ करते हैं । जो इस चरित्र को सुनते हैं, वे सम्पूर्ण रागभाव को नष्ट कर वैराग्य और सुन्दर धर्म का लाभ करते हैं, क्योंकि यह शास्त्र धर्म का बीजभूत है । भगवान आदिनाथ से महावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थंकर; गुण-गुणों के निधि, तीन लोक के शिखर पर विराजमान, कर्मरहित, अनन्त सुख के सागर महान परमपद के भागी श्री सिद्ध परमेष्ठी; सम्पूर्ण मुनिराजों और संघ के हितु मुक्ति के इच्छुक आचार्य, उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठी मेरे तथा अन्य सबके मंगल करें । मैं उनकी वन्दना और स्तुति करता हूँ । निर्मल गुणों का निधान, तीन लोक में दीपक के समान, इन्द्रियाँ तथा पापरूपी शत्रुओं को नष्ट करने को शस्त्र के समान, सर्वोत्कृष्ट सुखवाले मोक्ष का मूल, निर्ग्रंथ आचार्यों द्वारा रचित यह पवित्र ज्ञानतीर्थ सदैव पृथ्वी पर जयवन्त रहो । इस सुकुमाल चरित्र के समस्त श्लोकों को एकत्रित करने पर उनकी संख्या ग्यारह सौ होती है, ऐसा जानें । ॥ समाप्त ॥ |