कथा :
तीन जगत के पूज्य, तीन जगत के गुरु और तीन जगत के स्वामियों से सेवित चरण पंच परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ । एक दिन श्री सुकुमाल का मामा धर्मबुद्धि, जगत हितैषी यशोभद्र महामुनिराज ने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि अब सुकुमाल की आयु बहुत थोड़ी रह गयी है । पूर्व जन्म से चले आये सम्बन्ध से महामुनिराज ने श्री सुकुमाल के हित के लिये विचार किया कि अहो! धर्म की साधना के बिना इसकी इतनी दुर्लभ आयु यों ही चली गयी । अब इसकी आयु जो कि तप और धर्म के लिये कारण है, बहुत थोड़ी रह गयी है परन्तु इसके घर पर तो माता के मोह से कोई संयमी साधु जा नहीं सकता; इसलिए किसी अन्य ही श्रेष्ठ उपाय से मैं इसे संयम का ग्रहण कराऊँगा । यह विचारकर श्री यशोभद्र महाराज ने उसे सम्बोधन करने के लिये चातुर्मास योग ग्रहण करने के श्रेष्ठ दिन, जो उस सुकुमाल के महल के निकट उद्यान में देदीप्यमान और ऊँचा जिनमंदिर था, वहाँ पदार्पण किया । जब मुनिराज श्री जिनमंदिर आ विराजे तो उस उद्यान के वनपाल ने सुकुमाल की माता यशोभद्रा से जाकर निवेदन किया कि जिनालय में महामुनि पधारे हैं । वनपाल के द्वारा यह सूचना सुनकर यशोभद्रा जिनालय पहुँची और भगवान तथा अपने भ्राता यशोभद्र मुनिराज को नमस्कार कर बोली कि स्वामिन्! मेरे प्राणों से भी प्यारा यह एक ही पुत्र है । यदि वह आपके शब्द भी सुन लेगा तो जिनदीक्षा लेकर तपस्वी बन जाएगा, जो मेरे बड़े भारी आर्तध्यान का कारण होगा कि जिससे मेरी मृत्यु भी हो सकती है; इसलिए आप दया करके यहाँ से और किसी जगह शीघ्र ही पधार जाइये और यहाँ न ठहरिये । श्री यशोभद्र मुनिराज ने उत्तर दिया कि आज हमारा चातुर्मास योग का यह दिन है, इसलिए जीव दया पालन करनेवाले हम लोगों के लिये अब कहीं भी जाना उचित नहीं । यदि चातुर्मासिक योग का दिन न होता तो चला जाता परन्तु अब तो यही पर ठहरना होगा । इस प्रकार वे सम्पूर्ण बहिरंग-अन्तरंग ममत्व के त्यागी महा-मुनिराज ठूंठ के समान निश्चल हो प्रतिमायोग धारण कर ध्यानस्थ हो गये । और वहीं उन धीर-वीर निपुण मुनिराज ने कायोत्सर्ग और आत्मतत्त्व के ध्यान से चार महीने पूर्ण कर कार्तिक शुक्ल पूर्णमासी के दिन रात्रि के चौथे पहर में उस चातुर्मासयोग की क्रिया पूर्ण की । श्री यशोभद्र महाराज ने जब अपने ज्ञाननेत्र से यह जान लिया कि सुकुमाल की आँख खुल गयी है तो उसे बुलाने के लिये सम्पूर्ण तीन लोक की प्रज्ञप्ति का अपनी वाणी से वर्णन करना प्रारम्भ किया । पहले तो वैराग्यभावों के उपजाने के लिये अधोलोक (नरकलोक) के दु:खों का वर्णन किया और पश्चात् मध्यलोक का वर्णन करके अच्युत स्वर्ग के पद्मगुल्म विमान में पद्मनाभ देव की महाविभूति और सम्पदा को अपनी वाणी से वर्णन किया, जिसके सुनने मात्र से सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया । सुकुमाल को अपने सारे पुराने भवों की घटना का ज्ञान हो गया । उसने इन्द्रिय सुखों और संसार से वैराग्यभाव धारण कर विरक्त चित्त हो विचार किया कि - अहो! यह मेरी आत्मा उपमारहित स्वर्गजनित बड़े भारी सुखों के चिरकाल तक भोगने से ही जब तृप्त न हुई तो दु:खों से मिले हुए, पराधीन, शारीरिक परिश्रम से उत्पन्न, निन्दनीय, अन्तर में बुरे परिणामवाले मनुष्य पर्याय के सुखों से कैसे तृप्त होगी? चाहे ईंधन से किसी दैव संयोग से अग्नि तृप्त हो जाय, समुद्र बहुत नदियों के प्रवाह के अपने में गिरने से तृप्त हो जाय, धन संग्रह से लोभी भी तृप्त हो जाय परन्तु यह आत्मा अनन्त जन्मों तक तीन लोक के विषय सुन्दर-सुन्दर भोगता रहे तो भी तृप्त नहीं होता । जो भोगजनित सुखों से अपने इन्द्रिय सुखों की तृप्ति चाहते हैं, वे अपथ्य सेवन करके भी रोग का नाश चाहते हैं अथवा अग्नि में तैल डालते रहकर भी आग बुझाना चाहते हैं । विषयों की पीड़ा की शांति के लिये जिस शरीर के द्वारा ये भोग भोगे जाते हैं, वह शरीर तो अत्यंत नि:सार, चलायमान और मल, मूत्र, विष्ठा आदि से भरा हुआ है । मैंने इतने समय तक इस शरीर को वृथा ही पाला-पोषा । वास्तव में मैं महान मूर्ख हूँ, जिसने तपश्चरण के बिना भोगोपभोग में मैंने इतना अधिक समय खो दिया । यह शरीर भीतर से महान वीभत्स घिनावना और गन्दा मैला है, इसमें मलमूत्र रुधिर आदि मलिन चीजें ही तो भरी हुई हैं किन्तु ऊपर से वस्त्राभूषणादि से यह लिपटा होने से सुन्दर दिखता है । सुकुमाल विचारता है कि आज तक तो मैं सो ही रहा था, अब जगा हूँ, सो जगत में निन्दनीय इस शरीर को तपरूपी अग्नि से सुखाकर इसके द्वारा मोक्षलक्ष्मी की साधना करूंगा । पुरुषों को डसने के लिये सर्पिणी के समान, काले पापों की खानें, अपवित्र, चंचल, निन्दनीय, नरक में पहुँचाने के लिये पाँवों में बेडी के समान ये सब स्त्रियें हैं । जेलखाने के समान खोटा, विद्वानों द्वारा निन्दनीय, अनन्त दु:खों और पापों की खान, धर्म को नष्ट करनेवाला यह गृहस्थाश्रम है । ये जो भी सुख संपदायें दीखती हैं, सो अत्यन्त चलायमान, मोह की माताओं के समान, सम्पूर्ण अनर्थों की करनेवाली, दु:खों की मूल और विपदास्वरूप हैं । यह सारा कुटुम्ब पाप की प्रेरणा करनेवाला, निन्दनीय, विषम, गली सांकल के समान और धर्म का नाशक है । यह यौवन बुढ़ापे की दाढ़ में है और यह आयु यमराज के मुख में है और यह संसार सुख-दु:खों के भार से दबा हुआ है । यह संसार क्षणभंगुर है । ये स्पर्शन, रसनादि पाँचों इन्द्रियाँ धर्मरूपी रत्न को चुरानेवाले चोरों के समान हैं । समस्त अनर्थों के करनेवाले असाध्य शत्रुओं के समान ये क्रोधादि कषाय हैं । मैं इतने दिन तक इस घररूप जेलखाने में स्त्रियोंरूपी बेडियों से बँधा हुआ और सम्पदारूपी फाँसी से लिपटा हुआ वृथा ही पड़ा रहा । मैं आज इन योगिराज के उत्तम वचनों के सुनने से जागृत हुआ हूँ, सो इस मोहरूपी फाँसी को काटकर शीघ्र ही मुनिसंयम को धारण करूँगा । जब तक यह मेरी आयु क्षीण न हो जाय; जब तक बुढ़ापा न आ जाय; जब तक ये इन्द्रियाँ काम देती रहें, तब तक ही मैं अपना हित जो तपश्चरण है, उसे कर सकता हूँ, पीछे तो क्या है? जब तक यह मेरी बुद्धि काम दे रही है और जब तक शरीर में दृढ़ता और यौवन है, तब तक ही स्वर्ग और मोक्ष की साधना करनेवाला तप हो सकता है, पीछे तो क्या है? सो मैं आज प्रात:काल ही अपने लिये स्वर्ग-मोक्ष का साधनरूप उपाय कर लूँगा और कुछ दिनों के बाद ही अपना कार्य सिद्ध कर लूँगा । जो नरभव पाकर भी अपना यह महाकार्य सिद्ध नहीं करते, उनका यमरूपी शत्रु ने गला पकड़ रखा है और वे दुर्भाग्य से क्षणमात्र में ही दुर्गतिरूपी समुद्र में गिर जाते हैं । इस प्रकार के विचार से सुकुमाल के हृदय में संसार के सुख काम भोगादि तथा घर, स्त्री आदि सबसे और भी दूना वैराग्य हो गया । सुकुमाल ने विचार किया कि इस महल से निकलने का मुझे इस समय कोई उपाय नहीं दिख रहा है । क्योंकि यह महल पर्याप्त ऊँचा है और इसके द्वार के बड़े मजबूत बन्द किवाड़ हैं परन्तु वह वैराग्य के लिये तत्पर, तपश्चरण में तैयार था, सो उसने वहाँ से उतरने के उपाय की खोज में लगकर एक कपड़े की गाँठ देखी । सुकुमाल ने उस कपड़े की गाँठ में से कपड़े निकालकर उनके आपस में गाँठे देकर लम्बा रस्सा सरीखा बनाकर खम्भे के बाँधकर लटका दिया और उसे पकड़कर वह नीचे जमीन पर उतरकर मुनिराज यशोभद्र महाराज के पास जा पहुँचा । मुनिराज को तीन प्रदक्षिणा दे, मस्तक झुकाकर नमस्कार कर अपने हृदय पर जोड़े हुए दोनों हाथ धर संयम प्रदान करने की प्रार्थना की और कहा कि भगवन! विषयों में आसक्ति के कारण संयम और तपश्चरण के आचरण के बिना मेरे इतने दिन वृथा ही चले गये । अब आपके प्रसाद से आपका वचनरूपी अमृत मुझे पीने को मिल गया, सो मेरा मोहरूपी विष उतर गया और मैं जाग गया हूँ । अब आप कृपा करके मुक्ति की मातास्वरूप जिन दीक्षा मुझे प्रदान करने की कृपा कीजिए क्योंकि इसी से कल्याण का लाभ होगा और यही कल्याण की खान भी है । सुकुमाल की यह प्रार्थना सुन यशोभद्र महाराज बोले कि भद्र! तुमने यह बहुत ही सुन्दर विचार किया है क्योंकि अब तुम्हारी आयु केवल तीन दिन की ही शेष रह गयी है । श्री सुकुमाल ने मुनिराज के मुख से यह बात सुन उसी समय समस्त अन्तरंग -बहिरंग परिग्रह का त्यागकर जिनमुद्रा ग्रहण कर ली और खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय - इस प्रकार चारों प्रकार के आहार का भी त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया । प्रात:काल ही संन्यास धारण किये हुए श्रेष्ठ ध्यान की आराधना के लिये वह दूसरे वन में चला गया । मनोज्ञ किन्तु अत्यन्त भयानक निर्जन प्रदेश में देह में सब प्रकार का ममत्व छोड़ एक पाँव से अपने निश्चल शरीर को पृथ्वी पर खड़ा कर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर लिया । संन्यास तीन प्रकार का होता है । भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन । इन तीनों में ही चारों प्रकार के आहार का त्याग तो होता ही है परन्तु भक्तप्रत्याख्यान संन्यास में देह का स्वयं तथा दूसरे से भी बाहरी उपचार कराया जा सकता है । इंगिनी संन्यास में अपने शरीर का आप स्वयं मर्दनादि कर सकता है । दूसरे द्वारा नहीं, किन्तु प्रायोपगमन संन्यास में स्वकृत-परकृत दोनों ही उपचार नहीं किये जाते । ऐसा कठोर प्रायोगपगमन संन्यास श्री सुकुमाल मुनिराज ने धारण किया । यशोभद्र मुनिराज भी चातुर्मासयोग की समाप्ति हो जाने पर संक्लेश निवारणार्थ उस जिनागार से दूसरे जिनागार में चले गये । सुकुमालजी तो किसी को कुछ न कहकर मुनि हो गये और वन में जाकर संन्यास भी उन्होंने ग्रहण कर लिया । उधर महलों में जब इनकी 3२ स्त्रियों ने अपने पति सुकुमालजी को नहीं देखा । इधर-उधर खोज भी की, जब वे नहीं मिले तो उन्होंने शोक और दु:ख से व्याकुलित होकर अपनी सास अर्थात् सुकुमाल की माता यशोभद्रा से कहा कि । माताजी! आपका पुत्र व हमारे प्राणाधार दीखते नहीं, महल से कहाँ चले गये, सो मालूम नहीं होता । यशोभद्रा सुकुमाल की माता ने ये समाचार सुन मूर्छित हो महान शोक के भार से मुर्दे की तरह हो हा-हा करते हुए रुदन प्रारंभ कर दिया । सारे स्वजन बन्धुजन भी रोने लगे और वे 3२ स्त्रियाँ भी रोने पीटने लगीं । जब उनका कुछ शीतोपचार किया और उनको होश आया तो उसे खोजना-ढूँढ़ना प्रारम्भ किया । यशोभद्रा इधर-उधर ढूँढ़ती हुई शोक से व्याकुलित हो रही थी कि उसे खम्भों से लटकती हुई वस्त्रमाला दिखी । उसने रस्सी के रूप में उस वस्त्रमाला को देख यह जान लिया कि इसको पकड़कर मेरा पुत्र नीचे उतरा है और निश्चय किया कि मेरे पुत्र सुकुमाल को वह मुनि ही, जो कि जिन चैत्यालय में ठहरा है, ले गया है, सो वह जिन चैत्यालय को गयी । जब उस जिनालय में उन मुनिराज श्री यशोभद्र को भी नहीं देखा तो बन्धुजनों के साथ शोकाकुलित हो समस्त स्थानों पर ढूँढ़ना प्रारम्भ किया । जब इस बात की सूचना राजा को मिली तो राजा ने भी अपने समस्त लोगों को आज्ञा दी कि सुकुमाल को खोजने के कार्य में सभी लोग जुट जावें । सभी लोगों ने बड़े भारी प्रयत्न और लगन से सुकुमाल को ढूँढ़ा परन्तु वह न मिला क्योंकि वह तो ऐसे गुप्त स्थान में था, जिसका पता बड़ी भारी कठिनता से ही चले । जिस समय सुकुमालजी अपने महल से निकल गये, उसी दिन से नगर में मनुष्यों ने तो क्या, पशुओं तक ने खाना-पीना सब छोड़ दिया । माता, बन्धुजन तथा स्त्रीजन आदि को जो दु:ख शोक हुआ, उसका वर्णन कोई कर नहीं सकता क्योंकि वह इतना ही अन्तरंग में सन्तापकारक शोक था । इधर तो समस्त कुटुम्बीजन शोकसागर में मग्न हो रहे थे, उधर सुकुमाल स्वामी निर्जन वन प्रदेश में हलन-चलनरहित ठूँठ के समान खड़े हुए, विद्वान, निर्मल आशयवाले, अपने शरीर के वैयावृत्त्य में स्वयं भी निरपेक्ष, कर्मबन्धन काटने में उद्यमी, चारों आराधना के आराधने में तत्पर, बारह भावनाओं के चिन्तवन में लीन, मोक्षमार्ग में चलने में सर्वथा जागृत, एक पाँव से ध्यान धर रहे थे । इसी समय एक विलक्षण घटना और होती है कि सुकुमालजी की पूर्वभव की भौजाई अग्निभूति ब्राह्मण की स्त्री सोमदत्ता, जिसके मुख पर सुकुमालजी के जीव ने किसी समय लात मारी थी, संसार में अनेक त्रस-स्थावर योनियों में परिभ्रमण कर पापकर्म के उदय से उसी वन में, जिसमें कि सुकुमाल स्वामी ध्यान लगा रहे थे, स्यालनी हो गई थी । जब कोमल अंग के धारी महान कोमलांग सुकुमालजी वन में आये थे तो उनके अत्यंत कोमल पाँवों में से रुधिर की धारा वह चली थी । कहाँ तो वह नाजुकपना जबकि सरसों के दाने भी चुभते थे और कहाँ यह संयम धारण!! सो सुकुमाल स्वामी के पाँवों से निकली रुधिर धारा को उस पापिनी स्यालिनी ने चाटा तो उसे रुधिर का स्वाद आ गया था, सो वह सुकुमाल स्वामी को निश्चल खड़ा देख पूर्वजन्म के क्रोध और निदान के दोष से सुकुमाल स्वामी के दाहिने पाँव में लग उसे क्रोधित हो खाने लगी । उस स्यालनी की जो पिल्ली (बेटी) थी, वह भी उसकी तरह बांये पाँव को खाने लग गयी । जब सुकुमालजी के पाँवों को इस प्रकार धीरे-धीरे नोंच-नोंचकर खाया जाने लगा तो उनके कोमल अंग में तीव्र वेदना हुई । उस वेदना और परीषह उपसर्ग को जीतने के लिये सुकुमालजी ने इन बारह भावनाओं का चिन्तवन किया । अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना, एकत्व भावना, अन्यत्व भावना, अशुचित्व भावना, आस्रव भावना, संवर भावना, निर्जरा भावना, लोक भावना, बोधिदुर्लभ भावना, और धर्म भावना इस प्रकार ये बारह भावनाएँ संवेग की जननी मातायें हैं । यह शरीर और यौवन यमराजरूपी शत्रु के द्वारा क्षणभंगुर हैं । ये भोग की वस्तुएँ बिजली के समान चंचल और बादलों की छाया के समान हैं । संसार में भ्रमते हुए मैंने अनन्त शरीर धारण कर लिये । अब यह जो मनुष्य शरीर मिला है, वह तो कर्मों के नाश के लिये ही होना चाहिए । नरकों में नारकी जीवों ने अनन्त बार मेरे शरीर के तिल-तिल के बराबर टुकड़े-टुकड़े किये हैं, मैंने असंख्य बार तिर्यंचगति भी धारण की है, जिसमें क्षुधा से पीड़ित क्रूर जीवों ने मेरे शरीर को नोंच-नोंच कर खाये हैं । यह मेरा वर्तमान शरीर कर्मों के नष्ट करने के लिये है; इसलिए उपसर्गों पर विजय करने में ही श्रेष्ठ लाभ होगा क्योंकि जो संसाररूपी शत्रुओं से डरते हैं, वे ही दुष्कर और कठिन तपस्या करते हैं । वास्तव में उपसर्गों पर विजय प्राप्त करने को ही उत्कृष्ट तप विद्वान लोग कहते हैं । संसार में जो भी राज्य, भोगोपभोग, शरीर, स्त्री, सम्पत्ति, धन आदि वस्तुएँ दिखती हैं वे सब कर्मजनित हैं, वे सब चीजें समय पाकर कालरूपी अग्नि से भस्म हो जाती हैं । इस प्रकार समस्त संसार की वस्तुएँ और यह सारा संसार अनित्य है, यही जानकर चतुर लोग उग्र-उग्र कठोर-कठोर तप के द्वारा नित्य जो शिवसुख है, उसकी साधना करते हैं । इस प्रकार अनित्य भावना का चिन्तन किया । जैसे किसी वन में हिरण को सिंह पकड़ ले तो उस हिरण का कोई शरण (रक्षक) नहीं; उसी प्रकार मृत्यु के मुख में फँसे हुए प्राणी का कोई रक्षक नहीं । चाहे देव, देवेन्द्र, मनुष्य, विद्याधर चक्रवर्ती कोई भी हो, जब उसे यम पकड़ कर ले जाता है तो कोई बचा नहीं सकता । खोटी पर्यायरूपी वन में भ्रमते हुए मैंने मारण ताड़न छेदन-भेदन आदि करोड़ों कष्ट भोगे हैं । इस समय तो मेरे पाँव ही खाये जा रहे हैं । सो इस उपसर्ग का जीतना कर्म के विनाश, मोक्ष की प्राप्ति तथा संसार कष्टों को नष्ट करने को ही कारण होगा । लोक में सत्पुरुषों पर कृपा और अनुग्रह करने के लिये अरहन्त आदि पंच परमेष्ठी ही समर्थ हैं, अन्य देवी-देवता समर्थ नहीं हो सकते । इस दुर्धर उपसर्ग में विजय ही लाभकारी है । इस प्रकार विचारवान लोग और किसी को शरण न समझ, निर्वाणदाता तपश्चरण और यम-नियमादि से नित्य शरण धर्म को ही रक्षक मान उपसर्गों को जीतते हैं । इस प्रकार अशरण भावना का चिन्तन किया । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंच परावर्तनमयी अनादि और अनन्त दु:खों का समुद्र अशुभ और भयंकर संसार है, जिसमें सत्पुरुष क्षणमात्र भी ठहरना नहीं चाहते क्योंकि यह संसार निन्दनीय है । अनादि काल से दुर्गतिपूर्ण संसार में भ्रमण करते हुए मैंने संसार के अन्य प्राणियों से अनेक वेदनायें सही हैं । यह जो मेरे पाँवों को यह स्यालनी और उसके पिल्ले खा रहे हैं, सो तो उन दु:खों और वेदनाओं के सामने कितना सा दु:ख है । इस दु:ख और वेदना का सहना तो मेरे कर्मों के नाशजनित सुख के लिये ही होगा । इस प्रकार सुकुमाल मुनिराज संसार की विचित्रता को विचारते हुए पर्वत के समान निश्चल हो उपसर्ग सहने लगे । इस प्रकार जो सुख के अर्थी होते हैं, वे दु:खों से भरे हुए संसार के स्वरूप को जानकर उससे उदास होते हैं और सुख की खान जो मोक्ष है, उसकी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय द्वारा साधना करते हैं । इस प्रकार सुकुमाल मुनिराज ने संसार भावना का चिन्तन किया । मैं अकेला हूँ, निर्मल हूँ, नित्य हूँ, जन्म-मृत्यु रहित हूँ, समस्त दु:खों से दूर हूँ, महान हूँ, अमूर्त हूँ और अनन्त गुणों का सागर हूँ । ये स्यालनियाँ इस भीरत से दुर्गन्धित शरीर को खाती हैं; मेरे अमूर्त आत्मा को तो खाती ही नहीं हैं; इसलिए कलुषता लाने की आवश्यकता ही नहीं है । इस प्रकार विद्वान लोग अपने आपको अकेला जानकर अर्थात् यह जीव मरता भी अकेला ही है तो जन्मता भी अकेला ही है, इसका कोई साथी नहीं है-यह निश्चय कर मुक्ति लाभ के लिये एकत्वभावना का चिन्तन करते हैं । इस प्रकार परम ध्यानी सुकुमाल स्वामी ने एकत्वभावना का चिन्तन किया । यह शरीर महान घृणा का स्थान है । आत्मा से पृथक है और सर्वथा क्षणभंगुर है । मन-वचन-काय, ये सब आत्मा से भिन्न हैं । ये स्यालनियाँ शरीर को खाती हैं; मैं तो शरीर से भिन्न हूँ । मुझे तो खाती ही नहीं, फिर चिन्ता और दु:ख भी क्या है? इस प्रकार तत्त्वज्ञाता बुद्धिमान् लोग शरीर से आत्मा को अन्य जान अपनी आत्मा का ही ध्यान करते हैं । आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न हैं । शरीर के कष्ट पर आत्मा दु:खी क्यों हो? इस प्रकार श्री सुकुमाल मुनि ने अन्यत्वभावना का चिन्तन किया । यह शरीर क्षुधा-तृषारूपी आग से जल रहा है । काम, क्रोध और रोगरूपी सर्प इसमें भरे हुए हैं । माँस, मज्ज, रुधिर आदि सप्त मलिन धातुओं से भरा हुआ । ऐसा यह शरीर विद्वानों द्वारा कभी प्रशंसनीय नहीं हो सकता । यह शरीर जेलखाने के समान अशुभ है, जिसे ही तो ये स्यालनियाँ खाकर मुझे इस जेलखाने से छुड़ाती हैं । सो यह तो मेरा लाभ हो रहा है, हानि नहीं । इस प्रकार भेदविज्ञानपूर्ण विचार से वे अत्यन्त धीर-वीर सुकुमाल स्वामी स्यालनियों द्वारा पाँवों के खाये जाने पर भी संक्लेश को प्राप्त न हो सके और ध्यान में लीन रहे । यह शरीर सम्पूर्ण अपवित्र पदार्थों का खजाना है, यह समझकर चतुर पुरुष अपने को तपश्चरण और संयम में लगाते हुए परम पवित्र मोक्ष की साधना करते हैं । इस प्रकार महामुनिराज ने अशुचित्व भावना का चिन्तवन किया । जिस प्रकार छिद्रसहित जहाज में बैठनेवाले समुद्र में डूब जाते हैं; उसी प्रकार मिथ्यात्वादि से उत्पन्न दुष्कर्मों के आस्रव आते रहने से यह जीव संसार-समुद्र में डूब जाता है । जिसने तप संयम, ध्यान और क्षमादि द्वारा कर्मों का आस्रव रोक लिया है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । संवर और निर्जरा भी होते हैं । यदि मैं इस उपसर्गजनित दु:ख से जरा सा भी अपना हृदय मलिन कर लेता हूँ, तो पापास्रव होता है और अनन्त संसार बढ़ता है, उस संसार में कवियों की वाणी के भी अगोचर तीव्रतर दु:ख भोगना पड़ता है, इस प्रकार विचारकर कल्याण के चाहनेवाले, महान कष्ट भोगते हुए भी विचलित नहीं होते । इस प्रकार आस्रव के महान दोषों को जानकर मन-वचन-काय को रोककर आस्रव को रोका करते हैं । इस प्रकार श्री सुकुमाल मुनिराज ने आस्रव भावना का चिन्तन किया । कर्मों के आस्रवों के रोकने का नाम ही गुणों का समुद्र संवर है । तपश्चरण, रतनत्रय और श्रेष्ठ ध्यान से महात्माओं के संवर होता है । यदि संवर के साथ थोड़ा भी सदाचरण और तप किया जाय तो उसका बड़ा भारी फल होता है । आगे आने वाले कर्मों के रोकने के उपाय के बिना कोरा तप लाभकारी नहीं होता । ऐसा दु:सह घोर उपसर्ग होने पर जो धीर-वीर होते हैं, वे एकाग्र मन तथा श्रेष्ठ ध्यान से कर्मों के आस्रव को रोकते हैं । संसार शत्रु का हर्ता और सम्पूर्ण अर्थसिद्धि का दाता ही यह संवर है - ऐसा समझकर जो अविचल रहते हैं, वे ही शिव लाभ प्राप्त करते हैं । इस प्रकार संवर से उत्पन्न होनेवाले गुणों को जानकर चतुर लोगों का कर्तव्य है कि मन-वचन-काय के निग्रह से संवर करें । इस प्रकार श्री सुकुमाल स्वामी ने संवर भावना का चिन्तन किया । निर्जरा दो प्रकार की होती है । एक सविपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जरा तो सभी के होती है और अविपाक निर्जरा योगीजनों के होती है । मुनियों द्वारा तपश्चरण से ही जो होती है, वह अविपाक निर्जरा है, वही गुणों की खान है और वही उपादेय है । सविपाक निर्जरा कर्म से ही उत्पन्न होती है और कर्म बन्धन भी करती है, यदि वह भी संवर के साथ होती है तो मुक्ति के लिये होती है । कर्मविपाक से सविपाक निर्जरा स्वयं होती रहती है, जो अत्यन्त भाग्योदय से पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश करनेवाली होती है । परीषह का जीतना ही सर्व-अर्थसिद्धि का प्रदाता है; इसलिए कर्मों की निर्जरा के चाहनेवालों को परीषह उपसर्ग आने पर भी सुमेरु के समान निश्चल होना चाहिए । यह जानकर मुक्ति और श्रेष्ठ गुणों की माता सारभूत निर्जरा को चतुर लोग तपश्चरण के द्वारा मुक्ति के लिये करते हैं । इस प्रकार श्री सुकुमाल स्वामी ने निर्जरा भावना का चिन्तन किया । अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । ऐसे लोक तीन प्रकार का है, जो शाश्वत (नित्य) और अकृत्रिम है । इन तीन लोकों में दु:ख और सुख दोनों हैं । अधोलोक में निरन्तर दु:ख ही दु:ख है, वहाँ सुख का लेश भी नहीं है । मध्यलोक में कहीं सुख है तो कहीं दु:ख है । ऊर्ध्वलोक में जो स्वर्ग विमानादि हैं, उनमें सदा ही सुख रहता है । ऊर्ध्वलोक के भी ऊपर जो शिवालय (मोक्ष) है, वहाँ तो अनन्त सुख है । वहाँ के सुख की कोई सीमा ही नहीं । यदि वास्तव में देखा जाय तो मोक्ष को छोड़कर यह समस्त लोक ही दु:ख का पात्र है । इसलिए ज्ञानीजन इस लोक से अलग होकर मोक्षलाभ करना चाहते हैं । मैंने अधोलोक (नरकालयों) में तथा तिर्यंच गतियों में कितने मारण, ताड़न, छेदना, भेदनादि दु:ख सहे हैं? इस प्रकार विचार कर वे सुकुमाल स्वामी उस घोर उपसर्ग में भी व्याकुलतारहित हो स्थिरचित्त और निश्चल रहे । इस प्रकार आगम से दु:ख और सुख से युक्त लोक के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान लोग यम, नियम, तप, संयमादि द्वारा मोक्ष की साधना करते हैं । इस प्रकार सुकुमाल मुनिराज ने लोकभावना का चिन्तन किया । संसार वन में भ्रमते-भ्रमते इस जीव को अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय बड़ी ही कठिनता से मिलती है । मनुष्य पर्याय भी मिल जाय तो आर्यखण्ड का मिलना बड़ा कठिन है । आर्यखण्ड मिल जाने पर भी उत्तम कुल का मिलना कठिन है । उत्तम कुल मिल जाने पर दीर्घायु का प्राप्त होना महान कठिन है । दीर्घायु मिल जाने पर भी निर्मल बुद्धि का मिलना कठिन है । निर्मल बुद्धि भी मिल जाय तो पाँचों इन्द्रियों को सारी सामग्री का मिलना कठिन है । वह भी मिल जाय तो कषाय हीनता कठिन है । ये सब भी मिल जाय तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की प्राप्ति महान दुर्लभ है । यह भी मिल जाय तो श्रेष्ठ वीतराग हितोपदेशी गुरु का लाभ और सेवा महान दुर्लभ है । ये सब चीजें अत्यन्त दुर्लभ हैं । इन सबको जो प्राप्त कर शिवलक्ष्मीरूप जो बोधि है, उसे सिद्ध करते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । इन सब साधनों को प्राप्त होकर भी जो मोक्षसाधना में प्रमाद करते हैं, वे मूर्ख संसाररूप वन में ही सदा रुलते और भ्रमते रहते हैं । यदि मैं इस स्यालनीकृत उपसर्ग से रंचमात्र भी विचलित हो गया तो मेरा संसार और भी दीर्घ होकर बढ़ जाएगा । इसी विचार से सुकुमाल मुनिराज उस घोर उपसर्ग में भी निश्चल ही रहे । अन्य भव्य जीवों का भी कर्तव्य है कि मनुष्यभव तथा सम्यग्दर्शनादि मोक्षसाधक समस्त योग्य सामग्री को प्राप्त कर स्वात्मानुभवरूप तप, संयमादि द्वारा निर्वाण की साधना करें । इस प्रकार परम ध्यानी महामुनिराज श्री सुकुमालस्वामी ने बोधिदुर्लभ भावना का चिन्तन किया । अपार संसार के दु:खों से निकालकर जो प्राणियों को आदर्श श्रेष्ठ शिवसुख में धर दे, उसी का नाम धर्म है । इस धर्म के उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य । ऐसे दश भेद हैं । धर्म के ये दश ही कारण भी हैं । इन क्षमादि दश लक्षणों से ही मोक्षदायक आदर्श धर्म होता है । यही धर्म संयमियों द्वारा मान्य है । तीन लोक में जो भी कोई सुन्दर द्रव्य और इष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह सब धर्म जनित है । समस्त प्रकार की विभूतियों, पदों और सुखों की प्राप्ति धर्म का ही फल प्रसाद है । यदि इस परीषह में मेरा हृदय क्षमा को छोड़कर रंचमात्र विकार को भी प्राप्त हो जाता है तो मेरे क्षमा धर्म कहाँ रहा? यह विचारकर श्री सुकुमाल महाराज ने उन स्यालनियों पर क्षमा करते हुए रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया और निज क्षमास्वभावी आत्मा में चित्त को एकाग्र किया । बुद्धिमान लोगों का कर्तव्य है कि इस प्रकार धर्म के फल को जानकर उत्तम क्षमादि दशविध लक्षणों से एक धर्म की ही साधना करें । इस प्रकार सुमेरु के समान अचल परमयोगी श्री सुकुमाल स्वामी ने धर्म भावना का चिन्तन किया । इस प्रकार इन अनित्य, अशरणादि बारह भावनाओं को जो भाते हैं, चिन्तन करते हैं, उनका राग-द्वेषरूपी शत्रु नष्ट हो जाता है और उनके संवेगभाव की वृद्धि होती है । इस प्रकार विचारकर बुद्धिमान पुरुषों का कर्तव्य है कि पाप के नाश के लिये अनन्त गुणों की जननी इन बारह भावनाओं को भावे । इस प्रकार इन बारह भावनाओं के चिन्तन और ध्यान से श्री सुकुमाल स्वामी के हृदय में वैराग्य भाव और भी महान दृढ़तम हो गया । उन्होंने अपनी आत्मा को शरीर से सर्वथा भिन्न जानकर निर्विकल्प चित्त से परम धीर वीरता के साथ उत्कृष्ट आत्मध्यान किया । उस अपनी आत्मा के ध्यान से स्यालनी द्वारा दी हुई वेदना को न उन्होंने जाना और न उनको चित्त में खेद ही हुआ । श्री सुकुमाल स्वामी स्यालनी द्वारा दी हुई महान् बाधा और पीड़ा को धीरता और दृढ़ता से जीतकर घोर उपसर्ग में भी चलायमान नहीं हुए और वज्र के समान अभेद्य और अचल ही बने रहे । उस पापिनी स्यालनी ने अपनी पिल्ली के साथ-साथ श्री सुकुमाल स्वामी के दोनों घुटनों तक पाँव खा डाले और दूसरे दिन थोड़ा-थोड़ा करके दोनों जाँघें खा डालीं और तीसरे दिन आधीरात के समय तक अपने बल से पेट को चीर फाड़कर खा डाला । शरीर के अन्दर जो आँतें थीं, उनको भी मुँह से खींचकर धीरे-धीरे खाना प्रारम्भ कर दिया । श्री सुकुमाल स्वामी का उत्तम प्रकार से चारों आराधनाओं का ध्यान करते-करते प्राणान्त का समय आ गया और धर्मध्यान तथा समाधिपूर्वक यत्न से श्री सुकुमाल स्वामी ने अपने प्राण विसर्जित किये । अपनी महान योग शक्ति से बहुत पापकर्मों को नष्ट कर परम पुण्य के बल से मुक्तिरानी की सखीस्वरूप, मनोहर, सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि को देनेवाली सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्गभूमि श्री सुकुमाल मुनिराज ने प्राप्त किया । इस प्रकार पुण्य बल से अनुपम विभूति सम्पदा को श्री सुकुमालजी ने भोगकर संसार के भोगों में राग क्षीण हो जाने से विधिपूर्वक जिनदीक्षा ले, पशुओं द्वारा किये हुए घोरातिघोर उपसर्गों को सहन कर सर्वार्थसिद्धि नामक स्वर्गभूमि प्राप्त किया । श्रेष्ठ पुरुषों का भी कर्तव्य है कि अपने कल्याण के लिये वे भी धर्मसाधन और उपसर्ग परीषहों के जीतने में धैर्य-धारण करें । बहिरंग अन्तरंग इस प्रकार समस्त प्रकार के परिग्रह के रहित हो, श्रेष्ठमार्ग के सन्मुख हो जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सेवन करते हैं, वे संसार-समुद्र के पारगामी हो जाते हैं । वे ही धीर-वीर समस्त परीषहों पर विजय प्राप्त कर तीन लोक में पूजित हो जाते हैं, उन सुकुमाल स्वामी आदि समस्त मुनिराजों का मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिये स्तवन वन्दन करता हूँ । |